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Tuesday, March 29, 2011

लीला सैमसन हो सकती हैं सेंसर बोर्ड की अगली अध्यक्ष

हफ्तों तक चली कोशिशों के बाद भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय किसी भी फिल्मी हस्ती को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष बनने के लिए राजी नहीं कर सका। बोर्ड की मौजूदा अध्यक्ष शर्मिला टैगौर का कार्यकाल ३१ मार्च को समाप्त हो रहा है और सूत्रों के मुताबिक संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली की अध्यक्ष लीला सैमसन का नाम बोर्ड की अगली अध्यक्ष के तौर पर तय हो गया है। हालांकि, इसकी आधिकारिक घोषणा अभी बाकी है। सेंसर बोर्ड का नया अध्यक्ष तलाशने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय पिछले कई दिनों से हिंदी फिल्म उद्योग के कुछ लोगों से लगातार संपर्क कर रहा था। सूत्रों के मुताबिक इस पद के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की पहली पसंद फिल्म अभिनेत्री और पूर्व सांसद शबाना आजमी थीं। शबाना के पति जावेद अख्तर इन दिनों राज्यसभा के सदस्य हैं और इसके चलते ही शबाना ने और राजनीतिक अनुग्रह से बचने के लिए इस पद की जिम्मेदारियां संभालने से इंकार कर दिया। इसके बाद इस पद के लिए फिल्म निर्देशकों रमेश सिप्पी, गोविंद निहलानी और सईद मिर्जा का भी मन टटोला गया। मंत्रालय के अफसरों ने रमेश सिप्पी को अध्यक्ष बनाने के लिए खास कोशिशें की, लेकिन फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल रहे सिप्पी ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद को अपनी मौजूदा जिम्मेदारी से टकराव मानते हुए इसके लिए मना कर दिया। बीच में फिल्म अभिनेत्री रवीना टंडन के नाम की चर्चा भी सेंसर बोर्ड के मुंबई कार्यालय में जोरों पर रही। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर किसी गैर फिल्मी शख्सियत की तैनाती हाल के दिनों में कोई ११ साल पहले हुई थी, जब भाजपा नेता बी.पी. सिंघल को ये पद सौंपा गया था। फिल्म जगत में ये आम धारणा बन चुकी है कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पर अब राजनीतिक दबाव काफी ज्यादा रहता है जिसके चलते कई बार इस पद पर बैठे शख्स को अपनी ही बिरादरी के लोगों के गुस्से का शिकार बनना पड़ता है।

निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म राजनीति और निर्देशक सुधीर मिश्रा की फिल्म ये साली जिंदगी को लेकर हाल के दिनों में सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का पद काफी विवादों में घिरा रहा है। संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली की अध्यक्ष लीला सैमसन को १९८२ में संस्कृति पुरस्कार, १९९० में पद्मश्री पुरस्कार और २००० में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। पिछले साल ही अपनी गुरु रुक्मिणी देवी के जीवन पर लिखी उनकी एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,29.3.11)।

Thursday, March 24, 2011

नहीं रहीं लिज टेलर

अपनी मादक खूबसूरती, अत्याधुनिक रफ्तार भरी जीवन शैली और बिंदास बातों के लिए मशहूर हॉलीवुड के इतिहास की सबसे आकर्षक अभिनेत्री लिज टेलर का बुधवार को हृदयगति रुकने से निधन हो गया। वह 79 वर्ष की थीं। अस्वस्थ होने के कारण वह पिछले दो महीनों से लॉस एंजिलिस के सीडार्स-सिनाई अस्पताल में भर्ती थीं। जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब उनके चारों बच्चे उनके पास थे। उनके दस नाती-पोते और चार पड़-नाती, पड़-पोते भी हैं। उनकी प्रवक्ता सैली मॉरीसन के हवाले से सीएनएन ऑनलाइन ने कहा कि लिज गंभीर रूप से बीमार थीं, फिर भी उन्हें विश्वास था कि वह स्वस्थ हो कर घर लौट जाएंगी। हॉलीवुड में उनकी शोहरत की मिसालें दी जाती है। माना जाता है कि नीली आंखों वाली लिज ने जितनी शोहरत अपने जीवन काल में पाई, वह किसी शख्स को आज तक हासिल नहीं हुई। उनकी खूबसूरती, उनका अभिनय और उनकी निजी जिंदगी हमेशा चर्चा का विषय रही। पूरी दुनिया में उन्हें चाहने वाले मौजूद हैं। अपनी आठ शादियों के अतिरिक्त पॉप संगीत के दिवंगत बादशाह माइकल जैक्सन के साथ उनकी मित्रता ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। उनकी बिंदास जीवन शैली ने अगर असंख्य दिल जीते, तो जाने कितने दिल तोड़े भी। अभिनेता रिचर्ड बर्टन के साथ उनके प्रेम और विवाह ने खूब चर्चा पाई। बर्टन से लिज ने दो बार शादी की और दो बार तलाक लिया। हॉलीवुड की फिल्म और टेबुलायड पत्रकारिता को ग्लैमरस बनाने में उनके जीवन से पांचवें और छठे दशक में जुड़े स्कैंडलों का का बड़ा योगदान रहा। एलिजाबेथ टेलर का निधन हॉलीवुड सिनेमा के एक युग का अंत है।
पूरा नाम : डेम एलिजाबेथ रोजमंड टेलर। वह लिज टेलर के नाम से लोकप्रिय हुईं। 
बाल कलाकार : लिज की मां रंगमंच की अभिनेत्री थीं। लिज ने बाल कलाकार के रूप में फिल्मी दुनिया में कदम रखा। मात्र नौ साल की उम्र में पहली फिल्म देयर इज वन बॉर्न एवरी मिनट की। निर्माता कंपनी, यूनिवर्सल पिक्चर्स ने उनका आगे का अनुबंध रद कर दिया और कहा कि नन्हीं लिज को न नाच आता है, न गाना और न अभिनय। 
पहली सफलता : फिल्म नायिका के रूप में उन्हें पहली सफलता अ प्लेस इन द सन (1951) में मिली। उस वक्त उनकी उम्र 21 वर्ष थी। 
ऑस्कर : लिज को तीन ऑस्कर अवार्ड मिले। बटरफील्ड 8 (1960) और हू इज अफ्रेड ऑफ वर्जीनिया वूल्फ (1966) फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए। उन्हें तीसरा ऑस्कर मानवता की सेवा के कार्यो के लिए 1993 में दिया गया। 
प्रमुख फिल्में : पांचवे दशक में वह हॉलीवुड की सबसे बड़ी शख्सीयत के रूप में उभरीं। उनकी प्रमुख फिल्में हैं-फादर ऑफ द ब्राइड, अ प्लेस इन द सन, बटरफील्ड 8, रेन ट्री कंट्री, हू इज अफ्रेड ऑफ वर्जीनिया वूल्फ, कैट ऑन द हॉट रूफ टिन, सडनली लास्ट समर, द अपार्टमेंट, क्लियोपेट्रा। 
सबसे पहले 10 लाख : टेलर हॉलीवुड की पहली अभिनेत्री थीं, जिन्होंने फिल्म के लिए 10 लाख डॉलर की फीस प्राप्त की। 1960 में उन्होंने ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स कंपनी से फिल्म क्लियोपेट्रा के लिए यह रकम ली। फिल्म तीन साल में बनकर पूरी हुई। करीब साढ़ चार करोड़ डॉलर में अपनी अपने समय की यह सबसे महंगी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। 
शादियां और संतानें : एलिजाबेथ टेलर की ख्याति आठ शादियों के लिए भी है। उनके सात पति थे। अभिनेता रिचर्ड बर्टन से उन्होंने दो बार शादी की। उनके दो बेटे और दो बेटियां हुई(दैनिक जागरण,24.3.11)।

Monday, March 14, 2011

आलम आरा के 80 साल

भारतीय सिनेमा के लिए वह दिन बहुत खास था। दर्शक रुपहले परदे पर कलाकारों को बोलते हुए देखने को आकुल थे। हर तरफ चर्चा थी कि परदे पर कैसे कोई कलाकार बोलते हुए दिखाई देगा। आखिरकार 14 मार्च 1931 को वह ऐतिहासिक दिन आया, जब बंबई (अब मुंबई) के मैजिस्टक सिनेमा में आलम-आरा के रूप में देश की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई। उस समय दर्शकों में इसे लेकर काफी कौतूहल रहा था। फिल्म में अभिनेत्री जुबैदा के अलावा पृथ्वी राज कपूर, मास्टर विट्ठल, जगदीश सेठी और एलवी प्रसाद प्रमुख कलाकार थे, जिन्हें लोग पहले परदे पर कलाकारी करते हुए देख चुके थे, लेकिन पहली बार परदे पर उनकी आवाज सुनने की चाह सभी में थी। दादा साहेब फाल्के ने अगर भारत में मूक सिनेमा की नींव रखी तो अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्मों का नया युग शुरू किया। हालांकि इससे पूर्व कोलकाता तब कलकत्ता की फिल्म कंपनी मादन थिएटर्स ने चार फरवरी 1931 को एंपायर सिनेमा (मुंबई) में दो लघु फिल्में दिखाई थी, लेकिन इस फिल्म में कहानी को छोड़कर नृत्य और संगीत के दृश्य थे। इसलिए आलम-आरा को देश की पहली फीचर फिल्म कहा जाता है। चार साल पहले 25 मई 1927 को अमेरिका में दुनिया की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई थी। वार्नर ब्रदर्स ने द जॉज सिंगर के नाम से बोलती फिल्मों का इतिहास शुरू किया। यह फिल्म भी उस समय बहुत चर्चित रही और इसके बाद तो कई और कंपनियां बोलती फिल्मों के निर्माण में जुट गई। हालांकि मूक फिल्मों के सुपर स्टार चार्ली-चैपलिन को फिल्मों में आवाज डालने की परंपरा रास नहीं आई, इसे वह अभिनय में बाधक मानते थे। विश्व स्तर पर मूवी और टॉकी फिल्मों को लेकर जबर्दस्त बहस शुरू हो गई थी। जबकि भारत में इस नवीन प्रयोग को हाथों-हाथ लिया गया और एक के बाद एक फिल्में बनने लगीं। बोलती फिल्मों का युग शुरू होने से पूर्व मूक फिल्मों को मूवी कहा जाता था, क्योंकि इसमें कलाकार सिर्फ हिलते-डुलते थे। और जब बोलती फिल्मों का युग आया तो वह टॉकी के रूप में परिवर्तित हो गया। मूक फिल्मों की शुरुआत करने वाले दादा साहेब को भी अपनी मूक फिल्म सेतुबंध को बोलती फिल्म में तब्दील करना पड़ा था। इस स्तर से सेतुबंध भारत की पहली डब फिल्म बन गई। तब डब कराने में 40 हजार रुपये खर्च आया था। उस समय बोलती फिल्मों को बनाना आसान काम नहीं था। आज की तरह ढेरों सुविधाएं भी नहीं थीं। सवाक फिल्मों के आगमन से कई नई चीजें जुड़ीं तो कुछ चीजों का महत्व खत्म हो गया। मूक फिल्मों में कैमरे का कमाल होता था, लेकिन बाद में माइक्रोफोन के कारण इसकी आजादी पर अंकुश लग गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि तब स्टूडियो में गानों की रिकार्डिग नहीं होती थी और शूटिंग स्थलों पर ही संवाद के साथ-साथ गाने भी रिकॉर्ड किए जाते थे। गानों की रिकार्डिग के लिए संगीतकार अपनी पूरी टीम के साथ शूटिंग स्थल पर मौजूद रहते थे। कलाकार खुद अपना गाना गाते थे और साजिंदों को वहीं आसपास पेड़ के पीछे या झोपड़ी अदि में छिपकर बाजा बजाना पड़ता था। कभी-कभी तो उन्हें पानी में रहकर या पेड़ पर बैठकर बजाना पड़ता था। इस दौरान किसी से भी छोटी गलती हो जाने पर शूटिंग दोबारा करनी पड़ती थी। आलम-आरा में सात गाने थे। फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत दे दे खुदा के नाम पर.. वजीर मोहम्मद खान (डब्ल्यूएम खान) ने गाया था। हालांकि खान साहब इन फिल्म के मुख्य नायक नहीं थे, लेकिन उन्होंने इतिहास रचा और भारतीय सिनेमा जगत के पहले गायक बन गए। खान साहब इस फिल्म में एक फकीर की भूमिका में थे। बदला दिलवाएगा या रब.. गाने से अभिनेत्री जुबैदा भारत की पहली फिल्मी गायिका बनीं। फिल्म में संगीत दिया था फिरोज शाह मिस्त्री और बी ईरानी ने। इस फिल्म में संगीत के लिए महज तीन वाद्ययंत्रों का ही प्रयोग किया गया था। अपनी संवाद अदायगी के लिए पहचाने जाने वाले पृथ्वी राज कपूर की आवाज को तब फिल्मी समीक्षकों ने नकार दिया था। यह फिल्म उस समय चर्चित एक पारसी नाटक पर आधारित थी। एक राजकुमार और बंजारन लड़की के बीच प्रेम संबंधों पर आधारित इस फिल्म के लेखक जोसेफ डेविड थे, जो 124 मिनट लंबी थी। आलम-आरा फिल्म से सबसे चर्चित हस्ती में पृथ्वी राज कपूर का नाम आता है, जिन्होंने नौ मूक फिल्मों में काम करने के बाद बोलती फिल्म में काम किया था। फिल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए 1971 में दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। फिल्म की नायिका जुबैदा ने बोलती फिल्मों में आने से पहले गैर बोलती फिल्मों में भी काम किया था। उन्होंने काला नाग (1924), पृथ्वी वल्लभ (1924), बलिदान (1927) और नादान भोजाई (1927) जैसी कई मूक फिल्मों में काम किया। शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर 1936 में बनी पहली हिंदी फिल्म में पारो की भूमिका उन्होंने ही निभाई थी। इस फिल्म से अभिनेता के रूप में करियर की शुरुआत करने वाले एलवी प्रसाद आगे चलकर हिंदी और तेलुगु फिल्मों के मशहूर निर्माता-निर्देशक बने। उनकी निर्देशित कुछ चर्चित हिंदी फिल्में शारदा (1957), छोटी बहन (1959) और जीने की राह (1969) है। बतौर निर्माता हमराही (1963), मिलन (1967), खिलौना (1970) और एक दूजे के लिए (1981) उनकी कुछ यादगार फिल्में हैं। प्रसाद को 1982 में भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। कई नायाब सितारे देने वाली यह फिल्म आज अपने अस्तित्व में नहीं है। दुर्भाग्य से आठ साल पहले 2003 में पुणे की राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में लगी आग से आलम-आरा फिल्म के नामोनिशान खाक हो गए। आलम-आरा ही नहीं, भारतीय सिनेमा की और भी कई अमूल्य धरोहर इसमें स्वाहा हो गई। इस अग्निकांड के बाद पूरे देश में इसके प्रिंट की खोज की गई, लेकिन सफलता नहीं मिली। फिल्म ही नहीं, इसके गाने भी उसी आग में नष्ट हो गए। उस समय फिल्मी गानों को ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार करवाने की शुरुआत नहीं हुई थी, इसलिए उसे अलग से संरक्षित भी नहीं किया जा सका। आज इस फिल्म को रिलीज हुए 80 साल बीत चुके हैं। हमारा भारतीय सिनेमा कहां से कहां तक पहुंच गया है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम फिल्मी इतिहास के शुरुआती पन्ने ही बचाकर नहीं रख सके। हालांकि इस फिल्म के कुछ फोटो जरूर बचे हुए हैं, जिसे देखकर हम संतोष कर सकते हैं(सुरेन्द्र कुमार वर्मा,दैनिक जागरण,14.3.11)।

Wednesday, March 9, 2011

हिन्दी फिल्मों की पहली ड्रीमगर्ल थीं देविका रानी

भारतीय सिनेमा जगत में अपनी दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली अभिनेत्री देविका रानी को आज कोई याद भी नहीं करता। देविका रानी का जन्म 30 मार्च 1908 को आंध्रप्रदेश के वाल्टेयर नगर में हुआ था। उनके पिता कर्नल एमएन चौधरी ऊंचे बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे जिन्हें बाद में भारत के प्रथम सर्जन जनरल बनने का गौरव प्राप्त हुआ। नौ वर्ष की उम्र में देविका रानी शिक्षा ग्रहण करने के लिए इंग्लैंड चली गई। पढ़ाई पूरी करने के बाद देविका रानी ने निश्चय किया कि वह फिल्मों में अभिनय करेगी लेकिन परिवार वाले इस बात के सख्त खिलाफ थे क्योंकि उन दिनों संभ्रान्त परिवार की लड़कियों को फिल्मों में काम नहीं करने दिया जाता था। इंग्लैंड में कुछ वर्ष रहकर देविका रानी ने रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट में अभिनय की विधिवत पढ़ाई की। इस बीच उनकी मुलाकात सुप्रसिद्ध निर्माता हिमांशु राय से हुई। हिमांशु राय मैथ्यू अर्नाल्ड की कविता लाइट ऑफ एशिया के आधार पर इसी नाम से एक फिल्म बनाकर अपनी पहचान बना चुके थे। हिमांशु राय देविका रानी की सुंदरता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने देविका रानी को अपनी फिल्म "कर्मा" में काम देने की पेशकश की जिसे देविका ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह वह समय था जब मूक फिल्मों के निर्माण का दौर समाप्त हो रहा था और रुपहले पर्दे पर कलाकार बोलते नजर आ रहे थे। हिमांशु राय ने जब वर्ष 1933 में फिल्म कर्मा का निर्माण किया तो उन्होंने नायक की भूमिका स्वयं निभायी और अभिनेत्री के रूप में देविका रानी का चुनाव किया। फिल्म देविका रानी ने हिमांशु राय के साथ लगभग चार मिनट तक "लिप टू लिप" दृश्य देकर उस समय के समाज को अंचभित कर दिया। इसके लिए देविका रानी की काफी आलोचना भी हुई और फिल्म को प्रतिबंधित भी किया गया। इसके बाद हिमांशु राय ने देविका रानी से शादी कर ली और मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर बांबे टॉकीज बैनर की स्थापना की और फिल्म जवानी की हवा का निर्माण किया। वर्ष 1935 में प्रदर्शित देविका रानी अभिनीत यह फिल्म सफल रही। बाद में देविका रानी ने बांबे टॉकीज के बैनर तले बनी कई फिल्मों में अभिनय किया। इन फिल्मों में से एक फिल्म थी अछूत कन्या। वर्ष 1936 में प्रदर्शित "अछूत कन्या" में देविका रानी ने ग्रामीण बाला की मोहक छवि को रुपहले पर्दे पर साकार किया। फिल्म "अछूत कन्या" में अपने अभिनय से देविका ने दर्शकों को अपना दीवाना बना दिया। फिल्म में अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार मे थे जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म काफी पसंद की गई और इस फिल्म के बाद देविका रानी फिल्म इंडस्ट्री में "ड्रीम गर्ल" के नाम से मशहूर हो गई। "अछूत कन्या" के प्रदर्शन के बाद देविका रानी "फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन" यानी भारतीय रजत पट की पहली पटरानी की उपाधि से सम्मानित किया गया। ड्रीम गर्ल और पटरानी जैसे सम्मान प्राप्त होने से देविका रानी के बारे में यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस दौर में वह कितनी लोकप्रिय रही होंगी। फिल्म अछूत कन्या के देविका रानी ने अशोक कुमार के साथ कई फिल्मों में अभिनय किया। इन फिल्मों में वर्ष 1937 मे प्रदर्शित फिल्म "इज्जत" के अलावा फिल्म "सावित्री" (1938) और "निर्मला" (1938) जैसी फिल्में शामिल है। वर्ष 1945 में देविका रानी बांबे टॉकीज से अलग हो गई। पति की मौत और बांबे टॉकीज को छोड़ने के बाद देविका रानी लगभग टूट सी गई थी। इस बीच उनकी मुलाकात रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाब रोरिक से हुई। बाद में देविका रानी ने उनसे विवाह कर लिया और फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया। फिल्म इंडस्ट्री में उत्कृष्ट योगदान देने के लिये भारत सरकार ने जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार की शुरुआत की तो इसकी सर्वप्रथम विजेता देविका रानी बनीं। इसके अलावा देविका रानी फिल्म इंडस्ट्री की प्रथम महिला बनी जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया। अपने दिलकश अभिनय से दर्शकों के दिलो पर राज करने वाली देविका रानी 9 मार्च 1994 को इस दुनिया को अलविदा कह गईं(राष्ट्रीय सहारा,9.3.11)।