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Wednesday, December 26, 2012

2012: टूटे फॉर्मूले,दिखीं नई कहानियां

'जब तक है जान' में नायक लंदन में छोटे मोटे काम कर गुजारा कर रहा है। एक कमरे के फ्लैट में उसका रूम पार्टनर पाकिस्तानी है। दोनों एक साथ रहते ही नहीं, एक दूसरे की चीजें भी शेयर करते हैं। उसके खर्चे भी आमतौर पर नायक ही उठाता है। इतना ही नहीं, नायक जब हिंदुस्तान वापसी का कार्यक्रम तय करता है तो अपनी सारी जमा-पूंजी उसे देकर चला आता है कि इससे अपना व्यवसाय शुरू कर लेना। इस वर्ष 'जब तक है जान' दूसरी फिल्म थी जिसमें पाकिस्तान के संदर्भ आए थे। इसके पहले 'एक था टाइगर' में भी पाकिस्तान का उल्लेख खुल कर था, जिसके चलते पाकिस्तान में इसे बैन झेलना पड़ा। इस फिल्म की कहानी हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि में थी, जिसमें रॉ और आईएसआई की गतिविधियों का उल्लेख था, लेकिन फिल्म सौहार्द्र के संदेश के साथ खत्म होती थी। हिंदी सिनेमा के लिए यह एक नई बात मानी जा सकती है। 

एडल्ट नहीं, मैच्योर 
हिंदी सिनेमा में पाकिस्तान का उल्लेख आना कोई नई बात नहीं। पहले की फिल्मों को भूल भी जाएं तो, 'दीवार' और 'गदर' जैसी फिल्मों को भूलना संभव नहीं, जहां पाकिस्तान का मतलब ही दुश्मनी था। अब जैसे-जैसे आतंकी गतिविधियां कम होती जा रही हैं, आपसी संबंधों पर जमी बर्फ का पिघलाव राजनयिक ही नहीं, आम नागरिक के स्तर पर भी शुरू हो गया है। आश्चर्य नहीं कि परदे पर आपसी सौहार्द्र के संकेत हमें अच्छे लगने लगे हैं। लेकिन 2012 का हिंदी सिनेमा सिर्फ इस बदलाव के लिए नहीं याद किया जाएगा। तकनीकी और विषयगत बदलाव की जो कोशिशें हिंदी सिनेमा में बीते दशक से चली आ रही थी, वे इस वर्ष कई महत्वपूर्ण फिल्मों के रूप में परदे पर साकार होते दिखीं। परदे पर नग्नता दिखाने का हुनर यहां पहले ही सीख लिया गया था। इस वर्ष जब 'विकी डोनर' आई तो लगा कि हिंदी सिनेमा वाकई वयस्क समझ के साथ वयस्क विषय पर हस्तक्षेप कर सकता है।

दर्शक का बदलता मिजाज 
स्पर्म डोनेशन जैसे गंभीर विषय पर खास दर्शकों के लिए खास फिल्म की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन इस विषय को आम दर्शकों के बीच स्वीकार्य बनाना चुनौती का काम था, जिसे हिंदी सिनेमा ने इस वर्ष संपन्न किया। 2012 में हिंदी सिनेमा ने नायक-नायिका की अनिवार्यता से भी मुक्ति पाने का प्रयास किया। इस वर्ष 'कहानी' और 'हीरोइन' जैसी बगैर नायकों वाली फिल्में आईं तो 'फरारी की सवारी' और 'ओह माई गॉड' जैसी बगैर नायिकाओं वाली फिल्में भी आईं। श्रीदेवी जैसी लंबे समय तक ऑफ स्क्रीन रही प्रौढ़ नायिका की सफल वापसी हिंदी सिनेमा में आ रहे बदलाव का सूचक बनी। 'इंग्लिश-विंग्लिश' में उन्होंने एक भारतीय घरेलू महिला का किरदार निभाया, जिसे अपने परिवार के साथ इंग्लैंड जाना होता है। वहां अपने आपको साबित करने के लिए यह महिला अंग्रेजी सीखती है। बगैर किसी स्टार कास्ट के बनी इस सीधी पारिवारिक सी फिल्म की सफलता और 'जोकर' जैसी बिग बजट फिल्म की घनघोर असफलता ने हिंदी सिनेमा दर्शकों के बदलते स्वभाव को रेखांकित किया कि अब उनके लिए कहानी और प्रस्तुति महत्वपूर्ण है, मात्र अचंभित कर उसकी जेब से पैसे नहीं निकलवाए जा सकते। 

शायद दर्शकों की बदलती सोच ने ही निर्माता-निर्देशकों को हिम्मत दी कि कहानी की तलाश में वे वास्तविक घटनाओं के फिल्मांकन के लिए बेचैन दिखे। 'पान सिंह तोमर' से लेकर 'तलाश' तक कई फिल्में सच घटनाओं के फिल्मांकन के दावे के साथ आईं। 'शंघाई' और 'चक्रव्यूह' सच को कहानी के चमकदार आवरण में ढक कर लाईं, तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' ने सच को अपने रूखे रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की। टीआरपी के दबाव में टीवी समाचार जैसे-जैसे मनोरंजन के करीब होते गए, सिनेमा वैसे-वैसे समाचारों के नजदीक होता चला गया। 'शंघाई' ने सेज जैसे मुद्दे की पड़ताल की तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' में माफियाओं के संघर्ष के बहाने कोयला खदान इलाकों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति का जायजा लिया गया। सिनेमा पर समाचारों का दबाव इस कदर दिखा कि 'चक्रव्यूह' जैसी कहानी कहती फिल्म में भी स्थान और पात्रों के नाम को वास्तविक पुट देने की कोशिश की गई। 

सच को सच की तरह कहने की हिम्मत ही थी कि 2012 में साल भर के अंदर दूसरी बार आजादी के आंदोलन के ऐतिहासिक पृष्ठ 'चित्तगांव' को परदे पर साकार किया गया। चित्तगांव की चिंगारी पहली बार जहां 'खेलेंगे हम जी जान से' में अभिषेक बच्चन और दीपिका पादुकोण के ग्लैमर के नीचे दबी-दबी सी थी, वहीं दूसरी बार यह मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन के साथ पूरी ऐतिहासिकता के साथ आई। मल्टीप्लेक्स कल्चर ने फिल्मकारों के बीच यह समझ विकसित की कि यदि लक्ष्य 100 करोड़ न हो तो हरेक जोनर की फिल्म को एक दर्शक वर्ग मिल सकता है और उसके खर्च की भरपाई हो सकती है, बशर्ते फिल्म ईमानदारी से बनाई गई हो। 

बरफी और पान सिंह तोमर 
आश्चर्य नहीं कि जितनी विविधता हिंदी सिनेमा में इस वर्ष दिखी, उतनी शायद पहले कभी नहीं दिखाई दी थी। हालांकि महेश भट्ट और एकता कपूर जैसे फिल्मकारों को इससे यह हौसला भी मिला कि वे 10 करोड़ में नग्नता परोस कर 60 करोड़ कमा सकें और यह दावा कर सकें कि हिंदी दर्शकों को सेक्स ही पसंद है। वास्तव में इस वर्ष दर्शकों ने फिल्मकारों को अपने पसंद की फिल्म बनाने की हिम्मत दी। उपभोक्तावाद के लिए बदनाम इस समय में कोई फिल्मकार गूंगे-बहरे लड़के और मानसिक रूप से कमजोर लड़की की प्रेम कहानी बनाने की हिम्मत आखिर कैसे जुटा सकता है? लेकिन 2012 में हिंदी सिनेमा में आए बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक यह है कि 'बरफी' बनती ही नहीं, दर्शकों द्वारा जमकर पसंद भी की जाती है। संभव है, हिंदी सिनेमा में सन 2012 को कुछ सौ करोड़िया फिल्मों के लिए याद न भी किया जाए, लेकिन बरफी जैसी कल्पनाशीलता और पान सिंह तोमर जैसी वास्तविकता के लिए इसे जरूर याद रखा जाएगा(विनोद अनुपम,नभाटा,25.12.12)।

Wednesday, December 12, 2012

नीला आसमां सो गया....



 " है रूप में वो खटक, वो रस, वो झंकार
                 कलियों के चटकते वक्त जैसे गुलजार
या नूर की उंगलियों से देवी कोई
   जैसे शबे-माह में बजाती हो सितार "
                                
                                       - फ़िराक़

Friday, October 26, 2012

व्यंग्य का पॉवर-कट

अपनी बेलाग बातों, अटपटी भाषा, व्यंग्यात्मक शैली और खुले विचारों से आम आदमी को गुदगुदाने वाले हंसी के बादशाह जसपाल भट्टी बृहस्पतिवार को रुला गए। तड़के जालंधर के निकट शाहकोट में सड़क दुर्घटना में 57 वर्षीय हास्य कलाकार तथा फिल्म निर्माता का निधन हो गया। इस हादसे में उनका बेटा जसराज तथा उनकी फिल्म की नायिका सुरीली गौतम गंभीर रूप से घायल हो गए। ‘उल्टा पुल्टा’ और ‘फ्लाप शो’ जैसे व्यंग्यात्मक प्रस्तुतियों के जरिये आम आदमी की समस्याओं को उठाया था। उनके ये दोनों शो 1980 के दशक के आखिर और 1990 के दशक के शुरू में दूरदर्शन के सुनहरे दौर में दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहे थे। बहुत छोटे बजट की श्रृंखला ‘फ्लॉप शो’ तो मध्यम वर्ग के लोगों की समस्याओं को विशिष्टता के साथ उठाने के लिए आज भी याद की जाती है। दुर्घटना के वक्त जसपाल भट्टी फिल्म पावर कट का प्रोमोशन कर लौट रहे थे जो पंजाब में लगातार की जाने वाली बिजली कटौती पर आधारित है।। यह फिल्म इसी शुक्रवार को रिलीज हो रही है। आज नभाटा ने उन पर संपादकीय लिखा हैः 

"टीवी में हंसी अभी जिस तरह एक प्रॉडक्ट की तरह बेची जा रही है, उसे जेहन में रख कर जसपाल भट्टी के बारे में कोई राय नहीं बनाई जा सकती। जब देश का ज्यादातर टीवी परिवेश ब्लैक ऐंड वाइट था और आम लोगों के लिए इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था, तब जसपाल भट्टी ने अपने छिटपुट कार्यक्रमों के जरिये हमें हंसी की ताकत समझाई थी। 'उल्टा-पुल्टा' नाम से आने वाले उनके छोटे-छोटे कैपसूलों के लिए लोग जम्हाइयां लेते हुए दूरदर्शन के लंबे-लंबे समाचार विश्लेषण देख जाया करते थे। फिर दस एपिसोड चले फ्लॉप शो ने तो कमाल ही कर दिया। इसमें भट्टी और उनके पात्र अलग से कुछ कहने की कोशिश नहीं करते थे। जो कुछ लोगों के इर्द-गिर्द चल रहा होता था, उसी को चुस्त फिकरों और सधी हुई स्क्रिप्ट में बांधकर पेश कर दिया जाता था। इतने कम खर्चे में कि अभी चल रहे किसी भी सीरियल के एक एपिसोड में फ्लॉप शो के दसों एपिसोड बन जाएं और कुछ पैसे उसके बाद भी बचे रहें। 

सरकारी इंजिनियरों और बिल्डरों की सांठ-गांठ पर केंद्रित इसके एक एपिसोड में एक पुरानी फिल्मी कव्वाली 'इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो' को इस तरह पेश किया गया कि काफी समय तक लोगों को असली गाना ही भूल गया। ध्यान रहे, उल्टा-पुल्टा और फ्लॉप शो का समय वही था, जब पंजाब खालिस्तानी हिंसा का शिकार था और पूरे देश में यह शक पैदा हो गया था कि अपनी जिंदादिली के लिए पूरी दुनिया में मशहूर इस राज्य का जनजीवन कभी पटरी पर आ पाएगा या नहीं। उस कठिन दौर में सोशल-पॉलिटिकल कॉमिडी के सरताज जसपाल भट्टी और गजलों के बादशाह जगजीत सिंह ने अपने-अपने हुनर के जरिये बिना किसी शोरशराबे के देश को कुछ खतरनाक स्टीरियोटाइप्स का शिकार होने से बचा लिया। 

उसी माहौल में किसी ने भट्टी से पूछा था कि आपने हर चीज पर अपनी धार आजमाई, लेकिन पंजाब समस्या पर कुछ क्यों नहीं कहा? जवाब था कि जिसे भी मौका मिलता है, वह इस पर कुछ न कुछ कह ही डालता है, ऐसे में पंजाब समस्या पर मेरी चुप्पी को ही क्यों न इसके समाधान में मेरा योगदान मान लिया जाए। महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक हर बड़े मुद्दे पर अपने इसी धारदार विट के साथ जसपाल भट्टी अंत तक सक्रिय रहे और अपने पीछे एक रेखा खींचकर गए कि हास्य-व्यंग्य में किसी को कुछ खास करना है तो उसको यहां तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।"

राष्ट्रीय सहारा ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैः
मौजूदा दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का दौर है। यह साझा हम निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में हर कहीं देख सकते हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य और व्यंग्य की चुटिलता भोंडेपन में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो था ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे। आज ही उनकी एक फिल्म ‘पावर कट’ रिलीज हो रही है, जिसका अब लोगों को पहले से भी ज्यादा बेसब्री से इंतजार है। भट्टी ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से थी, जो बाद में और प्रखर होती गई। उनका हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से भरा था और उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल उछाले। नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक काटरूनिस्ट के तौर पर हुआ था। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी ‘ट्रिब्यून’ अखबार के लिए काटरून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और काटरून व व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपने ‘मैसेज’ को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे। सही मायने में कहें तो जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों और टेलीविजन सीरियलों में उठाते रहे थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक इस्तेमाल जरूर किया पर खुद भट्टी कभी अपनी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही, उन लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि उनका व्यक्तित्व पंजाबियत में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए। जसपाल भट्टी की स्मृतियों को नमन।

Friday, August 17, 2012

फ़िल्म और गीतों की ज़बान एक है गैंग्स ऑफ वासेपुर में

वरूण ग्रोवर द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो(2004-06) और SAB टीवी के धारावाहिक सबका भेजा फ्राई(2007) के लेखक रहे हैं । बतौर गीतकार अनुराग कश्यप ने ही 2010 में रिलीज द गर्ल इन यलो बूट्स में उन्हें पहला ब्रेक दिया था। दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न ओसियान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई हिंदी फिल्म प्राग में भी उन्होंने ही गीत लिखे हैं । यह फिल्म जल्द ही कमर्शियली रिलीज की जानी है। उनके लिखे फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीत इन दिनों हर किसी की जबान पर हैं। वरुण ग्रोवर ने बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से सिविल इंजिनियरिंग की है। पढ़ाई के दौरान ही वे नाटकों के लिए गीत लेखन करने लगे थे। यही उनके फिल्मी करिअर के लिए होम वर्क भी साबित हुआ। उनसे अनुराग वत्स की यह बातचीत 28 जुलाई,2012 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित है:


फिल्मी गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? कविता लिखने से यह कितना अलग है? 


यह सिलसिला बहुत शानदार रहा। फिल्मी गीतों और फिल्मों से मेरा जुड़ाव ही रेडियो के कारण हुआ। बचपन में लखनऊ में मैं और मेरा स्कूल का बहुत अच्छा दोस्त संदीप सिंह रोज सुबह विविध भारती का चित्रलोक कार्यक्रम सुनकर आते थे। बाकी बच्चे स्कूल की प्रार्थना कर रहे होते थे जबकि मैं और संदीप आज कौन सा नया गाना सुना, इस पर बतिया रहे होते थे। अब अपने ही लिखे गीत रेडियो पर बजते हैं तो लगता है जैसे यह कोई और ही जनम है। विविध भारती के कारण ही गीत-कविता लिखने का शौक हुआ। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के आईआईटी से मैंने सिविल इंजिनियरिंग की। वहां नाटक खूब होते थे। वहीं नाटकों में गीत लिखना शुरू किया। वही मेरे लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम था गीत लेखन का। वह सब मुंबई में अब बहुत काम आ रहा है। गीत और कविता में मेरे हिसाब से बहुत फर्क नहीं है। आत्मा तो एक ही है। बस गीत में जरा मीटर का ध्यान रखना पड़ता है। वह भी, जब स्नेहा खानवलकर जैसी संगीतकार मिल जाए तो आसान हो जाता है। स्नेहा शब्दों को बहुत अहमियत देती हैं और धुन को शब्दों के हिसाब से थोड़ा-बहुत मोड़ने में ना-नुकुर नहीं करतीं। 

आपने जो गीत लिखे हैं वह बॉलिवुड के मौजूदा ट्रेंड से बहुत अलग हैं। क्या यह फर्क अनुराग कश्यप सरीखे फिल्म मेकर की वजह से है जो ख़ुद टिपिकल बॉलिवुड फिल्म मेकिंग में कम यकीन रखते हैं।


फर्क अनुराग और स्नेहा दोनों की वजह से ही है। अनुराग ने खुला मैदान दिया और स्नेहा ने उसमें पतंग उड़ाई। इतनी क्रिएटिव फ्रीडम मिली अनुराग की तरफ से कि लगा ही नहीं किसी हिंदी फिल्म के लिए गीत बना रहे हैं। उन्होंने बस स्क्रिप्ट पकड़ा दी और कहा कि खुद पढ़ो और सोचो, कहां कहां गाने आ सकते हैं। हमने फिर खुद ही बहुत से गीत बना लिए। बहुत बाद तक पता भी नहीं था कि ये फिल्म में कहां फिट होंगे। बहुत अनोखा क्रिएटिव प्रोसेस रहा। 


गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीतों में एक तरफ फोक का टच और दूसरी तरफ नए जमाने की धड़कन है। यह आप कैसे मुमकिन कर सके? 


आधार लोक गीतों को ही रखा गया। रिसर्च उन्हीं पर हुई। स्नेहा दो महीना बिहार भ्रमण कर के आईं। सन 2010 की भरी गर्मियों में, सुबह-शाम सत्तू पी-पी कर बिहार और झारखंड के अनेक जिलों से गायक, लोक गीत, लोक गीतों पर किताबें और कुछ मजेदार शब्द बटोर कर लाईं। ये चीजें बाद में मेरे बहुत काम आईं। 'जियs हो बिहार के लाला' और 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' का मुखड़ा हमें इसी रिसर्च से मिला। और 'हमनी के छोरी के नगरिया बाबा' तो पूरा का पूरा ही लोक गीत है। एक और सच यह है कि स्नेहा मूड से बहुत समकालीन है। दुनिया भर का इलेक्ट्रॉनिक संगीत सुनती है और खुद भी बनाती है। उसने सोच रखा था कि लोक संगीत को एक नई खिड़की से दिखाना है। तो लोक और इलेक्ट्रॉनिक संगीत के इस मिश्रण को मुझे भी अपने शब्दों से मिलाना पड़ा। 



इसके पीछे क्या यह मंशा थी कि इस तरह के प्रयोगों से बड़ी ऑडिएंस का ध्यान खींचना है? 


ऑडिएंस को समझने की, लुभाने की, बहलाने-फुसलाने या उन पर जल चढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की। अपनी समझ और फिल्म व संगीत के दम पर जो सबसे अच्छा लगा वो लिख दिया। फिल्म की भाषा में ही लिखना है, बस यही तय किया था। 



वुमनिया सरीखे गीतों के पीछे की प्रेरणा क्या है? इसमें गाली भी है, हंसी-ठिठोली भी। 


फिल्म में तीन पीढ़ियों की कहानी है। ढेर सारे किरदार हैं और थोड़ी-थोड़ी देर पर एक शादी होती है। तो यह तय था कि शादी का गीत होगा। फिर बिहार में प्रथा है कि शादी के गीत थोड़े शरारती, कभी-कभी गाली भरे भी होते हैं। मेरी पत्नी झारखंड की है। मुंहझौंसा शब्द उसकी बहुत अच्छी दोस्त की सबसे पसंदीदा गाली है। मेरी शादी में भी कुछ ऐसे ही गीत बजे थे। 'रामलाल बुढ़वा के फूटे कपार, तुमरे करम में जोरू नहीं' एक गीत अब तक याद है। इसलिए मुझे अंदाजा था कि कितनी सीमाएं लांघी जा सकती हैं। इस पर काफी दिमाग लगाया जा रहा था कि वासेपुर के लिए शादी का क्या गीत बनाएं। तब स्नेहा के दिमाग में बस यह शब्द वुमनिया आया। उस पर लिखना शुरू किया और यही सोचा कि थोड़ा बेशर्म होकर लिखते हैं। और जैसे ही 'बदले रुपय्या के देना चवनिया' लाइन मिली, गीत का पूरा टोन सेट हो गया। बेशर्मी है, लेकिन लिहाज भी है। 

चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी। 

Sunday, July 29, 2012

पिया के नगरिया




पिया के नगरिया, भोजपुरी निर्गुण, गायकः तृप्ति शाक्या, मृत्युंजय कुमार सिंह, मधुकर मिश्र एवं प्रतिभा सिंह, संगीतः ओम प्रकाश मिश्र एवं प्रदीप उर्मिल, गीतकारः प्रदीप मिश्र उर्मिल, कंपनी- सुर सौरभ इंडस्ट्री

राजा देवघर चल




भोजपुरी कांवर भजन, राजा देवघर चल, वीसीडी अलबम, गायकः आनंद तिवारी, प्रतिभा सिंह, संगीतःनगेन्द्र-नृपांश, गीतकार- जख्मी जितेन्दर, कंपनीःएमएमवी

Thursday, July 26, 2012

ऐसे बनती हैं फ़िल्में

क्या आप लोगों को कहानियां सुनाते हैं? दोस्तों के बीच बैठकर किस्से सुनाना आपको पसंद है? आपको मजा आता है किसी पुरानी घटना को मिर्च-मसाला लगाकर चटखारों में तब्दील करने में? अगर हां, तो आप फिल्म-मेकर बन सकते हैं। बस आपको अपने अंदर एक इच्छा पैदा करनी है कि मुझे फिल्म बनानी है। बाकी सब यहां है। 

क्यों बनानी है फिल्म? 
तो पहले इस क्यों का जवाब दीजिए। क्यों बनाना चाहते हैं आप फिल्म? एक - आपको किस्से-कहानियां सुनाने का शौक है और आप उन किस्सों को फिल्म के रूप में ढालना चाहते हैं। दूसरे - आप फिल्मों को लेकर गंभीर हैं और पूरी गंभीरता से ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं, जिसे दुनिया देखे। ये दोनों ही काम मजेदार हैं। दोनों के ही नतीजे बेहद दिलचस्प हो सकते हैं। और दोनों ही बहुत मेहनत मांगते हैं। 

तो फर्क क्या है? 
शौक के लिए: फिल्म बनाना एक खर्चीला काम है। अगर आप सिर्फ शौक के लिए फिल्म बनाना चाहते हैं तो आप कम खर्च में ऐसा कर सकते हैं। शौकिया फिल्म आप किसी अच्छे कैमरे वाले स्मार्ट फोन या हैंडिकैम से भी बना सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों की अहमियत कम होगी। मोबाइल से बनी फिल्में भी अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिखाई जा रही हैं। इसलिए यह मत समझिए कि आप मोबाइल या किसी छोटे कैमरे से फिल्म बना रहे हैं तो कोई कमतर काम कर रहे हैं या उसके लिए कम गंभीरता की जरूरत होगी। बस आपका काम कम पैसों और कम संसाधनों से हो जाएगा। मोबाइल या छोटे कैमरे से बनाई जा रही फिल्म के लिए आप चाहें तो अपने दोस्तों से ही ऐक्टिंग करा सकते हैं। उनमें से ही कोई आपके लिए कोई म्यूजिक बना सकता है। और फिल्म को रिलीज करने या उसकी स्क्रीनिंग करने का भी 'झंझट' नहीं है। 

प्रफेशनल फिल्म-मेकिंग: 
यह थोड़ा बड़ा काम है। इसमें मेहनत ज्यादा है। सिर खपाई ज्यादा है। बजट ज्यादा है। पर इतना सारा काम क्या हम आप जैसा इंसान कर सकता है? बिना किसी प्रफेशनल फिल्म मेकिंग ट्रेनिंग के? बिना किसी पढ़ाई-लिखाई के? यह सवाल बहुत जरूरी है। और फिल्म बनाने की सोचते वक्त ही आपके जहन में यह बात आएगी कि मुझे तो फिल्म बनानी नहीं आती, मेरे पास कोई ट्रेनिंग भी नहीं है। फिर मैं कैसे फिल्म बना सकता हूं। जेम्स कैमरन, टाइटैनिक वाले, कभी किसी फिल्म स्कूल में नहीं गए। क्रिस्टोफर नोलन, बैटमैन वाले, का कॉलेज में छोटी-छोटी फिल्में बनाने से करियर शुरू हुआ था। मधुर भंडारकर, चांदनी बार वाले, विडियो लाइब्रेरी चलाते थे। फिल्म बनाना एक आर्ट है। उसकी ट्रेनिंग अगर आपके पास है तो आपका तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत हो सकता है। लेकिन कहानी सुनाना, मजेदार ढंग से सुनाना, यह आपको कोई नहीं सिखा सकता। 

अगर आप प्रफेशनल तरीके से फिल्म बनाना चाहते हैं, तब आपको बजट कुछ ज्यादा चाहिए होगा। जब बजट शब्द का इस्तेमाल हो तो समझिए फिलहाल हम 10-15 मिनट की एक छोटी-सी फिल्म की ही बात कर रहे हैं। इस फिल्म के लिए भी आपको कैमरा (अक्सर एक कैमरा कम होता है), ऐक्टर (अगर डॉक्युमेंट्री नहीं है तो), एडिटर और एडिटिंग सॉफ्टवेयर की जरूरत होगी। इसके लिए आपको पूरी एक टीम जुटानी होगी। फिल्म के लिए आपको कहानी, स्क्रिप्ट, शूटिंग, डायरेक्शन, ऐक्टिंग, एडिटिंग और म्यूजिक की जरूरत होगी। अब आप देखिए कि इनमें से कितने काम आप खुद कर सकते हैं। बाकी सबके लिए आपको साथियों की जरूरत होगी।

क्या बनाना चाहते हैं? 
अब आप फिल्म बनाने का मन बना चुके हैं। तो यहां खुद से पूछिए कि आप क्या बनाना चाहते हैं। सिनेमा को कैटिगरी में डालना आसान तो नहीं है। फिर भी प्रॉडक्शन के लिहाज से मोटा-मोटा सोचें, तो आप दो तरह की फिल्में बना सकते हैं। डॉक्युमेंट्री व फीचर फिल्म। 

दोनों ही कहानी कहने के तरीके हैं। डॉक्युमेंट्री फिल्म में आप दस्तावेजों के आधार पर सच्ची कहानी कहते हैं और फीचर फिल्म में अपने मन की कहानी कहते हैं। डॉक्युमेंट्री में एक विषय चाहिए, उसके लिए रिसर्च चाहिए, विषय के हिसाब से इंटरव्यू करने के लिए लोग चाहिए। यह इस पर निर्भर करेगा कि आप क्या कहानी कहना चाहते हैं? मसलन, अगर आप अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्म में कॉलेज के उन बच्चों की कहानी सुनाना चाहते हैं, जो दिल्ली से बाहर से आते हैं पढ़ाई करने के लिए। तो सबसे पहले आपको जानना-समझना होगा कि उनकी जिंदगी कैसी होती है। फिर आप कुछ ऐसे लोग चुनेंगे, जिन्हें आप अपनी फिल्म के लिए इंटरव्यू करेंगे। आप उन जगहों को चुनेंगे, जहां-जहां आप शूट करेंगे। फीचर फिल्म में आपको कहानी, स्क्रिप्ट और ऐक्टर चाहिए। उसके बाद का काम दोनों के लिए एक जैसा है। 

कैसे बनेगी फिल्म? 
फैसले लेने का काम हो चुका है। अब फिल्म बनाने का काम शुरू किया जाए। फिल्म बनाने का काम तीन चरणों में बंटा है। आप छोटी फिल्म बनाएं या बड़ी, इन्हीं तीन चरणों से आपको गुजरना होगा। प्री-प्रॉडक्शन, शूट और पोस्ट प्रॉडक्शन। 

प्री-प्रॉडक्शन 
यह है तैयारी का दौर। बड़े-बड़े फिल्मकार एक ही बात कहते हैं, फिल्म कागज पर बनती है। आपको सारा काम कागज पर कर लेना होगा। प्लानिंग से लेकर कहानी तक, सब कुछ आपके पास लिखित में होना चाहिए। फिल्म बनाने के लिए जिन-जिन चीजों की आपको जरूरत है, वे सब आपको कागज पर उतारनी होंगी।

कहानी: 
फिल्म कहानी कहने का जरिया ही तो है। इसलिए आपके पास कहने को कोई कहानी होगी, तभी आपने फिल्म बनाने के बारे में सोचा। लेकिन उस कहानी को लिख लेना बहुत जरूरी है। जब आप उसे कागज पर सिलसिलेवार उतार रहे होंगे, तब आपको उसकी खूबियां और खामियां नजर आएंगी। तब आप उसे बेहतर बना पाएंगे। और हम छोटी फिल्म के लिए कहानी तैयार कर रहे हैं, तो कुछ बातें हैं जिनका आपको ध्यान रखना होगा।

1. छोटी और चुस्त कहानी तैयार करें। हम 10-15 मिनट की फिल्म बना रहे हैं। इसके लिए आप कहानी में ज्यादा मोड़ और घुमाव रखने से बचें। कहानी जितनी छोटी होगी, उतनी चुस्त होगी। कहानी जितनी चुस्त होगी, फिल्म उतनी दिलचस्प होगी। और याद रखिए, आप जैसी मर्जी फिल्म बनाएं, बोरिंग फिल्म कभी न बनाएं। महान फिल्मकार फ्रैंक कापरा कहते हैं कि फिल्म मेकिंग में कोई नियम नहीं हैं, बस पाप हैं और सबसे बड़ा पाप है बोरिंग फिल्म बनाना। 

2. अपनी कहानी में कम-से-कम किरदार रखें। छोटी फिल्म यानी कम वक्त में आपको पूरी कहानी कहनी है। फिल्म में आपको हर किरदार को बखूबी परिचित कराना होता है। अगर एक भी किरदार दर्शक को समझ नहीं आया, तो दर्शक बाकी किरदारों को छोड़कर उसके बारे में सोचता रहेगा और आपका मकसद यानी कहानी कहना, पूरा नहीं हो पाएगा। इसलिए आपको चाहिए कि कहानी लिखते वक्त ही कम-से-कम किरदार रखें। बहुत सारी शॉर्ट फिल्में, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवॉर्ड मिले, दो-तीन किरदारों से ही बनी थीं। इसका एक फायदा यह भी है कि आपको कम-से-कम ऐक्टर लेने होंगे। 

3. कहानी ऐसी हो कि उसके ज्यादा-से-ज्यादा हिस्सों को एक ही जगह शूट किया जा सके। फिल्म ऐसा खूबसूरत मीडियम है कि आप पूरी दुनिया की कहानी को एक कमरे में दिखा सकते हैं। और सिर्फ एक कमरे में घटी घटना को दिखाने के लिए पूरी दुनिया भी छोटी पड़ जाएगी। इसलिए जब आप कहानी लिख रहे हैं तो सोचें, आपका बजट, आउटडोर शूटिंग की मुश्किलें, विषय का भटकाव। यह आपकी पहली फिल्म है। आपका पूरा ध्यान अच्छी फिल्म बनाने पर होना चाहिए। इसलिए शूटिंग के काम को फैलने से बचाएं। कम-से-कम जगह पर ज्यादा-से-ज्यादा शूट करने से आपके कई झंझट बचेंगे। ऐसी कई शॉर्ट फिल्में हैं, जो एक ही कमरे में शूट कर ली गईं और बेहतरीन बनीं। 

स्क्रिप्ट: कहानी तैयार हो जाने के बाद आपको स्क्रिप्ट लिखनी होगी। नहीं, कहानी स्क्रिप्ट नहीं होती। स्क्रिप्ट का मतलब है कहानी को सीन-दर-सीन लिख लेना। यानी जब आपकी फिल्म स्क्रीन पर आएगी तो कैसे दिखेगी। पहले कौन-सा सीन होगा, उसके बाद कौन-सा। स्क्रीन पर कैसे-कैसे, क्या-क्या घटेगा। यह सब स्क्रिप्ट में होता है। 

ऐसे समझिए: कहानी है - वह घर पहुंचा। पता चला कि चाबी उसके पास नहीं है। उसे याद आया कि घर की चाबी दफ्तर में ही भूल आया है। और उसका फुटबॉल मैच छूट गया। 

रफ स्क्रिप्ट: 
सीन 1- वह सीढ़ियां चढ़ रहा है। उसके एक हाथ में बैग और एक अखबार है। दूसरे से वह अपनी जेब में चाबी तलाश रहा है। 

सीन 2- वह दरवाजे के सामने खड़ा है। उसने बैग जमीन पर रख दिया है। वह बहुत बेचैनी से दोनों हाथों से अपनी जेबें तलाश रहा है। 

सीन 3- वह ताले को हाथ में पकड़े उसकी ओर देख रहा है। 

सीन 4- वह दरवाजे के बाहर हताश होकर बैठ गया है। बैग उसके पास रखा है। पास ही में अखबार खुला पड़ा है। कैमरा उसके चेहरे से अखबार की हेडलाइन तक जाता है, जहां लिखा है - वर्ल्ड कप फुटबॉल का फाइनल आज शाम। 

यह स्क्रिप्ट का बेहद रफ नमूना है। अच्छी स्क्रिप्ट में आप कहानी की सारी बारीकियां लिखते हैं। किरदारों के कपड़ों से लेकर कैमरे के मूवमेंट तक, सब कुछ। याद रखिए, स्क्रिप्ट कागज पर जितनी महीन होगी, फिल्म कैमरे से उतनी ही ज्यादा अच्छी शूट होगी। 

टीम 
आपकी फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है। अब आपको पता है कि आपको कितने ऐक्टर चाहिए। चलिए अब फिल्म बनाने के लिए टीम बनाते हैं। चूंकि यह आपकी फिल्म है तो डायरेक्ट आप ही करना चाहेंगे। तो सोचिए इसके अलावा आपको क्या-क्या काम करने हैं : ऐक्टिंग, मेकअप, कॉस्ट्यूम, सेट डिजाइन, लाइटिंग कैमरा, एडिटिंग, म्यूजिक। इनके अलावा भी फिल्म बनाने में दर्जनों काम होते हैं। लेकिन ये बेसिक यानी ऐसे काम हैं, जिनके बिना फिल्म पूरी नहीं होगी। अब आप देखिए कि इनमें से कौन-कौन से काम आप खुद कर सकते हैं और किस-किस काम के लिए आपको साथियों की जरूरत होगी। उसी हिसाब से आप अपनी टीम चुनेंगे। 

इक्विपमेंट्स 
स्क्रिप्ट तैयार है। टीम तैयार है। अब आप शूटिंग के लिए उपकरण जमा कीजिए। इनमें सबसे जरूरी है कैमरा। आप अपनी कहानी और बजट के हिसाब से तय करें कि आपको कैसा कैमरा चाहिए। मोबाइल फोन से लेकर बड़े-बड़े कैमरे तक, सबसे फिल्म बनाई जा सकती है। आजकल मोबाइल फिल्म फेस्टिवल होते हैं, जहां मोबाइल फोन से शूट की गईं 3-4 मिनट की फिल्में दिखाई जाती हैं। फिर आजकल बाजार में ऐसे अच्छे हैंडिकैम उपलब्ध हैं, जिनसे आप ठीक-ठाक शूट कर सकते हैं। उनसे शूट की क्वॉलिटी अच्छी होती है और उनकी फिल्में बड़े पर्दे पर भी दिखाई जा सकती हैं। हैंडिकैम से बनाई गईं फिल्में दुनिया कई बड़े फिल्म फेस्टिवलों में जगह पा चुकी हैं। भारत में इस वक्त हैंडिकैम से खूब फिल्में बनाई जा रही हैं। ज्यादातर गैर-पेशेवर फिल्ममेकर ऐसे ही फिल्में बना रहे हैं। इसी हिसाब से तय होगा कि आपको किसी फॉर्मैट में शूट करना है। अगर आप प्रफेशनल कैमरे का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो आपको टेप लेनी होंगी। लेकिन आजकल डिजिटल फॉर्मैट ने फिल्म मेकिंग को इतना आसान कर दिया है कि कार्ड पर शूट करना काफी आसान रहता है। कैमरे के अलावा आपको माइक, लाइट, मेकअप, कॉस्ट्यूम्स वगैरह की जरूरत होगी, जो आप अपनी फिल्म के हिसाब से चुनेंगे। बस इतना ध्यान रखिए कि इन सबकी जरूरत फिल्म को और महीन, और बेहतर बनाने में पड़ती है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इनके बिना फिल्म बनाई नहीं जा सकती। यानी आपके किरदार अगर खास कॉस्ट्यूम न पहनकर रोजमर्रा के कपड़े ही पहन लें, तो भी क्या फर्क पड़ता है, बस ऐक्टिंग अच्छी करें। 

शूटिंग से पहले 
अब सब तैयार है। शूटिंग शुरू कर सकते हैं। लेकिन रुकिए। शूटिंग की जल्दी मत कीजिए। एक काम बाकी है। यह ज्यादा बड़ा लगता नहीं, लेकिन इसकी अहमियत बाकी किसी भी काम से कम नहीं है। मीटिंग। शूटिंग शुरू करने से पहले अपनी पूरी टीम के साथ बैठें। एक-एक पहलू पर विस्तार से चर्चा करें। लोगों की राय लें। सबके नजरिये समझें। अपना नजरिया उन्हें समझाएं। उन्हें बताएं कि आप किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि जब शूटिंग शुरू हो, तब सबके जेहन में यह बात स्पष्ट हो कि बनने के बाद यह फिल्म कैसी दिखेगी क्योंकि तभी काम में एकरूपता आ पाएगी और फिल्म वैसी बन पाएगी, जैसी आप चाहते हैं।

अब शूटिंग 
किसी फिल्म की शूटिंग देखी है आपने? यह बहुत बोरिंग काम होता है। डायरेक्टर और कैमरामैन के अलावा, बाकी सभी लोगों का हिस्सा थोड़ा-थोड़ा होता है। आपको उन सबको काम से जोड़े रखना होगा। शॉर्ट फिल्मों में यह आसान होता है। ज्यादातर लोग एक से ज्यादा काम कर रहे होते हैं। छोटी टीम होती है। सब लोगों को इन्वॉल्व करके काम किया जा सकता है। शूटिंग में कैमरे का काम बहुत अहम होता है। यही तय करता है कि आपकी कहानी पर्दे पर कैसी नजर आएगी। इसलिए बेहतर होगा कि आप शूटिंग पर जाने से पहले ही कैमरे के बारे में पढ़ें। जानें कि वह क्या-क्या कर सकता है। और उस जानकारी का शूटिंग में इस्तेमाल करें। शूटिंग में कुछ बातों का ख्याल रखें : 

1. हर सीन को एक से ज्यादा बार शूट कर लेना अच्छा होता है। 

2. वह भी शूट करें, जो आपको लगता है कि काम नहीं आएगा। जब आप एडिट करने बैठेंगे, तब आपको ऐसे बहुत-से शॉट्स की जरूरत होगी, जिनके बारे में आपने शूट करते वक्त सोचा भी नहीं था। 

3. हर सीन को एक से ज्यादा एंगल्स से शूट करें। एडिट करते वक्त आपको पता चलेगा कि हर एंगल की अलग अहमियत हो जाती है, जब वे एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं। इसलिए शूट करते वक्त कंजूसी न बरतें। जितना हो सके, शूट करें। स्क्रिप्ट में आपने बहुत कुछ लिखा होगा। उसके अलावा भी कुछ सूझे तो उसे कैमरे में कैद कर लें। जैसे अगर आप डॉक्युमेंट्री शूट कर रहे हैं, तो इंटरव्यू करते वक्त उस पूरी जगह को शूट करें। जितनी ज्यादा फुटेज होगी, आपकी एडिटिंग में उतना ही तीखापन होगा। आप यूं समझिए कि 5 मिनट की फिल्म के लिए 3-4 घंटे के फुटेज की जरूरत होगी।

पोस्ट-प्रॉडक्शन 
बधाई हो। शूटिंग पूरी हुई। बड़ा काम निपटा लिया आपने। लेकिन... अभी ज्यादा बड़ा काम बाकी है। जिसमें ज्यादा वक्त भी लगता है, ज्यादा मेहनत भी और ज्यादा झंझट भी। 

एडिटिंग: 
अगर आप खुद एडिटिंग कर सकते हैं, तो बहुत अच्छा। अगर आपको किसी से एडिट कराना है, तब आप सबसे पहला काम तो यह कीजिए कि इंटरनेट पर जाइए और एडिटिंग के बेसिक पढ़िए। बड़े फिल्मकार कहते हैं कि फिल्म एडिटिंग टेबल पर ही बनती है। इसलिए एडिटिंग को समझना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि आप अपनी फिल्म को जानते हैं, पहचानते हैं। आप समझते हैं कि आपकी फिल्म स्क्रीन पर कैसी दिखेगी। अब अपनी यह सोच आपको एडिटर के दिमाग में डालनी है। और ऐसा आप तभी कर पाएंगे, जब आप खुद एडिटिंग को समझते हों। डिजिटल दुनिया ने एडिटिंग बहुत आसान कर दी है। अब विंडोज में भी एडिटिंग का सॉफ्टवेयर मूवी-मेकर उपलब्ध है। यह बेहद आसान है और आप यू-ट्यूब पर जाकर सीख सकते हैं कि यह काम कैसे करता है। उसके बाद आप खुद अपनी फिल्म एडिट कर सकते हैं। 

या फिर आप किसी एडिटर से एडिट करवाइए। एडिटर अक्सर प्रति घंटा चार्ज करते हैं। तो आप किसी स्टूडियो में जाकर अपनी फिल्म को एडिट करा सकते हैं। एडिटिंग ऐसा काम है, जिसमें बहुत ज्यादा वक्त लगता है। सही जगह सही शॉर्ट खोजना, उसे सही टाइमिंग के साथ लगाना, उसमें सही रंगों का समावेश करना। यह सब बहुत मुश्किल और ध्यान से किया जाने वाला काम है। इसके लिए वक्त के साथ-साथ धीरज की भी जरूरत होती है। लेकिन यकीन कीजिए, जैसे-जैसे एडिटिंग आगे बढ़ती है, आपकी फिल्म साकार होने लगती है। और अपनी फिल्म को साकार होते देखने से ज्यादा सुकून कहीं नहीं है। 

म्यूजिक 
म्यूजिक फिल्म का बहुत अहम हिस्सा है। फिल्म अगर शरीर है तो म्यूजिक उसमें बसने वाली भावनाएं हैं। आपका दर्शक आपके किसी खास सीन को देखकर क्या महसूस करेगा, यह म्यूजिक पर ही निर्भर करेगा। वह कब हंसेगा, कब रोएगा, उसे म्यूजिक से पता चलेगा। इसलिए इस पर ध्यान देना जरूरी है। एक बात समझिए। फिल्म में म्यूजिक का मतलब सिर्फ गाने या बैकग्राउंड स्कोर नहीं है। यह फिल्म का पूरा साउंड डिजाइन है। इसलिए इस पर मेहनत करें। म्यूजिक बहुत महंगा काम है। दो तरीके हैं। या तो कोई म्यूजिशन खोजिए और उससे फिल्म का म्यूजिक बनवाइए। ऐसे बहुत से नए संगीतकार हैं, जो मौकों की तलाश में रहते हैं। जैसे आप नए फिल्मकार हैं और संगीत खोज रहे हैं, वे नए संगीतकार होंगे, जो फिल्म खोज रहे होंगे। बस आपको सही व्यक्ति तक पहुंचना होगा। सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रचार इसमें बहुत काम आ सकता है। दूसरा तरीका यह है कि इंटरनेट की मदद लीजिए। इंटरनेट पर ऐसी कई वेबसाइट हैं, जहां मुफ्त म्यूजिक उपलब्ध है। वहां नए संगीतकार अपना म्यूजिक डाल देते हैं। आप उस म्यूजिक को बिना कोई पैसा दिए इस्तेमाल कर सकते हैं। बस आपको संगीतकार का नाम देना होता है। वहां काफी म्यूजिक होगा, जिसमें से आप अपनी फिल्म के मूड के मुताबिक म्यूजिक चुन सकते हैं। 

सब टाइटल्स 
शॉर्ट फिल्म में सब-टाइटल्स होने ही चाहिए क्योंकि इनका दर्शक वर्ग बड़ा होता है। ये फिल्में इंटरनेट के जरिए दुनिया भर में फैलती हैं। और तब सब-टाइटल्स जरूरी हो जाते हैं, इसलिए उन्हें पहले से ही तैयार रखें। एडिटिंग के दौरान या म्यूजिक लगाते वक्त साथ ही सब-टाइटल्स भी लगा दें। पढ़ने में यह सब काम चुटकियों में होता नजर आ रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। इसमें काफी वक्त और ऊर्जा खर्च होगी। और आखिर में आप लगाएंगे टाइटल्स। यानी आपका और आपकी टीम का नाम। जब आप अपना नाम स्क्रीन पर देखेंगे न, सच... बहुत अच्छा लगेगा। 

अब क्या करें? लीजिए साहब... बहुत-बहुत बधाई। आपकी पहली फिल्म तैयार है। एडिटिंग के बाद इसकी एक मास्टर टेप बनवा लेनी है। कुछ डीवीडी भी। अब किया क्या जाए? देखिए, आप भारत में हैं। यहां छोटी फिल्मों का वर्तमान कुछ नहीं है। हां, भविष्य बहुत उज्ज्वल है। तो आपके पास ज्यादा ऑप्शंस नहीं हैं। आप अपनी फिल्म के साथ दो काम कर सकते हैं। 

इंटरनेट 
अपनी फिल्म को यूट्यूब पर अपलोड कर दीजिए। वहां शॉर्ट फिल्म्स के बहुत सारे दर्शक हैं। यूट्यूब जैसी ही कई और वेबसाइट हैं, जहां शॉर्ट फिल्म्स के लिए काफी स्पेस है। इसके जरिए आपकी फिल्म पूरी दुनिया में देखी जाएगी। तारीफ भी होगी और आलोचना भी। इससे आपको खुशी भी मिलेगी और सीखने का मौका भी।

फेस्टिवल 
दुनिया भर में शॉर्ट फिल्मों के फेस्टिवल होते हैं। वहां अपनी फिल्म को भेजिए। इंटरनेट पर सर्च कीजिए कि कहां-कहां आपकी फिल्म भेजी जा सकती है। उस हिसाब से उसे हर जगह भेजिए। कई फेस्टिवल में एंट्री फ्री होती है। अगर आपकी फिल्म फेस्टिवल में चुनी जाती है तो यह बहुत बड़ी बात होगी। और अवॉर्ड तक पहुंच गई, तो समझिए आप अखबारों की सुर्खियों में होंगे। 

खास वेबसाइट्स 
यह नए फिल्मकारों के लिए बड़े काम की वेबसाइट है। यहां अकाउंट बना सकते हैं, जिसके जरिए आप तमाम फिल्म फेस्टिवल्स से जुड़ जाते हैं। इसका कई फिल्म फेस्टिवल्स के साथ करार है व इसी के जरिए फिल्म सबमिट की जाती है।

http://vimeo.com यहां आप अपना विडियो अपलोड करके करोड़ों लोगों तक उसे पहुंचा सकते हैं। कई फिल्म फेस्टिवल भी यहां से फिल्म लेते हैं। सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपकी फिल्म को उस सर्कल के लोग देखते हैं, जिनकी सिनेमा में दिलचस्पी है। Vikalp@Prithvi इंटरनेट पर कई ऐसे ग्रुप्स हैं, जहां नए-पुराने फिल्मकार अपनी बातें साझी करते रहते हैं। विकल्प फेसबुक पर ऐसा ही एक ग्रुप है। विकल्प नई फिल्मों को प्रदर्शित करने का भी काम करता है।

http://www.indieproducer.net यह भी फिल्म मेकर्स का ही एक जमावड़ा है। इस वेबसाइट पर अक्सर प्रतियोगिताएं होती हैं, जिनमें आप शामिल हो सकते हैं।

Sunday, May 27, 2012

कोलकाता में बिहार शताब्दी समारोह

कोलकाता के नेताजी इंडोर स्टेडियम में बिहार शताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में 27 मई 2012 को आयोजित कार्यक्रम में भोजपुरी अभिनेता व गायक मनोज तिवारी तथा अभिनेत्री व गायिका प्रतिभा सिंह।





















Tuesday, May 22, 2012

'कलकतिया भउजी' में गायिका की भूमिका में प्रतिभा सिंह


भोजपुरी गायिका प्रतिभा सिंह फिल्म कलकतिया भउजी में गायिका की भूमिका अदा कर रही हैं। फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी है। फिलहाल उन्होंने छपरा के समीप तरइयां रामबाग गांव में अपनी दो दिन की शूटिंग आज रविवार 27 मई 2012 को पूरी की। शेष शूटिंग जल्द ही कोलकाता में होगी। इस फिल्म के निर्देशक हैं अशोक जायसवाल, जिन्होंने प्रतिभा सिंह के म्यूज़िक एलबम 'मेहरारू ना पइब' का निर्देशन किया है। प्रतिभा सिंह ने इसके पहले भी कई फिल्मों में अभिनय किया है जिनमें प्रमुख हैं भाई हो त भरत नियन, बहिना तोहरे खातिर। इस फिल्म में अनुराग नायक एवं मीरा नायिका की भूमिका में हैं। इंद्राणी सिंह एवं डाली आदि ने भी इसमें अभिनय किया है।

Sunday, April 22, 2012

ज़ीरो फिगरवालियों का स्टंट

किसी पुरानी फिल्म का क्लाइमेक्स याद कीजिए — खूबसूरत और फूलसी कोमल नायिका को खलनायक ने रस्सी से बांध रखा है। वो सुपर हीरो का इंतजार कर रही है, जो उसे छुड़ाकर ले जाएगा। हीरो आता है और खलनायक की पिटाई करता है। इसके बाद नायक-नायिका की शादी होती और फिल्म का होता — हैप्पी द एंड। गुजरे जमाने में ऐसी फिल्मों से बाजार गर्म रहता था, लेकिन ऐसा कब तक होता? 20वीं सदी में फिल्मों में नए-नए बदलाव हुए। महिलाओं की छवि सशक्त तरीके से प्रस्तुत करने के प्रयोग किए गए। नायिका को खूबसूरत अंदाज में पेश करने के साथ शक्तिशाली और मानसिक तौर पर असाधारण शक्ति से सराबोर भी दिखाया जाने लगा। हैल वॉय फिल्म में शैरमेन और स्टार वार्स में प्रिंसेस लिया जैसा मजबूत किरदार पेश किया गया। चार्ली एंजेल की तीन तितलियां (नायिकाएं) जासूसी कंपनी चलाते हुए बड़े से बड़ा स्टंट करने से भी नहीं डरतीं। शुरुआती सफलताओं के बाद अभिनेत्रियों में स्टंट करने की इच्छा जोर पकड़ने लगी। करीब-करीब सभी फिल्मों में नायिकाओं पर कम से कम एक स्टंट दृश्य फिल्माया जाने लगा। जेम्स बॉन्ड की फिल्म — डाई ऐनदर डे में हैलीबेरी और मिशेल येहो, द वर्ल्ड इज नॉट एनफ में डेनिस रिचर्डस, लिव एंड लेट डाई में जेन सिमोर को साहसी दिखाया गया। शुरुआती कोशिशों के बाद स्टंट दृश्य ट्रेंड ही बन गए। एक इंटरव्यू से खुलासा हुआ कि बहुत सी फिल्मों में एक्शन दृश्य करने वाली एंजेलिना जोली को नए-नए स्टंट करने की प्रेरणा अपने बच्चों से मिलती है, क्योंकि उनको स्टंट दृश्य देखना अच्छा लगता है। बात हॉलीवुड की या फिल्मों की ही नहीं, अभिनेत्रियों के स्टंट का जादू छोटे परदे पर भी चलने लगा है। टेलीविजन पर साहस की थीम के इर्द-गिर्द कई धारावाहिक बनाए गए हैं, जिनमें हिस्सा लेने वाली युवतियों का उत्साह युवकों से किसी मायने में कमतर नहीं है। आधुनिकीकरण के इस प्रभाव से भारतीय सिनेमा भी अछूता नहीं रहा। 1935 में वाडिया बंधु की हंटरवाली की नायिका का सुनहरे परदे पर खूबसूरती का दम साहस देखकर लोगों ने दांतों तले अंगुलियां दबा लीं। ऊंची-ऊंची इमारतों पर एक से दूसरी जगह कूदती, घोड़े को बिजली की गति दौड़ाती, जोखिम भरे स्टंट करने वाली अभिनेत्री नाडिया के एक-एक दृश्य पर लोग तालियां बजाए बगैर रह नहीं पाते। यह वह दौर था, जब घरेलू महिलाएं परदे की ओट में रहती थीं। 

ऐसे समय में सुनहरी जुल्फों वाली विदेशी महिला नाडिया के साहस को लोगों ने खूब सराहा। दस-दस गुंडों पर घूंसे और चाबुक बरसाती नाडिया उस दौर में नारी शक्ति का प्रतीक बन गई। इन्हीं बेखौफ अदाओं के चलते उसका नाम ही पड़ गया फीयरलेस नाडिया। इस फिल्म से वह सिल्वर स्क्रीन की स्टंट क्वीन बन गई। भारतीय सिनेमा में हम महिलाओं की अनेक छवियां देखते हैं। ये छवियां समय-समय पर बदली हैं। समाज में स्त्री की स्थिति में जिस गति से बदलाव आ रहा है, उसी तेजी से सिनेमा के परदे पर भी उसकी भूमिकाएं बदल रही हैं। हिंदी सिनेमा में महिलाओं की भूमिका को मजबूत बनाने का श्रेय देविका रानी को भी जाता है। जिस समय में फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था, उस दौर में देविका रानी ने महिलाओं को फिल्मों में प्रमुख स्थान दिलाया। जिस तरह नाडिया ने अपने स्टंट से लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था, ठीक उसी तरह हेमामालिनी ने सीता और गीता में खलनायक को मारकर दर्शकों की तालियां बटोरीं। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। खून भरी मांग की ज्योति तो कभी फूल बने अंगारे की नम्रता बनकर एक्ट्रेस रेखा तलवार की नोक पर खलनायक को परास्त कर वाह-वाही लूटती रहीं। फिल्म चालबाज में चुलबुली श्रीदेवी ने भी इस तरह के कारनामों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराया। दक्षिण भारतीय अभिनेत्री विजया शांति तेजस्विनी में मजबूत इरादों वाली पुलिस अफसर की भूमिका निभाकर चर्चित हुईं। फिल्म दस में शिल्पा शेट्टी ने पुलिस अफसर की भूमिका निभाई। 

पुरानी फिल्म डॉन में जीनत अमान के स्टंट से प्रेरित होकर प्रियंका चोपड़ा ने नई फिल्म डॉन में भी स्टंट के नए प्रयोग किए। इन प्रयोगों के जरिए प्रियंका के मन में स्टंट के प्रति रुझान पैदा हुआ और उन्होंने खतरों के खिलाड़ी रिएलिटी शो में खतरनाक स्टंट करने से गुरेज नहीं किया। करीना कपूर ने भी फिल्म गोलमाल 3 में अनूठा स्टंट किया। कार के बोनट पर खड़े होकर उन्होंने संतुलन बनाए रखा। धूम में ईशा देओल, धूम २ में ऐश्वर्या राय और चांदनी चौक टू चाइना में दीपिका पादुकोण ने ऐसी ही भूमिका निभाई है। चर्चा है कि शांत और घरेलू छवि से बाहर आने के लिए आतुर दीया मिर्जा ने आने वाली फिल्म एसिड फैक्टरी में खतरों से खेलने का जोखिम उठाया है। स्टंट करने वाली अभिनेत्रियों की फेहरिस्त में एक और नाम जुड़ता है पूर्व मिस यूनिवर्स लारा दत्ता का। उन्होंने फिल्म ब्लू में समुद्र के अंदर बहुत से स्टंट खुद ही किए हैं। सच तो ये है कि सुंदर नायिकाएं ‘साहस’ को मसाले की तरह इस्तेमाल करती हैं और सफलता के लिए सीढ़ी बनाने से भी बाज नहीं आतीं। ग्लैमर और साहस का घालमेल ऐसा ही है! सुंदर नायिकाएं ‘साहस’ को मसाले की तरह इस्तेमाल करती हैं और सफलता के लिए सीढ़ी बनाने से भी बाज नहीं आतीं। ग्लैमर और साहस का घालमेल ऐसा ही है! (कोषा गुरुंग,अहा! ज़िंदगी,2.2.12)

Thursday, April 19, 2012

सिनेमा को नए रंग दे रही स्त्रियां

‘सिनेमा महिलाओं के बस की बात नहीं है..’ साल 1913 में भारत में मोशन पिक्चर्स की शुरुआत के साथ इस धारणा ने भी पैठ बना ली थी। भारतीय सिनेमा पर यह पूर्वाग्रह लंबे समय तक हावी रहा। आलम यह था कि महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष निभाते। हालांकि भारतीय सिनेमा के शैशवकाल में ही फिल्म मोहिनी भस्मासुर में एक महिला कमलाबाई गोखले ने अभिनय कर नई शुरुआत की, लेकिन सिनेमा अब भी महिलाओं के लिए दूर की कौड़ी थी। कमलाबाई, चरित्र अभिनेता विक्रम गोखले की परदादी थीं, जिन्होंने बाद में कई फिल्मों में पुरुष किरदार भी निभाए। बाद में फिल्मों में महिलाओं के काम करने का सिलसिला बढ़ता गया और अब यह कोई नहीं कहता कि सिनेमा महिलाओं के बस की बात नहीं। 

लाइट, कैमरा, एक्शन.. 
फ्लैशबैक की बात छोड़ वर्तमान में आते हैं; अभिनय छोड़कर कैमरे के पीछे चलते हैं। शुरुआत फिल्म निर्देशन से करें तो इस फेहरिस्त का पहला नाम जो जहन में कौंधता है वो सई परांजपे का है। सई ऐसी फिल्मकार हैं, जिनमें विविधता है, जिन्होंने अपने निर्देशन से हमेशा हैरान किया है। जादू का शंख, स्पर्श, चश्मेबद्दूर, कथा या दिशा सरीखी फिल्में इसकी बानगी हैं। सई की फिल्में आम जीवन को गहरे छूती हैं। इन फिल्मों में कहीं नहीं लगता कि हम वास्तविक जीवन से इतर कुछ देख सुन रहे हैं। सिनेमा में योगदान के लिए सई परांजप को 1996 में पद्मभूषण से नवाजा जा चुका है। अगला नाम अपर्णा सेन का है। अपर्णा बंगाली सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री रही हैं। एक अभिनेत्री केवल अभिनय के लायक होती है.., इस मिथक की धज्जियां अपर्णा ने निर्देशन की कमान संभालकर उड़ाईं। उन्होंने अपनी पहली फिल्म 36 चौरंगी लेन से यह भी साबित कर दिया कि निर्देशन के मामले में महिलाएं कहीं कमतर नहीं। अपर्णा की परोमा, मिस्टर एंड मिसेज अय्यर, 15 पार्क एवेन्यू, द जैपनीज वाइफ और इति मृणालिनी जैसी नायाब फिल्में सिनेमा प्रेमियों के सर चढ़कर बोली हैं। अपर्णा की हर आने वाली फिल्म का शिद्दत से इंतजार रहता है उनके प्रशंसकों को। 

अब उस महिला की बात, जो न सिर्फ फिल्में बनाती है, बल्कि फिल्मी कलाकारों को अपने इशारों पर भी नचाती है। वे सरोज खान के बाद इंडस्ट्री की लोकप्रिय कोरियोग्राफर हैं। यहां बात फराह खान की हो रही है, जो एक अच्छी फिल्म निर्देशक भी हैं। फराह अपने खास अंदाज और बेबाक शैली के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने मैं हूं ना और ओम शांति ओम जैसी फिल्मों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। उनकी फिल्में व्यावसायिक स्तर पर भी अच्छी साबित हुई हैं। 

जोया अख्तर असीम संभावनाओं से भरी हैं। रचनात्मकता भले उन्हें विरासत में मिली हो, लेकिन केवल दो फिल्मों से वे खुद को काबिल फिल्मकार के रूप में स्थापित कर चुकी हैं। लक बाय चांस और ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ऐसी फिल्में हैं, जो शायद जोया जैसी युवा महिला निर्देशक ही सोच बुन सकती हैं। जोया ने फिल्मों को एक नए विस्तार के साथ सामने रखा है, खासकर रिश्तों के यथार्थ को। इस मामले में जोया का कोई सानी नहीं। हाल में हुए फिल्मफेयर अवॉर्डस में उनकी फिल्म ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ने सर्वश्रेठ निर्देशन समेत सात पुरस्कार हासिल किए हैं। मुंबई के सोफिया कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट रीमा कागती ने पहली फिल्म हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड से लोगों का दिल जीत लिया था। शुरुआत में वो इतने सारे फिल्मी सितारों के साथ काम करने, उन्हें निर्देशित करने की कल्पना मात्र से आशंकित हो गई थीं। पहले दिन बोमन ईरानी और शबाना के साथ शूटिंग थी। वे घबराई हुई थीं, लेकिन जल्द ही सबकुछ ठीक हो गया। बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म तलाश है। इसमें आमिर खान, करीना कपूर और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिकाओं में हैं(माधवी शर्मा गुलेरी,अहा ज़िंदगी,5.4.12)।

Tuesday, March 6, 2012

फिल्म इंडस्ट्री में कामकाजी जोड़े

घर की दहलीज से बाहर आकर अपने पति या पत्नी के साथ काम करना दुधारी तलवार साबित हो सकता है। एक ओर आपसी रिश्ते में तनाव तो दूसरी ओर प्रोफेशनल तरीके से काम न हो पाने का खतरा बना रहता है। इसके बावजूद बॉलीवुड के जोड़े व्यावसायिक साझेदार बनने में हिचकते नहीं हैं। सुपर स्टार आमिर खान और उनकी डायरेक्टर पत्नी किरण राव इस बात का आदर्श उदाहरण हैं कि घर और काम को कैसे बैलेंस किया जा सकता है। समीक्षकों द्वारा प्रशंसित, किरण की ‘धोबीघाट’ एक-दूसरे के सहयोग के कारण निर्बाध पूरी हो गई। हालांकि परफेक्शनिस्ट आमिर खान इस फिल्म के प्रोड्यूसर और एक्टर के साथ-साथ किरण के पति भी हैं, परंतु उन्हें किरण के भरोसे और नजरिए पर विश्वास था। इसीलिए वह फिल्म की परिकल्पना से लेकर प्रोडक्शन तक, किरण के कंधे से कंधा मिलाकर चले और किरण ने अंतत: उन्हें ड्रीम प्रोड्यूसर का खिताब दिया। उनके रिश्ते में एक बात साफ नजर आती है कि वे पर्सनल और प्रोफेशनल, दोनों ही स्तरों पर एक-दूसरे को समान मानते हैं। 

अपनी पत्नी कल्की को ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ में डायरेक्ट कर चुके राइटर-डायरेक्टर अनुराग कश्यप का मानना है कि उनकी वर्किंग रिलेशनशिप का आधार आपसी भरोसा, सम्मान और सहमति है। दूसरी ओर कल्कि स्वीकार करती हैं कि कई मौकों पर गहरे मतभेद भी उभरते हैं, पर वह उन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं। वह मानती हैं कि लव और केयर की तरह तकरार भी मॉडर्न रिश्तों का जरूरी हिस्सा है। डायरेक्टर अब्बास टायरवाला ने भी अपनी पत्नी पाखी द्वारा लिखित स्क्रिप्ट पर अपनी पिछली फिल्म ‘झूठा ही सही’ बनाई थी, जिसमें हीरोइन भी पाखी थीं। अब्बास कहते हैं, पत्नी को कभी हल्का मत समझिए, कभी नहीं। 

ऐसे जोड़े आज इंडस्ट्री में बढ़ते वर्किंग कपल्स की संख्या पर आश्चर्य नहीं करते और अब हर काम की बागडोर पुरुषों के हाथों में ही नहीं है। डायरेक्शन, प्रोडक्शन, एडीटिंग आदि जो काम पुरुषों के माने जाते रहे हैं, उन्हें अब स्त्रियां भी करने लगी हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की सारी फिल्में उनकी पत्नी पीएस भारती एडिट करती हैं। इसके विपरीत फराह खान की सभी फिल्में उनके एडीटर पति शिरीष कुंदेर एडिट किया करते हैं। कभी इनकी ही तरह विधु विनोद चोपड़ा और रेणु सलूजा मिलकर काम किया करते थे। विशाल भारद्वाज भी अपनी गायिका पत्नी रेखा ‘नमक इश्क का’ फेम से कम से कम एक गाना अपनी हर फिल्म में जरूर गवाते हैं। आशुतोष गोवारीकर को मदद करने के लिए उनकी पत्नी सुनीता भी हमेशा उनके साथ सेट पर मौजूद रहती हैं।  

देखा जाए तो वर्किंग कपल्स का टे्रंड इंडस्ट्री में नया नहीं है। पहले भी देविका रानी-हिमांशु राय, कमाल अमरोही-मीना कुमारी, गुरुदत्त-गीता दत्त/ वहीदा रहमान, अमोल पालेकर-संध्या गोखले जैसे कपल्स ने कामकाज में साझेदारी को सफलतापूर्वक निभाया है। यह टे्रंड पूरी तरह भारतीय टे्रंड भी नहीं है। चार्ली चैप्लिन, सेसिल बी डेमिले, जीन रेनोइर, डीडब्ल्यू ग्रीफिथ, इडो ल्यूपिनो आदि बहुत-सी फिल्मी हस्तियों ने अपने पार्टनर के साथ कई फिल्मों में सफलतापूर्वक काम किया। 

हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कपल्स की प्रोफेशनल साझेदारी का कारण पैसा और किफायत नहीं है। गोवारीकर की पत्नी सुनीता सफलतापूर्वक ‘आशुतोष गोवारीकर प्रोडक्शंस’ संभालती हैं और घर भी। उनकी सलाह है कि निजी हितों के टकराव से बचो। 

प्रोफेशनल साझेदारी का प्रमुख फायदा है कि कपल्स को अधिकांश समय साथ गुजारने का मौका मिलता है, निकटता का आनंद उठा पाते हैं। इससे आपसी बांडिंग और विश्वास भी बढ़ता है। ‘अग्निपथ’ के सिनेमाटोग्राफर किरण देवहंस की आत्मीयता अपनी पारसी डायरेक्टर पत्नी अबान से देखने लायक है। जोड़े वर्क प्लेस की यादें घर लेकर जाते हैं, जिससे उनका रिश्ता बड़ा संवेदनशील हो जाता है। फिल्म ‘अभिमान’ की तरह आपसी ईष्र्या और दुश्मनी का भी जोखिम रहता है। तलाकों की बढ़ती संख्या का एक कारण प्रोफेशनल साझेदारी भी है। एक जैसी रूचि रखना अलग बात है, एक साथ काम करना अलग बात। ज्यादातर पति अपनी पत्नी की सफलता को नहीं पचा सकते और सिनेमा के बिजनेस में कोई भी कुछ बन सकता है। रिश्ते को मजबूत रखने के लिए जरूरी है कि जोड़े भिन्न क्षेत्रों में काम करें(नरेन्द्र देवांगन,दैनिक ट्रिब्यून,26.2.12)।

Tuesday, February 7, 2012

सितारे जमकर दे रहे हैं गालियां

एक ज़माना था, जब धर्मेन्द्र गुस्से में विलेन का खून पीने पर उतारू हो जाते थे, तब भी गाली के नाम पर 'कमीने... कुत्ते' से ज्यादा कुछ नहीं कह पाते थे। हीरो तो हीरो, 'शोले' के आइकॉनिक विलेन गब्बर सिंह यानी अमजद खान भी 'हरामज़ादो...' से बड़ी गाली पूरी फिल्म में नहीं दे पाए थे। तब 'साला' और 'साली' को भी गाली समझा जाता था। कॉमेडी सीक्वेंस में भी गाली वर्जित थी और भले ही एक्टर खुद को साला कह रहा हो, गाली तो गाली थी। इसीलिए जब दिलीप कुमार ने 'सगीना' में 'साला मैं तो साहिब बन गया...' गाया, सेंसर बोर्ड की भौंहें तन गईं और बड़ी मुश्किल से गाना पास कराया जा सका। 

लेकिन अब सिनेमा के साथ गालियों ने भी बड़ी उन्नति कर ली है। विलेन और वैंप तो छोडि़ए, हीरो-हीरोइन पर्दे पर गंदी से गंदी गालियां देते हैं। गालियों के मामले में न सिर्फ सेंसर बोर्ड उदार हो चुका है, बल्कि किरदार और पटकथा की मांग की आड़ में फिल्म मेकर और एक्टर्स भी इसे जायज़ मान चुके हैं। 'इश्किया' में भौंडी गालियां बकने वाले सम्मानित अभिनेता नसीरुद्दीन शाह तक को गालियों पर आपत्ति नहीं है। वे कहते हैं- 'इश्किया' में पृष्ठभूमि और किरदार उत्तर भारत के थे, जहां वैसी ही भाषा बोली जाती है। इस पर इतनी हाय-तौबा मचाने की जरूरत क्या है!' 

गालियों के प्रचलन का आलम यह है कि आज ऐसी फिल्म याद करना ही मुश्किल होगा, जिसमें गालियां न हों। गालियों के इतिहास के बारे में वरिष्ठ पत्रकार धीरेंद्र जैन कहते हैं- 'पर्दे पर खुल्लम खुल्ला गालियों की शुरुआत शेखर कपूर ने 'बैंडिट क्वीन' से की, जिसमें हर डाकू खतरनाक गालियां देता है। लेकिन इस शुरुआत को परंपरा में बदलने वाले फिल्मकार प्रकाश झा, विशाल भारद्वाज, सुधीर मिश्रा जैसे लोग हैं। प्रकाश झा की 'गंगाजल' में भरपूर गालियां हैं तो 'राजनीति' और 'आरक्षण' भी गाली से खाली नहीं है। विशाल भारद्वाज की 'ओमकारा' में यू. पी.-बिहार की शुद्ध गालियां हैं। सुधीर मिश्रा ने 'हजारों ख़्वाहिशें ऐसी' में यशपाल शर्मा के मुंह से बहन की गालियां दिलवायी हैं तो पिछले दिनों आई अपनी फिल्म 'ये साली जि़ंदगी' के टाइटल तक में गाली पिरो दी है। 'पीपली लाइव', 'देहली-बेली', 'नो वन किल्ड जेसिका', 'चमेली', 'जब वी मेट', 'तीस मार $खां', 'गोलमाल-३', 'रा-वन' आदि कई फिल्में तो कहानी से ज्यादा गालियों के लिए याद की जाती हैं।' 

मज़े की बात यह है कि विभिन्न कार्यक्षेत्रों की तरह गाली के क्षेत्र में भी स्त्री अब पुरुष से पीछे नहीं रही। सच तो यह है कि गाली-प्रधान फिल्मों में ज्यादा दमदार गालियां स्त्री किरदारों ने ही दी हैं। नंबर १ हीरोइन करीना कपूर गाली के मामले में भी नं. १ हैं, जिन्होंने 'चमेली' में पहली बार गालियों का अभ्यास किया और आगे चलकर 'जब वी मेट', 'गोलमाल-३', 'रा-वन' जैसी फिल्मों में ज़बान निरंतर सा$फ की। रानी मुखर्जी उनसे थोड़ा ही पीछे हैं, जिन्होंने 'बिच्छू' से लेकर 'नो वन किल्ड जेसिका' तक कई फिल्मों में सामने वाले किरदारों को गालियों से नवाज़ा। 

साड़ी-बिंदी छाप भारतीय नारी की इमेज़ रखने वाली विद्या बालन तक 'इश्किया' और 'द डर्टी पिक्चर' में डर्टी-डर्टी गालियां बक चुकी हैं। हीरोइनें ही नहीं, सपोर्टिंग एक्ट्रेस भी पर्दे पर गालियों की शान बढ़ाती देखी गई हैं। क्या 'दिल्ली-६' में आप दिव्या दत्ता के मुंह से निकली गालियां भुला सकते हैं? बहरहाल, गालियों के बारे में करीना कपूर का कहना है- 'गालियां आज हमारी बोलचाल का हिस्सा हैं। इनका प्रचलन हर जगह हर सभ्यता में है। मुझे पर्दे पर गालियां देने में कोई संकोच नहीं होता। मेरे लिए वह सब $फन है।' 

पर्दे पर तो अमिताभ बच्चन सरीखे चंद अपवादों को छोड़कर सभी गालियां दे रहे हैं, लेकिन पर्दे के पीछे की पिक्चर ज़रा ज्यादा डर्टी है। कोई बात-बात में गाली देता है तो कोई सिर्फ गुस्से में और कोई सिर्फ प्यार में, लेकिन अधिकतर लोग गालियों का इस्तेमाल करते हैं। धीरेंद्र जैन बताते हैं- 'पुराने लोग गालियां कम देते थे। सिर्फ नरगिस, तनूजा, आर. डी. बर्मन, महमूद, पहलाज निहलानी जैसे चंद लोगों के मुंह से गालियां सुनी जाती थीं। राज कपूर, धर्मेन्द्र, राखी, गुलज़ार, शर्मिला टैगोर, माला सिन्हा, जीतेंद्र आद गुस्से में गालियां बक बैठते थे। 'हम साया' के सेट पर माला सिन्हा और शर्मिला टैगोर तथा 'दाग' के सेट पर शर्मिला टैगोर व राखी के बीच गाली-गलौच एक ऐतिहासिक गाली-गलौच थी। ज्यादातर फिल्मी हस्तियां नज़ाकत और शराफत से पेश आती थीं। लेकिन अब स्थिति उल्टी है।' 

आज निज़ी जीवन के गालीबाज लोगों में संजय दत्त, महेश मांजरेकर, शक्ति कपूर, फरहा, अजय देवगन, रानी मुखर्जी, विधु विनोद चोपड़ा, सलमान ख़ान, महेश भट्ट, शेखर कपूर, डेविड धवन, सचिन, प्रीति जिंटा, जैकी श्रॉफ, राजकुमार संतोषी, विजय राज आदि के नाम अग्रणी हैं। शाहरुख खान, अनिल कपूर, उदित नारायण, गोविंदा, मधुर भंडारकर, सोनू निगम, हिमेश रेशमिया, जीतेंद्र, कुमार शानू, करीना कपूर आदि अगल-बगल देखने के बाद गालियों का उच्चार करते हैं कि कोई अवांछित आदमी तो नहीं सुन रहा। 

इनसे अलग दिलीप कुमार, सायरा बानो, अमिताभ बच्चन, आमिर खान, रितिक रोशन, अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन, विवेक ओबेरॉय, लारा दत्ता, अमीषा पटेल, करिश्मा कपूर, श्रवण, शिल्पा शेट्टी आदि बहुत-सी फिल्मी हस्तियों को गाली से परहेज है। अमिताभ कहते हैं- 'मेरे पारिवारिक संस्कार मुझे पर्दे तक पर गाली देने की इज़ाजत नहीं देते। इसीलिए मैंने 'बुड्ढा होगा तेरा बाप' में गाली की जगह बीप की आवाज़ इस्तेमाल की थी।' 

कौन फिल्मी हस्ती कौन-सी गाली देती है, यह तो यहां नहीं लिखा जा सकता, पर गालियों के बारे में एक रोचक तथ्य उभर कर सामने आता है। देखिए न, शुरू में गालियां पशु-पक्षियों पर आधारित थीं- उल्लू, उल्लू का पट्ठा, गधा, बैल, ऊंट, (आस्तीन का) सांप...। फिर गालियों में अंधे, लंगड़े, बहरे, पागल जैसी चारित्रिक विशेषताएं और मां-बहन जैसे रिश्ते आ गए। लेकिन कमाल की बात यह है कि दुनिया की वजनदार गालियां इंसान के गुप्त अंगों पर केंद्रित हैं। एक-एक अंग पर सौ-सौ गालियां रची हुई होंगी। उससे भी कमाल की बात यह है कि ये किसी स्कूल में नहीं सिखाई जातीं, सभ्य समाज में वर्जित हैं, इनकी कोई डिक्शनरी भी नहीं है, फिर भी इनका ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ट्रांसफर होता रहता है। बहरहाल, अपने उपयोग के लिए 'मां की आंख' जैसी सॉफ्ट गाली ईजाद कर चुके (या चुरा चुके) निर्देशक सुनील अग्निहोत्री कहते हैं- 'फिल्म इंडस्ट्री में हर भाषा और संस्कृति की गालियों का चलन है। इसका कारण यह है कि यहां देश के कोने-कोने से आए लोग अपनी-अपनी ज़मीन की गालियां साथ लेकर आए हैं।' 

पिछले कुछ सालों में पर्दे पर गालियों का प्रचलन निरंतर बढ़ा है। अब ऐसी फिल्म याद करना मुश्किल है, जिसमें गालियां न हों। विलेन-वैंप ही नहीं, हीरो-हीरोइन भी पर्दे पर गालियां देते नज़र आते हैं। 

पर्दे पर तो गालियां दी ही जा रही हैं, पर्दे के पीछे की तस्वीर और भी डर्टी है। चंद अपवादों को छोड़कर ज्य़ादातर फिल्मी हस्तियां आम बोलचाल में गालियों का प्रयोग करती हैं। इस मामले में हीरोइनें भी पीछे नहीं हैं...(अनिल राही,दैनिक भास्कर,4.2.12)

Sunday, January 1, 2012

बॉलीवुड 2012

हैप्पी न्यू ईयर! नए साल के पहले दिन यह बात सिर्फ हम ही नहीं बल्कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री आपसे कह रही है। इरादा है बड़ी-बड़ी फिल्में लाने का और वादा है आपको भरपूर मनोरंजन देने का। आइए देखें कि 2012 के पिटारे में आपके लिए कितना फिल्मी मसाला है। 

2012 की खास बातें 
साल 2012 में कई सारी फिल्मों के रीमेक और सीक्वल आपको देखने को मिलेंगे। वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई, दंबग-2, क्या सुपरकूल हैं हम, हाउसफुल-2, रेस-2, इनमें से प्रमुख हैं। बात करें रीमेक की तो अग्निपथ, प्लेयर्स सरीखी फिल्में हैं। इसके अलावा साल 2012 की एक खास बात यह भी है कि दक्षिण के कई सितारे और लेखक हिंदी फिल्मों में दिखेंगे। जिनमें विक्रम जिन्होंने रावण में अहम भूमिका निभाई थी प्रमुख हैं। इसके अलावा कोलावरी डी फेम धनुष ने भी ऐलान किया है कि वह भी हिंदी फिल्मों में काम करना चाहते हैं। इस तरह भी कई बड़ी फिल्में बनेंगी और उम्मीद है कि चलेंगी। इस साल कई ऑफबीट फिल्में भी रिलीज होंगी। 

साल का पहला हफ्ता बड़ी फिल्मों के लिए मुफीद नहीं समझा जाता है। लेकिन पिछले साल ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के आने और सफल होने के बाद यह मिथ टूटा है और इस साल की शुरुआत भी एक बड़ी फिल्म ‘प्लेयर्स’ से होने जा रही है। 2003 में आई हॉलीवुड की सुपरहिट एक्शन-थ्रिलर ‘द इटैलियन जॉब’ के इस हिन्दी रीमेक में अभिषेक बच्चन, बॉबी देओल, बिपाशा बसु, सोनम कपूर, नील नितिन मुकेश जैसे ढेरों सितारे हैं। थ्रिल के उस्ताद निर्देशकों अब्बास-मस्तान की फिल्म है यह, जिसमें न्यूजीलैंड और गोवा के खूबसूरत नजारे हैं और एक बहुत बड़े सोने के जखीरे को कब्जाने का रोमांच भी। 

साल के पहले महीने का बड़ा आकर्षण होगी ‘अग्निपथ’। अपने पिता यश जौहर की बनाई ‘अग्निपथ’ के रीमेक को निर्माता करण जौहर फिर से नए रंग-रूप में निर्देशक करण मल्होत्र की कमान में लेकर आ रहे हैं। हृतिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त और ऋषि कपूर के अलावा ‘चिकनी चमेली’ बन कर कैटरीना कैफ भी नजर आएंगी इस फिल्म में। ‘खोसला का घोसला’, ‘ओए लकी लकी ओए’ और ‘लव सेक्स और धोखा’ वाले डायरेक्टर दिवाकर बैनर्जी की पॉलिटिकल-थ्रिलर फिल्म ‘शंघाई’ भी जल्दी ही आएगी जिसमें अभय देओल, कल्कि कोचलिन, इमरान हाशमी आदि होंगे। दिवाकर इसे अब तक सबसे बड़ी ‘हिंसक’ फिल्म बता रहे हैं। 

एक्टिंग में कुछ खास न चल पाए संजय कपूर इस साल बतौर निर्माता अपनी पारी शुरू करने जा रहे हैं। फिल्म का नाम है ‘इट्स माई लाइफ’ और निर्देशक हैं अनीस बज्मी। पर्दे पर अभी तक फिसड्डी रहे हरमन बवेजा के साथ जेनेलिया डिसूजा और नाना पाटेकर इस फिल्म को कितनी दूर तक खींच पाते हैं, यह देखना दिलचस्प रहेगा। पिछले साल ‘यमला पगला दीवाना’ लेकर आए समीर कार्णिक अब तुषार कपूर और कुलराज रंधावा को ‘चार दिन की चांदनी’ में लेकर आ रहे हैं। 

हल्के-फुल्के फ्लेवर वाली इस रोमांटिक फिल्म में तुषार अपने पिता जीतेंद्र के स्टाइल में डांस करते हुए नजर आएंगे। पिछले साल ‘खाप’ दे चुके निर्देशक अजय सिन्हा शरमन जोशी, रिया सेन व रायमा सेन के साथ रोमांटिक कॉमेडी ‘3 बैचलर्स’ लाएंगे। कई हिट फिल्में लिख चुके रूमी जाफरी की बतौर डायरेक्टर ‘गली गली में चोर है’ में अक्षय खन्ना, श्रेया सरन और मुग्धा गोडसे दिखाई देंगे। रामगोपाल वर्मा की पुलिस, राजनीति और अंडरवर्ल्ड के मेल पर बन रही फिल्म ‘डिपार्टमेंट’ भी जल्द रिलीज होगी जिसमें अमिताभ बच्चान, संजय दा, राणा डग्गूबाटी, अंजना सुखानी, नसीरुद्दीन शाह आदि नजर आएंगे। 

बड़ी सीक्वल फिल्मों का रहेगा जलवा 
करण जौहर वेलेंटाइन डे पर भी धमाका करेंगे। यू टी वी के साथ मिल कर वह नए निर्देशक शकुन बत्र की रोमांटिक-कॉमेडी फिल्म ‘एक मैं और एक तू’ में इमरान खान और करीना कपूर को लेकर आएंगे। फरवरी में ही सैफ अली खान की उस होम प्रोडक्शन फिल्म ‘एजेंट विनोद’ के आने की भी सुगबुगाहट है जो लंबे समय से बन रही है और बताया जाता है कि जिसमें जबर्दस्त एक्शन, सस्पेंस, थ्रिल और स्पेशल इफेक्ट्स हैं। सैफ के साथ करीना कपूर एक बार फिर नजर आएंगी श्रीराम राघवन की इस फिल्म में। वैसे काफी मुमकिन है कि यह फिल्म फरवरी में न आकर फिर टल जाए। 

मगर टिप्स के कुमार तौरानी ने तो मनदीप कुमार वाली अपनी फिल्म ‘तेरे नाल लव हो गया’ के लिए 23 फरवरी की तारीख का ऐलान भी कर दिया है। बहुत जल्द शादी करने जा रहे रितेश देशमुख और जेनेलिया डिसूजा की जोड़ी है इस रोमांटिक फिल्म में। दस साल पहले ‘रहना है तेरे दिल में’ लाए साउथ के नामी निर्देशक गौतम मैनन तमिल और तेलुगू में बनी अपनी फिल्म ‘विनायथांडी वारुवाया’ का हिन्दी रीमेक ‘एक दीवाना था’ की शक्ल में लाएंगे। प्रतीक बब्बर और एमी जैक्सन वाली इस फिल्म में जावेद अख्तर के गीत और ए आर रहमान का संगीत खासा प्रभावी बताया जा रहा है। फरवरी में एक और रोमांटिक फिल्म ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ भी आएगी। अश्विनी चौधरी की इस फिल्म में आर माधवन के साथ बिपाशा बसु नजर आएंगी। वैसे मुमकिन है कि माधवन की पिछले साल की हिट फिल्म ‘तनु वैड्स मनु’ का सीक्वल 2012 के जाते-जाते रिलीज हो जाए। विक्रम भट्ट के बैनर से भूषण पटेल ‘1920’ का सीक्वल ‘1920 एविल रिटर्न्स’ लाएंगे जिसमें आफताब शिवदासानी के साथ टिया वाजपेयी होंगी। 

बस इतना सा ख्वाब है’ और ‘द्रोण’ जैसी फिल्में बना चुके भाई-बहन सृष्टि बहल आर्य और गोल्डी बहल (सोनाली बेंद्रे के पति) एक कॉमेडी फिल्म ‘लंदन पेरिस न्यूयॉर्क’ लाएंगे जिसमें ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ वाले पाकिस्तानी हीरो अली जफर के साथ अदिति राव हैदरी होंगी जो 2011 में ‘ये साली जिंदगी’ और ‘रॉकस्टार’ में नजर आई थीं। मार्च के महीने में एक और जबर्दस्त एक्शन फिल्म ‘तेज’ प्रियदर्शन के पिटारे में से निकलेगी। 

काफी समय से कॉमेडी फिल्में बना रहे प्रियदर्शन साल भर पहले ‘आक्रोश’ से पटरी बदलने निकले थे। वीनस की ‘तेज’ का नाम पहले ‘बुलेट ट्रेन’ रखा गया था जिसमें अजय देवगन, अनिल कपूर, कंगना राणावत, समीरा रेड्डी, जाएद खान आदि हैं। इस फिल्म के एक्शन सीक्वेंस हॉलीवुड की ‘द बोर्न सुप्रीमेसी’ और ‘हैरी पॉटर’ जैसी फिल्मों के लिए काम कर चुके एक्शन-कोऑर्डिनेटर पीटर पेड्रेरो ने डायरेक्ट किए हैं। समीरा रेड्डी ने इस फिल्म में बाइक पर स्टंट करने के लिए महीनों तक ट्रेनिंग ली थी। 

निर्माता साजिद नाडियावाला और निर्देशक साजिद खान की जोड़ी कॉमेडी फिल्म ‘हाऊसफुल 2’ में अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, रितेश देशमुख, असिन और जैकलिन फर्नांडीज के साथ मैदान में उतरेंगे। एकता कपूर अपनी डबल मीनिंग कॉमेडी फिल्म ‘क्या कूल हैं हम’ का सीक्वल ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ में तुषार कपूर, रितेश देशमुख, बिपाशा बसु और साराह जेन डियाज को डायरेक्टर सचिन यार्डी के साथ लाएंगी। विद्या बालन एक बार फिर एक सशक्त रोल में सुजॉय घोष की ‘कहानी’ में इमरान हाशमी के साथ आएंगी। यह एक ऐसी गर्भवती औरत की कहानी है जो अपने पति और अपने होने वाले बच्चे के पिता की तलाश में कोलकाता से लंदन तक जाती है। फिलहाल इसके आने की तारीख 9 मार्च बताई जा रही है। 

रिलीज डेट में बरतेंगे सावधानी 
अप्रैल-मई में आई़ पी़ एल़ के क्रिकेट मैच होने हैं सो मुमकिन है कि इस दौरान आने की हामी भर रही फिल्में ऐन मौके पर टाल दी जाएं। कुणाल देशमुख भट्ट कैंप के लिए इमरान हाशमी और प्राची देसाई को ‘जन्नत 2’ में लाएंगे। रणदीप हुड्डा और एशा गुप्ता भी होंगे इस फिल्म में। यू टी वी स्पॉटब्वॉय के लिए अनुराग कश्यप की बनाई और समीर शर्मा निर्देशित कॉमेडी फिल्म ‘लव शव ते चिकन खुराना’ भी इसी दौरान आएगी जिसमें कुणाल कपूर के साथ हुमा कुरैशी की जोड़ी होगी। ‘दो दूनी चार’ बना चुके हबीब फैजल यशराज फिल्म्स से बोनी कपूर-मोना कपूर के बेटे अजरुन कपूर और पिछले दिनों ‘लेडीज वर्सेस रिकी बहल’ में आईं परिणीति चोपड़ा को ‘इश्कजादे’ में लेकर आएंगे। 

क्रिकेट मैच खत्म होते ही आने वाली फिल्म चाहे कैसी ही हो उसका भव्य स्वागत होता है। 2011 में ‘फालतू’ जैसी कमजोर फिल्म के चलने के पीछे एक वजह यह भी थी। 2012 में आई पी़ एल के बाद पहले सलमान खान की ‘एक था टाइगर’ को आना था लेकिन अब इस मौके यानी 1 जून को आमिर खान, करीना कपूर, रानी मुखर्जी वाली ‘तलाश’ आएगी जिसे रीमा कागती ने डायरेक्ट किया है। कहने की जरूरत नहीं कि आमिर जैसे स्टार वाली निर्माता फरहान अख्तर की इस फिल्म से आप सहज ही बड़ी उम्मीदें बांध सकते हैं। जून में विक्रम भट्ट अपनी उस ‘डेंजरस इश्क’ को लेकर आएंगे जिससे करिश्मा कपूर की बड़े पर्दे पर वापसी हो रही है। 
उनके साथ होंगे जिम्मी शेरगिल और रजनीश दुग्गल। यह महीना एक जबर्दस्त एक्शन फिल्म लेकर आएगा जिसका नाम है ‘राऊडी राठौड़’। निर्माता करण जौहर, अक्षय कुमार और यू टी वी की इस फिल्म को हिन्दी में ‘वांटेड’ जैसी शानदार फिल्म दे चुके प्रभुदेवा डायरेक्ट कर रहे हैं। अक्षय कुमार के साथ सोनाक्षी सिन्हा की जोड़ी वाली इस फिल्म का पहला प्रोमो हृतिक रोशन की फिल्म अग्निपथ’ के साथ रिलीज होगा। ‘राऊडी राठौड़’ के 3 डी में आने की भी चर्चा है। एक रोमांटिक फिल्म ‘तेरी मेरी कहानी’ में शाहिद कपूर, प्रियंका चोपड़ा के साथ नेहा शर्मा को कुणाल कोहली इसी महीने लाने वाले हैं। 

ऑफबीट फिल्मों की बहार 
यू टी वी की ‘बरफी’ में रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा को निर्देशक अनुराग बसु लाएंगे। प्रियंका इस फिल्म में मानसिक रूप से कमजोर बनी हैं और रणबीर गूंगे-बहरे लेकिन यह कोई डार्क फिल्म नहीं है बल्कि एक कॉमेडी है। जुलाई के इस महीने में एक और कॉमेडी फिल्म भी आएगी। कॉमेडी फिल्मों के माहिर डायरेक्टर रोहित शेट्टी की इस फिल्म ‘बोल बच्चन’ को यू़ टी़ वी़ के साथ अजय देवगन बना रहे हैं। 2012 में एक बार फिर आप ईद पर सलमान खान को देखेंगे। 17 अगस्त को आने के लिए तय हुई यशराज की कबीर खान निर्देशित इस रोमांटिक-थ्रिलर ‘एक था टाइगर’ में सलमान और कैटरीना कैफ की जोड़ी होगी। इस महीने का अंत अक्षय कुमार, फराह खान और यू टी वी की फराह के पति श्रीश कुंदेर के डायरेक्शन में बन रही फिल्म ‘जोकर’ से होगा। 3 डी में बन रही इस फिल्म में अक्षय, सोनाक्षी सिन्हा, श्रेयस तलपड़े और मिनिषा लांबा नजर आएंगे। भट्ट कैंप की ‘राज 3’ के भी इसी मौके पर आने की संभावना है। इमरान हाशमी और जैकलिन फर्नांडीज की इस सस्पैंस-थ्रिलर फिल्म को ‘राज’ वाले विक्रम भट्ट ही बना रहे हैं। त्योहारों के मौसम में कई बड़ी फिल्में आने का मन बना रही हैं। धर्मेंद्र-हेमा मालिनी की छोटी बेटी आहना देओल की ‘यहां’ बना चुके शुजित सरकार रोमांटिक फिल्म ‘सेकेंड टाइम लकी’ में प्रतीक बब्बर के साथ लेकर आएंगे। वहीं बनने से पहले ही चर्चाओं में आ गई मधुर भंडारकर की करीना कपूर वाली ‘हीरोइन’ भी इन्हीं दिनों में आने की उम्मीद है। 

गायक-संगीतकार हिमेश रेशमिया को लगा एक्टिंग का शौक अभी खत्म नहीं हुआ है। अब वह अक्षय कुमार और ईरोस के साथ मिल कर ‘खिलाड़ी 786’ बना रहे हैं जिसके डायरेक्टर हैं आशीष आऱ मोहन। 2011 की तरह 2012 की दीवाली भी शाहरुख खान के साथ मनेगी। लेकिन इस बार यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी फिल्म होगी और पूरे चांस हैं कि वह ‘रा वन’ से कहीं बेहतर होगी। 

अब्बास-मस्तान इस साल एक और एक्शन-सस्पेंस-थ्रिलर फिल्म ‘रेस 2’ लेकर आएंगे। टिप्स की इस फिल्म में सैफ अली खान, जॉन अब्राहम, अनिल कपूर, दीपिका पादुकोण, बिपाशा बसु, जैकलिन फर्नाडीज, अमीषा पटेल, चित्रंगदा सिंह जैसे कई चमकते चेहरे होंगे। अक्षय कुमार के बैनर से अश्विनी धीर के निर्देशन में ‘सन ऑफ सरदार’ आएगी जिसमें अजय देवगन, सोनाक्षी सिन्हा, संजय दत्त, जूही चावला आदि होंगे। 2012 का अंत क्रिसमस के मौके पर आने वाली अरबाज खान की फिल्म ‘दबंग 2’ से होगा। सलमान खान और सोनाक्षी सिन्हा की जोड़ी वाली इस फिल्म में प्रकाश राज और सोनू सूद भी होंगे। 

बड़े सितारों और बड़ी धमाकेदार फिल्मों के अलावा हर साल की तरह कम बजट वाली और अलहदा मजा देने वाली कुछ फिल्में भी इस साल आएंगी। इनमें हृदय शेट्टी की ‘चालीस चौरासी’ एक ऐसी क्राइम फिल्म है जिसमें कॉमेडी का भी खासा पुट रहेगा। यू टी वी की तिग्मांशु धूलिया निर्देशित ‘पान सिंह तोमर’ इरफान और माही गिल वाली यह फिल्म एक ऐसे एथलीट की सच्ची कहानी पर आधारित है जो बंदूक उठा कर बीहड़ में कूद गया और डाकू बन गया था। महेश भट्ट के लिए निर्देशक विशाल महादकर थ्रिलर फिल्म ‘ब्लड मनी’ में कुणाल खेमू और अमृता पुरी को लेकर आएंगे। 

27 अप्रैल को आने वाली अपनी स्पोर्ट्स फिल्म ‘फरारी की सवारी’ के प्रोमोज विधु विनोद चोपड़ा ने पिछले दिनों ‘डॉन 2’ के साथ रिलीज कर ही दिए हैं। डायरेक्टर राजेश मापुस्कर की इस फिल्म के हीरो शरमन जोशी हैं। इनके अलावा 2012 में ‘दोस्ताना 2’, ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई 2’, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फरहान अख्तर वाली ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘इंटरनेशनल हेराफेरी’ जैसी कई बड़ी फिल्मों के आने की भी आहट है। साथ ही ‘गुरुदक्षिणा’,‘यह जवानी है दीवानी’, ‘डायल एम फॉर मैरिज’, ‘डम डम डिगा डिगा’, ‘ओसामा’, ‘जिंदगी लाइव’, ‘शादी के लिए लोन’, ‘काश तुमसे मोहब्बत न होती’, ‘चंद्रलेखा’, ‘ग्रेट दादू’, ‘लगी शर्त’ जैसी बहुत सारी फिल्मों की कतार लगी हुई है(दीपक दुआ,हिंदुस्तान,दिल्ली,31.12.11)।