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Thursday, September 30, 2010

कायनात को मिला सबसे खूबसूरत तोहफा हैं लता

लता मंगेशकर का जिक्र चले और करिश्मों की बात न आए हो नहीं सकता। संगीतकार आनंद जी जहां अब भी फिल्म सरस्वतीचंद्र के अपने गाने "फूल तुम्हें भेजा है खत में" की शुरुआत में आने वाले फ अक्षर और इसे गाने में होने वाली मुश्किलों के लता के निकाले तोड़ का बखान करते नहीं थकते। मन्ना डे बताते हैं कि कैसे बरसों पहले लता उन्हें बॉम्बे टाकीज में अनिल बिस्वास के एक गाने की रिहर्सल के दौरान मिली थीं। नई पीढ़ी के शमीर टंडन जिनके लिए लता अब तक गाती रही हैं, उन्हें कायनात को मिला सबसे खूबसूरत तोहफा मानते हैं।

बढ़ती लता को जैसे कभी नापा नहीं जाता वैसे ही लता मंगेशकर को भी अपने जन्मदिन पर खास धूम धमाका करने की आदत नहीं रही है। लता ने मंगलवार को अपना ८१वां जन्मदिन अपने अजीजों के साथ मनाया और लोगों के भेजे मुबारकबाद के संदेशों में खोई रहीं। और, ऐसी ही यादों में खोया रहा पूरा हिंदी सिनेमा। संगीतकार जोड़ी कल्याण जी आनंद जी के आनंद जी ने लता मंगेशकर के साथ तमाम गाने रिकॉर्ड किए हैं, लेकिन अगर उनसे पूछा जाए किसी मुश्किल गीत के बारे में तो वह फिल्म सरस्वतीचंद्र का गाना - फूल तुम्हें भेजा है खत में - का नाम लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि प वर्ग यानी वर्णमाला के प फ ब भ म पांचों अक्षरों में होंठ चिपकते हैं, लेकिन फ बोलते समय जिस तरह से होंठ अलग होते हैं, उसके चलते माइक में आवाज फट जाती है। आनंद जी बताते हैं, जब यह गाना हम रिकॉर्ड करने पहुंचे और फ अक्षर को लेकर मैंने उनसे बात की तो वह बोलीं, मैं कर लूंगी। इसके बाद गाना रिकॉर्ड हुआ और अगर आप ये गाना फिर से सुनें तो पाएंगे कि कितनी खूबसूरती से उन्होंने फूल को सीधे गाने के बजाय फू से ल तक आने के बीच गजब की मुरकियां लीं हैं। यही उनके गायन की खूबसूरती है और इसी के लिए वह महान मानी जाती हैं।

अदाकारी के शहंशाह माने जाने वाले दिलीप कुमार अपने करियर के जब सबसे ऊंचे मुकाम पर थे तो उनकी बस एक ही तमन्ना थी और वह यह कि किसी तरह उन्हें लता मंगेशकर के साथ गाने का मौका मिल जाए। इसका वह अक्सर अपने संगीत निर्देशक मित्रों से जिक्र भी करते। दिलीप कुमार की यह तमन्ना पूरी हुई थी फिल्म मुसाफिर में जिसमें उन्होंने लता के साथ-लागी छूटे ना-गाना गाया था। दिलीप कुमार उन्हें खुदाई नेमत की खिताब देते हैं। मन्ना डे तो लता मंगेशकर का जिक्र करते ही उन दिनों की यादों में खो जाते हैं, जब वह बॉम्बे टाकीज में उनसे पहली बार मिले थे। वह कहते हैं, तब वह लता नहीं थी। वह वहां एक बेंच पर बैठी थी और अनिल बिस्वास ने मुझसे इस लड़की का गाना सुनने को कहा। लता ने गाना शुरू किया तो मुझे तो ऐसे लगा कि मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई है। इतना शुद्ध और इतना पवित्र गायन मैंने इससे पहले कभी नहीं सुना था। तब लता पैदल ही स्टूडियो से स्टूडियो आती जाती थीं। उनके संघर्ष और उनकी लगन ने उन्हें आज यहां तक पहुंचाया है। नई पीढ़ी में संगीतकार समीर टंडन के लिए लता मंगेशकर के घर के दरवाजे हमेशा खुले रखते हैं। लता का अब तक का आखिरी फिल्मी गाना समीर की फिल्म "जेल" के लिए ही रहा है। समीर कहते हैं, लता जी हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत रही हैं। अब वह भजन ही ज्यादा गाती हैं और वह भी तब जब यह उनके मन को छू जाए। लता जी के मेरे पसंदीदा गीतों की बात करें तो मुझे उनके गाए दो गाने-तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं और तेरे बिना जिया जाए ना..बेहद पसंद हैं। फिल्म निर्देशक मधुर भंडारकर का कहना है कि लता मंगेशकर के गाने के बिना उनकी कोई फिल्म पूरी नहीं लगती और उनका सबसे पसंदीदा लता मंगेशकर का गाया गाना है- कांटों से खींचके ये आंचल, तोड़ के बंधन बांधे पायल(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,29.9.2010)।

देव आनंद : पूंजी प्रबंधन और योग

सितंबर के पहले सप्ताह में ऋषि कपूर, राकेश रोशन और आशा भोंसले के जन्मदिन मनाए गए तो आखिरी सप्ताह में देव आनंद, यश चोपड़ा, लताजी और रणबीर कपूर के जन्मदिन रहे। रणबीर कपूर के पिता ऋषि कपूर के जन्म के भी पहले देव आनंद लोकप्रिय सितारा बन चुके थे।

दशकों से समकालीन प्रतिभा त्रिवेणी दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद सुर्खियों में रहे हैं और अपने जमाने में वर्तमान की खान त्रिवेणी से भी ज्यादा लोकप्रिय रहे हैं, परंतु उस दौर में मीडिया आज की तरह छाया हुआ नहीं था। भारत तब भी कृषिप्रधान देश ही था जबकि यह दौर किसानों की आत्महत्या का है। बदलता हुआ भारत सितारों के व्यवहार में भी झलकता है।


रणबीर कपूर राज कपूर के पोते हैं, परंतु शायद महानगरीय युवा भूमिकाओं के कारण देव आनंद की झलक भी उनमें मौजूद है। आज देव आनंद तीन कम नब्बे के हैं और रणबीर दो कम तीस के, परंतु क्या वह देव आनंद की उम्र तक उतने ही सक्रिय रह पाएंगे। आज उम्र को थामे रखने के लिए विज्ञान ने अनेक साधन जुटा लिए हैं, परंतु देव आनंद ने जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही योग विधा का नियमित अभ्यास शुरू कर दिया था। उन दिनों योग को लोकप्रिय बनाने या व्यवसाय में तब्दील करने वाले कोई बाबा नहीं थे।


यह कितने आश्चर्य की बात है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक में वकील पिशोरीमल आनंद इतने सजग और आधुनिक थे कि उन्होंने अपने बेटे चेतन आनंद, देव आनंद और विजय आनंद को उच्च शिक्षा दिलाई। चेतन आनंद तो कॉलेज में पढ़ाने का काम करने के बाद मुंबई आए और उनकी पहली फिल्म ‘नीचा नगर’ ही अंतरराष्ट्रीय समारोह में सराही गई। उन्होंने अपने तीनों पुत्रों को उच्च शिक्षा के साथ-साथ योगाभ्यास में प्रवीण किया। आनंद बंधु लेखक और फिल्मकार होते हुए निरंतर पढ़ते भी रहे, जिस कारण आर.के.नारायण की ‘गाइड’ पर उन्हें फिल्म बनाने की सूझी।

देव आनंद ने महानगरीय युवा की भूमिकाएं अभिनीत कीं और उनके द्वारा निर्मित की गई फिल्मों में आधुनिकता का बोध रहा। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अनेक युवाओं को अवसर दिए। पुणो में अपनी पहली फिल्म करते समय देव आनंद की मित्रता उसी फिल्म के युवा सहायक गुरुदत्त से हुई और उनसे किए वादे को उन्होंने निभाया। गुरुदत्त, राज खोसला, विजय आनंद को अपनी जवानी में ही निर्देशन का अवसर देव आनंद ने दिया। आज के सफल फिल्मकार मिलन लूथरिया, संजय गुप्ता इत्यादि आनंद स्कूल के ही फिल्मकार हैं।

आज वित्तीय प्रबंधन और पूंजी निवेश के विशेषज्ञों का दौर है और अनेक शिक्षा संस्थान इस विधा के लिए बने हैं, परंतु देव आनंद ने इस विधा के उभरने के पहले ही अपनी पूंजी और कंपनी की अर्थव्यवस्था ऐसे ढांचे पर खड़ी की है कि विगत तीस वर्षो में दर्जनों असफल फिल्मों के बाद भी कंपनी चल रही है और किसी पर कोई कर्ज नहीं है। उन्होंने सदियों पुराना तरीका अपनाया है कि जमीन में पूंजी निवेश करो।

सस्ते भाव में खरीदी जमीनें आज भी देव आनंद को मनचाही फिल्में बनाने और अपनी मर्जी का जीवन जीने की सहूलियत दे रही हैं। आज देव आनंद पाली हिल, मुंबई में एक भव्य बहुमंजिला के मालिक हैं(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,29.9.2010)।

लताजी का माधुर्य स्वयं एक धर्म है

लता मंगेशकर के जन्म के शायद पंद्रह महीने बाद ही भारतीय फिल्में सवाक हुईं। यह विज्ञान का मत है कि गर्भस्थ शिशु देखने के पहले शायद पांचवें महीने में सुनने लगता है। इसी कारण अभिमन्यु ने गर्भस्थ अवस्था में चक्रव्यूह के भेदन के बारे में सुना और सीखा, परंतु जब उनके पिता उससे बाहर निकलने की बात कर रहे थे, तब तक माता को नींद आ चुकी थी। इसी तरह भारतीय सिने संगीत की आत्मा लताजी भी सिनेमा में ध्वनि आने से पहले का शंखनाद हैं, गोयाकि सिनेमाई ध्वनि का गर्भस्थ शिशु लताजी ही हैं।

आज से सौ साल बाद के लोग जितने अविश्वास के साथ गांधी नामक अवतार की बात करेंगे, उतनी ही अविश्वसनीय एवं चमत्कारी उन्हें लताजी की आवाज लगेगी। उस कोलाहल वाले युग में यह माधुर्य उन्हें अविश्वसनीय ही लगेगा। कुछ इस तरह के आकलन भी होंगे कि लता नामक पेटेंटेड ब्रांड की ध्वनि को कंप्यूटर आदि यंत्रों की मदद से दस हजार गानों में इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि उस युग में एक ही व्यक्ति द्वारा इतने मधुर गीत गाए जाना उन्हें असंभव लगेगा। बीसवीं सदी मनुष्य इतिहास की विलक्षण सदी थी क्योंकि उसमें गुजश्ता सारी सदियों के आविष्कारों के टोटल से ज्यादा आविष्कार हुए और अजीब बात यह है कि इतने विकास वाली सदी में सबसे भयावह दो महायुद्ध और उनसे भी ज्यादा हानि पहुंचाने वाले अनेक छोटे युद्ध हुए हैं। सड़क और रेल तथा वायु दुर्घटनाओं में अकाल मृत्यु पाने वालों की संख्या विश्वयुद्ध के मृतकों से अधिक है, गोयाकि आविष्कार और विनाश लीलाएं ऐसे साथ-साथ चली हैं मानो तांडव और आनंद साथ-साथ किए गए हों।

इसी विलक्षण सदी में अनेक देशों में आजादी का पथ प्रशस्त किया महात्मा गांधी ने और जख्मी रूहों को सुकून दिया लताजी की आवाज ने। उनकी आवाज ने कई लोगों के लिए औषधि का काम किया। ‘मदर इंडिया’ के लिए प्रसिद्ध फिल्मकार मेहबूब खान लंदन में इलाज करा रहे थे। उनका रक्तचाप नियंत्रण से बाहर था और अनिद्रा रोगों को खतरनाक बना रही थी। मेहबूब खान ने आधी रात (भारतीय समयानुसार) को लताजी से फोन पर ‘रसिक बलमा’ (फिल्म ‘चोरी चोरी’) सुनाने को कहा। गीत सुनकर वह सो गए और गोरे डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि रक्तचाप भी नियंत्रित हो गया।

संसार के असंख्य लोगों ने अपने व्यक्तिगत जीवन के कठिनतम समय में लताजी के गीत सुनकर नई शक्ति पाई है। पांचवें दशक में द्रविड़ मुनेत्र कषगम के आंदोलन के कारण हिंदी विरोधी लहर के समय भी दक्षिण के अनेक लोगों ने लताजी के गीतों के कारण हिंदी सीखी। आज के बाजार शासित युग में अनेक क्लेश ऐसे होते हैं कि मनुष्य विचलित हो जाता है। ऐसी अस्थिरता की अवस्था में लताजी का ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ सुनकर ठहराव आ जाता है। लताजी ने खाड़ी देशों में अपने एक कार्यक्रम के प्रारंभ में ईश्वर वंदना के बाद यह गीत गाया और सारे श्रोता माधुर्य में डूब गए। लताजी को सलाह दी गई थी कि इस धार्मिक गीत का खाड़ी देश में क्या काम! दरअसल माधुर्य स्वयं एक मानव धर्म है और उसे अन्य धर्र्मो के साथ जोड़ने से ज्यादा पागलपन और क्या हो सकता है।

किसी अन्य दशक से ज्यादा आज के समय में लताजी के गीत बार-बार सुनकर ही स्वयं की सैनिटी को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। इस नश्वर संसार में ध्वनि ही कभी नष्ट नहीं होती। वह ब्रह्मांड में चारों ओर घूमती है और शायद ध्वनि ही मनुष्य का एकमात्र कवच है। लता होने का अर्थ और महत्व शब्दों व व्याख्याओं से परे है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,28.9.2010)।

Saturday, September 25, 2010

हॉलीवुड कलाकारों में बॉलीवुड के लिए आकर्षण

हॉलीवड कलाकारों का बॉलीवुड के प्रति आकर्षण बढ़ गया है। सिल्वेस्टर स्टेलॉन, काइली मिनॉग, ब्रैंडन रूथ, बेन किंग्सले और अब ड्रयू बैरीमोर जैसे पश्चिम के सुपरस्टार हिंदी फिल्मों में रूचि दिखा रहे हैं। अब अभिनेत्री ड्रयू बैरीमोर "द लाइफस्टाइल" फिल्म में नजर आएंगी। यह फिल्म अपनी पहचान तलाशतीं तीन विभिन्न क्षेत्रों की महिलाओं पर आधारित है। फिल्म में बैरीमोर एक विदेशी महिला की भूमिका निभाएंगी। हॉलीवुड अभिनेता निकोलस केज के भी विधु विनोद चोप़डा की इंग्लिश फिल्म "ब्रोकन हॉर्सेज" में अभिनय करने की बात कही जा रही है। सितम्बर में इसकी शूटिंग शुरू होनी है। यह भी कहा जा रहा था कि चोप़डा ने एक सरगना की भूमिका के लिए हॉलीवुड के एक्शन अभिनेता मिकी राउरके से बात की थी। "ब्रोकन हॉर्सेज" कथित तौर पर चोप़डा की अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित अभिनीत हिंदी फिल्म "परिंदा" से प्रेरित है। कोलंबियाई गायिका शकीरा भारतीय फिल्म "काली-द वारियर गॉडेज" में देवी काली की भूमिका निभाएंगी। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देशों में शामिल है और हर साल यहां 1,000 से ज्यादा फिल्में बनती हैं। निर्माता साजिद नाडियाडवाला की फिल्म "कम्बख्त इश्क" में स्टेलॉन, रूथ और डेनिस रिचड्र्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय कलाकार थे। निर्देशक एंथनी डिसूजा की अक्षय कुमार अभिनीत "ब्लू" में गायिका काइली मिनॉग एक छोटी सी भूमिका में नजर आई थीं। अभिनेता बेन किंग्सले ने निर्देशिका लीना यादव की फिल्म "तीन पत्ती" में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किंग्सले ने कहा था, ""भारतीय सिनेमा अलग तरह का होता है। आपके पास बॉलीवुड की लोकप्रिय फिल्में हैं जो विदेशों में रहने वाले भारतीयों को बहुत पसंद हैं। पश्चिमी दुनिया में यहां की फिल्मों को अलग तरह से देखा जाता है। पश्चिमी दर्शकों के बीच उनकी लोकप्रियता बहुत ज्यादा है।"" गायक एकन ने शाहरूख खान की विज्ञान-फंतासी फिल्म "रा.वन" में संगीत दिया है और उन्होंने इसे अपने सुरों से भी सजाया है(खासखबर डॉटकॉम,25.9.2010)।

पीपली लाइव ऑस्कर के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि

कर्ज में डूबे किसानों की समस्याओं का चित्रण करने वाली आमिर खान की चर्चित फिल्म पीपली लाइव ऑस्कर पुरस्कार की होड़ में शामिल होगी। पीपली लाइव वर्ष 2011 के ऑस्कर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में भारत की आधिकारिक एंट्री होगी। यह तीसरा मौका है जब बतौर निर्माता आमिर खान की कोई फिल्म प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों में अपनी दावेदारी पेश करेगी। फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया (एफएफआई) के महासचिव सुपर्ण सेन ने शुक्रवार को यहां बताया कि ऑस्कर पुरस्कार की होड़ में पीपली लाइव को 27 फिल्मों के बीच से भारत की आधिकारिक एंट्री के लिए चुना गया। नवोदित निर्देशक अनुषा रिजवी द्वारा मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में फिल्माई गई पीपली लाइव में रंगमंच के कलाकारों ने अपने उम्दा अभिनय से जान डाल दी है। फिल्म में ग्रामीण जीवन के ताने-बाने में देश की राजनीतिक व्यवस्था और मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी निशाना साधा गया है। इससे पहले आमिर खान प्रोडक्शन की लगान (2001) और तारे जमीं पर (2007) भी अकादमी पुरस्कारों में अपनी दावेदारी पेश कर चुकी हैं। भारत में ब्रिटिश राज के दौर की कहानी पेश करने वाली आमिर अभिनीत लगान सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में अंतिम पांच में जगह बनाने में कामयाब रही थी लेकिन बोस्निया की नो मैन्स लैंड से उसे शिकस्त खानी पड़ी थी(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,25.9.210)।

शहरयार को ज्ञानपीठ

उर्दू के नामचीन शायर और जाने-माने गीतकार अखलाक मुहम्मद खान शहरयार को 44वां ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 2008 के लिए दिया जाएगा। जाने-माने लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता डॉ. सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में ज्ञानपीठ चयन समिति की बैठक में शहरयार को पुरस्कृत करने का निर्णय लिया गया। चयन समिति में प्रो. मैनेजर पांडे, डॉ. के. सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवींद्र कालिया शामिल थे। उर्दू के जाने-माने शायर शहरयार का जन्म 1936 में आंवला (बरेली, उत्तरप्रदेश) में हुआ। इस 74 वर्षीय शायर का पूरा नाम कुंवर अखलाक मुहम्मद खान है, लेकिन इन्हें इनके उपनाम शहरयार से ही ज्यादा पहचाना जाना जाता है। वर्ष 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया। वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए। बॉलीवुड की कई हिट हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले शहरयार को सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1981 में आई उमराव जान से मिली। इस वक्त की उर्दू शायरी को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फिराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया।
शहरयार के मायने होते हैं बादशाह। आज ज्ञानपीठ पुरस्कार पाकर शहरयार वाकई में अदब की दुनिया के ताजदार हो गए। उनके लिखे फिल्मी गीत तीन दशक से लोगों की जुबान पर हैं। जदीद गजल और नज्म की गुफ्तगू शहरयार के जिक्र के बगैर अधूरी मानी जाती है। उर्दू दुनिया के मकबूल नाम शहरयार ने फिल्मों के लिए लिखी गजलों में रोमानी खयालात को भी इतने सलीके से बयां कर दिया कि वह जिंदगी का खास और सुखनवर हिस्सा महसूस होता है। हालांकि उनकी शायरी का कैनवास इंसानी जिंदगी की अंदरूनी घुटन के साथ ही समाजी मसाइल और उलझनों की बेहतरीन अक्काशी है। आजकल ताजदारे गजल अपने लख्ते जिगर के पास दुबई में हैं। सो फोन पर लंबी बात तो हो नहीं सकी। दैनिक जागरण से मुखतसर सी गुफ्तगू के दौरान उन्होंने खुशी का इजहार करते हुए कहा कि मुल्क का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ हासिल करना उनकी जिंदगी की अहम उपलब्धि है। उन्होंने ज्यूरी का शुक्रिया अदा करते हुए कहा बड़े फख्रकी बात है। मौजूदा शायरी को किस शक्ल में देखते हैं? ज्यादातर शायर और साहित्यकार मौकापरस्त हो गए हैं। मंचों पर सांप्रदायिक शायरी कर लोगों के जज्बातों को कुरेदा जा रहा है। बस वक्ती तौर पर तालियां बटोरना मकसद रह गया है इनका। इस आबोहवा में समाज का हर फिरका भी मौकापरस्त हो गया है। हालात इस कदर बदतर हो गए है कि पूरी तस्वीर ही बदलने की जरूरत है। स्याह रात नहीं लेती नाम ढलने का। यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का।। कहीं न सबको समंदर बहाके ले जाए। ये खेल खत्म करो कश्तियां बदलने का।। आप शुरुआत कीजिए सुधार की? मुझसे अकेले कुछ नहीं होगा। हालात इतने बदतर हैं कि पूरे समाज को इसकी पहल करनी पड़ेगी। अब रात की दीवार को ढहाना जरूरी है। ये काम मगर मुझसे अकेले नहीं होगा।। समझौता कोई ख्वाब बदले नहीं होगा। जो चाहती है दुनिया मुझसे अकेले नहीं होगा।।(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण/अलीगढ़,25.9.2010)।

Friday, September 24, 2010

'बदनाम' होकर भी मुन्नी झंडू बाम की 'डार्लिंग'

"दबंग" फिल्म में झंडू बाम के बोलों पर थिरकने वाली मलाइका अरोरा को अब झंडू बाम बनाने वाली कंपनी ने अपना ब्रांड एम्बैसडर बना दिया है। फिल्म के निर्माता और मलाइका के पति अरबाज खान ने खबर की पुष्टि करते हुए बताया कि एड गुरु प्रहलाद कक्कड़ की पहल से कंपनी के साथ उनका जो झगड़ा था, वह खत्म हो चुका है और अब हम मिलकर काम करने वाले हैं। मलाइका झंडू बाम की ब्रांड एम्बैसडर होंगी।

बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्डतोड़ कमाई करने वाली दबंग में मुन्नी बदनाम हुई गाने में झंडू बाम शब्द के इस्तेमाल पर विवाद पैदा हो गया था। फिल्म के प्रदर्शन के बाद झंडू बाम बनाने वाली कंपनी ने फिल्म के निर्माता अरबाज खान के खिलाफ अदालत में याचिका दायर करते हुए कहा था कि कंपनी के इस ब्रांड का नाम बिना इजाजत इस्तेमाल किया गया है।

सूत्रों के मुताबिक प्रहलाद कक्कड़ के मलाइका और खान परिवार की तरह ही झंडू बाम कंपनी के मालिकों के साथ अच्छे संबंध हैं। उन्होंने दोनों को सुझाव दिया कि कानूनी लड़ाई लड़ने में दोनों का समय और पैसा बर्बाद हो जाएगा। कानूनी पचड़े में पड़ने के बजाय क्यों न बाहर ही कोई रास्ता निकाला जाए। इसके लिए दोनों पक्ष तैयार हुए और प्रहलाद कक्कड़ ने मलाइका को कंपनी का ब्रांड एम्बेसडर बनाने की पेशकश की, जिसे कंपनी ने स्वीकार कर लिया। सूत्र ने आगे बताया कि प्रहलाद कक्कड़ ही मलाइका को लेकर झंडू बाम का विज्ञापन करेंगे। हालाँकि इसके लिए मलाइका को पैसे दिए जाएँगे या नहीं, इस बारे में सूत्र बता नहीं पाए। कक्कड़ जल्द ही मलाइका को लेकर विज्ञापन की शूटिंग करने वाले हैं(चंद्रकांत शिंदे,नई दुनिया,इन्दौर,24.9.2010)।

राष्ट्रमंडल खेलःदक्षिण भारतीय तड़के में होगा मुम्बइया मसाला

कॉमनवेल्थ खेल के उद्घाटन समारोह में कलाकारों के लटके -झटके दक्षिण भारतीय तड़के में डूबे हो सकते हैं । अपने इशारे पर बड़े -बड़े कलाकारों को नचाने वाले दक्षिण भारतीय निर्देशक को समारोह के सफल निर्देशन की जिम्मेवारी दी गई है । यदि सब-कुछ तय कार्यक्र म के अनुसार हुआ, तो समारोह में शायर जावेद अख्तर अपनी शैली में ही सूत्रधार की जिम्मेवारी निभाएंगे। इतना ही नहीं, कार्यक्रम को आकर्षक बनाने के लिए बॉलीवुड की कई मशहूर हस्तियां भी शिरकत करेंगी जिनमें ऐश्वर्या, अभिषेक , सैफ अली खान,करीना कपूर,सलमान व शाहरुख भी शामिल हो सकते हैं । ओसी के सूत्रों के अनुसार, तीन अक्टूबर को शाम 6:30 बजे से आरंभ होने वाला यह कार्यक्रम तीन घंटे से अधिक समय तक चलेगा। जबकि उस दिन होने वाले इवेंट के समय को जोड़ते हु ए रात्रि 11:30 बजे कार्यक्रम समाप्त होगा। हालांकि ओसी के पदाधिकारी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं कि कार्यक्रम किस तरह से होगा। उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेह रु स्टेडियम में तीन अक्टूबर को खेल का उद्घाटन समारोह आयोजित किया जाना है जिसके लिए स्कूली बच्चों व रंगमंच के कलाकार भी अपना प्रदर्शन करेंगे। इसकी तैयारी उन्होंने शुरू कर दी है । नेहरु स्टेडियम में इन दिनों उनका रिहर्सल भी जारी है । ओसी के एक अधिकारी के अनुसार, कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए साऊथ के मशहूर निर्देशक को जिम्मेवारी दी गई है जिन्होंने कई बेहतरीन फिल्मों का निर्देशन कर अपनी प्रतिभा का पहले ही लोहा मनवाया हुआ है । अधिकारी का कहना है कि कार्यक्रम के दौरान लोगों को शायरी का भी लुत्फ उठाने का मौका मिलेगा। ऐसे कार्यक्र म में बॉलीवुड के कई कलाकार भी शामिल होंगे। हालांकि कार्यक्रम में शामिल होने के लिए उनका उस वक्त खाली होना भी जरूरी है । लेकिन कई कलाकारों ने मौखिक हामी दी है । बताया जाता है कि रहमान के गीत पर थिरकने के लिए डांस ट्रूप के कलाकार रिहर्सल में जुटे हैं ताकि प्रदर्शन में कोई कसर न रह जाए। इसके अलावा दिल्ली के एक दर्जन से अधिक स्कूल व कई अन्य राज्यों से आए कलाकार भी स्थानीय संस्कृति को नृत्य नाटिका इत्यादि के जरिये प्रदर्शित करेंगे।


एआर रहमान कॉमनवेल्थ खेलों के उद्घाटन शो में ‘जय हो’ और ‘मां तुझे सलाम’ गीतों की प्रस्तुति देंगे। जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में खेलों के उद्घाटन समारोह में 60 हजार दर्शकों के बीच राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि के रूप में गांधी का पसंदीदा गीत वैष्णव जन तो भी के साथ शुरू किया जाएगा। खेलों के थीम सांग ‘यारो इंडिया बुला लिया’ की प्रस्तुति के अतिरिक्त एक मानव ट्रेन पर ‘छइयां-छइयां’ नृत्य भी पेश किया जाएगा, जिसमें लगभग 1500 कलाकार शामिल होंगे। मानव ट्रेन नृत्य के जरिए 12 मिनट की भारत की महान यात्रा है, जिसमें भारत के गांवों और छोटे नगरों की कहानी दिखाई जाती है। रिदम ऑफ इंडिया में 900 ड्रमर्स शामिल हैं, जिसके बाद उद्घाटन में हरिहरन का स्वागतम गीत होगा। 45 मिनट के सांस्कृ तिक समारोह में श्याम बेनेगल, प्रसून जोशी, जावेद अख्तर और भारत बाला की क्रिएटिव टीम भी शामिल होगी(निशांत राघव,हिंदुस्तान,दिल्ली,24.9.2010)।

Thursday, September 23, 2010

छॉलीवुड के बढ़ते कदम

छत्तीसगढ़ बनने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब नौ महीने में 12 छत्तीसगढ़ी फिल्में रिलीज हो गईं। अगले तीन महीनों में इतनी ही फिल्में और रिलीज होने वाली हैं। इससे पहले नौ साल में केवल 36 छत्तीसगढ़ी फिल्में रिलीज हुईं थीं। हर छत्तीसगढ़ी फिल्म के साथ यहां तकनीक आगे बढ़ रही है। फिल्म से संबंधित सभी तरह के काम अब शहर में ही हो रहे हैं।


10 करोड़ रुपए से ज्यादा की फिल्में

शुरुआती छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण 1 से 5 लाख रुपए में हो गया लेकिन अब इन पर 15 से 40 लाख रुपए तक खर्च हो रहा है। इस साल 24 से ज्यादा फिल्मों में १क् करोड़ रुपए से ज्यादा का इनवेस्टमेंट हो गया है। सफल फिल्मों ने 20 से 80 लाख रुपए तक का फायदा कमाया है।


छत्तीसगढ़ी कलाकारों का पारिश्रमिक भी कई गुना बढ़ गया है। राज्य बनने के समय मुख्य हीरो को 25 हजार और अभिनेत्री को 10 हजार दिए जाते थे। अभी अभिनेता को 25 हजार से 5 लाख और अभिनेत्री को 20 हजार से 1 लाख रुपए तक मिल रहे हैं।


ये फिल्में रिलीज

भांवर, बंधना, परशुराम, गुरांवट, मया के बरखा, मया के फूल, मोर करम मोर धरम, टूरा रिक्शावाला, मया देदे मयारू, महूं दीवाना तहूं दीवानी, टूरी नंबर वन, एवं छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया।


3 महीने में आने वाली फिल्में

हीरो नंबर वन, महतारी, बिदाई, बैरी सजन, गम्मतिहा, सजना मोर, मितान 420, मंगलसूत्र, मोर गांव, ए मोर बंटहा, तोला ले जाहूं ओढ़रिया एवं परेम के जीत।


इनका कहना है

सुविधाएं मिलने के साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माण में तेजी आई है। ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने कम समय में इतनी फिल्में रिलीज हुई हैं। यही वजह है कि मुंबई और भोजपुरी फिल्मों के कलाकार एवं निर्माता-निर्देशक छत्तीसगढ़ की ओर रुख कर रहे हैं-योगेश अग्रवाल,अध्यक्ष छत्तीसगढ़ फिल्म एसोसिएशन


2010 छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए सुनहरा इतिहास लिख रहा है। नौ साल में जितनी फिल्में नहीं बनीं एक साल में उतनी फिल्में बन रही हैं। आने वाले समय में सुविधाएं और बढ़ती हैं तो एक बड़ी फिल्म इंडस्ट्री में हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा-अनुज शर्मा,अध्यक्ष छत्तीसगढ़ सिने एवं टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन(असगर खान,दैनिक भास्कर,रायपुर,23.9.2010)।

Wednesday, September 22, 2010

रफी और किशोर पर कोलकाता मेट्रो स्टेशनों के नाम

रेल मंत्री ममता बनर्जी ने आज घोषणा की कि सिख गुरु गोबिंद सिंह, कवि मोहम्मद इकबाल और प्रख्यात पार्श्व गायकों मोहम्मद रफी और किशोर कुमार के नाम पर कोलकाता मेट्रो स्टेशनों के नाम रखे जाएंगे।

दक्षिण के 24 परगना जिले के जोका से शहर के मध्य में स्थित बी.बी.डी. बाग तक एक नई मेट्रो लाइन की नींव रखे जाने के मौके पर आयोजित समारोह में ममता ने कहा, ''हम मोहम्मद रफी और किशोर कुमार के नाम पर स्टेशनों के नाम रखेंगे। कोलकाता में बहुत से सिख हैं और उनकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए हम एक स्टेशन का नाम गुरु गोबिंद सिंह के नाम पर रखेंगे।''

उन्होंने यह भी कहा कि अन्य स्टेशनों के नाम पूर्व भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी गोश्थो पाल और गायिका मोहिनी चौधरी के नाम पर रखे जाएंगे।

उन्होंने कहा, ''हम मोहिनी चौधरी के नाम पर भी एक स्टेशन का नाम रखेंगे। हम शहर के खेल केंद्र मैदान क्षेत्र की मैट्रो का नाम गोश्थो पाल के नाम पर रखेंगे। 'सारे जहां से अच्छा' जैसा अमर गीत देने वाले मोहम्मद इकबाल को भी हम इसी तरह सम्मानित करेंगे।''

कोलकाता में 16.72 किलोमीटर की लंबाई में 13 स्टेशन बनेंगे और 2,619.02 करोड़ रुपये की लागत से उनका निर्माण होगा।

ममता ने कहा कि अन्य सात स्टेशनों के नाम स्थानीय लोगों की राय लेने के बाद रखे जाएंगे।

Sunday, September 19, 2010

अंकुरित शबाना अब भी संभावना

शबाना आजमी को सिनेमा क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए आज मुंबई में, ‘ताज एन्लाइटन तारीफ अवार्ड’ से नवाजा गया।

सम्मानित किए जाने के बाद शबाना ने पत्रकारों से कहा, ‘मुझसे पहले भी यह पुरस्कार कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों को मिल चुका है। जिनके काम की मैं हमेशा प्रशंसा करती रही हूं।’ चाय बनाने वाली प्रमुख कंपनी ‘ब्रुक बॉन्ड ताज महल’ और ‘एन्लाइटन फिल्म सोसायटी’ की तरफ से शबाना को यह पुरस्कार दिया गया।

गौरतलब है कि शबाना के पहले यह पुरस्कार फिल्म निर्देशक मृणाल सेन, पटकथा लेखक व गीतकार जावेद अख्तर और मेगास्टार अमिताभ बच्चन को मिल चुका है। कल ही शबाना ने अपने साठ वर्ष पूरे किए हैं। दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे बता रहे हैं कि कैसे शबाना अब भी एक संभावना हैः
आज (18 सितंबर) को शबाना आजमी साठ वर्ष की हो रही हैं और रंगमंच पर सक्रिय हैं। उनके नाटक ‘ब्रोकन इमेजेस’ का प्रदर्शन हो रहा है। जब वह छोटी थीं, तब शौकत आजमी उन्हें गोद में लिए नाटक करने जाती थीं। यह देख पृथ्वीराज कपूर ने आया का बंदोबस्त किया था। अब्बा कैफी आजमी ने शौकत से प्रेम विवाह किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा को समर्पित इस जोड़े को अन्य साथियों के साथ कम्युनिटी हॉल में लंबे समय तक रहना पड़ा।

शबाना को घुट्टी में ही साहित्य, सिनेमा और रंगमंच के संस्कार मिले और उनका जीवन भी पटकथा की तरह रहा है। उन्होंने पूणो फिल्म संस्थान से शिक्षा पाने के बाद श्याम बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर’ से अपनी अभिनय यात्रा आरंभ की। इस यात्रा में समानांतर सार्थक सिनेमा के साथ मसाला, व्यावसायिक फिल्में भी शामिल रहीं। उन्होंने विदेशी भाष की फिल्में भी अभिनीत कीं। रंगमंच से तो उनका जन्म का ही नाता रहा है। वह राज्यसभा सदस्य भी रही हैं।

शबाना का कहना है कि अगर उनके अपने बच्चे हुए होते तो शायद उनका जीवन दूसरे किस्म का रहा होता, परंतु उनकी मां शौकत ने बच्चों के होते हुए सक्रिय जीवन जिया है। अरसे पहले उन्होंने कहा था कि मातृत्व ही महिला-जीवन का शिखर या सार्थकता नहीं है। दूसरों के बच्चों को प्यार करना भी मातृत्व ही है। बच्चे कोख में जन्मते हैं, परंतु दिल में पलते हैं और आंखों में बड़े होते हैं। क्या सचमुच सूनी कोख भावना शून्यता को जन्म दे सकती है?

मदर टेरेसा से बड़ी मां कौन हो सकती हैं! यह भी विचारणीय है कि मातृत्व की महिमा कुछ ऐसी गढ़ी गई है कि महिला जीवन के अन्य क्षेत्रों को गौण कर दिया गया है और ‘मां नहीं बनी तो जीवन व्यर्थ है’ को नारी जीवन का मूल बना दिया गया है। क्या यह औरत के संपूर्ण विकास के खिलाफ रचे षड्यंत्र का हिस्सा है कि उत्तरदायित्व नारी का है, परंतु उसे कोई अधिकार नहीं है?

शरत बाबू की ‘बिंदो का लल्ला’ महान रचना है। बहरहाल शबाना ने श्याम बेनेगल के साथ काम करते हुए भी मसाला फिल्मकारों के साथ सहजता से काम किया है। उन्होंने नसीरुद्दीन के साथ ही सितारा शशि कपूर के साथ भी स्वाभाविकता से काम किया। उनका मन तो समानांतर सिनेमा में रमता था, परंतु मसाले के लिए अपनी हिकारत को संयत और छिपाए रखा। यह उनकी अग्नि परीक्षा थी।

नसीर कई बार इस हिकारत को छिपा नहीं पाए। इस मामले में ओम पुरी का कोई जवाब नहीं। कुछ वर्ष पूर्व शबाना ने दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में विधवा की भूमिका के लिए अपना सिर मुंडवा लिया था, परंतु हुड़दंगियों ने बनारस में शूटिंग नहीं होने दी। अभिनय में इस तरह की बातें कितना दुख पहुंचाती होंगी।

कुछ समय पहले शबाना ने एक फिल्म के लिए अपना वजन बढ़ाया था और शूटिंग के बाद वजन घटाने का कष्ट भी सहा। विनय शुक्ला की ‘गॉडमदर’ के लिए सिगरेट भी पी और नृत्य भी किया, जिसे देखकर श्याम बेनेगल ने सुखद आश्चर्य अभिव्यक्त करते हुए कहा था कि ऐसी कोई भूमिका नहीं, जिसे शबाना निभा न सकें।

अभिनय करने वालों को अपना शरीर बांसुरी की तरह इस्तेमाल करना पड़ता है। भूमिका के अनुरूप स्वर निकालना होता है। कलाकारों को सोचना चाहिए कि कभी बांसुरी विद्रोह करे तो क्या होगा? बहरहाल उम्र के इस पड़ाव पर भी शबाना एक संभावना हैं।

Saturday, September 18, 2010

तकनीक और बॉक्स ऑफिस

भारत में विज्ञान फंतासी फिल्मों का अतीत बहुत सुनहरा नहीं रहा है। इसके बावजूद आजकल ऐसी दो फिल्में चर्चा में हैं। पहली तो है दक्षिण के सुपर स्टार रजनीकांत की एंधिरन और दूसरी है हिन्दी फिल्मों के सुपर स्टार शाहरूख खान की रॉ वन। चर्चा का विषय यह है कि क्या बड़े बजट पर बनाई जा रही ये साई फाई फिल्में सफल हो पाएंगी? हालांकि अपने यहां मि. इंडिया, कोई मिल गया और कृष जैसी फिल्में सफल हुई हैं, लेकिन सीमित भारतीय बाजार के लिए बन रही इन महंगी फिल्मों के पीछे झांकती रिपोर्ट।

इस समय दो फिल्मों की जबर्दस्त चर्चा है। एक दक्षिण के सुपर स्टार रजनीकांत की एंधिरन और दूसरी बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान की रॉ वन। मगर इन दोनों फिल्मों की चर्चा इनके सुपर स्टारों के कारण नहीं, बल्कि इसलिए है, क्योंकि ये दोनों फिल्में भारत में बनने वाली साई-फाई यानी विज्ञान फंतासी फिल्में हैं। टॉलीवुड से एंधिरन रोबोट शीर्षक से हिन्दी में डब कर सम्पूर्ण भारत में भी रिलीज की जा रही है। यह इत्तफाक ही है कि निर्देशक शंकर एंधिरन को शाहरुख खान के साथ ही बनाना चाहते थे। खान के इंकार करने पर वह कमल हासन के पास गये, लेकिन वहां भी बात नहीं बनी। रजनीकांत उनकी तीसरी पसन्द थे। रोबोट और रॉ वन विज्ञान फंतासी फिल्मों की श्रेणी में आती हैं। लेकिन दोनों में मूलभूत अंतर भी है। रोबोट की पृष्ठभूमि में जहां आज का विश्व है, वहीं रॉ वन वर्चुअल रियलिटी वर्ल्ड पर केन्द्रित है। रोबोट में रजनीकांत एक वैज्ञानिक बने हैं, जो एक रोबोट का निर्माण करते हैं। वह रोबोट हू-ब-हू रजनीकांत जैसा है। रॉ वन रैंडम एक्सेस-वर्जन वन से बने सुपर हीरो की कहानी है। इसमें विज्ञान का कम और कल्पना का सहारा ज्यादा लिया गया है।

बेशक एंधिरन/रोबोट में तमिल फिल्म इंडस्ट्री के सुपर स्टार रजनीकांत तथा रॉ वन में हिन्दी फिल्मों के सुपर स्टार शाहरुख खान के हीरो होने से ये दोनों फिल्में जबर्दस्त सुर्खियों में आ गयी हैं। मगर इन विज्ञान फंतासी फिल्मों की सफलता का सारा दारोमदार इन्हें देखने वाले दर्शकों पर रहेगा।

भारत में बनी विज्ञान फंतासी का इतिहास टटोल लेते हैं। भारत में पहली विज्ञान फंतासी फिल्म कादू तमिल भाषा में 1952 में बनी थी। यह फिल्म अमेरिकी सहयोग से बनी थी। 1960 के दशक में सत्यजित रे ने अपनी लिखी बांग्ला कहानी बांकूबाबुर बॉधु पर हॉलीवुड के स्टूडियो कोलम्बिया पिर्स से द एलियन बनाने की कोशिश की, लेकिन फिल्म शुरू ही नहीं हो सकी। बॉलीवुड में बनी बोनी कपूर की अनिल कपूर और श्रीदेवी अभिनीत फिल्म मिस्टर इंडिया ने एक बार फिर विज्ञान फंतासी फिल्मों की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट किया, लेकिन मिस्टर इंडिया की सफलता के बावजूद हिन्दी में विज्ञान फंतासी फिल्मों का सिलसिला नहीं बन सका। हिन्दी में मिस्टर इंडिया के अलावा कोई मिल गया, कृष, रूद्राक्ष, अपरिचित, टार्जन द वंडर कार, लव स्टोरी 2050 आदि फिल्में विज्ञान फंतासी फिल्मों में शुमार की जाती हैं।

अमूमन हिन्दी भाषा में बनी विज्ञान चमत्कार वाली फिल्में सफल नहीं होतीं। सुबी सेमुअल की फिल्म अलग, जहांगीर सुरती की फिल्म आ देखें जरा, शंकर की फिल्म अपरिचित, नितिन दास की फिल्म फॉर्मूला 66, हैरी बावेजा की फिल्म लव स्टोरी 2050, रूद्राक्ष, जाने कहां से आयी है, द्रोण और थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक जैसी फिल्मों का विज्ञान चमत्कार नहीं दिखा सका।

लव स्टोरी 2050 को ही लीजिए। इस फिल्म पर हैरी बावेजा ने पानी की तरह पैसा बहाया, पर कहानी नदारद थी। स्क्रिप्ट बेहद झोलदार और ढीली थी। फिल्म की रफ्तार भी काफी सुस्त थी। अमूमन ऐसी फिल्में तेज रफ्तार की होती हैं। दरअसल, सुपर पावर रखने वाले सुपर हीरो की इन फिल्मों को सुपर स्टार की जरूरत होती है। मिस्टर इंडिया में अनिल कपूर तथा कृष और कोई मिल गया में ऋतिक रोशन सुपर हीरो की भूमिका कर रहे थे। यह तीनों फिल्में सुपर हिट रहीं। बेशक इन फिल्मों को अच्छी कहानी और चुस्त स्क्रिप्ट का भी सहारा मिला। ऐसा न होता तो रूद्राक्ष, द्रोण, लव स्टोरी 2050 आदि फिल्में बुरी तरह पिटती नहीं।

हिन्दी में मिस्टर इंडिया की सफलता के बावजूद 16 साल बाद दूसरी विज्ञान फंतासी फिल्म कोई मिल गया बनी। इससे साफ है कि भारत में विज्ञान फिल्मों का सिलसिला काफी धीमा है। ऐसी फिल्मों के प्रति निर्माताओं का खास रुझान नहीं। ऐसी फिल्मों में तकनीक शामिल होने के कारण इन्हें बनाने में काफी वक्त लगता है और पैसा भी, जबकि हिन्दी फिल्मों का बाजार सीमित है।

क्या रोबोट और रॉ वन हिट होंगी? इन दोनों फिल्मों में सुपर स्टार हैं, पर कहानी है क्या? रॉ वन शाहरुख खान की फिल्म से अधिक वीएफएक्स की फिल्म है अर्थात् इस फिल्म में विजुअल इफेक्ट्स सुपर हीरो हैं। यदि दर्शकों को विज्ञान की तकनीक अपील कर गयी तो ये दोनों सुपर हीरो फिल्में सुपर हिट हो जाएंगी। पर इन फिल्मों की सफलता असफलता से बेखबर श्रीराम राघवन जॉन अब्राहम और ऐश्वर्या राय को लेकर हैप्पी बर्थ डे, विपुल शाह अक्षय कुमार और ऐश्वर्या राय के साथ एक्शन रीप्ले और राकेश रोशन कृष का सीक्वल बना रहे हैं। ये फिल्में सफल हो गयीं तो बॉलीवुड में भी विज्ञान फंतासी फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।

फिल्म : कृष
प्रदर्शित हुई : 2006 में
निर्देशक : राकेश रोशन
कलाकार : ऋतिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, रेखा, नसीरुद्दीन शाह

फिल्म : कोई.. मिल गया
प्रदर्शित हुई : 2003 में
निर्देशक : राकेश रोशन
कलाकार : ऋतिक रोशन, प्रीति जिंटा, रेखा, राकेश रोशन, प्रेम चोपड़ा

फिल्म : द्रोण
प्रदर्शित हुई : 2008 में
निर्देशक : गोल्डी बहल
कलाकार : अभिषेक बच्चन, प्रियंका चोपड़ा, के. के. मेनन, जया बच्चन

फिल्म : रुद्राक्ष
प्रदर्शित हुई : 2004 में
निर्देशक : मणि शंकर
कलाकार : संजय दत्त, बिपाशा बसु, सुनील शेट्ठी, ईशा कोप्पिकर, कबीर बेदी

फिल्म : मि. इंडिया
प्रदर्शित हुई : 1987 में
निर्देशक : शेखर कपूर
कलाकार : अनिल कपूर, श्रीदेवी, अमरीश पुरी, सतीश कौशिक

फिल्म : लव स्टोरी 2050
प्रदर्शित हुई : 2008 में
निर्देशक : हैरी बावेजा
कलाकार : हरमन बावेजा, प्रियंका चोपड़ा, बोमन ईरानी, अर्चना पूरन सिंह
(राजेन्द्र काण्डपाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,17.9.2010)

..जिसे दुनिया म़ुग़ले-आजम के नाम से याद करती है

मुगल-ए-आजम की शुरुआत एक आवाज से होती है। एक ऐसी आवाज, जो आज तक सिनेमा के आशिकों के कानों में गूंजती है।

‘मैं हिंदोस्तान हूं। हिमालय मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। तारीख़ की इब्तदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी हूं। और मेरी ख़ाक पर संगे-मरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतें दुनिया से कह रही हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा। नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दीं और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका। मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान का नाम जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मजहब और रस्मो-रिवाज की दीवार से बलंद होकर, इंसान को इंसान से मोहब्बत करना सिखाया। और हमेशा के लिए मुझे सीने से लगा लिया।’

और हां, फिल्म को आगाज देती हुई यही आवाज उसे अंजाम तक भी पहुंचाती है।

‘..और इस तरह, मेरे चाहने वाले शहंशाह जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर ने अनारकली की जिंदगी बख्श दी। और दुनिया की नजरों में जुल्म और बेरहमी का दाग़ अपने दामन पर ले लिया।

मैं उस शहंशाह के इंसाफ की यादगार हूं, जिसे दुनिया मुग़ल-ए-आजम के नाम से याद करती है।’

जमाने पर जादू की तरह छा जाने वाली यह बलंद आवाज है अमानुल्ला ख़ान की। जिसने जमाने की सहूलियत के लिए अपने नाम को छोटा बनाकर कर लिया था- अमान। और इस तीन लफ्ज के छोटे से नाम के साथ ही इतना बड़ा काम कर दिखाया कि दुनिया में चाहे तमाम चीजं हर रोज बदलती रहें, लेकिन इस एक हक़ीक़त के साथ उनका नाम कायम रहेगा कि फिल्म ‘मुग़ल-ए-आजम’ का स्क्रीन-प्ले के. आसिफ के साथ अकेले उन्होंने ही लिखा था। फिल्म के अमर डायलॉग लिखने में भी वजाहत मिर, अहसन रिजवी और कमाल अमरोही के साथ बहुत बड़ा योगदान था। इसी वजह से फिल्म के टाइटल्स में भी सबसे पहला नाम भी उन्ही का आता है। रही बात उनकी आवाज की, तो उसके बारे में मुझे क्या कहना है। आप सब ख़ुद ही जानते हैं। हां, अलबत्ता यह बात जरूर एक बार और दोहरा देता हूं कि जीनत अमान उन्ही की बेटी हैं।


मैं आज अमान साहब की बात इसलिए कर रहा हूं कि यूं तो ‘मुग़ल-ए-आजम’ की हर शै लासानी है, लेकिन इस फिल्म के डायलॉग और गीत ही ऐसी चीज हैं, जो हम लोग फिल्म से लौटते हुए अपने साथ ले आते हैं। जिन्हें हम जिंदगी में कभी-कभी, कहीं-कहीं दोहरा भी लेते हैं। सो इन्हें रचने वालों को याद करना जरूरी है। सो बात तो हम चारों कलमवीरों की करेंगे, लेकिन आज शुरुआत में बात करेंगे अमान साहब और शकील बदायूंनी की मिलकर लिखी गई एक तहरीर से। इस तहरीर का इस्तेमाल ‘मुग़ल-ए-आजम’ को लेकर बनी एक काफी पुरानी डॉक्युमेंट्री फिल्म में इस्तेमाल किया गया था। आवाज एक बार फिर वही अमान की।

इसे सुन लीजिए, इसमें फिल्म के बनने को लेकर बहुत ही ख़ूबसूरत बयान है। अगले हफ्ते हम लोग चारों डायलॉग राइटर्स की कंप्लीट बात कर लेंगे। ठीक ? ..तो सुनिए-

‘406 बरस पहले जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर नाम का एक बादशाह इस देश में गुजरा है, जिसे दुनिया मुग़ल-ए-आजम के नाम से जानती है। अकबर का जमाना गुजरे सैकड़ों साल बीते, मगर इंसाफ और प्यार के साथ आज भी अकबर का नाम जिंदा है।

और फिर 406 बरस बाद इसी देश में एक और इंसान ने जन्म लिया। उसका नाम के. आसिफ है। उसके दिल में अकबर की मोहब्बत जागी। वतन की तारीख़ और सभ्यता का प्यार उमड़ा। और वो मुग़लों के शानदार दौर की एक झलक दिखाने को तड़पने लगा।

ये तड़प, ये आरजू, आसिफ की जिंदगी की धड़कन बन गई और वो मुग़ल-ए-आजम का ख्वाब देखने लगा। उसने सबसे अलग हटकर सोचा। उसके दिमाग में मुग़लों की शानो-शौकत का असली नक्शा खिंचने लगा। ख़ाके बनते चले गए। झलकियां आती चली गईं। इन बिखरे हुए ख्यालों को एक तारीख़ी कहानी में ढालने के लिए आसिफ ने इंडस्ट्री के बेहतरीन दिमाग़ों की खि़दमात हासिल कीं। वजाहत , अहसन रिजवी, कमाल अमरोही और ख़ास तौर पर अमान ने अपने-अपने कलम के जौहर दिखाए। और फिर कल्पना और आर्ट के और माहिर अजीम शायर शकील बदायूंनी, मौसीकी के बादशाह नौशाद। लाजवाब फोटोग्राफर आर.डी.माथुर।

बेहतरीन साउंड रिकॉर्डिस्ट अकरम शेख। नामी एडीटर धरमवीर। एसोसिएट डायरेक्टर एस.टी.जैदी। आर्ट डायरेक्टर एम.के.सईद, मुग़ल-ए-आजम में शरीक हो गए।

दिमाग़ों ने ख़ाका खींचा। हाथों ने गुल-बूटे खिलाए। और मुग़ल-ए-आजम के सेट्स की धूम हिंदुस्तान भर में मच गई। उन्हें देखने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आने लगे।

आहिस्ता-आहिस्ता सेट्स की शोहरत हिंदुस्तान के बाहर दूसरे मुल्कों में भी फैल गई। अफग़ानिस्तान और सऊदी अरब के शाही मेहमान। नेपाल के वजीरे-आजम। इटली के मशहूर डायरेक्टर रोजोलिनी। इंगलैंड के मशहूर हिदायतकार डेविड लीन और चीन का एक कल्चरल डेलीगेशन मुगल-ए-आजम के सेट्स देखने के लिए आए और हिंदुस्तान के लाजवाब कारीगरों की तारीफ किए बग़ैर न रह सके।

इन सच्चे कलाकारों ने मुग़ल-ए-आजम को तारीख़ का सच्चा नमूना बनाने के लिए कोई कसर उठाकर नहीं रखी। एक-एक लिबास पूरी जांच-पड़ताल के बाद तैयार किया गया। अपनी ख़ूबसूरती और बनावट में मु़ख्तलिफ आराइशी सामान, हजारों जंगी लिबास, ढालें, तलवारें और मुजसिमे, अकबरी जमाने के सामान से किसी तरह कम लागत और मेहनत से तैयार नहीं हुए। हर चीज आर्ट और दिलकशी का एक ख़ूबसूरत संदेश बनकर आंखों के सामने आए।

लाखों इंसानों ने मुग़ल-ए-आजम के सामान की उस नुमाइश को देखा, जो बंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में सजाई गई थी। और इस तरह डेढ़ करोड़ रुपए की लागत और दस बरस की मेहनत से हिंदुस्तान की सबसे बड़ी तस्वीर ‘मुग़ल-ए-आजम’ तैयार हो गई।

आसिफ का चेहरा ख़ुशी से खिल उठा।

आज हिंदुस्तान के लाखों इंसान, इनकी मेहनत की दाद देने के लिए बेताब हो गए। मुग़ल-ए-आज़म के टिकटों के लिए समंदर की मौजों की तरह लोग सिनेमा घरों पर टूट पड़े। जिधर आंख जाती, लाखों इंसान नजर आते थे।

मर्द, औरत, बच्चे, बूढ़े, मुग़ल-ए-आजम देखने की आरजू में दो-दो मील लंबी कतारों में खड़े हो गए। कई मनचलों ने तो अपनी कतारों में बिस्तर भी बिछा दिए। फिल्म इंडस्ट्री की तारीख़ में किसी तस्वीर के लिए ऐसा हुजूम न पहले कभी आंखों ने देखा है और न शायद आइंदा देख सके। आज का दिन (5 अगस्त 1960) फिल्म इंडस्ट्री के लिए बड़े फक्र का दिन था। हिंदुस्तान के हर छोटे-बड़े शहर में एक धूम मची हुई थी।

और फिर मुग़ल-ए-आजम का किरदार अदा करने वाले पृथ्वीराज और मुग़ल-ए-आजम बनाने वाले के. आसिफ ख़ुशी में एक-दूसरे से लिपट गए।’ इसके आगे का बयान कहानी को व़क्त से बहुत आगे ले जाना होगा, क्योंकि आगे फिल्म के प्रीमियर का मंजर है। अब यह मंजर इतना ख़ूबसूरत है कि मैं न ख़ुद को रोक पा रहा हूं और न आपको इंतजार करवाना चाहता हूं। सो बात एक बार फिर अमान साहब के हवाले करता हूं।

हां, एक बात जरूर पहले ही बता दूं कि इस प्रीमियर शो पर न तो दिलीप कुमार आए थे और न मधुबाला। मधुबाला तो शायद बीमार थीं, लेकिन दिलीप कुमार तो एक नाराजगी के तहत नहीं आए। फिल्म के ख़त्म होते-होते आसिफ और दिलीप कुमार के रिश्तों में जबरदस्त कड़वाहट आ गई थी, क्योंकि आसिफ ने दिलीप कुमार की बहन अख्तर से शादी कर ली थी। इस पर विस्तार से आगे बात करेंगे।

ख़ैर। अब आगे की बात अमान साहब की जुबानी- ‘बंबई के सबसे ख़ूबसूरत सिनेमा ‘मराठा मंदिर’ को दुल्हन की तरह सजा दिया गया और प्रीमियर की रात को आसिफ ख़ुद मेहमानों के स्वागत के लिए खड़े हो गए।
मुअजिज मेहमान आने लगे।

सर कावसजी जहांगीर, ये पहली बार हिंदुस्तानी फिल्म देखने आए हैं। शकील, अमान, कारदार, नौशाद और शफी, आज कितने ख़ुश हैं। राजकुमार। सबकी तरह आज फिल्म स्टार्स भी मुग़ल-ए-आजम देखने को बेताब हैं। हंसमुख ओमप्रकाश। अ-ह-हा, मुकरी साहब जरा एक इधर तो देखिए। .. शुक्रिया।

राज कपूर अपनी धर्मपत्नी के साथ। ये आज ही मुग़ल-ए-आग़म के प्रीमियर में शामिल होने बर्लिन से आए हैं.. शम्मी कपूर और गीता बाली। जी आप पिक्चर देखने को बहुत बेचैन मालूम होते हैं.. ओ हो, इनके पीछे तो नादिरा हैं।

अ हा! रफी साहब। नौशाद साहब और शकील साहब इन्हें ख़ुश-आमदीद कह रहे हैं। ये हैं नसीम अपनी बेटी सायरा (बानो) के साथ। ख़ूबसूरत हीरो राजेंद्र कुमार अपनी धर्मपत्नी के साथ.. इन्हें पहचानने में ग़लती न कीजिएगा। ये सुरैया हैं। अपनी मम्मी के साथ।
अरे ये दुर्जन सिंह सूट पहनकर कहां से आ गया? ये अजीत हैं।

इन्होंने पिक्चर में दुर्जन सिंह का रोल अदा किया है। अहा! ये आर्टिस्टों का ख़ानदान है। नूतन, तनूजा और उनकी माता शोभना समर्थ। जरा मुस्कराइए तो सही। शुक्रिया। औए ये वहीदा रहमान हैं। जरा मुस्कराइए.. ये मुस्कराएंगी नहीं। इन्हें फिल्म देखने की जल्दी है। इनके पीछे हैं प्रोड्यूसर-डायरेक्टर गुरुदत्त.. मक़बूल हीरो देव आनंद और उनकी पत्नी कल्पना कार्तिक। बिमल राय और उनकी धर्मपत्नी.. म्यूजिक डायरेक्टर जयकिशन। ये हैं श्यामा। जरा मुस्कराइए तो साहब। वाह-वाह-वाह। क्या बात है।

ये हैं नग़मों की रानी लता मंगेशकर। ये जयश्री हैं। ये हैं माला सिन्हा। इनके साथ ये कौन हैं? ओ हो, इनके पिताजी। मगन भाई ओवरसीज के डिस्ट्रीब्यूटर के. टी. के साथ.. मीना कुमारी और उनके शौहर कमाल अमरोही.. जॉय मुखर्जी बहुत जल्दी में हैं। ये निगार सुल्ताना हैं.. इनको भी जरा देखिए। ये हैं आगा, अपने पूरे परिवार के साथ.. कुमारी नंदा।
हजारों सितारों का झुरमुट है। कोई कहीं है कोई कहीं।

वो जयराज हैं। वो निम्मी। भीड़-भाड़ से बहुत घबराती हैं। उनके पीछे हैं प्राण। इनके अलावा वो लोग भी आए, जिनके कांधों पर आज के हिंदुस्तान का बोझ है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री चौहान (यशवंतराव चौहान), श्री राधाकृष्णन और श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित ने अपना कीमती व़क्त निकालकर मुग़ल-ए-आज़म देखा और पसंद किया।

कला और आर्ट की चाहत ने ख़जानों का मुंह खोल दिया और आसिफ का देखा हुआ ख्वाब हिंदुस्तान के हर सिनेमा घर के पर्दे पर नजर आया। और इस तरह फर्ज और मोहब्बत की ग़ैर-फानी दास्तान मुग़ल-ए-आजम बनाकर के. आसिफ और उनके साथियों ने दुनिया में हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री का नाम रोशन कर दिया(राजकुमार केसवानी,दैनिक भास्कर,13.9.2010)।

Friday, September 17, 2010

एक्टिंग का पाठ पढ़ाएंगे बेदी और पांचाली

मनोरंजन की दुनिया में करिअर बनाने का सपना देखने वाले उत्तरप्रदेश के छात्र-छात्राओं को अब चर्चित हास्य अभिनेता राकेश बेदी और मिस गुवाहाटी व मधुर भंडारकर की फिल्म फैशन में काम कर चुकी पांचाली गुप्ता एक्टिंग का पाठ पढाएंगी। यह काम गुरुवार से शुरू कर दिया गया है। शुक्रवार को मेरठ के परतापुर बाइपास स्थित इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीटयूट में वह छात्रों से दोबारा रूबरू होंगे। आईटीएफआई में राकेश बेदी छात्रों को पर्सनैलिटी डेवलपमेंट, एक्टिंग की विभिन्न विधाओं खासतौर से बॉलीवुडिया स्टाइल व हास्य के बारे में जानकारी देंगे। वहीं, पंचाली गुप्ता रैंप पर कैटवाक, मूवमेंट, स्टाइल, ड्रेस सेंस, सेंस ऑफ मोमेंट आदि के बारे में प्रशिक्षण देंगी। चर्चित हास्य अभिनेता राकेश बेदी बॉलीवुड में 160 से ज्यादा फिल्मों और दर्जनों धारावाहिकों में काम कर चुके हैं। बेदी दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक श्रीमान श्रीमती से एक्टिंग की दुनिया में ऐसे छाए कि सभी के दिलोदिमाग में हमेशा के लिए छा गए। ऐसे में राकेश बेदी जैसे मंजे हुए कलाकार से रूबरू होना छात्रों के लिए अपने आपमें एक बेहतरीन अनुभव होगा। पहले दिन छात्रों से अनुभव बांटने व परिचय होने के बाद उन्होंने बताया कि उनमें टैलेंट है, जिसे निखारने की जरूरत है। छात्रों में गंभीरता का अभाव है। लिहाजा इन छात्रों को यदि सही प्रशिक्षण मिल जाए तो ये बॉलीवुड में भी धमाके की क्षमता रखते है। शुक्रवार को वह इंस्टीटयूट के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी शिरकत करेंगे। वहीं, मूलत: असम की रहने वाली और महज चौदह साल की उम्र में ही मिस गुवाहाटी का खिताब जीतने वाली पांचाली ग्लैडरैग्स मेगा मॉडल हंट नॉर्थ इंडिया की विनर रही। बाद में वह मधुर भंडारकर की फिल्म फैशन से सुर्खियों में आईं। पांचाली का सपना हॉलीवुड एक्ट्रेस एंजेलिना जॉली की तरह सिल्वर स्क्रीन पर छा जाने की है। वह हालीवुड फिल्म जिया में एंजेलिना जॉली जैसी ड्रीम रोल पाने की चाहत रखती हैं। फिलहाल तो वह रैंप-फैशन शो में बिजी हैं(दैनिक जागरण,मेरठ,17.9.2010)।

सफलता का भारी बोझःमहेश भट्ट

पाकिस्तान के एक मेरे मित्र ने कहा कि यदि सावधानी न बरती जाए तो प्रसिद्धि के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव बहुत गहरे हो सकते हैं। मुझे यह देखकर हैरत होती है कि प्रसिद्धि किस तरह लोगों को बर्बाद कर देती है और उन्हें किसी दैत्य जैसा बनाकर रख देती है। दरअसल वह मैच फिक्सिंग प्रकरण की बात कर रहे थे, जिसने इस समय पाकिस्तान में भूचाल ला दिया है। इस प्रकरण में 18 वर्षीय मोहम्मद आमेर, मोहम्मद आसिफ और कप्तान सलमान बट के साथ-साथ कुछ अन्य खिलाडि़यों पर भी मैच फिक्सिंग का संदेह जताया जा रहा है। मेरे मित्र ने कहा कि ये सभी युवा सामान्य घरों के हैं, जहां ईमानदारी को ही जीने की राह माना जाता है, लेकिन प्रसिद्धि ने उनके मन को दूषित कर दिया और इसीलिए उन्होंने पैसे के लिए अपने राष्ट्रीय सम्मान को बेच दिया। फिर उन्होंने मुझसे सवाल किया कि बॉलीवुड के लोग प्रसिद्धि को कैसे नियंत्रित करते हैं? उनके इस सवाल ने मुझे भारत के महानतम सपूतों में से एक दिलीप कुमार की याद दिला दी, जिन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे अभिनय से बेइंता प्यार है, लेकिन स्टारडम से मैं नफरत करता हूं। फिल्म सितारों के बारे में लोग अक्सर यह सवाल पूछते रहते हैं कि वे अपने प्रशंसकों के बारे में क्या सोचते हैं? मीडिया की आलोचनाओं पर उनकी क्या राय है? क्या उनमें यह भावना भी होती है कि उनका जीवन अब उनका नहींरह गया है? मैंने हर तरह के फिल्म सितारों के साथ अपना लगभग पूरा जीवन बिताया है। इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि कुछ लोगों के लिए प्रसिद्धि हासिल करना दिग्भ्रमित करने वाली स्थिति होती है। मैंने देखा है कि कुछ सितारे प्रसिद्धि चाहते हैं, वे इसके पीछे पड़ते हैं और खासतौर पर ऐसे काम करते हैं कि उन्हें प्रसिद्धि मिले। मेरी सोच यह है कि बॉलीवुड में कुछ लोग ऐसे हैं जो मनोवैज्ञानिक रूप से प्रसिद्धि के अनुकूल नहीं हैं। उनकी प्रतिभा प्रसिद्धि पाने लायक है, लेकिन उनका व्यक्तित्व साथ नहीं देता। अलग-अलग स्तर हो सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि अजय देवगन और उनकी पत्नी काजोल कुछ अन्य लोगों के साथ उस श्रेणी में आते हैं जो चकाचौंध से बहुत असहज रहते हैं। मल्लिका शेरावत का मामला संभवत: सबसे ज्यादा मिला-जुला है। ऐसा लगता है कि वह प्रसिद्धि का आनंद उठा रही हैं। उन्होंने प्रसिद्धि की चाहत की, उसे पाने का प्रयास किया और सफल रहीं, लेकिन मूल रूप से वह एक शर्मीली, कमजोर मनोदशा वाली, असुरक्षित महसूस करने वाली अभिनेत्री हैं, जो अपने असफल वैवाहिक जीवन से बहुत परेशान थीं। मशहूर अदाकार संजीव कुमार की बात करें। वह अपने समय के महानतम अभिनेता थे। उनके प्रशंसकों की भारी भीड़ थी, लेकिन उनमें खुद को कमतर महसूस करने की भावना थी। उनमें शायद यह भावना गुजरात के एक गरीब परिवार से आने के कारण थी। वह अक्सर अपने छवि को लेकर अपना ही मजाक उड़ाया करते थे। अपनी इस भावना से उबरने के लिए उन्हें अक्सर शराब और महिलाओं का सहारा लेना पड़ता था। मुझे नहीं लगता कि संजीव कुमार ने प्रसिद्धि का आनंद उठाया। मैं अक्सर महसूस करता हूं कि वह लगभग पूरे समय प्रसिद्धि के साथ सही तरह जी नहीं सके। अब हालांकि बहुत सारे लोग प्रसिद्धि के साथ बहुत सही तरह जीना सीख गए हैं। वे आसानी से इसका प्रबंध कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें यह पसंद है। आप यह भी कह सकते हैं कि प्रसिद्धि को उनका साथ पसंद है। लिहाजा यह कहना सही नहीं होगा कि प्रसिद्धि लोगों को बर्बाद ही कर देती है। फिर भी यह आप पर कुछ न कुछ असर डालती ही है। इसकी मनोवैज्ञानिक कीमत बहुत ऊंची होती है। यह सही है कि अनेक ऐसे लोग हैं जो अभिनय अथवा गायन को इसलिए अपनाते हैं, क्योंकि उन्हें इस कला से प्यार है, लेकिन बड़ी जमात ऐसे लोगों की है जो प्रसिद्धि, पैसा और प्यार पाने के लिए इन क्षेत्रों में आते हैं। सफल सितारों पर जो अतिरिक्त ध्यान दिया जाता है वह ऐसा दबाव उत्पन्न करता है कि उनके लिए इससे निपटना मुश्किल हो जाता है। लोग उनकी एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन लगाए रहते हैं। अब अगर आप किसी के अहं को 24 घंटे इस तरीके से तुष्ट करेंगे तो वह वास्तव में यह सोचना आरंभ कर देगा कि वह कोई सुपर हीरो है। कई सितारों के मन में यह धारणा भी होती है कि उन्हें जो सम्मान मिल रहा है वे वास्तव में उसके हकदार नहीं हैं। इस धारणा पर काबू पाने के लिए वे ऐसा व्यवहार करने लगते हैं कि जैसे वह एक शख्सियत भर नहीं हैं। निश्चित ही प्रसिद्धि वह बोझ है जिसे हर कोई नहीं उठा सकता। इससे सही तरह निपटने के लिए विवेक-समझदारी की जरूरत होती है। अगर प्रसिद्धि का दुरुपयोग किया जाए तो यह एटम बम की तरह आपको उड़ा देगी(दैनिक जागरण,17.9.2010)।

Thursday, September 16, 2010

शिक्षक बदनाम हुआ चुलबुल पांडे तेरे लिए

सलमान खान की हालिया फिल्म दबंग का एक गाना "मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए" आजकल खूब धूम मचा रहा है, लेकिन इस फिल्म के कारण राजस्थान के सीकर जिले का एक शिक्षक काफी बदनाम हो गया है। पिछले पांच दिन से सलमान खान के प्रसंशक इस शिक्षक को चैन नहीं लेने दे रहे। दरअसल, दबंग फिल्म के पोस्टर पर इस शिक्षक ओम प्रकाश जाखड़ के मोबाइल नंबर छप गए हैं, जिसके कारण उसे हर दिन सैकंड़ों की तादाद में कॉल्स आ रहे हैं। अब तो यह शिक्षक जहां भी जाता है इसके दोस्त गुनगुनाना शुरू कर देते हैं कि "शिक्षक बदनाम हुआ चुलबुल पांडे तेरे लिए।"

सलमान खान का कोई फैन मुंबई से फोन कर दबंग फिल्म में उनके रोल के लिए बधाई देता है तो कोई पटना से फोन कर चुलबुल पांडे (सलमान खान) से बात करने की जिद करता है। ओम प्रकाश जाखड़ लोगों को समझाते-समझाते तंग हो गया है कि वह कोई चुलबुल पांडे नहीं बल्कि एक निजी स्कूल का मालिक है, लेकिन फोन हैं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। ओम प्रकाश सीकर जिले के फतेहपुर कस्बे में दी न्यू राजस्थान सीनियर सेकंडरी स्कूल चलाते हैं। पोस्टर पर सिर्फ ओम प्रकाश के मोबाइल नंबर ही नहीं बल्कि उसकी स्कूल के लैंडलाइन नंबर भी छप गए हैं। इस स्कूल की एक छात्रा चंचल मोरिया का फोटो भी पोस्टर में दिखाई दे रहा है। पोस्टर में स्कूल के नंबर और छात्रा का फोटो कैसे आया, इस बारे में ओम प्रकाश जाखड़ का कहना है कि मैं खुद यह जानकर आश्चर्य चकित हूं कि आखिर यह हुआ कैसे? जाखड़ का कहना है कि न तो मैं खुद कभी सलमान खान से मिला हूं और न कभी सलमान खान यहां आए हैं(आनंद चौधरी,नई दुनिया,दिल्ली,16.9.2010)।

Wednesday, September 15, 2010

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार घोषित

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का एक और पुरस्कार जीतकर आखिरकार अमिताभ बच्चन ने भी हिंदी का नाम ऊंचा कर दिया। अभी तक तमिल फिल्मों के अभिनेता कमल हासन और मलयालम फिल्मों के अभिनेता ममूटी ही ऐसे अभिनेता रहे हैं, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के तीन-तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। फिल्म पा में प्रोजेरिया से पीड़ित एक बच्चे के किरदार ने अमिताभ को उनके ६९वें जन्मदिन से पहले तोहफा दिया है। अमिताभ ने इस पुरस्कार को अपने प्रशंसकों को प्रति समर्पित किया है। अमिताभ के अलावा राजकुमार हीरानी और विधु विनोद चोपड़ा की भी हैट्रिक हुई है जिनकी फिल्म ३ इडियट्स को सर्वश्रेष्ठ मनोरंजक फिल्म का पुरस्कार मिला है। इससे पहले इन दोनों की मुन्ना भाई सीरीज की दोनों फिल्में पुरस्कृत हुई हैं। राजकुमार हीरानी ने इसके लिए दर्शकों का शुक्रिया अदा किया, जबकि चोपड़ा ने इसे अपने प्रोडक्शन हाउस के लिए एक गौरवशाली क्षण बताया। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के ऐलान से पहले ही मुंबई में सुबह से इस बात की चर्चा थी कि क्या १९८३ में पूनमपिराई, १९८८ में नायकन और १९९७ में इंडियन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले कमल हासन एक और पुरस्कार जीतने में कामयाब रहेंगे या फिर १९९० में मथिलुकल व ओरु वडकन वीरगाथा, १९९४ में पोंथनमडा व विधेयन व १९९९ में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके ममूटी देश में चौथी बार ये पुरस्कार जीतने वाले पहले अभिनेता बन जाएंगे। लेकिन, मंगलवार की दोपहर बाद जब दिल्ली में इन पुरस्कारों का ऐलान हुआ तो भीड़ मुंबई में जलसा के बाहर उमड़ी। ६७ साल के एक अभिनेता को १३ साल के एक बच्चे का किरदार निभाने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया। इसी के साथ अमिताभ पहले ऐसे अभिनेता बन गए हैं जिन्हें हिंदी सिनेमा के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। इससे पहले अमिताभ को १९९१ में फिल्म अग्निपथ और २००६ में ब्लैक के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिथुन चक्रवर्ती भी जीत चुके हैं, लेकिन उनका एक पुरस्कार हिंदी फिल्म मृगया के लिए और दूसरा बांग्ला फिल्म तहादेर कथा के लिए है। इस साल राष्ट्रीय पुरस्कारों में अगर प्रोडक्शन हाउस के लिहाज से देखा जाए तो अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस बिग पिक्चर्स ने सबसे ज्यादा १४ राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं, जिसमें शाजी करु की फिल्म कुट्टी श्रांक (सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म समेत पांच पुरस्कार) व श्याम बेनेगल की वेल डन अब्बा (सर्वश्रेष्ठ सामाजिक फिल्म) भी शामिल हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे अच्छी फिल्म का पुरस्कार जीतने वाली दिल्ली ६ के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने इस मौके पर कहा कि इस पुरस्कार ने सिनेमा के जरिए समाज को जोड़ने की हमारी कोशिश को सहारा दिया है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया)।

Tuesday, September 14, 2010

आम आदमी की बात आम जबान में कहते थे साहिर

"साहिर लुधियानवी मूलतः एक रोमांटिक कवि थे। प्रेम में बार-बार मिली असफलता ने उनके व्यक्तित्व पर कुछ ऐसे निशान छोड़े जिसके नीचे उनके जीवन के अन्य दुख दब कर रह गए। अपनी प्रेमिका की झुकी आखों के सामने बैठ साहिर उससे मासूम सवाल कर बैठते हैं-"प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं।" यह कहना था कथाकार एवं कथा यू.के. के अध्यक्ष तेजेन्द्र शर्मा का। अवसर था लंदन के नेहरू सेन्टर में एशियन कम्युनिटी आर्ट्स एवं कथा यू.के. द्वारा आयोजित "साहिर लुधियानवी एक रोमांटिक क्रांतिकारी" कार्यक्रम का।

तेजेंद्र शर्मा ने चित्रकार मकबुल फिदा हुसैन, फिल्मकार मुजफ्फर अली एवं संसद सदस्य वीरेन्द्र शर्मा की उपस्थिति में अपने पॉवर-पाइंट प्रेजेंटेशन की शुरूआत फिल्म हम दोनों के भजन अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम से करते हुए कहा कि आज ईद और गणेश चतुर्थी के त्यौहार हैं, तो चलिए हम अपना कार्यक्रम एक नास्तिक द्वारा लिखे गए एक भजन से करते हैं।

एशियन कम्युनिटी आर्ट्स की अध्यक्ष काउंसलर जकीया जुबैरी ने ईद के कारण कार्यक्रम में शामिल न होने पर खेद प्रकट करते हुए श्रोताओं के लिए संदेश भेजा कि जो श्रोता आज ईद मना रहे हैं उनको गणेश चतुर्थी की बधाई और जो गणेश चतुर्थी मना रहे हैं उन्हें ईद की मुबारकबाद। इस तरह जकीया जी ने कार्यक्रम की शुरूआत में ही एक सेक्युलर भावना से दर्शकों के दिलों को सराबोर कर दिया।

तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि साहिर ने फिल्मों में जो भी लिखा वो अन्य फिल्मी गीतकारों के लिए एक चुनौती बन कर खड़ा हो गया। उनका लिखा हर गीत जैसे मानक बन गए। उन्होंने फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ कव्वाली न तो कारवां की तलाश है (बरसात की रात), सर्वश्रेष्ठ हास्य गीत सर जो तेरा चकराए (प्यासा), सर्वश्रेष्ठ देशप्रेम गीत ये देश है वीर जवानों का (नया दौर), सूफी गीत लागा चुनरी में दाग छिपाऊं कैसे (दिल ही तो है) लिखा। यहां तक कि शम्मी कपूर को नई छवि देने में भी साहिर का ही हाथ था जब उन्होंने तुमसा नहीं देखा के लिए गीत लिखा यूं तो हमने लाख हसीं देखे हैं.. लिखा।

शर्मा ने साहिर के प्रेम प्रसंगों का भी जिक्र किया। जाहिर तौर पर उसमें सुधा मल्होत्रा और अमृता प्रीतम के नाम शामिल थे। अमृता और साहिर दोनों मॉस्को गए थे जहां साहिर को सोवियतलैण्ड पुरस्कार मिलना था। वहां एक अफसर की गलती से दोनों के नाम के बिल्ले बदल गए। साहिर ने अमृता से बिल्ले वापिस बदलने के लिए कहा। मगर अमृता ने कहा कि वह बिल्ला वापिस नहीं करेगी, इस तरह साहिर अमृता के दिल के करीब रहेगा। भारत वापिस आने पर साहिर की चन्द ही दिनों में मृत्यु हो गई। अमृता ये सोचकर रोती रही कि दरअसल मौत उसकी अपनी आई थी, मगर उसके नाम का बिल्ला साहिर के सीने पर था। इसलिए मौत गलती से साहिर को ले गई।

साहिर की भाषा पर टिप्पणी करते हुए तेजेन्द्र का कहना था कि किसी भी बड़े कवि या शायर की लिखी वही शायरी जिंदा रही है जो आम आदमी तक प्रेषित हो पाई है। संप्रेषण किसी भी साहित्य की मुख्य विशिष्टता है। साहिर ने भी अपनी साहित्यिक रचनाओं की भाषा को फिल्मों के लिए सरल और संप्रेषणीय बनाया। इसीलिए उसकी वो रचनाएं अमर हो पाईं(नई दुनिया,दिल्ली,13.9.2010)।

यूपी में टॉकीजों के वजूद पर खतरा

मल्टीप्लेक्स के दौर में सूबे के साढ़े चार सौ से ज्यादा सिनेमाहालों में ताले लग चुके हैं। जो चल रहे हैं उनमें से भी ज्यादातर में कभी भी ताले लग सकते हैं। इन हालात के बावजूद सरकार सिंगल स्क्रीन सिनेमाहालों का वजूद बचाने के प्रति गंभीर नहीं दिखती। मल्टीप्लेक्स को बढ़ावा देने के लिए पूर्व में लागू की गई प्रोत्साहन योजना से सूबे में वे तो धड़ाधड़ खुलते जा रहे हैं लेकिन उनकी चकाचौंध के आगे सिनेमाहाल का वजूद खतरे में पड़ता जा रहा है। दर्शक घटते जा रहे हैं जबकि खर्चो के बढ़ते रहने से सिनेमाहाल चलाना घाटे का सौदा साबित होता जा रहा है। यही कारण है कि सूबे 1018 सिनेमाहालों में से अब तक 460 में ताले लग चुके हैं। चूंकि सिनेमाहाल तोड़कर उस भूमि का व्यावसायिक उपयोग प्रतिबंधित है इसलिए बंद सिनेमाहाल खंडहर में ही तब्दील हो रहे हैं। इससे सिनेमा मालिक तो वित्तीय संकट झेल ही रहे हैं, सरकार को भी राजस्व नहीं मिल रहा है। सन 2004-05 में सिंगल स्क्रीन सिनेमाहालों को प्रोत्साहित करने को नई नीति लागू की गई थी लेकिन उसमें सिनेमाहाल को पूरा तोड़ने व 300 सीटों का बनाने पर ही व्यावसायिक गतिविधि की अनुमति देने जैसी शर्ते थी जिससे सिनेमा मालिक उसके प्रति आकर्षित ही नहीं हुए। ऐसे में जब मौजूदा सरकार में सिनेमा मालिकों ने दौड़-भाग की तो कहा गया कि उन्हें सिनेमाहाल पूरा तोड़ने व न्यूनतम 300 सीटों के बनाने की शर्त से राहत मिलेगी। सिनेमा मालिकों को ऐसी छूट दी जाएगी कि वे सिनेमाहाल को जरुरत के हिसाब से परिवर्तित कर सकें बशर्ते उसमें न्यूनतम 125 सीटों का सिनेमाहाल रहे। ऐसे में वे शेष भवन काव्यावसायिक इस्तेमाल भी कर सकेंगे। पिछले वर्ष से अब तक उक्त प्रस्ताव शासन में विचाराधीन ही है। प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी न मिलने सेस्थिति जस की तस है। उत्तर प्रदेश सिनेमा एग्जीबिटर्स फेडरेशन के महामंत्री आशीष अग्रवाल का कहना है कि सरकार द्वारा इस ओर ध्यान न देने से सिनेमा उद्योग पूरी तरह चौपट होता जा रहा है। पायरेसी पर अंकुश न लगने व ज्यादा टैक्स दर से सिनेमाहालों की औसतन 85 फीसदी सीटें खाली ही रहती हैं। उन्होंने कहा कि यहां सर्वाधिक 40 फीसदी टैक्स होने के साथ ही अनुरक्षण शुल्क और कूलिंग की अलग से व्यवस्था नहीं है। बिजली की समस्या भी रहने से सिनेमा हाल चलाना जबरदस्त घाटे का सौदा होता जा रहा है। हाल ही में मनोरंजन कर आयुक्त की कुर्सी संभालने वाले एसके द्विवेदी का कहना है प्रदेश में मनोरंजन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि बंद सिनेमाहालों के ताले खुलवाने को लेकर सरकार पूरी तरह से गंभीर हैं(अजय जायसवाल,दैनिक जागरण,लखनऊ,14.9.2010)।

Friday, September 10, 2010

थीम सांग के घमासान में दलेर मेहंदी भी कूदे

राष्ट्रमंडल खेलों के थीम सांग को लेकर मचे घमासान में दलेर मेहंदी भी मैदान में कूद पड़े हैं। ऑस्कर पुरस्कार विजेता एआर रहमान द्वारा गाए गीत- "ओ यारो इंडिया बुला लिया" के मुकाबले में दलेर मेहंदी ने अपनी बल्ले-बल्ले स्टाइल में एक खास गाना तैयार किया है-"खेल ले"। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की मौजूदगी में दिल्ली सचिवालय के खचाखच भरे सभागार में दलेर ने जब पंजाबी भांगड़ा का तड़का लगा हुआ खेलों को समर्पित अपना गीत गाया, तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। खुद शीला भी दलेर एंड पार्टी की धुनों पर झूमीं।

गुड़गांव में थीम सांग के लांच के मौके पर रहमान ने कहा था कि उनके लिए खेलों के महाकुंभ के लिए थीम सांग तैयार करना बड़ा मुश्किल काम था और पूरे छह महीने की मशक्कत के बाद वह यह गीत तैयार कर पाए। दिलचस्प बात यह हुई कि इतनी मेहनत के बाद कम्पोज किए गए उनके गीत को लेकर पहले ही दिन से विवाद शुरू हो गया। प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा सरीखे कई लोगों ने खुलेआम यह कहकर अपना विरोध दर्ज कराया कि यह गीत खेलों के थीम सांग होने के लायक नहीं है। तुर्रा यह भी, खेल आयोजन समिति ने इस गाने को बनाने के लिए रहमान को पांच करोड़ रुपए भी दिए।

दिल्ली सरकार के आला अधिकारी इस बात से साफ इनकार कर रहे हैं कि उनकी ओर से दलेर को थीम सांग बनाने के लिए कहा गया था। लेकिन अपना गाना पेश करने से पहले खुद दलेर ने कहा कि उन्हें महज तीन दिन पहले गाना तैयार करने के लिए कहा गया और उन्होंने पूरी कोशिश की है कि इसे बढ़िया से बढ़िया तरीके से पेश किया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उन्हें थोड़ा सा और वक्त मिलता तो वह और बेहतर करके दिखलाते।

दलेर मेंहदी ने चौंकाने वाली खास टिप्पणी यह की कि वह अपना यह गीत बिल्कुल मुफ्त में अपने प्यारे मुल्क हिन्दुस्तान को समर्पित कर रहे हैं। रहमान द्वारा अपने गीत के लिए करोड़ों की रकम लेना और दूसरी ओर दलेर का यह कहना कि उन्होंने बिल्कुल मुफ्त में यह गाना तैयार किया है, लाजिमी तौर पर इशारा करता है कि इस मामले में गीत-संगीत की दुनिया में किस कदर बवाल मचा हुआ है। दलेर के गीत में बल्ले-बल्ले तो है ही, पार्श्व में सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा जैसे लोकप्रिय गीत की धुन भी चलती रहती है। जाहिर तौर पर ऐसा करके उन्होंने अपने गीत को हिन्दुस्तानियत के रंग में रंगने की पूरी कोशिश की है(अजय पांडेय,नई दुनिया,दिल्ली,10.9.2010)।

Thursday, September 9, 2010

रहमान की धुन पर थिरकने से इनकार !

ऑस्कर अवार्ड विजेता भारतीय संगीतकार ए.आर. रहमान की धुनों पर भले ही हर किसी के पैर थिरकने लगते हों, लेकिन देश के शीर्ष शास्त्रीय नर्तकों ने उनकी धुन पर नाचने से इंकार कर दिया है। रहमान ने इन खेलों के लिए जो धुन तैयार की है, उसे इन कलाकारों ने कच्चा बता कर ठुकरा दिया है। अब कथक गुरू बिरजू महराज और ओडिसी नृत्यांगना सोनल मानसिंह जैसे देश के छह शीर्ष कलाकार अपने लिए खुद संगीत बना रहे हैं। दैनिक जागरण के पास मौजूद दस्तावेज के मुताबिक, उद्घाटन समारोह के दौरान मंच पर छह शास्त्रीय विधाओं में होने वाले नृत्य को तैयार कर रहे गुरुओं ने राष्ट्रमंडल खेल के लिए गठित मंत्रियों के समूह (जीओएम) को साफ कह दिया है कि रहमान के संगीत पर नृत्य तैयार करना उनके लिए संभव नहीं। समारोह के बोधि वृक्ष नाम के सबसे महत्वपूर्ण खंड में शामिल इन कलाकारों का कहना है कि रहमान ने लंबे समय तक इस खंड के लिए कोई संगीत ही तैयार नहीं किया। अब जो संगीत उन्होंने बनाया भी है, वह इस लायक नहीं कि उस पर कोई ढंग का नृत्य पेश किया जा सके। इन्होंने जीओएम को कहा है कि यह तो गनीमत है कि इस पहलू पर उन्होंने पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी और उनका संगीत भी लगभग तैयार है। सभी नृत्य रहमान की धुन पर नहीं नाचेंगे! गुरु साथ बैठ कर इसे अंतिम रूप दे रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन समारोह के दौरान देश की शास्त्रीय नृत्य शैलियों पर आधारित खंड बोधि वृक्ष (ट्री ऑफ नॉलेज) में ए.आर. रहमान की बनाई एक ही धुन पर सभी शैलियों में एक साथ नृत्य होना था। कुल 480 शास्त्रीय कलाकारों को अपनी-अपनी शैलियों में इस धुन पर नृत्य करवाने की जिम्मेदारी सभी शैलियों के शीर्ष गुरुओं पर डाली गई थी। इन कलाकारों द्वारा जीओएम को अपनी समस्या बताए जाने के बाद समारोह के प्रबंधन का काम देख रही विजक्राफ्ट इंटरनेशनल एंटरटेनमेंट के क्रिएटिव प्रमुख भारत बाला ने भी माना है कि यह संगीत शास्त्रीय कलाकारों के मुफीद नहीं है। उनके मुताबिक, कलाकारों को अपने संगीत पर ही नृत्य करने दिया जाए। हालांकि, जीओएम नहीं चाहता कि इस विवाद का असर कार्यक्रम पर पड़े। उसने विजक्राफ्ट को साफतौर पर कह दिया है कि किस मामले पर किसका और किसके साथ मतभेद है, यह देखना इस कंपनी का काम है। अगर समय पर श्रेष्ठ कार्यक्रम नहीं हुआ तो उसे ही जिम्मेदार माना जाएगा। जीओएम ने भारत बाला को समापन समारोह हो जाने तक राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के दिल्ली स्थित दफ्तर में ही टिके रहने को कहा है, ताकि इस संबंध में सभी फैसले समय से लिए जा सकें(मुकेश केजरीवाल,दैनिक जागरण,दिल्ली,9.9.2010)।

Wednesday, September 8, 2010

ताईवानी फिल्म फेस्टिवल 11 से

ताइपे इकोनॉमिक एंड कल्चरल सेंटर व इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस के सहयोग से 11 से 13 सितंबर तक ताईवान फिल्म फेस्टिवल दिल्ली में आयोजित किया जाएगा। फेस्टिवल के दौरान सभी फिल्में आईसीसीआर के आजाद भवन स्थित सभागार में शाम तीन व छह बजे से दिखाई जाएंगी।

समारोह का उद्घाटन मशहूर फिल्म ‘आई कांट लिव विदाउट यू’ (2009) व समापन फिल्म ‘द वॉल’ (2007) से होगा। इनके अलावा, चार अन्य फिल्म- कैप नं.7, ब्लू ब्रेव-द लिजेंड ऑफ फोर्मोसा इन 1984, ऑवर ड्रीम्स ऑवर आइसलैंड व येंगयेंग भी दिखाई जाएंगी। इन सभी फिल्मों में समसामयिक ताईवानी फिल्म निर्माताओं की क्वालिटी, रेंज व वाइटेलिटी की झलक देखने को मिलेगी।

‘आई कांट लिव विदाउट यू’ 11 सितंबर को तीन बजे, ‘कैप नं. 7’ इसी दिन शाम छह बजे, ‘येंग येंग’ 12 सितंबर को तीन बजे, ‘ब्लू ब्रेव’ 12 सितंबर को शाम छह बजे, ‘ऑवर ड्रीम ऑवर आइसलैंड’ 13 सितंबर को दोपहर तीन बजे और इसी दिन शाम छह बजे ‘द वॉल’ फिल्म प्रदर्शित होगी(दैनिक भास्कर,दिल्ली,8.9.2010)।

हिंदी फिल्मों में मध्यवर्ग

कुछ लोगों के लिए यह अचरज का विषय है कि किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दे को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्म 'पीपली लाइव' को महानगरों के मिडल क्लास ने कैसे हाथोंहाथ लिया। गौर करें तो इसमें एक किसान की आत्महत्या का मामला महज प्रस्थान बिंदु है। यह अपनी भूमि गंवा चुके किसान भाइयों बुधिया या नत्था की कहानी नहीं है। यह उनके जीवन को छूती जरूर है, लेकिन प्रमुखत: यह मीडिया या राजनीति के इर्दगिर्द ही घूमती है। यह जीवन के हर प्रसंग में सनसनी खोजने की मीडिया की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करती है, उसी तरह गरीबों को मोहरा बनाकर अपना सियासी दांव खेलने वाले राजनेताओं के पाखंड को उजागर करती है। ये दोनों ही ऐसे पहलू हैं, जिनमें मध्यवर्ग की खासी दिलचस्पी है।



बदलता हुआ यथार्थ

वैसे तो किसी फिल्म के हिट होने के पीछे कई तरह के कारक काम कर रहे होते हैं -फिल्म कला का कौशल, स्टार्स, मार्केटिंग वगैरह-वगैरह। लेकिन इन 'फिल्मी फैक्टर्स' के अलावा सबसे अहम निर्धारक तत्व है - समकालीन यथार्थ की प्रस्तुति। फिल्मों के लिए यथार्थ वही है जो उसके सबसे बड़े दर्शक वर्ग यानी मिडल क्लास की रियलिटी है। देश के 22 से 23 प्रतिशत लोगों का जीवन ही बॉलिवुड की दिलचस्पी का विषय है, क्योंकि अब यही तबका सिनेमा उद्योग का भाग्य तय करने लगा है। अब बॉलिवुड की ज्यादातर फिल्में मिडल क्लास की रुचियों, उसकी सोच, उसकी आशाओं-आकांक्षाओं को सचेत ढंग से व्यक्त करने लगी हैं। बॉलिवुड में अब पहले से ज्यादा मध्यवर्गीय चरित्र दिखने लगे हैं जैसे इंजीनियर (खट्टा-मीठा), सेल्समैन (रॉकेट सिंह -सेल्समैन ऑफ द ईयर), पत्रकार (पीपली लाइव) सरकारी बाबू (रब ने बना दी जोड़ी)। अगर हाल की कुछ सफल फिल्मों पर नजर डालें तो देश के मिडल क्लास की नब्ज टटोली जा सकती है।

पिछले दो दशकों में देश में एक नया मध्यवर्ग उभरकर आया है, जो काफी हद तक उदारीकरण की देन है। इस वर्ग में भी कई समूह हैं। दरअसल उदारीकरण ने कृषि पर काफी नकारात्मक असर डाला और कुल मिलाकर यह एक अलाभप्रद पेशा बन गया। ऐसे में थोड़ी बहुत जमीन के स्वामी भी खेती से पीछा छुड़ाकर शहरों में भागे। वहां उनके बच्चों ने प्रफेशनल डिग्री पाई और नए पनप रहे रोजगार हासिल किए। निजी बैंकों के आसान लोन के बूते इन्होंने मकान और गाड़ी जैसी सुविधाएं जुटाईं। इनका रहन-सहन और परिवार का ढांचा बदला।

सरलीकरण पर जोर

दरअसल बाजार के निरंतर प्रसार ने महानगरों के अलावा कई छोटे शहरों का रूप बदल दिया है। दुनिया की कई नामी-गिरामी कंपनियों के वहां पहुंचने से कारोबारी गतिविधियों के चरित्र में आमूल परिवर्तन आया है। उनके जरिए कई नए सेक्टर्स वहां स्थापित हुए, जिनके अनुरूप वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर भी विकसित हुआ है। इस प्रक्रिया ने उन शहरों की संपन्नता बढ़ाई है। इंडिकस एनालिटिक्स की रिपोर्ट 'हाउसिंग स्काइलाइन ऑफ इंडिया 2007-08' के अनुसार चंडीगढ़, पुणे, अहमदाबाद, सूरत और जमशेदपुर जैसे शहरों में लखपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है।

नया मध्यवर्ग ऐसे ही लोगों से मिलकर बना है जिसमें एक तबका अभी-अभी गांवों से शहर में आया है, तो एक वर्ग ऐसा है जो छोटे शहर से महानगरों में पहुंचा है। एक समूह ऐसा भी है जिसकी आवाजाही विदेशों में भी होने लगी है। इस वर्ग में भले ही अलग-अलग तरह के लोग हों, पर इनकी सोच कुल मिलाकर एक जैसी ही है। यह वर्ग सुधार और आदर्शवाद की बातें खूब करता है, लेकिन अपना हित साधने के लिए किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार हो जाता है।

यह न्यूज चैनलों की जिन खबरों का मजाक उड़ाता है, उन्हीं की टीआरपी बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान भी करता है। यह इस बात का रोना रोता है कि हिंदी अखबारों में अंग्रेजी का मिश्रण बढ़ रहा है, लेकिन यह खुद भी वैसी ही भाषा बोलता है और अपने बच्चों को अनिवार्यत: अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाता है। इसका मानना है कि देश में सभी बुराइयों की जड़ राजनीति है।

इसकी राजनीतिक सोच की बानगी फिल्म 'राजनीति' में बखूबी दिखती है। अगर इस फिल्म को मध्यवर्ग ने पसंद किया तो यह अकारण नहीं है। फिल्म इस मध्यवर्गीय सोच को आगे बढ़ाती है कि राजनीति में मूल्यों के लिए अब कोई जगह नहीं बची। वहां अब केवल अंधेरा है। फिल्म षड्यंत्रों और हत्याओं के इर्द-गिर्द चक्कर काटती रहती है। वहां सत्तालोलुप राजनेताओं के बीच न तो सिस्टम का कोई रोल नजर आता है न ही जनता का। मिडल क्लास को ऐसा सरलीकरण बहुत पसंद है। उसे सिस्टम की जटिलताओं में उतरने का धैर्य नहीं है।

भ्रष्टाचार जैसी समस्या को संजीदगी से उठाने वाली फिल्म 'वेल डन अब्बा' को इन दर्शकों ने बहुत ज्यादा पसंद शायद इसीलिए नहीं किया कि यह फिल्म सरलीकरण में पड़ने के बजाय व्यवस्था के हर पुर्जे को संजीदगी से परखती है (इसके पीछे निश्चय ही कुछ फिल्मी फैक्टर्स भी रहे होंगे)।

नए खलनायक और विदूषक

मिडल क्लास राजनेताओं को खलनायक या विदूषक के रूप में देखना चाहता है। 'पीपली लाइव' में भी राजनेताओं को इस रूप में देखकर उसे संतोष होता है। ऐसा नहीं है कि वह विचारों के स्तर पर जड़ है या बदलावों का विरोधी है। लेकिन समग्र बदलाव की कोई तस्वीर उसके जेहन में नहीं बन पाती। यह संभवत: उसके अराजनीतिक चरित्र की वजह से है। वह पूरे समाज के परिवर्तन के माध्यम के रूप में राजनीति की भूमिका को स्वीकार नहीं कर पाता। लेकिन जो सिर्फ उसके जीवन से जुड़ा है, उसमें वह दिलचस्पी जाहिर करता है। फिल्म 'थ्री इडियट्स' में पेश किया गया विचार मध्यवर्ग को अच्छा लगा, क्योंकि वह शिक्षा और करियर के क्षेत्र में व्याप्त जकड़बंदी से परेशान है। वह माहौल बदलना चाहता है, लेकिन उसे सीमित बदलाव ही चाहिए। उसे इतना व्यापक परिवर्तन नहीं चाहिए कि उसका अपना स्पेस खत्म हो जाए या उसकी विशिष्टता पर आंच आए। शायद यही वजह है कि मध्यवर्ग ने पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विरोध किया है। लेकिन बॉलिवुड मध्यवर्ग को खुश रखना चाहता है। इसलिए कोई फिल्म इस वर्ग की पोल खोलने की कोशिश नहीं करती(संजय कुंदन,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,6.9.2010)।

पंजाबःटॉकीजों के लिए संजीवनी हैं भोजपुरी फिल्में

पंजाब में बदहाली की कगार पर खड़े सिनेमाघरों के लिए भोजपुरी फिल्में संजीवनी का काम कर रही है। मल्टीप्लेक्स के बढ़ते चलन और महंगी दर में फिल्में मिलने से राज्य की दर्जनों टॉकीज बंद हो चुकी हैं। ऐसे में तमाम सिनेमाघर मालिक भोजपुरी दर्शकों के बल पर अपना अस्तित्व बचा रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के कारण पंजाब में भोजपुरी फिल्मों का नया बाजार पैदा हुआ है। कम कीमत पर अच्छी कमाई के कारण अब तो कई सिनेमाघरों की पहचान ही भोजपुरी फिल्में बन चुकी हैं। लुधियाना स्थित लक्ष्मी सिनेमाहॉल के मैनेजिंग प्रोपराइटर सरदार अविनाश सिंह बताते हैं कि मल्टीप्लेक्स सिस्टम व महंगी हिंदी फिल्मों ने तो पुराने सिनेमाघरों की कमर तोड़कर रख दी। करोड़ों की लागत से बने सिनेमाघर, दर्जनों स्टाफ, रख-रखाव पर ही लाखों रुपये महीने खर्च होते हैं, ऊपर से बिजली की समस्या। ऐसे में महंगी फिल्में खरीदकर सस्ती दरों पर दर्शकों को दिखाना तो घर से रकम लगाने का काम रह गया। उन्होंने कहा, भोजपुरी फिल्में सस्ती कीमत पर मिल जाती है और बिजनेस भी अच्छा कर लेती है। इससे कम से कम हमारा खर्चा तो निकल जाता है। नार्थ इंडिया मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के प्रधान धरमपाल अरोड़ा कहते हैं कि 25-50 रुपये टिकट दरों वाले सिनेमाहॉल मालिकों को करोड़ों में फिल्म खरीद कर चलाना और अपने खर्चे निकालना मुश्किल है। औसतन दो-तीन करोड़ में अच्छी हिंदी फिल्में मिलने के कारण छोटे-छोटे डिस्ट्रीब्यूटर तंगहाल हो गए। इस बीच पंजाब व हरियाणा के कुछ शहरों में भोजपुरी भाषी दर्शकों के कारण एक नया बाजार बना। धरमपाल के अनुसार, पंजाब में करीब 60 फीसदी भोजपुरी फिल्मों का कारोबार सिर्फ लुधियाना में है, जबकि जालंधर, अमृतसर, बठिंडा व मोहाली जैसे शहरों में छिटपुट कारोबार होता है। भोजपुरी फिल्में बिहार-यूपी में रिलीज के एक-डेढ़ माह बाद इधर आती है। कुछेक लाख में मिलने वाली फिल्में तीन-चार सप्ताह तक बिजनेस कर जाती है। साल में आठ-नौ माह तक भोजपुरी का अच्छा बाजार रहता है। हालांकि दशहरा, दीवाली व छठ पर्व के कारण बड़ी संख्या में श्रमिक घर को चले जाते हैं, इसलिए अक्टूबर से दिसंबर तक भोजपुरी फिल्मों की मांग में कमी रहती है(पंकज राय,दैनिक जागरण,लुधियाना,8.9.2010)।

Tuesday, September 7, 2010

मैच फिक्सिंग में भारतीय फिल्मी हीरोइनें?

आम तौर पर मैच फिक्सर पाकिस्तानी ही होते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं कि भारत इस मामले में एकदम निर्दोष हो। जब भी पाकिस्तान ने मैच फिक्सिंग का कोई बड़ा घोटाला पकड़ा जाता है तो उसके तार भारत से जुड़ने स्वाभाविक हो जाते हैं। अब भी भारत के कई मैच फिक्सर्स के टेलीफोनों की जांच हो रही है और इस जांच के आधार पर भारत में भी कई बड़े कानूनी मामले बन सकते हैं।

मैच फिक्सिंग का दलदल पाकिस्तान के बाद अब हिंदुस्तान की ओर भी कदम बढ़ा रहा है। लॉर्ड्स टेस्ट में मैच फिक्सिंग के आरोपों की जांच कर रही ब्रिटेन पुलिस ने 11 नाम भारत को दिए हैं। इन 11 हिंदुस्तानियों के नाम स्कॉटलैंड यार्ड को मोहम्मद आसिफ के मोबाइल फोन से मिले हैं। इनमें 5 बॉलीवुड अभिनेत्रियों के नाम भी शामिल हैं। डेटलाइन इंडिया ने अपनी पड़ताल में पाया है कि पाक का ये नापाक क्रिकेटर इन भारतीय अभिनेत्रियों से ना सिर्फ फोन पर बातें करता था बल्कि कई बार मिल भी चुका है। अब भारतीय जांच एजेंसियों को ये पता करना है कि इन मुलाकातों का मकसद क्या था।

डेटलाइन इंडिया को पुलिस सूत्रों से मिली खबर के मुताबिक आईपीएल सीजन वन के दौरान और उसके बाद से आसिफ की इन अभिनेत्रियों से मुलाकात और बातें हुईं। एक या दो बार नहीं बल्कि कई-कई बार। सूत्रों से मिली खबर के मुताबिक इनमें से एक बॉलीवुड अभिनेत्री से आसिफ मिलता रहा। उससे आसिफ की पहली मुलाकात आईपीएल सीजन वन के दौरान दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में हुई।

कमरे का नंबर था 6073। इसके बाद मुंबई में भी दोनों मिले और फिर बातचीत का सिलसिला जारी रहा। कभी फोन पर तो कभी इंटरनेट पर। आसिफ और इस अभिनेत्री की मुलाकात शारजाह और अबू धाबी में भी हुई। मुंबई पुलिस के सूत्र तो यहां तक बता रहे हैं कि ये हिरोइन तीन तीन नंबरों से आसिफ से बातें किया करती थी। लाख टके का सवाल एक कि क्या एक फिक्सर से की गई बातें मैच फिक्सिंग के बारे में ही होती थीं? ये अभिनेत्री कई भोजपुरी फिल्मों में भी काम कर रही है और कहीं न कहीं मोहम्मद आसिफ ने मैच फिक्सिंग का काला पैसा इन फिल्मों में लगाने का वादा भी किया था।

वैसे सच ये भी है कि ये सभी टॉप की हिरोइनें नहीं हैं। क्रिकेट की कई पार्टियों में उन्हें देखा गया है। डेटलाइन इंडिया के पास सभी अभिनेत्रियों के नाम हैं, लेकिन इनका खुलासा नहीं किया जा सकता। इनमें से एक बंगाल से आती है तो दूसरी दिल्ली से। दोनों ने ही कुछ छोटे बजट की फिल्मों में लीड रोल किया है साथ ही फिल्मों से पहले मॉडलिंग भी की है। इसके अलावा दो और चेहरे भी हैं जिनमें से एक मॉडल है और ग्लैमर के सर्किट में उसका आना जाना है। देखना ये है कि स्कॉटलैंड यार्ड को भारतीय जांच एजेंसियां इन पांचों देवियों के बारे में क्या कुछ जानकारी मुहैया करवा पाती हैं।

आसिफ के बॉलीवुड की अभिनेत्रियों से संबंध कहीं ना कहीं ये भी साफ करते हैं कि उसके दिल में बॉलीवुड के लिए खास जगह है। आसिफ भी हिंदी फिल्म का हीरो बनने की ख्वाहिश रखता है। इस चाहत का खुलासा खुद आसिफ ने आज से 4 साल पहले भारतीय टीम की मौजूदगी में किया था। जनवरी 2006 में लाहौर में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के तत्कालीन बॉलिंग कोच आकिब जावेद के घर पर ईद की पार्टी थी। सीरीज शुरू होने से पहले दी गई ये दावत खासतौर पर भारतीय टीम के लिए थी, इसमें पाकिस्तानी टीम के भी ज्यादातर खिलाड़ी शरीक हुए थे।पार्टी में जब आकिब जावेद ने आसिफ का परिचय लोगों से कराया तो किसी ने कहा कि ये तो फिल्मी हीरो की तरह दिखता है।

ये सुनकर आसिफ के साथ आए दोस्त ने फौरन हाथ जोड़कर कहा कि भाई कुछ मत बोलो इसको। बंदे के दिमाग में पहले से ही स्टार बनने का भूत सवार है। बातचीत में आसिफ ने भी भारतीय रिपोर्टरों से अपने दिल की बात बताई थी। आसिफ ने कहा था कि मैं एक दिन बॉलीवुड में काम करुंगा, महेश भट्ट की एक पिक्चर करनी है मुझे। पाकिस्तानी क्रिकेटरों का बॉलीवुड प्रेम कोई नई बात नहीं है। इमरान और जीनत अमान हों या फिर मोहसिन खान और रीना रॉय। हालिया सानिया शोएब शादी हो या फिर सुष्मिता का नाम वसीम अकरम के साथ जोड़ा जाना।

ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के बीच पिछले वर्ष खेले गए सिडनी टेस्ट पर मंडरा रहे फिक्सिंग के काले बादल गहरा गए हैं। एक ऑस्ट्रेलियाई अखबार ने सट्टेबाज मजहर माजिद के साथ कुछ पाकिस्तानी खिलाड़ियों की तस्वीर प्रकाशित की है। ये तस्वीर पाक के ऑस्ट्रेलियाई दौरे के दौरान ली गई थी। द ऑस्ट्रेलियन की इस तस्वीर में उन्हें सिडनी टेस्ट के तीन सप्ताह बाद पर्थ के एक होटल में डिनर करते दिखाया गया है।

इस तस्वीर से सिडनी टेस्ट पर मंडरा रहे फिक्सिंग के बादल और गहरा गए हैं। पाकिस्तान एक वक्त बेहद मजबूत स्थिति में होने के बावजूद ये मैच हार गया था। अब स्पॉट फिक्सिंग के भंडाफोड़ में सिडनी टेस्ट भी सवालों के घेरे में आ गया है और ऐसा माना जा रहा है कि यह फिक्स था।

पाकिस्तान के सलामी बल्लेबाज यासिर हमीद ने स्पॉट फिक्सिंग मामले का भंडाफोड़ करने वाले ब्रिटिश अखबार न्यूज ऑफ द वर्ल्ड से बातचीत में दावा किया था कि सिडनी टेस्ट में हमारे साथी खिलाड़ियों ने फिक्सिंग के जरिए 18 लाख पाउंड की कमाई की थी(अंशू सिंह,डेटलाईनइंडिया डॉट कॉम,7.9.2010)।

Monday, September 6, 2010

बॉलीवुड में अब बंद हुआ होंठ हिलाना

बॉलीवुड में अब सुर में सुर मिलाने के दिन खत्म हो गए। पीछे गाना बचता रहता है और हीरो-हिरोइन सिचुएशन के हिसाब से एक्टिंग करते हैं । ये नया ट्रेंड इन दिनों तक रीबन सभी हिन्दी फिल्मों में देखने को मिल रहा है। प्रकाश झा की ‘राजनीति’ देखें या करण जौहर की ‘माइ नेम इज खान’, ‘कुरबान’ या ‘रॉकेट सिंह’ या शाहिद क पूर की ‘पाठशाला’या फिर विशाल भारद्वाज जैसे संगीतकार और फिल्मकार की ‘कमीने’ या उन्हीं की प्रोडक्शन की ‘इश्किया’ जैसी फिल्में। इनमें हीरो या हीरोइनों पर गाने तो खूब फिल्माए गए हैं , लेकिन सब बैक ग्राउंड में बजते हैं । बुदबुदाना करीब-करीब बंद हो गया है। भारतीय फिल्मों के पार्श्वगायन में तेजी से आ रहे इस बदलाव की शुरुआत वैसे तो क्षेत्रीय फिल्मों में हो गई थी, लेकिन इसे अब बॉलीवुड तेजी से अपना रहा है। प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों का भी मानना है कि हीरो या हीरोइन के चरित्र का परंपरागत दृष्टिकोण बदल गया है। ऐसे में संगीत के पुराने मानदंडों में भी बदलाव तय है। एक तर्क यह है कि हिन्दी सिनेमा के नाच-गाने को पश्चिमी दर्शकों ने कभी खास स्वीकार नहीं किया। ऐसे में जबकि बॉलीवुड पूरी दुनिया को लुभाने की कोशिश में है, यह खुद में बदलाव ला रहा है। एक तर्क यह भी है कि वास्तविकता की ओर झुक रहे बॉलीवुड के हीरो को अगर गाना नहीं आता है तो उसे अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए बैकग्राउंड में गाना तो देना ही पड़ेगा। नया ट्रेंड राजनीति, कुरबान, इश्किया, कमीने जैसी फिल्मों में कुछ गाने बिना लिप्सिंग के फिल्माए गए (अमिताभ पाराशर,हिंदुस्तान,दिल्ली,6.9.2010)।

‘भोजपुरिया डॉन’ अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में

इस बार अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में पहली बार कोई भोजपुरी फिल्म दिखाई जाएगी। 22 नवंबर से दो दिसंबर 2010 तक होने वाले भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (इफ्फी ) में भोजपुरी स्टार मनोज तिवारी की फिल्म ‘भोजपुरिया डॉन’ दिखाई जाएगी। इस फिल्म को भोजपुरी में अंग्रेजी सब-टाइटल्स के साथ दिखाया जाएगा। मनोज तिवारी ने कहा कि पहले अंतरराष्ट्रीय तो क्या, राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी हमें शामिल होने का मौका नहीं मिलता था। भोजपुरी भाषा के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं होने के कारण हम राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से भी वंचित रहे हैं लेकिन अब समय बदलने लगा है। यह भोजपुरी फिल्म जगत के लिए बड़े सम्मान की बात है। इससे साबित होता है कि हमारे यहाँ रचनात्मक और सकारात्मक फिल्में भी बनती हैं।

बढ़ता कारोबार
■ करीब 20 करोड़ लोग देखते हैं भोजपुरी सिनेमा
■ 1962 में हुई थी भोजपुरी फिल्म की शुरुआत। पहली भोजपुरी फिल्म थी ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’
■ मारीशस,सिंगापुर सहित क ई देशोंमें फल-फूल रहा है भोजपुरी सिनेमा

"यह भोजपुरी सिनेमा का अच्छा दौर है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भोजपुरी फिल्म को शामिल किए जाने से साबित होता है कि हमारे यहाँ भी रचनात्मक और सकारात्मक फिल्में बनती हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच मिलना शुरू हो गया है। मनोज तिवारी (अभिनेता भोजपुरी सिनेमा का यह अच्छा दौर है"-मनोज तिवारी।

Saturday, September 4, 2010

'तीसरी कसम' और नया सिनेमाःविनोद भारद्वाज

जब मैंने एक युवा फिल्मकार को बताया कि मुझे शैलेंद्र और "नया सिनेमा" पर एक परिसंवाद में बोलना है तो उसने हैरान हो कर पूछा - शैलेंद्र और "नया सिनेमा"? कुछ समझ में नहीं आया। मैंने कहा - अगर हम "तीसरी कसम" और "नया सिनेमा" कहें तो क्या इस विषय पर कोई सार्थक संवाद संभव है? जाहिर है, उसे कुछ सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा।

दरअसल, अगर हम भारतीय नया सिनेमा या हिंदी फिल्मों के "नया सिनेमा" से जुड़े साहित्य, पुस्तकों आदि का सवेर्ेेक्षण करें तो "तीसरी कसम" की चर्चा लगभग कहीं नहीं मिलेगी। १९८६ में छपी अरुणा वासुदेव की पुस्तक "द न्यू इंडियन सिनेमा" मैं देख रहा था-"तीसरी कसम" का उसमें नाम भी नहीं है। पूर्ववर्ती फिल्मों के रूप में भी नहीं। धरती के लाल, नीचा नगर, दो आंखें बारह हाथ, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, आवारा, मुसाफिर, प्यासा, कागज के फूल आदि फिल्मों की चर्चा नए भारतीय सिनेमा की पूर्ववर्ती फिल्मों की सूची में मिलती है। "फिल्म इंडिया" कार्यक्रम के दौरान फिल्म महोत्सव निदेशालय ने १९८१ में "द न्यू जनरेशन (१९६०-१९८०) नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तिका निकाली थी जिसमें बासु चटर्जी की फिल्म "सारा आकाश" पर चर्चा में निर्देशक के परिचय में इस बात का संक्षिप्त उल्लेख है कि उन्होंने प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र द्वारा बनाई गई फिल्म "तीसरी कसम" में सह-निर्देशक की भूमिका निभाई थी। बासु चटर्जी ने स्वीकार किया है कि उन्होंने "फिल्म क्राफ्ट इसी फिल्म से सीखा।" सेट पर जो कुछ भी करने के लिए होता था, मैं करता था। कोई भी काम गैर दिलचस्प या मेरे स्तर से नीचा नहीं था।

"तीसरी कसम" का निर्माण १९६२ में शुरू हुआ। १९६६ में वह फिल्म बनी। यह सभी जानते हैं कि निजी जीवन में शैलेंद्र फिल्म निर्माण के दबावों को सह नहीं पाए। "तीसरी कसम" अपने समय की उपेक्षित फिल्म नहीं थी। उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, मास्को फिल्म महोत्सव में वह एक चर्चित फिल्म साबित हुई। बॉक्स ऑफिस पर वह सफल नहीं हुई चूंकि राजकपूर या वहीदा रहमान की फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर दूसरा अर्थ था। यह दिलचस्प बात है कि "द हंड्रेड ल्यूमनरीज ऑफ हिंदी सिनेमा" पुस्तक में शैलेंद्र को शामिल करते हुए "तीसरी कसम" को "इल-स्टार्ड प्रोडक्शन" बताया गया है। उसमें कहा गया है कि शैलेंद्र कलात्मक गुणवत्ता वाली फिल्म बनाना चाहते थे पर उन्हें फिल्म निर्माण का ज्ञान नहीं था - न ही उनका ऐसा कोई मिजाज था। इस पुस्तक के अनुसार फिल्म चार साल तक खिंचती रही। शैलेंद्र का फिल्म उद्योग से मोहभंग होता चला गया। १९६६ में वे दिल्ली में फिल्म के प्रीमियर में भी नहीं शामिल हुए। मृत्यु उनके कई गीतों के केंद्र में थी। "तीसरी कसम" का गीत "सजनवा बैरी हो गए हमार" उनका एक विदाई गीत साबित हुआ।

ऑक्सफोर्ड के सम्मानित भारतीय फिल्म कोश में "तीसरी कसम" का परिचय "म्यूजिकल मेलोड्रामा और "सेंटीमेंटल फिल्म" के रूप में दिया गया है। कहने का अर्थ यह है कि "तीसरी फिल्म" को अनेक कारणों से फिल्म इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया है। निश्चय ही वह नए भारतीय सिनेमा की एक प्रामणिक पूर्ववर्ती फिल्म है। मृणाल सेन की "भुवन शोम", मणि कौल की "उसकी रोटी", बासु चटर्जी की "सारा आकाश" कुमार शाहनी की "माया दर्पण", अवतार कौल की "२७ डाउन" आदि फिल्मों से हिंदी के नए सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है। पचास के दशक में फ्रांस में "नुवेल वाग" (नई धारा) और इटली में "नव यथार्थवाद" की काफी चर्चा हुई थी। १९६९ में जब "भुवन शोम" को फिल्म वित्त निगम ने कर्ज दिया तो इसे भारत में गैर-व्यावसायिक और नई धारा के सिनेमा की शुरुआत के रूप में देखा गया। यह भी गौर करने की बात है कि "भुवन शोम" के निर्देशक मृणाल सेन बंगाल के बड़े फिल्मकार थे, फिल्म में गुजरात का उजाड़ केंद्र में था पर भाषा हिंदी थी।

यह भी गौर करने की बात है कि मणि कौल, बासु चटर्जी, कुमार शाहनी, अवतार कौल आदि सभी ने हिंदी के नए कहानीकारों - मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, रमेश बक्षी आदि की कृतियों को चुना। दरअसल, इस परंपरा की वास्तविक शुरुआत "तीसरी कसम" से हुई जब फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी "तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम" पर फिल्म बनाने का फैसला किया गया। रेणु ने फिल्म के संवाद भी लिखे। रेणु हिंदी के उन रचनाकारों में से थे जो आधुनिक संवेदना-समझ आदि लेकर ग्रामीण परिवेश के यथार्थ को जानने-जांचने की कोशिश करते थे। वह आधुनिकतावादी थे पर उनकी संवेदना निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, रमेश बक्षी आदि से भिन्न थी। एक इतालवी विद्वान ने एक बार मुझे बताया कि रेणु की कालजयी कृति "मैला आंचल" का इतालवी में अनुवाद हुआ, तो वह "गंदा आंचल" हो गया। "मैला" की समझ-संस्कृति इतालवी भाषा में नहीं थी। देवभाषा अंग्रेजी के फिल्म समीक्षक इसीलिए रेणु के संसार की ग्रामीण मानवीयता, मार्मिकता आदि को मात्र "सेंटीमेंटल" चित्रण के रूप में देखते हैं।

इस पर भी विचार किया जाए कि "तीसरी कसम" को "नया सिनेमा" न मानने के पीछे क्या तर्क और तरीके हैं। एक तो यह निर्देशक की फिल्म नहीं है। नए सिनेमा को "ऑथर थ्योरी" यानी फिल्म निर्देशक की एक लेखक की तरह की प्रतिष्ठा केंद्रीय लगती थी। "तीसरी कसम" के निर्देशक बासु भट्टाचार्य युवा थे और निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म थी। लेकिन "तीसरी कसम" एक "कलेक्टिव विजन" की फिल्म है। उसके पीछे शैलेंद्र, रेणु, सत्यजित राय की फिल्मों से चर्चित हुए कैमरामैन सुब्रत मित्र, महान नर्तक लच्छू महाराज आदि का "विजन" भी सक्रिय था। कहा जाता है कि "स्टार" राज कपूर तो एक लड़के किस्म के निर्देशक को संदेह से देख रहे थे। "उसकी रोटी" को मणि कौल का "विजन" कहा जाएगा - मोहन राकेश की कहानी सिर्फ एक तरह का "स्प्रिंग बोर्ड" है। यह भी गौर करने की बात है कि "भुवन शोम" और "उसकी रोटी" दोनों में भारतीय ग्रामीण परिवेश है लेकिन तीसरी कसम में ग्रामीण परिवेश अधिक आत्मविश्वास से बोलता है।

दरअसल,सुब्रत मित्र कैमरेका अद्भुत काम ही काफी है-तीसरी कसम को नए सिनेमा से जोड़ने के लिए। वहीदा रहमान और राजकपूर की कैमिस्ट्री भी अच्छी है। नया सिनेमा और उसका शास्त्र महत्वपूर्ण नहीं था लेकिन अपनी समग्रता में तीसरी कसम हिंदी के नए सिनेमा की तुरंत पहले की एक पूर्ववर्ती फिल्म-इमीडिएट प्रीकर्सर है और इसीलिए उसे हिंदी के नए सिनेमा की एक सार्थक शुरूआत माना जाना चाहिए(नई दुनिया,दिल्ली,4.9.2010)।

Friday, September 3, 2010

अनुराग ने खोला संगीत कंपनियों के खिलाफ मोर्चा

अपनी लीक से हटकर फिल्मों के लिए पहचाने जाने वाले निर्माता निर्देशक अनुराग कश्यप ने हिंदी सिनेमा में एक नई लकीर खींचने की तैयारी कर ली है। अनुराग अपनी फिल्मों का संगीत आगे से इंटरनेट के जरिए ही रिलीज करने की तैयारी कर चुके हैं। उनका कहना है कि उन्हें जो शोहरत देश विदेश में मिली है, उसकी वजह इंटरनेट पर मौजूद करोड़ों युवा ही हैं, यही नहीं अपनी अगली ६ शॉर्ट फिल्मों के लिए भी वह तकनीशियनों से लेकर अभिनेताओं तक का चयन इंटरनेट के जरिए ही करने जा रहे हैं।

मशहूर अंतर्राष्ट्रीय कंपनी निहिलेंट के भारत में लॉन्च हुए पोर्टल तुमभी के साथ अनुराग कश्यप ने एक लंबी योजना के तहत हाथ मिलाया है। अनुराग के मुताबिक तुमभी के साथ जुड़े निर्देशक पंकज पाराशर, लेखक जावेद सिद्दीकी, गीतकार समीर और रंगमंच निर्देशक ओम कटारे इस पोर्टल पर आने वाले सभी युवाओं का काम परखते हैं और इसी के बाद इस पोर्टल पर उभरते कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का मौका दिया जाता है। उन्होंने कहा कि देश विदेश में कथ्य आधारित सिनेमा की मांग बढ़ती जा रही है और बड़े सितारे अब फिल्म बनाने का पहली जरूरत नहीं रह गए हैं। अनुराग ने माना कि हिंदी सिनेमा में संगीत का बाजार धीरे धीरे सिमटता जा रहा है और संगीत कंपनियों की ऊलजुलूल मांगों के चलते उनके जैसे निर्देशकों को इनके साथ काम करने में दिक्कत भी होती है। इसके चलते अपनी आने वाली फिल्मों का संगीत वह सीधे अपने चाहनेवालों के बीच इंटरनेट पर ही रिलीज करने की तैयारी कर रहे हैं। गौरतलब है कि इंटरनेट पर संगीत रिलीज करने की शुरुआत भारतीय लोकप्रिय संगीत में पहले ही हो चुकी है। मशहूर बैंड इंडियन ओशन ने पिछले महीने ही अपना नया अलबम इंटरनेट के जरिए ही दुनिया भर में एक साथ रिलीज किया था(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,3.9.2010)।

शक्ति कपूर

तीन सितम्बर, 1958 में मुंबई में हुई थीं पैदाइश करियर की शुरूआत 1973 में फिल्म ’कहानी किस्मत की‘ से की थी

हिंदी फिल्म जगत में शक्ति कपूर का नाम उन गिने-चुने अभिनेताओं में है जिन्होंने अपने दमदार अभिनय से सिने दर्शकों के दिल में एक खास मुकाम बना रखा है। फिल्म ’कुर्बानी‘,’आंखें‘, ’रामअवतार‘ जैसी फिल्म में क्रूर खलनायक की भूमिका हो या फिर ’हम साथ-साथ है‘,’अधर्म‘ जैसी फिल्म में भावपूर्ण अभिनय या फिर ’राजा बाबू‘, ’मालामाल वीकली‘,’चालबाज‘ जैसी फिल्मों में हास्य अभिनय इन सभी भूमिकाओं में उनका कोई जवाब नहीं। शक्ति कपूर का जन्म 3 सितंबर 1958 को मुंबई में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। कुछ वर्ष के बाद वह अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गए। शक्ति कपूर ने अपनी स्नातक की पढ़ाई दिल्ली के मशहूर किरोरीमल कॉलेज से पूरी की।

अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1973 में अजरुन हिरांगनी की फिल्म ’कहानी किस्मत की‘ से की। अपने वजूद को तलाशते शक्ति कपूर फिल्म इंडस्ट्री में लगभग सात वर्ष तक संघर्ष करते रहे। इस दौरान उनकी ’दो जासूस‘, ’संग्राम‘, ’खेल किस्मत का‘, ’दरवाजा‘,’दिल से मिले दिल‘ जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई लेकिन कुछ खास फायदा नहीं पहुंचा। 1979 में शक्ति कपूर की ’जानी दुश्मन‘ और ’सरगम‘ जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं। शक्ति कपूर की किस्मत का सितारा वर्ष 1980 में प्रदर्शित फिल्म ’कुर्बानी‘ से चमका। मारधाड़ और नाच गाने से भरपूर इस फिल्म में शक्ति कपूर ने मुख्य खलनायक की भूमिका निभाई। वर्ष 1981 शक्ति कपूर के सिने करियर का अहम वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उन्हें सुनील दत्त के निर्देशन में बनी सुपरहिट फिल्म ’रॉकी‘ में काम करने का अवसर मिला। इस फिल्म में उन पर फिल्माया गीत ’आ देखे जरा किसमें कितना है दम‘ श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद ’नसीब‘, ’सत्ते पे सत्ता‘, ’चालबाज‘, ’बाप नंबरी बेटा दस नंबरी‘ महत्वपूर्ण फिल्में कीं।

नब्बे के दशक में शक्ति कपूर ने अपने अभिनय को एकरू पता से बचाने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में स्थापित करने के लिये अपनी भूमिकाओं में परिवर्तन भी किया। इस क्रम में वर्ष 1994 में प्रदर्शित डेविड धवन की सुपरहिट फिल्म ’राजा बाबू‘ में उन्होंने हास्य किरदार नन्दू को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इसमें अपने जबरदस्त हास्य अभिनय के लिये सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित भी किए गए। इसी साल उनके करियर की एक और सुपरहिट फिल्म ’अंदाज अपना अपना‘ प्रदर्शित हुई। शक्ति कपूर के सिने करियर में उनकी जोड़ी कादर खान के साथ काफी पसंद की गई। इन दोनों अभिनेताओं ने अब तक लगभग 100 फिल्मों में एक साथ काम किया है(राष्ट्रीय सहारा,3.9.2010)।