स्वागत

Wednesday, September 8, 2010

हिंदी फिल्मों में मध्यवर्ग

कुछ लोगों के लिए यह अचरज का विषय है कि किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दे को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्म 'पीपली लाइव' को महानगरों के मिडल क्लास ने कैसे हाथोंहाथ लिया। गौर करें तो इसमें एक किसान की आत्महत्या का मामला महज प्रस्थान बिंदु है। यह अपनी भूमि गंवा चुके किसान भाइयों बुधिया या नत्था की कहानी नहीं है। यह उनके जीवन को छूती जरूर है, लेकिन प्रमुखत: यह मीडिया या राजनीति के इर्दगिर्द ही घूमती है। यह जीवन के हर प्रसंग में सनसनी खोजने की मीडिया की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करती है, उसी तरह गरीबों को मोहरा बनाकर अपना सियासी दांव खेलने वाले राजनेताओं के पाखंड को उजागर करती है। ये दोनों ही ऐसे पहलू हैं, जिनमें मध्यवर्ग की खासी दिलचस्पी है।



बदलता हुआ यथार्थ

वैसे तो किसी फिल्म के हिट होने के पीछे कई तरह के कारक काम कर रहे होते हैं -फिल्म कला का कौशल, स्टार्स, मार्केटिंग वगैरह-वगैरह। लेकिन इन 'फिल्मी फैक्टर्स' के अलावा सबसे अहम निर्धारक तत्व है - समकालीन यथार्थ की प्रस्तुति। फिल्मों के लिए यथार्थ वही है जो उसके सबसे बड़े दर्शक वर्ग यानी मिडल क्लास की रियलिटी है। देश के 22 से 23 प्रतिशत लोगों का जीवन ही बॉलिवुड की दिलचस्पी का विषय है, क्योंकि अब यही तबका सिनेमा उद्योग का भाग्य तय करने लगा है। अब बॉलिवुड की ज्यादातर फिल्में मिडल क्लास की रुचियों, उसकी सोच, उसकी आशाओं-आकांक्षाओं को सचेत ढंग से व्यक्त करने लगी हैं। बॉलिवुड में अब पहले से ज्यादा मध्यवर्गीय चरित्र दिखने लगे हैं जैसे इंजीनियर (खट्टा-मीठा), सेल्समैन (रॉकेट सिंह -सेल्समैन ऑफ द ईयर), पत्रकार (पीपली लाइव) सरकारी बाबू (रब ने बना दी जोड़ी)। अगर हाल की कुछ सफल फिल्मों पर नजर डालें तो देश के मिडल क्लास की नब्ज टटोली जा सकती है।

पिछले दो दशकों में देश में एक नया मध्यवर्ग उभरकर आया है, जो काफी हद तक उदारीकरण की देन है। इस वर्ग में भी कई समूह हैं। दरअसल उदारीकरण ने कृषि पर काफी नकारात्मक असर डाला और कुल मिलाकर यह एक अलाभप्रद पेशा बन गया। ऐसे में थोड़ी बहुत जमीन के स्वामी भी खेती से पीछा छुड़ाकर शहरों में भागे। वहां उनके बच्चों ने प्रफेशनल डिग्री पाई और नए पनप रहे रोजगार हासिल किए। निजी बैंकों के आसान लोन के बूते इन्होंने मकान और गाड़ी जैसी सुविधाएं जुटाईं। इनका रहन-सहन और परिवार का ढांचा बदला।

सरलीकरण पर जोर

दरअसल बाजार के निरंतर प्रसार ने महानगरों के अलावा कई छोटे शहरों का रूप बदल दिया है। दुनिया की कई नामी-गिरामी कंपनियों के वहां पहुंचने से कारोबारी गतिविधियों के चरित्र में आमूल परिवर्तन आया है। उनके जरिए कई नए सेक्टर्स वहां स्थापित हुए, जिनके अनुरूप वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर भी विकसित हुआ है। इस प्रक्रिया ने उन शहरों की संपन्नता बढ़ाई है। इंडिकस एनालिटिक्स की रिपोर्ट 'हाउसिंग स्काइलाइन ऑफ इंडिया 2007-08' के अनुसार चंडीगढ़, पुणे, अहमदाबाद, सूरत और जमशेदपुर जैसे शहरों में लखपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है।

नया मध्यवर्ग ऐसे ही लोगों से मिलकर बना है जिसमें एक तबका अभी-अभी गांवों से शहर में आया है, तो एक वर्ग ऐसा है जो छोटे शहर से महानगरों में पहुंचा है। एक समूह ऐसा भी है जिसकी आवाजाही विदेशों में भी होने लगी है। इस वर्ग में भले ही अलग-अलग तरह के लोग हों, पर इनकी सोच कुल मिलाकर एक जैसी ही है। यह वर्ग सुधार और आदर्शवाद की बातें खूब करता है, लेकिन अपना हित साधने के लिए किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार हो जाता है।

यह न्यूज चैनलों की जिन खबरों का मजाक उड़ाता है, उन्हीं की टीआरपी बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान भी करता है। यह इस बात का रोना रोता है कि हिंदी अखबारों में अंग्रेजी का मिश्रण बढ़ रहा है, लेकिन यह खुद भी वैसी ही भाषा बोलता है और अपने बच्चों को अनिवार्यत: अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाता है। इसका मानना है कि देश में सभी बुराइयों की जड़ राजनीति है।

इसकी राजनीतिक सोच की बानगी फिल्म 'राजनीति' में बखूबी दिखती है। अगर इस फिल्म को मध्यवर्ग ने पसंद किया तो यह अकारण नहीं है। फिल्म इस मध्यवर्गीय सोच को आगे बढ़ाती है कि राजनीति में मूल्यों के लिए अब कोई जगह नहीं बची। वहां अब केवल अंधेरा है। फिल्म षड्यंत्रों और हत्याओं के इर्द-गिर्द चक्कर काटती रहती है। वहां सत्तालोलुप राजनेताओं के बीच न तो सिस्टम का कोई रोल नजर आता है न ही जनता का। मिडल क्लास को ऐसा सरलीकरण बहुत पसंद है। उसे सिस्टम की जटिलताओं में उतरने का धैर्य नहीं है।

भ्रष्टाचार जैसी समस्या को संजीदगी से उठाने वाली फिल्म 'वेल डन अब्बा' को इन दर्शकों ने बहुत ज्यादा पसंद शायद इसीलिए नहीं किया कि यह फिल्म सरलीकरण में पड़ने के बजाय व्यवस्था के हर पुर्जे को संजीदगी से परखती है (इसके पीछे निश्चय ही कुछ फिल्मी फैक्टर्स भी रहे होंगे)।

नए खलनायक और विदूषक

मिडल क्लास राजनेताओं को खलनायक या विदूषक के रूप में देखना चाहता है। 'पीपली लाइव' में भी राजनेताओं को इस रूप में देखकर उसे संतोष होता है। ऐसा नहीं है कि वह विचारों के स्तर पर जड़ है या बदलावों का विरोधी है। लेकिन समग्र बदलाव की कोई तस्वीर उसके जेहन में नहीं बन पाती। यह संभवत: उसके अराजनीतिक चरित्र की वजह से है। वह पूरे समाज के परिवर्तन के माध्यम के रूप में राजनीति की भूमिका को स्वीकार नहीं कर पाता। लेकिन जो सिर्फ उसके जीवन से जुड़ा है, उसमें वह दिलचस्पी जाहिर करता है। फिल्म 'थ्री इडियट्स' में पेश किया गया विचार मध्यवर्ग को अच्छा लगा, क्योंकि वह शिक्षा और करियर के क्षेत्र में व्याप्त जकड़बंदी से परेशान है। वह माहौल बदलना चाहता है, लेकिन उसे सीमित बदलाव ही चाहिए। उसे इतना व्यापक परिवर्तन नहीं चाहिए कि उसका अपना स्पेस खत्म हो जाए या उसकी विशिष्टता पर आंच आए। शायद यही वजह है कि मध्यवर्ग ने पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विरोध किया है। लेकिन बॉलिवुड मध्यवर्ग को खुश रखना चाहता है। इसलिए कोई फिल्म इस वर्ग की पोल खोलने की कोशिश नहीं करती(संजय कुंदन,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,6.9.2010)।

No comments:

Post a Comment

न मॉडरेशन की आशंका, न ब्लॉग स्वामी की स्वीकृति का इंतज़ार। लिखिए और तुरंत छपा देखिएः