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Sunday, September 19, 2010

अंकुरित शबाना अब भी संभावना

शबाना आजमी को सिनेमा क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए आज मुंबई में, ‘ताज एन्लाइटन तारीफ अवार्ड’ से नवाजा गया।

सम्मानित किए जाने के बाद शबाना ने पत्रकारों से कहा, ‘मुझसे पहले भी यह पुरस्कार कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों को मिल चुका है। जिनके काम की मैं हमेशा प्रशंसा करती रही हूं।’ चाय बनाने वाली प्रमुख कंपनी ‘ब्रुक बॉन्ड ताज महल’ और ‘एन्लाइटन फिल्म सोसायटी’ की तरफ से शबाना को यह पुरस्कार दिया गया।

गौरतलब है कि शबाना के पहले यह पुरस्कार फिल्म निर्देशक मृणाल सेन, पटकथा लेखक व गीतकार जावेद अख्तर और मेगास्टार अमिताभ बच्चन को मिल चुका है। कल ही शबाना ने अपने साठ वर्ष पूरे किए हैं। दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे बता रहे हैं कि कैसे शबाना अब भी एक संभावना हैः
आज (18 सितंबर) को शबाना आजमी साठ वर्ष की हो रही हैं और रंगमंच पर सक्रिय हैं। उनके नाटक ‘ब्रोकन इमेजेस’ का प्रदर्शन हो रहा है। जब वह छोटी थीं, तब शौकत आजमी उन्हें गोद में लिए नाटक करने जाती थीं। यह देख पृथ्वीराज कपूर ने आया का बंदोबस्त किया था। अब्बा कैफी आजमी ने शौकत से प्रेम विवाह किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा को समर्पित इस जोड़े को अन्य साथियों के साथ कम्युनिटी हॉल में लंबे समय तक रहना पड़ा।

शबाना को घुट्टी में ही साहित्य, सिनेमा और रंगमंच के संस्कार मिले और उनका जीवन भी पटकथा की तरह रहा है। उन्होंने पूणो फिल्म संस्थान से शिक्षा पाने के बाद श्याम बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर’ से अपनी अभिनय यात्रा आरंभ की। इस यात्रा में समानांतर सार्थक सिनेमा के साथ मसाला, व्यावसायिक फिल्में भी शामिल रहीं। उन्होंने विदेशी भाष की फिल्में भी अभिनीत कीं। रंगमंच से तो उनका जन्म का ही नाता रहा है। वह राज्यसभा सदस्य भी रही हैं।

शबाना का कहना है कि अगर उनके अपने बच्चे हुए होते तो शायद उनका जीवन दूसरे किस्म का रहा होता, परंतु उनकी मां शौकत ने बच्चों के होते हुए सक्रिय जीवन जिया है। अरसे पहले उन्होंने कहा था कि मातृत्व ही महिला-जीवन का शिखर या सार्थकता नहीं है। दूसरों के बच्चों को प्यार करना भी मातृत्व ही है। बच्चे कोख में जन्मते हैं, परंतु दिल में पलते हैं और आंखों में बड़े होते हैं। क्या सचमुच सूनी कोख भावना शून्यता को जन्म दे सकती है?

मदर टेरेसा से बड़ी मां कौन हो सकती हैं! यह भी विचारणीय है कि मातृत्व की महिमा कुछ ऐसी गढ़ी गई है कि महिला जीवन के अन्य क्षेत्रों को गौण कर दिया गया है और ‘मां नहीं बनी तो जीवन व्यर्थ है’ को नारी जीवन का मूल बना दिया गया है। क्या यह औरत के संपूर्ण विकास के खिलाफ रचे षड्यंत्र का हिस्सा है कि उत्तरदायित्व नारी का है, परंतु उसे कोई अधिकार नहीं है?

शरत बाबू की ‘बिंदो का लल्ला’ महान रचना है। बहरहाल शबाना ने श्याम बेनेगल के साथ काम करते हुए भी मसाला फिल्मकारों के साथ सहजता से काम किया है। उन्होंने नसीरुद्दीन के साथ ही सितारा शशि कपूर के साथ भी स्वाभाविकता से काम किया। उनका मन तो समानांतर सिनेमा में रमता था, परंतु मसाले के लिए अपनी हिकारत को संयत और छिपाए रखा। यह उनकी अग्नि परीक्षा थी।

नसीर कई बार इस हिकारत को छिपा नहीं पाए। इस मामले में ओम पुरी का कोई जवाब नहीं। कुछ वर्ष पूर्व शबाना ने दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में विधवा की भूमिका के लिए अपना सिर मुंडवा लिया था, परंतु हुड़दंगियों ने बनारस में शूटिंग नहीं होने दी। अभिनय में इस तरह की बातें कितना दुख पहुंचाती होंगी।

कुछ समय पहले शबाना ने एक फिल्म के लिए अपना वजन बढ़ाया था और शूटिंग के बाद वजन घटाने का कष्ट भी सहा। विनय शुक्ला की ‘गॉडमदर’ के लिए सिगरेट भी पी और नृत्य भी किया, जिसे देखकर श्याम बेनेगल ने सुखद आश्चर्य अभिव्यक्त करते हुए कहा था कि ऐसी कोई भूमिका नहीं, जिसे शबाना निभा न सकें।

अभिनय करने वालों को अपना शरीर बांसुरी की तरह इस्तेमाल करना पड़ता है। भूमिका के अनुरूप स्वर निकालना होता है। कलाकारों को सोचना चाहिए कि कभी बांसुरी विद्रोह करे तो क्या होगा? बहरहाल उम्र के इस पड़ाव पर भी शबाना एक संभावना हैं।

1 comment:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    काव्य प्रयोजन (भाग-९) मूल्य सिद्धांत, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

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