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Saturday, September 4, 2010

'तीसरी कसम' और नया सिनेमाःविनोद भारद्वाज

जब मैंने एक युवा फिल्मकार को बताया कि मुझे शैलेंद्र और "नया सिनेमा" पर एक परिसंवाद में बोलना है तो उसने हैरान हो कर पूछा - शैलेंद्र और "नया सिनेमा"? कुछ समझ में नहीं आया। मैंने कहा - अगर हम "तीसरी कसम" और "नया सिनेमा" कहें तो क्या इस विषय पर कोई सार्थक संवाद संभव है? जाहिर है, उसे कुछ सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा।

दरअसल, अगर हम भारतीय नया सिनेमा या हिंदी फिल्मों के "नया सिनेमा" से जुड़े साहित्य, पुस्तकों आदि का सवेर्ेेक्षण करें तो "तीसरी कसम" की चर्चा लगभग कहीं नहीं मिलेगी। १९८६ में छपी अरुणा वासुदेव की पुस्तक "द न्यू इंडियन सिनेमा" मैं देख रहा था-"तीसरी कसम" का उसमें नाम भी नहीं है। पूर्ववर्ती फिल्मों के रूप में भी नहीं। धरती के लाल, नीचा नगर, दो आंखें बारह हाथ, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, आवारा, मुसाफिर, प्यासा, कागज के फूल आदि फिल्मों की चर्चा नए भारतीय सिनेमा की पूर्ववर्ती फिल्मों की सूची में मिलती है। "फिल्म इंडिया" कार्यक्रम के दौरान फिल्म महोत्सव निदेशालय ने १९८१ में "द न्यू जनरेशन (१९६०-१९८०) नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तिका निकाली थी जिसमें बासु चटर्जी की फिल्म "सारा आकाश" पर चर्चा में निर्देशक के परिचय में इस बात का संक्षिप्त उल्लेख है कि उन्होंने प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र द्वारा बनाई गई फिल्म "तीसरी कसम" में सह-निर्देशक की भूमिका निभाई थी। बासु चटर्जी ने स्वीकार किया है कि उन्होंने "फिल्म क्राफ्ट इसी फिल्म से सीखा।" सेट पर जो कुछ भी करने के लिए होता था, मैं करता था। कोई भी काम गैर दिलचस्प या मेरे स्तर से नीचा नहीं था।

"तीसरी कसम" का निर्माण १९६२ में शुरू हुआ। १९६६ में वह फिल्म बनी। यह सभी जानते हैं कि निजी जीवन में शैलेंद्र फिल्म निर्माण के दबावों को सह नहीं पाए। "तीसरी कसम" अपने समय की उपेक्षित फिल्म नहीं थी। उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, मास्को फिल्म महोत्सव में वह एक चर्चित फिल्म साबित हुई। बॉक्स ऑफिस पर वह सफल नहीं हुई चूंकि राजकपूर या वहीदा रहमान की फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर दूसरा अर्थ था। यह दिलचस्प बात है कि "द हंड्रेड ल्यूमनरीज ऑफ हिंदी सिनेमा" पुस्तक में शैलेंद्र को शामिल करते हुए "तीसरी कसम" को "इल-स्टार्ड प्रोडक्शन" बताया गया है। उसमें कहा गया है कि शैलेंद्र कलात्मक गुणवत्ता वाली फिल्म बनाना चाहते थे पर उन्हें फिल्म निर्माण का ज्ञान नहीं था - न ही उनका ऐसा कोई मिजाज था। इस पुस्तक के अनुसार फिल्म चार साल तक खिंचती रही। शैलेंद्र का फिल्म उद्योग से मोहभंग होता चला गया। १९६६ में वे दिल्ली में फिल्म के प्रीमियर में भी नहीं शामिल हुए। मृत्यु उनके कई गीतों के केंद्र में थी। "तीसरी कसम" का गीत "सजनवा बैरी हो गए हमार" उनका एक विदाई गीत साबित हुआ।

ऑक्सफोर्ड के सम्मानित भारतीय फिल्म कोश में "तीसरी कसम" का परिचय "म्यूजिकल मेलोड्रामा और "सेंटीमेंटल फिल्म" के रूप में दिया गया है। कहने का अर्थ यह है कि "तीसरी फिल्म" को अनेक कारणों से फिल्म इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया है। निश्चय ही वह नए भारतीय सिनेमा की एक प्रामणिक पूर्ववर्ती फिल्म है। मृणाल सेन की "भुवन शोम", मणि कौल की "उसकी रोटी", बासु चटर्जी की "सारा आकाश" कुमार शाहनी की "माया दर्पण", अवतार कौल की "२७ डाउन" आदि फिल्मों से हिंदी के नए सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है। पचास के दशक में फ्रांस में "नुवेल वाग" (नई धारा) और इटली में "नव यथार्थवाद" की काफी चर्चा हुई थी। १९६९ में जब "भुवन शोम" को फिल्म वित्त निगम ने कर्ज दिया तो इसे भारत में गैर-व्यावसायिक और नई धारा के सिनेमा की शुरुआत के रूप में देखा गया। यह भी गौर करने की बात है कि "भुवन शोम" के निर्देशक मृणाल सेन बंगाल के बड़े फिल्मकार थे, फिल्म में गुजरात का उजाड़ केंद्र में था पर भाषा हिंदी थी।

यह भी गौर करने की बात है कि मणि कौल, बासु चटर्जी, कुमार शाहनी, अवतार कौल आदि सभी ने हिंदी के नए कहानीकारों - मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, रमेश बक्षी आदि की कृतियों को चुना। दरअसल, इस परंपरा की वास्तविक शुरुआत "तीसरी कसम" से हुई जब फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी "तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम" पर फिल्म बनाने का फैसला किया गया। रेणु ने फिल्म के संवाद भी लिखे। रेणु हिंदी के उन रचनाकारों में से थे जो आधुनिक संवेदना-समझ आदि लेकर ग्रामीण परिवेश के यथार्थ को जानने-जांचने की कोशिश करते थे। वह आधुनिकतावादी थे पर उनकी संवेदना निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, रमेश बक्षी आदि से भिन्न थी। एक इतालवी विद्वान ने एक बार मुझे बताया कि रेणु की कालजयी कृति "मैला आंचल" का इतालवी में अनुवाद हुआ, तो वह "गंदा आंचल" हो गया। "मैला" की समझ-संस्कृति इतालवी भाषा में नहीं थी। देवभाषा अंग्रेजी के फिल्म समीक्षक इसीलिए रेणु के संसार की ग्रामीण मानवीयता, मार्मिकता आदि को मात्र "सेंटीमेंटल" चित्रण के रूप में देखते हैं।

इस पर भी विचार किया जाए कि "तीसरी कसम" को "नया सिनेमा" न मानने के पीछे क्या तर्क और तरीके हैं। एक तो यह निर्देशक की फिल्म नहीं है। नए सिनेमा को "ऑथर थ्योरी" यानी फिल्म निर्देशक की एक लेखक की तरह की प्रतिष्ठा केंद्रीय लगती थी। "तीसरी कसम" के निर्देशक बासु भट्टाचार्य युवा थे और निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म थी। लेकिन "तीसरी कसम" एक "कलेक्टिव विजन" की फिल्म है। उसके पीछे शैलेंद्र, रेणु, सत्यजित राय की फिल्मों से चर्चित हुए कैमरामैन सुब्रत मित्र, महान नर्तक लच्छू महाराज आदि का "विजन" भी सक्रिय था। कहा जाता है कि "स्टार" राज कपूर तो एक लड़के किस्म के निर्देशक को संदेह से देख रहे थे। "उसकी रोटी" को मणि कौल का "विजन" कहा जाएगा - मोहन राकेश की कहानी सिर्फ एक तरह का "स्प्रिंग बोर्ड" है। यह भी गौर करने की बात है कि "भुवन शोम" और "उसकी रोटी" दोनों में भारतीय ग्रामीण परिवेश है लेकिन तीसरी कसम में ग्रामीण परिवेश अधिक आत्मविश्वास से बोलता है।

दरअसल,सुब्रत मित्र कैमरेका अद्भुत काम ही काफी है-तीसरी कसम को नए सिनेमा से जोड़ने के लिए। वहीदा रहमान और राजकपूर की कैमिस्ट्री भी अच्छी है। नया सिनेमा और उसका शास्त्र महत्वपूर्ण नहीं था लेकिन अपनी समग्रता में तीसरी कसम हिंदी के नए सिनेमा की तुरंत पहले की एक पूर्ववर्ती फिल्म-इमीडिएट प्रीकर्सर है और इसीलिए उसे हिंदी के नए सिनेमा की एक सार्थक शुरूआत माना जाना चाहिए(नई दुनिया,दिल्ली,4.9.2010)।

1 comment:

  1. 'तीसरी कसम' के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिली. आभार .

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