वरूण ग्रोवर द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो(2004-06) और SAB टीवी के धारावाहिक सबका भेजा फ्राई(2007) के लेखक रहे हैं । बतौर गीतकार अनुराग कश्यप ने ही 2010 में रिलीज द गर्ल इन यलो बूट्स में उन्हें पहला ब्रेक दिया था। दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न ओसियान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई हिंदी फिल्म प्राग में भी उन्होंने ही गीत लिखे हैं । यह फिल्म जल्द ही कमर्शियली रिलीज की जानी है। उनके लिखे फिल्म ' गैंग्स ऑफ वासेपुर ' के गीत इन दिनों हर किसी की जबान पर हैं। वरुण ग्रोवर ने बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से सिविल इंजिनियरिंग की है। पढ़ाई के दौरान ही वे नाटकों के लिए गीत लेखन करने लगे थे। यही उनके फिल्मी करिअर के लिए होम वर्क भी साबित हुआ। उनसे अनुराग वत्स की यह बातचीत 28 जुलाई,2012 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित है:
फिल्मी गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? कविता लिखने से यह कितना अलग है?
यह सिलसिला बहुत शानदार रहा। फिल्मी गीतों और फिल्मों से मेरा जुड़ाव ही रेडियो के कारण हुआ। बचपन में लखनऊ में मैं और मेरा स्कूल का बहुत अच्छा दोस्त संदीप सिंह रोज सुबह विविध भारती का चित्रलोक कार्यक्रम सुनकर आते थे। बाकी बच्चे स्कूल की प्रार्थना कर रहे होते थे जबकि मैं और संदीप आज कौन सा नया गाना सुना, इस पर बतिया रहे होते थे। अब अपने ही लिखे गीत रेडियो पर बजते हैं तो लगता है जैसे यह कोई और ही जनम है। विविध भारती के कारण ही गीत-कविता लिखने का शौक हुआ। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के आईआईटी से मैंने सिविल इंजिनियरिंग की। वहां नाटक खूब होते थे। वहीं नाटकों में गीत लिखना शुरू किया। वही मेरे लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम था गीत लेखन का। वह सब मुंबई में अब बहुत काम आ रहा है। गीत और कविता में मेरे हिसाब से बहुत फर्क नहीं है। आत्मा तो एक ही है। बस गीत में जरा मीटर का ध्यान रखना पड़ता है। वह भी, जब स्नेहा खानवलकर जैसी संगीतकार मिल जाए तो आसान हो जाता है। स्नेहा शब्दों को बहुत अहमियत देती हैं और धुन को शब्दों के हिसाब से थोड़ा-बहुत मोड़ने में ना-नुकुर नहीं करतीं।
आपने जो गीत लिखे हैं वह बॉलिवुड के मौजूदा ट्रेंड से बहुत अलग हैं। क्या यह फर्क अनुराग कश्यप सरीखे फिल्म मेकर की वजह से है जो ख़ुद टिपिकल बॉलिवुड फिल्म मेकिंग में कम यकीन रखते हैं।
फर्क अनुराग और स्नेहा दोनों की वजह से ही है। अनुराग ने खुला मैदान दिया और स्नेहा ने उसमें पतंग उड़ाई। इतनी क्रिएटिव फ्रीडम मिली अनुराग की तरफ से कि लगा ही नहीं किसी हिंदी फिल्म के लिए गीत बना रहे हैं। उन्होंने बस स्क्रिप्ट पकड़ा दी और कहा कि खुद पढ़ो और सोचो, कहां कहां गाने आ सकते हैं। हमने फिर खुद ही बहुत से गीत बना लिए। बहुत बाद तक पता भी नहीं था कि ये फिल्म में कहां फिट होंगे। बहुत अनोखा क्रिएटिव प्रोसेस रहा।
गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीतों में एक तरफ फोक का टच और दूसरी तरफ नए जमाने की धड़कन है। यह आप कैसे मुमकिन कर सके?
आधार लोक गीतों को ही रखा गया। रिसर्च उन्हीं पर हुई। स्नेहा दो महीना बिहार भ्रमण कर के आईं। सन 2010 की भरी गर्मियों में, सुबह-शाम सत्तू पी-पी कर बिहार और झारखंड के अनेक जिलों से गायक, लोक गीत, लोक गीतों पर किताबें और कुछ मजेदार शब्द बटोर कर लाईं। ये चीजें बाद में मेरे बहुत काम आईं। 'जियs हो बिहार के लाला' और 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' का मुखड़ा हमें इसी रिसर्च से मिला। और 'हमनी के छोरी के नगरिया बाबा' तो पूरा का पूरा ही लोक गीत है। एक और सच यह है कि स्नेहा मूड से बहुत समकालीन है। दुनिया भर का इलेक्ट्रॉनिक संगीत सुनती है और खुद भी बनाती है। उसने सोच रखा था कि लोक संगीत को एक नई खिड़की से दिखाना है। तो लोक और इलेक्ट्रॉनिक संगीत के इस मिश्रण को मुझे भी अपने शब्दों से मिलाना पड़ा।
इसके पीछे क्या यह मंशा थी कि इस तरह के प्रयोगों से बड़ी ऑडिएंस का ध्यान खींचना है?
ऑडिएंस को समझने की, लुभाने की, बहलाने-फुसलाने या उन पर जल चढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की। अपनी समझ और फिल्म व संगीत के दम पर जो सबसे अच्छा लगा वो लिख दिया। फिल्म की भाषा में ही लिखना है, बस यही तय किया था।
वुमनिया सरीखे गीतों के पीछे की प्रेरणा क्या है? इसमें गाली भी है, हंसी-ठिठोली भी।
फिल्म में तीन पीढ़ियों की कहानी है। ढेर सारे किरदार हैं और थोड़ी-थोड़ी देर पर एक शादी होती है। तो यह तय था कि शादी का गीत होगा। फिर बिहार में प्रथा है कि शादी के गीत थोड़े शरारती, कभी-कभी गाली भरे भी होते हैं। मेरी पत्नी झारखंड की है। मुंहझौंसा शब्द उसकी बहुत अच्छी दोस्त की सबसे पसंदीदा गाली है। मेरी शादी में भी कुछ ऐसे ही गीत बजे थे। 'रामलाल बुढ़वा के फूटे कपार, तुमरे करम में जोरू नहीं' एक गीत अब तक याद है। इसलिए मुझे अंदाजा था कि कितनी सीमाएं लांघी जा सकती हैं। इस पर काफी दिमाग लगाया जा रहा था कि वासेपुर के लिए शादी का क्या गीत बनाएं। तब स्नेहा के दिमाग में बस यह शब्द वुमनिया आया। उस पर लिखना शुरू किया और यही सोचा कि थोड़ा बेशर्म होकर लिखते हैं। और जैसे ही 'बदले रुपय्या के देना चवनिया' लाइन मिली, गीत का पूरा टोन सेट हो गया। बेशर्मी है, लेकिन लिहाज भी है।
चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी।
चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी।
फिल्म के गीत हट कर हैं लेकन यह फ्लेवर भी अच्छा लगा.'तार बिजली से पतले' ....ख़ास रहा !
ReplyDeleteप्रवीण पांडेय जी से इस फिल्म और उसके गीतों के बारे में पता चला उसके परिप्रेक्ष्य में इस लेख से जानकारी में और भी बढोतरी हुई ।
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