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Wednesday, December 26, 2012

2012: टूटे फॉर्मूले,दिखीं नई कहानियां

'जब तक है जान' में नायक लंदन में छोटे मोटे काम कर गुजारा कर रहा है। एक कमरे के फ्लैट में उसका रूम पार्टनर पाकिस्तानी है। दोनों एक साथ रहते ही नहीं, एक दूसरे की चीजें भी शेयर करते हैं। उसके खर्चे भी आमतौर पर नायक ही उठाता है। इतना ही नहीं, नायक जब हिंदुस्तान वापसी का कार्यक्रम तय करता है तो अपनी सारी जमा-पूंजी उसे देकर चला आता है कि इससे अपना व्यवसाय शुरू कर लेना। इस वर्ष 'जब तक है जान' दूसरी फिल्म थी जिसमें पाकिस्तान के संदर्भ आए थे। इसके पहले 'एक था टाइगर' में भी पाकिस्तान का उल्लेख खुल कर था, जिसके चलते पाकिस्तान में इसे बैन झेलना पड़ा। इस फिल्म की कहानी हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि में थी, जिसमें रॉ और आईएसआई की गतिविधियों का उल्लेख था, लेकिन फिल्म सौहार्द्र के संदेश के साथ खत्म होती थी। हिंदी सिनेमा के लिए यह एक नई बात मानी जा सकती है। 

एडल्ट नहीं, मैच्योर 
हिंदी सिनेमा में पाकिस्तान का उल्लेख आना कोई नई बात नहीं। पहले की फिल्मों को भूल भी जाएं तो, 'दीवार' और 'गदर' जैसी फिल्मों को भूलना संभव नहीं, जहां पाकिस्तान का मतलब ही दुश्मनी था। अब जैसे-जैसे आतंकी गतिविधियां कम होती जा रही हैं, आपसी संबंधों पर जमी बर्फ का पिघलाव राजनयिक ही नहीं, आम नागरिक के स्तर पर भी शुरू हो गया है। आश्चर्य नहीं कि परदे पर आपसी सौहार्द्र के संकेत हमें अच्छे लगने लगे हैं। लेकिन 2012 का हिंदी सिनेमा सिर्फ इस बदलाव के लिए नहीं याद किया जाएगा। तकनीकी और विषयगत बदलाव की जो कोशिशें हिंदी सिनेमा में बीते दशक से चली आ रही थी, वे इस वर्ष कई महत्वपूर्ण फिल्मों के रूप में परदे पर साकार होते दिखीं। परदे पर नग्नता दिखाने का हुनर यहां पहले ही सीख लिया गया था। इस वर्ष जब 'विकी डोनर' आई तो लगा कि हिंदी सिनेमा वाकई वयस्क समझ के साथ वयस्क विषय पर हस्तक्षेप कर सकता है।

दर्शक का बदलता मिजाज 
स्पर्म डोनेशन जैसे गंभीर विषय पर खास दर्शकों के लिए खास फिल्म की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन इस विषय को आम दर्शकों के बीच स्वीकार्य बनाना चुनौती का काम था, जिसे हिंदी सिनेमा ने इस वर्ष संपन्न किया। 2012 में हिंदी सिनेमा ने नायक-नायिका की अनिवार्यता से भी मुक्ति पाने का प्रयास किया। इस वर्ष 'कहानी' और 'हीरोइन' जैसी बगैर नायकों वाली फिल्में आईं तो 'फरारी की सवारी' और 'ओह माई गॉड' जैसी बगैर नायिकाओं वाली फिल्में भी आईं। श्रीदेवी जैसी लंबे समय तक ऑफ स्क्रीन रही प्रौढ़ नायिका की सफल वापसी हिंदी सिनेमा में आ रहे बदलाव का सूचक बनी। 'इंग्लिश-विंग्लिश' में उन्होंने एक भारतीय घरेलू महिला का किरदार निभाया, जिसे अपने परिवार के साथ इंग्लैंड जाना होता है। वहां अपने आपको साबित करने के लिए यह महिला अंग्रेजी सीखती है। बगैर किसी स्टार कास्ट के बनी इस सीधी पारिवारिक सी फिल्म की सफलता और 'जोकर' जैसी बिग बजट फिल्म की घनघोर असफलता ने हिंदी सिनेमा दर्शकों के बदलते स्वभाव को रेखांकित किया कि अब उनके लिए कहानी और प्रस्तुति महत्वपूर्ण है, मात्र अचंभित कर उसकी जेब से पैसे नहीं निकलवाए जा सकते। 

शायद दर्शकों की बदलती सोच ने ही निर्माता-निर्देशकों को हिम्मत दी कि कहानी की तलाश में वे वास्तविक घटनाओं के फिल्मांकन के लिए बेचैन दिखे। 'पान सिंह तोमर' से लेकर 'तलाश' तक कई फिल्में सच घटनाओं के फिल्मांकन के दावे के साथ आईं। 'शंघाई' और 'चक्रव्यूह' सच को कहानी के चमकदार आवरण में ढक कर लाईं, तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' ने सच को अपने रूखे रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की। टीआरपी के दबाव में टीवी समाचार जैसे-जैसे मनोरंजन के करीब होते गए, सिनेमा वैसे-वैसे समाचारों के नजदीक होता चला गया। 'शंघाई' ने सेज जैसे मुद्दे की पड़ताल की तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' में माफियाओं के संघर्ष के बहाने कोयला खदान इलाकों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति का जायजा लिया गया। सिनेमा पर समाचारों का दबाव इस कदर दिखा कि 'चक्रव्यूह' जैसी कहानी कहती फिल्म में भी स्थान और पात्रों के नाम को वास्तविक पुट देने की कोशिश की गई। 

सच को सच की तरह कहने की हिम्मत ही थी कि 2012 में साल भर के अंदर दूसरी बार आजादी के आंदोलन के ऐतिहासिक पृष्ठ 'चित्तगांव' को परदे पर साकार किया गया। चित्तगांव की चिंगारी पहली बार जहां 'खेलेंगे हम जी जान से' में अभिषेक बच्चन और दीपिका पादुकोण के ग्लैमर के नीचे दबी-दबी सी थी, वहीं दूसरी बार यह मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन के साथ पूरी ऐतिहासिकता के साथ आई। मल्टीप्लेक्स कल्चर ने फिल्मकारों के बीच यह समझ विकसित की कि यदि लक्ष्य 100 करोड़ न हो तो हरेक जोनर की फिल्म को एक दर्शक वर्ग मिल सकता है और उसके खर्च की भरपाई हो सकती है, बशर्ते फिल्म ईमानदारी से बनाई गई हो। 

बरफी और पान सिंह तोमर 
आश्चर्य नहीं कि जितनी विविधता हिंदी सिनेमा में इस वर्ष दिखी, उतनी शायद पहले कभी नहीं दिखाई दी थी। हालांकि महेश भट्ट और एकता कपूर जैसे फिल्मकारों को इससे यह हौसला भी मिला कि वे 10 करोड़ में नग्नता परोस कर 60 करोड़ कमा सकें और यह दावा कर सकें कि हिंदी दर्शकों को सेक्स ही पसंद है। वास्तव में इस वर्ष दर्शकों ने फिल्मकारों को अपने पसंद की फिल्म बनाने की हिम्मत दी। उपभोक्तावाद के लिए बदनाम इस समय में कोई फिल्मकार गूंगे-बहरे लड़के और मानसिक रूप से कमजोर लड़की की प्रेम कहानी बनाने की हिम्मत आखिर कैसे जुटा सकता है? लेकिन 2012 में हिंदी सिनेमा में आए बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक यह है कि 'बरफी' बनती ही नहीं, दर्शकों द्वारा जमकर पसंद भी की जाती है। संभव है, हिंदी सिनेमा में सन 2012 को कुछ सौ करोड़िया फिल्मों के लिए याद न भी किया जाए, लेकिन बरफी जैसी कल्पनाशीलता और पान सिंह तोमर जैसी वास्तविकता के लिए इसे जरूर याद रखा जाएगा(विनोद अनुपम,नभाटा,25.12.12)।

3 comments:

  1. शानदार लेखन,
    जारी रहिये,
    बधाई !!!

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  2. आनंदमय, बेहतरीन, लाजवाब और विचारों की सटीक अभिव्यक्ति | आभार

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