अपनी बेलाग बातों, अटपटी भाषा, व्यंग्यात्मक शैली और खुले विचारों से आम आदमी को गुदगुदाने वाले हंसी के बादशाह जसपाल भट्टी बृहस्पतिवार को रुला गए। तड़के जालंधर के निकट शाहकोट में सड़क दुर्घटना में 57 वर्षीय हास्य कलाकार तथा फिल्म निर्माता का निधन हो गया। इस हादसे में उनका बेटा जसराज तथा उनकी फिल्म की नायिका सुरीली गौतम गंभीर रूप से घायल हो गए। ‘उल्टा पुल्टा’ और ‘फ्लाप शो’ जैसे व्यंग्यात्मक प्रस्तुतियों के जरिये आम आदमी की समस्याओं को उठाया था। उनके ये दोनों शो 1980 के दशक के आखिर और 1990 के दशक के शुरू में दूरदर्शन के सुनहरे दौर में दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहे थे। बहुत छोटे बजट की श्रृंखला ‘फ्लॉप शो’ तो मध्यम वर्ग के लोगों की समस्याओं को विशिष्टता के साथ उठाने के लिए आज भी याद की जाती है। दुर्घटना के वक्त जसपाल भट्टी फिल्म पावर कट का प्रोमोशन कर लौट रहे थे जो पंजाब में लगातार की जाने वाली बिजली कटौती पर आधारित है।। यह फिल्म इसी शुक्रवार को रिलीज हो रही है। आज नभाटा ने उन पर संपादकीय लिखा हैः
"टीवी में हंसी अभी जिस तरह एक प्रॉडक्ट की तरह बेची जा रही है, उसे जेहन में रख कर जसपाल भट्टी के बारे में कोई राय नहीं बनाई जा सकती। जब देश का ज्यादातर टीवी परिवेश ब्लैक ऐंड वाइट था और आम लोगों के लिए इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था, तब जसपाल भट्टी ने अपने छिटपुट कार्यक्रमों के जरिये हमें हंसी की ताकत समझाई थी। 'उल्टा-पुल्टा' नाम से आने वाले उनके छोटे-छोटे कैपसूलों के लिए लोग जम्हाइयां लेते हुए दूरदर्शन के लंबे-लंबे समाचार विश्लेषण देख जाया करते थे। फिर दस एपिसोड चले फ्लॉप शो ने तो कमाल ही कर दिया। इसमें भट्टी और उनके पात्र अलग से कुछ कहने की कोशिश नहीं करते थे। जो कुछ लोगों के इर्द-गिर्द चल रहा होता था, उसी को चुस्त फिकरों और सधी हुई स्क्रिप्ट में बांधकर पेश कर दिया जाता था। इतने कम खर्चे में कि अभी चल रहे किसी भी सीरियल के एक एपिसोड में फ्लॉप शो के दसों एपिसोड बन जाएं और कुछ पैसे उसके बाद भी बचे रहें।
सरकारी इंजिनियरों और बिल्डरों की सांठ-गांठ पर केंद्रित इसके एक एपिसोड में एक पुरानी फिल्मी कव्वाली 'इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो' को इस तरह पेश किया गया कि काफी समय तक लोगों को असली गाना ही भूल गया। ध्यान रहे, उल्टा-पुल्टा और फ्लॉप शो का समय वही था, जब पंजाब खालिस्तानी हिंसा का शिकार था और पूरे देश में यह शक पैदा हो गया था कि अपनी जिंदादिली के लिए पूरी दुनिया में मशहूर इस राज्य का जनजीवन कभी पटरी पर आ पाएगा या नहीं। उस कठिन दौर में सोशल-पॉलिटिकल कॉमिडी के सरताज जसपाल भट्टी और गजलों के बादशाह जगजीत सिंह ने अपने-अपने हुनर के जरिये बिना किसी शोरशराबे के देश को कुछ खतरनाक स्टीरियोटाइप्स का शिकार होने से बचा लिया।
उसी माहौल में किसी ने भट्टी से पूछा था कि आपने हर चीज पर अपनी धार आजमाई, लेकिन पंजाब समस्या पर कुछ क्यों नहीं कहा? जवाब था कि जिसे भी मौका मिलता है, वह इस पर कुछ न कुछ कह ही डालता है, ऐसे में पंजाब समस्या पर मेरी चुप्पी को ही क्यों न इसके समाधान में मेरा योगदान मान लिया जाए। महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक हर बड़े मुद्दे पर अपने इसी धारदार विट के साथ जसपाल भट्टी अंत तक सक्रिय रहे और अपने पीछे एक रेखा खींचकर गए कि हास्य-व्यंग्य में किसी को कुछ खास करना है तो उसको यहां तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।"
राष्ट्रीय सहारा ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैः
मौजूदा दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का दौर है। यह साझा हम निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में हर कहीं देख सकते हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य और व्यंग्य की चुटिलता भोंडेपन में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो था ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे। आज ही उनकी एक फिल्म ‘पावर कट’ रिलीज हो रही है, जिसका अब लोगों को पहले से भी ज्यादा बेसब्री से इंतजार है। भट्टी ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से थी, जो बाद में और प्रखर होती गई। उनका हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से भरा था और उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल उछाले। नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक काटरूनिस्ट के तौर पर हुआ था। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी ‘ट्रिब्यून’ अखबार के लिए काटरून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और काटरून व व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपने ‘मैसेज’ को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे। सही मायने में कहें तो जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों और टेलीविजन सीरियलों में उठाते रहे थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक इस्तेमाल जरूर किया पर खुद भट्टी कभी अपनी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही, उन लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि उनका व्यक्तित्व पंजाबियत में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए। जसपाल भट्टी की स्मृतियों को नमन।
राष्ट्रीय सहारा ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैः
मौजूदा दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का दौर है। यह साझा हम निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में हर कहीं देख सकते हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य और व्यंग्य की चुटिलता भोंडेपन में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो था ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे। आज ही उनकी एक फिल्म ‘पावर कट’ रिलीज हो रही है, जिसका अब लोगों को पहले से भी ज्यादा बेसब्री से इंतजार है। भट्टी ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से थी, जो बाद में और प्रखर होती गई। उनका हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से भरा था और उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल उछाले। नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक काटरूनिस्ट के तौर पर हुआ था। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी ‘ट्रिब्यून’ अखबार के लिए काटरून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और काटरून व व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपने ‘मैसेज’ को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे। सही मायने में कहें तो जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों और टेलीविजन सीरियलों में उठाते रहे थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक इस्तेमाल जरूर किया पर खुद भट्टी कभी अपनी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही, उन लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि उनका व्यक्तित्व पंजाबियत में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए। जसपाल भट्टी की स्मृतियों को नमन।