दुनिया में शायद भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहां कुछ राजनेता कभी किसी फिल्म से डर जाते हैं तो कभी किसी नाटक के मंचन से। कभी कोई किताब या किसी चित्रकार का बनाया कोई चित्र उन्हें लोगों की भावनाएं आहत करने वाला लगता है तो कभी कोई गीत या कविता उन्हें आपत्तिजनक लगती है। फिलहाल कुछ राजनेता प्रकाश झा जैसे जिम्मेदार फिल्मकार की फिल्म "आरक्षण" से डरे हुए नजर आ रहे हैं। सबसे ज्यादा भयभीत उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार है और उसने तय किया है कि इस फिल्म को रिलीज होने से पहले उसकी बनाई एक कमेटी के सदस्य देखेंगे और वे ही फैसला करेंगे कि फिल्म को प्रदेश के सिनेमाघरों में दिखाए जाने की अनुमति दी जाए या नहीं। उधर महाराष्ट्र के लोकनिर्माण मंत्री छगन भुजबल और दलित नेता रामदास अठावले ने भी इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में बैठे कुछ राजनेताओं ने भी इस फिल्म को देखे बगैर ही फतवा दे दिया है कि यह दलित विरोधी फिल्म है। इसी तरह का विरोध कुछ दिनों पहले रिलीज हुई फिल्म "खाप" को लेकर भी हो रहा है, जो "ऑनर किलिंग" जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी है। फिल्मों में क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं, यह तय करने के लिए हमारे यहां सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था है, जो अपना काम लगभग पूरी संजीदगी के साथ करती आ रही है। ऐसे में राजनेताओं को यह अधिकार देश के किस कानून ने दे दिया है कि वे यह तय करने लग जाएं कि कौन सी फिल्म प्रदर्शन के लायक है और कौन सी नहीं या फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं? अगर ऐसे अराजक सेंसर से ही यह सब कुछ तय होने लगेगा तो फिर सेंसर बोर्ड का औचित्य ही क्या रह जाएगा? बहरहाल पैसे के लेन-देन को लेकर एक विवाद के चलते मद्रास हाई कोर्ट ने १२ अगस्त को होने वाली "आरक्षण" की रिलीज पर रोक लगा दी है। लेकिन यह एक अलग मुद्दा है। सवाल उठता है कि जो राजनेता इन फिल्मों का विरोध कर रहे हैं क्या उन्होंने फिल्मों के बारे में कोई अकादमिक प्रशिक्षण ले रखा है या वे देश की जाति व्यवस्था और जातिवाद की समस्या को गहराई से जानते और समझते हैं? दरअसल, अपने घर की गंदगी को कालीन या चटाई के नीचे छिपा देने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में काफी हद तक व्याप्त है। उसे साफ करने को लेकर हमारे मन में झिझक है या उसके उजागर होने में एक तरह का अपराध बोध होता है। यही झिझक और अपराध बोध कभी किसी फिल्म, किसी नाटक, किसी किताब या किसी कलाकृति के विरोध के रूप में उजागर होता रहता है(संपादकीय,नई दुनिया,दिल्ली,9.8.11)।
6 अगस्त के नवभारत टाइम्स का संपादकीय भी कहता है कि हमारे राजनेता फिल्मों से डरते हैं। अक्सर वे किसी किताब या नाटक के मंचन से भी डर जाते हैं। उनका ताजा डर प्रकाश झा की फिल्म 'आरक्षण' को लेकर है। महाराष्ट्र के लोकनिर्माण मंत्री छगन भुजबल और आरपीआई के अध्यक्ष रामदास अठावले ने इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म 'खाप' का भी विरोध हो रहा है। इसे खाप की राजनीति से जुड़े नेता हवा दे रहे हैं। एक जमाने में 'आंधी' फिल्म पर इसलिए पाबंदी लगा दी गई थी, क्योंकि उसमें सुचित्रा सेन के चरित्र में कुछ लोगों को इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दे रही थी। और 'शूल' फिल्म का बिहार में प्रदर्शन तभी हुआ, जब आरजेडी के एक नेता ने उसे इजाजत दी। इसी तरह का विरोध अक्सर कुछ किताबों या नाटकों के मंचन के मामलों में भी नजर आता है।
इस विरोध के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? एक कारण तो यह है कि पिछले कुछ समय से कंट्रोवर्सी और विरोध पब्लिसिटी का सबसे अच्छा तरीका साबित हो रहा है। आप खुद कुछ नहीं कर रहे हैं, पर यदि कहीं कुछ हो रहा है तो उसका विरोध कर आप खुद भी रोशनी में आ जाते हैं। या आप कुछ कर रहे हैं, मगर उसे कोई देख नहीं रहा, तो भी कंट्रोवर्सी आपको दूसरों की नजर में ला देती है। इसीलिए कंट्रोवर्सी आज की पीआर एजेंसियों का सबसे भरोसेमंद हथियार है।
लेकिन राजनीतिज्ञों के मामले में इसका एक कारण उनके भीतर बसा असुरक्षा बोध भी होता है। हमारे अनेक राजनीतिज्ञ भयानक रूप से असुरक्षा बोध से ग्रस्त हैं। असल में वे अपनी निष्ठा या वैचारिक समझ के कारण जनता के बीच नहीं टिके होते, बल्कि एक सम्मोहन के कारण होते हैं, जो वे अपनी लफ्फाजी से पैदा करते हैं। वे जनता को भ्रमित कर उसे अपना अनुयायी या समर्थक बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए जैसे ही कोई ऐसी ताकतवर चीज आती है, जो जनता की आंखें खोल सकती है, तो वे डर जाते हैं और किसी न किसी बहाने उसका विरोध शुरू कर देते हैं। वे नहीं चाहते कि लोग किसी मुद्दे पर दूसरे ढंग से भी सोचें। किताबें, फिल्में या थिएटर उन्हें दूसरे ढंग से सोचने का रास्ता दिखा देते हैं।
लेकिन राजनीतिज्ञों के मामले में इसका एक कारण उनके भीतर बसा असुरक्षा बोध भी होता है। हमारे अनेक राजनीतिज्ञ भयानक रूप से असुरक्षा बोध से ग्रस्त हैं। असल में वे अपनी निष्ठा या वैचारिक समझ के कारण जनता के बीच नहीं टिके होते, बल्कि एक सम्मोहन के कारण होते हैं, जो वे अपनी लफ्फाजी से पैदा करते हैं। वे जनता को भ्रमित कर उसे अपना अनुयायी या समर्थक बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए जैसे ही कोई ऐसी ताकतवर चीज आती है, जो जनता की आंखें खोल सकती है, तो वे डर जाते हैं और किसी न किसी बहाने उसका विरोध शुरू कर देते हैं। वे नहीं चाहते कि लोग किसी मुद्दे पर दूसरे ढंग से भी सोचें।
ReplyDeleteसत्य वचन है जी। आपकी बातों से पुरी तरह सहमत। सादर।
उम्दा प्रस्तुति....
ReplyDeleteसब कुछ स्वार्थ की राजनीति के चलते हो रहा है ..
ReplyDeleteराधा रमण जी!
ReplyDeleteनाटक/फ़िल्मों से डरना ही चाहिए नेताओं को। आपको याद होगा केरल की सरकार नुक्कड़ नाटक से गिर गई थी।
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