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Thursday, September 22, 2011

कन्नड़ अभिनेत्री निकिता पर प्रतिबंधःहमेशा महिला ही क्यों होती है दोषी?

कन्नड़ फिल्म जगत कुछ गलत कारणों से विगत कुछ दिनों से सुर्खियों में है, लेकिन अब लग रहा है कि इसका पटाक्षेप हो रहा है। दरअसल, कन्नड़ फिल्मों के निर्माता संघ ने अभिनेत्री निकिता ठुकराल पर जो तीन साल का प्रतिबंध लगाया था, उसे वापस ले लिया गया है। कन्नड़ फिल्म उद्योग की नामी-गिरामी शख्सियतों द्वारा एवं कला-संस्कृति जगत के अन्य लोगों ने भी निर्माता संघ द्वारा पे्रमसंबंधों को लेकर लगाए इस खाप शैली के प्रतिबंध का विरोध किया। अपने बयान में संगठन के अध्यक्ष ने कहा कि हम लोगों का यह कदम मूर्खतापूर्ण था और हम लोगों ने इस मामले में निर्णय लेने में भी जल्दबाजी की। 

अभिनेत्री निकिता पर यह आरोप लगाया गया था कि अभिनेता टी. दर्शन के साथ प्रेमप्रसंग के चलते उनका अपनी पत्नी विजयलक्ष्मी के साथ वैवाहिक जीवन बरबाद हो गया। इस कारण निर्माता संघ ने पारिवारिक मूल्यों की हिफाजत के लिए यह कदम उठाया था। हालांकि दर्शन और विजयालक्ष्मी के वैवाहिक जीवन में बढ़ते तनाव की खबरें बहुत पहले से चल रही थीं। दर्शन द्वारा विजयालक्ष्मी के साथ की जा रही हिंसा की खबरें भी मिल रही थीं, मगर मामला विस्फोटक स्थिति तक तब पहुंचा, जब अपने पति के हाथों बुरी तरह प्रताडि़त विजयालक्ष्मी ने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करा दी। 

मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस ने अभिनेता को गिरफ्तार किया एवं विजयालक्ष्मी को अस्पताल में भर्ती किया गया। कई फिल्म निर्माताओं ने विजयालक्ष्मी पर परिवार को बचाने के लिए दबाव डाला। इसी दबाव में आकर विजयालक्ष्मी ने अपनी शिकायत वापस ले ली थी। विडंबना यही थी कि अपनी पत्नी को जलती सिगरेट से दागने के आरोपी दर्शन का साथ देने में फिल्म निर्माताओं को कोई संकोच नहीं हुआ। यह घटना इस बात को उजागर करती है कि कोई व्यक्ति चाहे जिस तबके का हो घरेलू हिंसा की समाज में आज भी स्वीकार्यता है। भले ही इसे रोकने के लिए तमाम कानून बने हों। 

यह सब सामाजिक जीवन में स्त्री के बुनियादी अधिकार और उसके संदर्भ में समाज के उन धारणाओं को ही बताता है जिसमें परिवार के सम्मान को बचाने को वरीयता दी जाती है। अगर हम कर्नाटक राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन सी. मंजुला की बात पर गौर करें तो वर्ष 2010 में घरेलू हिंसा से रक्षा के लिए बने अधिनियम 2005 के तहत नियुक्त प्रोटेक्शन ऑफिसर्स के पास 2005 मामले दर्ज हुए थे, जिनमें अन्य कानूनों के तहत दर्ज मामलों का उल्लेख नहीं किया गया था। वैसे कन्नड फिल्म निर्माता संघ को इस बार भले ही चार दिनों में ही अपनी मूर्खता का अहसास हुआ हो मगर उस पर हावी पितृसत्तात्मक मूल्यों का यह कोई पहला मसला नहीं है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब कन्नड़ अभिनेत्री रम्या ने निर्माताओं के गठजोड़ के खिलाफ जोरदार संघर्ष किया, क्योंकि इन्होंने उसे ठीक से पैसे देने से इंकार किया था और यहां तक कि उसे जज्बाती एवं गैर-पेशेवर कहकर संबोधित किया था। रम्या इन धमकियों एवं गलत प्रचारों से डरी नहीं और उसने सोशल मीडिया के सहारे अपनी आवाज बुलंद की। इससे ऐसा वातावरण बना कि निर्माताओं को रम्या को पूरा मेहनताना देना पड़ा। 

अगर हम दर्शन-विजयालक्ष्मी-निकिता प्रसंग पर फिर लौटें तो मामला यह नहीं था कि बेचारी निकिता कितनी निर्दोष है, क्योंकि यदि प्रेमप्रसंग चल रहा होगा तो उसकी भी सहमति रही होगी। उसने भी दर्शन पर दो महिलाओं के साथ समानांतर रिश्ते चलाने के मसले को एजेंडा नहीं बनाया और खुद विजयालक्ष्मी को देखें जो समाज के दबाव में मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान से पलट जाती हैं तथा अपने पति का बचाव करते हुए कहती हैं कि वह बाथरूम में गिरने से घायल हुई हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि पत्नियां अक्सर ऐसे समझौते करती हैं, जिसके दूसरे तमाम गलत कारण होते हैं। इसमें अपने परिवार को बचाना भी एक बड़ी वजह होती है। यह उनकी अपनी पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं व सोच का मामला भी होता है, जिसके तहत सारा ध्यान दूसरी औरत पर टिका रहता है। इसके चंगुल में बेचारा पति फंस गया होता है। 

अक्सर पति निरीह प्राणी बनने का खेल खेलने की कोशिश करते हैं, जो उनके बचाव का एक बड़ा हथियार भी होता है। वह प्रेमिका के सामने ऐसे दुखड़े रोते हैं कि वह पत्नी से बहुत परेशान है। इस कारण वह अपने पत्नी को छोड़कर प्रेमिका के साथ रहने का तर्क गढ़ते हैं और इस बहाने प्रेमिका को राजी करते हैं। प्रेमिकाएं भी ऐसी ही किसी घड़ी का इंतजार करती हैं कि वह पहली वाली को छोड़ कर उसके पास हमेशा के लिए चला आएगा, जो शायद कभी नहीं आता। समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग जगह तय है, जो सामाजिक न्याय की प्रक्रिया में एकदम भौंडे रूप में उभरकर सामने आता है। हाल में अमरोहा के एक गांव में एक युवती को उसी समुदाय के कुछ युवकों ने अपनी हवस का शिकार बनाया, लेकिन समुदाय की इज्जत के नाम पर मामला थाने में दर्ज नहीं होने दिया गया। न्याय के नाम पर पंचायत बैठाई गई और युवती के साथ होने वाली हिंसा के लिए फैसला सुनाया गया कि आरोपी युवकों को सार्वजनिक तौर पर दो-दो थप्पड़ लगाया जाए। 

इटारसी जिले के केसला थाने के गांव मोरपानी की ग्राम पंचायत की मीटिंग का यह किस्सा भी काबिलेगौर है, जिसका ताल्लुक विजय शुक्ला नामक व्यक्ति के अवैध प्रेमसंबंध से था। पंचायत के सामने विजय शुक्ला की पत्नी ने गुहार लगाई जिस पर पंचों को फैसला करना था। पंचायत बैठी और फैसला भी हुआ। पंच परमेश्वरों के फैसले के तहत पत्नी ने अपने पति की प्रेमिका की सरेआम पिटाई की। फिर इकट्ठी हुई भीड़ ने भी उस महिला की पिटाई की और उसे गांव में घुमाया गया। दरअसल, विजय पहले से शादीशुदा था और वह मोरपानी अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए आया था। तभी ग्रामवासियों ने उसकी अच्छी पिटाई कर दी। इसके बाद ही पंचायत बैठी और पत्नी के द्वारा महिला की पिटाई का निर्देश पारित हुआ। 

यहां प्रश्न यह उठता है कि पत्नी के प्रति वफादारी निभाने की जिम्मेदारी किसकी थी? यदि पत्नी के साथ धोखा उसके पति ने किया है, क्योंकि उसका रिश्ता पहले वाले पति से है तो उसे पहले पिटाई अपने पति की करनी चाहिए थी। हालांकि गांव वालों ने पति की पिटाई की, लेकिन जब पंचायत ने समझ-बूझकर निर्णय दिया तो दोषी पति को नहीं, बल्कि उस महिला को माना गया, जिससे पति ने विवाहेतर रिश्ता बनाया था। आखिरकार दोषी एक महिला ही मानी गई। हालांकि उस पत्नी के वैवाहिक रिश्ते में धोखा हुआ, जिसे विवाहेतर संबंधों के बारे में पता ही नहीं था। इसके अलावा वह दूसरी औरत भी निर्दोष नहीं थी, क्योंकि उसे भी पता था कि वह पुरुष दूसरे रिश्ते में है और वह समानांतर रिश्ता बना रहा है। इस तरह अप्रत्यक्ष तौर पर वह भी उस धोखाघड़ी में शामिल है, लेकिन जहां तक उस पत्नी महिला का सवाल है, उसके पति ने सीधे धोखाधड़ी की(अंजलि सिन्हा,दैनिक जागरण,22.9.11)।

Monday, September 19, 2011

फ़िल्में पैसे से नहीं,जुनून से बनती हैं

१९७६ में मैंने एक फिल्म निर्माता-निर्देशक का इंटरव्यू लिया था जो उन दिनों करीब ४३-४४ बरस के थे । सौभाग्य की बात है कि इन्हीं दिनों मुझे एक बार फिर उसी व्यक्ति से बातचीत का अवसर मिला । उन दिनों इस शख्स ने पहली फिल्म बनाई थी - "घरौंदा", जिसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी - जरीना वहाब, अमोल पालेकर तथा डॉ. श्रीराम लागू ने । इस फिल्म ने रातो-रात इस निर्माता-निर्देशक को श्रेष्ठ फिल्म निर्माताओं की पंक्ति में ला खड़ा किया था । फिल्म निर्माता का नाम था - भीमसैन । "घरौंदा" ऐसी फिल्म थी जिसे आम दर्शक ने ही नहीं, बुद्धिजीवियों ने भी सराहा था । मुझे याद है, एक विशेष प्रदर्शन में धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती भी पधारे थे और उन्होंने "ऐसी जीवंत" फिल्म बनाने के लिए मेरे सामने ही भीमसैन की पीठ थपथपाई थी । इस फिल्म की सफलता के दो-तीन कारण मुख्य थे - एक गुलजार के लिखे - "तुम्हें हो न हो, मुझको तो इतना यकीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है" या "दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में" या "मैं हस्दयां यार गंवाया, हौक्यां विच लब्दी फिरां," जैसे गाने, दूसरे, भीमसैन का यौवनोचित उत्साह, तीसरे, मुंबई में उन दिनों सिर पर छत के लिए तरसते लोगों और बिल्डरों की नादिरशाही के प्रति जनसाधारण का रोष जो कि इस फिल्म का मुख्य विषय था । भीमसैन ने यूं दो और फिल्में बनाई थीं - "दूरियां", जिसमें उत्तम कुमार और शर्मीला टैगोर जैसे कलाकार थे और तीसरी फिल्म "तुम लौट आओ"। 

"दूरियां" डॉक्टर शंकर शेष के नाटक पर और "तुम लौट आओ" मृदुला गर्ग की कहानी "मेरा" पर आधारित थीं । "दूरियां" कुछ खास सफल नहीं रही और "तुम लौट आओ" में नए कलाकारों - कविता चौधरी और निशांत को लेने के कारण वह लगभग फेल ही हो गई थी । "तुम लौट आओ" की शूटिंग दिल्ली में हुई थी और मैं रात-दिन इस यूनिट के साथ रहा था । कविता चौधरी हमारे गरीबखाने पर ही रहती थी, हालांकि फिल्म निर्माण का मेरा ज्ञान न के बराबर था लेकिन जिस दुलमुल तरीके से निशांत काम करता था, मुझे लगने लगा था कि यह शख्स फिल्म को ले डूबेगा । फिल्म तो डूबी ही, निशांत स्वयं डूब गया - सुना कि किसी मोटर वर्कशॉप में काम करने लंदन चला गया। कविता चौधरी अच्छी अदाकारा थी । 

उसकी एक्टिंग देखकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के तत्कालीन निदेशक बज्जू भाई इतने प्रभावित हुए थे कि कविता के मुख को दोनों हाथों में लेकर उन्होंने कहा था - "हमारी मीना कुमारी !" बहरहाल, "घरौंदा" १९७६ में, "दूरियां" १९७९ में और "तुम लौट आओ" १९८४ में बनी थी । आज इतने बरस बीत गए हैं, भीमसैन ने कोई फिल्म नहीं बनाई । यों कहें कि इस शख्स ने पूरी तरह से फिल्म निर्माण से हाथ खींच लिया । सो, मुझे उत्सुकता थी कि मैं उससे पूछूं कि किस कारण उन्होंने पलायन किया इसलिए पिछले दिनों मैंने उनसे टेलीफोन पर बात की । मैंने छूटते ही पूछा, "भीमसैन जी, यह क्या? इतनी अच्छी फिल्में देकर हाथ खींचकर बैठे हैं। ऐसी क्या बात हो गई ? भीमसैन ने हंसते हुए कहा, (वैसे, आजकल वह बहुत कम हंसते हैं) "ऐसी कोई बात नहीं । असल में, आजकल फिल्म बनाना बहुत ज्यादा मुश्किल हो गया है । "घरौंदा" बनाने के लिए मैं चार लाख लेकर बैठा था । कुल खर्च आया था आठ लाख यानी दुगुना। कोई तकलीफ नहीं हुई । बाकी पैसा मार्केट से मिल गया था । "दूरियां" करीब दस लाख में बनाई थी - अपने पैसे से और मन माफिक । किसी की दखलंदाजी नहीं । मैं दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता । (मुझे याद है, "दूरियां" के सेट पर मैंने एक सुझाव दिया था । भीमसैन ने मुझे झिड़ककर बैठा दिया था ।) आजकल आप चार करोड़ या १० करोड़ में भी फिल्म नहीं बना सकते ? 

असल में, उन दिनों फिल्में न्यारी होती थीं, लोग भी न्यारे थे। मैं एक नजर सारे वातावरण पर डालता हूं तो लगने लगता है, कैसे-कैसे लोग चले गए, कैसे-कैसे लोग आ गए हैं! कहां गए वे लोग जिन्होंने "मदर इंडिया" जैसी फिल्म बनाई थी ! उन्हें तो छोड़िए, गुलजार ने जैसी "हूतूतू" बनाई थी, क्या आज के थैलीशाह वैसी फिल्म बनाने की जोखिम ले सकते हैं? मुझे लगता है, गुलजार साहब ने भी फिल्म-निर्माण से संन्यास ले लिया है ।" मैंने कहा, "फिल्मों में लोग पैसा बनाने आते हैं, बहाने नहीं ।" "आप ठीक कहते हैं । पैसा कमाना बुरी बात है यह कौन कहता है लेकिन लालच बढ़ गया है । एक्टर-एक्ट्रेसेज करोड़ों की फरमाइश करते हैं ।" "तभी मांगते हैं, जब जानते हैं कि फिल्म उनके नाम से चलती है ।

" वह बोले, "आज की फिल्मों में आइटम नंबर डालना बहुत जरूरी समझा जाता है । दर्शक लटकों-झटकों वाली भौंडी आइटम खूब पसंद करते हैं । यह देखिए कि ढाई-तीन करोड़ में फकत एक आइटम बनती है । फिर फिल्म को कामयाब बनाने के लिए मसाले डालने पड़ते हैं । मेरे पास इतना पैसा होता तो मैं फिल्म बनाता लेकिन उसमें इस प्रकार के किसी मसाले की छौंक न लगाता ।" "आजकल कोई ऐसी फिल्म नहीं आ रही, जिसे देखने के लिए हम जैसे लोगों में उत्सुकता हो ? क्या कारण है ?" मैंने पूछा । "यहां मैं एक बात कहूं । टीवी ने फिल्म इंडस्ट्री की शक्ल ही बदलकर रख दी है । पहले जो लोग उससे परहेज करते थे, वही लोग उधर भाग रहे हैं । जैसा ग्लैमर टीवी सीरियल्स में है, वैसा पहले नहीं था। अब दर्शक अधिक संख्या में टीवी से ही संतुष्ट हैं । टिकट के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती । आज आप नई-पुरानी फिल्में घर बैठे देख सकते हैं ।" "फिल्म इंडस्ट्री में डूब जाने वालों की संख्या कम नहीं है । फिर भी धड़ाधड़ फिल्में बन रही हैं !" "सही । उनका पैसा वापस नहीं आता, फिर भी बन रही हैं ।" "यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास हुआ !" "लोगों का के्रज है, जुनून है इसलिए फिल्में बनती हैं । फिल्में पैसे से नहीं बनतीं, जुनून से बनती हैं ।" 

 "अब एक-दो निजी सवाल । आप फिल्म नहीं बनाते । आप एनीमेशन कला में ढेरों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। मझे याद है"एक चिड़िया,अनेक चिड़ियां" के बोल बच्चे वैसे ही गुनगुनाते हैं जैसे गुलजार के "चड्ढी पहन के फूल खिला है।" आपने इस क्षेत्र से भी हाथ खींच लिया है। आखिर,खाली तो बैठे नहीं रहते होंगे!"(द्रोणवीर कोहली का यह आलेख संडे नई दुनिया,18 सितम्बर,2011 में प्रकाशित हुआ है)।

Tuesday, September 13, 2011

अभिज्ञात के भोजपुरी गीत पर प्रतिभा सिंह का आइटम सांग

गायिका-प्रतिभा सिंह, भोजपुरी एलबम-मेहरारू ना पइब, गीत-केश बा हमरो, गीतकार-ड़ॉ.अभिज्ञात, कम्पनी-स्काई