१९७६ में मैंने एक फिल्म निर्माता-निर्देशक का इंटरव्यू लिया था जो उन दिनों करीब ४३-४४ बरस के थे । सौभाग्य की बात है कि इन्हीं दिनों मुझे एक बार फिर उसी व्यक्ति से बातचीत का अवसर मिला । उन दिनों इस शख्स ने पहली फिल्म बनाई थी - "घरौंदा", जिसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी - जरीना वहाब, अमोल पालेकर तथा डॉ. श्रीराम लागू ने । इस फिल्म ने रातो-रात इस निर्माता-निर्देशक को श्रेष्ठ फिल्म निर्माताओं की पंक्ति में ला खड़ा किया था । फिल्म निर्माता का नाम था - भीमसैन ।
"घरौंदा" ऐसी फिल्म थी जिसे आम दर्शक ने ही नहीं, बुद्धिजीवियों ने भी सराहा था । मुझे याद है, एक विशेष प्रदर्शन में धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती भी पधारे थे और उन्होंने "ऐसी जीवंत" फिल्म बनाने के लिए मेरे सामने ही भीमसैन की पीठ थपथपाई थी । इस फिल्म की सफलता के दो-तीन कारण मुख्य थे - एक गुलजार के लिखे - "तुम्हें हो न हो, मुझको तो इतना यकीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है" या "दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में" या "मैं हस्दयां यार गंवाया, हौक्यां विच लब्दी फिरां," जैसे गाने, दूसरे, भीमसैन का यौवनोचित उत्साह, तीसरे, मुंबई में उन दिनों सिर पर छत के लिए तरसते लोगों और बिल्डरों की नादिरशाही के प्रति जनसाधारण का रोष जो कि इस फिल्म का मुख्य विषय था ।
भीमसैन ने यूं दो और फिल्में बनाई थीं - "दूरियां", जिसमें उत्तम कुमार और शर्मीला टैगोर जैसे कलाकार थे और तीसरी फिल्म "तुम लौट आओ"।
"दूरियां" डॉक्टर शंकर शेष के नाटक पर और "तुम लौट आओ" मृदुला गर्ग की कहानी "मेरा" पर आधारित थीं । "दूरियां" कुछ खास सफल नहीं रही और "तुम लौट आओ" में नए कलाकारों - कविता चौधरी और निशांत को लेने के कारण वह लगभग फेल ही हो गई थी ।
"तुम लौट आओ" की शूटिंग दिल्ली में हुई थी और मैं रात-दिन इस यूनिट के साथ रहा था । कविता चौधरी हमारे गरीबखाने पर ही रहती थी, हालांकि फिल्म निर्माण का मेरा ज्ञान न के बराबर था लेकिन जिस दुलमुल तरीके से निशांत काम करता था, मुझे लगने लगा था कि यह शख्स फिल्म को ले डूबेगा । फिल्म तो डूबी ही, निशांत स्वयं डूब गया - सुना कि किसी मोटर वर्कशॉप में काम करने लंदन चला गया।
कविता चौधरी अच्छी अदाकारा थी ।
उसकी एक्टिंग देखकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के तत्कालीन निदेशक बज्जू भाई इतने प्रभावित हुए थे कि कविता के मुख को दोनों हाथों में लेकर उन्होंने कहा था - "हमारी मीना कुमारी !"
बहरहाल, "घरौंदा" १९७६ में, "दूरियां" १९७९ में और "तुम लौट आओ" १९८४ में बनी थी । आज इतने बरस बीत गए हैं, भीमसैन ने कोई फिल्म नहीं बनाई । यों कहें कि इस शख्स ने पूरी तरह से फिल्म निर्माण से हाथ खींच लिया । सो, मुझे उत्सुकता थी कि मैं उससे पूछूं कि किस कारण उन्होंने पलायन किया इसलिए पिछले दिनों मैंने उनसे टेलीफोन पर बात की । मैंने छूटते ही पूछा, "भीमसैन जी, यह क्या? इतनी अच्छी फिल्में देकर हाथ खींचकर बैठे हैं। ऐसी क्या बात हो गई ?
भीमसैन ने हंसते हुए कहा, (वैसे, आजकल वह बहुत कम हंसते हैं) "ऐसी कोई बात नहीं । असल में, आजकल फिल्म बनाना बहुत ज्यादा मुश्किल हो गया है । "घरौंदा" बनाने के लिए मैं चार लाख लेकर बैठा था । कुल खर्च आया था आठ लाख यानी दुगुना। कोई तकलीफ नहीं हुई । बाकी पैसा मार्केट से मिल गया था । "दूरियां" करीब दस लाख में बनाई थी - अपने पैसे से और मन माफिक । किसी की दखलंदाजी नहीं । मैं दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता । (मुझे याद है, "दूरियां" के सेट पर मैंने एक सुझाव दिया था । भीमसैन ने मुझे झिड़ककर बैठा दिया था ।) आजकल आप चार करोड़ या १० करोड़ में भी फिल्म नहीं बना सकते ?
असल में, उन दिनों फिल्में न्यारी होती थीं, लोग भी न्यारे थे। मैं एक नजर सारे वातावरण पर डालता हूं तो लगने लगता है, कैसे-कैसे लोग चले गए, कैसे-कैसे लोग आ गए हैं! कहां गए वे लोग जिन्होंने "मदर इंडिया" जैसी फिल्म बनाई थी ! उन्हें तो छोड़िए, गुलजार ने जैसी "हूतूतू" बनाई थी, क्या आज के थैलीशाह वैसी फिल्म बनाने की जोखिम ले सकते हैं? मुझे लगता है, गुलजार साहब ने भी फिल्म-निर्माण से संन्यास ले लिया है ।"
मैंने कहा, "फिल्मों में लोग पैसा बनाने आते हैं, बहाने नहीं ।"
"आप ठीक कहते हैं । पैसा कमाना बुरी बात है यह कौन कहता है लेकिन लालच बढ़ गया है । एक्टर-एक्ट्रेसेज करोड़ों की फरमाइश करते हैं ।"
"तभी मांगते हैं, जब जानते हैं कि फिल्म उनके नाम से चलती है ।
"
वह बोले, "आज की फिल्मों में आइटम नंबर डालना बहुत जरूरी समझा जाता है । दर्शक लटकों-झटकों वाली भौंडी आइटम खूब पसंद करते हैं । यह देखिए कि ढाई-तीन करोड़ में फकत एक आइटम बनती है । फिर फिल्म को कामयाब बनाने के लिए मसाले डालने पड़ते हैं । मेरे पास इतना पैसा होता तो मैं फिल्म बनाता लेकिन उसमें इस प्रकार के किसी मसाले की छौंक न लगाता ।"
"आजकल कोई ऐसी फिल्म नहीं आ रही, जिसे देखने के लिए हम जैसे लोगों में उत्सुकता हो ? क्या कारण है ?" मैंने पूछा ।
"यहां मैं एक बात कहूं । टीवी ने फिल्म इंडस्ट्री की शक्ल ही बदलकर रख दी है । पहले जो लोग उससे परहेज करते थे, वही लोग उधर भाग रहे हैं । जैसा ग्लैमर टीवी सीरियल्स में है, वैसा पहले नहीं था। अब दर्शक अधिक संख्या में टीवी से ही संतुष्ट हैं । टिकट के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती । आज आप नई-पुरानी फिल्में घर बैठे देख सकते हैं ।"
"फिल्म इंडस्ट्री में डूब जाने वालों की संख्या कम नहीं है । फिर भी धड़ाधड़ फिल्में बन रही हैं !"
"सही । उनका पैसा वापस नहीं आता, फिर भी बन रही हैं ।"
"यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास हुआ !"
"लोगों का के्रज है, जुनून है इसलिए फिल्में बनती हैं । फिल्में पैसे से नहीं बनतीं, जुनून से बनती हैं ।"
"अब एक-दो निजी सवाल । आप फिल्म नहीं बनाते । आप एनीमेशन कला में ढेरों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। मझे याद है"एक चिड़िया,अनेक चिड़ियां" के बोल बच्चे वैसे ही गुनगुनाते हैं जैसे गुलजार के "चड्ढी पहन के फूल खिला है।" आपने इस क्षेत्र से भी हाथ खींच लिया है। आखिर,खाली तो बैठे नहीं रहते होंगे!"(द्रोणवीर कोहली का यह आलेख संडे नई दुनिया,18 सितम्बर,2011 में प्रकाशित हुआ है)।
लगता है मेरी तरह आपको भी फिल्मों से प्यार है सच ही कहा आपने फिल्में पैसों से नहीं जुनून से बनती है। एक ऐसा जुनून जो एक साधारण से साधारण व्यक्ति को भी अपनी और अपने सच के माध्यम से साधारण तरीके से और बढ़िया प्रस्तुति कारण के माध्यम से खींच सके वही एक अच्छी फिल्म होती है। क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है की फ़िल्में बहुत कुछ सिखाती है,और यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन फ़िल्मों का कौन सा भाग ग्रहण करते है।
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