बॉलीवुड फिल्मों में प्रयोगों के चलते खलनायक खत्म होते जा रहे हैं। नो वन किल्ड जेसिका, यमला पगला दीवाना, धोबी घाट, सात खून माफ, तनु वेड्स मनु, चलो दिल्ली, रागिनी एमएमएस से लेकर डेल्ही बेली और जिंदगी ना मिलेगी दोबारा.. तक ये इस साल की ऐसी चर्चित फिल्में हैं जिनमें खलनायक की जरूरत महसूस ही नहीं होती। जबकि ये फिल्में अपनी कहानी अथवा मेकिंग में किसी न प्रयोग के लिए चर्चा में रही हैं। खलनायक की छवि वाले चेहरे पहले ही गुम हो चुके हैं। हालांकि अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान, अक्षय कुमार, रितिक रोशन, सलमान खान, विवेक ओबराय, संजय दत्त, सैफ अली खान, जॉन अब्राहम जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने नकारात्मक भूमिकाओं को निभाने से गुरेज नहीं किया। इसके बावजूद अब ऐसी भूमिकाओं की जरूरत नहीं दिख रही। एक वक्त था जब पटकथा लेखक खास तौर पर विलेन का किरदार लिखते थे। मगर समय के साथ बॉलीवुड की फिल्मों में किरदारों की भूमिका में भी काफी बदलाव आया है। पिछले कुछ वर्षो में थ्री इडियट्स का रैंचो हो या दबंग का चुलबुल पांडे और माइ नेम इज खान का रिजवान खान, असल जिंदगी की हकीकत के ये इतने नजदीक हैं दर्शक को कहानी में अलग से किसी नायक या खलनायक की जरूरत महसूस नहीं होती। जबकि इनसे पहले नायकों को दर्शक खल भूमिकाओं में स्वीकार चुके हैं। धूम 2 में चोर की भूमिका निभाने वाले रितिक दर्शकों का दिल चुराने में कामयाब थे। डर, अंजाम और डॉन में शाहरुख और खाकी, काल, दीवानगी में अजय देवगन खलनायक के किरदारों को निभाने से गुरेज नहीं किया। ओंकारा में लगड़ा त्यागी का किरदार निभाकर सैफ ने खूब वाह-वाह लूटी थी। हीरोइनें भी नकारात्मक भूमिका में वाहवाही लूट चुकी हैं। खाकी में ऐश्र्वर्या राय, गुप्त में काजोल, गॉड मदर में शबाना आजमी, एतराज में प्रियंका चोपड़ा और फिदा में करीना कपूर ने भी इस किरदार में अपने जलवे दिखाए। बैड मैन के नाम से मशहूर गुलशन ग्रोवर कहते हैं फिल्मों से विलेन तो अब गायब ही हो गए हैं। चुनिंदा फिल्मों में ही विलेन के लिए कुछ गुंजाइश बची है। हालिया रिलीज डेल्ही बेली, मर्डर-2 भी प्रयोगात्मक फिल्म हैं। इसमें भी खलनायक की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। वैसे रोचक तथ्य यह है कि आमिर धूम 3 वहीं विवेक ओबराय कृष 2 में नकारात्मक भूमिका में नजर आएंगे। वहीं बीते जमाने के खलनायक कादर खान, गुलशन ग्रोवर और शक्ति कपूर कॉमेडी में हाथ आजमा रहे हैं। जब वी मैट के निर्देशक इम्तियाज अली स्वीकार करते हैं कि खलनायक अब गायब होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे सिनेमा वास्तविक के करीब होता जाएगा इन किरदारों में निश्चित रूप से परिवर्तन आएगा(दैनिक जागरण,दिल्ली,17.7.11)।
इस ब्लॉग पर केवल ऐसी ख़बरें लेने की कोशिश है जिनकी चर्चा कम हुई है। यह बहुभाषी मंच एक कोशिश है भोजपुरी और मैथिली फ़िल्मों से जुड़ी ख़बरों को भी एक साथ पेश करने की। आप यहां क्रॉसवर्ड भी खेल सकते हैं।
Sunday, July 17, 2011
Friday, July 8, 2011
नए सिनेमा के मणि
अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं तो अपने आप में स्वतंत्र और काफी समृद्ध भी पर इनके आपस के सरोकार और संबंध इस कारण पूरी तरह अलगाए या खारिज नहीं किए जा सकते। इस लिहाज से माना यही जाता है कि ये माध्यम स्वतंत्र जरूर हैं पर स्वायत्त या पूरी तरह मुक्त नहीं। तभी तो रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक को सेल्यूलाइड तक ले जाने वाले सत्यजीत रे आजीवन यह मानते और समझाते रहे कि वह किसी भी कृति पर फिल्म बनाने की शुरुआत नए सिरे से करते हैं। उनका तकाजा विधा बदलने के साथ कृति के आस्वाद को बदल जाने की जरूरत को खारिज नहीं करता जबकि मणि कौल जैसे फिल्मकार इस तकाजे को दरकिनार कर न सिर्फ कृति को केंद्र में लाये बल्कि साहित्यक रचनाओं के फिल्मांकन का नया व्याकरण भी रचा। कौल अब हमारे बीच नहीं हैं पर 66 वर्ष का उनका जीवन और उस दौरान की उनकी उपलब्धियां हमारे बीच हैं। गाली-गलौज, आइटम नंबर और बोल्डनेस की नई कायिक और भाषिक समझ के बीच जिस भारतीय सिने जगत का कद आज ग्लोबली तय हो रहा है, उसमें मणि कौल के फिल्म बनाने के तरीके और उससे जुड़े सरोकार जलती मशाल की तरह हैं जिससे अंधकार और भटकाव के दौरान हम रोशनी पा सकते हैं। दिलचस्प है कि कौल का फिल्मी सफर निर्देशन के बजाय राजेंद्र यादव की कहानी ‘सारा आकाश’ में अभिनय से शुरू हुआ था। यह आगाज ही साहित्य से उनको आगे और गहरे जोड़ते चला गया। ‘घासीराम कोतवाल’, ‘आषाढ़ का एक दिन, ‘दुविधा’ जैसे इंडियन क्लासिक्स से लेकर दोस्तोवस्की की ‘इडियट’ जैसी महान रचना का फिल्मांकन भी उन्होंने किया। कौल की यह खासियत तो रही ही कि वह साहित्यिक कृतियों की मूलात्मा को फिल्म में भी बहाल रखना चाहते थे, उन्होंने प्रचलित और लोकप्रिय कथारूपों के बजाय विभिन्न शैलियों की रचनाओं पर काम करने का जोखिम भी उठाया। जिस मुक्तिबोध पर बोलते और लिखते हुए आज भी हिंदी साहित्य के दिग्गजों तक के पसीने छूटते हैं, कौल ने उनकी ‘सतह से उठता हुआ आदमी’ को परदे पर उतारने का चैलेंज न सिर्फ लिया बल्कि उसे बखूबी पूरा भी किया। कौल के काम करने के ढंग और उनके सरोकारों के जानकार नए भारतीय सिनेमा के इस बड़े हस्ताक्षर को उनके सौंदर्यबोध के लिए भी याद करते हैं। यह अलग बात है कि यह सौंदर्यबोध सनसनी उभारने के बजाय संवेदना के आत्मिक स्पर्श का धैर्य लिये थे। यही कारण है कि कौल के कई आलोचक यह भी कहते रहे हैं कि उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें कभी सौ फीसद फिल्मकार बनने ही नहीं दिया। क्योंकि कैमरे में क्या बेहतर और कितना समा सकता है, इसके उसूलों की उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अलबत्ता यह भी है कि लैंस की नजरों पर भरोसा करने वाले उसे पीछे से देख रही मानवीय आंखों के चढ़ते-उतरते पानी को अगर खारिज कर सकते हैं तो उन्हें कौल जैसे फिल्मकार को ज्यादा समझने का खतरा भी नहीं लेना चाहिए। दरअसल, कौल इन्हीं आंखों को नम और चमक से भर देने वाले फिल्मकार थे(राष्ट्रीय सहारा,8.7.11)।
Monday, July 4, 2011
सेंसर बोर्ड को सुनाई नहीं देते अश्लील गाने
हाल ही में आमिर खान की फिल्म "डेल्ही बेली" के गाने "डी के बोस भाग रहा है" के बोल भद्दे और अश्लील होने के बावजूद बेहद चर्चित हो रहे हैं। डेल्ही बेली का यह गाना पिछले एक महीने से भाग रहा है और अब इतना भाग चुका है कि उसकी रफ्तार को अब यदि थाम भी लिया जाए तो कुछ होने वाला नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो गाली के बोल जैसी प्रतिध्वनि वाले डीके बोस गीत पर अब हो-हल्ला मचाने का कोई औचित्य नहीं रह गया है क्योंकि यह गाना न केवल टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो के जरिए जबर्दस्त हिट हो चुका है बल्कि इसकी अच्छी- खासी चर्चा मीडिया में भी हो रही है। वैसे देर-सवेर जागे सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड को इस गीत को पास करने की बाबत जवाब तलब किया है।
सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड से पूछा है कि आखिर कैसे इस गाने को पास कर दिया गया जबकि इस गाने में साफ तौर पर गालियों की भरमार है। बेशक, किसी को ये गालियां भले ही न पसंद आई हों पर आमिर खान को खूब पसंद आई हैं। तभी तो आमिर इस गाने को और लोकप्रिय बनाने के लिए एक पार्टी का आयोजन करने जा रहे हैं। सवाल उठता है कि आमिर खान इस भोंडे गाने को जनता के सामने पेश कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं। "डेल्ही बेली" में अब इस गीत के बोल कुछ बदल भी दिए जाएं तब भी कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि इस गाने की बदौलत फिल्म को जितनी पब्लिसिटी मिलनी थी, वह मिल चुकी है। सूचना मंत्रालय भी हमेशा की तरह तब लाठी चलाता है जब सांप बिल में घुस चुका होता है।
हैरानी की बात तो यह है कि इस तरह के अश्लील गाने का यह अकेला मामला नहीं है, इससे पहले भी कई गाने बाजार में आ चुके हैं जिन्हें सेंसर बोर्ड बड़ी आसानी से पास कर चुका है। इसके बावजूद सूचना मंत्रालय तमाशबीन बनकर देखता रहा है। तीसमार खां के गाने को लेकर भी काफी विवाद हुआ था। शीला की जवानी गाना फिल्म के आने से पहले ही काफी हिट हो चुका था, जिसके चलते देश में शीला नाम की युवतियों को शर्मिंदा होना पड़ा था। शर्मिंदा होने का कारण था नाम को गलत तरीके से पेश करना। शीला नाम की युवतियों पर युवकों ने गाने के बहाने फब्तियां कसनी शुरू कर दी थीं।
वहीं फिल्म "दबंग" का गाना "मुन्नी बदनाम हुई" भी विवादों के साए में चर्चित हो गया। हमारे देश के अलावा पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी मुन्नी नाम की कई महिलाओं ने एतराज जताया। पाकिस्तान की मुन्नी नाम की एक महिला, जो अपने घर में दुकान चलाती थी, को गाने के हिट होने के बाद कई दिनों तक अपनी दुकान बंद करनी पड़ी। फिल्मों में छोटे-छोटे दृश्यों को लेकर हल्ला मचाने वाले सेंसर बोर्ड को इन गानों की भद्दी गाली कैसे सुनाई नहीं दी। वैसे भी सेंसर बोर्ड पिछले कुछ सालों से उदार बना हुआ है(धनीश शर्मा,नई दुनिया,4.7.11)।
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