अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं तो अपने आप में स्वतंत्र और काफी समृद्ध भी पर इनके आपस के सरोकार और संबंध इस कारण पूरी तरह अलगाए या खारिज नहीं किए जा सकते। इस लिहाज से माना यही जाता है कि ये माध्यम स्वतंत्र जरूर हैं पर स्वायत्त या पूरी तरह मुक्त नहीं। तभी तो रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक को सेल्यूलाइड तक ले जाने वाले सत्यजीत रे आजीवन यह मानते और समझाते रहे कि वह किसी भी कृति पर फिल्म बनाने की शुरुआत नए सिरे से करते हैं। उनका तकाजा विधा बदलने के साथ कृति के आस्वाद को बदल जाने की जरूरत को खारिज नहीं करता जबकि मणि कौल जैसे फिल्मकार इस तकाजे को दरकिनार कर न सिर्फ कृति को केंद्र में लाये बल्कि साहित्यक रचनाओं के फिल्मांकन का नया व्याकरण भी रचा। कौल अब हमारे बीच नहीं हैं पर 66 वर्ष का उनका जीवन और उस दौरान की उनकी उपलब्धियां हमारे बीच हैं। गाली-गलौज, आइटम नंबर और बोल्डनेस की नई कायिक और भाषिक समझ के बीच जिस भारतीय सिने जगत का कद आज ग्लोबली तय हो रहा है, उसमें मणि कौल के फिल्म बनाने के तरीके और उससे जुड़े सरोकार जलती मशाल की तरह हैं जिससे अंधकार और भटकाव के दौरान हम रोशनी पा सकते हैं। दिलचस्प है कि कौल का फिल्मी सफर निर्देशन के बजाय राजेंद्र यादव की कहानी ‘सारा आकाश’ में अभिनय से शुरू हुआ था। यह आगाज ही साहित्य से उनको आगे और गहरे जोड़ते चला गया। ‘घासीराम कोतवाल’, ‘आषाढ़ का एक दिन, ‘दुविधा’ जैसे इंडियन क्लासिक्स से लेकर दोस्तोवस्की की ‘इडियट’ जैसी महान रचना का फिल्मांकन भी उन्होंने किया। कौल की यह खासियत तो रही ही कि वह साहित्यिक कृतियों की मूलात्मा को फिल्म में भी बहाल रखना चाहते थे, उन्होंने प्रचलित और लोकप्रिय कथारूपों के बजाय विभिन्न शैलियों की रचनाओं पर काम करने का जोखिम भी उठाया। जिस मुक्तिबोध पर बोलते और लिखते हुए आज भी हिंदी साहित्य के दिग्गजों तक के पसीने छूटते हैं, कौल ने उनकी ‘सतह से उठता हुआ आदमी’ को परदे पर उतारने का चैलेंज न सिर्फ लिया बल्कि उसे बखूबी पूरा भी किया। कौल के काम करने के ढंग और उनके सरोकारों के जानकार नए भारतीय सिनेमा के इस बड़े हस्ताक्षर को उनके सौंदर्यबोध के लिए भी याद करते हैं। यह अलग बात है कि यह सौंदर्यबोध सनसनी उभारने के बजाय संवेदना के आत्मिक स्पर्श का धैर्य लिये थे। यही कारण है कि कौल के कई आलोचक यह भी कहते रहे हैं कि उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें कभी सौ फीसद फिल्मकार बनने ही नहीं दिया। क्योंकि कैमरे में क्या बेहतर और कितना समा सकता है, इसके उसूलों की उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अलबत्ता यह भी है कि लैंस की नजरों पर भरोसा करने वाले उसे पीछे से देख रही मानवीय आंखों के चढ़ते-उतरते पानी को अगर खारिज कर सकते हैं तो उन्हें कौल जैसे फिल्मकार को ज्यादा समझने का खतरा भी नहीं लेना चाहिए। दरअसल, कौल इन्हीं आंखों को नम और चमक से भर देने वाले फिल्मकार थे(राष्ट्रीय सहारा,8.7.11)।
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