इधर एआर रहमान, प्रीतम, विशाल शेखर, सलीम-सुलेमान, हिमेश रेशमिया साजिद-वाजिद, शंकर-एहशान-लॉय आदि के इस दौर में राम लक्ष्मण, आनंद-मिलिंद, रवींद्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, उत्तम सिंह, दिलीप सेन समीर सेन, उषा खन्ना, कुलदीप सिंह, इस्माइल दरबार, जतिन-ललित आदि कई संगीतकारों की याद अकसर शिद्दत से आती है क्योंकि इनमें से ज्यादातर संगीतकार एकदम शांत नहीं बैठे हैं। आनंद-मिलिंद से लेकर बुजुर्ग संगीतकार कुलदीप सिंह तक बराबर सक्रिय हैं। इसे जरा भी तुलनात्मक न लें। इधर जिस तरह से चालू संगीत का बोलबाला है, फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर को यदि न भी याद करे तो भी इसके बाद के दौर के इन संगीतकारों को याद करना लाजिमी हैं। इनका नाम कई हिट फिल्मों के संगीत के साथ जुड़ा हुआ है। प्रसिद्ध संगीत समीक्षक हरीश तिवारी कहते हैं, ‘चूंकि इनका संगीत कर्णप्रियता के स्वर्णिम दौर की याद ताजा कर देता है, इसलिए भी संगीत रसिकों की उपेक्षा बहुत परेशान कर देती है।
मुझ जैसे संगीत-प्रेमी अकसर फिल्म निर्माताओं के सामने सिर्फ एक सवाल रखते है कि सुरीलेपन के इस घोर संकटकाल में क्या इन गुणी संगीतकारों को एक बार भी इन्हें मौका देने का ख्याल नहीं आता है। रवींद्र जैन, उत्तम सिंह, उषा खन्ना जैसे गुणी लोग तो अब भी बहुत कमाल कर सकते हैं। ये लगातार अच्छा काम भी कर रहे हैं पर न के बराबर सामने आ पा रहा है।’ इसे और अच्छी तरह से समझने के लिए हमें ‘97 की ‘दिल तो पागल है’, 2001 की ‘गदर’, 2006 की विवाह के संगीत की थोड़ी चर्चा करनी पड़ेगी। पहली दो फिल्मों के संगीतकार उत्तम सिंह की श्रेष्ठता के बारे में नये सिरे से कोई चर्चा अनर्गल है। दु:ख की बात तो यह है कि यशराज जैसे बड़े बैनर ने भी उन्हें फिर मौका देने की जेहमत नहीं की। विवाह के संगीतकार रवींद्र जैन का दुखी स्वर होता है, ‘किसी तरह का आक्षेप लगाना हम कलाकारों का काम नहीं है। हम तो फिल्म संगीत में सिर्फ बेहतर काम करना चाहते है।’
सिर्फ विवाह ही नहीं, ढेरों हिट फिल्मों के संगीत में रवींद्र जैन की कर्णप्रियता ने आज भी श्रोताओं को मुग्ध कर रखा है। साठ के ऊपर के हो चुके रवींद्र जैन को उनके करीबी दद्दो कह कर संबोधित करते हैं। राजकपूर से लेकर ताराचंद बडज़ात्या तक सभी उनके सुरीलेपन के मुरीद थे, मगर आज के फिल्मकारों को उनका ख्याल नहीं काम के लिए वे युवा संगीतकारों की तरह किसी निर्माता की लल्लो-चप्पो करें, यह बहुत अपमानजनक लगता है। कुछ इसी वजह से उषा खन्ना भी वर्षों से कहीं गुम हैं। महान गायक मोहम्मद रफी पर एक किताब लिख चुके धीरेंद जैन बताते हैं, ‘सिर्फ दिल देके देखों, हवस, साजन बिना सुहागन ही नहीं उषा जी ने कई फिल्मों में बेहद धुनें पेश की हैं। मगर इस शोर-शराबे के संगीत के बीच में वह कहीं गुम हो गयीं।’
संगीतकार आनंद-मिलिंद इन दिनों भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए मजबूर हैं। आनंद कहते हैं, ‘हम फिल्मकारों की इस बेरूखी का मतलब जरा भी समझ नहीं पाये हैं। शायद हमारा यह अवगुण हो कि हम किसी गुटबाजी में शामिल नहीं। वरना किसी बड़े बैनर में हमारी भी कद्र्र होती। पर कोई यह समझ नहीं पा रहा है कि इस तरह की बातें हमारे संगीत को कितना नुकसान पहुंचा चुकी हैं।’ एन. चंद्र्रा की एक फिल्म अंकुश के एक प्रार्थना गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो, का उदाहरण देना ही काफी होगा। यह प्रार्थना गीत देश के कई प्रदेशों में जमकर बजता है, फिर भी उनके पास काम का अभाव है। कुलदीप सिंह की बात जाने दें, किसी समय के चर्चित संगीतकार बप्पी लाहिड़ी आज सिर्फ पेज थ्री की पार्टी की शोभा बने रहते हैं। जबकि संगीत प्रेमी कई ऐसी फिल्मों का नाम गिना सकते हैं जिनमें खय्याम कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हमारे दौर में ऐसी राजनीति नहीं होती थी। आज के संगीतकार अच्छा काम करने की बजाय ज्यादा-से-ज्यादा काम हथियाने की कोशिश करते है। अच्छे सृजन के लिए इनसे बचना बहुत जरूरी है। मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूं मेलोडी के जानकार ज्यादा से ज्यादा आयें(गोपा चक्रवर्ती,दैनिक ट्रिब्यून,11.12.11)।’