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Monday, January 31, 2011

जेएनयू में दो दिवसीय यूथ फिल्म फेस्टिवल कल से

फिल्म निर्माण, उसकी कहानी व तकनीकी पहलुओं से जुड़ी बारीकियों से युवाओं को रू-ब-रू कराने के लिए जेएनयू में एक बार फिर से यूथ फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होने जा रहा है।

एक फरवरी से शुरू होने वाले इस दो दिवसीय इंटरनेशनल यूथ फिल्म फेस्टिवल को जेएनयू के फैकल्टी क्लब और फॉक, आर्ट, कल्चरल एंड एजुकेशनल सोसाएटी (फेसेज) मिलकर आयोजित कर रहे है, जिसमें दो दर्जन से ज्यादा शॉर्ट व डॉक्युमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा।

आयोजन से जुडे डॉ. डीके लोबियाल ने बताया कि द्वितीय इंडिया इंटरनेशनल यूथ फिल्म फेस्टिवल (आईआईवाईएफएफ) के जरिये युवाओं को फिल्म निर्माण की बारीकियों से रूबरू कराया जाएगा।


उन्होंने बताया कि इस आयोजन के दौरान न सिर्फ जेएनयू समुदाय बल्कि बाहरी लोगों को भी इस फेस्टिवल में शामिल होने का अवसर दिया जा रहा है। फेस्टिवल का शुभारंभ एक फरवरी को जेएनयू के एसएसएस-1 ऑडिटोरियम में किया जाएगा।

फेस्टिवल डायरेक्टर मुस्तजाक मलिक ने बताया कि इस मौके पर करीब दो दर्जन फिल्मों की स्क्रीनिंग की जाएगी। इनमें माइंड, अफगान गल्र्स कैन किक, व्हीजलिंग अंडर वॉटर, ब्लैकवुड, डिवाइन, डबल डेट, बैक टू रूट्स, द वॉच क्लीनिक, देवदासी, कल, डिप्लोमा, विदा आदि फिल्में शामिल होंगी।

इन फिल्मों का प्रदर्शन दोपहर तीन बजे से शाम सात बजे तक किया जाएगा। जहां पहले दिन फेस्टिवल में फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा, वहीं दूसरे दिन जेएनयू कैंपस के स्कूल ऑफ आर्ट एंड एस्थेटिक्स ऑडिटोरियम में शॉर्ट फिल्मों और डॉक्युमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा(दैनिक भास्कर,दिल्ली,31.1.11)।

Sunday, January 30, 2011

बॉलीवुडःपरम्परा उगते सूर्य को नमस्कार करने की

पाठकों की स्मृति को टटोलने जा रहा हूं। ललिता पवार के निधन के कितने दिन बाद लोगों को उनके बारे में पता चला था? पूरे तीन दिन बाद। अभिनेत्री परवीन बाबी के देहांत के कितने दिन बाद लोग इस सच्चाई को जान पाए थे? तीन दिन बाद। अब जब बीते दिनों की अभिनेत्री नलिनी जयवंत का निधन हुआ, तो उनके पड़ोसियों को कितने दिन बाद इस बारे में पता चला है? तीन दिन बाद। फिल्म इंडस्ट्री में शोकाहत करने वाली किसी सूचना को फैलने में कम से कम तीन दिन लगते हैं। विगत दिनों के किसी स्टार की मृत्यु के बारे में तो यह सोलह आने सच है। जब आप चमकते स्टार होते हैं, तो आपके हर कदम का नोटिस लिया जाता है, आपके द्वारा उच्चारित हर शब्द को ब्रेकिंग न्यूज बनाया जाता है। इस तरह आपके निजी जीवन में गोपनीयता की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। लेकिन एक बार लोकप्रियता की चोटी से गिरने के बाद विस्मृति के गटर में आपका समा जाना तय है। भारतीय फिल्मोद्योग चमकते हुए सूरज की ही पूजा करता है। हालांकि यह भी एक खर्चीला धंधा है और इन फिल्म कलाकारों को प्रशंसकों के बीच अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। अतीत के महान कलाकारों को भुला दिए जाने की सूची बहुत लंबी है। ऐसे कलाकार दशकों तक विस्मृत रहते हैं, जब तक कि उनके निधन की सूचना न आ जाए। फिर उनके मृत्यु की वजह का पता लगाया जाता है और उसके बाद उन पर एक दोस्ताना श्रद्धांजलि लिख दी जाती है, ललिता पवार, परवीन बाबी और नलिनी जयवंत के मामले ऐसे ही हैं। निरूपा राय या अजित के निधन पर ऐसी बेरुखी देखने को नहीं मिली थी। इसकी वजह यह है कि उनके बारे में बताने के लिए उनके बेटी-बेटे मौजूद थे। ऐसा ही दुर्भाग्य भारतभूषण का था। बीते दिनों का इतना चर्चित कलाकार एक साधारण आदमी की मौत मरा। इस पर प्रसिद्ध संगीतकार ओ पी नैयर इतने दुखी हुए कि उन्होंने अपने शुभचिंतकों को आगाह कर दिया था कि उनकी मौत के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए। वह नहीं चाहते थे कि उनके न रहने पर कोई उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े। लिहाजा उनकी मृत्यु के लगभग एक महीने बाद जब यह सूचना सार्वजनिक हुई, तो उनके संगीत के प्रशंसकों ने श्रद्धांजलि देते हुए हिंदी फिल्म संगीत में उनके योगदान को भावुकता के साथ याद किया। कलाकारों की दुनिया में यह सब काफी त्रासद है। इस दुनिया में सबसे योग्य ही टिक सकता है, सबसे महान नहीं। क्या आपने हाल के दिनों में कभी चंद्रमोहन, अशोक कुमार या नरगिस को याद किया? फिल्म इतिहास के बारे में हमारी स्मृति काफी कमजोर है। खुद फिल्म इंडस्ट्री के पास भी इसका इतिहास लिखने या यादगार दृश्यों को सहेजने की कोई योजना नहीं है। कई बार कलाकार खुद एकांतवासी होना पसंद करते हैं और जनता के सामने नहीं आना चाहते। बीते दिनों की गायिका-अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित को मैं आज इसी सूची में रखता हूं। ऐसी ही एक और एकांतवासी अभिनेत्री कोलकाता में सुचित्रा सेन हैं। खासकर पुराने दिनों की अभिनेत्रियां लोगों से बचना चाहती हैं। दरअसल अपार्टमेंट संस्कृति में सब लोग अपने में ही जीते हैं। ऐसे में यह कानून बनना चाहिए कि हर आदमी सप्ताह में कम से कम एक बार अपने पड़ोसियों से जरूर मिले, ताकि उनके बारे में नियमित तौर पर जानकारियां मिलती रहें। नलिनी जयवंत पर श्रद्धांजलियों का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बताता है कि उनका गौरवशाली फिल्म कैरियर वाकई इतना पीछे छूट गया था कि लोग जीते-जी उन्हें भूल चुके थे!(महेश भट्ट,दैनिक जागरण,भोपाल,30.1.11)

Thursday, January 27, 2011

हीरोईनें और सेक्स रैकेट

दक्षिण भारतीय हिरोइन यमुना आजकल कई गलत वजह से चर्चा में है। सेक्‍स रैकेट चलाने के आरोप में यमुना की रंगे हाथ गिरफ्तारी के बाद बेंगलुरू पुलिस की नजर अब केरल पर है। पुलिस अधिकारियों को इस बात की पुख्‍ता जानकारी मिली है कि बेंगलुरू के पांच सितारा होटल से पकड़े गए आरोपियों का नेटवर्क पूरे देश में है। ऐसे में पुलिस अपनी जांच का दायरा केरल तक बढ़ाने की तैयारी कर रही है ताकि दक्षिण भारत के कई राज्‍यों में चल रहे सेक्‍स रैकेट का भंडाफोड़ किया जा सके।

ऐसी आशंका जताई जा रही है कि इस सेक्स रैकट का जाल पूरे देश में फैला हुआ है। सूत्रों के मुताबिक इंटरनेट पर लेनदेन की गई है। इसी के जरिए पुलिस केरल सहित कई जगहों पर नजर रखी हुई है। पुलिस इस बात की जांच में जुटी हुई है कि कहीं लेनदेन करने वाले सेक्स रैकेट के सदस्य ही तो नहीं हैं।

बेंगलुरू पुलिस दक्षिण भारत की फिल्‍म और मॉडलिंग इंडस्‍ट्री से जुड़े कई लोगों पर नजर रखे हुए है। बेंगलुरू के ज्‍वाइंट पुलिस कमिश्‍नर (क्राइम) आलोक कुमार ने बताया कि पुलिस ने सेक्‍स रैकेट के इस देशव्‍यापी जाल को तोड़ने के लिए ऑपरेशन शुरू कर दिया है।

यमुना पिछले हफ्ते गिरफ्तार तो हो गई थी लेकिन जल्‍द ही जमानत पर रिहा भी हो गई थी। हालांकि वह इस घटना के बाद से दिखी नहीं है। पिछले हफ्ते शहर के मशहूर होटल से यमुना के साथ एक उसके एजेंट सुरक्षित सुमन और एक आईटी कंपनी के सीईओ वेणुगोपाल को बेंगलुरु पुलिस ने गिरफ्तार किया था। पुलिस का कहना है कि शहर के तमाम बड़े होटलों में बड़ी-बड़ी पार्टियों के बहाने सेक्स रैकेट चलता था।

दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग यह जानकर हैरान है कि इतनी स्वच्छ छवि को बरकरार रखते हुए वह सेक्स रैकेट जैसे गंदे धंधे में शामिल थी। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि इस तरह कई अभिनेत्रियां है जो यमुना के जैसी जिन्दगी जी रही हैं। बेंगलुरू पुलिस के पास उन सबकी जानकारी है लेकिन पुलिस उन सबको रंगे हाथों गिरफ्तार करना चाहती है।

बॉलीवुड हो या टॉलीवुड, इसके दामन पर सेक्‍स रैकेट के दाग तो लग ही गए हैं। आए दिन ऐसे सेक्‍स रैकेट के खुलासे किस ओर इशारा कर रहे हैं? समाज का यह कैसा चेहरा हमारे सामने आ रहा है? क्‍या यह मौजूदा समाज के चकाचौंध का नतीजा है?(दैनिक भास्कर,दिल्ली,27.1.11)

Monday, January 24, 2011

स्टारडम से कंगाली तक

' भारी भूल की मैंने कि अपने हालात की जानकारी दुनिया को पहले नहीं दी', कहते-कहते भावुक हो उठते हैं फिल्म अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल, जिनके अस्वस्थ होने की खबर मीडिया में आते ही फिल्मी और गैर फिल्मी हर इलाके से आर्थिक मदद उनके घर पहुंचने लगी। अमिताभ बच्चन ने 5 लाख का चेक भेजा, तो प्रियंका चोपड़ा और करन जौहर ने एक-एक लाख का। एसोसिएशन ऑफ मोशन पिक्चर ऐंड टीवी प्रोग्राम प्रड्यूसर्स के वेलफेयर ट्रस्ट ने भी एक लाख और अरबाज खान तथा मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने 50-50 हजार रु. का चेक भेजा।

दो-तीन दिन में ही देखते-देखते लाखों की रकम जमा हो गई है और अब अस्पताल या दवाइयों का बिल अदा करने की मुसीबत उनके पुत्र विजय हंगल को कतई नहीं सताएगी। जिस कलाकार ने इप्टा के नाटकों तथा 'गर्म हवा', 'गुड्डी', 'तीसरी कसम', 'बावर्ची', 'अभिमान', 'शौकीन' और 'शोले' जैसी लगभग 200 फिल्मों के जरिए कला की सेवा की हो और जिसे महाराष्ट्र सरकार की अनुशंसा पर 'पद्मभूषण' सम्मान से अलंकृत किया गया हो, वह 93 वर्ष की ढलती उम्र में अगर सेहत के कारण बेरोजगार हो और अपने अस्तित्व के लिए आर्थिक संकट से जूझ रहा हो, तो यह निश्चय ही समाज के लिए सोचने की बात है। हंगल साहब ने पिछली मुलाकात के दौरान इन पंक्तियों के लेखक से पूछा था, 'क्या करूं मैं यह पद्मभूषण लेकर, अगर सरकार हम जैसे बुजुर्ग कलाकारों की देखभाल नहीं कर सकती?' वह पहले भी कई बार यह सुझाव सरकार के सामने रख चुके हैं कि भारत में भी रूस तथा अन्य देशों की तर्ज पर बुजुर्ग और बीमार कलाकारों के लिए आवास बनाए जाएं, जहां तमाम सुख- सुविधाओं की व्यवस्था हो। क्या अब उनके सुझाव पर विचार होगा?


अगर ए.के.हंगल ने मीडिया के जरिए वक्त पर फिल्म इंडस्ट्री को एसओएस नहीं भेजा होता तो आर्थिक अभाव के कारण उनकी सेहत सांताक्रुझ के उनके अंधेरे-बंद कमरे में गिरती चली जाती और जब तक दुनिया को उनके सच का पता चलता, शायद देर हो चुकी होती। वैसी ही देर, जो भगवान दादा, भारत भूषण, ई. बिलिमोरिया, सुलोचना रूबी मायर्स और मोतीलाल जैसे अपने जमाने के बड़े स्टार्स को अपनी चुप्पी के कारण झेलनी पड़ी।

भगवान दादा ने 'अलबेला' सहित कई सुपर हिट फिल्में बनाईं और गीता बाली के साथ 'भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे' गाने पर जिस तरह ठुमके लगाए, उसने युवाओं का दिल जीत लिया। उनकी इसी डांसिंग स्टाइल को बाद में अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों में अपनाया। मगर किस्मत का खेल देखिए कि स्टारडम मिलने पर जिस भगवान दादा को भगवान ने चेंबूर में बंगला, स्टूडियो और कीमती कारें दीं, उनका सारा वैभव एक ही झटके में अचानक छीन भी लिया। आगजनी में तमाम फिल्मों के निगेटिव जल गए, फिल्में फ्लॉप हुईं और भगवान दादा को चेंबूर के बंगले से दादर की चॉल में आने की दुर्दशा देखनी पड़ी। घर चलाने के लिए फिल्मों में जूनियर आटिर्स्ट का काम करना पड़ा।

यही बदहाली ई.बिलिमोरिया और सुलोचना रूबी मायर्स को भी झेलनी पड़ी। ये दोनों अपने जमाने के सुपर स्टार थे। सुलोचना रूबी मायर्स को हीरो से पांच गुना अधिक पारिश्रमिक मिलता था। काम मिलना बंद हुआ तो जूनियर आर्टिस्ट बनने को मजबूर होना पड़ा। ई.बिलिमोरिया भी कमाठीपुरा की गुमनाम खोली में गुमनाम मौत के शिकार हुए। परशुराम नामक एक स्टार को जब कंगाली ने घेरा तो उनकी फिल्मों के एक फैन ने उन्हें बांदा के ट्रैफिक सिग्नल पर उन्हें भीख मांगते देखा और अपने पसंदीदा स्टार की ऐसी हालत उसकी आंखें भर आईं। 'राम राज्य' में राम की भूमिका निभाने वाले प्रेम अदीब के लाखों भक्त थे, लेकिन जीवन के अंतिम दिन उनके बहुत बुरे बीते। सुपर स्टार रहे मोतीलाल ने 'छोटी छोटी बातें' बनाकर आत्मघाती कदम उठाया। गोविंदा के स्टार पिता अरुण कुमार ने भी निर्माता बनकर ऐसी भूल की कि पूरा परिवार खार के भव्य बंगले से सीधे फुटपाथ पर आ गया और उन्हें सुदूर विरार की एक चॉल में गुजर-बसर करने को बाध्य होना पड़ा। भारत भूषण ने 'बैजू बावरा', 'बरसात की रात' जैसी सुपर हिट फिल्में दीं, पाली हिल पर आलीशान बंगला और तमाम ऐशोआराम देखे लेकिन जब फिल्में पिटने लगीं और काम कम होने लगा तो हालत पतली होती गई और फिल्म तथा टीवी में छोटी भूमिकाएं करते हुए मालाड के छोटे से घर में उन्हें गुमनाम मौत मिली।

' कलाकारों का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा होता है और भविष्य अनिश्चित होता है इसलिए जिसने भी आने वाले कल के लिए बचाकर रखा, उसे दुर्दिन नहीं झेलना पड़ा', फिल्म अभिनेता चंदशेखर का कहना है। साठ साल से ज्यादा की फिल्मी पारी खेल चुके चंद्रशेखर फिल्म इंडस्ट्री की वेलफेयर योजनाओं से जुड़े रहे हैं और बुरे दिन झेल रहे कलाकारों की मदद के लिए हमेशा आगे आते रहे हैं। उन्होंने बताया कि अशोक कुमार, राजेंद्र कुमार, जीतेंद्र जैसे सितारों ने कभी फिजूलखर्ची नहीं की और अपना पैसा सुरक्षित बिजनेस में लगाया(मिथिलेष सिन्हा,नवभारत टाइम्स,मुंबई,24.1.11)।

गुलजार की पुस्तकःपन्द्रह पाँच पचहत्तर

शायरी और किस्सागोई से लेकर फिल्म निर्माण, पटकथा-संवाद लेखन व निर्देशन तक गुलजार का एक बड़ा कारोबार फैला है लेकिन यह कारोबार अभी फिल्म दुनिया की बाजारवादी मांग और आपूर्ति का संसाधन नहीं बना है। वह पूरी तौर पर अदबी और रचनात्मक है। गुलजार का होना यह बताता है कि शायरी की शुचिता फिल्म दुनिया की कारोबारी समझ के बावजूद कायम है। उनके प्रशंसक बेशुमार हैं, उनके गीतों-नज्मों को जहां लाखों करोड़ों लोगों की मुहब्बत हासिल है, कविता प्रेमियों को भी उसने अपने भाव-संसार और अंदाजे-बयां से प्रभावित किया है। उन्होंने अपनी शख्सियत से यह जताया है कि एक सच्चा कवि रोजी-रोटी से समझौता करता हुआ भी अदब के लिए अपने दिल में एक खास जज्बा रखता है। गुलजार ने फिल्मी गीतों से लेकर शायरी और नज्मों के समानांतर सफर में अपने कवित्व की अनूठी सौगात से लोगों को नवाजा है।

गुलजार की हाल में प्रकाशित नज्मों की पुस्तक "पंद्रह पांच पचहत्तर" आधुनिक उर्दू कविता में मील का पत्थर है। अपने सीधे-सहज गीतों में वे जितना मुखर होकर मानवीय अनुभूतियों को करीब से छूते हैं, अपनी नज्मों में वे आधुनिक संवेदना की गहराइयों में उतरते हुए लफ्जों को नए मानी देते है। उन्हीं का कहना है- "मैंने काल को तोड़ के लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।" पंद्रह खंडों में पांच-पांच कविताओं का यह संग्रह कुल पचहत्तर कविताओं का एक ऐसा गुलदस्ता है जो पचहत्तर पार गुलजार के जीवन और अनुभवों के अनेक शेड्स उजागर करता है। गुलजार की चित्रकारिता के भी नायाब नमूने यहां पन्ने दर पन्ने पिरोए गए हैं जिन्हें निहार कर आंखों को एक रचनात्मक तृप्ति मिलती है। मुझे आईआईसी दिल्ली के एक जलसे की याद है जब पाकिस्तान के एक शायर ने अपनी गजल के एक मिसरे में उन्हें पिरोते हुए कहा था- देखकर उनके रुखसार-ओ-लब यकीं आया/कि फूल खिलते हैं गुलजार के अलावा भी।

"यार जुलाहे" (गुलजार) की भूमिका में यतींद्र मिश्र ने लिखा है - "इच्छाएं, सुख, यथार्थ, नींदें, सपने, जिज्ञासा, प्रेम, स्मृतियां और रिश्तों की गुनगुनाहट को उनकी नज्मों और गजलों में इतने करीने से बुना गया है कि हमेशा यह महसूस होता है कि वह किसी नेक जुलाहे के अंतर्मन के तागे से बुनी गई हैं। इसमें संदेह नहीं कि गुलजार की नज्मों-कविताओं में कविता और शायरी की सदियों पुरानी परंपरा सांस लेती है और वे हर बार अपनी अनुभूतियों को भाषा और संवेदना का नया जामा पहनाते हैं।"

इन नज्मों में पिरोए गए बिंबों से एक खाका बनाएं तो उनकी नज्में पहाड़ों और वादियों में आने का न्यौता देती हैं, काले-काले मेघों से अपने सूखे गांव का हाल बतलाती हैं, चहकती चिड़िया की मस्ती निहारती हैं, बेरंग गर्मियों का जायजा लेती हैं, पहाड़ों पर आधी आंखें खोलकर सोती हैं, बुजुर्ग लगते चेन्नई, जादुई लगती मुंबई, धूपिया लगती दिल्ली और सदाबहार लगते कोलकाता की यादें संजोती हैं, कागज के पैराहन पर लिखी तहरीरें बांचती हैं और टूटते हुए मिसरों की हिचकियां सुनती हैं, किसी अजीज के साथ पूरा दिन गुजारने की तमन्ना रखती हैं और उसके बगैर सोने के लिए नींद की गोलियां तलाशती हैं, पेड़ों की पोशाकों से बदलते मौसम का मिजाज पहचानती हैं और जानती हैं -कोई मौसम हमेशा के लिए नहीं रहता। लम्हे कागज पर उतरते हैं और नज्मों का रंग पोरो पर रह जाता है। कुछ शख्सियतों की यादें गुड़ की भेली की तरह जीवन में मिठास भरती हैं और गुलजार की नज्में भी यही करती हैं। क्लासिकी और संयम के साथ रची इन नज्मों को गुलजार के लफ्जों में ही कहना हो तो यही कहना होगा- "कल का हर वाकया तुम्हारा था/ आज की दास्तां हमारी है(ओम निश्चल,नई दुनिया,दिल्ली,23.1.11)।"

Sunday, January 23, 2011

फिल्म का सौंदर्य-शास्त्र और भारतीय सिनेमा

सिनेमा का माध्यम क्या है, इसे समझाने के लिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह विचार काफी प्रासंगिक है। उन्होंने सिनेमा का दूरगामी भविष्य रेखांकित करते हुए कहा था - "देश की चेतना, देश के आदर्श, और आचरण की कसौटी वही होगी जो सिनेमा की होगी।" तो क्या माना जाए कि सिनेमा भी विचार का रूप ले सकता है। शायद कभी नहीं। कथा-कहानियों में जितना विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है, उतनी भी जगह फिल्मों में नहीं बनती। बावजूद इसके अपने छोटे से इतिहास में वैचारिक आलोक में कई कालातीत फिल्में बनी हैं और उसने मानव समुदाय को बड़े पैमाने पर प्रभावित भी किया है।

सिनेमा मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला सबसे सशक्त माध्यम है। इस माध्यम की पहुंच और प्रभाव आज किसी न किसी रूप में समाज के अंतिम व्यक्ति तक है। कमला प्रसाद ने सिनेमा, उसकी सैद्धांतिकी, तकनीक और सौंदर्यशास्त्र पर विश्व के चुनिंदा फिल्म आलोचकों की राय एक साथ संकलित और संपादित कर हिंदी पाठकों के सामने "फिल्मों के सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा" नामक संकलन में रखा है। इस संकलन में विश्व की श्रेष्ठतम फिल्मों, फिल्मकारों और कई लेखकों के सिनेमा के बारे में विचार हैं। इन विचारों में सिनेमा के लगभग सभी आयामों की गहरी मीमांसा शामिल है।

पुस्तक मूल रूप से चार खंड में विभाजित है। पहले खंड फिल्म संरचना और सौंदर्य में विदेशी लेखकों के आलेख हैं। इस खंड में आइंजेनस्टाइन, पुदोविकन, तारकोवस्की, कुरोसावा, चार्ल्स ग्रिफिथ, गोदार, बर्गमैन, सिटिजन कैन, मैकलेरेन, कार्ल डेयर, बिसल राइट, आर्सून वेल्स, बर्ट हंस्ट्रा जैसे सिनमाई दिग्गजों की अमर फिल्मों के माध्यम से पनपे नए सामाजिक मूल्यों की चर्चा शामिल है।

दूसरे खंड में फिल्म को रंगमंच का ही विस्तार बताया गया है। इस खंड के एक आलेख में प्रदीप तिवारी अपने आलेख में नाटकों से सिनेमा की ओर बढ़ते कदम पर रोशनी डालते हैं। यह भारतीय सिनेमा के शुरुआती दिनों के बारे में बताने वाला अध्याय है क्योंकि पचास के दशक के बाद सिनेमा में सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित पटकथाओं का चलन बढ़ गया।

हिंदी सिनेमा की विश्व सिनेमा से तुलानात्मक अध्ययन पर केंद्रित है तीसरा खंड हिंदी सिनेमा। खंड की शुरुआत समाजशास्त्री आशीष नंदी के आलेख से हुई है जो मध्यवर्ग और सिनेमा की बीच के आपसी संबंध और अंतर्द्वंद्वों की पड़ताल बारीकी से करते हैं। वे सिनेमा को बहुलोकप्रिय संस्कृति तो बताते ही हैं साथ में उसकी कमियों की तरफ भी इशारा करते हैं। इसी खंड में फिरोज रंगूनवाला का आलेख बताता है कि बेहतर समाज की रचना के लिए बेहतर सिनेमा भी गढ़ना होगा। मनोरंजन के नाम पर जिस तरह की वाहियात, बेबुनियादी, अनर्थक, असंगत, कमअक्ली बातों का बेहूदा प्रदर्शन होने लगा है, उसे फिरोज बड़ा भटकाव मानते हैं। भारतीय सिनेमा पर एकाग्र सिनेमा में यहां "अछूत कन्या", "राजा हरिश्चंद्र", "दो बीघा जमीन" से लेकर "पाथेर पांचाली" और बीसवीं शताब्दी की कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों की चर्चा शामिल है। "मेरी फिल्में और जीवन" शीर्षक तहत सत्यजित राय अपनी तमाम चर्चित फिल्मों के निर्माण प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। आलेख खासा रोचक और दिलचस्प है। कुल मिलाकर यह सिनेमाई वृत्ति को समझाने के लिहाज से एक उपयोगी पुस्तक है। यह कृति हिंदी में सिनेमा के उस अवकाश को बखूबी भरती है जिसके कारण इस माध्यम को सराहने की स्थितियां अनुपस्थित रही हैं(प्रदीप कुमार,नई दुनिया,दिल्ली,23.1.11)।

Friday, January 14, 2011

फिल्म "परिवर्तन" पर विवाद

निर्माता अंजनी कुमार धानुका की फिल्म परिवर्तन में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य व तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की भूमिका के दृश्यों पर सेंसर बोर्ड (कोलकाता) ने आपत्ति जतायी है। यह फिल्म 21 जनवरी को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी, लेकिन विवाद के चलते फिलहाल टाल दी गयी। यदि सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो परिवर्तन अगले महीने रिलीज हो सकती है। इसमें मुख्यमंत्री की भूमिका त्रिदिव घोष व ममता की भूमिका अभिनेत्री शताब्दी राय ने निभायी है। इन कलाकारों के अलावा अभिनेता करण शर्मा, तापस पाल व आशीष विद्यार्थी भी अहम किरदार में हैं। इस सिलसिले में अंजनी कुमार धानुका ने कहा कि अपने जानते भर में हमने बेहतर फिल्म निर्माण किया है। यह मूल रूप से व्यावसायिक फिल्म है, लेकिन जब सेंसर बोर्ड ने कुछ दृश्यों पर सवाल उठाये हैं, तो उस पर विचार कर ही अब हम परिवर्तन को रिलीज करेंगे। उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ने पर इस विषय पर कलाकारों से भी बातचीत की जायेगी, लेकिन निर्माता के रूप में मेरी जिम्मेदारी अधिक है। हम चाहते हैं कि परिवर्तन समय से रिलीज हो, ताकि दर्शक सिनेमाघरों तक पहुंच सकें। अंजनी कुमार धानुका के अनुसार फिल्म परिवर्तन से उन्हें काफी उम्मीदें हैं(दैनिक जागरण,कोलकाता,14.1.11)।

Wednesday, January 12, 2011

‘दाएं या बाएं’ 14 को देहरादून में होगी रिलीज

उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में शूट की गई बड़े पर्दे की पहली हिंदी फिल्म दाएं या बाएं को १४ जनवरी को राजधानी के दिग्विजय सिनेमा हॉल में रिलीज किया जाएगा। जबकि बुधवार को राजभवन में फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग होगी।
राजपुर रोड स्थित होटल में पत्रकारों से बातचीत करते हुए फिल्म की लेखिका एवं निर्देशिका बेला नेगी ने बताया कि बड़े पर्दे की इस फिल्म की पूरी शूटिंग उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में की गई है। फिल्म में मूल रूप से उत्तराखंड के रहने वाले दीपक डोबरियाल अभिनेता की मुख्य भूमिका में हैं। जो इससे पहले बड़े पर्दे की कई फिल्मों ओमकारा, मकबूल, शौर्या, गुलाल आदि में काम कर चुके हैं। फिल्म की शूटिंग पिथौरागढ़ और बागेश्वर में की गई है। फिल्म निर्देशिका बेला नेगी ने बताया कि फिल्म में अधिकतर कलाकार उत्तराखंड के रहने वाले हैं। उन्होंने बताया कि लीड रोल में दीपक डोबरियाल की यह पहली फिल्म है। बताया कि फिल्म उत्तराखंड पर आधारित है। उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में स्थानीय कलाकारों द्वारा बनाई गई यह फिल्म निश्चित रूप से प्रदेश के जनमानस को खूब पसंद आएगी(अमर उजाला,देहरादून,12.1.11)।

Friday, January 7, 2011

बॉलीवुड में झारखंडी और बिहारी प्रतिभाओं का हल्ला बोल

यह शुक्रवार बिहार और झारखंड के लिए बेहद खास है. वजह, आज रिलीज हो रही बॉलीवुड की दो फिल्मों में झारखंड और बिहार की दो प्रतिभाओं का हुनर देखने को मिलेगा. एक परदे के पीछे और एक परदे के सामने. साथ ही काफ़ी समय बाद एक साथ परदे पर दो महिला प्रधान फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं. झारखंड के लिए गौरव की बात यह है कि आज रिलीज हो रही फिल्म ’नो वन किल्ड जेसिका’के निर्देशक राजकुमार गुप्ता हजारीबाग के रहनेवाले हैं.

विद्या बालन व रानी मुखर्जी अभिनीत यह फिल्म जेसिका लाल हत्याकांड पर आधारित है. इससे पहले राजकुमार ने ओमर का निर्देशन किया था. फिल्म यूटीवी जैसे प्रतिष्ठित बैनर तले ही बनी थी. राजकुमार की योग्यता को देखते हुए नो वन किल्ड जेसिका को निर्देशित करने का मौका भी निर्माता यूटीवी ने उन्हें दिया.बॉलीवुड में ..राजकुमार कहते हैं, यह उनके लिए गौरव की बात है कि उनकी फिल्म नो वन किल्ड जेसिका रिलीज होने से पहले बेहद चर्चे में है. दर्शकों ने 10 साल पहले हुए उस केस में आज भी दिलचस्पी दिखायी है.

भविष्य में भी ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करता रहूंगा.पा जैसी फिल्मों से पुरस्कार प्राप्त कर चुकीं अभिनेत्री विद्या बालन मानती हैं कि राजकुमार एक भावनात्मक निर्देशक हैं और यही वजह है कि उन्होंने अच्छे तरीके से कहानी कही है. उन्हें पूरी उम्मीद है कि दर्शकों को यह फिल्म पसंद आयेगी.उधर, आज ही रिलीज होनेवाली फिल्म विकल्प एक अनाथ लड़की की कहानी है, जिसमें मुख्य किरदार में बिहार के पटना शहर के रहनेवाले क्रांति प्रकाश झा नजर आयेंगे.

मुंबई में थियेटर से भी गहरा लगाव रखनेवाले क्रांति बताते हैं कि इस फिल्म में वह अनाथ लड़की के दोस्त का किरदार निभा रहे हैं. फिल्म के निर्देशक सचिन हैं.वाकई जिस रफ्तार से झारखंड और बिहार की प्रतिभाएं हिंदी सिनेमा जगत के हर क्षेत्र में लगातार अपना हुनर दिखा रही हैं, यह दोनों राज्यों के लिए आशा की नयी किरण है.

न सिर्फ प्रतिभाएं, बल्कि बॉलीवुड को यहां अब शूटिंग लोकेशन के विकल्प भी नजर आने लगे हैं. जमशेदपुर में शूट हुई फिल्म उड़ान को इस बार स्टार स्क्रीन अवार्डस में 14 नॉमिनेशन मिले हैं. फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने बताते हैं कि इस फिल्म में परदे के पीछे उनका सहयोग करीम सिटी कॉलेज के बच्चों ने दिया था(प्रभात ख़बर,रांची संस्करण में मुंबई से रिपोर्ट).