शायरी और किस्सागोई से लेकर फिल्म निर्माण, पटकथा-संवाद लेखन व निर्देशन तक गुलजार का एक बड़ा कारोबार फैला है लेकिन यह कारोबार अभी फिल्म दुनिया की बाजारवादी मांग और आपूर्ति का संसाधन नहीं बना है। वह पूरी तौर पर अदबी और रचनात्मक है। गुलजार का होना यह बताता है कि शायरी की शुचिता फिल्म दुनिया की कारोबारी समझ के बावजूद कायम है। उनके प्रशंसक बेशुमार हैं, उनके गीतों-नज्मों को जहां लाखों करोड़ों लोगों की मुहब्बत हासिल है, कविता प्रेमियों को भी उसने अपने भाव-संसार और अंदाजे-बयां से प्रभावित किया है। उन्होंने अपनी शख्सियत से यह जताया है कि एक सच्चा कवि रोजी-रोटी से समझौता करता हुआ भी अदब के लिए अपने दिल में एक खास जज्बा रखता है। गुलजार ने फिल्मी गीतों से लेकर शायरी और नज्मों के समानांतर सफर में अपने कवित्व की अनूठी सौगात से लोगों को नवाजा है।
गुलजार की हाल में प्रकाशित नज्मों की पुस्तक "पंद्रह पांच पचहत्तर" आधुनिक उर्दू कविता में मील का पत्थर है। अपने सीधे-सहज गीतों में वे जितना मुखर होकर मानवीय अनुभूतियों को करीब से छूते हैं, अपनी नज्मों में वे आधुनिक संवेदना की गहराइयों में उतरते हुए लफ्जों को नए मानी देते है। उन्हीं का कहना है- "मैंने काल को तोड़ के लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।" पंद्रह खंडों में पांच-पांच कविताओं का यह संग्रह कुल पचहत्तर कविताओं का एक ऐसा गुलदस्ता है जो पचहत्तर पार गुलजार के जीवन और अनुभवों के अनेक शेड्स उजागर करता है। गुलजार की चित्रकारिता के भी नायाब नमूने यहां पन्ने दर पन्ने पिरोए गए हैं जिन्हें निहार कर आंखों को एक रचनात्मक तृप्ति मिलती है। मुझे आईआईसी दिल्ली के एक जलसे की याद है जब पाकिस्तान के एक शायर ने अपनी गजल के एक मिसरे में उन्हें पिरोते हुए कहा था- देखकर उनके रुखसार-ओ-लब यकीं आया/कि फूल खिलते हैं गुलजार के अलावा भी।
"यार जुलाहे" (गुलजार) की भूमिका में यतींद्र मिश्र ने लिखा है - "इच्छाएं, सुख, यथार्थ, नींदें, सपने, जिज्ञासा, प्रेम, स्मृतियां और रिश्तों की गुनगुनाहट को उनकी नज्मों और गजलों में इतने करीने से बुना गया है कि हमेशा यह महसूस होता है कि वह किसी नेक जुलाहे के अंतर्मन के तागे से बुनी गई हैं। इसमें संदेह नहीं कि गुलजार की नज्मों-कविताओं में कविता और शायरी की सदियों पुरानी परंपरा सांस लेती है और वे हर बार अपनी अनुभूतियों को भाषा और संवेदना का नया जामा पहनाते हैं।"
इन नज्मों में पिरोए गए बिंबों से एक खाका बनाएं तो उनकी नज्में पहाड़ों और वादियों में आने का न्यौता देती हैं, काले-काले मेघों से अपने सूखे गांव का हाल बतलाती हैं, चहकती चिड़िया की मस्ती निहारती हैं, बेरंग गर्मियों का जायजा लेती हैं, पहाड़ों पर आधी आंखें खोलकर सोती हैं, बुजुर्ग लगते चेन्नई, जादुई लगती मुंबई, धूपिया लगती दिल्ली और सदाबहार लगते कोलकाता की यादें संजोती हैं, कागज के पैराहन पर लिखी तहरीरें बांचती हैं और टूटते हुए मिसरों की हिचकियां सुनती हैं, किसी अजीज के साथ पूरा दिन गुजारने की तमन्ना रखती हैं और उसके बगैर सोने के लिए नींद की गोलियां तलाशती हैं, पेड़ों की पोशाकों से बदलते मौसम का मिजाज पहचानती हैं और जानती हैं -कोई मौसम हमेशा के लिए नहीं रहता। लम्हे कागज पर उतरते हैं और नज्मों का रंग पोरो पर रह जाता है। कुछ शख्सियतों की यादें गुड़ की भेली की तरह जीवन में मिठास भरती हैं और गुलजार की नज्में भी यही करती हैं। क्लासिकी और संयम के साथ रची इन नज्मों को गुलजार के लफ्जों में ही कहना हो तो यही कहना होगा- "कल का हर वाकया तुम्हारा था/ आज की दास्तां हमारी है(ओम निश्चल,नई दुनिया,दिल्ली,23.1.11)।"
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