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Sunday, December 13, 2009

अबरार अल्वीःस्मृति शेष

19 नवम्बर को मुंबई में अबरार अल्वी ने दुनिया से खामोश विदाई ले ली। उनकी अंत्येष्टि की जानकारी लोगों को नहीं मिली इसलिए परिवार के सदस्यों के अलावा और कोई नहीं पहुंच पाया। किसी निजी तो कभी दूसरों की खामोशी की वजह से हिंदी फिल्मों में अबरार अल्वी के योगदान को सही महत्व नहीं मिल पाया। पिछले साल गुरुदत्त के साथ बिताए दस सालों पर उनकी एक किताब जरूर आई, लेकिन घटनाओं को सहेजने में उम्र के कारण उनकी यादें धोखा देती रहीं। उनके भांजे और थिएटर के मशहूर निर्देशक सलीम आरिफ बताते हैं कि अबरार मामू मीडिया और खबरों से दूर ही रहे। उन्होंने गुरुदत्त से अपनी संगत को सीने से लगाए रखा। नागपुर से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद लंबे-छरहरे अबरार अल्वी एक्टर बनने के इरादे से मुंबई आए थे। गीता बाली के बहनोई जसवंत को वे जानते थे। उनके माध्यम से ही गुरुदत्त से परिचय हुआ। गुरुदत्त की फिल्म बाज का प्रायवेट शो था। उसमें जसवंत ने अबरार अल्वी को बुला लिया था। फिल्म देखने के बाद गुरुदत्त ने अबरार अल्वी से उनकी राय पूछी तो उन्होंने बेलौस जवाब दिया, आप बहुत फोटोजेनिक हैं। इस जवाब का आशय समझते हुए गुरुदत्त ने आगे पूछा, कुछ एक्टोजेनिक हैं। इस जवाब का आशय समझते हुए गुरुदत्त ने आगे पूछा, कुछ एक्टोजेनिक भी हैं या नहीं? गुरुदत्त से परिचय का यह सिलसिला कालांतर में सहयोग में बदला। अबरार अल्वी उनकी फिल्मों का लेखन करने लगे। आज यह जोड़ी इतिहास का हिस्सा बन चुकी है। गुरुदत्त की फिल्मों में अबरार अल्वी के लेखन का खास महत्व है। गुरुदत्त की सोच को स्कि्रप्ट में ढालना और फिर उन्हें समुचित संवादों से प्रभावशाली बनाने में अबरार का हुनर सामने आया। गुरुदत्त बेहतर लेखक की तलाश में थे। उन्हें लगता था कि उनके विचारों को सही शब्द नहीं मिल पाते। अबरार अल्वी ने उनकी यह जरूरत पूरी की। अगर गुरुदत्त के कैरिअर पर ध्यान दें तो उनका आरंभिक रुझान थ्रिलर की तरफ था। वे आर-पार और बाजी जैसी फिल्मों में अधिक रुचि लेते थे। अबरार अल्वी ने उन्हें प्रेरित किया कि वे अपनी प्रतिभा का उपयोग बेहतरीन फिल्मों के लिए करें। इस तरह प्यासा की नींव पड़ी। प्यासा में गुरुदत्त का किरदार अबरार अल्वी के निजी जीवन से प्रेरित था। इसके पहले गुरुदत्त अबरार अल्वी के नाटक मार्डन मैरिज पर मिस्टर एंड मिसेज 55 बना चुके थे। प्यासा में अबरार अल्वी के योगदान को साहिर लुधियानवी ने रेखांकित किया था। कहते हैं कि साहिर की इस तारीफ से गुरुदत्त खफा हो गए थे। उसी नाराजगी में उन्होंने अपनी अगली फिल्मों के गीत कैफी आजमी से लिखवाए। अबरार अल्वी ने हिंदी फिल्मों के संवाद लेखन में इस पर जोर डाला कि किरदारों की भाषा उनकी पृष्ठभूमि के अनुरूप हो। पहले राजा और रंक या नायक और सामान्य किरदार लगभग एक जैसी भाषा बोलते थे। अबरार अल्वी ने भाषा में ग्राम्य प्रभाव पैदा किया। बाद में यह भदेसपन ऐसी रूढि़ बन गयी कि हर फिल्म में नौकर और ड्रायवर पुरबिया मिश्रित हिंदी बोलते ही नजर आए। अबरार अल्वी के लेखन की गुणवत्ता देखते हुए महबूब खान ने उन्हें अपनी टीम से जुड़ने का निमंत्रण दिया था और छूट दी थी कि वे चाहें तो उनके साथ काम करते हुए भी गुरुदत्त को प्राथमिकता दे सकते हैं। अबरार अल्वी ने गुरुदत्त से इस संदर्भ में बात की तो उन्होंने दो टूक कहा कि तुम एक बार उनके साथ काम शुरू करोगे तो स्वाभाविक रूप से उन्हें ही प्राथमिकता दोगे, क्योंकि वे कामयाब नाम हैं। अगर मेरे साथ रहे तो मैं तुम्हारी क्षतिपूर्ति जरूर करूंगा। साहब बीवी गुलाम के निर्देशन की जिम्मेदारी देकर गुरुदत्त ने अबरार अल्वी की क्षतिपूर्ति अवश्य की, लेकिन वे उस फिल्म के गानों की शूटिंग से खुद को नहीं रोक पाए। अंत तक कंफ्यूजन रहा कि साहब बीवी गुलाम के निर्देशक गुरुदत्त ही हैं। गुरुदत्त या उनकी टीम के किसी दूसरे सदस्य ने स्पष्टीकरण नहीं दिया। अकाल मृत्यु ने गुरुदत्त को छीन लिया और अबरार अल्वी गुमनामी में खो गए। बाद में उन्होंने लेख टंडन और आत्माराम के लिए कुछ फिल्में जरूर लिखीं, लेकिन उनमें गुरुदत्त की गहराई और गंभीरता नहीं आ पाई। गुरुदत्त की आत्महत्या की रात अबरार अल्वी उनसे मिलकर लौटे थे। उन्हें जिंदगी भर इस बात का अफसोस रहा कि अगर वे अन्य रातों की तरह उस रात भी वहीं रुक गए होते तो शायद गुरुदत्त आत्महत्या का दुस्साहस नहीं करते। अबरार अल्वी कहा करते थे कि पारिवारिक और फिल्मी कारणों से गुरुदत्त टूट चुके थे। वे एकाग्रचित होकर काम नहीं कर पा रहे थे। अजय ब्रह्मात्मज (यह लेख अबरार अल्वी के भांजे सलीम आरिफ से हुई बातचीत पर आधारित है।)
दैनिक जागरण,पटना में 07 दिसम्बर,2009 को यथाप्रकाशित

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