आजकल प्रसिद्ध फिल्मकारों को उनकी असफल फिल्मों के लिए कोई दंड नहीं मिलता। असफलता पर उन्हें आर्थिक हानि भी नहीं उठानी पड़ती। एक लिहाज से इस समय उद्योग में असफलता रूपी अपराध के लिए दंड का विधान नहीं है। राज कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से इतना सीखा कि उसके बाद कोई असफल फिल्म नहीं बनाई, क्योंकि उन्होंने और उनके वितरकों ने अपना धन खोया था।
गुरुदत्त ने भी ‘कागज के फूल’ में अपना धन खोया था। बिमल राय वापस बंगाल जाना चाहते थे, तब ऋतविक घटक ने उनके लिए ‘मधुमती’ लिखी। देवानंद ने ‘नीचा नगर’ में अपना धन खोया। बोनी और अनिल कपूर ने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘प्रेम’ में अपना धन खोया। कारदार साहब को ‘दिल दिया दर्द लिया’ की असफलता के बाद अपना स्टूडियो बेचना पड़ा।
सोहराब मोदी को भी पत्नी मेहताब के साथ बनाई असफल फिल्म ‘झांसी की रानी’ के बाद अपना स्टूडियो और अनेक सिनेमाघर बेचने पड़े। विगत दशक में बड़े उद्योग घरानों के फिल्म निर्माण में आने के बाद घाटे की जवाबदारी उन्होंने ले ली और प्रसिद्ध फिल्मकारों को मुंहमांगा धन दिया। फिल्मकारों ने अनुमानित लाभ को अपना बजट बनाकर प्रस्तुत किया, अत: पहली बार कोई माल दो सौ प्रतिशत मुनाफे की लागत पर बनने के पहले बिका। ऐसे व्यावसायिक समीकरण में लाभ कैसे मिल सकता है?
संजय लीला भंसाली को ‘सावरिया’ और ‘गुजारिश’ में मोटा माल मिला है। उद्योग में चर्चा है कि ‘गुजारिश’ के लिए उन्हें पच्चीस करोड़ का मेहनताना प्राप्त हुआ है। इन्हीं सब नए तौर तरीकों के कारण कुणाल कोहली को ‘थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक’ या ‘ब्रेक के बाद’ के लिए मुनाफा मिला है। करण जौहर को ‘वी आर फैमिली’ और ‘कुरबान’ जैसी घोर असफलताओं के लिए भी धन प्राप्त हुआ है। राकेश रोशन को ‘काइट्स’ के लिए धन मिला है।
जिस तरह आज फिल्म उद्योग में कुछ लोगों को काम और दाम मिलता है, परंतु वे उत्तरदायित्व से मुक्त हैं, उसी तरह राजनीति और व्यवस्था में लोगों को असीमित लाभ और अधिकार बिना किसी दायित्व के मिले हैं। इसकी कीमत अवाम चुका रहा है। प्राइवेट सेक्टर में नतीजा नहीं देने पर नौकरी छिन जाती है।
भ्रष्ट मंत्री पर आम आदमी मुकदमा नहीं कायम कर पाता। नेता को कई बार अपराध करने के पांच साल बाद भी चुनाव द्वारा दंड नहीं मिल पाता। गधों को हलवा खाते देख भूखे अवाम में नैराश्य बढ़ रहा है। आम आदमी का भरोसा टूटा है। टोपी चाहे कोई भी हो, उसके नीचे हर माथे पर दाग है। जाएं तो जाएं कहां?
फिल्म की सफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता, परंतु कई गुना मुनाफा जोड़कर उसकी लागत बताना अनैतिक है। असली अपराध एक रुपए का माल दस रुपए में बनाना है। लागत, लाभ और मेहनताने में संतुलन होना चाहिए(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,10.12.2010)।
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