मिथुन चक्रवर्ती ने अपनी पहली फिल्म मृणाल सेन की ‘मृगया’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। आज लगभग तीन दशक बाद उनकी भूमिका फिल्म ‘वीर’ में सराही जा रही है। कुछ वर्ष पूर्व मणिरत्नम की ‘गुरु’ में भी उन्हें सराहा गया था। ‘मृगया’ के बाद मुंबई में मिथुन को लंबा संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि उनका चेहरा पारंपरिक नायक का नहीं था। बी सुभाष की फिल्म ‘डिस्को डांसर’ ने उन्हें सितारा हैसियत दिलाई।
एक्शन और नाच-गाने की श्रेणी की फिल्मों में वह सिरमौर बन गए और केसी बोकाडिया की फिल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ की विराट सफलता ने उन्हें ऊपर की श्रेणी में पहुंचा दिया। शायद इसी कारण अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘अग्निपथ’ और ‘गंगा जमुना सरस्वती’ में भी उन्हें समानांतर भूमिकाएं मिलीं।
मिथुन के कॅरियर में एक दौर ऐसा आया कि उनकी दर्जन भर फिल्में असफल हो गईं। अपनी इस असफलता से वह हतप्रभ रह गए। उन दिनों ‘मृगया’ के इस नायक ने (जो कभी नक्सलवाद से भी जुड़ा था) ऊटी में ‘मोनार्क’ नामक पांच सितारा होटल बनाया। उन्होंने वहां माहवारी वेतन पर कैमरामैन इत्यादि तकनीशियन रखे और मुंबई के वे तमाम निर्माता जिन्हें सितारे उपलब्ध नहीं थे, अपनी सीमित पूंजी लेकर ‘मोनार्क’ जाते थे, जहां तीन माह में मिथुन अभिनीत फिल्म बतर्ज फैक्टरी के उन्हें बनाकर दी जाती थी। सीमित बजट और अल्प समय में बनी ये फिल्में निर्माता को लाभ देती थीं और इन फिल्मों ने हिंदुस्तान के तमाम ठाठिया सिनेमाघरों को बंद होने से बचा लिया। उसी दौर में समयाभाव के कारण संस्कृत में बनने वाली एक फिल्म में विवेकानंद की भूमिका को उन्हें नकारना पड़ा। मिथुन कॉटेज फिल्म उद्योग के जनक रहे। फिल्म यूनिट ‘मोनार्क’ में ठहरती और उसके इर्द-गिर्द ही शूटिंग होती थी। अत: इस कॉटेज फिल्म उद्योग के साथ होटल भी चल पड़ा।
फिल्म ‘मृगया’ का जनजाति वाला नायक इस तरह उद्योगपति हो गया। बंगाल में कुछ लोग मोनार्क मिथुन को आज भी नक्सली की तरह याद करते हैं। प्रशंसक अपने सितारों की छवि अपनी पसंद-नापसंद और पूर्वग्रह के अनुरूप गढ़ते हैं। हमारी ईश्वर की कल्पना में भी कमोबेश यही धारणाएं काम करती हैं। अपराधी भी ईश्वर से प्रार्थना करता है कि आज बड़ा माल हाथ आ जाए।
मिथुन चक्रवर्ती ने विगत 30-35 वर्षो में खूब नाम-दाम कमाया, साथ ही अच्छे आदमी की छवि भी गढ़ी है। उन्होंने जूनियर कलाकार और डांसर दल को हमेशा मदद दी है। मिथुन ने मिसाल पेश की है कि साधारण अभिनय क्षमता और कमतर रंग-रूप के बावजूद आप चमक-दमक वाली फिल्मी दुनिया में सफल हो सकते हैं। सतत प्रयास और दृढ़ इच्छाशक्ति कुंडली में नए योग रचती है।
वर्ष 2008 में मिथुन के सुपुत्र मिमोह को प्रस्तुत किया गया, परंतु सफलता नहीं मिली। अपने संघर्षकाल में मिथुन के पास कुछ नहीं था,परंतु मिमोह सफल आदमी के धनाढ्य पुत्र हैं। पिता की चबाई हुई भूमिकाओं की भावाभिव्यक्ति पुत्र की रगों में नहीं दौड़ती।
(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,दिल्ली,30 जनवरी,2010)
एक्शन और नाच-गाने की श्रेणी की फिल्मों में वह सिरमौर बन गए और केसी बोकाडिया की फिल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ की विराट सफलता ने उन्हें ऊपर की श्रेणी में पहुंचा दिया। शायद इसी कारण अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘अग्निपथ’ और ‘गंगा जमुना सरस्वती’ में भी उन्हें समानांतर भूमिकाएं मिलीं।
मिथुन के कॅरियर में एक दौर ऐसा आया कि उनकी दर्जन भर फिल्में असफल हो गईं। अपनी इस असफलता से वह हतप्रभ रह गए। उन दिनों ‘मृगया’ के इस नायक ने (जो कभी नक्सलवाद से भी जुड़ा था) ऊटी में ‘मोनार्क’ नामक पांच सितारा होटल बनाया। उन्होंने वहां माहवारी वेतन पर कैमरामैन इत्यादि तकनीशियन रखे और मुंबई के वे तमाम निर्माता जिन्हें सितारे उपलब्ध नहीं थे, अपनी सीमित पूंजी लेकर ‘मोनार्क’ जाते थे, जहां तीन माह में मिथुन अभिनीत फिल्म बतर्ज फैक्टरी के उन्हें बनाकर दी जाती थी। सीमित बजट और अल्प समय में बनी ये फिल्में निर्माता को लाभ देती थीं और इन फिल्मों ने हिंदुस्तान के तमाम ठाठिया सिनेमाघरों को बंद होने से बचा लिया। उसी दौर में समयाभाव के कारण संस्कृत में बनने वाली एक फिल्म में विवेकानंद की भूमिका को उन्हें नकारना पड़ा। मिथुन कॉटेज फिल्म उद्योग के जनक रहे। फिल्म यूनिट ‘मोनार्क’ में ठहरती और उसके इर्द-गिर्द ही शूटिंग होती थी। अत: इस कॉटेज फिल्म उद्योग के साथ होटल भी चल पड़ा।
फिल्म ‘मृगया’ का जनजाति वाला नायक इस तरह उद्योगपति हो गया। बंगाल में कुछ लोग मोनार्क मिथुन को आज भी नक्सली की तरह याद करते हैं। प्रशंसक अपने सितारों की छवि अपनी पसंद-नापसंद और पूर्वग्रह के अनुरूप गढ़ते हैं। हमारी ईश्वर की कल्पना में भी कमोबेश यही धारणाएं काम करती हैं। अपराधी भी ईश्वर से प्रार्थना करता है कि आज बड़ा माल हाथ आ जाए।
मिथुन चक्रवर्ती ने विगत 30-35 वर्षो में खूब नाम-दाम कमाया, साथ ही अच्छे आदमी की छवि भी गढ़ी है। उन्होंने जूनियर कलाकार और डांसर दल को हमेशा मदद दी है। मिथुन ने मिसाल पेश की है कि साधारण अभिनय क्षमता और कमतर रंग-रूप के बावजूद आप चमक-दमक वाली फिल्मी दुनिया में सफल हो सकते हैं। सतत प्रयास और दृढ़ इच्छाशक्ति कुंडली में नए योग रचती है।
वर्ष 2008 में मिथुन के सुपुत्र मिमोह को प्रस्तुत किया गया, परंतु सफलता नहीं मिली। अपने संघर्षकाल में मिथुन के पास कुछ नहीं था,परंतु मिमोह सफल आदमी के धनाढ्य पुत्र हैं। पिता की चबाई हुई भूमिकाओं की भावाभिव्यक्ति पुत्र की रगों में नहीं दौड़ती।
(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,दिल्ली,30 जनवरी,2010)