कलाकार : अमिताभ बच्चन, रितेश देशमुख, परेश रावल, गुल पनाग, नीतू चंद्रा राजपाल यादव
निर्माता : शीतल विनोद तलवार
पटकथा : रोहित बानाबिलकर
संगीत : बापी - टूटल
कुछ अलग कछ अलहदा तो थोड़ी कमजोर पटकथा के साथ रामगोपाल वर्मा ने मीडिया की टीआरपी दौड़ में दौड़ती खबरों की दुनियां का सच तलाशने का प्रयास किया है। इसे आप मीडिया पर ऐसा तीखा प्रहार कर कह सकते है जो उतना ही सच्च है जिनती की किसी खबर का बनना वह खबर जो अपनी जगह खुद तय करती है। मीडिया के बाजारवाद में बॉक्स ऑफिस पर रामू ने दम तो लगाया है जिसमें मीडिया का लोभ,टीआरपी और भ्रष्टाचार के तीन पत्तों के साथ ही दम तोड़ती सच्ची खबर के लिए संघर्ष करता मध्यमवर्गीय ईमानदार पत्रकार भी है। लेकिन फिल्म में मीडिया का जो चेहरा दिखता है यह सिर्फ उतना भर नहीं है। मीडिया,सरकारी तंत्र की जुगलबंदी पर फिल्म प्रहार तो करती है लेकिन मनोरंज के तत्र से कुछ भटकती भी लगती है, वैसे भी खबरें मनोरंजन नहीं करती वह तो बस तस्वीर का सच बताती है और यह फिल्म रण के लिए भी कहा जा सकता है।
रामगोपाल वर्मा ने ईमानदार पत्रकारों की मेहनत का तो ध्यान रखा ही है साथ ही मीडिया में पनप रहे भ्रष्टाचार पर तीखा हमला भी किया है। परेश रॉवल ने जिस अंदाज में भ्रष्टाचार में डूब नेता का किरदार जिया है वह बेहद शानदार और लाजवाब है। दरअसल यह एक ऐसा चरित्र है जो राजनीति में पनप रहे भ्रष्टाचार और मीडिया से उसके जुड़ाव को बताने का प्रयास है। इन सब के बीच अमिताभ बच्चन द्वारा जिया गया पात्र अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है, फिल्म में कई बार बिग बी कुछ ना कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाते है। ये बिग बी के अभिनय के कमाल के साथ ही रामगोपाल वर्मा के निर्देशन का जादू भी दिखाता है और इस बात की ओर इसारा भी करता है कि उनकी सोच का दायरा क्या है।
रामू ने मीडिया के लक्ष्य और उसके दायरे को खोजने का प्रयास तो किया लेकिन वे इसमें वे गहराई बताने में असफल नजर आते है जिसकी उम्मीद खुद उन्होंने फिल्म बनाने के वक्त सोची होगी। एक ऐसा निर्देशक जो खुद मीडिया के हमलों का शिकार रहा हो और जिसके लिए मीडिया ने कभी बेहद शानदार लिखा हो वह उसकी गहराई इतने हल्के में बताए बात समझ में नहीं आती और लगता है रामू थोड़ा सा कहीं चूक गए,वरना मीडिया जगत की कड़वी हकीकत बॉलीवुड की बेहतरीन फिल्म के रुप सामने आती। लेकिन यह एक उम्दा प्रयास है और फिल्म का क्लाइमेक्स सीन जिस अंदाज में सामने आता है वह शानदार है। लेकिन महिला पत्रकारों के लिए फिल्म में ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं था फिर भी गुल पनाग और नीतू चंदा ने बेहतर काम किया है। मीडिया में महिलाओं का दखल बड़ा है और वे बेहतर काम भी कर रहीं है लेकिन रामू इस बात को बताने में चूक गए से गलते है । मीडिया में आ रहे पतन को तो रामू ने बताने का प्रयास किया है लेकिन इसके कारणों को बताते तो कुछ और बात होती।
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(टाइम्स ऑफ इंडिया,दिल्ली,29.1.10)
निर्माता : शीतल विनोद तलवार
पटकथा : रोहित बानाबिलकर
संगीत : बापी - टूटल
कुछ अलग कछ अलहदा तो थोड़ी कमजोर पटकथा के साथ रामगोपाल वर्मा ने मीडिया की टीआरपी दौड़ में दौड़ती खबरों की दुनियां का सच तलाशने का प्रयास किया है। इसे आप मीडिया पर ऐसा तीखा प्रहार कर कह सकते है जो उतना ही सच्च है जिनती की किसी खबर का बनना वह खबर जो अपनी जगह खुद तय करती है। मीडिया के बाजारवाद में बॉक्स ऑफिस पर रामू ने दम तो लगाया है जिसमें मीडिया का लोभ,टीआरपी और भ्रष्टाचार के तीन पत्तों के साथ ही दम तोड़ती सच्ची खबर के लिए संघर्ष करता मध्यमवर्गीय ईमानदार पत्रकार भी है। लेकिन फिल्म में मीडिया का जो चेहरा दिखता है यह सिर्फ उतना भर नहीं है। मीडिया,सरकारी तंत्र की जुगलबंदी पर फिल्म प्रहार तो करती है लेकिन मनोरंज के तत्र से कुछ भटकती भी लगती है, वैसे भी खबरें मनोरंजन नहीं करती वह तो बस तस्वीर का सच बताती है और यह फिल्म रण के लिए भी कहा जा सकता है।
रामगोपाल वर्मा ने ईमानदार पत्रकारों की मेहनत का तो ध्यान रखा ही है साथ ही मीडिया में पनप रहे भ्रष्टाचार पर तीखा हमला भी किया है। परेश रॉवल ने जिस अंदाज में भ्रष्टाचार में डूब नेता का किरदार जिया है वह बेहद शानदार और लाजवाब है। दरअसल यह एक ऐसा चरित्र है जो राजनीति में पनप रहे भ्रष्टाचार और मीडिया से उसके जुड़ाव को बताने का प्रयास है। इन सब के बीच अमिताभ बच्चन द्वारा जिया गया पात्र अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है, फिल्म में कई बार बिग बी कुछ ना कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाते है। ये बिग बी के अभिनय के कमाल के साथ ही रामगोपाल वर्मा के निर्देशन का जादू भी दिखाता है और इस बात की ओर इसारा भी करता है कि उनकी सोच का दायरा क्या है।
रामू ने मीडिया के लक्ष्य और उसके दायरे को खोजने का प्रयास तो किया लेकिन वे इसमें वे गहराई बताने में असफल नजर आते है जिसकी उम्मीद खुद उन्होंने फिल्म बनाने के वक्त सोची होगी। एक ऐसा निर्देशक जो खुद मीडिया के हमलों का शिकार रहा हो और जिसके लिए मीडिया ने कभी बेहद शानदार लिखा हो वह उसकी गहराई इतने हल्के में बताए बात समझ में नहीं आती और लगता है रामू थोड़ा सा कहीं चूक गए,वरना मीडिया जगत की कड़वी हकीकत बॉलीवुड की बेहतरीन फिल्म के रुप सामने आती। लेकिन यह एक उम्दा प्रयास है और फिल्म का क्लाइमेक्स सीन जिस अंदाज में सामने आता है वह शानदार है। लेकिन महिला पत्रकारों के लिए फिल्म में ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं था फिर भी गुल पनाग और नीतू चंदा ने बेहतर काम किया है। मीडिया में महिलाओं का दखल बड़ा है और वे बेहतर काम भी कर रहीं है लेकिन रामू इस बात को बताने में चूक गए से गलते है । मीडिया में आ रहे पतन को तो रामू ने बताने का प्रयास किया है लेकिन इसके कारणों को बताते तो कुछ और बात होती।
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(टाइम्स ऑफ इंडिया,दिल्ली,29.1.10)
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