समाज के संकरे गलियारों में कुछ गैरजवाबदार परंतु खतरनाक साबित होने वाली फुसफुसाहटें गूंजती रहती हैं। अनेक अफवाहों का भी जन्म होता है और इनके बार-बार दोहराए जाने से ये सच का भ्रम भी पैदा करती हैं। झूठ के कई चेहरे होते हैं और सच हमेशा नंगा होता है। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने झूठे प्रचार को नई ऊंचाई देने का प्रयास किया था। भारत के कुछ नेता गोएबल्स को अपना आदर्श मानते हैं। इन फुसफुसाहटों ने एक खतरनाक सवाल को जन्म दिया है कि क्या हिंदुस्तानी दर्शक अब धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा? किसी दल के अखबार में कुछ इस आशय की बात है कि करण जौहर कश्मीर विस्थापितों पर ‘माय नेम इज कौल’ क्यों नहीं बनाते? निवेदन है कि फिल्मकार अशोक पंडित कश्मीर से विस्थापित पंडितों पर फिल्म बना चुके हैं और इस मानवीय त्रासदी पर अनेक फिल्में बनाई जा सकती हैं और बनाई जानी चाहिए। जो लोग कश्मीरी पंडित विस्थापितों से सहानुभूति रखते हैं, वे इस समस्या पर बनी फिल्म देखने नहीं गए। असल मुद्दा यह है कि किसी फिल्मकार को क्या बनाना चाहिए, इसके लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता। विषय का चयन व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है। ‘माय नेम इज कौल’ भी बनना चाहिए, परंतु ‘माय नेम इज खान’ पर एतराज नहीं उठाया जा सकता और फिल्मों पर किसी किस्म के फतवे या एतराज जायज नहीं हैं। फिल्म देखे बिना, केवल नाम के कारण अफवाह उड़ाना गहरे पैठी हुई अर्थहीन नफरत और पूर्वग्रह ही प्रदर्शित करती है। वर्ष 2000 में सात जनवरी को आमिर अभिनीत ‘मेला’, 14 जनवरी को नवागंतुक ऋतिक रोशन की ‘कहो न प्यार है’ और 21 जनवरी को शाहरुख की ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ प्रदर्शित हुई थी। केवल ऋतिक की फिल्म सफल रही क्योंकि दोनों खान फिल्में दर्शक को ऊबाऊ लगीं, परंतु फुसफुसाहटों के नाग लहराए और प्रचारित किया गया कि खान किले में हिंदू सितारे की सेंध। यह अत्यंत भ्रामक प्रचार था। राज कपूर और दिलीप कुमार की भी प्रतिद्वंद्विता रही, परंतु उस दौर में इसे हिंदू बनाम मुस्लिम सितारा युद्ध नहीं माना गया और इस तरह की सोच ही उस सहिष्णु समाज में मौजूद नहीं थी। आज की खंडित सोच समाज की सतह पर परिवर्तन का झाग है, समाज के तल में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य जस के तस कायम हैं। अतिवादी शक्तियां चाहे किसी भी धर्म की हों, एक-दूसरे की सहायक और पूरक हैं क्योंकि उनके निजी स्वार्थ समान हैं। फिल्म उद्योग और फिल्म दर्शक हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहे हैं क्योंकि मुस्कान और आंसू का कोई धर्म नहीं होता। ‘हिंदू राज कपूर’ के सृजन के संबल रहे हैं ख्वाजा अहमद अब्बास, नरगिस और ध्वनि निर्देशक अलाउद्दीन खान और मुसलमान मेहबूब खान की ‘मदर इंडिया’ के लेखक गुजराती हिंदू रहे हैं, कारदार और कौल मित्र रहे हैं। सलीम खान का परिवार धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी मिसाल है, जिसमें सभी धर्मो के तीज-त्यौहार उत्साह से मनाए जाते हैं। सलमान का चैरिटी फाउंडेशन धर्म देखकर मरीज की मदद नहीं करता। आमिर खान ने अपने हिंदू सचिव के इलाज पर लाखों रुपए खर्च किए हैं। भारतीय फिल्मों के सबसे अधिक लोकप्रिय भजन मुसलमान शायरों ने लिखे हैं, मुसलमान संगीतकार और गायकों ने गाए हैं। दरअसल इस उद्योग में प्रतिभा ही असली ईमान है। ‘मुसलमान दिलीप कुमार’ ने अपनी पहली निर्माण की हुई फिल्म ‘गंगा-जमुना’ भोजपुरी भाषा में बनाई है और शकील ने लिखा है, ‘मनवा मां कसक होइबे’। सभी धर्मां को मानने वाले दर्शक सिनेमाघर में घुसते ही मनोरंजन मजहब के कायल हो जाते हैं और उनकी जुबान भी आंसू और मुस्कान ही होती है। दर्शक का व्यवहार घर, सड़क, संसद में अलग-अलग होता है परंतु सिनेमा में उसे चाहिए दिल को छूने वाली बात।‘मुसलमान शाहरुख’ और ‘हिंदू करण जौहर’ अंतरंग मित्र व साझेदार हैं और उन्होंने साझेदारी में बनाई है ‘माय नेम इज खान’, जो मूलत: महज प्रेम कहानी है। नायक अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलकर कहना चाहता है कि आतंकवाद मजहब का मसला नहीं है। ज्ञातव्य है कि आधुनिक आतंकवाद का जन्म अमेरिका द्वारा इजराइल की स्थापना से हुआ है।
दर्शक पर किसी प्रचार और प्रोपेगंडा का असर नहीं होता, क्योंकि उसका दिल है हिंदुस्तानी।
(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,दिल्ली,29.1.10)
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