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Sunday, December 18, 2011

गुणी संगीतकार हैं गुमनामी के साये में

इधर एआर रहमान, प्रीतम, विशाल शेखर, सलीम-सुलेमान, हिमेश रेशमिया साजिद-वाजिद, शंकर-एहशान-लॉय आदि के इस दौर में राम लक्ष्मण, आनंद-मिलिंद, रवींद्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, उत्तम सिंह, दिलीप सेन समीर सेन, उषा खन्ना, कुलदीप सिंह, इस्माइल दरबार, जतिन-ललित आदि कई संगीतकारों की याद अकसर शिद्दत से आती है क्योंकि इनमें से ज्यादातर संगीतकार एकदम शांत नहीं बैठे हैं। आनंद-मिलिंद से लेकर बुजुर्ग संगीतकार कुलदीप सिंह तक बराबर सक्रिय हैं। इसे जरा भी तुलनात्मक न लें। इधर जिस तरह से चालू संगीत का बोलबाला है, फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर को यदि न भी याद करे तो भी इसके बाद के दौर के इन संगीतकारों को याद करना लाजिमी हैं। इनका नाम कई हिट फिल्मों के संगीत के साथ जुड़ा हुआ है। प्रसिद्ध संगीत समीक्षक हरीश तिवारी कहते हैं, ‘चूंकि इनका संगीत कर्णप्रियता के स्वर्णिम दौर की याद ताजा कर देता है, इसलिए भी संगीत रसिकों की उपेक्षा बहुत परेशान कर देती है। 

मुझ जैसे संगीत-प्रेमी अकसर फिल्म निर्माताओं के सामने सिर्फ एक सवाल रखते है कि सुरीलेपन के इस घोर संकटकाल में क्या इन गुणी संगीतकारों को एक बार भी इन्हें मौका देने का ख्याल नहीं आता है। रवींद्र जैन, उत्तम सिंह, उषा खन्ना जैसे गुणी लोग तो अब भी बहुत कमाल कर सकते हैं। ये लगातार अच्छा काम भी कर रहे हैं पर न के बराबर सामने आ पा रहा है।’ इसे और अच्छी तरह से समझने के लिए हमें ‘97 की ‘दिल तो पागल है’, 2001 की ‘गदर’, 2006 की विवाह के संगीत की थोड़ी चर्चा करनी पड़ेगी। पहली दो फिल्मों के संगीतकार उत्तम सिंह की श्रेष्ठता के बारे में नये सिरे से कोई चर्चा अनर्गल है। दु:ख की बात तो यह है कि यशराज जैसे बड़े बैनर ने भी उन्हें फिर मौका देने की जेहमत नहीं की। विवाह के संगीतकार रवींद्र जैन का दुखी स्वर होता है, ‘किसी तरह का आक्षेप लगाना हम कलाकारों का काम नहीं है। हम तो फिल्म संगीत में सिर्फ बेहतर काम करना चाहते है।’ 

सिर्फ विवाह ही नहीं, ढेरों हिट फिल्मों के संगीत में रवींद्र जैन की कर्णप्रियता ने आज भी श्रोताओं को मुग्ध कर रखा है। साठ के ऊपर के हो चुके रवींद्र जैन को उनके करीबी दद्दो कह कर संबोधित करते हैं। राजकपूर से लेकर ताराचंद बडज़ात्या तक सभी उनके सुरीलेपन के मुरीद थे, मगर आज के फिल्मकारों को उनका ख्याल नहीं काम के लिए वे युवा संगीतकारों की तरह किसी निर्माता की लल्लो-चप्पो करें, यह बहुत अपमानजनक लगता है। कुछ इसी वजह से उषा खन्ना भी वर्षों से कहीं गुम हैं। महान गायक मोहम्मद रफी पर एक किताब लिख चुके धीरेंद जैन बताते हैं, ‘सिर्फ दिल देके देखों, हवस, साजन बिना सुहागन ही नहीं उषा जी ने कई फिल्मों में बेहद धुनें पेश की हैं। मगर इस शोर-शराबे के संगीत के बीच में वह कहीं गुम हो गयीं।’ 

संगीतकार आनंद-मिलिंद इन दिनों भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए मजबूर हैं। आनंद कहते हैं, ‘हम फिल्मकारों की इस बेरूखी का मतलब जरा भी समझ नहीं पाये हैं। शायद हमारा यह अवगुण हो कि हम किसी गुटबाजी में शामिल नहीं। वरना किसी बड़े बैनर में हमारी भी कद्र्र होती। पर कोई यह समझ नहीं पा रहा है कि इस तरह की बातें हमारे संगीत को कितना नुकसान पहुंचा चुकी हैं।’ एन. चंद्र्रा की एक फिल्म अंकुश के एक प्रार्थना गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो, का उदाहरण देना ही काफी होगा। यह प्रार्थना गीत देश के कई प्रदेशों में जमकर बजता है, फिर भी उनके पास काम का अभाव है। कुलदीप सिंह की बात जाने दें, किसी समय के चर्चित संगीतकार बप्पी लाहिड़ी आज सिर्फ पेज थ्री की पार्टी की शोभा बने रहते हैं। जबकि संगीत प्रेमी कई ऐसी फिल्मों का नाम गिना सकते हैं जिनमें खय्याम कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हमारे दौर में ऐसी राजनीति नहीं होती थी। आज के संगीतकार अच्छा काम करने की बजाय ज्यादा-से-ज्यादा काम हथियाने की कोशिश करते है। अच्छे सृजन के लिए इनसे बचना बहुत जरूरी है। मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूं मेलोडी के जानकार ज्यादा से ज्यादा आयें(गोपा चक्रवर्ती,दैनिक ट्रिब्यून,11.12.11)।’

Friday, December 16, 2011

आमिर-किरण का बच्चा "मां तुझे सलाम" किसे कहेगा?

यह खबर अब जगजाहिर है कि अभिनेता आमिर खान अपनी दूसरी पत्नी किरन राव के साथ एक पुत्र के पिता बन गए हैं। यह शिशु उन्हें अपनी पत्नी के गर्भ और प्रजनन से नहीं, सरोगेट मदर कहलाने वाली औरत के जरिए मिला है। कृत्रिम गर्भाधान का चलन अब प्रचलित है क्योंकि वैज्ञानिक तकनीक ने ऐसी तमाम प्राकृतिक खामियों को फतह कर लिया है, जिनसे धनाढ्य तबका किसी अभाव का शिकार हो जाता हो। इसलिए "किराया भरो और संतान पाओ" का नारा अपने जोर-शोर पर दिखाई और सुनाई देता है। आमिर खान की खुशियां मोहर-अशर्फियों की तरह लुटीं और तब स्वास्थ्य मंत्रालय का ध्यान इस ओर गया कि इस कारोबार को कानूनी जामा पहनाने की जरूरत है। ईमानदारी और पारदर्शिता बनी रहे यह आवश्यकता है। गर्भाशय किराए पर देने वाली महिला को भी राहत मिलेगी। 

स्त्री के लिए यह कैसी राहत और कैसी मोहलत है? यहां दृश्य में दो औरतें आती हैं, एक जो पूंजी से लवरेज आदमी के साथ पत्नी के रूप में है, दूसरी जो रोटी-कपड़े से मोहताज है और बेचने के लिए अपना शरीर ही है, उसका जो भी अंग बिक पाए। ये दोनों औरतें उसी समाज का हिस्सा हैं जो मर्यादा, नैतिकता और स्त्री की पवित्रता के पक्ष में जमकर ढोल-नगाड़े बजाता है, जो पतिव्रत को स्त्री का धर्म बताता है, जो असूर्यपश्या पत्नी की हिमायत करता है, जो लड़कियों के बदन पर छोटे कपड़े देखकर तुनक उठता है, जो औरत के हंसने-बोलने तक पर पहरे लगाने की फिराक में रहता है। 

 "स्त्री का मां बनना जरूरी है, यह किसने कहा? औरत मां बनकर ही पूर्ण होती है, यह सिद्धांत कहां से आया? जो बच्चा पैदा नहीं कर सकती, वह बांझ के नाम से जानी जाती है, यह लांछन किसने लगाया? जो सिर्फ बेटियां पैदा करती है, वह वंश का नाश करती है, यह परिभाषा किसने गढ़ी? गौर कीजिए और देखिए कि ये सारे दोष औरत के सिर हैं। पाइए कि संतान न देने पर स्त्री को कमतर होने का अहसास ज्यादा होता है और सोचिए कि आखिर यह अहसास क्यों होता है? इसलिए कि यह अहसास एक जहरीला इंजेक्शन है, जिसे नजरों और वाक्यों से औरत के रग-रेशों में उतारा जाता है और अनकही शर्त लागू की जाती है कि पत्नी होकर माता न बनना पत्नी पद को खो देने का बड़ा खतरा है या कि बिना मां बने औरत का जीवन असुरक्षा से भरा रहता है। 

यही कारण है कि गरीब औरत अगर बांझ है तो बांझ रहने के लिए अभिशप्त है। मगर जिसके पास या जिसके पुरुष के पास धन है तो वह किसी मजबूर औरत को खरीद सकती है। बिना यह सोचे कि मातृत्व का ऊपरी जामा तैयार करने के लिए यहां दो औरतों का अपमान बराबर-बराबर हो रहा है। बिना यह समझे कि यह सरोगेट मदर का सारा झमेला एक पुरुष के वंशानुक्रम को बढ़ाने के लिए है और जो पत्नी है, पति के सामने अपने आप को मां के रूप में सिद्ध करना चाहती है। कभी यह सोचा है कि जिसने आपको प्रेमिका बनाम पत्नी स्वीकार किया है, वह आपको मां क्यों बनाना चाहता है? या आप भी मां की भूमिका के बिना क्यों जीवन निर्वाह नहीं कर सकतीं? 

हो सकता है, मां की आदरणीय और पूजनीय छवि प्रभावित करती हो। मगर सरोगेट मदर का शिशु किसका है? जो गर्भधारण करते हुए उसे जन्मे देती है, उसका या जो किसी का गर्भाशय खरीद लेती है, उसका? यह बच्चा किसे "मां तुझे सलाम" कहेगा? उसे जिसके नाम पैसों के दम पर बर्खास्तगी लिखी गई या उसे जिसने अपनी दौलत के आधार पर किसी के शरीर को खरीद लिया? 

अगर बच्चे की इतनी चाह थी तो हमारे देश में अनाथालयों की कमी नहीं है और न गोद लेने पर पाबंदी। मगर अमीर लोगों की हठें भी तो अमीर होती हैं, जिनसे वे अपने आपको वीर्यवान बनाए रखने की जिद निभाए जाते हैं। उनको यह सौभाग्य इसलिए हासिल है कि वे फटेहाल नागरिकों के लोकतांत्रिक देश के सर्वोत्तम अमीरों में आते हैं। इसलिए ही वे जन सामान्य के बीच अपनी नेक नाइंसाफियों के साथ देवताओं की तरह पुजते भी हैं। राजनेत्रियों की जमात इस कारोबार पर अपनी राय क्यों नहीं देती? अगर सवाल उठाइए तो तुरंत देवकी और यशोदा जैसी माताओं की मिसालें पेश कर दी जाएंगी कि पैदा किसी ने किए कृष्ण को और पाले किसी ने। मगर यहां संतान की खरीदार माताएं देवकी और यशोदा के वजूदों पर नहीं जातीं बल्कि वे अपने पति को पिता बनने का सर्टीफिकेट थमाकर ही जीवन सफल मानती हैं। 

 "एक गरीब औरत को आर्थिक मदद मिलती है" यह फतवा बड़े दयापूर्ण तरीके से पेश किया जाता है मगर साथ ही यह शंका भी कि किराए की कोख वाली महिला रुपए के लेन-देन में गड़बड़ न करे, विवाद न पैदा कर दे। इन दोनों बातों से जाहिर है कि यहां मदद या हमदर्दी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यहां तो सिर्फ अपनी पूंजी का दम और मरदाने अहंकार का बोलबाला है। साथ ही जो पत्नी है, औरत के रूप में वह बहुत बड़ी हीनग्रंथि की शिकार है। नहीं तो सुष्मिता सेन विश्वसुंदरी को क्यों किसी सरोगेट मदर की जरूरत नहीं पड़ी? उसने अविवाहित रहकर एक के बाद एक दो बच्चियों को गोद लिया। यों आमिर खान निस्संतान भी नहीं थे, पहले से ही जवान होता बेटा उनके सामने है। बेटी है। मगर इस शिशु के आने से उन्होंने एक नया एलान और कर दिया, जिससे दुनिया जान गई कि अबुल कलाम आजाद उनके चचेरे ग्रेट ग्रैंड फादर थे, जिनके नाम पर उन्होंने अपने शिशु बेटे का नाम आजाद रखा है। यह आजाद किस आजादी का वाइज बना, हमें यह समझना बाकी है। 

समाज का साधारण आदमी उन लोगों का किया-धरा गौर से देखता है जिनके नाम होते हैं। फिल्म तो लोगों को प्रभावित करने का सबसे ज्यादा ताकतवर माध्यम है। माना कि इस माध्यम से जुड़े लोग भी मनुष्य हैं, उनकी हजार कमजोरियां हो सकती हैं। मगर सरोगेट मदर के इस्तेमाल का मामला कमजोरी में नहीं, साजिश में आएगा। अभाव और कंगाली की मारी हुई औरतों के प्रति अमीर लोगों की साजिश। एक पुरुष की दो औरतों के प्रति साजिश। साजिश कने के लिए ज़रूरी होता है कि अच्छे से अच्छे भ्रम पैदा किये जाएं क्योंकि भ्रम ही मजलूम को बाज़ार में खड़ा करता है। अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए थोड़ी देर को बाजार सौदेबाजी का मालिक बन जाता है और अपनी कीमत पर चकाचौंध होने लगता है। कोख बेचने वाली औरत समझ नहीं पाती कि अब वह दलालों के बीच है। उधर पैसे से खेलने वाले लोग उसके जाए बच्चे से खेलते हुए अखबारों में अपने मातृत्व और पितृत्व की खबर छपवाएंगे। यह कैसा संदेश है? किसके लिए संदेश है? यही कि मानव अंगो का व्यापार पैसे वालों को जीवनदान दे रहा है। कहते हैं,गरीब से गरीब आदमी भी अपना बच्चा किसी को नहीं देता। मगर गरीब को जब इतना भूखा मारा जाए कि वह अपना ही गोश्त खाने लगे तो फिर खून बिकता है,किडनी बिकती है और अब कोख बिकने लगी। रोटी कपड़े के बदले सब कुछ दांव पर लग जाता है-तथाकथित धनवान सौभाग्यशालियों की कृपा से......(मैत्रेयी पुष्पा,नई दुनिया,16.12.11)

Monday, December 5, 2011

देवानंद की कहानी,नीरज की ज़ुबानी

सुबह सोकर उठा भी नहीं था कि मेरे मित्र मंजीत ने पुणे से फोन पर खबर दी। अवाक रह गया। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि देव साहब इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे। वह चिर युवा थे। ..जोशीले इंसान। उनका न होना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। अब मुझे फिल्म इंडस्ट्री में याद करने वाला कोई न रहा। उनके निधन से पूरी इंडस्ट्री सूनी हो गई है। छठे दशक की बात है। तब देव साहब मुंबई में रम-जम चुके थे और मैं नया-नवेला कवि। मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई मुंबई (1955-56) में कवि सम्मेलन के दौरान। देव साहब इस समारोह के मुख्य अतिथि थे। मेरे गीत उन्हें भा गए। जाते हुए मेरे पास रुके और बोले..नीरज, आइ लाइक यू। आइ वांट टू वर्क विद यू। मैं घर लौट आया। मैंने सोचा था कि वे मेरा नाम भी भूल गए होंगे। करीब 10 साल बाद 1965 में मुझे उनका एक खत मिला। फौरन मुंबई बुलाया था। वो फिल्म प्रेम पुजारी बनाने जा रहे थे। एसडी बर्मन भी उनके साथ थे। देव साहब का आदेश मिला..हमें नई फिल्म के लिए गाने चाहिए। छोटे-छोटे वाक्यों में सुख हो। पीड़ा भी झलके। रंगीलापन भी हो..। मैंने वहीं पर गाना लिखा..रंगीला रे..तेरे रंग में यूं रंगा है मेरा मन.. ये लाइनें उन्हें बहुत पसंद आई। यहां देव साहब से नाता जुड़ा तो 45 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला। तेरे मेरे सपने, गैंबलर, छुपा रुस्तम जैसी कई फिल्में साथ कीं। देव साहब ने अभी चार्जशीट बनाई तो उसमें भी एक गाना इश्क भी तू..ईमान भी तू.. मुझसे ही लिखवाया। ये मेरी और उनकी आखिरी फिल्म थी। वह वचन के पक्के, सज्जन, स्पष्टवादी और नियम-संयम का पालन करने वाले थे। नए कलाकारों को भरपूर मान-सम्मान देने वाले इंडस्ट्री में अकेले शख्स। लोग एक दिन में रिश्ते भुला देते हैं, वे 10 साल पहले का वादा नहीं भूले। जिस वक्त उनकी फिल्में नहीं चल रही थीं, मैंने उनसे पूछा कि ऐसे में आप फिल्में बनाते ही क्यों हैं? उन्होंने कहा, मैं फिल्में सिर्फ पैसा कमाने के लिए नहीं बनाता। फिल्म बनती हैं तो भारत में भले नहीं चलतीं, विदेशों में इतना कारोबार तो हो ही जाता है कि प्रोडक्शन यूनिट का खाना-खर्चा चल जाता है। एक देव साहब ही थे, जो मुझसे गीत लिखवा लेते थे। उनके बहाने इंडस्ट्री के दूसरे कलाकारों से जुड़ाव है। वे नए लोगों के लिए सच्चे मार्गदर्शक थे। शत्रुघ्न सिन्हा, जैकी श्रॉफ, जीनत अमान, टीना मुनीम..तमाम लोगों को मौका देने वाले वही थे। मेरी तो बस यही प्रार्थना है कि देव साहब के साथ ही मेरा अगला जन्म हो। फिर प्रेमभाव से साथ रहें, जिएं। कुछ काम करें(दैनिक जागरण,दिल्ली,5.12.11)।

Friday, December 2, 2011

सिल्क स्मिता, विद्या बालन और मर्लिन मुनरो

आज मिलन लूथरिया की द डर्टी पिक्चर का प्रदर्शन है, जिसमें छोटे बजट की साहसी जंगली जवानी समान फिल्मों की नायिका की व्यथा-कथा है और मुंबई में मधुर भंडारकर की करीना कपूर अभिनीत Rहीरोइनञ्ज की शूटिंग शुरू हो रही है, जिसमें एक भव्य बजट वाली तथाकथित तौर पर शालीन फिल्मों की नायिका की कथा प्रस्तुत की जा रही है। 

डर्टी पिक्चर सिल्क स्मिता के जीवन से प्रेरित है तो खबर है कि मधुर की प्रेरणा मर्लिन मुनरो हैं। सिल्क स्मिता और मर्लिन मुनरो दोनों ने ही आत्महत्या की थी और कुछ लोगों को संदेह रहा है कि ये राजनीतिक हत्याएं हैं। कुछ लोग अमेरिका में यह मानते रहे हैं कि मर्लिन मुनरो की अंतरंगता जॉन एफ. कैनेडी और उनके भाई से भी थी। ज्ञातव्य है कि अपनी मृत्यु के पूर्व मर्लिन जॉन कैनेडी के जन्मदिन पर आयोजित समारोह में कार्यक्रम प्रस्तुत करने आई थीं और इस घटना पर भी हॉलीवुड में फिल्म बन रही है। 

जहां तक महिला सितारों के शरीर प्रदर्शन की बात है तो भव्य बजट की तथाकथित तौर पर शालीन फिल्मों और छोटे बजट की तथाकथित अश्लील फिल्मों में समान रूप से अंग प्रदर्शन होता है, क्योंकि इसमें ब्रांड का मामला फंसा हुआ है। सच तो यह है कि भव्य फिल्मों में नायिकाएं ज्यादा शरीर प्रदर्शन करती हैं। 

आखिर विगत कुछ वर्षो में करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ, बिपाशा बासु, दीपिका पादुकोण इत्यादि को किस तरह प्रस्तुत किया गया है? इन खूब मेहनताना पाने वाली नायिकाओं ने आइटम प्रस्तुत करने वाली तारिकाओं के पेट पर लात मार दी है। करीना के छम्मक छल्लो और मलाइका के ‘मुन्नी बदनाम हुई’ में क्या अंतर है और बिपाशा का बीड़ी जलई ले कैसे भूल सकते हैं? दरअसल चमड़ी दिखाकर सभी दमड़ी कमा रहे हैं और अंतर केवल लेबल का है। सभी फिल्मों में मांसलता की लहर प्रवाहित है। सदियों पूर्व एक सनकी बादशाह ने सोने और तांबे के बदले चमड़े के सिक्के चलाए थे। उसने आज के दौर का पूर्वानुमान कर लिया था। 

फिल्मों में मांसलता के दौर के साथ ही हमें समाज में खुलेपन के दौर को देखना चाहिए। क्या आज के मध्यम वर्ग की महिला दो दशक पूर्व के मध्यम वर्ग की महिला की तरह कपड़े पहनती है? नाभिदर्शना साड़ियां बांधने का तरीका समाज से शुरू होकर फिल्मों में आया है। इसी तरह महिलाओं की शराबनोशी भी शीतल पेय में मिलाकर पीने से खुलेआम पीने तक जा पहुंची है और जो चीज समाज में कभी मात्र पुरुषोचित मानी जाती थी, वह अब समान रूप से जारी है। दरअसल समाज और सिनेमा में परिवर्तन तीव्र गति से हो रहे हैं। गुजरे हुए को हमेशा स्वर्ण युग मानने की फॉमरूलाई सोच से हमें बचना चाहिए। पहले हम जिन चीजों को घर में कालीन के नीचे छिपाकर उनके अस्तित्व को नकारते थे, अब हम उन्हें बुहारकर चौराहे पर ले आते हैं। 

यह समाजशास्त्री बता सकते हैं कि समाज में खुलेपन की लहर का काले धन और भ्रष्टाचार से क्या संबंध है। जो लोग हमारी असमान अन्यायपूर्ण सरकारों की दोषपूर्ण नीतियों के कारण रातोंरात अमीर हो गए, उन लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को खर्च के लिए अधिक धन दिया। यह धन फैशन पर खर्च हुआ और छद्म आधुनिकता के मोह ने नकली जीवन प्रणाली विकसित की, जबकि असली आधुनिकता सोचने का एक दृष्टिकोण है। इसी धन ने बाजार और विज्ञापन की ताकतों को मजबूत किया। बाजार और विज्ञापन की दुनिया में नारी शरीर एक वस्तु है। 

दकियानूसी सेंसर के प्राणहीन नियमों ने अश्लीलता के लिए संकरी गलियां बनाईं। आदिम असंयमित इच्छाओं की पूर्ति ने उस बाजार को ताकत दी, जो सदियों से जारी रहा है। बदनाम गलियों में बसे मकानों में भी श्रेणी भेद रहा है। ऊंचे कोठे रहे हैं और परचून की दुकान भी रही है, जिसका एक दूसरा स्वरूप हम Rबीञ्ज ग्रेड फिल्मों की नायिकाओं और भव्य बजट की नायिकाओं में देखते हैं। सिल्क स्मिता और मर्लिन मुनरो को उनकी छवियों ने लील लिया। 

मनोरंजन उद्योग में टाइप्ड होने का खतरनाक खेल है। लोकप्रिय किरदार दोहराए जाते हैं और कलाकार का दम घुट जाता है। अफवाहों के लिए उर्वर जमीन बन जाती है। मनोरंजन उद्योग से ज्यादा अफवाहें राजनीतिक गलियारों में फैलती हैं। साहसी यथार्थवादी साहित्य रचने वाली महिला साहित्यकारों को भी बहुत कुछ सुनना व सहना पड़ता है। पुरुष अपनी कमतरी से जन्मी कुंठाओं को अनेक तरह से अभिव्यक्त करता है। अब विद्या बालन के लिए दुर्गम राह है। उन्हें पारंपरिक भूमिकाएं मिलना कठिन हो सकता है और टाइप कास्टिंग उन्हें सिल्क स्मिता की यंत्रणा जीने के लिए बाध्य कर सकती है। कभी-कभी लोकप्रिय भूमिकाएं कलाकार के अंतस में प्रवेश कर जाती हैं। भूमिकाओं का केंचुल उतार फेंकना आसान नहीं होता। जगाते-जगाते इच्छाएं जगाने वाले को भी डस लेती हैं(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,2.12.11)।