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Sunday, December 18, 2011

गुणी संगीतकार हैं गुमनामी के साये में

इधर एआर रहमान, प्रीतम, विशाल शेखर, सलीम-सुलेमान, हिमेश रेशमिया साजिद-वाजिद, शंकर-एहशान-लॉय आदि के इस दौर में राम लक्ष्मण, आनंद-मिलिंद, रवींद्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, उत्तम सिंह, दिलीप सेन समीर सेन, उषा खन्ना, कुलदीप सिंह, इस्माइल दरबार, जतिन-ललित आदि कई संगीतकारों की याद अकसर शिद्दत से आती है क्योंकि इनमें से ज्यादातर संगीतकार एकदम शांत नहीं बैठे हैं। आनंद-मिलिंद से लेकर बुजुर्ग संगीतकार कुलदीप सिंह तक बराबर सक्रिय हैं। इसे जरा भी तुलनात्मक न लें। इधर जिस तरह से चालू संगीत का बोलबाला है, फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर को यदि न भी याद करे तो भी इसके बाद के दौर के इन संगीतकारों को याद करना लाजिमी हैं। इनका नाम कई हिट फिल्मों के संगीत के साथ जुड़ा हुआ है। प्रसिद्ध संगीत समीक्षक हरीश तिवारी कहते हैं, ‘चूंकि इनका संगीत कर्णप्रियता के स्वर्णिम दौर की याद ताजा कर देता है, इसलिए भी संगीत रसिकों की उपेक्षा बहुत परेशान कर देती है। 

मुझ जैसे संगीत-प्रेमी अकसर फिल्म निर्माताओं के सामने सिर्फ एक सवाल रखते है कि सुरीलेपन के इस घोर संकटकाल में क्या इन गुणी संगीतकारों को एक बार भी इन्हें मौका देने का ख्याल नहीं आता है। रवींद्र जैन, उत्तम सिंह, उषा खन्ना जैसे गुणी लोग तो अब भी बहुत कमाल कर सकते हैं। ये लगातार अच्छा काम भी कर रहे हैं पर न के बराबर सामने आ पा रहा है।’ इसे और अच्छी तरह से समझने के लिए हमें ‘97 की ‘दिल तो पागल है’, 2001 की ‘गदर’, 2006 की विवाह के संगीत की थोड़ी चर्चा करनी पड़ेगी। पहली दो फिल्मों के संगीतकार उत्तम सिंह की श्रेष्ठता के बारे में नये सिरे से कोई चर्चा अनर्गल है। दु:ख की बात तो यह है कि यशराज जैसे बड़े बैनर ने भी उन्हें फिर मौका देने की जेहमत नहीं की। विवाह के संगीतकार रवींद्र जैन का दुखी स्वर होता है, ‘किसी तरह का आक्षेप लगाना हम कलाकारों का काम नहीं है। हम तो फिल्म संगीत में सिर्फ बेहतर काम करना चाहते है।’ 

सिर्फ विवाह ही नहीं, ढेरों हिट फिल्मों के संगीत में रवींद्र जैन की कर्णप्रियता ने आज भी श्रोताओं को मुग्ध कर रखा है। साठ के ऊपर के हो चुके रवींद्र जैन को उनके करीबी दद्दो कह कर संबोधित करते हैं। राजकपूर से लेकर ताराचंद बडज़ात्या तक सभी उनके सुरीलेपन के मुरीद थे, मगर आज के फिल्मकारों को उनका ख्याल नहीं काम के लिए वे युवा संगीतकारों की तरह किसी निर्माता की लल्लो-चप्पो करें, यह बहुत अपमानजनक लगता है। कुछ इसी वजह से उषा खन्ना भी वर्षों से कहीं गुम हैं। महान गायक मोहम्मद रफी पर एक किताब लिख चुके धीरेंद जैन बताते हैं, ‘सिर्फ दिल देके देखों, हवस, साजन बिना सुहागन ही नहीं उषा जी ने कई फिल्मों में बेहद धुनें पेश की हैं। मगर इस शोर-शराबे के संगीत के बीच में वह कहीं गुम हो गयीं।’ 

संगीतकार आनंद-मिलिंद इन दिनों भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए मजबूर हैं। आनंद कहते हैं, ‘हम फिल्मकारों की इस बेरूखी का मतलब जरा भी समझ नहीं पाये हैं। शायद हमारा यह अवगुण हो कि हम किसी गुटबाजी में शामिल नहीं। वरना किसी बड़े बैनर में हमारी भी कद्र्र होती। पर कोई यह समझ नहीं पा रहा है कि इस तरह की बातें हमारे संगीत को कितना नुकसान पहुंचा चुकी हैं।’ एन. चंद्र्रा की एक फिल्म अंकुश के एक प्रार्थना गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो, का उदाहरण देना ही काफी होगा। यह प्रार्थना गीत देश के कई प्रदेशों में जमकर बजता है, फिर भी उनके पास काम का अभाव है। कुलदीप सिंह की बात जाने दें, किसी समय के चर्चित संगीतकार बप्पी लाहिड़ी आज सिर्फ पेज थ्री की पार्टी की शोभा बने रहते हैं। जबकि संगीत प्रेमी कई ऐसी फिल्मों का नाम गिना सकते हैं जिनमें खय्याम कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हमारे दौर में ऐसी राजनीति नहीं होती थी। आज के संगीतकार अच्छा काम करने की बजाय ज्यादा-से-ज्यादा काम हथियाने की कोशिश करते है। अच्छे सृजन के लिए इनसे बचना बहुत जरूरी है। मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूं मेलोडी के जानकार ज्यादा से ज्यादा आयें(गोपा चक्रवर्ती,दैनिक ट्रिब्यून,11.12.11)।’

Friday, December 16, 2011

आमिर-किरण का बच्चा "मां तुझे सलाम" किसे कहेगा?

यह खबर अब जगजाहिर है कि अभिनेता आमिर खान अपनी दूसरी पत्नी किरन राव के साथ एक पुत्र के पिता बन गए हैं। यह शिशु उन्हें अपनी पत्नी के गर्भ और प्रजनन से नहीं, सरोगेट मदर कहलाने वाली औरत के जरिए मिला है। कृत्रिम गर्भाधान का चलन अब प्रचलित है क्योंकि वैज्ञानिक तकनीक ने ऐसी तमाम प्राकृतिक खामियों को फतह कर लिया है, जिनसे धनाढ्य तबका किसी अभाव का शिकार हो जाता हो। इसलिए "किराया भरो और संतान पाओ" का नारा अपने जोर-शोर पर दिखाई और सुनाई देता है। आमिर खान की खुशियां मोहर-अशर्फियों की तरह लुटीं और तब स्वास्थ्य मंत्रालय का ध्यान इस ओर गया कि इस कारोबार को कानूनी जामा पहनाने की जरूरत है। ईमानदारी और पारदर्शिता बनी रहे यह आवश्यकता है। गर्भाशय किराए पर देने वाली महिला को भी राहत मिलेगी। 

स्त्री के लिए यह कैसी राहत और कैसी मोहलत है? यहां दृश्य में दो औरतें आती हैं, एक जो पूंजी से लवरेज आदमी के साथ पत्नी के रूप में है, दूसरी जो रोटी-कपड़े से मोहताज है और बेचने के लिए अपना शरीर ही है, उसका जो भी अंग बिक पाए। ये दोनों औरतें उसी समाज का हिस्सा हैं जो मर्यादा, नैतिकता और स्त्री की पवित्रता के पक्ष में जमकर ढोल-नगाड़े बजाता है, जो पतिव्रत को स्त्री का धर्म बताता है, जो असूर्यपश्या पत्नी की हिमायत करता है, जो लड़कियों के बदन पर छोटे कपड़े देखकर तुनक उठता है, जो औरत के हंसने-बोलने तक पर पहरे लगाने की फिराक में रहता है। 

 "स्त्री का मां बनना जरूरी है, यह किसने कहा? औरत मां बनकर ही पूर्ण होती है, यह सिद्धांत कहां से आया? जो बच्चा पैदा नहीं कर सकती, वह बांझ के नाम से जानी जाती है, यह लांछन किसने लगाया? जो सिर्फ बेटियां पैदा करती है, वह वंश का नाश करती है, यह परिभाषा किसने गढ़ी? गौर कीजिए और देखिए कि ये सारे दोष औरत के सिर हैं। पाइए कि संतान न देने पर स्त्री को कमतर होने का अहसास ज्यादा होता है और सोचिए कि आखिर यह अहसास क्यों होता है? इसलिए कि यह अहसास एक जहरीला इंजेक्शन है, जिसे नजरों और वाक्यों से औरत के रग-रेशों में उतारा जाता है और अनकही शर्त लागू की जाती है कि पत्नी होकर माता न बनना पत्नी पद को खो देने का बड़ा खतरा है या कि बिना मां बने औरत का जीवन असुरक्षा से भरा रहता है। 

यही कारण है कि गरीब औरत अगर बांझ है तो बांझ रहने के लिए अभिशप्त है। मगर जिसके पास या जिसके पुरुष के पास धन है तो वह किसी मजबूर औरत को खरीद सकती है। बिना यह सोचे कि मातृत्व का ऊपरी जामा तैयार करने के लिए यहां दो औरतों का अपमान बराबर-बराबर हो रहा है। बिना यह समझे कि यह सरोगेट मदर का सारा झमेला एक पुरुष के वंशानुक्रम को बढ़ाने के लिए है और जो पत्नी है, पति के सामने अपने आप को मां के रूप में सिद्ध करना चाहती है। कभी यह सोचा है कि जिसने आपको प्रेमिका बनाम पत्नी स्वीकार किया है, वह आपको मां क्यों बनाना चाहता है? या आप भी मां की भूमिका के बिना क्यों जीवन निर्वाह नहीं कर सकतीं? 

हो सकता है, मां की आदरणीय और पूजनीय छवि प्रभावित करती हो। मगर सरोगेट मदर का शिशु किसका है? जो गर्भधारण करते हुए उसे जन्मे देती है, उसका या जो किसी का गर्भाशय खरीद लेती है, उसका? यह बच्चा किसे "मां तुझे सलाम" कहेगा? उसे जिसके नाम पैसों के दम पर बर्खास्तगी लिखी गई या उसे जिसने अपनी दौलत के आधार पर किसी के शरीर को खरीद लिया? 

अगर बच्चे की इतनी चाह थी तो हमारे देश में अनाथालयों की कमी नहीं है और न गोद लेने पर पाबंदी। मगर अमीर लोगों की हठें भी तो अमीर होती हैं, जिनसे वे अपने आपको वीर्यवान बनाए रखने की जिद निभाए जाते हैं। उनको यह सौभाग्य इसलिए हासिल है कि वे फटेहाल नागरिकों के लोकतांत्रिक देश के सर्वोत्तम अमीरों में आते हैं। इसलिए ही वे जन सामान्य के बीच अपनी नेक नाइंसाफियों के साथ देवताओं की तरह पुजते भी हैं। राजनेत्रियों की जमात इस कारोबार पर अपनी राय क्यों नहीं देती? अगर सवाल उठाइए तो तुरंत देवकी और यशोदा जैसी माताओं की मिसालें पेश कर दी जाएंगी कि पैदा किसी ने किए कृष्ण को और पाले किसी ने। मगर यहां संतान की खरीदार माताएं देवकी और यशोदा के वजूदों पर नहीं जातीं बल्कि वे अपने पति को पिता बनने का सर्टीफिकेट थमाकर ही जीवन सफल मानती हैं। 

 "एक गरीब औरत को आर्थिक मदद मिलती है" यह फतवा बड़े दयापूर्ण तरीके से पेश किया जाता है मगर साथ ही यह शंका भी कि किराए की कोख वाली महिला रुपए के लेन-देन में गड़बड़ न करे, विवाद न पैदा कर दे। इन दोनों बातों से जाहिर है कि यहां मदद या हमदर्दी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यहां तो सिर्फ अपनी पूंजी का दम और मरदाने अहंकार का बोलबाला है। साथ ही जो पत्नी है, औरत के रूप में वह बहुत बड़ी हीनग्रंथि की शिकार है। नहीं तो सुष्मिता सेन विश्वसुंदरी को क्यों किसी सरोगेट मदर की जरूरत नहीं पड़ी? उसने अविवाहित रहकर एक के बाद एक दो बच्चियों को गोद लिया। यों आमिर खान निस्संतान भी नहीं थे, पहले से ही जवान होता बेटा उनके सामने है। बेटी है। मगर इस शिशु के आने से उन्होंने एक नया एलान और कर दिया, जिससे दुनिया जान गई कि अबुल कलाम आजाद उनके चचेरे ग्रेट ग्रैंड फादर थे, जिनके नाम पर उन्होंने अपने शिशु बेटे का नाम आजाद रखा है। यह आजाद किस आजादी का वाइज बना, हमें यह समझना बाकी है। 

समाज का साधारण आदमी उन लोगों का किया-धरा गौर से देखता है जिनके नाम होते हैं। फिल्म तो लोगों को प्रभावित करने का सबसे ज्यादा ताकतवर माध्यम है। माना कि इस माध्यम से जुड़े लोग भी मनुष्य हैं, उनकी हजार कमजोरियां हो सकती हैं। मगर सरोगेट मदर के इस्तेमाल का मामला कमजोरी में नहीं, साजिश में आएगा। अभाव और कंगाली की मारी हुई औरतों के प्रति अमीर लोगों की साजिश। एक पुरुष की दो औरतों के प्रति साजिश। साजिश कने के लिए ज़रूरी होता है कि अच्छे से अच्छे भ्रम पैदा किये जाएं क्योंकि भ्रम ही मजलूम को बाज़ार में खड़ा करता है। अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए थोड़ी देर को बाजार सौदेबाजी का मालिक बन जाता है और अपनी कीमत पर चकाचौंध होने लगता है। कोख बेचने वाली औरत समझ नहीं पाती कि अब वह दलालों के बीच है। उधर पैसे से खेलने वाले लोग उसके जाए बच्चे से खेलते हुए अखबारों में अपने मातृत्व और पितृत्व की खबर छपवाएंगे। यह कैसा संदेश है? किसके लिए संदेश है? यही कि मानव अंगो का व्यापार पैसे वालों को जीवनदान दे रहा है। कहते हैं,गरीब से गरीब आदमी भी अपना बच्चा किसी को नहीं देता। मगर गरीब को जब इतना भूखा मारा जाए कि वह अपना ही गोश्त खाने लगे तो फिर खून बिकता है,किडनी बिकती है और अब कोख बिकने लगी। रोटी कपड़े के बदले सब कुछ दांव पर लग जाता है-तथाकथित धनवान सौभाग्यशालियों की कृपा से......(मैत्रेयी पुष्पा,नई दुनिया,16.12.11)

Monday, December 5, 2011

देवानंद की कहानी,नीरज की ज़ुबानी

सुबह सोकर उठा भी नहीं था कि मेरे मित्र मंजीत ने पुणे से फोन पर खबर दी। अवाक रह गया। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि देव साहब इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे। वह चिर युवा थे। ..जोशीले इंसान। उनका न होना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। अब मुझे फिल्म इंडस्ट्री में याद करने वाला कोई न रहा। उनके निधन से पूरी इंडस्ट्री सूनी हो गई है। छठे दशक की बात है। तब देव साहब मुंबई में रम-जम चुके थे और मैं नया-नवेला कवि। मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई मुंबई (1955-56) में कवि सम्मेलन के दौरान। देव साहब इस समारोह के मुख्य अतिथि थे। मेरे गीत उन्हें भा गए। जाते हुए मेरे पास रुके और बोले..नीरज, आइ लाइक यू। आइ वांट टू वर्क विद यू। मैं घर लौट आया। मैंने सोचा था कि वे मेरा नाम भी भूल गए होंगे। करीब 10 साल बाद 1965 में मुझे उनका एक खत मिला। फौरन मुंबई बुलाया था। वो फिल्म प्रेम पुजारी बनाने जा रहे थे। एसडी बर्मन भी उनके साथ थे। देव साहब का आदेश मिला..हमें नई फिल्म के लिए गाने चाहिए। छोटे-छोटे वाक्यों में सुख हो। पीड़ा भी झलके। रंगीलापन भी हो..। मैंने वहीं पर गाना लिखा..रंगीला रे..तेरे रंग में यूं रंगा है मेरा मन.. ये लाइनें उन्हें बहुत पसंद आई। यहां देव साहब से नाता जुड़ा तो 45 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला। तेरे मेरे सपने, गैंबलर, छुपा रुस्तम जैसी कई फिल्में साथ कीं। देव साहब ने अभी चार्जशीट बनाई तो उसमें भी एक गाना इश्क भी तू..ईमान भी तू.. मुझसे ही लिखवाया। ये मेरी और उनकी आखिरी फिल्म थी। वह वचन के पक्के, सज्जन, स्पष्टवादी और नियम-संयम का पालन करने वाले थे। नए कलाकारों को भरपूर मान-सम्मान देने वाले इंडस्ट्री में अकेले शख्स। लोग एक दिन में रिश्ते भुला देते हैं, वे 10 साल पहले का वादा नहीं भूले। जिस वक्त उनकी फिल्में नहीं चल रही थीं, मैंने उनसे पूछा कि ऐसे में आप फिल्में बनाते ही क्यों हैं? उन्होंने कहा, मैं फिल्में सिर्फ पैसा कमाने के लिए नहीं बनाता। फिल्म बनती हैं तो भारत में भले नहीं चलतीं, विदेशों में इतना कारोबार तो हो ही जाता है कि प्रोडक्शन यूनिट का खाना-खर्चा चल जाता है। एक देव साहब ही थे, जो मुझसे गीत लिखवा लेते थे। उनके बहाने इंडस्ट्री के दूसरे कलाकारों से जुड़ाव है। वे नए लोगों के लिए सच्चे मार्गदर्शक थे। शत्रुघ्न सिन्हा, जैकी श्रॉफ, जीनत अमान, टीना मुनीम..तमाम लोगों को मौका देने वाले वही थे। मेरी तो बस यही प्रार्थना है कि देव साहब के साथ ही मेरा अगला जन्म हो। फिर प्रेमभाव से साथ रहें, जिएं। कुछ काम करें(दैनिक जागरण,दिल्ली,5.12.11)।

Friday, December 2, 2011

सिल्क स्मिता, विद्या बालन और मर्लिन मुनरो

आज मिलन लूथरिया की द डर्टी पिक्चर का प्रदर्शन है, जिसमें छोटे बजट की साहसी जंगली जवानी समान फिल्मों की नायिका की व्यथा-कथा है और मुंबई में मधुर भंडारकर की करीना कपूर अभिनीत Rहीरोइनञ्ज की शूटिंग शुरू हो रही है, जिसमें एक भव्य बजट वाली तथाकथित तौर पर शालीन फिल्मों की नायिका की कथा प्रस्तुत की जा रही है। 

डर्टी पिक्चर सिल्क स्मिता के जीवन से प्रेरित है तो खबर है कि मधुर की प्रेरणा मर्लिन मुनरो हैं। सिल्क स्मिता और मर्लिन मुनरो दोनों ने ही आत्महत्या की थी और कुछ लोगों को संदेह रहा है कि ये राजनीतिक हत्याएं हैं। कुछ लोग अमेरिका में यह मानते रहे हैं कि मर्लिन मुनरो की अंतरंगता जॉन एफ. कैनेडी और उनके भाई से भी थी। ज्ञातव्य है कि अपनी मृत्यु के पूर्व मर्लिन जॉन कैनेडी के जन्मदिन पर आयोजित समारोह में कार्यक्रम प्रस्तुत करने आई थीं और इस घटना पर भी हॉलीवुड में फिल्म बन रही है। 

जहां तक महिला सितारों के शरीर प्रदर्शन की बात है तो भव्य बजट की तथाकथित तौर पर शालीन फिल्मों और छोटे बजट की तथाकथित अश्लील फिल्मों में समान रूप से अंग प्रदर्शन होता है, क्योंकि इसमें ब्रांड का मामला फंसा हुआ है। सच तो यह है कि भव्य फिल्मों में नायिकाएं ज्यादा शरीर प्रदर्शन करती हैं। 

आखिर विगत कुछ वर्षो में करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ, बिपाशा बासु, दीपिका पादुकोण इत्यादि को किस तरह प्रस्तुत किया गया है? इन खूब मेहनताना पाने वाली नायिकाओं ने आइटम प्रस्तुत करने वाली तारिकाओं के पेट पर लात मार दी है। करीना के छम्मक छल्लो और मलाइका के ‘मुन्नी बदनाम हुई’ में क्या अंतर है और बिपाशा का बीड़ी जलई ले कैसे भूल सकते हैं? दरअसल चमड़ी दिखाकर सभी दमड़ी कमा रहे हैं और अंतर केवल लेबल का है। सभी फिल्मों में मांसलता की लहर प्रवाहित है। सदियों पूर्व एक सनकी बादशाह ने सोने और तांबे के बदले चमड़े के सिक्के चलाए थे। उसने आज के दौर का पूर्वानुमान कर लिया था। 

फिल्मों में मांसलता के दौर के साथ ही हमें समाज में खुलेपन के दौर को देखना चाहिए। क्या आज के मध्यम वर्ग की महिला दो दशक पूर्व के मध्यम वर्ग की महिला की तरह कपड़े पहनती है? नाभिदर्शना साड़ियां बांधने का तरीका समाज से शुरू होकर फिल्मों में आया है। इसी तरह महिलाओं की शराबनोशी भी शीतल पेय में मिलाकर पीने से खुलेआम पीने तक जा पहुंची है और जो चीज समाज में कभी मात्र पुरुषोचित मानी जाती थी, वह अब समान रूप से जारी है। दरअसल समाज और सिनेमा में परिवर्तन तीव्र गति से हो रहे हैं। गुजरे हुए को हमेशा स्वर्ण युग मानने की फॉमरूलाई सोच से हमें बचना चाहिए। पहले हम जिन चीजों को घर में कालीन के नीचे छिपाकर उनके अस्तित्व को नकारते थे, अब हम उन्हें बुहारकर चौराहे पर ले आते हैं। 

यह समाजशास्त्री बता सकते हैं कि समाज में खुलेपन की लहर का काले धन और भ्रष्टाचार से क्या संबंध है। जो लोग हमारी असमान अन्यायपूर्ण सरकारों की दोषपूर्ण नीतियों के कारण रातोंरात अमीर हो गए, उन लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को खर्च के लिए अधिक धन दिया। यह धन फैशन पर खर्च हुआ और छद्म आधुनिकता के मोह ने नकली जीवन प्रणाली विकसित की, जबकि असली आधुनिकता सोचने का एक दृष्टिकोण है। इसी धन ने बाजार और विज्ञापन की ताकतों को मजबूत किया। बाजार और विज्ञापन की दुनिया में नारी शरीर एक वस्तु है। 

दकियानूसी सेंसर के प्राणहीन नियमों ने अश्लीलता के लिए संकरी गलियां बनाईं। आदिम असंयमित इच्छाओं की पूर्ति ने उस बाजार को ताकत दी, जो सदियों से जारी रहा है। बदनाम गलियों में बसे मकानों में भी श्रेणी भेद रहा है। ऊंचे कोठे रहे हैं और परचून की दुकान भी रही है, जिसका एक दूसरा स्वरूप हम Rबीञ्ज ग्रेड फिल्मों की नायिकाओं और भव्य बजट की नायिकाओं में देखते हैं। सिल्क स्मिता और मर्लिन मुनरो को उनकी छवियों ने लील लिया। 

मनोरंजन उद्योग में टाइप्ड होने का खतरनाक खेल है। लोकप्रिय किरदार दोहराए जाते हैं और कलाकार का दम घुट जाता है। अफवाहों के लिए उर्वर जमीन बन जाती है। मनोरंजन उद्योग से ज्यादा अफवाहें राजनीतिक गलियारों में फैलती हैं। साहसी यथार्थवादी साहित्य रचने वाली महिला साहित्यकारों को भी बहुत कुछ सुनना व सहना पड़ता है। पुरुष अपनी कमतरी से जन्मी कुंठाओं को अनेक तरह से अभिव्यक्त करता है। अब विद्या बालन के लिए दुर्गम राह है। उन्हें पारंपरिक भूमिकाएं मिलना कठिन हो सकता है और टाइप कास्टिंग उन्हें सिल्क स्मिता की यंत्रणा जीने के लिए बाध्य कर सकती है। कभी-कभी लोकप्रिय भूमिकाएं कलाकार के अंतस में प्रवेश कर जाती हैं। भूमिकाओं का केंचुल उतार फेंकना आसान नहीं होता। जगाते-जगाते इच्छाएं जगाने वाले को भी डस लेती हैं(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,2.12.11)।

Thursday, September 22, 2011

कन्नड़ अभिनेत्री निकिता पर प्रतिबंधःहमेशा महिला ही क्यों होती है दोषी?

कन्नड़ फिल्म जगत कुछ गलत कारणों से विगत कुछ दिनों से सुर्खियों में है, लेकिन अब लग रहा है कि इसका पटाक्षेप हो रहा है। दरअसल, कन्नड़ फिल्मों के निर्माता संघ ने अभिनेत्री निकिता ठुकराल पर जो तीन साल का प्रतिबंध लगाया था, उसे वापस ले लिया गया है। कन्नड़ फिल्म उद्योग की नामी-गिरामी शख्सियतों द्वारा एवं कला-संस्कृति जगत के अन्य लोगों ने भी निर्माता संघ द्वारा पे्रमसंबंधों को लेकर लगाए इस खाप शैली के प्रतिबंध का विरोध किया। अपने बयान में संगठन के अध्यक्ष ने कहा कि हम लोगों का यह कदम मूर्खतापूर्ण था और हम लोगों ने इस मामले में निर्णय लेने में भी जल्दबाजी की। 

अभिनेत्री निकिता पर यह आरोप लगाया गया था कि अभिनेता टी. दर्शन के साथ प्रेमप्रसंग के चलते उनका अपनी पत्नी विजयलक्ष्मी के साथ वैवाहिक जीवन बरबाद हो गया। इस कारण निर्माता संघ ने पारिवारिक मूल्यों की हिफाजत के लिए यह कदम उठाया था। हालांकि दर्शन और विजयालक्ष्मी के वैवाहिक जीवन में बढ़ते तनाव की खबरें बहुत पहले से चल रही थीं। दर्शन द्वारा विजयालक्ष्मी के साथ की जा रही हिंसा की खबरें भी मिल रही थीं, मगर मामला विस्फोटक स्थिति तक तब पहुंचा, जब अपने पति के हाथों बुरी तरह प्रताडि़त विजयालक्ष्मी ने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करा दी। 

मामले की गंभीरता को देखते हुए पुलिस ने अभिनेता को गिरफ्तार किया एवं विजयालक्ष्मी को अस्पताल में भर्ती किया गया। कई फिल्म निर्माताओं ने विजयालक्ष्मी पर परिवार को बचाने के लिए दबाव डाला। इसी दबाव में आकर विजयालक्ष्मी ने अपनी शिकायत वापस ले ली थी। विडंबना यही थी कि अपनी पत्नी को जलती सिगरेट से दागने के आरोपी दर्शन का साथ देने में फिल्म निर्माताओं को कोई संकोच नहीं हुआ। यह घटना इस बात को उजागर करती है कि कोई व्यक्ति चाहे जिस तबके का हो घरेलू हिंसा की समाज में आज भी स्वीकार्यता है। भले ही इसे रोकने के लिए तमाम कानून बने हों। 

यह सब सामाजिक जीवन में स्त्री के बुनियादी अधिकार और उसके संदर्भ में समाज के उन धारणाओं को ही बताता है जिसमें परिवार के सम्मान को बचाने को वरीयता दी जाती है। अगर हम कर्नाटक राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन सी. मंजुला की बात पर गौर करें तो वर्ष 2010 में घरेलू हिंसा से रक्षा के लिए बने अधिनियम 2005 के तहत नियुक्त प्रोटेक्शन ऑफिसर्स के पास 2005 मामले दर्ज हुए थे, जिनमें अन्य कानूनों के तहत दर्ज मामलों का उल्लेख नहीं किया गया था। वैसे कन्नड फिल्म निर्माता संघ को इस बार भले ही चार दिनों में ही अपनी मूर्खता का अहसास हुआ हो मगर उस पर हावी पितृसत्तात्मक मूल्यों का यह कोई पहला मसला नहीं है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब कन्नड़ अभिनेत्री रम्या ने निर्माताओं के गठजोड़ के खिलाफ जोरदार संघर्ष किया, क्योंकि इन्होंने उसे ठीक से पैसे देने से इंकार किया था और यहां तक कि उसे जज्बाती एवं गैर-पेशेवर कहकर संबोधित किया था। रम्या इन धमकियों एवं गलत प्रचारों से डरी नहीं और उसने सोशल मीडिया के सहारे अपनी आवाज बुलंद की। इससे ऐसा वातावरण बना कि निर्माताओं को रम्या को पूरा मेहनताना देना पड़ा। 

अगर हम दर्शन-विजयालक्ष्मी-निकिता प्रसंग पर फिर लौटें तो मामला यह नहीं था कि बेचारी निकिता कितनी निर्दोष है, क्योंकि यदि प्रेमप्रसंग चल रहा होगा तो उसकी भी सहमति रही होगी। उसने भी दर्शन पर दो महिलाओं के साथ समानांतर रिश्ते चलाने के मसले को एजेंडा नहीं बनाया और खुद विजयालक्ष्मी को देखें जो समाज के दबाव में मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान से पलट जाती हैं तथा अपने पति का बचाव करते हुए कहती हैं कि वह बाथरूम में गिरने से घायल हुई हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि पत्नियां अक्सर ऐसे समझौते करती हैं, जिसके दूसरे तमाम गलत कारण होते हैं। इसमें अपने परिवार को बचाना भी एक बड़ी वजह होती है। यह उनकी अपनी पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं व सोच का मामला भी होता है, जिसके तहत सारा ध्यान दूसरी औरत पर टिका रहता है। इसके चंगुल में बेचारा पति फंस गया होता है। 

अक्सर पति निरीह प्राणी बनने का खेल खेलने की कोशिश करते हैं, जो उनके बचाव का एक बड़ा हथियार भी होता है। वह प्रेमिका के सामने ऐसे दुखड़े रोते हैं कि वह पत्नी से बहुत परेशान है। इस कारण वह अपने पत्नी को छोड़कर प्रेमिका के साथ रहने का तर्क गढ़ते हैं और इस बहाने प्रेमिका को राजी करते हैं। प्रेमिकाएं भी ऐसी ही किसी घड़ी का इंतजार करती हैं कि वह पहली वाली को छोड़ कर उसके पास हमेशा के लिए चला आएगा, जो शायद कभी नहीं आता। समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग जगह तय है, जो सामाजिक न्याय की प्रक्रिया में एकदम भौंडे रूप में उभरकर सामने आता है। हाल में अमरोहा के एक गांव में एक युवती को उसी समुदाय के कुछ युवकों ने अपनी हवस का शिकार बनाया, लेकिन समुदाय की इज्जत के नाम पर मामला थाने में दर्ज नहीं होने दिया गया। न्याय के नाम पर पंचायत बैठाई गई और युवती के साथ होने वाली हिंसा के लिए फैसला सुनाया गया कि आरोपी युवकों को सार्वजनिक तौर पर दो-दो थप्पड़ लगाया जाए। 

इटारसी जिले के केसला थाने के गांव मोरपानी की ग्राम पंचायत की मीटिंग का यह किस्सा भी काबिलेगौर है, जिसका ताल्लुक विजय शुक्ला नामक व्यक्ति के अवैध प्रेमसंबंध से था। पंचायत के सामने विजय शुक्ला की पत्नी ने गुहार लगाई जिस पर पंचों को फैसला करना था। पंचायत बैठी और फैसला भी हुआ। पंच परमेश्वरों के फैसले के तहत पत्नी ने अपने पति की प्रेमिका की सरेआम पिटाई की। फिर इकट्ठी हुई भीड़ ने भी उस महिला की पिटाई की और उसे गांव में घुमाया गया। दरअसल, विजय पहले से शादीशुदा था और वह मोरपानी अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए आया था। तभी ग्रामवासियों ने उसकी अच्छी पिटाई कर दी। इसके बाद ही पंचायत बैठी और पत्नी के द्वारा महिला की पिटाई का निर्देश पारित हुआ। 

यहां प्रश्न यह उठता है कि पत्नी के प्रति वफादारी निभाने की जिम्मेदारी किसकी थी? यदि पत्नी के साथ धोखा उसके पति ने किया है, क्योंकि उसका रिश्ता पहले वाले पति से है तो उसे पहले पिटाई अपने पति की करनी चाहिए थी। हालांकि गांव वालों ने पति की पिटाई की, लेकिन जब पंचायत ने समझ-बूझकर निर्णय दिया तो दोषी पति को नहीं, बल्कि उस महिला को माना गया, जिससे पति ने विवाहेतर रिश्ता बनाया था। आखिरकार दोषी एक महिला ही मानी गई। हालांकि उस पत्नी के वैवाहिक रिश्ते में धोखा हुआ, जिसे विवाहेतर संबंधों के बारे में पता ही नहीं था। इसके अलावा वह दूसरी औरत भी निर्दोष नहीं थी, क्योंकि उसे भी पता था कि वह पुरुष दूसरे रिश्ते में है और वह समानांतर रिश्ता बना रहा है। इस तरह अप्रत्यक्ष तौर पर वह भी उस धोखाघड़ी में शामिल है, लेकिन जहां तक उस पत्नी महिला का सवाल है, उसके पति ने सीधे धोखाधड़ी की(अंजलि सिन्हा,दैनिक जागरण,22.9.11)।

Monday, September 19, 2011

फ़िल्में पैसे से नहीं,जुनून से बनती हैं

१९७६ में मैंने एक फिल्म निर्माता-निर्देशक का इंटरव्यू लिया था जो उन दिनों करीब ४३-४४ बरस के थे । सौभाग्य की बात है कि इन्हीं दिनों मुझे एक बार फिर उसी व्यक्ति से बातचीत का अवसर मिला । उन दिनों इस शख्स ने पहली फिल्म बनाई थी - "घरौंदा", जिसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी - जरीना वहाब, अमोल पालेकर तथा डॉ. श्रीराम लागू ने । इस फिल्म ने रातो-रात इस निर्माता-निर्देशक को श्रेष्ठ फिल्म निर्माताओं की पंक्ति में ला खड़ा किया था । फिल्म निर्माता का नाम था - भीमसैन । "घरौंदा" ऐसी फिल्म थी जिसे आम दर्शक ने ही नहीं, बुद्धिजीवियों ने भी सराहा था । मुझे याद है, एक विशेष प्रदर्शन में धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती भी पधारे थे और उन्होंने "ऐसी जीवंत" फिल्म बनाने के लिए मेरे सामने ही भीमसैन की पीठ थपथपाई थी । इस फिल्म की सफलता के दो-तीन कारण मुख्य थे - एक गुलजार के लिखे - "तुम्हें हो न हो, मुझको तो इतना यकीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है" या "दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में" या "मैं हस्दयां यार गंवाया, हौक्यां विच लब्दी फिरां," जैसे गाने, दूसरे, भीमसैन का यौवनोचित उत्साह, तीसरे, मुंबई में उन दिनों सिर पर छत के लिए तरसते लोगों और बिल्डरों की नादिरशाही के प्रति जनसाधारण का रोष जो कि इस फिल्म का मुख्य विषय था । भीमसैन ने यूं दो और फिल्में बनाई थीं - "दूरियां", जिसमें उत्तम कुमार और शर्मीला टैगोर जैसे कलाकार थे और तीसरी फिल्म "तुम लौट आओ"। 

"दूरियां" डॉक्टर शंकर शेष के नाटक पर और "तुम लौट आओ" मृदुला गर्ग की कहानी "मेरा" पर आधारित थीं । "दूरियां" कुछ खास सफल नहीं रही और "तुम लौट आओ" में नए कलाकारों - कविता चौधरी और निशांत को लेने के कारण वह लगभग फेल ही हो गई थी । "तुम लौट आओ" की शूटिंग दिल्ली में हुई थी और मैं रात-दिन इस यूनिट के साथ रहा था । कविता चौधरी हमारे गरीबखाने पर ही रहती थी, हालांकि फिल्म निर्माण का मेरा ज्ञान न के बराबर था लेकिन जिस दुलमुल तरीके से निशांत काम करता था, मुझे लगने लगा था कि यह शख्स फिल्म को ले डूबेगा । फिल्म तो डूबी ही, निशांत स्वयं डूब गया - सुना कि किसी मोटर वर्कशॉप में काम करने लंदन चला गया। कविता चौधरी अच्छी अदाकारा थी । 

उसकी एक्टिंग देखकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के तत्कालीन निदेशक बज्जू भाई इतने प्रभावित हुए थे कि कविता के मुख को दोनों हाथों में लेकर उन्होंने कहा था - "हमारी मीना कुमारी !" बहरहाल, "घरौंदा" १९७६ में, "दूरियां" १९७९ में और "तुम लौट आओ" १९८४ में बनी थी । आज इतने बरस बीत गए हैं, भीमसैन ने कोई फिल्म नहीं बनाई । यों कहें कि इस शख्स ने पूरी तरह से फिल्म निर्माण से हाथ खींच लिया । सो, मुझे उत्सुकता थी कि मैं उससे पूछूं कि किस कारण उन्होंने पलायन किया इसलिए पिछले दिनों मैंने उनसे टेलीफोन पर बात की । मैंने छूटते ही पूछा, "भीमसैन जी, यह क्या? इतनी अच्छी फिल्में देकर हाथ खींचकर बैठे हैं। ऐसी क्या बात हो गई ? भीमसैन ने हंसते हुए कहा, (वैसे, आजकल वह बहुत कम हंसते हैं) "ऐसी कोई बात नहीं । असल में, आजकल फिल्म बनाना बहुत ज्यादा मुश्किल हो गया है । "घरौंदा" बनाने के लिए मैं चार लाख लेकर बैठा था । कुल खर्च आया था आठ लाख यानी दुगुना। कोई तकलीफ नहीं हुई । बाकी पैसा मार्केट से मिल गया था । "दूरियां" करीब दस लाख में बनाई थी - अपने पैसे से और मन माफिक । किसी की दखलंदाजी नहीं । मैं दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता । (मुझे याद है, "दूरियां" के सेट पर मैंने एक सुझाव दिया था । भीमसैन ने मुझे झिड़ककर बैठा दिया था ।) आजकल आप चार करोड़ या १० करोड़ में भी फिल्म नहीं बना सकते ? 

असल में, उन दिनों फिल्में न्यारी होती थीं, लोग भी न्यारे थे। मैं एक नजर सारे वातावरण पर डालता हूं तो लगने लगता है, कैसे-कैसे लोग चले गए, कैसे-कैसे लोग आ गए हैं! कहां गए वे लोग जिन्होंने "मदर इंडिया" जैसी फिल्म बनाई थी ! उन्हें तो छोड़िए, गुलजार ने जैसी "हूतूतू" बनाई थी, क्या आज के थैलीशाह वैसी फिल्म बनाने की जोखिम ले सकते हैं? मुझे लगता है, गुलजार साहब ने भी फिल्म-निर्माण से संन्यास ले लिया है ।" मैंने कहा, "फिल्मों में लोग पैसा बनाने आते हैं, बहाने नहीं ।" "आप ठीक कहते हैं । पैसा कमाना बुरी बात है यह कौन कहता है लेकिन लालच बढ़ गया है । एक्टर-एक्ट्रेसेज करोड़ों की फरमाइश करते हैं ।" "तभी मांगते हैं, जब जानते हैं कि फिल्म उनके नाम से चलती है ।

" वह बोले, "आज की फिल्मों में आइटम नंबर डालना बहुत जरूरी समझा जाता है । दर्शक लटकों-झटकों वाली भौंडी आइटम खूब पसंद करते हैं । यह देखिए कि ढाई-तीन करोड़ में फकत एक आइटम बनती है । फिर फिल्म को कामयाब बनाने के लिए मसाले डालने पड़ते हैं । मेरे पास इतना पैसा होता तो मैं फिल्म बनाता लेकिन उसमें इस प्रकार के किसी मसाले की छौंक न लगाता ।" "आजकल कोई ऐसी फिल्म नहीं आ रही, जिसे देखने के लिए हम जैसे लोगों में उत्सुकता हो ? क्या कारण है ?" मैंने पूछा । "यहां मैं एक बात कहूं । टीवी ने फिल्म इंडस्ट्री की शक्ल ही बदलकर रख दी है । पहले जो लोग उससे परहेज करते थे, वही लोग उधर भाग रहे हैं । जैसा ग्लैमर टीवी सीरियल्स में है, वैसा पहले नहीं था। अब दर्शक अधिक संख्या में टीवी से ही संतुष्ट हैं । टिकट के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती । आज आप नई-पुरानी फिल्में घर बैठे देख सकते हैं ।" "फिल्म इंडस्ट्री में डूब जाने वालों की संख्या कम नहीं है । फिर भी धड़ाधड़ फिल्में बन रही हैं !" "सही । उनका पैसा वापस नहीं आता, फिर भी बन रही हैं ।" "यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास हुआ !" "लोगों का के्रज है, जुनून है इसलिए फिल्में बनती हैं । फिल्में पैसे से नहीं बनतीं, जुनून से बनती हैं ।" 

 "अब एक-दो निजी सवाल । आप फिल्म नहीं बनाते । आप एनीमेशन कला में ढेरों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। मझे याद है"एक चिड़िया,अनेक चिड़ियां" के बोल बच्चे वैसे ही गुनगुनाते हैं जैसे गुलजार के "चड्ढी पहन के फूल खिला है।" आपने इस क्षेत्र से भी हाथ खींच लिया है। आखिर,खाली तो बैठे नहीं रहते होंगे!"(द्रोणवीर कोहली का यह आलेख संडे नई दुनिया,18 सितम्बर,2011 में प्रकाशित हुआ है)।

Tuesday, September 13, 2011

अभिज्ञात के भोजपुरी गीत पर प्रतिभा सिंह का आइटम सांग

गायिका-प्रतिभा सिंह, भोजपुरी एलबम-मेहरारू ना पइब, गीत-केश बा हमरो, गीतकार-ड़ॉ.अभिज्ञात, कम्पनी-स्काई

Tuesday, August 9, 2011

आरक्षण से खौफ़ज़दा हमारे नेता

दुनिया में शायद भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहां कुछ राजनेता कभी किसी फिल्म से डर जाते हैं तो कभी किसी नाटक के मंचन से। कभी कोई किताब या किसी चित्रकार का बनाया कोई चित्र उन्हें लोगों की भावनाएं आहत करने वाला लगता है तो कभी कोई गीत या कविता उन्हें आपत्तिजनक लगती है। फिलहाल कुछ राजनेता प्रकाश झा जैसे जिम्मेदार फिल्मकार की फिल्म "आरक्षण" से डरे हुए नजर आ रहे हैं। सबसे ज्यादा भयभीत उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार है और उसने तय किया है कि इस फिल्म को रिलीज होने से पहले उसकी बनाई एक कमेटी के सदस्य देखेंगे और वे ही फैसला करेंगे कि फिल्म को प्रदेश के सिनेमाघरों में दिखाए जाने की अनुमति दी जाए या नहीं। उधर महाराष्ट्र के लोकनिर्माण मंत्री छगन भुजबल और दलित नेता रामदास अठावले ने भी इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में बैठे कुछ राजनेताओं ने भी इस फिल्म को देखे बगैर ही फतवा दे दिया है कि यह दलित विरोधी फिल्म है। इसी तरह का विरोध कुछ दिनों पहले रिलीज हुई फिल्म "खाप" को लेकर भी हो रहा है, जो "ऑनर किलिंग" जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी है। फिल्मों में क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं, यह तय करने के लिए हमारे यहां सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था है, जो अपना काम लगभग पूरी संजीदगी के साथ करती आ रही है। ऐसे में राजनेताओं को यह अधिकार देश के किस कानून ने दे दिया है कि वे यह तय करने लग जाएं कि कौन सी फिल्म प्रदर्शन के लायक है और कौन सी नहीं या फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं? अगर ऐसे अराजक सेंसर से ही यह सब कुछ तय होने लगेगा तो फिर सेंसर बोर्ड का औचित्य ही क्या रह जाएगा? बहरहाल पैसे के लेन-देन को लेकर एक विवाद के चलते मद्रास हाई कोर्ट ने १२ अगस्त को होने वाली "आरक्षण" की रिलीज पर रोक लगा दी है। लेकिन यह एक अलग मुद्दा है। सवाल उठता है कि जो राजनेता इन फिल्मों का विरोध कर रहे हैं क्या उन्होंने फिल्मों के बारे में कोई अकादमिक प्रशिक्षण ले रखा है या वे देश की जाति व्यवस्था और जातिवाद की समस्या को गहराई से जानते और समझते हैं? दरअसल, अपने घर की गंदगी को कालीन या चटाई के नीचे छिपा देने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में काफी हद तक व्याप्त है। उसे साफ करने को लेकर हमारे मन में झिझक है या उसके उजागर होने में एक तरह का अपराध बोध होता है। यही झिझक और अपराध बोध कभी किसी फिल्म, किसी नाटक, किसी किताब या किसी कलाकृति के विरोध के रूप में उजागर होता रहता है(संपादकीय,नई दुनिया,दिल्ली,9.8.11)। 6 अगस्त के नवभारत टाइम्स का संपादकीय भी कहता है कि हमारे राजनेता फिल्मों से डरते हैं। अक्सर वे किसी किताब या नाटक के मंचन से भी डर जाते हैं। उनका ताजा डर प्रकाश झा की फिल्म 'आरक्षण' को लेकर है। महाराष्ट्र के लोकनिर्माण मंत्री छगन भुजबल और आरपीआई के अध्यक्ष रामदास अठावले ने इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म 'खाप' का भी विरोध हो रहा है। इसे खाप की राजनीति से जुड़े नेता हवा दे रहे हैं। एक जमाने में 'आंधी' फिल्म पर इसलिए पाबंदी लगा दी गई थी, क्योंकि उसमें सुचित्रा सेन के चरित्र में कुछ लोगों को इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दे रही थी। और 'शूल' फिल्म का बिहार में प्रदर्शन तभी हुआ, जब आरजेडी के एक नेता ने उसे इजाजत दी। इसी तरह का विरोध अक्सर कुछ किताबों या नाटकों के मंचन के मामलों में भी नजर आता है। इस विरोध के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? एक कारण तो यह है कि पिछले कुछ समय से कंट्रोवर्सी और विरोध पब्लिसिटी का सबसे अच्छा तरीका साबित हो रहा है। आप खुद कुछ नहीं कर रहे हैं, पर यदि कहीं कुछ हो रहा है तो उसका विरोध कर आप खुद भी रोशनी में आ जाते हैं। या आप कुछ कर रहे हैं, मगर उसे कोई देख नहीं रहा, तो भी कंट्रोवर्सी आपको दूसरों की नजर में ला देती है। इसीलिए कंट्रोवर्सी आज की पीआर एजेंसियों का सबसे भरोसेमंद हथियार है। लेकिन राजनीतिज्ञों के मामले में इसका एक कारण उनके भीतर बसा असुरक्षा बोध भी होता है। हमारे अनेक राजनीतिज्ञ भयानक रूप से असुरक्षा बोध से ग्रस्त हैं। असल में वे अपनी निष्ठा या वैचारिक समझ के कारण जनता के बीच नहीं टिके होते, बल्कि एक सम्मोहन के कारण होते हैं, जो वे अपनी लफ्फाजी से पैदा करते हैं। वे जनता को भ्रमित कर उसे अपना अनुयायी या समर्थक बनाए रखना चाहते हैं। इसलिए जैसे ही कोई ऐसी ताकतवर चीज आती है, जो जनता की आंखें खोल सकती है, तो वे डर जाते हैं और किसी न किसी बहाने उसका विरोध शुरू कर देते हैं। वे नहीं चाहते कि लोग किसी मुद्दे पर दूसरे ढंग से भी सोचें। किताबें, फिल्में या थिएटर उन्हें दूसरे ढंग से सोचने का रास्ता दिखा देते हैं।

Saturday, August 6, 2011

गढ़वाली फिल्मों के निर्माण को बढ़े कदम

शिव आराधना स्टुडियोज एवं उज्जवल फिल्मस मुंबई जल्द ही उत्तराखंडी फिल्मों का निर्माण शुरू करेगा। इसके लिए 25 अगस्त से राज्य के प्रत्येक जिले में कलाकारों का टेस्ट लिया जाएगा। शुक्रवार को गांधी रोड स्थित एक होटल में आयोजित पत्रकार वार्ता में शिव आराधना स्टुडियोज के अजय मधवाल ने बताया कि तमिल फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करने के बाद उन्होंने उत्तराखंडी फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाए हैं। उज्जवल फिल्मस के उज्वल राणा भी टेलीविजन धारावाहिकों व बॉलीवुड फिल्मों के निर्माण व निर्देशन से जुड़े हैं। उन्होंने बताया कि क्षेत्रीय भाषा की फिल्म निर्माण के लिए प्रदेश के जाने-माने गीतकार व संगीतकारों ने अपनी सहमति जतायी है। फिलहाल उन्होंने फिल्म से जुड़े अन्य पहलुओं का खुलासा करने से इनकार कर दिया है। अभी फिल्म की स्टार कास्ट व अन्य चीजें तय नहीं की गई हैं। गौरतलब है कि उज्जवल राणा मूलता टिहरी व अजय मधवाल मूलत पौड़ी गढ़वाल के रहने वाले हैं। मधवाल दक्षिण भारत की तमिल फिल्मों में बतौर अभिनेता काम कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि फिल्म में सभी कलाकारों का चयन स्थानीय स्तर पर ही किया जाएगा। इसके लिए पचीस अगस्त से ऑडिशन की प्रक्रिया आरंभ कर दी जाएगी। स्टुडियोज की ऑडिशन टीम 23 अगस्त को देहरादून पहुंचेगी। सितम्बर तक ऑडिशन प्रक्रिया संपन्न होने के बाद ही फिल्म का निर्माण शुरू हो पाएगा(राष्ट्रीय सहारा,देहरादून,6.8.11)।

Monday, August 1, 2011

बड़े काम की है ये बॉडी

अभी कुछ साल पहले सैफ दिल के हाथों मजबूर हो कर अस्पताल में पहुंच गये थे। इसके बाद से उन्होंने अपने ट्रेनर चौरसिया के सुझाव पर ही अपनी बॉडी को मेंटेन कर रखा है। आमिर और सैफ अली खान जैसे कई हीरो के निजी ट्रेनर हैं।

सनी देओल, संजय दत्त, सलमान खान, इमरान हाशमी, आमिर खान और शाहरुख के बाद अब अजय देवगन की बारी है। सिंघम में अपने सिक्स पैक जिस्म के साथ जब वह परदे पर आराजक तत्वों को सबक सिखाते नजर आते हैं, तो स्वभाविक तौर पर उनकी जिस्मानी ताकत को दर्शकों का एक मौन समर्थन मिलता है। असल में हिंदी फिल्मों में नायक का जिस्म शुरू से ही बहुत अहम बना हुआ है। इसके लिए फिल्म के एक लोकप्रिय दृश्य का उदाहरण देना काफी होगा। रात्रि का पहला पहर। अचानक एक साया छत पर नजर आता है। दूर से एक ट्रेन आ रही है। जैसे ही ट्रेन एक घर के बगल से गुजरती है, वह साया छज्जे के सहारे लगे एक पटरे की मदद से छलांग लगाता है और पलक झपकते चलती ट्रेन में कूद पड़ता है। काफी देर से सांस रोक कर बैठी पब्लिक अब अपने आपको रोक नहीं पाती है। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है। यह था फिल्म फूल और पत्थर का दृश्य। साया था धर्मेन्द्र का। वषरे पहले प्रदर्शित इस फिल्म का यह दृश्य आज भी दर्शकों के जेहन में एक रोमांच भर देता है।
यह उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जिसमें नायक शाका (धर्मेन्द्र) के जिस्म की भरपूर नुमाइश मौजूद थी। सच तो यह है कि अभिनेता धर्मेन्द्र ही नहीं दूसरे कुछ अन्य नायकों ने वर्षों अपने इस जिस्मानी सौंदर्य के सहारे फिल्म इंडस्ट्री पर राज किया है। आज के कई नायक भी मौका मिलते ही अपने मसल्स दिखाने में पीछे नहीं हटते। पिछले दिनों दबंग और रेडी में सलमान ने अपना जिस्म खूब दिखाया। फिल्म ओम शांति ओम में किंग खान का सिक्स पैक एब्स भी खूब चर्चा में आया था। जोधा अकबर में अकबर बने हृतिक ने भी बहुत शानदार ढंग से अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन किया।
अभी भी फिल्म गजनी में आमिर का सुगठित देह सभी के लिए जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। ट्रेड पंडित आमोद मेहरा कहते हैं, ‘अब दर्शकों को यह कतई पसंद नहीं है कि उनका नायक सिर्फ नायिका को पटाने में ही अपना समय खर्च करे।’ ठीक भी है, मैंने प्यार किया से लेकर रेडी तक का नायक सलमान भी दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि वह अपने शारीरिक शक्ति और क्षमता के सहारे नायिका को पाना चाहता है। फिल्म मैंने प्यार किया को याद कर इसके निर्देशक सूरज बड़जात्या बताते हैं, ‘इसके कई दृश्यों में सलमान को कसरत करते हुए दिखाकर मैं सिर्फ यह बताना चाहता था कि नायक अपनी जिस्मानी ताकत को बढ़ाने के लिए भी सजग है ताकि मारपीट के दृश्यों में उसकी करतबबाजियां कृत्रिम न लगें।’

सिगरेट छोड़नी पड़ेगी
अब यह अहम सवाल उठता है कि बेहद अनियमित जीवन जीनेवाले हमारे हीरो कैसे अपने शरीर को मेंटेन करते है। सितारों के शरीर का जो फिजिकल ट्रेनर ध्यान रखते हैं, उनकी भी एक लंबी सूची है। इनमें सत्यजित चौरसिया का नाम इन दिनों सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। उनके बाद विक्रम कपूर, दिलीप हेवले, मिकी मेहता, प्रशांत सावंत, नीलेश निखंज आदि कई व्यस्त ट्रेनर हैं। इनमें से प्रत्येक का मुंबई के विभिन्न अंचल में अपना जिम है। उनके जिम में पूरे दिन छोटे-बड़े फिल्मवालों के चेहरे नजर आ जाते हैं। सत्यजित चौरसिया का लोखंडवाला में स्थित जिम बारबेरियन सितारों के बीच काफी लोकप्रिय है। वह आमिर और सैफ अली खान जैसे कई हीरो के निजी ट्रेनर भी हैं। अभी कुछ साल पहले सैफ दिल के हाथों मजबूर हो कर अस्पताल में पहुंच गए थे। इसके बाद से चौरसिया के सुझाव पर ही अपनी बॉडी को मेंटेन कर रखा है।
चौरसिया बीमारी को एक साधारण सी बात मानते हैं। उनके मुताबिक यदि आप सही ढंग से व्यायाम करें, तो ता-उम्र आप हमेशा स्वस्थ रह सकते हैं। वह कहते हैं, ‘मेरे सितारों को डॉक्टर जो हिदायत देता है, मैं उसी के मुताबिक सितारों के व्यायाम में रद्दोबदल करता हूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे कई सितारे मेरे सारे सुझाव पर अमल करते हैं। अब जैसे कि सैफ ने सिगरेट पीना लगभग बंद कर दिया है। फिल्मवालों के एक और ट्रेनर विक्रम कपूर बताते हैं, ‘सितारों का लाइफस्टाइल, सोने और जागने का समय उनके अस्वस्थ होने की एक बड़ी वजह बन जाती है। किसी रोल के लिए अपनी बॉडी मेंटेन करने के लिए वह जिस तरह का बलिदान करते हैं, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। इनमें से कई तो आउटडोर में शूटिंग में अपने फिटनेस का सामान ले जाते हैं। हां, कई बार फिल्म पूरी होने के बाद उनका यह नियम भंग होता है। कई बार दूसरे काम में उलझ जाने की वजह से भी होता है। कुछ उनकी खुद की अनियमितता भी होती है। पर जब स्टारडम का सवाल आता है, तो वह बहुत कुछ छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। हां, एक बात जरूर कहना चाहूंगा, शराब पीने के अगले दिन व्यायाम करके आप अतिरिक्त कैलौरी को बाहर निकाल सकते हैं। पर ज्यादा सिगरेट पीने से उत्पन्न बीमारी का मुकाबला किसी भी तरह के व्यायाम से संभव नहीं है। इसलिए मेरी यह पहली शर्त होती है कि यदि आपको अपना शरीर फिट रखना है, तो सिगरेट छोड़ना पड़ेगा।’

डोले शोले, धोबी पछाड़
वाकई में यह अटपटा लगता है, पर हिंदी फिल्मों में पतले-दुबले नायकों द्वारा दर्जन भर गुडों की पिटाई कोई नई बात नहीं है। सिंघम में जिस तरह से अजय देवगन कई गुडों को घोबी-पछाड़ लगाते हैं, आम जिंदगी में वह बहुत असहज लगता है। इसे सहज बनाने के लिए ही आमिर ने गजनी, सलमान ने बॉडीगार्ड, अजय ने सिंघम फिल्मों के लिए विशेष तैयारी की।
दूसरी और अक्षय कुमार, हृतिक रोशन जैसों की सफलता में उनकी कद-काया की अहम भूमिका है। ये दोनों ही अपने कठिन एक्शन दृश्यों को अंजाम देकर जिस्मानी करतब का एक नायाब उदाहरण पेश करते हैं। पचास के ऊपर हो चुके संजय दत्त इस चर्चा का विशेष हिस्सा हैं। कभी पहलवान नायक के तौर पर मशहूर और संजय दत्त के घनिष्ठ मित्र सुनील शेट्टी बताते हैं, ‘मेरी तरह बाबा भी अपने शरीर को लेकर बहुत गंभीर है। उसने भी अपनी बॉडी को बहुत मेहनत से बनाया है। शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि एक्शन दृश्यों में वह खूब फबता है।’

गंभीर परिणाम ला सकती है लापरवाही
हृतिक बेहिचक मानते हैं कि करण अर्जुन की शूटिंग के समय से ही वह सलमान के कसरती जिस्म के प्रशंसक रहे हैं। बाद में एक-दो बार की बीमारी के बाद उन्होंने इस बात को अच्छी तरह से समझा है कि सेहत के प्रति लापरवाही कितने गंभीर परिणाम ला सकती है। वो कहते हैं, ‘मैं जबसे अपनी फिटनेस को लेकर सचेत हुआ, इसका सबसे बड़ा लाभ मुझे यह मिला कि किसी भी तरह के रोल को मैं आसानी से कबूल कर सकता हूं। इसके लिए मुझे कम-से-कम अपनी बॉडी की तैयारी नहीं करनी पड़ती। मेरा शरीर हर तरह के रोल के साथ फिट हो जाता है। यहां तक कि मैं किसी रोल के लिए यदि पांच-छह किलो वजन घटा भी लूं, तो मेरा शरीर उसे आसानी से एक्सेप्ट कर लेता है।’ मंहगे ट्रेनर और डॉयटिशियन के संरक्षण में रहकर यह बात और भी आसान हो जाती है।

कैसे करते हैं मेंटेन
सलमान की बॉडी की सबसे ज्यादा तारीफ होती है। उनके ट्रेनर सत्यजित चौरसिया बताते हैं, ‘सलमान कसरत अपने घर के जिम में ही करते हैं। इस मामले में वह बहुत सजग हैं। इसलिए वह जिस तरह की फिल्में करते हैं, उसके लिए उन्हें कुछ ज्यादा तैयारी करनी नहीं पड़ती है। वैसे वह कभी-कभी लोखंडवाला पर मेरे जिम में भी चले आते हैं। कार्डियो वस्कुलर व्यायाम में उनका जवाब नहीं। उनका शरीर इस कसरत को बहुत सहज ढंग से मैनेज करता है। मैंने उन्हें बहुत करीब से कसरत करते हुए देखा है। मैं उनकी बॉडी मेंटनेस का कायल हूं।’ इस प्रसंग में सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि शाहिद, रणबीर कपूर, इमरान खान जैसे चॉकलेटी हीरो भी अब बॉडी को लेकर बहुत सचेत हैं। शाहिद बताते हैं, ‘मैं अपने ऊपर चॉकलेटी हीरो की कोई इमेज नहीं लादना चाहता। इन दिनों मैं नयमित रूप से जिम जाता हूं। अब मैं एक प्योर एक्शन फिल्म करना चाहता हूं।’ कमीने के बाद अपनी आने वाली फिल्म मौसम में भी उन्होंने कई एक्शन दृश्यों को अंजाम दिया है। वैसे कई नायक भले ही इस बात को स्वीकार न करें, पर सभी जानते है कि उनके प्रेरणास्रोत सनी देओल, सलमान खान, सुनील शेट्टी जैसे नायक रहे हैं।

धर्मेन्द्र और बिग बी भी
सलमान से थोड़ा ध्यान हटाएं तो 73 के गरम धरम आज भी हल्का-फुल्का व्यायाम नियमित करते हैं। लेकिन इस मामले में अमिताभ इस उम्र में भी अपने पुत्र से ज्यादा गंभीर हैं। उनके करीबी कर्मियों से मिली जानकारी के मुताबिक बहुत सुबह उठ कर वह अपने जुहू स्थित बंगले जलसा के पास मौजूद पंच सितारा होटल के हेल्थ कल्ब में या हॉली डे इन के स्पा में जाकर व्यायाम करते हैं। यदि ऐसा संभव नहीं हुआ तो वह प्राणायाम के साथ ही अपने बंगले के प्रांगण में थोड़ा टहल लेते हैं। नाना पाटेकर आज भी एक्शन दृश्यों में काफी परफेक्ट हैं। नाना बताते हैं, ‘कोई भी व्यायाम अपनी उम्र और शरीर को ध्यान में रखकर करना चाहिए।’

गलती सुधार सकते हैं जॉन
कई नायक गलत तरह की फिल्मों में उलझ कर अपनी अच्छी बॉडी का उपयोग नहीं कर पाते हैं। जॉन इसके एक अच्छे उदाहरण हैं। प्रसिद्घ एक्शन डायरेक्टर टीनू वर्मा कहते हैं, ‘जॉन के पास अब भी वक्त है, अक्की की तरह जॉन को भी अभिनय के साथ ही एक्शन दृश्यों में भी अपनी बॉडी का पूरा उपयोग करना चाहिए।’ अब लगता है कि अपनी आनेवाली फिल्म फोर्स में जॉन ने इस भूल को सुधारने की कोशिश की है। फोर्स में जॉन का पोस्टर शर्टलेस फिल्माया गया है, जिसमें वह गजब के लगते हैं।

शाहिद के सिक्स पैक्स
फिल्म कमीने की चर्चा के दौरान जब निर्देशक विशाल भारद्वाज ने शाहिद के सामने सिक्स पैक्स का आइडिया रखा तो वह एकदम चौंक गए। अंदर से वह काफी उत्सुक थे, लेकिन समस्या ये भी थी कि इससे पहले शाहिद जिम की कठिन प्रैक्टिस से कभी नहीं गुजरे थे। बस फिर क्या था। शाहिद के जिस्म को एक नया रंग-रूप देने में सब जुट गए। उनके ट्रेनर ने उन्हें सख्त निर्देशानुसार एक प्लान डाइट पर रखा(असीम चक्रवर्ती,हिंदुस्तान,दिल्ली,1.8.11)।

Sunday, July 17, 2011

सिनेमाई प्रयोग में खो रहे बॉलीवुड से खलनायक

बॉलीवुड फिल्मों में प्रयोगों के चलते खलनायक खत्म होते जा रहे हैं। नो वन किल्ड जेसिका, यमला पगला दीवाना, धोबी घाट, सात खून माफ, तनु वेड्स मनु, चलो दिल्ली, रागिनी एमएमएस से लेकर डेल्ही बेली और जिंदगी ना मिलेगी दोबारा.. तक ये इस साल की ऐसी चर्चित फिल्में हैं जिनमें खलनायक की जरूरत महसूस ही नहीं होती। जबकि ये फिल्में अपनी कहानी अथवा मेकिंग में किसी न प्रयोग के लिए चर्चा में रही हैं। खलनायक की छवि वाले चेहरे पहले ही गुम हो चुके हैं। हालांकि अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान, अक्षय कुमार, रितिक रोशन, सलमान खान, विवेक ओबराय, संजय दत्त, सैफ अली खान, जॉन अब्राहम जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने नकारात्मक भूमिकाओं को निभाने से गुरेज नहीं किया। इसके बावजूद अब ऐसी भूमिकाओं की जरूरत नहीं दिख रही। एक वक्त था जब पटकथा लेखक खास तौर पर विलेन का किरदार लिखते थे। मगर समय के साथ बॉलीवुड की फिल्मों में किरदारों की भूमिका में भी काफी बदलाव आया है। पिछले कुछ वर्षो में थ्री इडियट्स का रैंचो हो या दबंग का चुलबुल पांडे और माइ नेम इज खान का रिजवान खान, असल जिंदगी की हकीकत के ये इतने नजदीक हैं दर्शक को कहानी में अलग से किसी नायक या खलनायक की जरूरत महसूस नहीं होती। जबकि इनसे पहले नायकों को दर्शक खल भूमिकाओं में स्वीकार चुके हैं। धूम 2 में चोर की भूमिका निभाने वाले रितिक दर्शकों का दिल चुराने में कामयाब थे। डर, अंजाम और डॉन में शाहरुख और खाकी, काल, दीवानगी में अजय देवगन खलनायक के किरदारों को निभाने से गुरेज नहीं किया। ओंकारा में लगड़ा त्यागी का किरदार निभाकर सैफ ने खूब वाह-वाह लूटी थी। हीरोइनें भी नकारात्मक भूमिका में वाहवाही लूट चुकी हैं। खाकी में ऐश्र्वर्या राय, गुप्त में काजोल, गॉड मदर में शबाना आजमी, एतराज में प्रियंका चोपड़ा और फिदा में करीना कपूर ने भी इस किरदार में अपने जलवे दिखाए। बैड मैन के नाम से मशहूर गुलशन ग्रोवर कहते हैं फिल्मों से विलेन तो अब गायब ही हो गए हैं। चुनिंदा फिल्मों में ही विलेन के लिए कुछ गुंजाइश बची है। हालिया रिलीज डेल्ही बेली, मर्डर-2 भी प्रयोगात्मक फिल्म हैं। इसमें भी खलनायक की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। वैसे रोचक तथ्य यह है कि आमिर धूम 3 वहीं विवेक ओबराय कृष 2 में नकारात्मक भूमिका में नजर आएंगे। वहीं बीते जमाने के खलनायक कादर खान, गुलशन ग्रोवर और शक्ति कपूर कॉमेडी में हाथ आजमा रहे हैं। जब वी मैट के निर्देशक इम्तियाज अली स्वीकार करते हैं कि खलनायक अब गायब होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे सिनेमा वास्तविक के करीब होता जाएगा इन किरदारों में निश्चित रूप से परिवर्तन आएगा(दैनिक जागरण,दिल्ली,17.7.11)।

Friday, July 8, 2011

नए सिनेमा के मणि

अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं तो अपने आप में स्वतंत्र और काफी समृद्ध भी पर इनके आपस के सरोकार और संबंध इस कारण पूरी तरह अलगाए या खारिज नहीं किए जा सकते। इस लिहाज से माना यही जाता है कि ये माध्यम स्वतंत्र जरूर हैं पर स्वायत्त या पूरी तरह मुक्त नहीं। तभी तो रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक को सेल्यूलाइड तक ले जाने वाले सत्यजीत रे आजीवन यह मानते और समझाते रहे कि वह किसी भी कृति पर फिल्म बनाने की शुरुआत नए सिरे से करते हैं। उनका तकाजा विधा बदलने के साथ कृति के आस्वाद को बदल जाने की जरूरत को खारिज नहीं करता जबकि मणि कौल जैसे फिल्मकार इस तकाजे को दरकिनार कर न सिर्फ कृति को केंद्र में लाये बल्कि साहित्यक रचनाओं के फिल्मांकन का नया व्याकरण भी रचा। कौल अब हमारे बीच नहीं हैं पर 66 वर्ष का उनका जीवन और उस दौरान की उनकी उपलब्धियां हमारे बीच हैं। गाली-गलौज, आइटम नंबर और बोल्डनेस की नई कायिक और भाषिक समझ के बीच जिस भारतीय सिने जगत का कद आज ग्लोबली तय हो रहा है, उसमें मणि कौल के फिल्म बनाने के तरीके और उससे जुड़े सरोकार जलती मशाल की तरह हैं जिससे अंधकार और भटकाव के दौरान हम रोशनी पा सकते हैं। दिलचस्प है कि कौल का फिल्मी सफर निर्देशन के बजाय राजेंद्र यादव की कहानी ‘सारा आकाश’ में अभिनय से शुरू हुआ था। यह आगाज ही साहित्य से उनको आगे और गहरे जोड़ते चला गया। ‘घासीराम कोतवाल’, ‘आषाढ़ का एक दिन, ‘दुविधा’ जैसे इंडियन क्लासिक्स से लेकर दोस्तोवस्की की ‘इडियट’ जैसी महान रचना का फिल्मांकन भी उन्होंने किया। कौल की यह खासियत तो रही ही कि वह साहित्यिक कृतियों की मूलात्मा को फिल्म में भी बहाल रखना चाहते थे, उन्होंने प्रचलित और लोकप्रिय कथारूपों के बजाय विभिन्न शैलियों की रचनाओं पर काम करने का जोखिम भी उठाया। जिस मुक्तिबोध पर बोलते और लिखते हुए आज भी हिंदी साहित्य के दिग्गजों तक के पसीने छूटते हैं, कौल ने उनकी ‘सतह से उठता हुआ आदमी’ को परदे पर उतारने का चैलेंज न सिर्फ लिया बल्कि उसे बखूबी पूरा भी किया। कौल के काम करने के ढंग और उनके सरोकारों के जानकार नए भारतीय सिनेमा के इस बड़े हस्ताक्षर को उनके सौंदर्यबोध के लिए भी याद करते हैं। यह अलग बात है कि यह सौंदर्यबोध सनसनी उभारने के बजाय संवेदना के आत्मिक स्पर्श का धैर्य लिये थे। यही कारण है कि कौल के कई आलोचक यह भी कहते रहे हैं कि उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें कभी सौ फीसद फिल्मकार बनने ही नहीं दिया। क्योंकि कैमरे में क्या बेहतर और कितना समा सकता है, इसके उसूलों की उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अलबत्ता यह भी है कि लैंस की नजरों पर भरोसा करने वाले उसे पीछे से देख रही मानवीय आंखों के चढ़ते-उतरते पानी को अगर खारिज कर सकते हैं तो उन्हें कौल जैसे फिल्मकार को ज्यादा समझने का खतरा भी नहीं लेना चाहिए। दरअसल, कौल इन्हीं आंखों को नम और चमक से भर देने वाले फिल्मकार थे(राष्ट्रीय सहारा,8.7.11)।

Monday, July 4, 2011

सेंसर बोर्ड को सुनाई नहीं देते अश्लील गाने

हाल ही में आमिर खान की फिल्म "डेल्ही बेली" के गाने "डी के बोस भाग रहा है" के बोल भद्दे और अश्लील होने के बावजूद बेहद चर्चित हो रहे हैं। डेल्ही बेली का यह गाना पिछले एक महीने से भाग रहा है और अब इतना भाग चुका है कि उसकी रफ्तार को अब यदि थाम भी लिया जाए तो कुछ होने वाला नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो गाली के बोल जैसी प्रतिध्वनि वाले डीके बोस गीत पर अब हो-हल्ला मचाने का कोई औचित्य नहीं रह गया है क्योंकि यह गाना न केवल टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो के जरिए जबर्दस्त हिट हो चुका है बल्कि इसकी अच्छी- खासी चर्चा मीडिया में भी हो रही है। वैसे देर-सवेर जागे सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड को इस गीत को पास करने की बाबत जवाब तलब किया है।

सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड से पूछा है कि आखिर कैसे इस गाने को पास कर दिया गया जबकि इस गाने में साफ तौर पर गालियों की भरमार है। बेशक, किसी को ये गालियां भले ही न पसंद आई हों पर आमिर खान को खूब पसंद आई हैं। तभी तो आमिर इस गाने को और लोकप्रिय बनाने के लिए एक पार्टी का आयोजन करने जा रहे हैं। सवाल उठता है कि आमिर खान इस भोंडे गाने को जनता के सामने पेश कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं। "डेल्ही बेली" में अब इस गीत के बोल कुछ बदल भी दिए जाएं तब भी कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि इस गाने की बदौलत फिल्म को जितनी पब्लिसिटी मिलनी थी, वह मिल चुकी है। सूचना मंत्रालय भी हमेशा की तरह तब लाठी चलाता है जब सांप बिल में घुस चुका होता है।

हैरानी की बात तो यह है कि इस तरह के अश्लील गाने का यह अकेला मामला नहीं है, इससे पहले भी कई गाने बाजार में आ चुके हैं जिन्हें सेंसर बोर्ड बड़ी आसानी से पास कर चुका है। इसके बावजूद सूचना मंत्रालय तमाशबीन बनकर देखता रहा है। तीसमार खां के गाने को लेकर भी काफी विवाद हुआ था। शीला की जवानी गाना फिल्म के आने से पहले ही काफी हिट हो चुका था, जिसके चलते देश में शीला नाम की युवतियों को शर्मिंदा होना पड़ा था। शर्मिंदा होने का कारण था नाम को गलत तरीके से पेश करना। शीला नाम की युवतियों पर युवकों ने गाने के बहाने फब्तियां कसनी शुरू कर दी थीं।

वहीं फिल्म "दबंग" का गाना "मुन्नी बदनाम हुई" भी विवादों के साए में चर्चित हो गया। हमारे देश के अलावा पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी मुन्नी नाम की कई महिलाओं ने एतराज जताया। पाकिस्तान की मुन्नी नाम की एक महिला, जो अपने घर में दुकान चलाती थी, को गाने के हिट होने के बाद कई दिनों तक अपनी दुकान बंद करनी पड़ी। फिल्मों में छोटे-छोटे दृश्यों को लेकर हल्ला मचाने वाले सेंसर बोर्ड को इन गानों की भद्दी गाली कैसे सुनाई नहीं दी। वैसे भी सेंसर बोर्ड पिछले कुछ सालों से उदार बना हुआ है(धनीश शर्मा,नई दुनिया,4.7.11)।

Thursday, June 30, 2011

एक बातचीत आमिर से

(संडे नई दुनिया,26 जून से 2 जुलाई,2011)

Saturday, June 18, 2011

अब लीजिये भोजपुरी में 'देवदास' का मज़ा

अब भोजपुरी भाषा में भी जल्द 'देवदास' फिल्म रिलीज़ होने जा रही है। शुक्रवार को इस फिल्म का संगीत भी लांच कर दिया गया। यह फिल्म दो घंटे सत्रह मिनट की है।

12 अगस्त को यह फिल्म एक साथ बिहार, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और पडो़सी देश नेपाल में रिलीज़ होगी। फिल्म के निर्देशक किरणकान्त वर्मा ने बताया कि इस पूरी फिल्म को एक महीने में ही शूट किया गया है। यह फिल्म पूरी तरह से शरतचंद के उपन्यास देवदास पर आधारित है। जैसा उपन्यास में लिखा गया है वैसा ही फिल्म में देखा जा सकेगा।

पटना, गुजरात व मुम्बई में हुई है शूट

फिल्म की शूटिंग पटना, गुजरात और मुंबई के कई लोकेशनों पर की गई है। मूल रूप से बिहार के भोजपुर जिले के रहने वाले फिल्म निर्देशक केके वर्मा ने बताया कि अब तक 'देवदास' टाईटल की छह फ़िल्में बन चुकी हैं। ये सभी शरत जी के उपन्यास पर आधारित हैं। जिसमें तीन हिंदी में, दो बंगाली में और एक कन्नड़ में बनी हैं। भोजपुरी में बनी यह फिल्म इस कड़ी में सातवीं होगी। इस फिल्म में पटना की रहने वाली अक्षरा सिंह ने पारो का रोल निभाया है। पटना के कंकड़बाग़ कॉलोनी में रहने वाली अक्षरा की यह दूसरी भोजपुरी फिल्म होगी। बंगाली टर्न्ड भोजपुरी अभिनेत्री मोनालिसा इस देवदास में चंद्रमुखी का किरदार निभा रही हैं।

रविकिशन बने हैं 'देवदास', नहीं होगी फिल्म अश्लील

चर्चित अभिनेता रविकिशन इस भोजपुरी फिल्म के देवदास बने हैं। फिल्म में संगीत दिया है पटना स्थित महेन्द्रू इलाके के निवासी बैजू बंसी ने। उमेश सिंह फिल्म के प्रोडूसर हैं। अवधेश अग्रवाल सह-प्रोडूसर। फिल्म के निर्देशक केके वर्मा ने दावा किया है कि यह फिल्म पूरी तरह से परिवार के संग देखने लायक है, जिसमें कहीं भी कोई अश्लीलता नहीं होगी। फिल्म में करीब 10 गानें हैं, जिन्हें उदित नारायण, साधना सरगम, सपना अवस्थी जैसे चर्चित हस्तियों ने आवाज़ दी है।
(दैनिक भास्कर,18.6.11)

Saturday, June 11, 2011

गूगल से भी तेज सर्च करें एमपी 3 गाने

मनपसंद गाने सुनने के लिए गूगल पर दिखाई देने वाली हजारों वेबसाइट्स में से सिलेक्शन मुश्किल होता है। एनआईटी के विद्यार्थियों ने ऐसा सर्च इंजन बनाया है जहां दुनियाभर की वेबसाइट के गाने एक ही जगह सुने जा सकेंगे।

गूगल पर आने वाली ज्यादातर वेबसाइट पर गाने की जगह विज्ञापन होते हैं। कई वेबसाइट गाना सुनाने के पैसे लेती हैं। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) सूरत के विद्यार्थियों ने इंदौर एजुकेशन सेंटर सीडेक के प्रोजेक्ट के तहत यह सर्च इंजन बनाया है। इसमें मीडिया प्लेयर भी जोड़ा है। वेबसाइट को रिफ्रेश करने पर बिना रुकावट गाने सुने जा सकते हैं।

स्टूडेंट्स बताते हैं सर्च इंजन पर ऐसी साइट आएंगी ही नहीं, जिन पर गानों के केवल नाम दिए गए हैं। वे बताते हैं एनआईटी सूरत ने इंदौर में ट्रेनिंग के लिए भेजा है। छह महीने की मेहनत से सर्च इंजन बनाया है। प्रोजेक्ट आईआईटी पवई में रिसर्च पेपर के रूप में भेजा है। फैकल्टी एडवाइजर मनीष अरोरा ने बताया इंदौर से शुरू हुआ यह एकमात्र सर्च इंजन होगा जो एमपी3 गाने सर्च करने में गूगल से फास्ट है।

कम्प्यूटर साइंस के विद्यार्थी अली अब्बास मैनेजर, नील जिनवाला और पूरव मास्टर ने www.beta.mgoos.com सर्च इंजन बनाया है। इसमें जावा प्रोग्रामिंग के जरिये ऐसा ऑटोमेटिक सिस्टम बनाया गया है जो दुनियाभर के एमपी3 गानों को एक वेबसाइट से जोड़ता है। वायरस वाली या बिना काम की साइट्स इग्नोर कर दी जाएंगी(दैनिक भास्कर,इन्दौर,11.6.11)।

Wednesday, June 8, 2011

बड़े पर्दे पर चमकेंगे बाबा और अन्ना!

बॉलीवुड अब अपनी फिल्मों के लिए असल जिंदगी की शख्सियतों से पे्ररणा ले रहा है। लोकपाल विधेयक मामले में सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर करने समाजसेवी अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार तथा कालाधन मामले में सरकार की नाक में दम करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव फिल्मकारों के लिए नजीर बन रहे हैं। बाबा के बहुत नजदीकी माने जाने वाले 16 दिसंबर, रुद्राक्ष और नॉक आउट जैसी फिल्मों के निर्देशक मणि शंकर उनके जीवन पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस फिल्म में वह संजय दत्त को लेंगे। संजू उनके अच्छे मित्र माने जाते हैं। क्या संजय दत्त फिल्म में बाबा की भूमिका निभाएंगे? मणिशंकर कहते हैं कि इस बारे में मैं अभी आपको कुछ नहीं बता सकता। उन्होंने कहा, मैं यह नहीं कह सकता कि वह (संजय दत्त) फिल्म में कौन सी भूमिका निभाएंगे। फिलहाल शंकर बाबा द्वारा चलाए जा रहे अभियान पर पूरी जानकारी इकट्ठा करने में जुटे हैं। फिल्म में शनिवार रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा और उनके समर्थकों के खिलाफ सरकार के बर्बरतापूर्ण रवैये को भी दिखाया जाएगा। अन्ना से प्रेरणा : निर्देशक इशराक शाह इन दिनों एक बुरा आदमी नाम से फिल्म बना रहे हैं। फिल्म में रघुवीर यादव एक समाज सेवी की भूमिका निभा रहे हैं, जो अन्ना हजारे के जीवन से पे्ररित है। हालांकि शाह इस बात से पर्दा उठाने को राजी नहीं हैं कि फिल्म में रघुवीर यादव का किरदार अन्ना हजारे से मिलता है। उन्होंने कहा, रघुवीर जी का किरदार अन्ना हजारे जैसा है या नहीं, यह फिल्म के प्रदर्शन के बाद पता चलेगा। मैं सिर्फ यह कह सकता हूं कि वह (रघुवीर यादव) एक समाजसेवी की भूमिका निभा रहे हैं। फिल्म की शूटिंग उदयपुर में चल रही है। फिल्म से जुड़े सूत्रों की मानें, तो रघुवीर अन्ना हजारे के रोल में ही हैं। यह ऐसे समाजसेवी की कहानी है, जो चुनाव की राजनीति नहीं करता और सरकार के खिलाफ जागो भारत आंदोलन चलाता है। अरुणोदय सिंह फिल्म में रघुवीर के शिष्य की भूमिका में हैं, जो उनके आंदोलन को आगे बढ़ाते हैं। फिल्म में ऐसा मोड़ भी आता है, जब रघुवीर यादव सरकार के खिलाफ आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं, ताकि लोग जागें(दैनिक जागरम,दिल्ली,8.6.11)।

Monday, June 6, 2011

कला में कोरा बॉलिवुड

नवभारत टाइम्स का मत
रीजनल सिनेमा से भी छोटा है उसका कद
इस बार के नैशनल फिल्म अवॉर्ड्स में बॉलिवुड की फिल्मों ने तकरीबन दो दशक से कायम सिलसिले को ही दोहराया है। हिंदी की कुछ फिल्मों को पॉपुलर अवॉर्ड तो मिले हैं लेकिन मुख्य पुरस्कारों के मामले में उसकी झोली खाली ही रही है। हर बार की तरह मेन कैटिगरी के पुरस्कारों पर हिंदी के बजाय तमिल, मलयालम, मराठी और बांग्ला भाषा की फिल्मों का दबदबा है। अगर नैशनल फिल्म अवॉर्ड्स को कलात्मकता की एक कसौटी माना जाए तो हिंदी सिनेमा का इस पर खरा नहीं उतरना अफसोसजनक है।

सिनेमा का एक मकसद कई अर्थों में व्यावसायिक होते हुए सामाजिक उद्देश्यों को भी साधना है, लेकिन लगता है कि हिंदी सिनेमा इन्हें पाने में लगातार चूक कर रहा है। वैसे तो हिंदी फिल्में दर्शकों की नब्ज पकड़ने में काफी सफल मानी जाती हैं। हाल के वर्षों में गजनी, थ्री इडियट्स और दबंग जैसी हिंदी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर कई रेकॉर्ड खड़े किए हैं। लेकिन जिस मर्म को भाषाई फिल्मकार पकड़ने में सफल रहे हैं, बॉलिवुड के लोग उसके पास भी नहीं फटक पा रहे हैं। मुंबइया मसालों की चाशनी में लपेटकर पेश की गई हिंदी फिल्में भारी कमाई भले ही कर ले रही हैं लेकिन कला की कसौटी पर उनकी नाकामी हॉलिवुड ही नहीं, क्षेत्रीय सिनेमा की चुनौती के आगे भी उन्हें बहुत छोटा साबित कर रही है। सामाजिक सरोकारों के प्रति अपने दायित्व और विषय चयन की अर्थवत्ता के मामले में रीजनल सिनेमा ने जो सतर्कता बरती है, बॉलिवुड अगर उसका दस फीसदी भी अपनी फिल्मों से जोड़ सके तो इससे हिंदी फिल्मों का कद बढ़ेगा।

वरिष्ठ फिल्मकार मुजफ्फर अली का मत
बॉलिवुड नहीं, अब इंडियन सिनेमा की सोचें
रीजनल सिनेमा के मुकाबले बॉलिवुड के पिछड़ेपन की एक अहम वजह यह है कि ज्यादातर हिंदी फिल्में हीरो-ओरिएंटेड होती हैं। विषयवस्तु से लेकर ट्रीटमेंट तक में ये फिल्में उसी ऊंचाई तक जा पाती हैं, जितनी हीरो की खुद की समझ होती है। यह बॉलिवुड की बुनियादी समस्या है और जब तक वह इससे बाहर नहीं निकलेगा, उसका उद्धार नहीं हो सकता। यह कहना सही नहीं है कि बॉलिवुड को नैशनल फिल्म अवॉर्ड की जरूरत नहीं है या वहां के फिल्मकार दर्शकों के मनोरंजनार्थ फिल्में बनाकर भरपूर कमाई करके असली मकसद तो पूरा कर ही रहे हैं।

असल में ऐसे अवॉर्ड्स सभी को चाहिए। इससे उनकी क्रेडिबिलिटी बढ़ती है। नैशनल अवॉर्ड देने वाली जूरी भी ईमानदारी से काम करती है और जो उसके सामने लाया जाता है, उसी में से वह सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करती है। पर अब हमें अपनी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलिवुड-मॉलिवुड आदि खांचों में बांटने से परहेज करना चाहिए। मुंबइया बनाम रीजनल के बजाय अब हमें इंडियन सिनेमा की बात करनी चाहिए। अब चिंता इस बात की करनी चाहिए कि इंडियन सिनेमा की ग्लोबल प्रेजेंस कैसे बढ़े। इधर हमने स्पेशल इफेक्ट्स के मामले में महारत हासिल की है, पर हम स्क्रिप्ट राइटिंग और डिजाइनिंग आदि के मामले में हॉलिवुड से काफी पीछे हैं। इसमें भी सुधार करना चाहिए(नभाटा,21 मई,2011)।

Wednesday, June 1, 2011

वर्षों से मृत माने जा रहे अभिनेता राज किरण अटलांटा में मिले

फिल्म अभिनेत्री दीप्ति नवल ने पिछले महीने फेसबुक के जरिए अपने सह अभिनेता रहे मशहूर कलाकार राज किरण को खोजने की जो मुहिम शुरू की थी उसे अंजाम तक पहुंचाया है अभिनेता ऋषि कपूर ने। राज जीवित हैं और अमेरिका के अटलांटा में अपना इलाज करा रहे हैं। निर्माता-निर्देशक सुभाष घई की मशहूर फिल्म कर्ज में ऋषि कपूर ने राज किरन के पुनर्जन्म का किरदार निभाया था। राज किरण को हिंदी फिल्म जगत के ज्यादातर लोग मृत मान चुके थे और उनके सही सलामत होने की खबर पर फिल्म उद्योग ने खुशी जताई है।

सत्तर के दशक में कई हिट फिल्मों में काम करने वाले राज किरण के बारे में लोगों को हाल के दिनों तक कुछ पता नहीं था। कुछ अरसा पहले खबर ये भी आई थी कि राज किरण की मौत हो चुकी है। उनकी दिमागी हालत बिगड़ने का पहला किस्सा उनके स्टारडम के दिनों में ही तब सामने आया था, जब पुट्टपर्थी में सत्य साईं बाबा के आश्रम में उन्हें हिरासत में लिया गया था। वह तब बार-बार सत्य साईं के खिलाफ बातें किया करते थे और उन पर साईंबाबा की हत्या की कोशिश करने का आरोप भी लगा। राज किरण ने इसके बाद मुंबई के भायखला स्थित पागलखाने में लंबा वक्त गुजारा।

भायखला पागलखाने में ही हिंदी सिनेमा में उनके चंद शुभचिंतकों ने उनसे आखिरी मुलाकात की थी। बाद में हालत सुधरने के बाद राज किरण अमेरिका चले गए और वहां कुछ लोगों ने उन्हें न्यूयॉर्क में टैक्सी चलाते भी देखा। वहां से भी मे एक दिन एकाएक लापता हो गए। अभिनेता ऋषि कपूर भी दीप्ति नवल की तरह अरसे से राज किरण की तलाश में थे और हाल ही में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने राज किरण के भाई गोविंद मेहतानी का पता तलाश कर उनसे मुलाकात की।

गोविंद ने ऋषि कपूर को बताया कि राज किरण जीवित हैं और अटलांटा के एक संस्थान में अपना मानसिक इलाज करा रहे हैं। राज किरण अपने इलाज के लिए आवश्यक रकम जुटाने के लिए इस संस्थान में ही काम भी करते हैं। सूत्रों के मुताबिक राज किरण की पत्नी और बेटे ने उन्हें उनके हाल पर बरसों पहले छोड़ दिया था और अपने भाइयों से मदद की आस में ही वह अमेरिका चले गए थे, लेकिन वहां भी उनका साथ किसी ने नहीं दिया।

ऩईदुनिया से बात करते हुए ऋषि कपूर ने कहा कि राज किरण को वह कभी भूल नहीं सकते और उनके बारे में मिली इस जानकारी ने उन्हें काफी परेशान भी किया है। वह राज के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं और ये भी चाहते हैं कि वह वापस हिंदी फिल्म जगत में लौटें। फिल्म निर्माता सुभाष घई के मुताबिक राज किरण की ये हालत शायद उन्हें अपेक्षित सफलता न मिल पाने की वजह से हुई। वह कहते हैं कि ग्लैमर जगत के इस पहलू को आमतौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। राज की हालत के बारे में दुख जताते हुए घई ने उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की है(नई दुनिया,दिल्ली,1.6.11)।

दैनिक जागरण की रिपोर्टः
बॉलीवुड में 70 और 80 के दशक के मशहूर अभिनेता राज किरण इन दिनों अमेरिका के एक पागलखाने में हैं। यह पता लगाया है उनके करीबी दोस्त ऋषि कपूर ने। राज किरण ने ऋषि की सुभाष घई निर्देशित सुपरहिट फिल्म कर्ज में उनके पूर्व जन्म के किरदार को निभाया था। महेश भट्ट की फिल्म अर्थ में शबाना आजमी और उन पर फिल्माया गया गाना, तुम इतना जो मुस्करा रहे हो.. आज भी लोग गुनगुनाते हैं। वह पिछले एक दशक से गायब हैं। ऋषि कपूर और दीप्ति नवल जैसे उनके मित्रों को छोड़कर प्राय: सभी उन्हें मृत मान लिया था। दीप्ति नवल ने पिछले दिनों फेसबुक पर भी राज किरण को खोजने के लिए एक पोस्ट किया था। उन्होंने लिखा, खबर थी कि राज को न्यूयॉर्क में कैब चलाते हुए आखिरी बार देखा गया था। उसके बाद ऋषि कपूर ने अपने दोस्त को खोजने की ठान ली। एक फिल्म की शूटिंग के लिए अमेरिका गए ऋषि कपूर ने वहां राज किरण के भाई गोविंद मेहतानी से मुलाकात की। उन्होंने पूछा कि राज अचानक कहां गायब हो गए? मेहतानी ने ऋषि को बताया कि राज किरण की दिमागी हालत ठीक न होने की वजह से वह अटलांटा के मेंटल हॉस्पिटल में हैं। बताया जाता है कि राज की पत्‍‌नी और बेटा उन्हें छोड़कर चले गए और वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए। पारिवारिक जीवन में आए दूसरे संकटों की वजह से भी राज अवसाद से घिर गए। परिवार के बाकी सदस्यों ने भी राज की देखभाल नहीं की, शायद इसकी वजह उनका इलाज महंगा था। ऋषि ने कहा, यह काफी हृदय विदारक है। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि वह जिंदा हैं। उनके जीवित होने की खबरों के बीच फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें वापस लाने की बातें कही जा रही हैं। निर्देशक सुभाष घई और महेश भट्ट ने कहा कि वह राज किरण को वापस लाने की कोशिश का हिस्सा बनने में खुशी महसूस करेंगे। दो दशक तक इस अभिनेता ने कागज की नाव, घर हो तो ऐसा, घर एक मंदिर, कर्ज, वारिस और अर्थ जैसी कई लोकप्रिय फिल्मों में काम किया है।

Friday, May 27, 2011

लखनऊःबीएनए का कलाकार हालीवुड की फिल्म में

2003 में बीएनए से डिप्लोमा लेने के बाद आरिफ शहडोली ने राजधानी लखनऊ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। उन्होंने बच्चों को अभिनय के गुर सिखाये और बहुत से नाटकों में अभिनय के साथ निर्देशन भी किया। बीएनए से अभिनय सीखने वालों में से कम ही कलाकार होंगे जिनको विदेशी फिल्म में काम करने का मौका मिला होगा, लेकिन आरिफ अब वह हॉलीवुड के लिए निर्मित होने वाली अंग्रेजी फिल्म ‘एन अमेरिकन इन इण्डिया’ में मुख्य विलेन का किरदार निभा रहे हैं। इलाहाबाद में शूटिंग पूरी करने के बाद बुधवार को वह राजधानी में थे और बताया कि यह फिल्म अंग्रेजी भाषा में बन रही है, जिसके निर्देशक अक्सर इलाहाबादी है। फिल्म में हालीवुड के कलाकार एडर्वड मुख्य किरदार निभा रहे हैं। उन्होंने बताया कि बीएनए से डिप्लोमा लेने के बाद उनकी जिन्दगी में एक नया मोड़ आया, क्यों कि किसी भी अभिनय संस्थान में डिप्लोमा को महत्व ही नहीं दिया जा रहा था सभी लोग डिग्री मांगते थे। इस कारण बीएनए का डिप्लोमा बेकार हो गया। इसे लेकर उन्होंने आरटीआई के जरिये बीएनए से खूब सवाल जवाब भी किया, लेकिन अभिनय की क्षमता को बनाये रखा और संघर्ष जारी रहा, जिससे यह मुकाम मिला। आरिफ ने सुधाकर की फिल्म ‘धीर’, मणिरत्नम की फिल्म ‘रावण’ और राजा बुन्देला की फिल्म ‘सन आफ फ्लावार’ में महत्वपूर्ण किरदार निभाया है। उन्होंने बताया कि हालीवुड की फिल्म में महत्वपूर्ण किरदार करना उनकी जिन्दगी का एक पड़ाव है, जिससे निश्चित रूप से उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिलेगा। फिल्म की शूटिंग पूरी हो गयी है और अब तकनीक पक्ष पर काम बचा है, फिर कुछ ही महीनों में पूरी दुनिया में फिल्म प्रदर्शित की जाएगी(आरिफ शहडोली,राष्ट्रीय सहारा,लखनऊ,27.5.11)

Saturday, May 21, 2011

पहली बार भोजपुरी सिनेमा के लिए अवॉर्ड

भोजपुरी सिनेमा के 50 साल पूरे होने पर मुंबई की ‘भोजपुरी सिटी‘ पत्रिका ने पहली बार भोजपुरी सिनेमा के लिए हर श्रेणी में अवॉर्ड देने की घोषणा मुंबई मे एक प्रेस कांफ्रेंस में की। ‘भोजपुरी मीडिया’ के प्रकाशन का यह चौथा वर्ष है और इस बीच पत्रिका ने न सिर्फ भोजपुरी, वरन पूरी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बना ली है। उल्लेखनीय है कि 2 जून को होने वाले इस अवॉर्ड समारोह का मीडिया पार्टनर सहारा न्यूज नेटवर्क है। मंच से बोलते हुए समारोह के सव्रेसर्वा किशन खदरिया ने स्वीकार किया कि ‘सहारा इंडिया परिवार ने मुझे सही मायने में सहारा दिया है। आज मेरी खुशी का कोई ओर छोर नहीं है। हमारी पत्रिका प्रकाशन के चौथे वर्ष में प्रवेश कर गई है और आज भोजपुरी सिनेमा सौ करोड़ रुपए का कारोबार कर रहा है। वैसे तो मैं राजस्थानी हूं, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे बिहार और भोजपुरी सिनेमा से प्यार हो गया है।’

मंच पर सहारा इंडिया परिवार का प्रतिनिधित्व श्री रूबल दत्ता ने किया। उन्होंने कहा, ‘सहारा इंडिया परिवार कामना करता है कि यह अवॉर्ड ट्रेंड सेटर बने।’ दीप प्रज्जवलन युवा अभिनेता आफताब शिवदासानी और अभिनेत्री अदिति गोवित्रीकर के हाथों संपन्न हुआ। इस मौके पर आफताब ने कहा, ‘मुझे पहली बार पता चला कि भोजपुरी सिनेमा को 50 वर्ष हो गए। आप पहली बार अवॉर्ड देने जा रहे हैं। मेरी कामना है कि भोजपुरी सिनेमा और आगे बढ़े। हिंदी में तो इतने सारे अवॉर्ड हैं कि हर अवॉर्ड का नाम भी याद नहीं रहता।’

भोजपुरी सिनेमा के लीजेंड कहे जानेवाले कलाकार राकेश पांडे ने भोजपुरी सिनेमा की यात्रा और दशा-दिशा पर अपने विचार रखे। उन्होंने बताया कि कैसे भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने चाहा था कि भोजपुरी सिनेमा का भी निर्माण हो। उनकी प्रेरणा से भारत की पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’

सन् 1961 में बननी शुरू हुई और सन् 1962 में रिलीज हुई। इस फिल्म को बनाने में नजीर हुसैन साहब की महत्वपूर्ण भूमिका थी और उन्हीं की कहानी पर फिल्म बनी थी। इस फिल्म के निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी और निर्देशक कुंदन कुमार थे। फिल्म में असीम कुमार, कुमकुम, हेलन और बेबी पद्मा खन्ना ने काम किया था। भोजपुरी की यह पहली ही फिल्म सुपर डुपर हिट हुई थी। कार्यक्रम समाप्त होने तक भोजपुरी सिनेमा के सुपर स्टार मनोज तिवारी भी पहुंच गए। उन्होंने पहुंचते ही अपने दिलकश अंदाज में कहा, ‘मैं तो हूट का हकदार हूं, क्योंकि मैं इतनी देर से आया। इस पर भी मेरा स्वागत हो रहा है जिससे मैं खुश हूं। मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि भोजपुरी सिनेमा पर केंद्रित पत्रिका ‘भोजपुरी सिटी‘ को ही भोजपुरी सिनेमा के अवॉर्ड देने का हक है।’

‘भोजपुरी सिटी’ के संपादक अखिलेश ने बताया कि, ‘अब हम पूरी फिल्म इंडस्ट्री को रिप्रजेंट करने लगे हैं। हम दो प्रकार के अवॉर्ड देने जा रहे हैं। पहला जूरी अवॉर्ड और दूसरा पॉपुलर अवॉर्ड। यह अवॉर्ड जनवरी से दिसम्बर 2010 के बीच रिलीज हुई भोजपुरी फिल्मों में से प्रत्येक श्रेणी में दिया जाएगा।’

अंत में उदित नारायण, आफताब शिवदासानी, राकेश पांडे और अदिति गवित्रीकर के हाथों अवॉर्ड की ट्रॉफी का अनावरण किया गया। इस कार्यक्रम की सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदी फिल्मों के सफल गायक उदित नारायण ने अपना वक्तव्य शुद्ध भोजपुरी में दिया और उन्होंने एक पॉपुलर भोजपुरी गीत की दो पंक्तियां भी गाकर सुनाई जिस पर पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। इस कार्यक्रम में भोजपुरी सिनेमा के प्रमुख निर्देशक, कलाकार और निर्माता मौजूद थे(राष्ट्रीय सहारा,मुंबई,20.5.11)।

Friday, May 20, 2011

शाही शादी में गुम हुई के. बालाचंदर की ख़बर

एक और पुरोधा को पिछले दिनों भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए फिल्म जगत के सबसे बड़े राष्ट्रीय सम्मान दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। दक्षिण सिनेमा के कई सितारों को जन्म देने वाले कैलासम बालाचंदर को बतौर निर्माता-निर्देशक तमिल सिनेमा के स्तर को उच्चकोटि का बनाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने तमिल के अलावा कन्नड़, तेलुगू और हिंदी फिल्मों में भी निर्देशन किया। तमिलनाडु के तंजावुर में 1930 में जन्मे बालाचंदर रूपहले परदे के पीछे जलवा बिखेरने से पूर्व मद्रास में एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में नौकरी करते थे। फिल्म निर्माण से जुड़ने से पहले वह अपनी ड्रामा टीम श्रागिनी रीक्रिएशंस के साथ काफी समय तक नाट्य लेखन का काम किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बालाचंदर ने कई नाटक लिखे, जिन पर आगे चलकर कई फिल्में भी बनाई गई। इनमें प्रमुख हैं 1964 में कृष्णा पंजु की फिल्म सरवर सुंदरम और मेजर चद्रकांत पर आधारित हिंदी फिल्म ऊंचे लोग, जिसे निर्देशित करने का काम किया था फणी मजूमदार ने। बालाचंदर पिछले 45 सालों से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय हैं और जब उन्होंने इस सर्वोच्च सम्मान से खुद को नवाजे जाने की खबर सुनी तो इसे अपने जीवन का सर्वाधिक गौरवपूर्ण क्षण करार दिया। लीक से हटकर फिल्में बनाने के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले बालाचंदर को कई सुपर स्टारों को तराशने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने रजनीकांत, कमल हासन, प्रकाशराज, विवेक और जयाप्रदा, श्रीदेवी, सुजाता, सरिता व रति अग्निहोत्री के अलावा नए दौर के कई सितारों को दर्शकों से रू-ब-रू कराया। बालाचंदर महान फिल्मकार एमजी रामचंद्रन की फिल्म दीवाथाई1964 के लिए पटकथा लिखने के बाद उनकी सलाह पर निर्देशन के क्षेत्र में उतरे और 1965 में नीरकामुझी को निर्देशित किया। अपनी पहली ही फिल्म से उन्होंने दर्शकों के बीच खासी लोकप्रियता हासिल कर ली। मजेदार बात यह रही कि उन्होंने खुद की लिखी एक पुराने नाटक को फिल्म की कथावस्तु के रूप में ढाला। इसके बाद उन्होंने कलाकेंद्र नाम से एक प्रोडक्शन हाउस खोला और यहां से शुरू हो गई उनके फिल्मी सफर में सफलता की दास्तां। उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया जिसके लिए उन्हें कई श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए गए। पांच तमिल फिल्मों के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। अपने प्रोडक्शन के अलावा बालाचंदर ने दूसरे प्रोडक्शंस के लिए भी फिल्में बनाई। उन्होंने 1966 में एवीएम प्रोडक्शन के बैनर तले तमिल भाषा में मेजर चंद्रकांत का निर्माण किया। इसके बाद एक और बहुचर्चित फिल्म बनाई। यह सुंदरराजन और जयललिता बालाचंदर अभिनीत तमिल फिल्म भामा विजयम थी जो 1967 में बनाई गई थी। बाद में इसी फिल्म को तेलुगू में भाले कुडालू नाम से रिमेक किया गया। इस फिल्म की लोकप्रियता को देखते हुए 1968 में हिंदी में भी तीन बहुरानियां के नाम से फिल्म बनाई गई। बालाचंदर की ज्यादातर फिल्में शहर में रहने वाले मध्यम वर्गीय समाज में घटित घटनाओं पर आधारित होती थीं। साथ ही उनकी फिल्मों का समापन मध्य वर्ग के समाज की नैतिकता को स्वीकारते हुए होता था। सत्तर के दशक में उनकी कुछ कालजयी फिल्में काविया थालिआवी वर्ष 1970 में, अपूर्वा रागांगल, 1975 में, मनमाथा लीलाई, 1976 में, अवरगल वर्ष 1977 में और मारो चारिथरा वर्ष 1978 में आई। मारो चारिथरा एक तेलुगू फिल्म है जिसका नायक तमिल भाषी है जबकि नायिका तेलुगू बोलने वाली होती है। दोनों आपस में प्रेम करते हैं, लेकिन दोनों के घर वाले इस रिश्ते के खिलाफ होते हैं, लेकिन बाद में वे शर्त रखते हैं कि यदि प्रेमी-प्रेमिका एक साल तक आपस में नहीं मिलते हैं तो उनकी शादी करा दी जाएगी। इस फिल्म की अपार सफलता को देखते हुए बालाचंदर ने हिंदी में बनी एलवी प्रसाद की वर्ष 1981 में बनी फिल्म एक दूजे के लिए को निर्देशित किया। तमिल और पंजाबी रोमांस पर आधारित लव स्टोरी से कमल हासन और रति अग्निहोत्री ने हिंदी सिनेमा के रूपहले परदे पर पदार्पण किया। यह फिल्म बॉक्सऑफिस पर जबर्दस्त रूप से हिट रही। इसकी सफलता से रति अग्निहोत्री रातोंरात स्टार बन गई, लेकिन हासन को इसका खास फायदा नहीं मिला। बालाचंदर ने हासन के लिए एक और हिंदी फिल्म जरा सी जिंदगी बनाई पर यह बॉक्सऑफिस पर असफल ही साबित हुई। बालाचंदर ने सिर्फ रोमांस पर आधारित फिल्में ही नहीं बनाई, बल्कि अन्य विषयों पर भी फिल्में बनाई। राजनीति पर आधारित थानिर-थानिर फिल्म कोमल स्वामीनाथन और खुद की लिखी एक कहानी अच्चामिलाई-अच्चामिलाई पर आधारित थी, जो काफी सफल रही। इस फिल्म में पानी के लिए ग्रामीणों के संघर्ष को जिस तरह से दर्शाया गया है, वह काबिले तारीफ है। कैलासम बालाचंदर ने वर्ष 1985 में एक और फिल्म बनाई, जो संगीत प्रधान थी। यह फिल्म सिंधु भैरवी के नाम से बॉक्सऑफिस पर हिट हुई। इस फिल्म की नायिका सुहासिनी को बेहतरीन अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। इन फिल्मों में बालाचंदर के अंतर्मन को समझा जा सकता है जिसमें उनकी पीड़ा और दर्द झलकती है। एक फिल्मकार के रूप में उनका योगदान बहुत ज्यादा है जिसे भूला पाना शायद ही किसी के लिए संभव हो सके। ब्राह्मण परिवार में जन्मे बालाचंदर को तमिल सिनेमा कालीवुड में इयाकुनार सिकारम यानी शीर्ष निर्देशक के नाम से जाना जाता है। बड़े परदे के अलावा उन्होंने छोटे परदे पर भी सफल पारी खेली। 81 साल की उम्र में भी वह सक्रिय हैं। यह भाग्य बहुत कम लोगों को ही नसीब हो पाता है। उनकी प्रसिद्ध धारावाहिकों में छोटी सी आशा हिंदी फिल्म भी शामिल है। उन्होंने चार भाषाओं में 100 से ज्यादा सितारों को तैयार किया जिनमें कइयों ने सफलता के झंडे गाड़े। ढेरों सितारों को तराशने वाले बालाचंदर ने एमजी रामचंद्रन और शिवाजी गणेशन जैसी महान हस्तियों के साथ काम नहीं किया, लेकिन इससे शायद ही कोई फर्क उन पर पड़ता हो। बालाचंदर दक्षिण सिनेमा के एक महान हस्ताक्षर हैं। उम्र के आठवें दशक में भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से नवाजे जाने वाले बालाचंदर ने देर से इस पुरस्कार के मिलने पर अफसोस जताने के बजाय इसे तहे दिल से स्वीकार किया है। हालांकि जिस दिन उन्हें इस सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा की गई, उस दिन भारत की मीडिया ब्रिटेन के राजकुमार विलियम और कैट की शाही शादी में व्यस्त था और इस खबर पर किसी का ध्यान ही नहीं गया।

Thursday, May 19, 2011

टीवी पर बंद हो लता का मजाक: शिवसेना

शिवसेना ने टीवी सेंसरशिप के अपने एजेंडे को पुन: हवा दी है। इस बार पार्टी ने सभी टीवी चैनलों को फरमान जारी करते हुए कहा है कि उनके चैनलों पर आने वाले कॉमेडी सीरियलों में लता मंगेशकर का मजाक नहीं बनाया जाए।

शिव सेना की इकाई भारतीय चित्रपट सेना के अध्यक्ष अभिजीत पनसे की अगुवाई में पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल ने सोनी चैनल को इस संबंध में एक पत्र लिखा है। पत्र में चैनल पर प्रसारित होने वाले कॉमेडी शो ‘कॉमेडी सर्कस’ में मंगेशकर का मजाक बनाए जाने पर आपत्ति जताई है और तत्काल प्रभाव से उन एपिसोड पर रोक लगाने की मांग की है।

कार्यक्रम के प्रतिभागी सुदेश और कृष्णा ने सीरियल में मंगेशकर का मजाक बनाया था। पनसे ने कहा, ‘लता मंगेशकर भारतीय म्यूजिक इंडस्ट्री की आइकान हैं। भारत रत्न से सम्मानित व्यक्ति के खिलाफ हम ऐसी बेहूदी चीजें बर्दाश्त नहीं करेंगे।

फिलहाल यह चेतावनी केवल सोनी को ही दी गई है। लेकिन हम चाहते हैं कि दूसरे चैनल भी हमारी बात को समझें।’ साथ ही यह भी कहा कि अगर चैनल इन एपिसोडों पर रोक नहीं लगाता है तो उसे पार्टी अपने तरीके से समझाएगी।

मंगेशकर और शिवसेना का रहा पुराना रिश्ता:

लता मंगेशकर और शिवसेना के संबंधों का पुराना इतिहास रहा है। 90 के दशक में मंगेशकर ने खुद से शिव उद्योग सेना के लिए परफॉर्म कर धन इकट्ठा किया था। वहीं उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर 2009 में शिवसेना से जुड़े थे।

हालांकि इस बारे में पनसे ने कहा, ‘हमने यह मुद्दा इसलिए नहीं उठाया है क्योंकि उनसे हमारे रिश्ते अच्छे हैं। उनका अपमान करना देश के एक महान कलाकार का अपमान है(आलोक देशपांडे,दैनिक भास्कर,मुंबई,18.5.11)।’

Friday, April 29, 2011

दो-दो संथाली फिल्मोत्सव

संथाली फिल्म इतिहास में यह पहला मौका है जब एक साथ दो-दो संथाली फिल्म महोत्सव होने जा रहे हैं। ये महोत्सव भले ही संथाली फिल्म जगत के भीतरी विवाद की उपज हों, लेकिन इससे वर्षो से बीमार संथाली फिल्म उद्यम के साथ एक बार फिर ग्लैमर की चकाचौंध जुड़ गई है। एक तरफ झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांस्कृतिक कला मंच के प्रदेश अध्यक्ष रमेश हांसदा ने ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन का झंडा बुलंद किया हुआ है तो वहीं दूसरी ओर पूर्व विधायक व झारखंड पीपुल्स पार्टी के मुखिया सूर्य सिंह बेसरा ने पंडित रघुनाथ मुर्मू एसोसिएशन ऑफ संथाली सिनेमा एंड आर्ट (रास्का) के बैनर तले मोर्चा संभाला है। दोनों गुट पांच मई को दम दिखाएंगे।

होगा आदिवासी 'टैलेंट हंट'
पंडित रघुनाथ मुर्मू अकादमी फॉर संथाली सिनेमा एंड आर्ट (रास्का) पांच मई को होने वाले फिल्म समारोह व रास्का अवार्ड समारोह की तैयारी कर चुका है। इससे साहित्य अकादमी अवार्ड विजेता भोगला सोरेन सरीखे दिग्गज जुड़े हैं तो संथाली फिल्म जगत (बड़े पर्दे) के सर्वप्रथम अभिनेता प्रेम मार्डी जैसी शख्सियत भी संबद्ध है। संथाली सिनेमा अवार्ड देने की शुरुआत 2008 में उस समय शुरू हुई, जब सूर्य सिंह बेसरा ने अपनी वर्षो पुरानी परिकल्पना को पूरा किया। इस बार यह महोत्सव माइकल जॉन प्रेक्षागृह में आयोजित होगा।

रास्का के ज्यूरी मेंबर
भोगला सोरेन, सीआर माझी, मेघराय टुडू, प्रो. लखाई बास्के व प्रो. दिगंबर हांसदा।
रास्का की निदेशक मंडली
सूर्य सिंह बेसरा, डा. शीला बेसरा, रतन कुमार बेसरा व जोबारानी बास्के।
रास्का की राज्य स्तरीय संयोजक मंडली
प्रेमचंद किस्कू (झारखंड), प्रेम मार्डी (पश्चिम बंगाल), शायबा सुशील कुमार हांसदा (उड़ीसा) व अनिल मरांडी (असम)।

किसको क्या जिम्मेदारी
स्मारिका प्रकाशन के लिए सूर्य सिंह बेसरा। रतन कुमार बेसरा को फीचर फिल्म संग्रह। चंदन किस्कू को वीडियो फिल्म संग्रह। फातु मुर्मू को प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार। जोबा बास्के को अतिथि स्वागत। धानु टुडू को आदिवासी टैलेंट हंट। लखाई बास्के को जूरी टीम में समन्वय। कुशल हांसदा को सांस्कृतिक कार्यक्रम। रवींद्रनाथ मुर्मू को कार्यक्रम संयोजन। जयपाल मुर्मू को स्टेज सजावट। विनय टुडू को विडियो व फोटोग्राफी का प्रभार। महात्मा टुडू को जनसंपर्क प्रभारी। डा. पिंकू बास्को को मंच संचालन।

संथाली फिल्म का विकास
ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन द्वारा आयोजित द्वितीय संथाली एवं क्षेत्रीय फिल्म महोत्सव का आगाज शुक्रवार को कर दिया जाएगा। पहले दिन हेमंत सोरेन को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया गया है। यह महोत्सव 29 अप्रैल से शुरू होकर लगातार पांच मई तक चलेगा। पंडित रघुनाथ मुर्मू जयंती के उपलक्ष्य पर पांच मई को गोपाल मैदान में झारखंड सिने अवार्ड समारोह का आयोजन होगा। इस बार कार्यक्रम के सफल आयोजन की जिम्मेदारी रमेश हांसदा ने उठा रखी है। वे अकेले ही इसके सफल आयोजन को दिन-रात एक किए हुए हैं। इस बार आयोजन पर करीब 20 लाख रुपए खर्च करने का अनुमान है।

आइसफा के ज्यूरी मेंबर
सीआर माझी, शिवलाल सागर, रविलाल टुडू, रामचंद्र हेम्ब्रम व दिगंबर हांसदा।
कहां-कहां दिखाई जाएगी फिल्म

तिथि-फिल्म-स्थान
29 अप्रैल : धूल व बिदलई , एक्सएलआरआई
30 अप्रैल जनुम पीड, जनुम दादा, - माइकल जॉन बिष्टुपुर
30 अप्रैल निसार्थी (संथाली), - करनडीह जाहेरथान
01 मई प्यार कर मेहंदी रचाई लेलो रे, करनडीह जाहेरथान
01 मई तोर आशिक मोर, माइकल जॉन बिष्टुपुर
01 मई तेतांग जिवी, (संथाली) करनडीह जाहेरथान
01 मई जुवन मोन, (संथाली) राजनगर
02 मई लावड़िया व कथांतर, माइकल जॉन बिष्टुपुर
02 मई तेतांग जिवी (संथाली), करनडीह जाहेरथान
02 मई आस (संथाली) जादूगोड़ा कॉलोनी
03 मई बिस्किल (संथाली) जादूगोड़ा कॉलोनी
03 मई अंगिर (संथाली) गम्हरिया
03 मई करमा (नागपुरी) माइकल जॉन बिष्टुपुर

सक्रिय सदस्य : रमेश हांसदा, अर्जुन टुडू, पीतांबर हांसदा, दशरथ हांसदा, जॉन दास, रमेश मार्डी, विनोद सोरेन, होंदा टुडू, दिनेश हांसदा, विक्रम सोरेन व बिंदे सोरेन(भादो माझी,दैनिक जागरण,जमशेदपुर,29.4.11)।

Friday, April 22, 2011

राज ठाकरे के करीबी की पत्नी बना रहीं भोजपुरी फिल्म

एक समय मुंबई में भोजपुरी फिल्म दिखाने वाले सिनेमाघरों में तोड़फोड़ करने वाली राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के एक नेता अब खुद ही भोजपुरी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं और पार्टी को इससे कोई आपत्ति नहीं है। मनसे के उपाध्यक्ष (चित्रपट कामाचार सेना) सतीश बाविस्कर की पत्नी नंदा बाविस्कर नी शेलर भोजपुरी फिल्म त्रिदेव का निर्माण कर कर रही हैं। फिल्म को छठ पूजा के मौके पर प्रदर्शित किया जाएगा। सतीश ने भोजपुरी फिल्म निर्माण को महज व्यवसाय एक व्यवसाय बताया है। पार्टी भी एक सुर में इसे केवल व्यवसाय ही मान रही है। भोजपुरी फिल्मों से मुनाफा कमाने पर मनसे का नरम रवैया इसलिए सवाल खड़े करता है, क्योंकि वह भाषा के नाम पर महाराष्ट्र में लगातार उत्पात मचाती रही है। मनसे कार्यकर्ता शहर के कई सिनेमाघरों में भोजपुरी फिल्म प्रदर्शित करने पर हमले कर चुके है। दिलचस्प यह है कि सतीश को यह काम पार्टी की उत्तर भारतीय भगाओ वाली विचारधारा के खिलाफ नहीं लगता। उन्होंने सफाई देते हुए कहा, भोजपुरी फिल्म निर्माण में क्या बुराई है? जब कोई दुबे, चौबे या मिश्रा मराठी फिल्म बना कर कमाई कर सकता है तो मराठी लोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते? वे यहां से धन कमा कर अपने राज्य भेज देते हैं जबकि मराठी लोग कमाई को अपने ही राज्य में रख सकते हैं। मैने यह बात पार्टी के वरिष्ठ अधिकारियों को भी बता दी है। उल्लेखनीय है कि फरवरी 2008 में थाणे के प्रताप टाकिज और जुलाई 2008 में लोअर परेल के दीपक टाकीज पर मनसे कार्यकर्ताओं ने भोजपुरी फिल्म प्रदर्शित करने पर जमकर तोड़फोड़ की थी। मनसे उपाध्यक्ष वागेश सरास्वत ने कहा, यह सिर्फ व्यवसाय है(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,22.4.11 में मुंबई से संजीव देवासिया की रिपोर्ट)।

Sunday, April 17, 2011

गीतों के राजकुमार थे गोपाल सिंह नेपाली

भारतीय सिनेमा जगत में गीतों के राजकुमार के नाम से मशहूर गोपाल सिंह नेपाली का नाम एक ऐसे गीतकार के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने लगभग दो दशक तक प्रेम, विरह, प्रकृति और देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत गीतों की रचना करके श्रोताओं के दिल पर राज किया। बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बेतिया में 11 अगस्त 1911को जन्मे इस गीत सम्राट के पिता रेलबहादुर सिंह फौज में हवलदार थे। उनके पिता मूल रूप से नेपाल के रहने वाले थे लेकिन नौकरी के लिए भारत और फिर बेतिया में ही बस गए। विषमताओं, अभावों और संघर्षो में पले-बढ़े नेपाली अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए लेकिन संघर्षो के मध्य जीवन की पाठशाला में आम लोगों की भावनाओं को उन्होंने नजदीक से जाना-समझा और उनकी अपेक्षा तथा आकांक्षाओं को अपनी कविताओं और गीतों में वाणी दी। नेपाली जी ने जब होश संभाला तब चंपारण में महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चरम पर था। उन दिनों पंडित कमलनाथ तिवारी, पंडित केदारमणि शुक्ल और पंडित राम ऋषिदेव तिवारी के नेतृत्व में भी इस आंदोलन के समानान्तर एक आंदोलन चल रहा था। नेपाली जी इस दूसरी धारा के ज्यादा करीब थे। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली जी की पहली कविता 'भारत गगन के जगमग सितारे' 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम चार हिन्दी पत्रिकाओं, रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का सम्पादन किया। युवावस्था में नेपाली जी के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें कवि सम्मेलनों में आमंत्रित किया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' उनके एक गीत को सुनकर गद्गद हो गए थे। उस दौर में नेपाली जी के गीतों की धूम मची हुई थी लेकिन उनकी आर्थिक हालत खराब थी और कवि सम्मेलनों से मिलने वाली रकम से परिवार का गुजारा चलाना मुश्किल हो रहा था। वर्ष 1944 में वह अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुंबई आए थे। उस कवि सम्मेलन में फिल्म निर्माता शशिधर मुखर्जी भी मौजूद थे, जो उनकी कविता सुनकर बेहद प्रभावित हुए। उसी दौरान उनकी ख्याति से प्रभावित होकर फिल्मिस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान ने उन्हें दो सौ रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में चार साल के लिए अनुबंधित कर लिया। नेपाली जी ने सबसे पहले 1944 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी ऐतिहासिक फिल्म 'मजदूर' के लिए गीत लिखे। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित इस फिल्म का संवाद लेखन प्रसिद्ध साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क ने किया था। इस फिल्म के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपालीजी को 1945 का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार दिया गया। फिल्मी गीतकार के तौर पर अपनी कामयाबी से उत्साहित होकर नेपाली जी फिल्म इंडस्ट्री में ही जम गए और लगभग दो दशक 1944 से 1962 तक गीत लेखन करते रहे। इस दौरान उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 400 से अधिक गीत लिखे। फिल्म इंडस्ट्री में नेपाली की भूमिका गीतकार तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने गीतकार के रूप में स्थापित होने के बाद फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा और हिमालय फिल्म्स और नेपाली पिक्र्चस फिल्म कंपनी की स्थापना करके उसके बैनर तले तीन फिल्मों का निर्माण किया(राष्ट्रीय सहारा,मुंबई,17.4.11)।

Friday, April 15, 2011

फर्स्ट डे फर्स्ट शो अब आपके घर पर

तकनीक का चमत्कार यूं ही जारी रहा तो वो दिन दूर नहीं जब अपने पसंदीदा सितारे की ताजातरीन फिल्म देखने के लिए फिल्म की रिलीज के दिन आप अपने घर के भीतर बाहर से ताला लगाकर बैठें। क्योंकि, आप नहीं चाहेंगे कि आपकी ये पसंदीदा फिल्म बजाय सिनेमाघर के जब आप अपने घर में अपने खास दोस्तों के साथ देख रहे हों तो कोई आपको डिस्टर्ब करे। उपग्रहों से सीधे आपके टेलीविजन के लिए तमाम चैनल पकड़ने वाले छोटी सी छतरी का दिमाग बड़ा हो रहा है और इसके जरिए आपकी जेब से पैसा निकालने की एक चुपचाप लेकिन चौंकाने वाली कोशिश शुरू हो गई है।

देश में फिल्मों को थिएटरों तक पहुंचाने के तरीकों में पिछले तीन-चार साल में क्रांतिकारी परिवर्तन हो चुका है। अब तमाम सिनेमाघरों के मालिक वितरकों के पास फिल्म के प्रिंट लेने के ना तो अपने कर्मचारी भेजते हैं और ना ही शुक्रवार की दोपहर तक ट्रेन लेट होने या रास्ते में ट्रैफिक जाम लग जाने के चलते प्रिंट न आने पर उनकी सांसें ही फूलती हैं। कभी जी समूह के लिए देश में पहली ऑन लाइन लॉटरी प्लेविन की परिकल्पना सोचने और उसे अमली जामा पहनाने वाले और पेशे से इंजीनियर संजय गायकवाड़ ने छह साल पहले एक ऐसी तकनीक की परिकल्पना की जिसके जरिए फिल्मों का सिनेमाघरों में प्रदर्शन और वितरण एक जगह से नियंत्रित किया जा सके। पूरे देश में करीब ढाई हजार सिनेमाघर अब इसी तकनीक से सैटेलाइज के जरिए फिल्में दिखाते हैं।

सैटेलाइट के जरिए एमपीईजी ४ स्तर का डिजिटल प्रसारण मुहैया कराने वाली दुनिया की इकलौती कंपनी यूएफओ मूवीज को चलाने वाले वैल्यूएबल ग्रुप के भीतर अब एक और क्रांतिकारी काम चल रहा है। ये कदम है देश में सिनेमा के शौकीनों का एक ऐसा क्लब तैयार करने का, जो नई फिल्में देखने के लिए ५० हजार से लेकर एक लाख रुपए प्रति फिल्म तक खर्च करने का माद्दा रखते हों। ये कीमत सदस्यों की संख्या बढ़ने पर आगे कम भी हो सकती है। क्लब एक्स नाम के इस समूह में अब तक हर्ष गोयनका, अमित बर्मन और छगन भुजबल के अलावा शाहरूख खान,अजय देवगन और सचिन तेंदुलकर शामिल हो चुके हैं। क्लब की सदस्यता फिलहाल केवल आमंत्रण से है और जाहिर है,इसका सदस्य बनने से पहले आपकी कोठी में दस-बारह लोगों के एक साथ बैठने लायक छोटा सा थिएटर भी होना चाहिए(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,15.4.11)

Wednesday, April 6, 2011

भोजपुरी फिल्मों पर बड़ी कंपनियों की नजर

कार्पोरेट कंपनियां अब सिर्फ बड़े शहरों पर ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी पहुंचना चाहती हैं और इसके लिए वह फिल्मों का सहारा ले रही हैं। इमामी कंपनी ने अपने तेल की ब्रान्डिंग के लिए भोजपुरी फिल्म की मदद लेते हुए फिल्म का एक पूरा गाना स्पॉन्सर किया हैं। जंग नाम की फिल्म में नजर आने वाले इस गाने का रिकार्डिंग तक का पूरा खर्च इमामी ने किया है। फिल्मों के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है। झंडू बाम गाने की सफलता से कंपनियों को यह अनोखी कल्पना सूझी है। इमामी कंपनी का हिमानी नवरत्न एक्स्ट्रा ठंडा ऑयल के प्रमोशन के लिए कंपनी ने यह अनोखा कदम उठाया हैं।

हालांकि, कंपनी के तेल का विज्ञापन शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन कर ही रहे हैं, बावजूद इसके उत्तर प्रदेश में अपनी पैठ बनाने के लिए कंपनी ने गाना स्पॉन्सर किया है। सूत्रों के मुताबिक, भोजपुरी में बनने वाली फिल्म जंग में संभावना सेठ पर यह गाना फिल्माया गया है।मुंबई (ब्यूरो)। कार्पोरेट कंपनियां अब सिर्फ बड़े शहरों पर ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी पहुंचना चाहती हैं और इसके लिए वह फिल्मों का सहारा ले रही हैं। इमामी कंपनी ने अपने तेल की ब्रान्डिंग के लिए भोजपुरी फिल्म की मदद लेते हुए फिल्म का एक पूरा गाना स्पॉन्सर किया हैं। जंग नाम की फिल्म में नजर आने वाले इस गाने का रिकार्डिंग तक का पूरा खर्च इमामी ने किया है। फिल्मों के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है। झंडू बाम गाने की सफलता से कंपनियों को यह अनोखी कल्पना सूझी है। इमामी कंपनी का हिमानी नवरत्न एक्स्ट्रा ठंडा ऑयल के प्रमोशन के लिए कंपनी ने यह अनोखा कदम उठाया है(नई दुनिया,दिल्ली,6.4.11)।

Tuesday, March 29, 2011

लीला सैमसन हो सकती हैं सेंसर बोर्ड की अगली अध्यक्ष

हफ्तों तक चली कोशिशों के बाद भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय किसी भी फिल्मी हस्ती को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) का अध्यक्ष बनने के लिए राजी नहीं कर सका। बोर्ड की मौजूदा अध्यक्ष शर्मिला टैगौर का कार्यकाल ३१ मार्च को समाप्त हो रहा है और सूत्रों के मुताबिक संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली की अध्यक्ष लीला सैमसन का नाम बोर्ड की अगली अध्यक्ष के तौर पर तय हो गया है। हालांकि, इसकी आधिकारिक घोषणा अभी बाकी है। सेंसर बोर्ड का नया अध्यक्ष तलाशने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय पिछले कई दिनों से हिंदी फिल्म उद्योग के कुछ लोगों से लगातार संपर्क कर रहा था। सूत्रों के मुताबिक इस पद के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की पहली पसंद फिल्म अभिनेत्री और पूर्व सांसद शबाना आजमी थीं। शबाना के पति जावेद अख्तर इन दिनों राज्यसभा के सदस्य हैं और इसके चलते ही शबाना ने और राजनीतिक अनुग्रह से बचने के लिए इस पद की जिम्मेदारियां संभालने से इंकार कर दिया। इसके बाद इस पद के लिए फिल्म निर्देशकों रमेश सिप्पी, गोविंद निहलानी और सईद मिर्जा का भी मन टटोला गया। मंत्रालय के अफसरों ने रमेश सिप्पी को अध्यक्ष बनाने के लिए खास कोशिशें की, लेकिन फिल्म एंड टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल रहे सिप्पी ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद को अपनी मौजूदा जिम्मेदारी से टकराव मानते हुए इसके लिए मना कर दिया। बीच में फिल्म अभिनेत्री रवीना टंडन के नाम की चर्चा भी सेंसर बोर्ड के मुंबई कार्यालय में जोरों पर रही। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर किसी गैर फिल्मी शख्सियत की तैनाती हाल के दिनों में कोई ११ साल पहले हुई थी, जब भाजपा नेता बी.पी. सिंघल को ये पद सौंपा गया था। फिल्म जगत में ये आम धारणा बन चुकी है कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पर अब राजनीतिक दबाव काफी ज्यादा रहता है जिसके चलते कई बार इस पद पर बैठे शख्स को अपनी ही बिरादरी के लोगों के गुस्से का शिकार बनना पड़ता है।

निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म राजनीति और निर्देशक सुधीर मिश्रा की फिल्म ये साली जिंदगी को लेकर हाल के दिनों में सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का पद काफी विवादों में घिरा रहा है। संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली की अध्यक्ष लीला सैमसन को १९८२ में संस्कृति पुरस्कार, १९९० में पद्मश्री पुरस्कार और २००० में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। पिछले साल ही अपनी गुरु रुक्मिणी देवी के जीवन पर लिखी उनकी एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,29.3.11)।

Thursday, March 24, 2011

नहीं रहीं लिज टेलर

अपनी मादक खूबसूरती, अत्याधुनिक रफ्तार भरी जीवन शैली और बिंदास बातों के लिए मशहूर हॉलीवुड के इतिहास की सबसे आकर्षक अभिनेत्री लिज टेलर का बुधवार को हृदयगति रुकने से निधन हो गया। वह 79 वर्ष की थीं। अस्वस्थ होने के कारण वह पिछले दो महीनों से लॉस एंजिलिस के सीडार्स-सिनाई अस्पताल में भर्ती थीं। जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब उनके चारों बच्चे उनके पास थे। उनके दस नाती-पोते और चार पड़-नाती, पड़-पोते भी हैं। उनकी प्रवक्ता सैली मॉरीसन के हवाले से सीएनएन ऑनलाइन ने कहा कि लिज गंभीर रूप से बीमार थीं, फिर भी उन्हें विश्वास था कि वह स्वस्थ हो कर घर लौट जाएंगी। हॉलीवुड में उनकी शोहरत की मिसालें दी जाती है। माना जाता है कि नीली आंखों वाली लिज ने जितनी शोहरत अपने जीवन काल में पाई, वह किसी शख्स को आज तक हासिल नहीं हुई। उनकी खूबसूरती, उनका अभिनय और उनकी निजी जिंदगी हमेशा चर्चा का विषय रही। पूरी दुनिया में उन्हें चाहने वाले मौजूद हैं। अपनी आठ शादियों के अतिरिक्त पॉप संगीत के दिवंगत बादशाह माइकल जैक्सन के साथ उनकी मित्रता ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। उनकी बिंदास जीवन शैली ने अगर असंख्य दिल जीते, तो जाने कितने दिल तोड़े भी। अभिनेता रिचर्ड बर्टन के साथ उनके प्रेम और विवाह ने खूब चर्चा पाई। बर्टन से लिज ने दो बार शादी की और दो बार तलाक लिया। हॉलीवुड की फिल्म और टेबुलायड पत्रकारिता को ग्लैमरस बनाने में उनके जीवन से पांचवें और छठे दशक में जुड़े स्कैंडलों का का बड़ा योगदान रहा। एलिजाबेथ टेलर का निधन हॉलीवुड सिनेमा के एक युग का अंत है।
पूरा नाम : डेम एलिजाबेथ रोजमंड टेलर। वह लिज टेलर के नाम से लोकप्रिय हुईं। 
बाल कलाकार : लिज की मां रंगमंच की अभिनेत्री थीं। लिज ने बाल कलाकार के रूप में फिल्मी दुनिया में कदम रखा। मात्र नौ साल की उम्र में पहली फिल्म देयर इज वन बॉर्न एवरी मिनट की। निर्माता कंपनी, यूनिवर्सल पिक्चर्स ने उनका आगे का अनुबंध रद कर दिया और कहा कि नन्हीं लिज को न नाच आता है, न गाना और न अभिनय। 
पहली सफलता : फिल्म नायिका के रूप में उन्हें पहली सफलता अ प्लेस इन द सन (1951) में मिली। उस वक्त उनकी उम्र 21 वर्ष थी। 
ऑस्कर : लिज को तीन ऑस्कर अवार्ड मिले। बटरफील्ड 8 (1960) और हू इज अफ्रेड ऑफ वर्जीनिया वूल्फ (1966) फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए। उन्हें तीसरा ऑस्कर मानवता की सेवा के कार्यो के लिए 1993 में दिया गया। 
प्रमुख फिल्में : पांचवे दशक में वह हॉलीवुड की सबसे बड़ी शख्सीयत के रूप में उभरीं। उनकी प्रमुख फिल्में हैं-फादर ऑफ द ब्राइड, अ प्लेस इन द सन, बटरफील्ड 8, रेन ट्री कंट्री, हू इज अफ्रेड ऑफ वर्जीनिया वूल्फ, कैट ऑन द हॉट रूफ टिन, सडनली लास्ट समर, द अपार्टमेंट, क्लियोपेट्रा। 
सबसे पहले 10 लाख : टेलर हॉलीवुड की पहली अभिनेत्री थीं, जिन्होंने फिल्म के लिए 10 लाख डॉलर की फीस प्राप्त की। 1960 में उन्होंने ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स कंपनी से फिल्म क्लियोपेट्रा के लिए यह रकम ली। फिल्म तीन साल में बनकर पूरी हुई। करीब साढ़ चार करोड़ डॉलर में अपनी अपने समय की यह सबसे महंगी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। 
शादियां और संतानें : एलिजाबेथ टेलर की ख्याति आठ शादियों के लिए भी है। उनके सात पति थे। अभिनेता रिचर्ड बर्टन से उन्होंने दो बार शादी की। उनके दो बेटे और दो बेटियां हुई(दैनिक जागरण,24.3.11)।

Monday, March 14, 2011

आलम आरा के 80 साल

भारतीय सिनेमा के लिए वह दिन बहुत खास था। दर्शक रुपहले परदे पर कलाकारों को बोलते हुए देखने को आकुल थे। हर तरफ चर्चा थी कि परदे पर कैसे कोई कलाकार बोलते हुए दिखाई देगा। आखिरकार 14 मार्च 1931 को वह ऐतिहासिक दिन आया, जब बंबई (अब मुंबई) के मैजिस्टक सिनेमा में आलम-आरा के रूप में देश की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई। उस समय दर्शकों में इसे लेकर काफी कौतूहल रहा था। फिल्म में अभिनेत्री जुबैदा के अलावा पृथ्वी राज कपूर, मास्टर विट्ठल, जगदीश सेठी और एलवी प्रसाद प्रमुख कलाकार थे, जिन्हें लोग पहले परदे पर कलाकारी करते हुए देख चुके थे, लेकिन पहली बार परदे पर उनकी आवाज सुनने की चाह सभी में थी। दादा साहेब फाल्के ने अगर भारत में मूक सिनेमा की नींव रखी तो अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्मों का नया युग शुरू किया। हालांकि इससे पूर्व कोलकाता तब कलकत्ता की फिल्म कंपनी मादन थिएटर्स ने चार फरवरी 1931 को एंपायर सिनेमा (मुंबई) में दो लघु फिल्में दिखाई थी, लेकिन इस फिल्म में कहानी को छोड़कर नृत्य और संगीत के दृश्य थे। इसलिए आलम-आरा को देश की पहली फीचर फिल्म कहा जाता है। चार साल पहले 25 मई 1927 को अमेरिका में दुनिया की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई थी। वार्नर ब्रदर्स ने द जॉज सिंगर के नाम से बोलती फिल्मों का इतिहास शुरू किया। यह फिल्म भी उस समय बहुत चर्चित रही और इसके बाद तो कई और कंपनियां बोलती फिल्मों के निर्माण में जुट गई। हालांकि मूक फिल्मों के सुपर स्टार चार्ली-चैपलिन को फिल्मों में आवाज डालने की परंपरा रास नहीं आई, इसे वह अभिनय में बाधक मानते थे। विश्व स्तर पर मूवी और टॉकी फिल्मों को लेकर जबर्दस्त बहस शुरू हो गई थी। जबकि भारत में इस नवीन प्रयोग को हाथों-हाथ लिया गया और एक के बाद एक फिल्में बनने लगीं। बोलती फिल्मों का युग शुरू होने से पूर्व मूक फिल्मों को मूवी कहा जाता था, क्योंकि इसमें कलाकार सिर्फ हिलते-डुलते थे। और जब बोलती फिल्मों का युग आया तो वह टॉकी के रूप में परिवर्तित हो गया। मूक फिल्मों की शुरुआत करने वाले दादा साहेब को भी अपनी मूक फिल्म सेतुबंध को बोलती फिल्म में तब्दील करना पड़ा था। इस स्तर से सेतुबंध भारत की पहली डब फिल्म बन गई। तब डब कराने में 40 हजार रुपये खर्च आया था। उस समय बोलती फिल्मों को बनाना आसान काम नहीं था। आज की तरह ढेरों सुविधाएं भी नहीं थीं। सवाक फिल्मों के आगमन से कई नई चीजें जुड़ीं तो कुछ चीजों का महत्व खत्म हो गया। मूक फिल्मों में कैमरे का कमाल होता था, लेकिन बाद में माइक्रोफोन के कारण इसकी आजादी पर अंकुश लग गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि तब स्टूडियो में गानों की रिकार्डिग नहीं होती थी और शूटिंग स्थलों पर ही संवाद के साथ-साथ गाने भी रिकॉर्ड किए जाते थे। गानों की रिकार्डिग के लिए संगीतकार अपनी पूरी टीम के साथ शूटिंग स्थल पर मौजूद रहते थे। कलाकार खुद अपना गाना गाते थे और साजिंदों को वहीं आसपास पेड़ के पीछे या झोपड़ी अदि में छिपकर बाजा बजाना पड़ता था। कभी-कभी तो उन्हें पानी में रहकर या पेड़ पर बैठकर बजाना पड़ता था। इस दौरान किसी से भी छोटी गलती हो जाने पर शूटिंग दोबारा करनी पड़ती थी। आलम-आरा में सात गाने थे। फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत दे दे खुदा के नाम पर.. वजीर मोहम्मद खान (डब्ल्यूएम खान) ने गाया था। हालांकि खान साहब इन फिल्म के मुख्य नायक नहीं थे, लेकिन उन्होंने इतिहास रचा और भारतीय सिनेमा जगत के पहले गायक बन गए। खान साहब इस फिल्म में एक फकीर की भूमिका में थे। बदला दिलवाएगा या रब.. गाने से अभिनेत्री जुबैदा भारत की पहली फिल्मी गायिका बनीं। फिल्म में संगीत दिया था फिरोज शाह मिस्त्री और बी ईरानी ने। इस फिल्म में संगीत के लिए महज तीन वाद्ययंत्रों का ही प्रयोग किया गया था। अपनी संवाद अदायगी के लिए पहचाने जाने वाले पृथ्वी राज कपूर की आवाज को तब फिल्मी समीक्षकों ने नकार दिया था। यह फिल्म उस समय चर्चित एक पारसी नाटक पर आधारित थी। एक राजकुमार और बंजारन लड़की के बीच प्रेम संबंधों पर आधारित इस फिल्म के लेखक जोसेफ डेविड थे, जो 124 मिनट लंबी थी। आलम-आरा फिल्म से सबसे चर्चित हस्ती में पृथ्वी राज कपूर का नाम आता है, जिन्होंने नौ मूक फिल्मों में काम करने के बाद बोलती फिल्म में काम किया था। फिल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए 1971 में दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। फिल्म की नायिका जुबैदा ने बोलती फिल्मों में आने से पहले गैर बोलती फिल्मों में भी काम किया था। उन्होंने काला नाग (1924), पृथ्वी वल्लभ (1924), बलिदान (1927) और नादान भोजाई (1927) जैसी कई मूक फिल्मों में काम किया। शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर 1936 में बनी पहली हिंदी फिल्म में पारो की भूमिका उन्होंने ही निभाई थी। इस फिल्म से अभिनेता के रूप में करियर की शुरुआत करने वाले एलवी प्रसाद आगे चलकर हिंदी और तेलुगु फिल्मों के मशहूर निर्माता-निर्देशक बने। उनकी निर्देशित कुछ चर्चित हिंदी फिल्में शारदा (1957), छोटी बहन (1959) और जीने की राह (1969) है। बतौर निर्माता हमराही (1963), मिलन (1967), खिलौना (1970) और एक दूजे के लिए (1981) उनकी कुछ यादगार फिल्में हैं। प्रसाद को 1982 में भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। कई नायाब सितारे देने वाली यह फिल्म आज अपने अस्तित्व में नहीं है। दुर्भाग्य से आठ साल पहले 2003 में पुणे की राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में लगी आग से आलम-आरा फिल्म के नामोनिशान खाक हो गए। आलम-आरा ही नहीं, भारतीय सिनेमा की और भी कई अमूल्य धरोहर इसमें स्वाहा हो गई। इस अग्निकांड के बाद पूरे देश में इसके प्रिंट की खोज की गई, लेकिन सफलता नहीं मिली। फिल्म ही नहीं, इसके गाने भी उसी आग में नष्ट हो गए। उस समय फिल्मी गानों को ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार करवाने की शुरुआत नहीं हुई थी, इसलिए उसे अलग से संरक्षित भी नहीं किया जा सका। आज इस फिल्म को रिलीज हुए 80 साल बीत चुके हैं। हमारा भारतीय सिनेमा कहां से कहां तक पहुंच गया है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम फिल्मी इतिहास के शुरुआती पन्ने ही बचाकर नहीं रख सके। हालांकि इस फिल्म के कुछ फोटो जरूर बचे हुए हैं, जिसे देखकर हम संतोष कर सकते हैं(सुरेन्द्र कुमार वर्मा,दैनिक जागरण,14.3.11)।