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Monday, August 30, 2010

सालों प्रधान रह चुकी हैं पीपली के नत्था की अम्मा

यह कम लोग जानते होंगे कि फिल्म पीपली के नत्था की अम्मा फर्रुख जफर १६ साल तक अपने गांव चकेसर की प्रधान रह चुकी हैं । जौनपुर के शाहगंज तहसील के गांव चकेसर में अब भी उनकी पहचान प्रधान अम्मा की है, नत्था की अम्मा की नहीं । आकाशवाणी की उद्घोषिका से अपना करियर शुरू करने वाली फर्रुख जफर की शादी तब हो गई थी जब वह कक्षा सात में थीं । एक बेटी पैदा करने के बाद उन्होंने लखनऊ के महिला कालेज से हाईस्कूल किया । इंटर और बीए के बाद अलीगढ़ से एमए का एक सेमेस्टर भी कर डाला ।

मुंबई में पीपली लाइव की सफलता के जश्न में शरीक होकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ आईं फर्रुख जफर ने "नईदुनिया" से एक विशेष बातचीत में कहा कि बचपन से कुछ करने की एक भूख थी जो हर वक्त कचोटती थी । इसीलिए कभी चुप नहीं बैठीं । शादी के बाद लखनऊ आ गईं । पढ़ने लगीं और पढ़ाई के साथ कुछ करने की ललक १९५७ में आकाशवाणी खींच ले गई । पाटदार आवाज को कौन नकारता । आडीशन में पास हुईं और बन गईं अनाउंसर । आकाशवाणी के पंचरंगी कार्यक्रम की पहली उदघोषिका होने का गर्व भी फर्रुख अम्मा को हासिल है ।

एक महफिल में मुजफ्फर अली ने इन्हें बतियाते देखा तो मुखातिब हुए कि मेरी मदद करिए । ठट्ठा मार कर बताती हैं कि उन्होंने बिल्कुल कंपा लगा के फंसाया । बात बात में कहते थे कि मेरी मदद करिए । फिल्म "उमराव जान" की तैयारी कर रहे थे । पता ही नहीं चला कि फिल्म का पहला शॉट मुझी पर फिल्माया गया । उनके सीरियल "दमयंती" में आमना बुआ के किरदार को देख आशुतोष गोवारिकर ने "स्वदेश" में काम का मौका दिया । अनुषा रिजवी ने स्वेदश में मेरी आवाज सुनकर ही फोन किया । बकौल अनुषा दो-ढाई सौ लोगों के ऑडीशन के बाद आमिर ने मुझे चुना । आमिर की तारीफ करते हुए तो उनकी आवाज पंचम तक पहुंच जाती है । बड़े फख्र से बताती हैं कि पीपली में जितने डॉयलाग मैंने बोले हैं सब मेरे हैं । मैंने अपने गांव की जुबान और जुमले जैसे बोले जाते हैं वैसे ही अदा कर दिए । खुद लिखी स्क्रिप्ट । तारीफ आमिर की कि उन्होंने बोलने दिया । बताती हैं कि "पलथड़िया मार के " को गाली कहने वाले पूरब की संस्कृति से वाकिफ नहीं हैं ।

१९७० में आकाशवाणी लखनऊ की नौकरी छोड़ वापस गांव गईं तो लोगों ने प्रधान चुन लिया । बताती हैं कि अपने सैकड़ों एकड़ खेत देकर सड़क बनवाई । जो बन सका किया । जफर साहब दिल्ली शिफ्ट हुए तो वहां पहुंची । उन्हीं दिनों आकाशवाणी दिल्ली में उर्दू सर्विस शुरू होने वाली थी । उसमें ऑडीशन दिया और वहां भी उद्घोषिका हो गईं । उनके शौहर उप्र सरकार में कमला पति त्रिपाठी की सरकार में मंत्री रहे हैं । पूर्व राष्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा जब लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के १९४२ में महामंत्री थे तो संघ के अध्यक्ष फर्रुख के शौहर सैयद मोहम्मद जफर थे । बाद में चौधरी चरण सिंह ने जब बीकेडी बनाई तो उसके पहले महासचिव भी जफर ही थे (सुहेल वहीद,नई दुनिया,दिल्ली,30.8.2010)।

भोजपुरी सिनेमा की जम रही हैं जड़ें

हिंदी फिल्मोद्योग जहां अपनी प्रदर्शित फिल्मों से लाभ कमाने के लिए संघर्ष कर रहा है वहीं चार साल पहले की 50 फिल्मों के मुकाबले भोजपुरी फिल्मोद्योग अब प्रतिवर्ष 100 फिल्में दे रहा है और पैसा भी बना रहा है।

फिल्मोद्योग के लोगों का कहना है कि यदि सरकार अपनी मदद बढ़ाए तो ये फिल्में और बेहतर व्यवसाय कर सकती हैं।

'बिहार झारखण्ड मोशन पिक्चर एसोसिएशन' के प्रवक्ता रंजन सिन्हा ने बताया कि हम अब प्रतिवर्ष 100 फिल्में प्रदर्शित कर रहे हैं।

भोजपुरी फिल्मों पर हर साल औसतन 100 करोड़ रुपये खर्च होते हैं और इनसे 125 करोड़ रुपये तक का व्यवसाय होता है।

उन्होंने कहा कि यदि कोई फिल्म सफल नहीं होती है तो भी निर्माता को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं होता। उसका घाटा 10 से 15 लाख से ज्यादा नहीं होता है।

उन्होंने बताया कि 2003 में आई फिल्म 'ससुरा बड़ा पैसा वाला' से भोजपुरी फिल्मोद्योग में एक नया मोड़ आया। इसमें मनोज तिवारी ने अभिनय किया है। कभी-कभी उनकी तुलना रजनीकांत से की जाती है।

यह फिल्म 35 से 40 लाख रुपये की लागत से बनी थी और देशभर में इसने अच्छा व्यवसाय किया।

सिन्हा ने बताया, "फिल्म ने बिहार में 1.90 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश में 1.25 करोड़ रुपये का व्यवसाय किया। देशभर से इसने कुल 4.5 करोड़ रुपये का व्यवसाय किया।"

बिहार और उत्तर प्रदेश में भोजपुरी फिल्मों के दर्शक ज्यादा हैं। मुंबई में इन दोनों राज्यों से आकर बस गए लोगों की संख्या ज्यादा है इसलिए यहां भी दर्शकों की खासी संख्या है।

इसके अलावा पश्चिम बंगाल, पंजाब और गुजरात में रहने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग ये फिल्में खूब देखते हैं।

सिन्हा ने बताया, "बिहार और झारखण्ड में 372 सिनेमा हॉल हैं और इनमें से 180 में भोजपुरी फिल्में प्रदर्शित होती हैं।" मुंबई में 32 सिनेमा हॉलों में भोजपुरी फिल्में दिखाई जाती हैं।

भोजपुरी फिल्मों के शीर्ष पांच अभिनेताओं में मनोज तिवारी, दिनेश लाल यादव निरहुआ, पवन सिंह, रवि किशन और विनय आनंद शामिल हैं। प्रमुख अभिनेत्रियों में रेणुका घोष, मोनालीसा, अनारा गुप्ता, पाखी हेगड़े और रानी चटर्जी शामिल हैं(समय लाईव,28.8.2010)।

क्या वाकई रिझाती है महंगी फिल्मों की फंतासी

भारतीय सिनेमा के इतिहास में शायद पहली बार तमाम हिन्दी भाषी अखबारों एवं पत्रिकाओं में कोई दक्षिण भारतीय फिल्म सुर्खियों में है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि दक्षिण की फिल्म को यह सुर्खियां हिन्दी फिल्म की कीमत पर मिल रही हैं। जी हां, सलमान खान की फिल्म ‘दबंग’ के सामने जिस फिल्म की जोरदार चर्चा हैं, वह है तमिल और तेलुगु भाषा में बनायी गयी और हिन्दी में डब कर रिलीज की जा रही रजनीकांत और ऐश्वर्या राय बच्चन स्टारर विज्ञान फंतासी फिल्म ‘एंधिरन’। हिन्दी इसे ‘रोबोट’ के नाम से ही रिलीज किया जाएगा।

‘एंधिरन’ भारत की ही नहीं, एशिया की सबसे महंगी फिल्म है। इस फिल्म का बजट 150-160 करोड़ रु. बताया जा रहा है। बजट का 40 फीसदी हिस्सा स्पेशल इफेक्ट्स और ग्राफिक्स पर खर्च किया गया है। पिछले दो सालों से बन रही इस फिल्म की शूटिंग विएना, पेरू, अमेरिका और ब्राजील की खूबसूरत लोकेशंस में हुई है। फिल्म में रजनीकांत ने एक वैज्ञानिक और उसके रोबोट की दोहरी भूमिका की है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स तैयार किए हैं ‘टर्मिनेटर’ और ‘जुरासिक पार्क’ सीरीज की टीम ने। रजनीकांत और ऐश के भव्य कास्ट्यूम्स फिल्म ‘बैटमैन’ के डिजाइनर द्वारा बनायी गयी है और स्टंट डिजाइन किए हैं ‘द मैट्रिक्स’ की टीम ने।

ये रोचक तथ्य है कि भारत की ज्यादातर महंगी फिल्में दक्षिण में बनी हैं। रजनीकांत की फिल्म ‘शिवाजी’ जहां 90 करोड़ में बनी थी, वहीं कमल हासन की फिल्म ‘दशावतारम’ पर 140 करोड़ खर्च हुए। ‘शिवाजी’ ने बॉक्स ऑफिस पर शानदार बिजनेस कर 430 करोड़ बटोरे। इधर, बॉलीवुड में अभी तक किसी फिल्म पर 100 करोड़ भी खर्च नहीं हुए हैं। हिन्दी की सबसे महंगी फिल्म अक्षय कुमार की ‘ब्लू’ मानी जाती है, जिस पर 75 करोड़ खर्च हुए थे। ‘ब्लू’ के बजट का ज्यादातर हिस्सा अक्षय की डबल डैकर फीस के रूप में उनकी जेब में गया और बाकी पैसे विदेशी लोकेशंस, अंडरवाटर तकनीक, महंगे सेट्स और कास्ट्यूम में खर्च हुए, लेकिन कमजोर कंटेंट की वजह से यह फिल्म फ्लॉप साबित हुई।

आशुतोष गोवारिकर की रितिक और ऐश्वर्या संग बनी फिल्म ‘जोधा अकबर’ का बजट भव्य सेट्स, युद्घ दृश्यों तथा लीड सितारों की भारी-भरकम फीस की वजह से 40 करोड़ तक पहुंच गया था। शाहरुख खान की फिल्म ‘माई नेम इज खान’ पर 40 करोड़ खर्च हुए और इसे फॉक्स स्टूडियो ने 100 करोड़ में खरीद था। रणबीर कपूर और सोनम कपूर की डेब्यू फिल्म ‘सांवरिया’ पर भी 40 करोड़ खर्च हो गये थे। ‘सांवरिया’ के साथ रिलीज हुई शाहरुख खान की ही एक अन्य फिल्म ‘ओम शांति ओम’ का बजट 45 करोड़ का था। फिल्म का बड़ा आकर्षण भव्य सेट और 31 नए-पुराने फिल्मी सितारों का एक साथ गीत गाना था। बड़ा बजट और बड़े सितारे के साथ फिल्में बनाना करण जौहर का शगल है। ‘कभी खुशी कभी गम’ का बजट 42 करोड़ का था। ‘कभी अलविदा ना कहना’ पर 44 करोड़ खर्च हो गये थे। उधर, इंडस्ट्री में अपने में सीमित टाइप रहने वाले राकेश रौशन ने ‘कोई मिल गया’ के सीक्वल ‘कृष’ में 50 करोड़ खर्च कर डाले और भरपूर कमाई भी की। करीब दस साल पहले आयी फिल्म ‘देवदास’ भी 53 करोड़ के बजट के कारण काफी चर्चा में थी। भंसाली का यह सौदा मुनाफे में रहा, लेकिन अनलकी रहे अनिल शर्मा और सनी देओल, जिन्होंने ‘गदर’ की कामयाबी को भुनाने के लिए ‘द हीरो: लव स्टोरी ऑफ ए स्पाइ’ के निर्माण में 55 करोड़ फूंक डाले थे। बड़े बजट में पैसे फूंकने का खेल अक्की से बेहतर कौन जाने। उनकी फिल्म ‘कमबख्त इश्क’ पर 60 करोड़ का खर्चा आया, जिसके ऐवज में जेब में आया कलेक्शन निर्माता के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए नाकाफी था। अक्की के बाद रितिक और बारबरा फिल्म ‘काइट्स’ 60 करोड़ खर्च हुए। पर नतीजा सब जानते हैं। खर्च तो आमिर की ‘मंगल पांडेय’ पर भी 60 करोड़ हुए थे, जिसे उनके स्टेटस के हिसाब वाली कामयाबी नहीं मिली। आमिर हारे नहीं। ‘गजिनी’ का बजट 65 करोड़ था और मुनाफा ऐसा कि संभाला न गया। बड़े बजट के साथ अभिषेक बच्चन एक ऐसे स्टार हैं, जो हमेशा घाटे में रहे। उनकी फिल्म ‘द्रोणा’ 79 करोड़ खर्च हुए, लेकिन नतीजा निकला फ्लॉप।

कहा जाता है कि भारत की पहली महंगी फिल्म के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) थी, जिसके निर्माण नौ सालों तक चला और खर्चा आया 10.5 करोड़। उस दौर में खर्च हुई इतनी बड़ी रकम चौंकाती है। 80 के दशक में आयी कमाल अमरोही की ‘रजिया सुल्तान’ में 23 करोड़ खर्च हो गये थे। उस दौर की बड़े बजट की फिल्मों में ‘पाकीजा’ का नाम भी शामिल किया जाता है। आने वाले समय में भी कुछ महंगी फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं, जिनका बजट 100 करोड़ के आस-पास है। शाहरुख खान के बैनर चले बन रही ‘रा-1’ के स्पेशल इफ्केट्स ‘दि मैट्रिक्स’ और ‘माईनॉरिटी रिपोर्ट’ के विजुअल इफैक्ट्स गुरू चाल्र्स डर्बी पूरा कर कर रहे हैं। अनुमान है कि इस फिल्म का बजट सौ करोड़ से ऊपर जा सकता है। रजनीकांत की बेटी सौंदर्या द्वारा बनाई जा रही फिल्म ‘सुल्तान : द वॉरियर’ पर 80 करोड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं। खबर है कि आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘बुद्घा’ का इनीशियल बजट ही 400 करोड़ का रखा गया है।

सवाल यह है कि क्या बड़े बजट की फिल्में दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र होती हैं? क्या सभी महंगी फिल्मों में हिट होने की काबलियत होती है? वास्तविकता यह है कि अक्सर महंगी फिल्म में तमाम बातों पर ध्यान देने के साथ-साथ कहानी और उसके ट्रीटमेंट को भुला दिया जाता है। ‘लव स्टोरी 2050’, ‘द्रोणा’, ‘ब्लू’, ‘काईट्स’ आदि इसके उदाहरण हैं। डिजास्टर मूवी में ‘ब्लू’ को नंबर 1 माना जाना चाहिए। बिना बात के प्रचार की वजह से 90 के दशक में आयी ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ ताश के पत्तों की तरह ढह गयी थी। ‘काइट्स’ और ‘मंगल पांडेय’ महंगी होने के बावजूद दर्शकों को आकर्षित नहीं कर सकीं थीं(राजेंद्र कांडपाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,27.8.2010)।

Sunday, August 29, 2010

चाचा चौधरी बड़े पर्दे पर

कंप्यूटर से भी तेज दिमाग वाले बच्चों के लोकप्रिय कॉमिक किरदार, चाचा चौधरी को आने वाले समय में बड़े पर्दे पर देखा जा सकेगा। डायमंड कॉमिक्स ने एक अमेरिकी फिल्म कंपनी के साथ इस संबंध में करार किया है। लाल पगड़ी वाले पुराने मध्यमवर्गीय परिवारों के इस हीरो पर करीब 60 लाख डॉलर [करीब 28 करोड़ रुपये] की लागत से थ्रीडी फिल्म बनेगी।

डायमंड कॉमिक्स के अध्यक्ष गुलशन राय ने इसकी पुष्टि की। यह थ्रीडी फिल्म करीब डेढ़ से दो घंटे की होगी।' यद्यपि उन्होंने फिल्म के रिलीज होने के समय के बारे में कोई जिक्र नहीं किया।

डायमंड कॉमिक्स की अपने अन्य लोकप्रिय पात्रों बिल्लू, पिंकी, कैप्टन व्योम, छोटू लंबू और महाबली शाका को भी इंटरनेट, टीवी, मोबाइल के अलावा डायरेक्ट टू होम [डीचीएच] पर भी लाने की योजना है।

योजना के तहत कंपनी कॉमिक्स के इन किरदारों को डिजिटल पात्रों में बदलकर ऑनलाइन बेचने के साथ ही टेलीकॉम सेवाओं पर भी उपलब्ध कराएगी। गुलशन राय ने बताया, 'अभी हम 1974 से अब तक आई करीब तीन से चार हजार कॉमिक्स को डिजिटल कृति में बदल रहे हैं। इन डिजिटल कॉमिक्सों को पूरी दुनिया में गूगल और रेडिफ जैसी सभी वेबसाइटों पर केवल आधे डॉलर में [करीब 23 रुपये] बेचा जाएगा।

इसके अलावा कंपनी ने मोबाइल पर लोगों को कॉमिक्स पढ़वाने के लिए टाटा डोकोमो, बीएसएनएल और वोडाफोन जैसी मोबाइल सर्विस प्रदाता कंपनियों के साथ करार किया है। इंटरनेट पर ये कॉमिक्स संभवत: अगले महीने से उपलब्ध होंगी(जागरण डॉट कॉम,29.8.2010)।

म्यूजिक कंपनियों की कानूनी कारवाई की योजना

देश की संगीत कंपनियां कॉपीराइट बोर्ड के उस फैसले के खिलाफ कानूनी कारवाई करने पर विचार कर रही हैं जिसमें बोर्ड ने एफएम रेडियो चैनलों द्वारा रॉयल्टी भुगतान को उनकी विज्ञापन आय के दो प्रतिशत पर सीमित कर दिया है।
कंपनियों का कहना है कि बोर्ड के इस आदेश से उन्हें काफी नुकसान होगा। सारेगामा इंडिया के प्रबंध निदेशक अपूर्व नागपाल ने कहा ‘‘हम (म्यूजिक कंपनियां) एक साथ हैं और इस मुद्दे पर मिलकर कानूनी कारवाई करेंगे।’’ हालांकि उन्होंने अपनी योजना के बारे में विस्तार से कुछ नहीं कहा, लेकिन रॉयल्टी भुगतान पर कहा कि एफएम रेडियो चैनल से उन्हें पहले 7 से 8 प्रतिशत तक संगीत रॉयल्टी मिलती थी इसे घटाकर दो प्रतिशत कर दिया गया है। इससे पूरे मनोरंजन उद्योग को नुकसान होगा।

नागपाल ने कहा ‘‘मामला काफी बड़ा है। इससे न केवल संगीत उद्योग प्रभावित होगा बल्कि इसका असर पूरे मनोरंजन उद्योग पर पडेगा। उद्योग को जो रॉयल्टी मिलती थी उसका कुछ हिस्सा लेखकों और संगीत तैयार करने वालों को भी दिया जाता है।’’ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज के उपाध्यक्ष (अंतर्राष्ट्रीय व्यावसाय, प्रकाशन एवं डिजिटल) नीरज कल्याण ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि यह मुक्त व्यापार और अनुबंध की आजादी की समाप्ति है। उन्होंने कहा कि सरकार का यह आंशिक नियंत्रण भेदभावपूर्ण है, संगीत उद्योग के लिये नुकसानदायक होगा, आजाद भारत के इतिहास में यह फिर से अंकुश लगाने जैसा है।

दूसरी तरफ उद्योग जगत का कहना है कि रॉयल्टी दरों में इस कमी को वैश्विक रुझान को देखते हुये सुधार के तौर पर देखा जाना चाहिये। एन्सर्ट एण्ड यंग के एंटरटेनमेंट प्रेक्टिस एसोसियेटस डायरेक्टर अशीषफेरवानी ने कहा ‘‘दुनियाभर में इस तरह की रॉयल्टी को एक से तीन प्रतिशत के बीच कर दिया गया है। इसलिये दो प्रतिशत की रॉयल्टी उचित स्तर है। इससे एफएम रेडिया चैनल और संगीत उद्योग दोनों को दीर्घकाल में फायदा होगा(पीटीआई,29.8.2010)।

एशियाई सिनेमा की यात्राःविनोद भारद्वाज

आज एशियाई सिनेमा की विशिष्ट पहचान दुनिया भर में बन चुकी है। एक जमाने में एशियाई सिनेमा का अर्थ सत्यजित राय, कुरोसावा, मिजोगुची, ओजू आदि फिल्मकारों तक सीमित था। लेकिन वर्ष १९८८ में जब फिल्म समीक्षक अरुणा वासुदेव ने मुख्यतः महिलाओं की एक प्रतिबृद्ध टीम (लतिका पाडगांवकर, रश्मि दोरायस्वामी आदि) के सहयोग से एशियाई सिनेमा की पहली महत्वपूर्ण पत्रिका "सिनेमाया" का प्रकाशन दिल्ली से शुरू किया था, तो यह एक नई और लगभग क्रांतिकारी बात थी। पिछले दिनों दिल्ली में नेटपैक (एशियाई सिनेमा पर केंद्रित संस्था) के बीस साल पूरे होने पर एक महत्वपूर्ण आयोजन इमेजिंग एशिया (१८-२२ अगस्त) के अवसर पर नेटपैक और प्रकाशक "विजडम ट्री" ने "एशियन फिल्म जर्नीज" पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस पुस्तक का संपादन लतिका पाडगांवकर और रश्मि डोरायस्वामी ने किया है और यह अरुणा वासुदेव को समर्पित हैं। इस पुस्तक में "सिनेमाया" और सिनेफैन (फिल्म महोत्सव) के कैटलॉग से चुने गए लेखों और भेंटवार्त्ताओं को संकलित किया गया है। "सिनेमाया" का प्रकाशन अब बंद हो चुका है। पर पुस्तक में संकलित सामग्री का स्थायी महत्व है।

पुस्तक मेंअरुणा वासुदेव ने अपने संस्मरण में "सिनेमाया" के जन्म की दिलचस्प कहानी बताई है। एक समय में अरुणा वासुदेव और वरिष्ठ फिल्म समीक्षक और फिल्मकार चिदानंद दासगुप्त ने एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी सिनेमा पर फोकस के इरादे से एक ऐसी महत्वाकांक्षी पत्रिका की योजना बनाई थी जो अंग्रेजी फ्रांसीसी और स्पानी भाषा में एक साथ सामने आए। खुद अरुणा वासुदेव ने स्वीकार किया है कि यह एक "वाइल्ड आइडिया" था। पर अचानक १९८८ में अरुणा ने अपनी एक छोटी पर मेहनती टीम बनाई और "सिनेमाया" का पहला अंक सामने आ गया। जापान के चर्चित और विवादास्पद फिल्मकार नागिसा ओशिमा से कहा गया कि आप हमारे लिए एक फिल्म निर्देशक का कॉलम लिखें। ओशिमा ने पहले अंक के लिए तोक्यो से एक पत्र भेजा जो पुस्तक में संकलित हैं। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम भी पहले अंक को आर्थिक सहयोग देने के लिए तैयार हो गया। १३ अक्टूबर, १९८८ को सिनेमाया का जन्म हुआ। अरुणा वासुदेव की टीम ने २००४ तक पत्रिका के ६१ अंक निकाले। इस बीच सिनेफैन फिल्मोत्सव ने २००४ में "सिनेमाया" और "सिनेफैन" दोनों को अपना हिस्सा बना लिया। ओशियान ने "सिनेमाया" के छह अंक निकालने के बाद उसे बंद कर दिया गया। "सिनेफैन" को शुरू में काफी ग्लैमरस बना दिया गया। ओशियान कला की कमाई से "सिनेफैन" को चला रहा था। २००८ से कला बाजार लड़खड़ाने लगा। "सिनेफैन" पर भी इसका निषेधी असर पड़ा। इस साल यह हो पाएगा या नहीं यह स्पष्ट नहीं है लेकिन "नेटपैक" के माध्यम से वासुदेव ने अपने पुराने सपने को एक नया अवतार दे दिया है। फ्रांसीसी सांस्कृतिक केंद्र, स्पानी सांस्कृति केंद्र , इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, द एशियन हेरिटेज फांउडेशन, एनएफडीसी आदि की मदद से वासुदेव ने एक बार फिर से विनम्र शुरुआत कर दी है। आज भले ही एशियाई सिनेमा पर फोकस की कोई खास समस्या नहीं रह गई है पर जब "सिनेमाया" शुरू हुई थी तो एशियाई सिनेमा को ऐसे फोरम की सख्त जरूरत थी। सिनेमाया का इतिहास एशियाई सिनेमा पर सार्थक फोकस की कहानी है(नई दुनिया,दिल्ली,29.8.2010)।

डायनेमो ओमप्रकाश

‘मैंने कई फाकापरस्ती के दिन भी देखे हैं, ऐसी भी हालत आई जब मैं तीन दिन तक भूखा रहा। मुझे याद है इसी हालात में दादर खुदादाद पर खडा था। भूख के मारे मुझे चक्कर से आने लगे ऐसा लगा कि अभी मैं गिर ही पडूंगा। करीब की एक होटल में दाखिल हुआ। बढिया खाना खाकर और लस्सी पीकर बाहर जाने लगा तो मुझे पकड लिया गया। मैनेजर को अपनी मजबूरी बता दी और 16 रुपयों का बिल फिर कभी देने का वादा किया। मैनेजर को तरस आ गया वह मान गया। एक दिन जयंत देसाई ने मुझे काम पर रख लिया और 5,000 रुपये दिए। मैंने इतनी बडी रकम पहली बार देखी थीं। सबसे पहले होटल वाले का बिल चुकाया था और 100 पैकेट सिगरेट के खरीद लिए।’

आगे चलकर, इन्हीं ओमप्रकाश ने लगभग 350 फिल्मों में काम किया। उनकी प्रमुख फिल्मों में पडोसन, जूली, दस लाख, चुफ-चुफ, बैराग, शराबी, नमक हलाल, प्याक किए जा, खानदान, चौकीदार,लावारिस, आंधी,लोफर, जंजीर आदि शामिल हैं। उनकी अंतिम फिल्म नौकर बीवी का थीं। अमिताभ बच्चन की फिल्मों में वे खासे सराहे गए थे। नमकहलाल का दद्दू और शराबी के मुंशीलाल को भला कौन भूल सकता है?

प्रारंभिक दौर

ओमप्रकाश का पूरा नाम ओमप्रकाश बक्शी था। उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई थीं। उनमें कला के प्रति रुचि शुरू से थी। लगभग 12 वर्ष की आयु में उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। 1937 में ओमप्रकाश ने ऑल इंडिया रेडियो सीलोन में 25 रुपये वेतन में नौकरी की थी। रेडियो पर उनका फतेहदीन कार्यक्रम बहुत पसंद किया गया।

सिर्फ 80 रुपये वेतन

हिन्दी फिल्म जगत में ओमप्रकाश का प्रवेश बडे फिल्मी अंदाज में हुआ। वे अपने एक मित्र के यहां शादी में गए हुए थे, जहां दलसुख पंचोली ने उन्हें देखा। फिर पंचौली ने तार भेजकर उन्हें लाहौर बुलवाया और फिल्म ‘दासी’(1950) के लिए 80 रुपये वेतन पर अनुबंधित कर लिया। यह ओमप्रकाश की पहली बोलती फिल्म थीं। संगीतकार सी. रामचंद्र से ओमप्रकाश की अच्छी पटती थीं। इन दोनों ने मिलकर ‘दुनिया गोल है’, ‘झंकार’, ‘लकीरे’ का निर्माण किया। उसके बाद ओमप्रकाश ने खुद की फिल्म कंपनी बनाई और ‘भैयाजी’, ‘गेटवे आफ इंडिया’, ‘चाचा जिदांबाद’, ‘संजोग’ आदि फिल्मों का निर्माण किया। 

खास बात

बहुत कम लोग जानते हैं कि ओमप्रकाश ने ‘कन्हैया’फिल्म का निर्माण भी किया था,जिसमें राज कपूर और नूतन की मुख्य भूमिका थी।

कई रंगारंग व्यक्ति उनके जीवन में आए। इनमें चार्ली चैपलिन, पर्ल एस.बक, सामरसेट मॉम,फ्रेंक काप्रा,जवाहरलाल नेहरू जी भी शामिल हैं।

जिदंगी जब उन पर मेहरबान रही है, तब दूसरा विश्व युद्ध खत्म ही हुआ था। उन दिनों हिंदी फिल्मों में बहुत बडे सितारे मोतीलाल, अशोककुमार, और पृथ्वीराज हुआ करते थे। अपने समय में लोग उन्हें ‘डायनेमो’ कहा करते थे(राज एक्सप्रेस,29.8.2010)।

Saturday, August 28, 2010

रहमान ने गाया जियो, उठो, बढ़ो, जीतो

आस्कर विजेता संगीतकार एआर रहमान ने आज भव्य संगीतमय समारोह के बीच दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों का थीम गीत यारो इंडिया बुला लिया देश को समर्पित किया जिसे उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत के बेहतरीन तालमेल से तैयार किया है।

बारह दिन पहले थीम गीत की एक झलक पेश करने वाले रहमान ने शनिवार को मंच पर खुद यह गीत यारो इंडिया बुला लिया, जियो उठो बढ़ो जीतो सुनाया। गीत को रहमान ने खुद साथी गायकों के साथ गाया है।

गुड़गांव के किंगडम आफ ड्रीम्स में आयोजित भव्य समारोह में राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाड़ी, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी मौजूद थे।

रहमान ने इस मौके पर कहा कि यह गीत तैयार करना आसान नहीं था। मैं पिछले छह महीने से इस पर काम कर रहा था और कल रात ही इसे अंतिम रूप दिया है। उम्मीद है कि लोगों को यह पसंद आएगा।

विवादों से घिरे कलमाड़ी ने इस गीत के लांच को राष्ट्रमंडल खेलों के उत्सव की शुरुआत करार देते हुए कहा कि तमाम आशंकाओं के विपरीत भारत इन खेलों की मेजबानी के लिए पूरी तरह तैयार है। उन्होंने कहा कि हम तैयार हैं। यह खेल बेहद कामयाब होंगे। खेल गांव बीजिंग ओलंपिक से भी बेहतर होगा और उद्घाटन तथा समापन समारोह यादगार रहेंगे।


मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कलमाड़ी का बचाव करते हुए कहा कि भारत अब तक के सबसे यादगार राष्ट्रमंडल खेलों की सौगात देगा। उन्होंने कहा कि मुझे पता है कि सुरेश कलमाड़ी इन दिनों काफी समस्याओं से घिरे हैं लेकिन अंत सुखद ही होगा। हम एक टीम के तौर पर अब तक के सबसे यादगार राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी करेंगे।

इस मौके पर टीवी अभिनेता हुसैन केजरीवाला, गौहर खान और कश्मीरा ईरानी के साथ कई नृत्य समूहों ने रंगारंग कार्यक्रम पेश किए। राष्ट्रमंडल खेलों के थीम गीत का लांच बारह दिन पहले ही होना था जिसे ऐन मौके पर टाल दिया गया था। रहमान ने तब गीत के बारे में बताया था कि इसके बोल 90 प्रतिशत हिन्दी में और 10 प्रतिशत अंग्रेजी में है। यह एक अलग किस्म का गीत है जो बेहद लोकप्रिय होगा। इस गीत को पूरा हिन्दुस्तान हमारे साथ गुनगुनाएगा।

यह पूछने पर कि गीत क्या विश्व कप फुटबाल में शकीरा के मशहूर गीत वाका वाका की टक्कर का होगा तो रहमान ने कहा था कि यह उससे आगे होगा। रहमान तीन से 14 अक्टूबर तक होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन समारोह में भी लाइव कन्सर्ट देंगे।

गाने के बारे में उन्होंने कहा था, यह ऊर्जा, जीत की जिजीविषा और हार नहीं मानने के जज्बे का द्योतक है। दो आस्कर, दो ग्रैमी, बाफ्टा और गोल्डन ग्लोब के अलावा चार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके रहमान अपने संगीत में नए प्रयोग के लिए मशहूर है और इस गीत को तैयार करने में भी उन्होंने इसकी बानगी दी है।

उन्होंने बताया कि यह वैश्विक स्तर का गीत होगा जिसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत की भी भलक मिलेगी। यह ऐसा गीत होगा जो भारतीय और पश्चिमी दोनों श्रोताओं को लुभाएगा(हिंदुस्तान,28.8.2010)।

Friday, August 27, 2010

भोपाल पर फिल्म बनाएंगे मुजफ्फर अली

सिनेमा को दिल से दिल तक का सफर मानने वाले मुजफ्फर अली ने कहा कि फिल्में विदेशों में भी बनती हैं लेकिन एक विजन के साथ। यदि हम अपने यहां की फिल्मों की तुलना विदेशी फिल्मों से करें तो हमारी फिल्में उनसे उन्नीस ही नजर आती हैं।

हमें चाहिए कि हम वहां की फिल्मों की तकनीक को तो एडॉप्ट करें,लेकिन दर्शन हमारा होना चाहिए। हमारे पास एक भी ऐसी फिल्म नहीं है जिससे हिंदुस्तान का सिर ऊंचा हो सके।

भारतीय सिनेमा के बारे में यह उद्गार व्यक्त किए भोपाल आए मशहूर फिल्मकार मुजफ्फर अली ने। उनका मानना है कि आजकल बन रही फिल्में कमर्शियल ज्यादा हैं। इसके साथ ही इनमें विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है। फिल्मों से कलाधर्मिता काफी पीछे छूट गई है।

दूरदर्शन में तकनीकी सुधार की जरूरत : उनका कहना है कि दूरदर्शन ही एकमात्र ऐसा चैनल है जिससे हम अपेक्षा रखते हैं। अन्य चैनलों से नहीं रख सकते। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दूरदर्शन में तकनीकी और गुणवत्त्ता में सुधार की जरूरत है। मेरी दिली इच्छा है कि ‘स्टेट आर्ट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट’ लखनऊ और कश्मीर में खुले।

शायरों का रहा प्रभाव : श्री अली के मुताबिक मेरे काम में शायरों का काफी प्रभाव रहा है। फैज मोहम्मद फैज, शहरयार से मैं प्रभावित रहा हूं। मेरा मानना है कि शायरी एक मदर आर्ट के समान है।

‘जूनी’ मेरा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट : फिल्म ‘जूनी’ में कश्मीरियों की जिंदगी और उनके संस्कृति को दर्शाने का प्रयास कर रहा हूं। मैं दो साल कश्मीर में रहा। उनकी संस्कृति और उन्हें जानने की कोशिश की।

कश्मीरियों को लगता है कि उन्हें कोई नहीं जानता। यह फिल्म उनकी संस्कृति और उनकी बात को कहने में ब्रिज का काम करेगी। यह मेरा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, इसे मैं जरूर पूरा करूंगा।

अब नहीं लड़ूंगा चुनाव : चार बार चुनाव लड़ चुके श्री अली का कहना है कि चुनाव मेरे बस की बात नहीं है। आगे चुनाव लड़ने का कोई इरादा नहीं है।


इस अंजुमन में आना है बार-बार

मुजफ्फर अली को भोपाल के अंजुमन में आना बहुत अच्छा लगता है। उन्हें यहां की तहजीब पसंद है। वे कुछ दिनों पूर्व भी भोपाल आए थे। उन्हें यहां के पटिए कल्चर, लोगों का बिंदासपन काफी भाता है। उनकी भोपाल की जीप और संस्कृति को लेकर फिल्म बनाने की बात स्वीकारी। लेकिन इसके बारे में उन्होंने ज्यादा खुलासा नहीं किया।


उन्होंने कहा कि उनका दूरदर्शन से गहरा संबंध रहा है। दूरदर्शन के स्वर्ण जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित फिल्म समारोह अपने आप में दूरदर्शन की इस लंबी सफलतम यात्रा का प्रतीक है। इस फिल्म फेस्टिवल में सत्यजीत रे जैसे क्रिएटिव और गहरे विचार वाले निर्देशकों की फिल्मों का आनंद भी दर्शक उठा सकेंगे।

आज सत्यजीत रे जैसी सोच वाले लोगों की कमी है। यह बात रवीन्द्र भवन में दूरदर्शन के चार दिवसीय फिल्म समारोह के शुभारंभ अवसर पर मुख्य अतिथि प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य और प्रख्यात निर्देशक मुजफ्फर अली ने कही।

उन्होंने कहा कि इंसान के विकास का माध्यम फिल्में है। फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव है। फिल्में समाज में बहुत परिवर्तन ला सकती हैं। आवश्यकता है सामाजिक मुद्दों और संवेदनशीलता वाली फिल्मों के निर्माण की। दूरदर्शन का चार दिवसीय फिल्म समारोह 26 से 29 अगस्त तक जारी रहेगा।
(दैनिक भास्कर,भोपाल,27.8.2010)।

Wednesday, August 25, 2010

‘सोच लो’ 13 भाषाओं में होगी प्रदर्शित

कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ख्याति पाने वाली अभिनेता-लेखक-निर्देशक सरताज सिंह पन्नू की फिल्म ‘सोच लो’ 13 भाषाओं में प्रदर्शित होने वाली है।

सरताज को उम्मीद है कि फिल्म को लॉसएंजिलिस में प्रदर्शन के दौरान मिली प्रशंसा के बाद इसे भारत में भी अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी।

सरताज ने पीटीआई से कहा ‘‘इस फिल्म का लॉस एंजिलिस में दो बार प्रदर्शन हुआ और अब इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल गई है। आम तौर पर लोगों का मानना है कि अगर कोई फिल्म विदेशों में प्रदर्शित हुई है और वहां उसे विदेशियों ने पसंद किया है तो वह अच्छी ही होगी।’’ उन्होंने बताया ‘‘लॉस एंजिलिस में प्रदर्शन के बाद हमें विदेशों में कई स्थानों से फिल्म को प्रदर्शित करने के लिए फोन आ रहे हैं। फिल्म को हिंदी, तमिल, तेलुगु, अंग्रेजी के अलावा स्पेनिश और चीनी भाषा में भी प्रदर्शित किया जाएगा।’’ ‘सोच लो’ एक ऐसे घायल आदमी की कहानी है, जिसे मरने के लिए रेगिस्तान में छोड़ दिया जाता है। वह बच जाता है, लेकिन अपनी पहचान खो देता है, बाद में वह वहां से गुजरने वाले कार चालकों को लूटना शुरू कर देता है।

फिल्म में सरजात स्वयं, बरखा मदान :पूर्व मिस इंडिया फाइनलिस्ट और अभिनेत्री:, के पी निशान, हिमांशु कोहली और मॉडल आइरिस मैती दिखाई देंगी।

फिल्म 27 अगस्त को प्रदर्शित होगी(पीटीआई,25.8.2010)।

मराठी फिल्म के 122 शो दिखाना हुआ अनिवार्य

महाराष्ट्र सरकार ने मल्टीप्लेक्स मालिकों और मराठी फिल्म निर्माताओं के बीच झगड़ा बढ़ता देख पूरे विवाद को सुलझाने के लिए दस सदस्यीय समिति गठित करने की घोषणा ही है। इसके साथ ही अब महाराष्ट्र के सभी सिनेमाघर मालिकों को सालभर में मराठी फिल्मों के 122 शो दिखाना अनिवार्य कर दिया गया है। गृह मंत्री आरआर पाटिल से मंगलवार को मल्टीप्लेक्स मालिकों, फिल्म निर्माताओं और वितरकों ने मुलाकात की। इस शिष्ठमंडल में मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी प्रकाश चापलकर, अखिल भारतीय मराठी चित्रपट मंडल के अध्यक्ष विजय कोंडके, मराठी फिल्म निर्माता मच्छिंद्र चाटे, निलम शिर्के, अरुण कचरे, गृह विभाग की प्रमुख सचिव मेघा गाडगील और मुंबई, ठाणो व पुणो के पुलिस आयुक्त मौजूद थे।

प्राइम टाइम में दिखाना ही होगा मराठी फिल्म : गृह मंत्री आरआर पाटिल ने विवाद सुलझाने के लिए भले ही मराठी फिल्म निर्माताओं और सिनेमाघर मालिकों के पांच-पांच लोगों की दस सदस्यीय समिति के गठन की घोषणा की मगर उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से प्राइम टाइम में मराठी फिल्म दिखाने का इस दौरान पक्ष लिया।

पाटिल ने दोपहर 12 से रात 9 बजे के किसी एक शो में मराठी फिल्म दिखाने का निर्देश मल्टीप्लेक्सों को दिया है। उन्होंने यह बात मल्टीप्लेक्सों पर छोड़ दिया है कि वे इस समयावधि के बीच कौन से शो में मराठी फिल्म दिखाएंगे। उन्होंने चेतावनी दी है कि यदि जो मल्टीप्लेक्स मराठी फिल्म दिखाने के राज्य सरकार के कानून का पालन नहीं करेंगे, उनके लाइसेंस का नूतनीकरण नहीं किया जाएगा।

तोड़फोड़ करने वालों से नुकसान भरपाई का निर्देश : पाटिल ने बताया कि मल्टीप्लेक्सों में तोड़फोड़ करने वालों से नुकसान भरपाई वसूलने का निर्देश संबंधित जिलाधिकारियों को दे दिया गया है।

उन्होंने लगे हाथ यह भी कहा कि कोई भी नेता मराठी के मुद्दे की आड़ में कानून हाथ में न ले।


बता दें कि इस बैठक में उपस्थित कई मल्टीप्लेक्स मालिकों ने प्राइम टाइम में मराठी फिल्म दिखाने पर हामी भरी, मगर साथ में यह भी कहा कि कई बार फिल्म देखने इतने कम दर्शक आते हैं कि लाइट और एसी का बिल तक भी टिकटी की बिक्री से नहीं वसूल होता है। महत्वपूर्ण है कि रविवार को शिवसेना प्रमुख ने मल्टीप्लेक्सों को मराठी फिल्मों को सस्ते दर पर दिखाने की चेतावनी दी थी। इस मुद्दे पर मंगलवार की बैठक में कोई हल नहीं निकला(दैनिक भास्कर,मुंबई,25.8.2010)।

Tuesday, August 24, 2010

साथ-साथ दिखेंगे बुलॉक और हैंक्स

ऑस्कर से सम्मानित हॉलीवुड अभिनेत्री सांड्रा बुलॉक और अभिनेता टॉम हैंक्स आगामी फिल्म "इक्स्ट्रीमली लाउड एंड इनक्रेडिबली क्लोज" में प्रमुख भूमिका निभाते दिखेंगे।
वेबसाइट "कांटेक्ट म्यूजिक डॉट कॉम" के मुताबिक 46 वर्षीय बुलॉक ने इस वर्ष अपनी फिल्म "ब्लाइंड साइड" के लिए ऑस्कर जीता था और अब वह ऑस्कर विजेता हैंक्स के साथ एक चुनौतीपूर्ण भूमिका में दिखने को तैयार हैं। "इक्स्ट्रीमली लाउड एंड इनक्रेडिबली क्लोज" का निर्माण जोनाथन साफरान फोएर द्वारा 2005 में लिखे गए उपन्यास की कहानी के आधार पर हो रहा है। इस फिल्म का निर्माण जनवरी 2011 में शुरू हो रहा है। बुलॉक और हैंक्स की इस फिल्म का निर्देशन स्टीफन डालड्राइ करेंगे और इसकी पटकथा एलिक रॉथ ने लिखी है(ख़ास ख़बर डॉट कॉम,24.8.2010))।

कोला कंपनियों का काला सच दिखाएंगे शेखर कपूर

देश में पेयजल की किल्लत जैसी गंभीर समस्या पर फिल्म पानी बनाने की तैयारी कर रहे, प्रख्यात निर्देशक शेखर कपूर ने सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर सॉफ्ट ड्रिंक कंपनियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। साथ ही उन्होंने इन कंपनियों का विज्ञापन करने वाले फिल्मी सितारों से ऐसे सवाल कर डाले हैं, वे जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। मासूम, मिस्टर इंडिया और बेंडिट क्वीन जैसी फिल्मों के निर्देशक ने फिल्मी सितारों से पूछा है, मल्टी नेशनल कंपनियां, जो किसानों का पानी हड़प कर अपना धंधा चला रही हैं, हकीकत सामने आने के बाद क्या आप लोग अब भी इनके विज्ञापन करना चाहेंगे?

किसानों का हाल: देश के कई हिस्सों में किसानों ने सूखे के लिए काफी हद तक कोक व्यवसाय को जिम्मेदार ठहराया है। भारत में कोक के कुल 52 प्लांट हैं। केरल के प्लाचीमाडा में तो इस वजह से जमीन का पानी ही खत्म हो गया है। यहां के लोगों को सरकारी टैंकर से अपनी प्यास बुझानी पड़ती है।

शेखर के तीर : शेखर कपूर ने ट्वीट में पूछा, अगर आपको पता लगे कि कोका-कोला हमारी जमीन से पानी निकालकर मीलों तक फसलों को बर्बाद कर रही है, तब भी इसे पीना चाहेंगे? अगर साबित हो जाए कोक किसानों का पानी चुराकर उनकी जिंदगी से खेल रही है, तो क्या हमारे सितारे कोक और पेप्सी के विज्ञापन करेंगे? अगर हमारे सितारे विज्ञापन करने से इंकार कर देते हैं, तो क्या आप उनकी फिल्में देखना बंद कर देंगे? ट्विटर पर जब व्यक्ति ने कपूर से पूछा कि क्या उनके पास अपने बयान के समर्थन में सुबूत हैं? उन्होंने कहा, मैं अभी लंदन जाने के लिए एयरपोर्ट पर हूं, वहां पहुंचकर आपको सुबूत दूंगा कि कोक किसानों का पानी चुराती है।

सितारे खामोश : कोक के सवालों पर विज्ञापन करने वाले अभिनेताओं ने अभी तक अपना मुंह नहीं खोला है। उल्लेखनीय है कि आमिर खान, इमरान खान, कल्कि कोएचलिन कोका कोला के ब्रांड एंबेसडर हैं, जबकि रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण पेप्सी तथा अक्षय कुमार थम्स अप को प्रमोट करते हैं(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,24.8.2010 में मुंबई की ख़बर)।

Monday, August 23, 2010

छत्तीसगढ़ में सेंसर बोर्ड की मांग

छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बूम के बाद अब राज्य में फिल्म सेंसर बोर्ड की स्थापना की जरूरत महसूस की जा रही है। छॉलीवुड बिरादरी चाहती है कि राज्य सरकार इसके लिए जोरदार पहल करे।

राज्य बनने के बाद साल में ले देकर दो फिल्मे ही बनती थीं लेकिन अब हर साल 10-12 फिल्में बन रही हैं। वर्तमान में करीब दो दर्जन फिल्में निर्माणाधीन हैं। छत्तीसगढ़ी गीतों के एलबम और सीरियल भी बन रहे हैं। बड़े मार्केट की संभावना को देखकर बॉलीवुड का आकर्षण भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों की ओर बढ़ रहा है। इस वजह से छत्तीसगढ़ी फिल्मों की संख्या में इजाफा होने की संभावना है।

छत्तीसगढ़ी फिल्म एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने करीब डेढ़ साल पहले राज्स सरकार को पत्र लिखकर सेंसर बोर्ड के गठन की मांग की थी। हालांकि अब तक बात आगे नहीं बढ़ी। फिल्म निर्माताओं का कहना है कि स्थानीय कलाविदों के बोर्ड में होने से फिल्म की आत्मा पर कैंची नहीं चल सकेगी। उन्हें पता होगा कौन सा दृश्य या संवाद छत्तीसगढ़ी माटी की सुगंध से ओतप्रोत है। मुंबई सेंसर बोर्ड में छत्तीसगढ़ी के जानकार नहीं होने की वजह से खासी परेशानी हो रही है।

मुंबई-कोलकाता का चक्कर नहीं लगाना पड़ेगा : राज्य में सेंसरबोर्ड की स्थापना नहीं होने से फिलहाल ज्यादातर प्रोडच्यूसर फिल्में मुंबई सेंसर बोर्ड से पास करवाते हैं। दिल्ली और कोलकाता में भी सेंसर बोर्ड हैं। रायपुर में बोर्ड बन जाने पर वहां तक जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। माह भर का काम हफ्ते भर में हो जाएगा। सेंसर बोर्ड की 10 हजार व 11 हजार रुपए की दो फीस का भी प्रोडच्यूसर भुगतान करते हैं। फिल्म टाइम लैंथ पर प्रति 10 मिनट पर हजार रुपए भी देना पड़ता है। आने-जाने, होटल आदि के खर्च भी बचेंगे।

प्रक्रिया क्या है: राज्य सरकार केंद्रीय सूचना एवं प्रासरण विभाग के फिल्म प्रभाग को सेंसर बोर्ड के गठन के लिए पत्र लिखेगी। पत्र में क्षेत्रीय फिल्मों के निर्माण की रिपोर्ट होगी। सरकार की अनुशंसा पर केंद्र विचार करेगा। सभी परिस्थितियां अनुकूल होने पर राज्य के संसदीय विभाग के अधीन बोर्ड के गठन को मंजूरी देगा। कम से कम सदस्यों को जो फिल्म, कला, संस्कृति आदि से जानकार होंगे बोर्ड में नामित किया जाएगा।

इसलिए बनना चाहिएः

> प्रोडच्यूसरों का श्रम व खर्च बचेगा
> समय पर फिल्में रिलीज होंगी
> स्थानीय कलाविदों को बोर्ड में मौका मिलेगा
> गैरजरूरी चीजों पर ही कैंची चलेगी(दैनिक भास्कर,रायपुर,23.8.2010)

Sunday, August 22, 2010

स्वागतम् रहमान

ए आर रहमान पर सचमुच अल्लाह की सरपरस्ती है । शायद इसीलिए उनका पूरा नाम अल्लाह रक्खा रहमान है। अल्लाह की मेहरबानी ही है कि वे किसी चीज की पीछे भागे नहीं। जो चाहा, जैसे चाहा हासिल किया। ‘जय हो’ गाया तो पूरी दुनिया में देश की जय कर दी। अब बारी है उनके कॉमनवैल्थ गेम्स के थीम सांग ‘स्वागतम’ की- ओ यारो, इंडिया बुला रहा है की। वे इस गीत को बनाते वक्त पूरे आत्मविश्वास से भरे हैं । उन्होंने वायदा और दावा किया है कि फीफा का शकीरा द्वारा गाया गया थीम सांग ‘वाका वाका’ से भी ज्यादा प्रभावी उनका गीत होगा। वे इस थीम सांग को बनाने में छ: माह से इस कदर डूबे हैं कि उन्होंने अपने दस से ज्यादा कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया। रहमान ही इस गीत को उदघाटन समारोह में गाएंगे। संगीत तो उनका होगा ही। उन्होंने बताया कि वे इस गीत का संगीत तैयार कर अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। उनके अनुसार इस गीत में वेस्टर्न और इंडियन का फ्यूजन है। चेन्नई में 6 जनवरी 1966 को जन्मे रहमान जीते-जागते और चलते फिरते संगीत के विश्वविद्यालय हैं । संगीत उन्हें विरासत में मिली है । सरगम उनके रक्त में धड़कता है। उन्हें पिता आर के शेखर मलयाली फिल्मों के संगीत निर्माता थे। रहमान जब युवा थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। घर का खर्चा चलाने के लिए रहमान म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट किराये पर देने लगे। 1989 तक रहमान का नाम दिलीप कुमार था। दिलीप से रहमान बनने की दास्तां भी कम रोचक नहीं है । बहन जब गंभीर रूप से बीमार पड़ी तो उन्होंने एक सूफी संत की मजार पर संकल्प लिया कि यदि वह ठीक हो जायेगी तो वह इस्लाम अपना लेंगे। बहन ठीक हो गई और रहमान दिलीप कुमार से अल्लाह रक्खा रहमान बन गये। 1992 में रहमान ने अपने घर के पीछे रिकार्डिंग और मिक्सिंग स्टूडियो को खोला, जो बाद में देश का सबसे आधुनिक स्टूडियो बन गया। इसी साल मशहूर फिल्म निदेशक मणिरत्नम ने अपनी तमिल फिल्म रोजा के लिए म्यूजिक कंपोज कराया। इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का अवार्ड मिला। इस पहले एवार्ड के बाद मान-सम्मान का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह पद्मश्री से होता हुआ आस्कर तक पहुंचा है । यह कहां थमेगा, इसका अभी तो फिलहाल कोई अंत नहीं दिख रहा है । इसकी वजह भी है कि जब वे गाते हैं और म्यूजिक कंपोज क रते हैं तो जहां सब खत्म हो रहा होता है , वे वहां से शुरू करते हैं और अंतहीनता के नए क्षितिज खुलते दिखते हैं। उनके संगीत में एक अलग तरह की रुमानियत हैं । विविधता ऐसी कि दोहराव उनमें दूर-दूर तक नहीं दिखता है । वंदेमातरम गाएं या जाज या पाप, उसमें रहमान की छाप अलग दिखती है । इसलिए निश्चय ही कहा जा सकता है कि ‘स्वागतम’ भी अलग होगा ही। रहमान मानते हैं कि यह गीत युवाओं को एडिक्ट बना देगा। लोग गाने को मजबूर हो जायेंगे। गीत का संदेश, मेहनत करो और कभी हिम्मत न हारो, भी युवाओं में एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास भर देगा(प्रदीप सौरभ,हिंदुस्तान,22.8.2010)।

Saturday, August 21, 2010

बॉलीवुड पर भारी छालीवुड

छत्तीसगढ़ में छॉलीवुड छा गया है। राज्य की 54 में से 32-33 टॉकिजों में छत्तीसगढ़ी फिल्में धूम मचा रही हैं। हिंदी फिल्मों के मुकाबले आय के नए कीर्तिमान तो रचे ही जा रहे हैं, दम तोड़ते सिनेमा उद्योग को छत्तीसगढ़ी फिल्मों से नई संजीवनी मिल गई है।

राज्य में हर शुक्रवार को टॉकिजों में फिल्में बदलती हैं। कल 55 से 60 फीसदी टॉकिजों में छत्तीसगढ़ी फिल्में चल रही थीं। हिंदी फिल्मों के बड़े स्टारों को यहां थियेटर नहीं मिल रहे हैं। राजधानी रायपुर की चार में से दो, अंबिकापुर, भाटापारा, बालोद, पेंड्रारोड व पेंड्रा की सभी टॉकिजों, धमतरी, दुर्ग व राजनांदगांव जिलों में आधी टॉकिजों में छत्तीसगढ़ी फि ल्में चल रही हैं।

सुखद बात यह कि कस्बों से लेकर शहरों तक छत्तीसगढ़ी फिल्मों को देखने दर्शक टूट पड़े हैं। 13 अगस्त को रिकार्ड तीन फिल्मे एक साथ रीलीज हुईं और तीनों सुपर हिट साबित हो रही हैं। इनमें महूं दीवाना तहूं दिवानी, मया और टुरी नंबर वन शामिल हैं। अंबिकापुर जैसी छोटी जगह पर तीनों टाकिजों में शुक्रवार को मया दे दे मयारू, महूं दीवाना तहूं दिवानी और टुरी नंबर वन के सभी शो हाउसफुल रहे।

सिनेमाघरों के संचालकों ने बताया कि करीब सवा लाख रुपए का पहले दिन कारोबार हुआ। अन्य स्थानों पर हिंदी फिल्मों के मुकाबले ज्यादा बिजनेस दे रही हैं। कटघोरा में बंद पड़े सिनेमाघर मीरा में छत्तीसगढ़ी फिल्म देखने भीड़ जुट रही है। संचालक नरेश अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जरिए फिर से शुरू कर दिखाया है।

नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बनने के वक्त करीब 100 सिनेमाघर थे। तब मोर छईंयां-भुईयां ने 40 फीसदी टॉकिजों में धूम मचाई थी। दिलचस्प यह कि इनमें से 29 टॉकिजों में चल रही फिल्में मया दे दे मयारू, टुरी नंबर वन और महूं दीवाना तहूं दिवानी के हीरो अनुज शर्मा हैं।

राज्य बनने के बाद से छॉलीवुड के हीरो नंबर वन बने हुए हैं। उनकी 12 में से 10 फिल्में हिट रही हैं। चार फिल्मों मोग छहियां भुईंया, मया, झन भुलाबों मां-बाप ला और मया दे दे मया ले ले ने सिल्वर जुबली मनाई। फिल्म रघुवीर तो कई टॉकिजों में 100 से अधिक दिन चली।

पुणे की सिम्बॉयसिस यूनिवर्सिटी ने उन्हें 2009 में यंग कम्युनिकेटर अवॉर्ड से नवाजा है। अन्य कलाकारों में प्रकाश अवस्थी, संजय बत्रा, सिल्की गुहा, रिजवाना, रेशम, सीमा सिंह, पुष्पेंद्र सिंह. मनमोहन ठाकुर, शशिमोहन सिंह भी पसंद किए जा रहे हैं।


कहते हैं छॉलीवुड वाले

फिल्मों आज दर्शक अपनापन ढूंढ रहे हैं और वह उन्हें छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मिल रहा है। छत्तीसगढ़ सहित देश की 75 फीसदी आबादी कस्बों में रहती है। यही वजह है कि क्षेत्रीय फिल्में दर्शक पसंद कर रहे हैं। पहले निर्माताओं को अनुभव नहीं था कि कैसी फिल्में बनानी है। - अनुज शर्मा, सुपर स्टार छॉलीवुड

हमने तकनीक विकसित कर ली है। अनुभवी लोग फिल्म बना रहे सफल हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों के दर्शक भी आएं। वे भी छत्तीसगढ़ी फिल्में देखें और स्वयं आंकलन करें। उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। - मनोज वर्मा, फिल्म निर्माता

शहर की दोनों टॉकिजों में छत्तीसगढ़ी फिल्में चल रही हैं। हिंदी फिल्मों के 10-12 दिनों के मुकाबले वे माहभर या 50 से 100 दिन तक चल रही हैं। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में बंद होते सिनेमाघरों को जीवनदान दे दिया है। - पवन अग्रवाल, सिनेमाघर संचालक भाटापारा

खास बातें

- 1965 में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म कहि देबे संदेस बनी।- 1968 में दूसरी फिल्म घर - द्वार बनी।- 2001 में मोर छईहां-भुंईहां बनी।- 45 सालों में 70 फिल्में बनाई गईं।- करीब 20 फिल्में निर्माणाधीन हैं।- फिल्म मेकिंग के मामले में छॉलीवुड आत्मनिर्भर है।- केवल सेंसरशिप के लिए फिल्में मुंबई भेजी जाती हैं।- राज्य सरकार ने टैक्स फ्री कर रखी हैं छत्तीसगढ़ी फिल्में(जॉन राजेश पॉल,दैनिक भास्कर,रायपुर,21.8.2010)।

आंख और कान का रिश्ता

आदित्य चोपड़ा के लिए प्रदीप सरकार ने नील नितिन मुकेश और दीपिका पादुकोण के साथ फिल्म ‘लफंगे परिंदे’ बनाई है। इसमें नील स्ट्रीट फाइटर हैं और आंख पर पट्टी बांधकर लड़ते हैं। दीपिका अंधी लड़की बनी हैं, जिसे नील ध्वनि के आधार पर निशाना लगाना सिखाते हैं। महाभारत में कथा है कि एकलव्य ने कुत्ते का भौंकना बंद करने के लिए अनेक तीर मारकर उसका मुंह बंद कर दिया। तीर इस ढंग से छोड़े गए थे कि कुत्ते का भौंकना बंद हो गया, परंतु तीरों ने उसे जख्मी नहीं किया। विधु विनोद चोपड़ा की ‘एकलव्य’ का नायक भी ध्वनि पर निशाना लगाना जानता है।


कहते हैं कि मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को अंधा कर दिया था। कवि चंद बरदाई की दोहा से दूरी का अंदाजा लगाकर पृथ्वीराज ने गजनी पर वार किया था। संगीतकार जयकिशन पाश्र्व संगीत ध्वनिबद्ध करने के लिए दृश्य देखते समय उसकी अवधि नोट नहीं करते थे वरन अपने मन में गूंजते संगीत की बीट गिनते थे और उनके द्वारा रची ध्वनि हमेशा दृश्य की अवधि पर फिट बैठती थी। एक अमेरिकी फिल्म में कैदी बिना घड़ी देखे सही समय बताता था और उसकी इसी योग्यता के सहारे जेल से भागने में कैदी सफल होते हैं।


बांग्ला उपन्यास ‘रात के मेहमान’ में चोरी का प्रशिक्षण देते समय अंधेरे में सांस की ध्वनि सुनकर कमरे में सोने वालों की संख्या का अनुमान लगाने का विवरण है। आरके नैयर की फिल्म ‘कत्ल’ में अंधा नायक (संजीव कुमार) अपनी बेवफा पत्नी का कत्ल करता है। पत्नी अपने पति के ध्वनि पर निशाना लगाने की कला जानती है, परंतु दरवाजे के निकट पहुंचकर सुकून की सांस लेती है और मारी जाती है। नायक ने उसे अभिनय प्रशिक्षण के दौरान हमेशा संवाद अदायगी के समय श्वास पर नियंत्रण सिखाने की असफल कोशिश की थी। इस फिल्म को खाकसार ने लिखा था।


बहरहाल ध्वनि पर निशाना साधने के विवरण महाभारत से लेकर आज तक मिलते हैं। शायद एक कमतरी के एवज में कुदरत दूसरी शक्ति को विकसित करती है। प्राय: अंधे बेहतर सुन सकते हैं या उनकी सूंघने की शक्ति अधिक होती है। सूरदास ने कृष्ण लीला का ऐसा वर्णन किया है कि लगता है सब उनके सामने घटित हुआ था। मनुष्य की पांचों इंद्रियां भीतर से जुड़ी हैं और उनमें कमाल का तालमेल है। यह कहा जाता है कि सुने पर यकीन नहीं करें, परंतु शैलेंद्र ‘जागते रहो’ के गीत में लिखते हैं-‘मत रहना अंखियों के भरोसे, जागो मोहन प्यारे..।’ अकिरा कुरोसावा की ‘रोशोमन’ में चार लोग एक ही घटना के चश्मदीद गवाह हैं, परंतु उनके विवरण अलग-अलग हैं। हमारे विवरण और निर्णय पांचों इंद्रियों के परे अवचेतन द्वारा शासित होते हैं।


बहरहाल ‘लफंगे परिंदे’ में अंधी नायिका खिलंदड़ लगती है, जिसके पास जीने की उमंग है। सिनेमाघर में आंख वाला नायक फिल्म की कहानी सुनाना चाहता है तो वह कहती है कि फिल्म देखने नहीं आई है। संकेत स्पष्ट है कि अंधत्व ने उसके आनंद को प्रभावित नहीं किया है। नायक नील का स्ट्रीट फाइटर होना अजीब लगता है, क्यांेकि भारत में इस तरह का व्यवसाय नहीं होता है।


प्रदीप सरकार विज्ञापन जगत से निर्देशन में आए हैं और उनकी पहली फिल्म ‘परिणीता’ सफल रही थी, जबकि शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास के निकट बिमल राय की अशोक कुमार-मीना कुमारी अभिनीत फिल्म ‘परिणीता’ थी। प्रदीप सरकार का दूसरा प्रयास ‘लागा चुनरी में दाग’ असफल रही थी। इसे देखते हुए यह उनके लिए निर्णायक फिल्म है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,19.8.2010)।

अभिनेत्री रितू पांडेय का ‘कास्टिंग काउच’

कास्टिंग काउच (फिल्मों में भूमिका दिलाने के एवज में यौन शोषण) की बीमारी हिंदी फिल्म उद्योग की सीमा लांघ गई है। अब यह भोजपुरी फिल्म उद्योग को संक्रमित कर रही है। भोजपुरी फ़िल्मों की अभिनेत्री रितू पांडेय ने कास्टिंग निर्देशक वंश पाठक पर ‘कास्टिंग काउच’ का आरोप लगाते हुए कहा है कि उन्होंने कैरियर के लिए समझौता करने को कहा था, जिसके आधार पर वंश के खिलाफ़ एक असंज्ञेय अपराध का मामला दर्ज कर लिया गया है.

पुलिस ने कहा कि भोजपुरी अभिनेत्री रितू ने आज दोपहर बाद पुलिस से संपर्क किया और आरोप लगाया कि वंश ने उसे फ़ोन करके और आपत्तिजनक टेक्स्ट संदेश भेजकर कहा था कि उसे यदि अपने कैरियर को आगे बढ़ाना है तो समझौता करना होगा यानी मनमानी करने की छूट देनी होगी.

कनकिया पुलिस स्टेशन में वरिष्ठ इंसपेक्टर अविनाश सावंत ने कहा कि रितू की शिकायत के आधार पर वंश पाठक के खिलाफ़ असंज्ञेय मामला दर्ज कर लिया गया है और उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया जाएगा.

कम से कम 15 भोजपुरी फ़िल्मों में अभिनय का दावा करने वाली रितू ने कहा कि वह हाल ही में एक मित्र के माध्यम से वंश पाठक से मिली थीं. उसने कहा कि मैंने उनसे फ़िल्मों में काम देने के लिए कहा था. हालांकि मैं उन्हें गोरेगांव में जब मिली थी तब से ही वह मुझसे समझौता करने के लिए कह रहे थे.

सावंत ने कहा कि इन दावों की जांच की जा रही है और जरूरत पड़ने पर प्रारंभिक जांच के बाद निर्देशक के खिलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कराई जाएगी.

Friday, August 20, 2010

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए ज्यूरी गठित

57वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के चयन के लिए केन्द्र सरकार ने ज्यूरी का गठन कर दिया है। 2009 के इन पुरस्कारों के चयन के लिए दो ज्यूरी गठित की गई है। एक ज्यूरी फीचर फिल्मों के लिए है और दूसरी गैर-फीचर (डॉक्यूमेंट्री) फिल्मों के लिए। माना जा रहा है कि इस महीने के अंत तक फिल्मों को देखने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और ज्यूरी के सदस्य देश भर से फिल्म निर्माताओं की ओर से पुरस्कारों के लिए भेजी हुई फिल्में देखना शुरू कर देंगे। ‘शोले’ के निर्देशक रमेश सिप्पी को फीचर फिल्मों की ज्यूरी का प्रमुख बनाया गया है जबकि नामी पर्यावरणवादी (और वाइल्ड लाइफ ) फिल्मकार माइक पांडे को गैर-फीचर फिल्मों के लिए गठित ज्यूरी का प्रमुख चुना गया है। इस बार से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के चयन की प्रक्रिया में भारत सरकार ने व्यापक बदलाव किया है, इसलिए नए नियमों के तहत फिल्मों को चुनने की दो-स्तरीय व्यवस्था होगी। लेकिन नई व्यवस्था के तहत, पाँच क्षेत्रीय ज्यूरी होगी(अमिताभ पाराशर,हिंदुस्तान,दिल्ली,20.8.2010)।

Wednesday, August 18, 2010

सिनेमाई भाषा बदल रही हैं 'पीपली लाइव' जैसी फिल्में

बंधी बंधाई जिंदगी से इत्तेफाक नहीं रखने वाले अभिनेता रघुवीर यादव का कहना है कि 'पीपली लाइव' जैसी फिल्में सिनेमाई भाषा को बदल रही है। उनका मानना है कि किसी फिल्म की पटकथा ही उसकी असली हीरो होती है। पिछले दिनों अपनी फिल्म के प्रचार के सिलसिले में राजधानी आए रघुवीर यादव ने एक बातचीत में कहा कि भारतीय सिनेमा से पारसी थियेटर का प्रभाव पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। मगर पीपली लाइव जैसी फिल्में एक गांव की जिंदगी महात्वाकांक्षा और द्वंद्व को प्रभावी तरीके से लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करती हैं। इस तरह की फिल्में सिनेमा की एक नई भाषा गढ़ती हैं।

उन्होंने कहा कि दरअसल किसी फिल्म की असली हीरो उसकी पटकथा होती है। हमारे यहां अभिनेता चरित्र नहीं निभाते है बल्कि हीरो की आभा में चरित्र विलुप्त हो जाता है। हर फिल्म में दर्शकों को किसी अभिनेता का अलग-अलग चरित्र होने के बावजूद भी एक ही व्यक्ति नजर आता है।

1985 में फिल्म 'मैसी साहब' के लिए दो अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पाने वाले अभिनेता ने कहा कि फिल्म उद्योग में भाई भतीजावाद हावी है। लेकिन इससे थियेटर से आने वाले कलाकारों को दिक्कत नहीं होती है। फिल्मी गांवों के बारे में यादव ने कहा कि गांव को दिखाने के लिए जरूरी है कि इसे अंदर से महसूस किया जाए। बुंदेलखंड के लोकगीत 'महंगाई डायन...' को कई लोग भोजपुरी का समक्ष लेते हैं। इसलिए इसकी लोक परंपरा की समीक्षा भी बेहद जरूरी है।

अपनी भविष्य की योजना के बारे में रघुवीर ने कहा कि जिंदगी इतनी छोटी है कि किसी मुद्दे या लाइन के बारे में सोच ही नहीं पाता हूं। मेरी इस साल के अंत तक दो फिल्में कुसर प्रसाद का 'भूत' और 'खुला आसमान' आने वाली हैं।

अभिनय को पेशा बनाने के बारे में उन्होंने कहा कि संगीत सीखने निकला था लेकिन एक्टिंग गले पड़ गई। अब लगता है कि इससे अच्छा कोई और पेशा नहीं हो सकता है, क्योंकि इसमें दूसरे की जिंदगी जीने का मौका मिलता है। किसी अनजान व्यक्ति की रूह से गुजरना और उसकी तकलीफ को महसूस करने का अलग ही मजा है।

फिल्म की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि इसके लिए निर्माता-निर्देशक की नीयत और ईमानदारी अधिक मायने रखती है। उन्होंने कहा कि बेइमानी वहां से शुरू होती है जब आप फिल्म को व्यावसायिक सफलता की दृष्टि से बनाना शुरू करते हैं।

फिल्म के गाने 'महंगाई डायन' को लेकर उठे विवाद के बारे में उन्होंने कहा कि आमिर खान सुलझी हुई तबीयत के व्यक्ति हैं। वे लोकप्रियता के लिए किसी तरह के हथकंडे अपनाने वाले नहीं हैं, बल्कि वो कहानी की ताकत पर यकीन करते हैं। आमिर के बारे में रघुवीर ने कहा कि वह पटकथा से लेकर अभिनय तक हर पहलू पर नजर रखते हैं। वो सहयोगी कलाकारों को सुनने वाले शख्स हैं। उन पर अपनी चीजें थोपने वाले नहीं हैं।

किस चरित्र से उनके अंदर के अभिनेता को संतुष्टि मिली?
इसका जवाब देते हुए रघुवीर यादव ने कहा कि मुझे अभी तक किसी किरदार से संतुष्टि नहीं मिली है और मेरी कामना है कि मुझे कभी संतुष्टि न मिले। मुझे हर किरदार को निभाने के बाद उसमें कमियां नजर आने लगती हैं।

वर्तमान समय के सबसे अच्छे अभिनेता के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि नसीरूद्दीन शाह और ओम पुरी का नाम लिया जा सकता है। लेकिन मुझे सही मायने में बच्चे ही बेहतर अभिनेता नजर आते हैं। जिनमें किसी तरह की कोई लाग लपेट नहीं होती है।

ऑस्कर तक भारतीय फिल्मों के नहीं पहुंच पाने के बारे में उन्होंने कहा कि इसका बड़ा कारण यह है कि हमारे यहां क्वालिटी फिल्मों का निर्माण नहीं होता है और इसका गणित ही एकदम अलग है। ...और कुछ बेहतरीन फिल्में बनती हैं, लेकिन वे वहां तक नहीं पहुंच पाती है(हिंदुस्तान,दिल्ली,18.8.2010)।

Tuesday, August 17, 2010

हरियाणवी फिल्म उद्योग ने ली फिर अंगड़ाई

पूरे 25 साल बाद एक बार फिर हरियाणवी फिल्म उद्योग ने अंगड़ाई ली है। हरियाणवी फिल्म उद्योग की ओर से यह एक सुखद समाचार है कि हरियाणा में धूम मचा देने वाली चंद्रावल फिर से हरियाणवी संस्कृति को बड़े पर्दे पर लाने को तैयार हैं।

उम्मीद है कि अगले साल मार्च में चंद्रावल का सीक्वल रिलीज होगा। इसकी शूटिंग इसी साल अक्टूबर में शुरू हो जाएगी। हरियाणवी फिल्मों की सुपर-डूपर हिट कही जाने वाली चंद्रावल में चंद्रावल के रूप में मुख्य भूमिका निभाने वाली ऊषा शर्मा ने ढाई दशक बाद इस फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला किया है। शर्मा इन दिनों हरियाणा कला परिषद की चेयरपर्सन हैं।

चंद्रावल का सीक्वल चंद्रावल-2 के नाम से ही बनाया जाएगा। हालांकि इसका सीधा सा कारण यह भी हो सकता है कि 1984 में रिलीज हुई चंद्रावल के गीत, संगीत और कहानी का जादू हरियाणा में आज भी ऐसा है कि ऊषा शर्मा को उनकी भूमिका के बाद चंद्रावल के नाम से ही जाना जाता है, लेकिन उनका कहना है कि वह सिर्फ उस विषय को आगे बढ़ाना चाहती हैं जो उस समय एक बड़ा सामाजिक मुद्दा था।

चंद्रावल अंतरजातीय प्रेम के विषय पर बनी एक ऐसी सामाजिक फिल्म थी जिसे हरियाणा के गांवों में फिल्म या सिनेमा के नाम को ही नफरत से देखने वाली औरतों ने भी न सिर्फ पसंद किया, बल्कि इसके गीत लोकगीत बने और पनघटों पर गाए गए। पिछले 25 साल में हरियाणा में बदलाव आया है और संस्कृति में भी। ऐसे में यह भी जरूरी हो गया है कि राज्य की बोली और संस्कृति को उसके असली रूप में प्रचारित किया जाए।

फिल्म से हरियाणवी फिल्म उद्योग में नई जान आएगी। हालांकि चंद्रावल के बाद लाडो बसंती, फूल बदन और जाटणी जैसी फिल्में भी बनीं, लेकिन हरियाणवी उद्योग ज्यादा उठ नहीं पाया। इस बार भी फिल्म में संगीत देने का जिम्मा जेपी कौशिक को ही दिया गया है, जिनके संगीत ने चंद्रावल के गीतों को हरियाणवी लोकगीत बना दिया।

देवीशंकर प्रभाकर फिल्मस के बैनर तले बनने जा रही चंद्रावल-2 के लिए हीरो और हीरोइन का चुनाव हरियाणा से ही किया जाएगा। इसके लिए ऑडिशन पंचकूला में ही होगा। यहां यह जानना भी रोचक होगा कि इस फिल्म के लिए हरियाणा सरकार की ओर से कोई सहयोग देने की घोषणा या प्रस्ताव अब तक नहीं आया है। फिल्म की सत्तर फीसदी शूटिंग हरियाणा में होने के कारण फिल्म के लिए सरकार से सहयोग मिलना चाहिए(रवि शर्मा,चंडीगढ़,17.8.2010)।

Monday, August 16, 2010

केरल में हिंदी फिल्मों को बनाया राष्ट्रीय एकता का हथियार

आखिर आत्मप्रेरणा भी तो कोई चीज होती है। बेशक, होती है और अगर आप भी अपने देश के लिए कुछ सकारात्मक करने का जज्बा रखते हैं तो वसिष्ट एमसी की कोशिशें तारीफ के काबिल हैं। केरल के मालाबार क्रिश्चियन कॉलेज में लेक्चरर वसिष्ट हिंदी फिल्मों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता को रेखांकित करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए अपने दम पर अलग तरह का काम कर रहे हैं। इन्होंने अपने कॉलेज में एक फिल्म क्लब बनाया है, जिसमें हिंदी की क्लासिक और लोकप्रिय फिल्मों की ३०० से ज्यादा सीडी रखी हैं। हिंदी फिल्मों की इस लायब्रेरी में वी शांताराम, राज कपूर, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी, यश चोपड़ा और संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मकारों की हिट फिल्में शामिल की गई हैं। वसिष्ट मानते हैं,"देश की अखंडता को बरकरार रखने में हिंदी बहुत बड़ी भूमिका निभा सकती है।" राष्ट्रीय एकता के प्रचार के लिए वसिष्ट ने फिल्मों के अलावा खेलों को भी माध्यम बनाया है।

"नईदुनिया" से बातचीत में मालाबार क्रिश्चियन कॉलेज फिल्म क्लब के संयोजक और हिंदी फिल्मों के प्रशंसक वसिष्ट कहते हैं, "आजादी के संघर्ष से लेकर अब तक हिंदी फिल्मों ने राष्ट्रीय एकता कायम करने में असरदार भूमिका निभाई है। देश और समाज की जटिल चुनौतियों और विषम माहौल के बीच जब-जब राष्ट्रीय एकता के ताने-बाने पर चोट हुई तब-तब इसकी जरूरत ज्यादा महसूस हुई है। हालांकि सामान्य हालात में भी एकता और अखंडता की लगातार कोशिशें होती रहनी चाहिए। अपनी इन्हीं कोशिशों के तहत मैंने जनवरी २०१० फिल्म क्लब की स्थापना की। इसमें कॉलेज के साथियों और विद्यार्थियों ने उत्साह से साथ दिया।"

वसिष्ट बताते हैं कि फिल्म क्लब में हर सप्ताह हिंदी की कोई लोकप्रिय या क्लासिक दर्जे की फिल्म दिखाई जाती है। छात्रों को बिना शुल्क फिल्मों की सीडी और वीसीडी दी जाती हैं। जनवरी में हमने श्याम बेनेगल फिल्म महोत्सव का आयोजन किया और मार्च २०१० में राज कपूर की चर्चित फिल्मों का उत्सव मनाया गया। जून-जुलाई में आामिर खान की फिल्में दिखाई गईं। फिल्मों के प्रदर्शन के साथ-साथ हम उनके निर्देशकों और फिल्म के संदेश और अनछुए पहलुओं पर छात्रों के साथ चर्चा करते हैं ताकि छात्र भारतीय हिंदी भाषी समाज और उसकी चुनौतियों के पुराने और नए दौर से रूबरू हो सकें। वसिष्ट का ध्येय राष्ट्रीय एकता का प्रचार है। इसके लिए उन्होंने इस क्लब को बनाने से पहले खेलों पर ३ अलबम तैयार किए थे।

प्राइड ऑफ इंडिया नाम के एक अलबम में उन्होंने उन खिलाड़ियों की सफलता को संगीत के माध्यम से उत्सवित किया है जिन्होंने ओलंपिक खेलों में पदक जीते। विक्ट्रीज ऑफ इंडिया में हॉकी विश्व कप और क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत से जुड़े यादगार पलों को संजोया है। नाइट वाचमैन अलबम भी क्रिकेट पर आधारित रहा है। इन अलबम के साथ उन्होंने पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं। वसिष्ट के मुताबिक, "खेलों का मामला सीधे-सीधे राष्ट्रीयता से जुड़ा है। क्रिकेट में हमारे देश के लोगों की आत्मा बसती है इसलिए गर्व के क्षणों को देखकर लोग रोमांचित तो होते ही हैं उनमें राष्ट्रीयता की भावनाएं भी हिलोरें मारने लगती हैं।" खेल, फिल्म और हिंदी पूरे देश को एक सूत्र में बांधती हैं और डा. वसिष्ट का एकाकी प्रयास इसी सूत्र को मजबूत बना रहा है(दुष्यंत शर्मा, नई दुनिया,दिल्ली,16.8.2010)।

...तो सिनेमा में ही जिन्दा रहेंगे लोकगीत

‘पीपली (लाइव)’ में जब ‘महँगाई डायन..’ गाया जाता है तो हॉल की प्रतिक्रिया देखने लायक होती है। चारों ओर से तालियों और सीटियों की संगत गूँजती है। ‘ससुराल गेंदा फूल’ के बाद एक बार फिर हिन्दी सिनेमा के बहाने लोक गीतों की धूम है। ‘महँगाई डायन..’ तो संसद में भी गूँज चुका है लेकिन विडम्बना देखिए कि लोकगीत अब वहाँ नहीं दिखते जहाँ इन्हें होना चाहिए था। लोक गीत हमार समाज से गुम हो रहे हैं और पीढ़ियों से चली आ रही विरासत, जिसे एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को मौखिक परम्परा के रूप में सुपुर्द करती रही है, कहीं खो रही है। संभव है आप शहरों से दूर किसी गाँव की ओर निकल पड़ें तो सड़क किनारे सावन-भादों में कुछ झूले दिख जाएँ या फिर गाँवों-कस्बों में नाते-रिश्तेदार के घर होने वाले मांगलिक आयोजनों में आज भी कुछ औरतें ढोलक लेकर जुट जाएँ लेकिन अब ये दृश्य कमतर हो रहे हैं। आर्थिक संरचना बदलने से लोक गीत अब वहाँ नहीं दिखते जहाँ इन्हें होना चाहिए था। लोक गीतों पर शोधपूर्ण कार्य करने वाली और ‘अवधी के लोक गीत-समीक्षात्मक अध्ययन’ एवं ‘लोक मानस’ सहित कई पुस्तकों की लेखिका विद्याबिन्दु सिंह कहती हैं कि आज छोटे-छोटे गाँवों तक में शादी एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर फिल्मी गीत बजते हैं। ऐसे में लोकगीतों के लिए अवसर ही नहीं बचता। लेकिन कुशीनगर के अपने जोगिया गाँव में लोक गीतों के संरक्षण को लेक र कई आयोजन कर चुके कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा एक दूसरे कारण की ओर इशारा क रते हैं। वह कहते हैं कि लोक गीत गाँवों की आर्थिक संरचना पर आधारित थे। पीसने-कूटने, रोपनी-सोहनी के गीत थे। अब वह आर्थिक संरचना ही बदल चुकी है। तो क्या इन गीतों को हम इसी प्रकार खत्म होते देखते रहेंगे? लोकप्रिय गायिका मालिनी अवस्थी, जो इन दिनों ‘महुआ’ चैनल पर भोजपुरी गीतों के रियलिटी शो ‘सुर संग्राम’ का संचालन कर रही हैं, कहती हैं कि लोकगीत किताबों म सहेजकर नहीं रखे जा सकते। ये श्रुतिपरम्परा से आगे बढ़ते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के बहाने हमें इन्हें सुनने-सुनने के अवसर बढ़ाने होंगे। वरिष्ठ लोक गायिका कमला श्रीवास्तव कहती हैं कि लोक गीतों और उनकी धुनों को बचाए रखने के लिए मैंने विभिन्न संस्थाओं के साथ मिलकर पिछले कई वर्षों से कार्यशालाओं के आयोजन किए हैं जिससे इनसे नई पीढ़ी जुड़ सके ।

लोकगायिका मालिनी अवस्थी कहती हैं कि बड़ी संख्या में ऐसे लोकगीत हैं जो ऐ भौजी,ऐ ननदी या दूसरे रिश्तेदारों के सम्बोधन से शुरू होते हैं लेकिन आज संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है। देवरा,ससुरा के बारे में बताने वाले लोकगीत अब गाए भी कैसे जाएं जब जीवन में इन रिश्तों की महक गायब हो गई है। सामाजिक जीवन बदल गया है। झूले,पेड़ों,बाग़-बगीचों से निकलकर हमारे लॉन और ड्राइंग रूम में आ गए हैं(अनिल पराड़कर,हिंदुस्तान,लखनऊ,15.8.2010)।

रोबोट ने हासिल की आई ट्यूंस चार्ट पर पहली पोजीशन

जो काम इस देश के नेता आजादी के ६३ साल बाद भी नहीं कर पाए, वह काम सिनेमा ने कर दिखाया है। भाषाओं की सीमाएं टूट रही हैं। अब हिंदी, तमिल, तेलुगू सिनेमा की बजाय बातें भारतीय सिनेमा की होने लगी हैं। देश की अब तक की सबसे महंगी फिल्म "इंदिरन-द रोबोट" पहली ऐसी भारतीय फिल्म भी बन गई है जिसने अपने म्यूजिक रिलीज के तुरंत बाद अंतरराष्ट्रीय आई ट्यून्स चार्ट पर पहली पोजीशन हासिल कर ली है। देशभर के फिल्म वितरकों की मौजूदगी में रोबोट के म्यूजिक रिलीज कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन और रजनीकांत मौजूद थे। दोनों तीन साल बाद किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में एक साथ नजर आए। दोनों ने हमेशा की तरह एक दूसरे की तारीफों के पुल बांधे। रजनीकांत ने इस मौके पर अमिताभ बच्चन को अपना गुरु भी बताया।

नौ साल पहले कमल हासन और प्रीति जिंटा के साथ घोषित की गई निर्देशक शंकर की फिल्म रोबोट ने इस दौरान बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं। कमल हासन के बाद यह फिल्म शाहरुख खान करने वाले थे, लेकिन आखिर में यह फिल्म रजनीकांत की झोली में आई। फिल्म के निर्माता भी इसके ऐलान के बाद से लेकर लगातार बदलते रहे। अंतरराष्ट्रीय फिल्म निर्माता कंपनी इरॉस ने इस फिल्म से द्रोण और युवराज की नाकामी के बाद हाथ खींच लिए थे। आखिर में यह फिल्म सन नेटवर्क के मालिक कलानिधि मारन की झोली में आई। विदेश में इस फिल्म के वितरण अधिकार एचबीओ ने खरीदे हैं। यह वही फिल्म है जिसके लिए छह करोड़ रुपए लेकर ऐश्वर्या राय दो साल पहले देश में किसी फिल्म के लिए सबसे ज्यादा रकम पाने वाली हीरोइन बन गई थीं।

फिल्म के हिंदी संस्करण का म्यूजिक मशहूर कंपनी वीनस ने मुंबई में रिलीज किया और इस कार्यक्रम को हाल के दिनों का सबसे बड़ा म्यूजिक लांच माना जा रहा है। अमिताभ बच्चन, अभिषेक, जया और ऐश्वर्या के अलावा ऐश्वर्या के मायके के लोग भी इस कार्यक्रम में शरीक हुए। रोबोट एक साइंस फिक्शन फिल्म है, जिसका नायक अपने जैसा दिखने वाला एक शक्तिशाली रोबोट तैयार करता है, दिक्कत तब शुरू होती है जब इसमें इंसानी जज्बात विकसित हो जाते हैं। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स, कॉस्ट्यूम डिजाइन और साउंड के लिए हॉलीवुड की सुपरहिट फिल्मों में काम कर चुके तकनीसियंस की सेवाएं ली गई हैं। इस फिल्म के सलमान खान की फिल्म दबंग के सामने १० सितंबर को रिलीज होने की चर्चाएं चल रही हैं। हालांकि पुष्टि करने से अभी रोबोट से जुड़े लोग इनकार कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक फिल्म २४ सितंबर को रिलीज करने की तैयारियां चल रही हैं। इसके हिंदी संस्करण के वितरण अधिकारों को लेकर सौदेबाजी अब भी जारी है(नई दुनिया,दिल्ली संस्करण,16.8.2010 में मुंबई से पंकज शुक्ल)।

सेलेब्रिटीज़ की जिम्मेदारी और विज्ञापन के वादे

हेमा मालिनी इश्तहारों में कुछ समय पहले जिस बैंक को बहुत बढ़िया बता रही थीं, उसका बहुत खराब हाल निकला और देश के सबसे बड़े प्राइवेट बैंक आईसीआईसीआई में उसका विलय करना पड़ा। हेमाजी संदेश दे रही थीं कि इस बैंक के साथ कारोबार करना चाहिए। यह बहुत विश्वसनीय बैंक है । हेमा मालिनी की विशेषज्ञता का क्षेत्र निश्चय ही बैंकिंग नहीं है , पर वे बड़े आराम से बैंकिंग के बारे में बात कर रही थीं। जितने आराम के साथ वह एक वाटर प्यूरीफायर को श्रेष्ठ बताती हैं , उतनी ही सहजता से वह इस बैंक को श्रेष्ठ बता रही थीं। अब यह बैंक नहीं है , इसके प्रबंधन के अकुशल होने की जिम्मेदारी तो किन्ही और पर है । पर क्या हेमा मालिनी पर यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह पब्लिक से माफी मांगें और कहें कि उस बैंक के बारे में उनके जो विचार थे, वह या तो गलत थे या वे सुनी-सुनायी बातों पर आधारित थे। बहुत पहले एक कंपनी होम ट्रेड के कई बड़े खिलाड़ी माडलिंग करते थे और इस कंपनी की तारीफ के पुल बांधा करते थे। सचिन तेंदुलकर भी इनमें से एक है । कंपनी बैठ गयी, पर सचिन चुप नहीं बैठे , वह किसी और कंपनी को बेहतर बता रहे हैं। अमिताभ बच्चन का स्वास्थ्य खराब रहता है और वह कुछ दिनों पहले तक एक च्यवनप्राश के बारे में बताते थे कि उसे खाने से सेहत दुरुस्त रहती है , जबकि अमिताभ की अपनी सेहत दुरुस्त नहीं रहती। वे च्यवनप्राश के अलावा तमाम तरह के तेलों और क्रीमों के बारे में बताते हुए पाये जाते हैं । इस संबंध में अब एक आचार संहिता की जरु रत है । सेलिब्रिटीज को कुछ जिम्मेदारी के साथ काम करना चाहिए। जो पब्लिक उन्हे सेलिब्रिटी बनाती है , उसके प्रति कुछ जिममेदारी का भाव उनमें होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक प्रोडक्ट के चौपट निकलने के बाद सेलिब्रिटी दूसरे प्रोडक्ट के बारे में विस्तार से बताती रहे । अभी तो ऐसा ही हो रहा है, खासतौर पर टीवी इश्तिहारों में। टीवी इश्तिहारों का असर अखबार वगैरह के विज्ञापनों के मुकाबले ज्यादा होता है । सामान्यत: कम पढ़े लिखे या न पढ़े लिखे लोगों तक भी टीवी पहुंचता है । कई टॉप क्रिकेटर इन दिनों बिल्डर्स के लिए विज्ञापन करते हैं और बताते हैं कि फलां कंपनी के फ्लैट सबसे जोरदार हैं । यह निश्चय ही क्रिकेटरों की विशेषज्ञता के क्षेत्र नहीं हैं । नामी पुलिस अफसर किरण बेदी इन दिनों एक वाशिंग पाऊडर के बारे में सच बताती हैं कि वह बेहतरीन पाऊडर है । पुलिसिंग के क्षेत्र में नाम करने वाली किरण बेदी एकाएक धुलाई विशेषज्ञ हो गयी हैं । एक क्षेत्र में काम करके हासिल की गयी विशेषज्ञता इतनी बहुआयामी नहीं हो सकती कि वह किसी भी क्षेत्र के बारे में कमेंट करने के लिए प्रेरित करे । अपने को बेहतरीन नेता मानने वाले शत्रुघ्न सिन्हा कुछ समय पहले तक अमिताभ बच्चन की इश्तिहार वृत्ति का मजाक उड़ाया क रते थे। पर अब वह खुद पाइप से लेकर टीवी वगैरह के विज्ञापन में आ रहे हैं । तो क्या अमिताभ से उनकी खुंदक सिर्फ इतनी थी कि अमिताभ को एड मिलते हैं और उन्हें नहीं मिलते। कुछ समय पहले तक वे अमिताभ के बारे में बोलते थे कि उन्हें सच बोलना चाहिए और उपभोक्ताओं को गुमराह नहीं करना चाहिए। इधर कई अविज्ञापन विज्ञापनों की शक्ल में आ रहे हैं । कुछ समय पहले अमिताभ बच्चन एक चाकलेट के एड में कहते थे, वह चाकलेट का इश्तिहार नहीं करने वाले थे। फिर उन्होंने चाकलेट प्लांट का दौरा किया और उसकी उत्पादन प्रक्रिया देखी और वह आश्वस्त हो गये कि चाकलेट एकदम ठीक है । शिल्पा शेट्टी आजकल एक सौंदर्य उत्पाद के बारे में विज्ञापन में बताती हैं कि वह पहले तो उस सौंदर्य उत्पाद का विज्ञापन करने को तैयार नहीं थीं, पर जब उन्होंने खुद उसका इस्तेमाल किया, तो उनकी राय बदल गयी। वे सेलिब्रिटी की विश्वसनीयता का फायदा अपने आइटमों के लिए उठाना चाहते हैं। इसलिए ऐसी आचार संहिता जरूरी है जिसमें उत्पाद या सेवाएं बाद में खराब निकलने पर सेलिब्रिटीज से ऐसी माफी का प्रावधान हो कि उन्होंने वह विज्ञापन गलतफहमी में किया था और इसके लिए उन्हें दुख है । अभी तो दुख और संकोच के इजहार के बगैर वे दूसरे आइटम को श्रेष्ठ बताने में लग जाते हैं । किसी एनजीओ को तमाम इश्तिहारों के सोशल ऑडिट का काम भी क रना चाहिए और बताना चाहिए कि किस सितारे ने किस उत्पाद के बारे में क्या बताया और बाद में हकीकत क्या निकली। (आलोक पुराणिक,हिंदुस्तान,15.8.2010)

Sunday, August 15, 2010

आजाद भारत को और नत्था नहीं चाहिए

पीपली लाइव की चर्चा हर जुबां पर है, खासकर महंगाई डायन गाने ने तो हलचल पैदा कर दी है। फिल्म को सामाजिक चेतना जगाने वाली फिल्मों की श्रेणी में रखा जा रहा है। यह फिल्म बतौर निर्माता आमिर खान की चौथी फिल्म है। इससे पहले उनकी फिल्में लगान और तारे जमीं पर भी चर्चा में रही हैं। आमिर परफेक्शनिस्ट हैं तो उनकी फिल्म भी ज्वलंत समस्याओं पर आधारित होती है। देश के किसानों की दुर्दशा पीपली लाइव में देखी जा सकती है। स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले दर्शकों के सामने पीपली लाइव को परोसने वाले आमिर खान के दिमाग को खंगालने के लिए उनसे मुंबई में रू-ब-रू हुए हमारे विशेष संवाददाता नवीन कु मारः

पीपली लाइव के रिस्पांस से आप खुश हैं?
मुझे खुशी है कि दर्शक पीपली लाइव देख रहे हैं । पीपली लाइव एक सेटायर है जो मध्य भारत के गांवों के चारों ओर घूमता है । इन गांवों की दशा को नत्था के जरिए दिखाने की कोशिश की गई है । पीपली लाइव नॉन स्टार के साथ बनाई है ।

आपको खतरा महसूस नहीं हुआ?
मेरे फिल्म बनाने का तरीका अलग है। मैं बनिए की तरह जोड़-घटाव करके फिल्म नहीं बनाता हूं। दर्शकों का ख्याल रखता हूं । अगर कोई दर्शक टिकट खरीदकर फि ल्म देखने आया है तो उसका मनोरंजन होना चाहिए। एक निर्माता के तौर पर मैं इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं । फिल्म से सिर्फ पैसे नहीं कमाए जाते हैं । निर्माता के तौर पर मेरा फर्ज है कि दर्शकों को एक बेहतरीन फिल्म दी जाए।

आपकी फिल्मों से कुछ न कुछ संदेश मिलता है। इसके पीछे सोच क्या है?

सबसे पहली बात मैं कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हूं। मैं फिल्म मनोरंजन के लिए बनाता हूं । हां, अगर मनोरंजन के साथ कोई संदेश भी लोगों को मिले तो यह अच्छी बात है ।

आप मानते हैं कि पीपली लाइव एक समानांतर सिनेमा है?

यह मेनस्ट्रीम सिनेमा नहीं है । इसे व्यावसायिक फिल्म भी नहीं कह सकते। लेकिन यह भारतीय सिनेमा के मापदंड पर पूरी तरह से खरी उतरती है ।

अनुषा रिजवी की कहानी को परदे पर देखकर कितना खुश हैं ?

पेपर पर जो था, उसे अनुषा ने स्क्रीन पर उतारा है । इस तरह की एक अच्छी फिल्म से जुड़ने का मुझे मौका मिला। इसलिए मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं ।

फिल्म के क लाकारों के बारे में क्या क हेंगे?

सचमुच इन कलाकारों ने प्रभावित किया है । मैंने पिछले 20 साल में जितना काम किया है, वह इन कलाकारों के सामने कुछ नहीं है । इनके अभिनय को देखकर मुझे सीखने का मौका मिला है ।

आप भी मानते हैं कि पीपली लाइव में आज के देश का चित्र सा झलकता है?

नजरिया अपना-अपना है। यह अपने नजरिए की बात है कि लोग फिल्म में क्या देखना चाहते हैं ।

आजादी के बाद हमारे देश का यही चेहरा है?

फिल्म देखकर खुद जान लीजिए।

पर अब कि सानों की दुर्दशा पर क्या कहेंगे?

किसानों की हालत बेहतर होनी चाहिए। हमें और नत्था नहीं चाहिए।

इस भूमिका में ओमकार दासा माणिकपुरी आपको कैसे लगे?

ओमकार बेहतर क लाकार हैं और भोलेभाले भी हैं । उन्होंने दीपिका पादुकोन से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। दीपिका के अलावा प्रियंका चोपड़ा, सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन से भी मिलकर वह काफी खुश हैं।

आप एक गंभीर निर्माता के रू प में उभर रहे हैं?
यह सच है कि मैं कु छ अच्छी फि ल्में बनाना चाहता हूं और इसके लिए प्रयास कर रहा हूं । मेरे लिए फिल्म ही सब कुछ है । इसलिए मैं फिल्म के जरिए भी कु छ करने की कोशिश करता रहता हूं। पीपली लाइव के लिए अनुषा जब मेरे पास आई थीं तब मैं मंगल पांडे की शूटिंग कर रहा था। शूटिंग के दौरान मैं कहानी नहीं सुनता हूं । अनुषा ने अच्छी पटकथा लिखी थी और वह मेरे लायक पटकथा लगी थी। इसलिए मैंने पीपली लाइव फिल्म बनाई है(हिंदुस्तान,15.8.2010)।

Saturday, August 14, 2010

आमिर खान का दशक

नई सदी के पहले दस वर्ष में आमिर खान ने ‘लगान’ से लेकर ‘पीपली लाइव’ तक सार्थक मनोरंजन गढ़ा और सामाजिक सोद्देश्यता की ‘रंग दे बसंती’ और ‘३ इडियट्स’ फिल्म में काम किया। उन्होंने ‘गजनी’ के लिए जबरदस्त कसरत की। इस दशक में विविध भूमिकाओं के निर्वाह के लिए उन्होंने अपनी शरीर रूपी बांसुरी पर अलग-अलग सुर साधे। वह तन, मन और धन से अपने काम में डूबे रहे। इस दशक में राजकुमार हीरानी और इम्तियाज अली ने भी बहुत श्रेष्ठ काम किया, फिर भी किसी एक को दशक का शिखर पुरुष चुनना चाहें तो आमिर खान का नाम ही उभरता है।


अनुषा रिजवी ने आमिर के लिए ‘पीपली लाइव’ बनाई है, जिसे अनेक अंतरराष्ट्रीय समारोहों में सराहा जा चुका है और अब यह फिल्म भारत में प्रदर्शित होने जा रही है। भारत में विगत साठ वर्षो से हमने साधन-संपन्न इंडिया और साधनहीन भारत रचकर देश की ऊर्जा का अन्यायपूर्ण बंटवारा कर दिया है। महानगर जलसाघरों की तरह सज रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में अनगिनत किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार ने व्याधि की जड़ पर आक्रमण नहीं करते हुए उस डाली को काटने का प्रयास किया जिस पर झूलकर किसान आत्महत्या करते हैं। मरने वाले के परिवार को मुआवजा दिया जाता है और इस तरह जीवित व्यक्ति को मरने पर बाध्य किया जाता है। हमारे भारत महान में मृत व्यक्ति के श्राद्ध में पकवान पकते हैं और जीवित व्यक्ति दाने-दाने को तरसता है।


‘पीपली लाइव’ के प्रोमो देखकर लगता है कि हबीब तनवीर की शैली में यह फिल्म गढ़ी गई है। ज्ञातव्य है कि हबीब तनवीर ने जनजातियों से अनगढ़ लोगों को लेकर लोक शैली में अनेक नाटक रचे। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं में भारत के विरोधाभास और विसंगतियां खूब साफ उभरकर आती हैं और ‘पीपली लाइव’ उसी शैली की सेल्युलाइड पर गढ़ी रचना है। अभिव्यक्ति के सारे माध्यम एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक अदृश्य तार है जो तमाम विचारवान लोगों के बीच मौजूद है।


‘महंगाई डायन’ नामक गीत लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि समाज उसमें अपने कष्ट देख रहा है। लोकगीतों का जन्म आम आदमी के हृदय में होता है, इसलिए वे अमर हैं। फिल्मों में प्रारंभ से ही इनका उपयोग होता रहा है। ‘तीसरी कसम’ का ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे..’ याद आता है। ज्ञातव्य है कि इस गीत में राज कपूर मात्र खंजड़ी बजा रहे हैं और किशन धवन तथा अन्य अभिनेता गीत गा रहे हैं। ‘पीपली लाइव’ में यही भावना और शैली नजर आ रही है। चेतन आनंद ने देव आनंद अभिनीत ‘फंटूश’ नामक फिल्म बनाई थी। कोई आधी सदी पहले की बात है। उम्र की धुंध के परे सिर्फ इतना याद है कि बेरोजगारी से त्रस्त एक युवा आत्महत्या करना चाहता है और एक व्यापारी उसे कुछ दिन रुकने को कहकर उसका बीमा करवा लेता है। आत्महत्या के लिए मुकर्रर दिन आने तक नायक को प्यार हो जाता है और वह जीना चाहता है, परंतु उसने तो आत्महत्या का वादा किया है। ऊंची इमारत से कूदने के दृश्य के लिए व्यापारी ने टिकट बेचे हैं, मीडिया का मजमा लगा है। वह एक अद्भुत व्यंग्य फिल्म थी।


गौरतलब है कि ‘फंटूश’ आजादी के पांच या सात वर्ष बाद की फिल्म है। गोयाकि आत्महत्या का सिलसिला लगातार जारी है। हमारे नेता न उस समय शर्मसार थे, न आज उनके माथे पर बल पड़ता है। जनता तब भी गैर-जवाबदारों को चुनती थी, आज भी चुनती है। क्या इसीलिए भारत को अनंत संभावनाओं वाला देश कहते हैं? आज कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर लाख करोड़ के घपले की खबर है। यह राशि यूरोप के किसी छोटे देश के वार्षिक बजट के बराबर है। ऐसा विराट भ्रष्टाचार भी पचा लिया जाता है। हालात ऐसे हैं कि हर संवेदनशील व्यक्ति आत्महत्या करना चाहता है, जो पागल होने से बेहतर है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,12.8.2010)।

Friday, August 13, 2010

भोजपुरी फिल्म "गुंडईराज" में पक्षियों को फंसायेगा माइकल

गोरखपुर और बस्ती मंडल में पक्षी प्रेमी के नाम से विख्यात माइकल अब निर्माता प्रेम झा की बहुचर्चित भोजपुरी फिल्म गुंडईराज में पक्षियों को फंसाने का अभिनय करेगा। मालूम हो कि गुंडईराज फिल्म पूर्वाचल के माफियागिरी पर बन रही है। फिल्म में तौकीर नामक पूर्वाचल का एक निर्दयी माफिया है। उसके लिए हत्या करना आम बात है। वह अपहरण, लूट और तस्करी समेत सभी गलत काम करता है। दुर्लभ प्रजाति की पक्षियों की भी वह तस्करी करता है। इन पक्षियों को फंसाने का काम उसका एक गुर्गा करता है। इस भूमिका को करने के लिए निर्माता प्रेम झा ने माइकल को चुना है और शूटिंग के लिए उसे मुम्बई बुलाया है। मुम्बई जाने के पूर्व माइकल काफी उत्साहित दिखा। उसने कहा कि वह अपनी भूमिका को पर्दे पर जीवंत कर देगा। इस फिल्म के निर्देशक रविभूषण सिन्हा हैं तथा मुख्य कलाकार पवन सिंह, मोनालिसा, विक्रांत आदि हैं। मालूम हो कि माइकल का असली नाम मुजीबुर्रहमान है। वह जिला संतकबीर नगर के मगहर का रहने वाला है। गरीबी के चलते वह मात्र कक्षा 9 तक की शिक्षा ग्रहण किया। करीब 15 वर्ष पहले उसकी मां की मौत हो गई। वह एकांत में उदास रहने लगा। उसके इस एकांत और उदास घड़ी में उसके पास पशु-पक्षी आते जाते रहते थे। वह पशु पक्षियों को दाना देने लगा और धीरे-धीरे पशु पक्षी उसके प्रेमी बनने लगे। माइकल इनकी आवाज को सुनकर उसी आवाज में उनसे बात करने लगा। बाद में वह पशु और पक्षियों को उनकी आवाज में बोलकर जब चाहता बुला लेता। आज जब माइकल आवाज देता है तो आसमान में सैकड़ों की संख्या में पक्षी मंडराने लगते हैं। एक नाटक में अच्छे अभिनय के लिए वह मगहर महोत्सव में सम्मानित भी हो चुका है(दैनिक जागरण,गोरखपुर,13.8.2010)।

Thursday, August 12, 2010

इतिहास रचने को तैयार है पीपली लाइव

हिंदी सिनेमा में आर्ट सिनेमा की सूरत दो दिन बाद बदलने जा रही है। बिना किसी बड़े सितारे के सहारे सिर्फ कहानी का सहारा लेकर बनी फिल्म पीपली लाइव हिंदी सिनेमा का एक नया इतिहास रचने को तैयार है। ऐसा पहली है कि एक ऑफ बीट फिल्म को देश के ६०० और विदेश के सौ सिनेमाघरों में एक साथ रिलीज किया जा रहा है। इसमें ब्रिटेन के सिनेमाघर शामिल नहीं हैं, वहां इस फिल्म को दुनिया की मशहूर वितरक कंपनी आर्टिफिशियल आई ने खरीदा है जो इसे वहां २४ सितंबर को रिलीज करेगी।

सिनेमा में प्रचार और विपणन का रिकॉर्ड भी पीपली लाइव ने बना लिया है। ऐसा पहली बार हुआ है कि करीब तीन करोड़ की लागत से बनी एक हिंदी फिल्म के दुनिया भर में सिर्फ प्रचार पर सात करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए। आमतौर पर हिंदी फिल्मों के प्रचार पर इसकी लागत से आधा या इसके बराबर ही खर्च होता है लेकिन निर्माण लागत के दोगुने से भी ज्यादा इसके प्रचार पर खर्च करके आमिर खान की प्रोडक्शन कंपनी ने हिंदी सिनेमा में प्रचार की अहमियत को नए सिरे से परिभाषित किया है। नईदुनिया से खास बातचीत में आमिर खान ने बताया कि पीपली लाइव अपनी निर्माण लागत और प्रचार पर हुए खर्च को पहले हीसैटेलाइट राइट्स बेचकर वसूल कर चुकी है। पीपली लाइव के सैटेलाइट राइट्स दस करोड़ रुपये में बिक चुके हैं।

मतलब यह कि अब सिनेमाघरों से जो भी रकम आमिर खान की झोली में आएगी, वह उनका शुद्ध मुनाफा होगा। आम तौर पर बड़े सितारों वाली हिंदी फिल्में ही देश के पांच सौ से ऊपर सिनेमाघरों में रिलीज होती हैं। इस लिहाज से पीपली लाइव का एक साथ छह सौ सिनेमाघरों में रिलीज होना फिल्म उद्योग के लिए कथानक के लिहाज से नई शुरुआत मानी जा रही है। ट्रेड विशेषज्ञ विकास मोहन का मानना है कि पीपली लाइव अगर कामयाब होती है तो हिंदी सिनेमा में अच्छी कहानियों का दौर लौटेगा और सितारों पर फिल्म उद्योग की निर्भरता कम होगी।

पीपली लाइव को मिले प्रचार का ही नतीजा है कि ब्रिटेन की मशहूर वितरक कंपनी आर्टिफिशियल आई ने पहली बार कोई हिंदी फिल्म खरीदी है। यह कंपनी विश्व सिनेमा की उन फिल्मों को ही अपने खास सिनेमाघरों में प्रदर्शित करती है, जो लीक से हटकर बनी हुई होती हैं। आमिर ने यह राज भी खोला कि पीपली लाइव दरअसल गांवों में बढ़ते शादी और रीयल इस्टेट कारोबार की तरफ लोगों का ध्यान खींचती है(पंकज शुक्ल,नईदुनिया,दिल्ली,12.8.2010)।

‘महंगाई डायन’ गाने को लेकर चेतावनी

फिल्म पीपली लाइव का चर्चित गाना-महंगाई डायन खाये जात है.. भले ही धमाल मचा रहा हो लेकिन इसको लेकर निर्माता और जानेमाने अभिनेता आमिर खान की मुश्किलें कम होती नजर नही आतीं।
डायन प्रताडऩा के खिलाफ काम करने वाली गैर सरकारी संस्था संस्था फ्री लीगल एड कमेटी ने इस गाने में डायन शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति जताते हुए कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी है। संस्था के चेयरमैन और सामाजिक कार्यकर्ता श्री प्रेमचंद ने आज कहा कि इस गाने में डायन शब्द का इस्तेमाल महिलाओं की गरिमा के विरूद्ध है। डायन शब्द एक कुप्रथा और अंधविश्वास से जुड़ा है तथा इसके नाम पर आज भी महिलाओं पर अत्याचार हो रहे हैं।
प्रेमचंद ने कहा कि उनकी संस्था आमिर से अनुरोध करेगी कि वह इस बात को समझे और गाने में फेरबदल कर इस शब्द को हटा लें। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो हम उचित कानूनी कार्रवाई करेंगे। ज्ञातव्य है कि उक्त संस्था ने झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में डायन कुप्रथा के खिलाफ उल्लेखनीय काम किया है। इसका मुख्यालय जमशेदपुर में है। गौरतलब है कि फिल्म रिलीज से पहले ही सुपरहिट हो गये इस ठेठ गंवई अंदाज वाले गाने को लेकर सबसे पहले आमिर की तब किरकिरी हुई थी जब इसके गायकों को कथित तौर पर कम मेहनताना दिये जाने का मुद्दा उछला था। बिहार की राजधानी पटना की एक अदालत में भी इस गाने के खिलाफ मामला दर्ज कराया गया है(दैनिक ट्रिब्यून,जमशेदपुर,12.8.2010)।

आप इस गीत को यहां सुन सकते हैं

Wednesday, August 11, 2010

वाकई अलग हैं जूलिया राबर्ट्स

यूनिसेफ के लिए हर साल करोड़ों रुपये दान करने वाली जूलिया राबर्ट्स एक दम अलग अभिनेत्री हैं । जीवन में सब कु छ हासिल करने वाली जूलिया को आध्यात्मिकता सुकून देती है । भारत और भारतीय खाना उन्हें पसंद है । वह जब भी भारत आती हैं तो अलग एक दृष्टि लेकर लौटती हैं । आखिर कैसी है जूलिया राबर्टा्स की दुनिया? रत्ना श्रीवास्तव की एक रिपोर्टः

जूलिया राबर्ट्स अलग हैं । हॉलीवुड की सुपरस्टार्स से एकदम अलग। यूनिसेफ के लिए हर साल करोड़ों रुपये दान करने वालीं। बढ़ती उम्र के साथ चेह रे पर आई झुर्रियों के साथ जीने की चाह रखने वाली। उन्हें शांति की तलाश है। आध्यात्मिक ता उन्हें सुकून देती है । भारत और भारतीय खाना उन्हें पसंद है । वह जब भी भारत आती हैं तो अलग एक दृष्टि लेकर लौटती हैं । कोई अठारह साल पहले जब वह यहां आई थीं तो कोलकाता में मदर टेरेसा के मिशन के साथ दो हफ्ते बिताये थे। तब उन्हें महसूस हु आ था कि असली यथार्थ और असली जमीन होती क्या है । अभी थोड़े समय पहले वह फिर से भारत आईं, हॉलीवुड की एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में, जिसकी नायिका जीवन को तलाश रही है और इसलिए वह आध्यात्मिकता की शरण में इस देश में आती है । यहां वह मंदिरों में गईं। योग को जाना। धर्मगुरु ओं से मिलीं। हिन्दू दर्शन ने उन पर खासा असर डाला। बस फिर वह मन से इस धर्म की ही हो गईं। अब उन्हें पति डेनियल मोडर और तीनों बच्चों के साथ नियमित रूप से लॉस एंजिल्स के हिन्दू मंदिर में देखा जाता है । उनके बच्चे हे जल, फिनस और हेनरी रोज श्लोक पढ़ते हैं , हाथ जोड़ते हैं , टीका लगाते हैं , भगवान की पूजा करते हैं । हाल में जूलिया ने एक अमेरिकी पत्रिका को दिये इंटरव्यू में स्वीकार कि या कि वह अब हिन्दू हैं । उनका कहना है कि जिंदगी में दोस्तों और परिवार से मिले जख्मों से वह न जाने कितने समय से अशांत थीं, जब वह पटौदी स्थित हरि आश्रम में आध्यात्मिक गुरु स्वामी श्री धरम के पास आईं तो एक नया अनुभव था, एक अलग-सी शांति उन्हें यहां मिली। सनातन धर्म की मान्यताओं, परंपराओं और दर्शन ने उनकी बैचेनी को खत्म कर दिया। मन, दिमाग और कर्म से भी उन्होंने धर्म की शिक्षाओं का अंगीकार किया तो आत्मिक सुख की लहरें पूरे वजूद में महसूस होने लगीं। जूलिया सही मायनों में मर्लिन मुनरो के बाद हॉलीवुड की ऐसी सुपर स्टार हैं , जिनका जादू पूरी दुनिया में चला है । नब्बे के दशक के शुरू में जब ‘प्रिटी वूमन’ मूवी थिएटर में आई तो पूरी दुनिया उनकी दीवानी बन गई। वह उसी दौरान सबसे ज्यादा पैसा वसूल करने वाली अभिनेत्री बन गईं। हालांकि उस समय उनकी उम्र थी महज बीस साल। जब उन्होंने ‘एरिन ब्रोकोविच’ फिल्म की, उसके लिए उन्हें दो करोड़ अमेरिकी डॉलर का मेहनताना मिला। इस फिल्म ने ऑस्कर जीता और साथ में दुनियाभर के सारे ही प्रतिष्ठित अवॉर्ड । हालांकि इससे पहले भी दो बार उनका नाम ऑस्कर के लिए नोमिनेट हुआ था, लेकि न वह ऑस्कर की जादुई प्रतिमा को चूम नहीं पाई थीं। एक-एक रोचक वाक या, जो उनके ऑस्क र जीतने से ही संबंधित है । ये करीब-क रीब तय था कि साल 2000 का ऑस्क र जूलिया को फि ल्म ‘एरिन ब्रोकोविच’ के लिए मिलना है । इसके बाद दुनिया की दिग्गज फैशन डिजाइनिंग कंपनियों में होड़ लग गई कि जूलिया जब ऑस्कर के मंच पर पहुंचे तो उन्हीं की पोशाक पहनी हो। उसके लिए उन्हें मोटी राशि ऑफर की जाने लगी। इसी बीच उनकी एक सहेली बाजार से उनके लिए काले रंग की मखमली फ्रॉक खरीद कर लाई, जो वाकई बहुत अच्छी थी, जूलिया ने फिर इसी को पहना। इसी के साथ वह दुनियाभर के 25 करोड़ लोगों से टीवी पर रू -ब-रू हु ईं। अगर यह कहा जाता है कि जूलिया अलग हैं तो सचमुच हैं -वो साधारण भी हैं और असाधारण भी। एक साथ दोनों। मूडी वो हमेशा की रही हैं , लेकिन स्टारडम के नकचढ़ेपन से दूर । अभिनय ही नहीं, समझ के मामले में भी समकालीन अभिनेत्रियों से कोसों आगे हैं , कोई भी कि रदार निभाने की समझ कोई उनसे सीखे। लेकिन यह भी ताज्जुब है कि एक जमाने में उनके अभिनय से ज्यादा चर्चाएं उनके निजी जीवन को लेकर होती थीं। वैसे जीवन भी अभावों, अभिभावकों की क लह और टूटते-बिखरते परिवार के बीच बीता। मां-पिता दोनों थिएटर के नामचीन कलाकार थे। लेकि न पैसे से फक्क ड़ । 28 अक्टू बर 1967 को जब तीसरी संतान के रू प में जूलिया का जन्म हु आ तो पिता के पास अस्पताल का बिल भरने लायक पैसे भी नहीं थे। पिता जमकर काम करते थे कि घर की आर्थिक हालत को पटरी पर ला पाएं, लेकिन जब वैसा नहीं हो पाया तो घर में कलह होने लगी। मां-बाप में तलाक हो गया। पिता जल्दी गुजर गये। चूंकि मां-बाप मंझे हुए कलाकार थे, लिहाजा अभिनय का प्रवाह तो जूलिया को बचपन से ही घुट्टी में मिल गया था। उनके सपने में हॉलीवुड बसता था, शायद इसलिए भी क्योंकि भाई एरिक राबट् र्स पहले ही वहां पहुं चकर अपने को स्थापित कर चुका था। 18 साल की उम्र में जब जूलिया हॉलीवुड में किस्मत आजमाने पहुं ची तो खासे पापड़ बेलने पड़े । ‘फायरहाउस’ नाम की एक सस्ती-सी पिक्चर में उन्हें जो पहला रोल मिला, वह 15 सेकेंड का था, कोई डायलॉग नहीं। आगे का रास्ता भी कोई आसान नहीं था। ‘सेटिस्फैक्शन’ और ‘मिस्टिक पिज्जा’ जैसी पिक्चरों ने उन्हें पहचान दी। फिर ‘स्टील मैग्नोलिया’ जैसी बड़े बजट की पिक्चर ने उन्हें जाना-पहचाना नाम बनाया। एक ओर पहचान मिली तो दूसरी ओर जूलिया के अफ साने शुरू हो गये। पहले उन्हें लियाम नीसन से प्यार हुआ। जल्दी ही डायलन मैक डरमोट को दिल दे बैठीं। इसी कड़ी में कीफर सदरलैंड , लिले लावेट , मैथ्यू पैरी और बेंजामिन ब्रैट का नाम भी जुड़ा। सदरलैंड के साथ तो उनकी सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन यह रिश्ता परवान नहीं चढ़ा। 1993 में उन्होंने स्टार गायक लिले लावेट से शादी रचाई, करीब डेढ़ साल बाद दोनों अलग भी हो गये। एक बार फिर उनके इश्क के चर्चे शुरू हो गये। साल 2000 में मैक्सिकन फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी आंखें सहायक कै मरामैन डैनी माडर पर अटकीं, जो पहले से ही शादीशुदा था। जूलिया मायूस हो गईं। लेकिन दोनों की ही आंखें एक दूसरे से कुछ ज्यादा ही टकराने लगीं। कु छ लोग क हते हैं कि जूलिया के ही चलते डैनी ने अपनी बीवी को तलाक दे दिया, क्योंकि जब दोनों ने 2001 में शादी की तो उन्हें डैनी के परिवारवालों ने पानी पी-पीक र कोसा। सबको उम्मीद थी कि ये शादी जल्दी ही टूट जायेगी। हालांकि इस शादी के लिए जूलिया ने भी काफी समझौते किये। अपनी लक्जरी लाइफ छोड़ क र वह एक साधारण से फ्लैट में डैनी के साथ रहने चली गईं। जमीन पर सोईं। लेकिन इस शादी ने जूलिया को बदला। वह जिम्मेदार हो गईं। अब लोग इस परिवार की तारीफ करते हैं , एक मां और पत्नी के रूप में जूलिया की। कु छ उम्र और जिम्मेदारियों तथा लोगों से मिले धोखों व बाहरी दुनिया से मिले घावों ने उसे आध्यात्मिकता की ओर मोड़ा। शांति की तलाश में वह भारत आईं। हिन्दू धर्म का अंगीकार किया। उनका मानना है कि वो शायद युगों-युगों से हिन्दू हैं, शायद पिछले जन्म में वो हिन्दू ही रही होंगी(हिंदुस्तान,दिल्ली,11.8.2010)।

Monday, August 9, 2010

13 अगस्त को रिलीज होगी डोगरी भाषा की पहली फ़िल्म

लंबे अंतराल के बाद फिल्म प्रेमियों को डोगरी फिल्म मां नी मिलदी देखने का मौका मिलने जा रहा है। यह डोगरी भाषा की पहली कलर फिल्म होगी। इससे पहले वर्ष 1966 में पहली डोगरी फिल्म गलां ओइयां बीतियां बनी थी। 13 अगस्त (शुक्रवार) को अप्सरा थियेटर में रिलीज होने वाली फिल्म की शूटिंग विजयपुर, सांबा, नड, मानसर, बिलाबर और मुंबई में हुई है। फिल्म के बनने में करीब छह महीने का समय लगा। डेढ़ वर्ष के बाद यह रिलीज होने जा रही है। फिल्म में स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलाग अमित चौधरी के हैं। इसका निर्देशन रूप सागर ने किया है। फिल्म के गानों को साधना सरगम और विनोद राठौर ने बोल दिए हैं। उन्होंने पहली बार कोई डोगरी गाना गाया है। फिल्म में मुख्य भूमिका अमित चौधरी, रितु मेहरा, शशि भूषण, सोनिया मेहरा, सुभाष जम्वाल, सपना सोनी, उषा सलाथिया, कर्ण जीत, जनक खजुरिया, रश्मिकांत खजुरिया, राज सिंह जम्वाल, जनक भारद्वाज, राजेंद्र नारंग, संजय शर्मा, टोटा जट्ट, मास्टर पारस, कनव, बेबी पराची वर्षा, पलवी, बंटी मल्होत्रा, मोहन सिंह, सलाथिया, उषा सलाथिया शामिल हैं। फिल्म के मुख्य कलाकार अमित चौधरी की दो भोजपुरी फिल्में रंग भरते गंगा किनार व रंगीला बाबू इन दिनों चल रही हैं। वह पिछले 18 वर्षो से फिल्म उद्योग से जुडे़ हैं। उनके 35 से ज्यादा सीरियल प्रसारित हो चुके हैं। इनमें कुसम, काव्यांजलि, केसर, कुमकुम, कयामत, कभी आए न जुदाई, क्या हादसा क्या हकीकत आदि मुख्य हैं। रविवार को दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में अमित ने कहा कि वह दो और डोगरी फिल्मों के सक्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। इसमें भी राज्य के कलाकारों को ही मौका मिलेगा। वह चाहते हैं कि डोगरी में अधिक से अधिक काम हो। वहीं, डोगरी संस्था के अध्यक्ष प्रो. ललित मगोत्रा ने कहा कि कई लोगों ने डोगरी फिल्म बनाने के प्रयास किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। अमित ने यह फिल्म बना कर सराहनीय कार्य किया है। यह गौरव की बात है कि डोगरी भाषा में कोई फिल्म रिलीज होने जा रही है। हर डुग्गरवासी का फर्ज बनता है कि वे इस फिल्म को देखे, ताकि फिल्में बनने का सिलसिला जारी रहे। यह फिल्म हिमाचल व पंजाब में भी रिलीज की जा रही है। अगर आज पंजाबी की अलग पहचान है तो उसमें पंजाबी फिल्मों का विशेष योगदान है। जब दूसरी भाषाओं में फिल्में चल सकती हैं तो डोगरी क्यों नहीं?(दैनिक जागरण,जम्मू,9.8.2010)