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Tuesday, March 6, 2012

फिल्म इंडस्ट्री में कामकाजी जोड़े

घर की दहलीज से बाहर आकर अपने पति या पत्नी के साथ काम करना दुधारी तलवार साबित हो सकता है। एक ओर आपसी रिश्ते में तनाव तो दूसरी ओर प्रोफेशनल तरीके से काम न हो पाने का खतरा बना रहता है। इसके बावजूद बॉलीवुड के जोड़े व्यावसायिक साझेदार बनने में हिचकते नहीं हैं। सुपर स्टार आमिर खान और उनकी डायरेक्टर पत्नी किरण राव इस बात का आदर्श उदाहरण हैं कि घर और काम को कैसे बैलेंस किया जा सकता है। समीक्षकों द्वारा प्रशंसित, किरण की ‘धोबीघाट’ एक-दूसरे के सहयोग के कारण निर्बाध पूरी हो गई। हालांकि परफेक्शनिस्ट आमिर खान इस फिल्म के प्रोड्यूसर और एक्टर के साथ-साथ किरण के पति भी हैं, परंतु उन्हें किरण के भरोसे और नजरिए पर विश्वास था। इसीलिए वह फिल्म की परिकल्पना से लेकर प्रोडक्शन तक, किरण के कंधे से कंधा मिलाकर चले और किरण ने अंतत: उन्हें ड्रीम प्रोड्यूसर का खिताब दिया। उनके रिश्ते में एक बात साफ नजर आती है कि वे पर्सनल और प्रोफेशनल, दोनों ही स्तरों पर एक-दूसरे को समान मानते हैं। 

अपनी पत्नी कल्की को ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ में डायरेक्ट कर चुके राइटर-डायरेक्टर अनुराग कश्यप का मानना है कि उनकी वर्किंग रिलेशनशिप का आधार आपसी भरोसा, सम्मान और सहमति है। दूसरी ओर कल्कि स्वीकार करती हैं कि कई मौकों पर गहरे मतभेद भी उभरते हैं, पर वह उन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं। वह मानती हैं कि लव और केयर की तरह तकरार भी मॉडर्न रिश्तों का जरूरी हिस्सा है। डायरेक्टर अब्बास टायरवाला ने भी अपनी पत्नी पाखी द्वारा लिखित स्क्रिप्ट पर अपनी पिछली फिल्म ‘झूठा ही सही’ बनाई थी, जिसमें हीरोइन भी पाखी थीं। अब्बास कहते हैं, पत्नी को कभी हल्का मत समझिए, कभी नहीं। 

ऐसे जोड़े आज इंडस्ट्री में बढ़ते वर्किंग कपल्स की संख्या पर आश्चर्य नहीं करते और अब हर काम की बागडोर पुरुषों के हाथों में ही नहीं है। डायरेक्शन, प्रोडक्शन, एडीटिंग आदि जो काम पुरुषों के माने जाते रहे हैं, उन्हें अब स्त्रियां भी करने लगी हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की सारी फिल्में उनकी पत्नी पीएस भारती एडिट करती हैं। इसके विपरीत फराह खान की सभी फिल्में उनके एडीटर पति शिरीष कुंदेर एडिट किया करते हैं। कभी इनकी ही तरह विधु विनोद चोपड़ा और रेणु सलूजा मिलकर काम किया करते थे। विशाल भारद्वाज भी अपनी गायिका पत्नी रेखा ‘नमक इश्क का’ फेम से कम से कम एक गाना अपनी हर फिल्म में जरूर गवाते हैं। आशुतोष गोवारीकर को मदद करने के लिए उनकी पत्नी सुनीता भी हमेशा उनके साथ सेट पर मौजूद रहती हैं।  

देखा जाए तो वर्किंग कपल्स का टे्रंड इंडस्ट्री में नया नहीं है। पहले भी देविका रानी-हिमांशु राय, कमाल अमरोही-मीना कुमारी, गुरुदत्त-गीता दत्त/ वहीदा रहमान, अमोल पालेकर-संध्या गोखले जैसे कपल्स ने कामकाज में साझेदारी को सफलतापूर्वक निभाया है। यह टे्रंड पूरी तरह भारतीय टे्रंड भी नहीं है। चार्ली चैप्लिन, सेसिल बी डेमिले, जीन रेनोइर, डीडब्ल्यू ग्रीफिथ, इडो ल्यूपिनो आदि बहुत-सी फिल्मी हस्तियों ने अपने पार्टनर के साथ कई फिल्मों में सफलतापूर्वक काम किया। 

हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कपल्स की प्रोफेशनल साझेदारी का कारण पैसा और किफायत नहीं है। गोवारीकर की पत्नी सुनीता सफलतापूर्वक ‘आशुतोष गोवारीकर प्रोडक्शंस’ संभालती हैं और घर भी। उनकी सलाह है कि निजी हितों के टकराव से बचो। 

प्रोफेशनल साझेदारी का प्रमुख फायदा है कि कपल्स को अधिकांश समय साथ गुजारने का मौका मिलता है, निकटता का आनंद उठा पाते हैं। इससे आपसी बांडिंग और विश्वास भी बढ़ता है। ‘अग्निपथ’ के सिनेमाटोग्राफर किरण देवहंस की आत्मीयता अपनी पारसी डायरेक्टर पत्नी अबान से देखने लायक है। जोड़े वर्क प्लेस की यादें घर लेकर जाते हैं, जिससे उनका रिश्ता बड़ा संवेदनशील हो जाता है। फिल्म ‘अभिमान’ की तरह आपसी ईष्र्या और दुश्मनी का भी जोखिम रहता है। तलाकों की बढ़ती संख्या का एक कारण प्रोफेशनल साझेदारी भी है। एक जैसी रूचि रखना अलग बात है, एक साथ काम करना अलग बात। ज्यादातर पति अपनी पत्नी की सफलता को नहीं पचा सकते और सिनेमा के बिजनेस में कोई भी कुछ बन सकता है। रिश्ते को मजबूत रखने के लिए जरूरी है कि जोड़े भिन्न क्षेत्रों में काम करें(नरेन्द्र देवांगन,दैनिक ट्रिब्यून,26.2.12)।

Friday, December 16, 2011

आमिर-किरण का बच्चा "मां तुझे सलाम" किसे कहेगा?

यह खबर अब जगजाहिर है कि अभिनेता आमिर खान अपनी दूसरी पत्नी किरन राव के साथ एक पुत्र के पिता बन गए हैं। यह शिशु उन्हें अपनी पत्नी के गर्भ और प्रजनन से नहीं, सरोगेट मदर कहलाने वाली औरत के जरिए मिला है। कृत्रिम गर्भाधान का चलन अब प्रचलित है क्योंकि वैज्ञानिक तकनीक ने ऐसी तमाम प्राकृतिक खामियों को फतह कर लिया है, जिनसे धनाढ्य तबका किसी अभाव का शिकार हो जाता हो। इसलिए "किराया भरो और संतान पाओ" का नारा अपने जोर-शोर पर दिखाई और सुनाई देता है। आमिर खान की खुशियां मोहर-अशर्फियों की तरह लुटीं और तब स्वास्थ्य मंत्रालय का ध्यान इस ओर गया कि इस कारोबार को कानूनी जामा पहनाने की जरूरत है। ईमानदारी और पारदर्शिता बनी रहे यह आवश्यकता है। गर्भाशय किराए पर देने वाली महिला को भी राहत मिलेगी। 

स्त्री के लिए यह कैसी राहत और कैसी मोहलत है? यहां दृश्य में दो औरतें आती हैं, एक जो पूंजी से लवरेज आदमी के साथ पत्नी के रूप में है, दूसरी जो रोटी-कपड़े से मोहताज है और बेचने के लिए अपना शरीर ही है, उसका जो भी अंग बिक पाए। ये दोनों औरतें उसी समाज का हिस्सा हैं जो मर्यादा, नैतिकता और स्त्री की पवित्रता के पक्ष में जमकर ढोल-नगाड़े बजाता है, जो पतिव्रत को स्त्री का धर्म बताता है, जो असूर्यपश्या पत्नी की हिमायत करता है, जो लड़कियों के बदन पर छोटे कपड़े देखकर तुनक उठता है, जो औरत के हंसने-बोलने तक पर पहरे लगाने की फिराक में रहता है। 

 "स्त्री का मां बनना जरूरी है, यह किसने कहा? औरत मां बनकर ही पूर्ण होती है, यह सिद्धांत कहां से आया? जो बच्चा पैदा नहीं कर सकती, वह बांझ के नाम से जानी जाती है, यह लांछन किसने लगाया? जो सिर्फ बेटियां पैदा करती है, वह वंश का नाश करती है, यह परिभाषा किसने गढ़ी? गौर कीजिए और देखिए कि ये सारे दोष औरत के सिर हैं। पाइए कि संतान न देने पर स्त्री को कमतर होने का अहसास ज्यादा होता है और सोचिए कि आखिर यह अहसास क्यों होता है? इसलिए कि यह अहसास एक जहरीला इंजेक्शन है, जिसे नजरों और वाक्यों से औरत के रग-रेशों में उतारा जाता है और अनकही शर्त लागू की जाती है कि पत्नी होकर माता न बनना पत्नी पद को खो देने का बड़ा खतरा है या कि बिना मां बने औरत का जीवन असुरक्षा से भरा रहता है। 

यही कारण है कि गरीब औरत अगर बांझ है तो बांझ रहने के लिए अभिशप्त है। मगर जिसके पास या जिसके पुरुष के पास धन है तो वह किसी मजबूर औरत को खरीद सकती है। बिना यह सोचे कि मातृत्व का ऊपरी जामा तैयार करने के लिए यहां दो औरतों का अपमान बराबर-बराबर हो रहा है। बिना यह समझे कि यह सरोगेट मदर का सारा झमेला एक पुरुष के वंशानुक्रम को बढ़ाने के लिए है और जो पत्नी है, पति के सामने अपने आप को मां के रूप में सिद्ध करना चाहती है। कभी यह सोचा है कि जिसने आपको प्रेमिका बनाम पत्नी स्वीकार किया है, वह आपको मां क्यों बनाना चाहता है? या आप भी मां की भूमिका के बिना क्यों जीवन निर्वाह नहीं कर सकतीं? 

हो सकता है, मां की आदरणीय और पूजनीय छवि प्रभावित करती हो। मगर सरोगेट मदर का शिशु किसका है? जो गर्भधारण करते हुए उसे जन्मे देती है, उसका या जो किसी का गर्भाशय खरीद लेती है, उसका? यह बच्चा किसे "मां तुझे सलाम" कहेगा? उसे जिसके नाम पैसों के दम पर बर्खास्तगी लिखी गई या उसे जिसने अपनी दौलत के आधार पर किसी के शरीर को खरीद लिया? 

अगर बच्चे की इतनी चाह थी तो हमारे देश में अनाथालयों की कमी नहीं है और न गोद लेने पर पाबंदी। मगर अमीर लोगों की हठें भी तो अमीर होती हैं, जिनसे वे अपने आपको वीर्यवान बनाए रखने की जिद निभाए जाते हैं। उनको यह सौभाग्य इसलिए हासिल है कि वे फटेहाल नागरिकों के लोकतांत्रिक देश के सर्वोत्तम अमीरों में आते हैं। इसलिए ही वे जन सामान्य के बीच अपनी नेक नाइंसाफियों के साथ देवताओं की तरह पुजते भी हैं। राजनेत्रियों की जमात इस कारोबार पर अपनी राय क्यों नहीं देती? अगर सवाल उठाइए तो तुरंत देवकी और यशोदा जैसी माताओं की मिसालें पेश कर दी जाएंगी कि पैदा किसी ने किए कृष्ण को और पाले किसी ने। मगर यहां संतान की खरीदार माताएं देवकी और यशोदा के वजूदों पर नहीं जातीं बल्कि वे अपने पति को पिता बनने का सर्टीफिकेट थमाकर ही जीवन सफल मानती हैं। 

 "एक गरीब औरत को आर्थिक मदद मिलती है" यह फतवा बड़े दयापूर्ण तरीके से पेश किया जाता है मगर साथ ही यह शंका भी कि किराए की कोख वाली महिला रुपए के लेन-देन में गड़बड़ न करे, विवाद न पैदा कर दे। इन दोनों बातों से जाहिर है कि यहां मदद या हमदर्दी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यहां तो सिर्फ अपनी पूंजी का दम और मरदाने अहंकार का बोलबाला है। साथ ही जो पत्नी है, औरत के रूप में वह बहुत बड़ी हीनग्रंथि की शिकार है। नहीं तो सुष्मिता सेन विश्वसुंदरी को क्यों किसी सरोगेट मदर की जरूरत नहीं पड़ी? उसने अविवाहित रहकर एक के बाद एक दो बच्चियों को गोद लिया। यों आमिर खान निस्संतान भी नहीं थे, पहले से ही जवान होता बेटा उनके सामने है। बेटी है। मगर इस शिशु के आने से उन्होंने एक नया एलान और कर दिया, जिससे दुनिया जान गई कि अबुल कलाम आजाद उनके चचेरे ग्रेट ग्रैंड फादर थे, जिनके नाम पर उन्होंने अपने शिशु बेटे का नाम आजाद रखा है। यह आजाद किस आजादी का वाइज बना, हमें यह समझना बाकी है। 

समाज का साधारण आदमी उन लोगों का किया-धरा गौर से देखता है जिनके नाम होते हैं। फिल्म तो लोगों को प्रभावित करने का सबसे ज्यादा ताकतवर माध्यम है। माना कि इस माध्यम से जुड़े लोग भी मनुष्य हैं, उनकी हजार कमजोरियां हो सकती हैं। मगर सरोगेट मदर के इस्तेमाल का मामला कमजोरी में नहीं, साजिश में आएगा। अभाव और कंगाली की मारी हुई औरतों के प्रति अमीर लोगों की साजिश। एक पुरुष की दो औरतों के प्रति साजिश। साजिश कने के लिए ज़रूरी होता है कि अच्छे से अच्छे भ्रम पैदा किये जाएं क्योंकि भ्रम ही मजलूम को बाज़ार में खड़ा करता है। अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए थोड़ी देर को बाजार सौदेबाजी का मालिक बन जाता है और अपनी कीमत पर चकाचौंध होने लगता है। कोख बेचने वाली औरत समझ नहीं पाती कि अब वह दलालों के बीच है। उधर पैसे से खेलने वाले लोग उसके जाए बच्चे से खेलते हुए अखबारों में अपने मातृत्व और पितृत्व की खबर छपवाएंगे। यह कैसा संदेश है? किसके लिए संदेश है? यही कि मानव अंगो का व्यापार पैसे वालों को जीवनदान दे रहा है। कहते हैं,गरीब से गरीब आदमी भी अपना बच्चा किसी को नहीं देता। मगर गरीब को जब इतना भूखा मारा जाए कि वह अपना ही गोश्त खाने लगे तो फिर खून बिकता है,किडनी बिकती है और अब कोख बिकने लगी। रोटी कपड़े के बदले सब कुछ दांव पर लग जाता है-तथाकथित धनवान सौभाग्यशालियों की कृपा से......(मैत्रेयी पुष्पा,नई दुनिया,16.12.11)

Monday, August 1, 2011

बड़े काम की है ये बॉडी

अभी कुछ साल पहले सैफ दिल के हाथों मजबूर हो कर अस्पताल में पहुंच गये थे। इसके बाद से उन्होंने अपने ट्रेनर चौरसिया के सुझाव पर ही अपनी बॉडी को मेंटेन कर रखा है। आमिर और सैफ अली खान जैसे कई हीरो के निजी ट्रेनर हैं।

सनी देओल, संजय दत्त, सलमान खान, इमरान हाशमी, आमिर खान और शाहरुख के बाद अब अजय देवगन की बारी है। सिंघम में अपने सिक्स पैक जिस्म के साथ जब वह परदे पर आराजक तत्वों को सबक सिखाते नजर आते हैं, तो स्वभाविक तौर पर उनकी जिस्मानी ताकत को दर्शकों का एक मौन समर्थन मिलता है। असल में हिंदी फिल्मों में नायक का जिस्म शुरू से ही बहुत अहम बना हुआ है। इसके लिए फिल्म के एक लोकप्रिय दृश्य का उदाहरण देना काफी होगा। रात्रि का पहला पहर। अचानक एक साया छत पर नजर आता है। दूर से एक ट्रेन आ रही है। जैसे ही ट्रेन एक घर के बगल से गुजरती है, वह साया छज्जे के सहारे लगे एक पटरे की मदद से छलांग लगाता है और पलक झपकते चलती ट्रेन में कूद पड़ता है। काफी देर से सांस रोक कर बैठी पब्लिक अब अपने आपको रोक नहीं पाती है। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है। यह था फिल्म फूल और पत्थर का दृश्य। साया था धर्मेन्द्र का। वषरे पहले प्रदर्शित इस फिल्म का यह दृश्य आज भी दर्शकों के जेहन में एक रोमांच भर देता है।
यह उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जिसमें नायक शाका (धर्मेन्द्र) के जिस्म की भरपूर नुमाइश मौजूद थी। सच तो यह है कि अभिनेता धर्मेन्द्र ही नहीं दूसरे कुछ अन्य नायकों ने वर्षों अपने इस जिस्मानी सौंदर्य के सहारे फिल्म इंडस्ट्री पर राज किया है। आज के कई नायक भी मौका मिलते ही अपने मसल्स दिखाने में पीछे नहीं हटते। पिछले दिनों दबंग और रेडी में सलमान ने अपना जिस्म खूब दिखाया। फिल्म ओम शांति ओम में किंग खान का सिक्स पैक एब्स भी खूब चर्चा में आया था। जोधा अकबर में अकबर बने हृतिक ने भी बहुत शानदार ढंग से अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन किया।
अभी भी फिल्म गजनी में आमिर का सुगठित देह सभी के लिए जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। ट्रेड पंडित आमोद मेहरा कहते हैं, ‘अब दर्शकों को यह कतई पसंद नहीं है कि उनका नायक सिर्फ नायिका को पटाने में ही अपना समय खर्च करे।’ ठीक भी है, मैंने प्यार किया से लेकर रेडी तक का नायक सलमान भी दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि वह अपने शारीरिक शक्ति और क्षमता के सहारे नायिका को पाना चाहता है। फिल्म मैंने प्यार किया को याद कर इसके निर्देशक सूरज बड़जात्या बताते हैं, ‘इसके कई दृश्यों में सलमान को कसरत करते हुए दिखाकर मैं सिर्फ यह बताना चाहता था कि नायक अपनी जिस्मानी ताकत को बढ़ाने के लिए भी सजग है ताकि मारपीट के दृश्यों में उसकी करतबबाजियां कृत्रिम न लगें।’

सिगरेट छोड़नी पड़ेगी
अब यह अहम सवाल उठता है कि बेहद अनियमित जीवन जीनेवाले हमारे हीरो कैसे अपने शरीर को मेंटेन करते है। सितारों के शरीर का जो फिजिकल ट्रेनर ध्यान रखते हैं, उनकी भी एक लंबी सूची है। इनमें सत्यजित चौरसिया का नाम इन दिनों सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। उनके बाद विक्रम कपूर, दिलीप हेवले, मिकी मेहता, प्रशांत सावंत, नीलेश निखंज आदि कई व्यस्त ट्रेनर हैं। इनमें से प्रत्येक का मुंबई के विभिन्न अंचल में अपना जिम है। उनके जिम में पूरे दिन छोटे-बड़े फिल्मवालों के चेहरे नजर आ जाते हैं। सत्यजित चौरसिया का लोखंडवाला में स्थित जिम बारबेरियन सितारों के बीच काफी लोकप्रिय है। वह आमिर और सैफ अली खान जैसे कई हीरो के निजी ट्रेनर भी हैं। अभी कुछ साल पहले सैफ दिल के हाथों मजबूर हो कर अस्पताल में पहुंच गए थे। इसके बाद से चौरसिया के सुझाव पर ही अपनी बॉडी को मेंटेन कर रखा है।
चौरसिया बीमारी को एक साधारण सी बात मानते हैं। उनके मुताबिक यदि आप सही ढंग से व्यायाम करें, तो ता-उम्र आप हमेशा स्वस्थ रह सकते हैं। वह कहते हैं, ‘मेरे सितारों को डॉक्टर जो हिदायत देता है, मैं उसी के मुताबिक सितारों के व्यायाम में रद्दोबदल करता हूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे कई सितारे मेरे सारे सुझाव पर अमल करते हैं। अब जैसे कि सैफ ने सिगरेट पीना लगभग बंद कर दिया है। फिल्मवालों के एक और ट्रेनर विक्रम कपूर बताते हैं, ‘सितारों का लाइफस्टाइल, सोने और जागने का समय उनके अस्वस्थ होने की एक बड़ी वजह बन जाती है। किसी रोल के लिए अपनी बॉडी मेंटेन करने के लिए वह जिस तरह का बलिदान करते हैं, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। इनमें से कई तो आउटडोर में शूटिंग में अपने फिटनेस का सामान ले जाते हैं। हां, कई बार फिल्म पूरी होने के बाद उनका यह नियम भंग होता है। कई बार दूसरे काम में उलझ जाने की वजह से भी होता है। कुछ उनकी खुद की अनियमितता भी होती है। पर जब स्टारडम का सवाल आता है, तो वह बहुत कुछ छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। हां, एक बात जरूर कहना चाहूंगा, शराब पीने के अगले दिन व्यायाम करके आप अतिरिक्त कैलौरी को बाहर निकाल सकते हैं। पर ज्यादा सिगरेट पीने से उत्पन्न बीमारी का मुकाबला किसी भी तरह के व्यायाम से संभव नहीं है। इसलिए मेरी यह पहली शर्त होती है कि यदि आपको अपना शरीर फिट रखना है, तो सिगरेट छोड़ना पड़ेगा।’

डोले शोले, धोबी पछाड़
वाकई में यह अटपटा लगता है, पर हिंदी फिल्मों में पतले-दुबले नायकों द्वारा दर्जन भर गुडों की पिटाई कोई नई बात नहीं है। सिंघम में जिस तरह से अजय देवगन कई गुडों को घोबी-पछाड़ लगाते हैं, आम जिंदगी में वह बहुत असहज लगता है। इसे सहज बनाने के लिए ही आमिर ने गजनी, सलमान ने बॉडीगार्ड, अजय ने सिंघम फिल्मों के लिए विशेष तैयारी की।
दूसरी और अक्षय कुमार, हृतिक रोशन जैसों की सफलता में उनकी कद-काया की अहम भूमिका है। ये दोनों ही अपने कठिन एक्शन दृश्यों को अंजाम देकर जिस्मानी करतब का एक नायाब उदाहरण पेश करते हैं। पचास के ऊपर हो चुके संजय दत्त इस चर्चा का विशेष हिस्सा हैं। कभी पहलवान नायक के तौर पर मशहूर और संजय दत्त के घनिष्ठ मित्र सुनील शेट्टी बताते हैं, ‘मेरी तरह बाबा भी अपने शरीर को लेकर बहुत गंभीर है। उसने भी अपनी बॉडी को बहुत मेहनत से बनाया है। शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि एक्शन दृश्यों में वह खूब फबता है।’

गंभीर परिणाम ला सकती है लापरवाही
हृतिक बेहिचक मानते हैं कि करण अर्जुन की शूटिंग के समय से ही वह सलमान के कसरती जिस्म के प्रशंसक रहे हैं। बाद में एक-दो बार की बीमारी के बाद उन्होंने इस बात को अच्छी तरह से समझा है कि सेहत के प्रति लापरवाही कितने गंभीर परिणाम ला सकती है। वो कहते हैं, ‘मैं जबसे अपनी फिटनेस को लेकर सचेत हुआ, इसका सबसे बड़ा लाभ मुझे यह मिला कि किसी भी तरह के रोल को मैं आसानी से कबूल कर सकता हूं। इसके लिए मुझे कम-से-कम अपनी बॉडी की तैयारी नहीं करनी पड़ती। मेरा शरीर हर तरह के रोल के साथ फिट हो जाता है। यहां तक कि मैं किसी रोल के लिए यदि पांच-छह किलो वजन घटा भी लूं, तो मेरा शरीर उसे आसानी से एक्सेप्ट कर लेता है।’ मंहगे ट्रेनर और डॉयटिशियन के संरक्षण में रहकर यह बात और भी आसान हो जाती है।

कैसे करते हैं मेंटेन
सलमान की बॉडी की सबसे ज्यादा तारीफ होती है। उनके ट्रेनर सत्यजित चौरसिया बताते हैं, ‘सलमान कसरत अपने घर के जिम में ही करते हैं। इस मामले में वह बहुत सजग हैं। इसलिए वह जिस तरह की फिल्में करते हैं, उसके लिए उन्हें कुछ ज्यादा तैयारी करनी नहीं पड़ती है। वैसे वह कभी-कभी लोखंडवाला पर मेरे जिम में भी चले आते हैं। कार्डियो वस्कुलर व्यायाम में उनका जवाब नहीं। उनका शरीर इस कसरत को बहुत सहज ढंग से मैनेज करता है। मैंने उन्हें बहुत करीब से कसरत करते हुए देखा है। मैं उनकी बॉडी मेंटनेस का कायल हूं।’ इस प्रसंग में सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि शाहिद, रणबीर कपूर, इमरान खान जैसे चॉकलेटी हीरो भी अब बॉडी को लेकर बहुत सचेत हैं। शाहिद बताते हैं, ‘मैं अपने ऊपर चॉकलेटी हीरो की कोई इमेज नहीं लादना चाहता। इन दिनों मैं नयमित रूप से जिम जाता हूं। अब मैं एक प्योर एक्शन फिल्म करना चाहता हूं।’ कमीने के बाद अपनी आने वाली फिल्म मौसम में भी उन्होंने कई एक्शन दृश्यों को अंजाम दिया है। वैसे कई नायक भले ही इस बात को स्वीकार न करें, पर सभी जानते है कि उनके प्रेरणास्रोत सनी देओल, सलमान खान, सुनील शेट्टी जैसे नायक रहे हैं।

धर्मेन्द्र और बिग बी भी
सलमान से थोड़ा ध्यान हटाएं तो 73 के गरम धरम आज भी हल्का-फुल्का व्यायाम नियमित करते हैं। लेकिन इस मामले में अमिताभ इस उम्र में भी अपने पुत्र से ज्यादा गंभीर हैं। उनके करीबी कर्मियों से मिली जानकारी के मुताबिक बहुत सुबह उठ कर वह अपने जुहू स्थित बंगले जलसा के पास मौजूद पंच सितारा होटल के हेल्थ कल्ब में या हॉली डे इन के स्पा में जाकर व्यायाम करते हैं। यदि ऐसा संभव नहीं हुआ तो वह प्राणायाम के साथ ही अपने बंगले के प्रांगण में थोड़ा टहल लेते हैं। नाना पाटेकर आज भी एक्शन दृश्यों में काफी परफेक्ट हैं। नाना बताते हैं, ‘कोई भी व्यायाम अपनी उम्र और शरीर को ध्यान में रखकर करना चाहिए।’

गलती सुधार सकते हैं जॉन
कई नायक गलत तरह की फिल्मों में उलझ कर अपनी अच्छी बॉडी का उपयोग नहीं कर पाते हैं। जॉन इसके एक अच्छे उदाहरण हैं। प्रसिद्घ एक्शन डायरेक्टर टीनू वर्मा कहते हैं, ‘जॉन के पास अब भी वक्त है, अक्की की तरह जॉन को भी अभिनय के साथ ही एक्शन दृश्यों में भी अपनी बॉडी का पूरा उपयोग करना चाहिए।’ अब लगता है कि अपनी आनेवाली फिल्म फोर्स में जॉन ने इस भूल को सुधारने की कोशिश की है। फोर्स में जॉन का पोस्टर शर्टलेस फिल्माया गया है, जिसमें वह गजब के लगते हैं।

शाहिद के सिक्स पैक्स
फिल्म कमीने की चर्चा के दौरान जब निर्देशक विशाल भारद्वाज ने शाहिद के सामने सिक्स पैक्स का आइडिया रखा तो वह एकदम चौंक गए। अंदर से वह काफी उत्सुक थे, लेकिन समस्या ये भी थी कि इससे पहले शाहिद जिम की कठिन प्रैक्टिस से कभी नहीं गुजरे थे। बस फिर क्या था। शाहिद के जिस्म को एक नया रंग-रूप देने में सब जुट गए। उनके ट्रेनर ने उन्हें सख्त निर्देशानुसार एक प्लान डाइट पर रखा(असीम चक्रवर्ती,हिंदुस्तान,दिल्ली,1.8.11)।

Sunday, July 17, 2011

सिनेमाई प्रयोग में खो रहे बॉलीवुड से खलनायक

बॉलीवुड फिल्मों में प्रयोगों के चलते खलनायक खत्म होते जा रहे हैं। नो वन किल्ड जेसिका, यमला पगला दीवाना, धोबी घाट, सात खून माफ, तनु वेड्स मनु, चलो दिल्ली, रागिनी एमएमएस से लेकर डेल्ही बेली और जिंदगी ना मिलेगी दोबारा.. तक ये इस साल की ऐसी चर्चित फिल्में हैं जिनमें खलनायक की जरूरत महसूस ही नहीं होती। जबकि ये फिल्में अपनी कहानी अथवा मेकिंग में किसी न प्रयोग के लिए चर्चा में रही हैं। खलनायक की छवि वाले चेहरे पहले ही गुम हो चुके हैं। हालांकि अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान, अक्षय कुमार, रितिक रोशन, सलमान खान, विवेक ओबराय, संजय दत्त, सैफ अली खान, जॉन अब्राहम जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने नकारात्मक भूमिकाओं को निभाने से गुरेज नहीं किया। इसके बावजूद अब ऐसी भूमिकाओं की जरूरत नहीं दिख रही। एक वक्त था जब पटकथा लेखक खास तौर पर विलेन का किरदार लिखते थे। मगर समय के साथ बॉलीवुड की फिल्मों में किरदारों की भूमिका में भी काफी बदलाव आया है। पिछले कुछ वर्षो में थ्री इडियट्स का रैंचो हो या दबंग का चुलबुल पांडे और माइ नेम इज खान का रिजवान खान, असल जिंदगी की हकीकत के ये इतने नजदीक हैं दर्शक को कहानी में अलग से किसी नायक या खलनायक की जरूरत महसूस नहीं होती। जबकि इनसे पहले नायकों को दर्शक खल भूमिकाओं में स्वीकार चुके हैं। धूम 2 में चोर की भूमिका निभाने वाले रितिक दर्शकों का दिल चुराने में कामयाब थे। डर, अंजाम और डॉन में शाहरुख और खाकी, काल, दीवानगी में अजय देवगन खलनायक के किरदारों को निभाने से गुरेज नहीं किया। ओंकारा में लगड़ा त्यागी का किरदार निभाकर सैफ ने खूब वाह-वाह लूटी थी। हीरोइनें भी नकारात्मक भूमिका में वाहवाही लूट चुकी हैं। खाकी में ऐश्र्वर्या राय, गुप्त में काजोल, गॉड मदर में शबाना आजमी, एतराज में प्रियंका चोपड़ा और फिदा में करीना कपूर ने भी इस किरदार में अपने जलवे दिखाए। बैड मैन के नाम से मशहूर गुलशन ग्रोवर कहते हैं फिल्मों से विलेन तो अब गायब ही हो गए हैं। चुनिंदा फिल्मों में ही विलेन के लिए कुछ गुंजाइश बची है। हालिया रिलीज डेल्ही बेली, मर्डर-2 भी प्रयोगात्मक फिल्म हैं। इसमें भी खलनायक की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। वैसे रोचक तथ्य यह है कि आमिर धूम 3 वहीं विवेक ओबराय कृष 2 में नकारात्मक भूमिका में नजर आएंगे। वहीं बीते जमाने के खलनायक कादर खान, गुलशन ग्रोवर और शक्ति कपूर कॉमेडी में हाथ आजमा रहे हैं। जब वी मैट के निर्देशक इम्तियाज अली स्वीकार करते हैं कि खलनायक अब गायब होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे सिनेमा वास्तविक के करीब होता जाएगा इन किरदारों में निश्चित रूप से परिवर्तन आएगा(दैनिक जागरण,दिल्ली,17.7.11)।

Monday, July 4, 2011

सेंसर बोर्ड को सुनाई नहीं देते अश्लील गाने

हाल ही में आमिर खान की फिल्म "डेल्ही बेली" के गाने "डी के बोस भाग रहा है" के बोल भद्दे और अश्लील होने के बावजूद बेहद चर्चित हो रहे हैं। डेल्ही बेली का यह गाना पिछले एक महीने से भाग रहा है और अब इतना भाग चुका है कि उसकी रफ्तार को अब यदि थाम भी लिया जाए तो कुछ होने वाला नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो गाली के बोल जैसी प्रतिध्वनि वाले डीके बोस गीत पर अब हो-हल्ला मचाने का कोई औचित्य नहीं रह गया है क्योंकि यह गाना न केवल टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो के जरिए जबर्दस्त हिट हो चुका है बल्कि इसकी अच्छी- खासी चर्चा मीडिया में भी हो रही है। वैसे देर-सवेर जागे सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड को इस गीत को पास करने की बाबत जवाब तलब किया है।

सूचना मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड से पूछा है कि आखिर कैसे इस गाने को पास कर दिया गया जबकि इस गाने में साफ तौर पर गालियों की भरमार है। बेशक, किसी को ये गालियां भले ही न पसंद आई हों पर आमिर खान को खूब पसंद आई हैं। तभी तो आमिर इस गाने को और लोकप्रिय बनाने के लिए एक पार्टी का आयोजन करने जा रहे हैं। सवाल उठता है कि आमिर खान इस भोंडे गाने को जनता के सामने पेश कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं। "डेल्ही बेली" में अब इस गीत के बोल कुछ बदल भी दिए जाएं तब भी कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि इस गाने की बदौलत फिल्म को जितनी पब्लिसिटी मिलनी थी, वह मिल चुकी है। सूचना मंत्रालय भी हमेशा की तरह तब लाठी चलाता है जब सांप बिल में घुस चुका होता है।

हैरानी की बात तो यह है कि इस तरह के अश्लील गाने का यह अकेला मामला नहीं है, इससे पहले भी कई गाने बाजार में आ चुके हैं जिन्हें सेंसर बोर्ड बड़ी आसानी से पास कर चुका है। इसके बावजूद सूचना मंत्रालय तमाशबीन बनकर देखता रहा है। तीसमार खां के गाने को लेकर भी काफी विवाद हुआ था। शीला की जवानी गाना फिल्म के आने से पहले ही काफी हिट हो चुका था, जिसके चलते देश में शीला नाम की युवतियों को शर्मिंदा होना पड़ा था। शर्मिंदा होने का कारण था नाम को गलत तरीके से पेश करना। शीला नाम की युवतियों पर युवकों ने गाने के बहाने फब्तियां कसनी शुरू कर दी थीं।

वहीं फिल्म "दबंग" का गाना "मुन्नी बदनाम हुई" भी विवादों के साए में चर्चित हो गया। हमारे देश के अलावा पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी मुन्नी नाम की कई महिलाओं ने एतराज जताया। पाकिस्तान की मुन्नी नाम की एक महिला, जो अपने घर में दुकान चलाती थी, को गाने के हिट होने के बाद कई दिनों तक अपनी दुकान बंद करनी पड़ी। फिल्मों में छोटे-छोटे दृश्यों को लेकर हल्ला मचाने वाले सेंसर बोर्ड को इन गानों की भद्दी गाली कैसे सुनाई नहीं दी। वैसे भी सेंसर बोर्ड पिछले कुछ सालों से उदार बना हुआ है(धनीश शर्मा,नई दुनिया,4.7.11)।

Monday, June 6, 2011

कला में कोरा बॉलिवुड

नवभारत टाइम्स का मत
रीजनल सिनेमा से भी छोटा है उसका कद
इस बार के नैशनल फिल्म अवॉर्ड्स में बॉलिवुड की फिल्मों ने तकरीबन दो दशक से कायम सिलसिले को ही दोहराया है। हिंदी की कुछ फिल्मों को पॉपुलर अवॉर्ड तो मिले हैं लेकिन मुख्य पुरस्कारों के मामले में उसकी झोली खाली ही रही है। हर बार की तरह मेन कैटिगरी के पुरस्कारों पर हिंदी के बजाय तमिल, मलयालम, मराठी और बांग्ला भाषा की फिल्मों का दबदबा है। अगर नैशनल फिल्म अवॉर्ड्स को कलात्मकता की एक कसौटी माना जाए तो हिंदी सिनेमा का इस पर खरा नहीं उतरना अफसोसजनक है।

सिनेमा का एक मकसद कई अर्थों में व्यावसायिक होते हुए सामाजिक उद्देश्यों को भी साधना है, लेकिन लगता है कि हिंदी सिनेमा इन्हें पाने में लगातार चूक कर रहा है। वैसे तो हिंदी फिल्में दर्शकों की नब्ज पकड़ने में काफी सफल मानी जाती हैं। हाल के वर्षों में गजनी, थ्री इडियट्स और दबंग जैसी हिंदी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर कई रेकॉर्ड खड़े किए हैं। लेकिन जिस मर्म को भाषाई फिल्मकार पकड़ने में सफल रहे हैं, बॉलिवुड के लोग उसके पास भी नहीं फटक पा रहे हैं। मुंबइया मसालों की चाशनी में लपेटकर पेश की गई हिंदी फिल्में भारी कमाई भले ही कर ले रही हैं लेकिन कला की कसौटी पर उनकी नाकामी हॉलिवुड ही नहीं, क्षेत्रीय सिनेमा की चुनौती के आगे भी उन्हें बहुत छोटा साबित कर रही है। सामाजिक सरोकारों के प्रति अपने दायित्व और विषय चयन की अर्थवत्ता के मामले में रीजनल सिनेमा ने जो सतर्कता बरती है, बॉलिवुड अगर उसका दस फीसदी भी अपनी फिल्मों से जोड़ सके तो इससे हिंदी फिल्मों का कद बढ़ेगा।

वरिष्ठ फिल्मकार मुजफ्फर अली का मत
बॉलिवुड नहीं, अब इंडियन सिनेमा की सोचें
रीजनल सिनेमा के मुकाबले बॉलिवुड के पिछड़ेपन की एक अहम वजह यह है कि ज्यादातर हिंदी फिल्में हीरो-ओरिएंटेड होती हैं। विषयवस्तु से लेकर ट्रीटमेंट तक में ये फिल्में उसी ऊंचाई तक जा पाती हैं, जितनी हीरो की खुद की समझ होती है। यह बॉलिवुड की बुनियादी समस्या है और जब तक वह इससे बाहर नहीं निकलेगा, उसका उद्धार नहीं हो सकता। यह कहना सही नहीं है कि बॉलिवुड को नैशनल फिल्म अवॉर्ड की जरूरत नहीं है या वहां के फिल्मकार दर्शकों के मनोरंजनार्थ फिल्में बनाकर भरपूर कमाई करके असली मकसद तो पूरा कर ही रहे हैं।

असल में ऐसे अवॉर्ड्स सभी को चाहिए। इससे उनकी क्रेडिबिलिटी बढ़ती है। नैशनल अवॉर्ड देने वाली जूरी भी ईमानदारी से काम करती है और जो उसके सामने लाया जाता है, उसी में से वह सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करती है। पर अब हमें अपनी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलिवुड-मॉलिवुड आदि खांचों में बांटने से परहेज करना चाहिए। मुंबइया बनाम रीजनल के बजाय अब हमें इंडियन सिनेमा की बात करनी चाहिए। अब चिंता इस बात की करनी चाहिए कि इंडियन सिनेमा की ग्लोबल प्रेजेंस कैसे बढ़े। इधर हमने स्पेशल इफेक्ट्स के मामले में महारत हासिल की है, पर हम स्क्रिप्ट राइटिंग और डिजाइनिंग आदि के मामले में हॉलिवुड से काफी पीछे हैं। इसमें भी सुधार करना चाहिए(नभाटा,21 मई,2011)।

Friday, May 20, 2011

शाही शादी में गुम हुई के. बालाचंदर की ख़बर

एक और पुरोधा को पिछले दिनों भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए फिल्म जगत के सबसे बड़े राष्ट्रीय सम्मान दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। दक्षिण सिनेमा के कई सितारों को जन्म देने वाले कैलासम बालाचंदर को बतौर निर्माता-निर्देशक तमिल सिनेमा के स्तर को उच्चकोटि का बनाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने तमिल के अलावा कन्नड़, तेलुगू और हिंदी फिल्मों में भी निर्देशन किया। तमिलनाडु के तंजावुर में 1930 में जन्मे बालाचंदर रूपहले परदे के पीछे जलवा बिखेरने से पूर्व मद्रास में एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में नौकरी करते थे। फिल्म निर्माण से जुड़ने से पहले वह अपनी ड्रामा टीम श्रागिनी रीक्रिएशंस के साथ काफी समय तक नाट्य लेखन का काम किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बालाचंदर ने कई नाटक लिखे, जिन पर आगे चलकर कई फिल्में भी बनाई गई। इनमें प्रमुख हैं 1964 में कृष्णा पंजु की फिल्म सरवर सुंदरम और मेजर चद्रकांत पर आधारित हिंदी फिल्म ऊंचे लोग, जिसे निर्देशित करने का काम किया था फणी मजूमदार ने। बालाचंदर पिछले 45 सालों से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय हैं और जब उन्होंने इस सर्वोच्च सम्मान से खुद को नवाजे जाने की खबर सुनी तो इसे अपने जीवन का सर्वाधिक गौरवपूर्ण क्षण करार दिया। लीक से हटकर फिल्में बनाने के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले बालाचंदर को कई सुपर स्टारों को तराशने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने रजनीकांत, कमल हासन, प्रकाशराज, विवेक और जयाप्रदा, श्रीदेवी, सुजाता, सरिता व रति अग्निहोत्री के अलावा नए दौर के कई सितारों को दर्शकों से रू-ब-रू कराया। बालाचंदर महान फिल्मकार एमजी रामचंद्रन की फिल्म दीवाथाई1964 के लिए पटकथा लिखने के बाद उनकी सलाह पर निर्देशन के क्षेत्र में उतरे और 1965 में नीरकामुझी को निर्देशित किया। अपनी पहली ही फिल्म से उन्होंने दर्शकों के बीच खासी लोकप्रियता हासिल कर ली। मजेदार बात यह रही कि उन्होंने खुद की लिखी एक पुराने नाटक को फिल्म की कथावस्तु के रूप में ढाला। इसके बाद उन्होंने कलाकेंद्र नाम से एक प्रोडक्शन हाउस खोला और यहां से शुरू हो गई उनके फिल्मी सफर में सफलता की दास्तां। उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया जिसके लिए उन्हें कई श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए गए। पांच तमिल फिल्मों के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। अपने प्रोडक्शन के अलावा बालाचंदर ने दूसरे प्रोडक्शंस के लिए भी फिल्में बनाई। उन्होंने 1966 में एवीएम प्रोडक्शन के बैनर तले तमिल भाषा में मेजर चंद्रकांत का निर्माण किया। इसके बाद एक और बहुचर्चित फिल्म बनाई। यह सुंदरराजन और जयललिता बालाचंदर अभिनीत तमिल फिल्म भामा विजयम थी जो 1967 में बनाई गई थी। बाद में इसी फिल्म को तेलुगू में भाले कुडालू नाम से रिमेक किया गया। इस फिल्म की लोकप्रियता को देखते हुए 1968 में हिंदी में भी तीन बहुरानियां के नाम से फिल्म बनाई गई। बालाचंदर की ज्यादातर फिल्में शहर में रहने वाले मध्यम वर्गीय समाज में घटित घटनाओं पर आधारित होती थीं। साथ ही उनकी फिल्मों का समापन मध्य वर्ग के समाज की नैतिकता को स्वीकारते हुए होता था। सत्तर के दशक में उनकी कुछ कालजयी फिल्में काविया थालिआवी वर्ष 1970 में, अपूर्वा रागांगल, 1975 में, मनमाथा लीलाई, 1976 में, अवरगल वर्ष 1977 में और मारो चारिथरा वर्ष 1978 में आई। मारो चारिथरा एक तेलुगू फिल्म है जिसका नायक तमिल भाषी है जबकि नायिका तेलुगू बोलने वाली होती है। दोनों आपस में प्रेम करते हैं, लेकिन दोनों के घर वाले इस रिश्ते के खिलाफ होते हैं, लेकिन बाद में वे शर्त रखते हैं कि यदि प्रेमी-प्रेमिका एक साल तक आपस में नहीं मिलते हैं तो उनकी शादी करा दी जाएगी। इस फिल्म की अपार सफलता को देखते हुए बालाचंदर ने हिंदी में बनी एलवी प्रसाद की वर्ष 1981 में बनी फिल्म एक दूजे के लिए को निर्देशित किया। तमिल और पंजाबी रोमांस पर आधारित लव स्टोरी से कमल हासन और रति अग्निहोत्री ने हिंदी सिनेमा के रूपहले परदे पर पदार्पण किया। यह फिल्म बॉक्सऑफिस पर जबर्दस्त रूप से हिट रही। इसकी सफलता से रति अग्निहोत्री रातोंरात स्टार बन गई, लेकिन हासन को इसका खास फायदा नहीं मिला। बालाचंदर ने हासन के लिए एक और हिंदी फिल्म जरा सी जिंदगी बनाई पर यह बॉक्सऑफिस पर असफल ही साबित हुई। बालाचंदर ने सिर्फ रोमांस पर आधारित फिल्में ही नहीं बनाई, बल्कि अन्य विषयों पर भी फिल्में बनाई। राजनीति पर आधारित थानिर-थानिर फिल्म कोमल स्वामीनाथन और खुद की लिखी एक कहानी अच्चामिलाई-अच्चामिलाई पर आधारित थी, जो काफी सफल रही। इस फिल्म में पानी के लिए ग्रामीणों के संघर्ष को जिस तरह से दर्शाया गया है, वह काबिले तारीफ है। कैलासम बालाचंदर ने वर्ष 1985 में एक और फिल्म बनाई, जो संगीत प्रधान थी। यह फिल्म सिंधु भैरवी के नाम से बॉक्सऑफिस पर हिट हुई। इस फिल्म की नायिका सुहासिनी को बेहतरीन अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। इन फिल्मों में बालाचंदर के अंतर्मन को समझा जा सकता है जिसमें उनकी पीड़ा और दर्द झलकती है। एक फिल्मकार के रूप में उनका योगदान बहुत ज्यादा है जिसे भूला पाना शायद ही किसी के लिए संभव हो सके। ब्राह्मण परिवार में जन्मे बालाचंदर को तमिल सिनेमा कालीवुड में इयाकुनार सिकारम यानी शीर्ष निर्देशक के नाम से जाना जाता है। बड़े परदे के अलावा उन्होंने छोटे परदे पर भी सफल पारी खेली। 81 साल की उम्र में भी वह सक्रिय हैं। यह भाग्य बहुत कम लोगों को ही नसीब हो पाता है। उनकी प्रसिद्ध धारावाहिकों में छोटी सी आशा हिंदी फिल्म भी शामिल है। उन्होंने चार भाषाओं में 100 से ज्यादा सितारों को तैयार किया जिनमें कइयों ने सफलता के झंडे गाड़े। ढेरों सितारों को तराशने वाले बालाचंदर ने एमजी रामचंद्रन और शिवाजी गणेशन जैसी महान हस्तियों के साथ काम नहीं किया, लेकिन इससे शायद ही कोई फर्क उन पर पड़ता हो। बालाचंदर दक्षिण सिनेमा के एक महान हस्ताक्षर हैं। उम्र के आठवें दशक में भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से नवाजे जाने वाले बालाचंदर ने देर से इस पुरस्कार के मिलने पर अफसोस जताने के बजाय इसे तहे दिल से स्वीकार किया है। हालांकि जिस दिन उन्हें इस सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा की गई, उस दिन भारत की मीडिया ब्रिटेन के राजकुमार विलियम और कैट की शाही शादी में व्यस्त था और इस खबर पर किसी का ध्यान ही नहीं गया।

Monday, March 14, 2011

आलम आरा के 80 साल

भारतीय सिनेमा के लिए वह दिन बहुत खास था। दर्शक रुपहले परदे पर कलाकारों को बोलते हुए देखने को आकुल थे। हर तरफ चर्चा थी कि परदे पर कैसे कोई कलाकार बोलते हुए दिखाई देगा। आखिरकार 14 मार्च 1931 को वह ऐतिहासिक दिन आया, जब बंबई (अब मुंबई) के मैजिस्टक सिनेमा में आलम-आरा के रूप में देश की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई। उस समय दर्शकों में इसे लेकर काफी कौतूहल रहा था। फिल्म में अभिनेत्री जुबैदा के अलावा पृथ्वी राज कपूर, मास्टर विट्ठल, जगदीश सेठी और एलवी प्रसाद प्रमुख कलाकार थे, जिन्हें लोग पहले परदे पर कलाकारी करते हुए देख चुके थे, लेकिन पहली बार परदे पर उनकी आवाज सुनने की चाह सभी में थी। दादा साहेब फाल्के ने अगर भारत में मूक सिनेमा की नींव रखी तो अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्मों का नया युग शुरू किया। हालांकि इससे पूर्व कोलकाता तब कलकत्ता की फिल्म कंपनी मादन थिएटर्स ने चार फरवरी 1931 को एंपायर सिनेमा (मुंबई) में दो लघु फिल्में दिखाई थी, लेकिन इस फिल्म में कहानी को छोड़कर नृत्य और संगीत के दृश्य थे। इसलिए आलम-आरा को देश की पहली फीचर फिल्म कहा जाता है। चार साल पहले 25 मई 1927 को अमेरिका में दुनिया की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई थी। वार्नर ब्रदर्स ने द जॉज सिंगर के नाम से बोलती फिल्मों का इतिहास शुरू किया। यह फिल्म भी उस समय बहुत चर्चित रही और इसके बाद तो कई और कंपनियां बोलती फिल्मों के निर्माण में जुट गई। हालांकि मूक फिल्मों के सुपर स्टार चार्ली-चैपलिन को फिल्मों में आवाज डालने की परंपरा रास नहीं आई, इसे वह अभिनय में बाधक मानते थे। विश्व स्तर पर मूवी और टॉकी फिल्मों को लेकर जबर्दस्त बहस शुरू हो गई थी। जबकि भारत में इस नवीन प्रयोग को हाथों-हाथ लिया गया और एक के बाद एक फिल्में बनने लगीं। बोलती फिल्मों का युग शुरू होने से पूर्व मूक फिल्मों को मूवी कहा जाता था, क्योंकि इसमें कलाकार सिर्फ हिलते-डुलते थे। और जब बोलती फिल्मों का युग आया तो वह टॉकी के रूप में परिवर्तित हो गया। मूक फिल्मों की शुरुआत करने वाले दादा साहेब को भी अपनी मूक फिल्म सेतुबंध को बोलती फिल्म में तब्दील करना पड़ा था। इस स्तर से सेतुबंध भारत की पहली डब फिल्म बन गई। तब डब कराने में 40 हजार रुपये खर्च आया था। उस समय बोलती फिल्मों को बनाना आसान काम नहीं था। आज की तरह ढेरों सुविधाएं भी नहीं थीं। सवाक फिल्मों के आगमन से कई नई चीजें जुड़ीं तो कुछ चीजों का महत्व खत्म हो गया। मूक फिल्मों में कैमरे का कमाल होता था, लेकिन बाद में माइक्रोफोन के कारण इसकी आजादी पर अंकुश लग गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि तब स्टूडियो में गानों की रिकार्डिग नहीं होती थी और शूटिंग स्थलों पर ही संवाद के साथ-साथ गाने भी रिकॉर्ड किए जाते थे। गानों की रिकार्डिग के लिए संगीतकार अपनी पूरी टीम के साथ शूटिंग स्थल पर मौजूद रहते थे। कलाकार खुद अपना गाना गाते थे और साजिंदों को वहीं आसपास पेड़ के पीछे या झोपड़ी अदि में छिपकर बाजा बजाना पड़ता था। कभी-कभी तो उन्हें पानी में रहकर या पेड़ पर बैठकर बजाना पड़ता था। इस दौरान किसी से भी छोटी गलती हो जाने पर शूटिंग दोबारा करनी पड़ती थी। आलम-आरा में सात गाने थे। फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत दे दे खुदा के नाम पर.. वजीर मोहम्मद खान (डब्ल्यूएम खान) ने गाया था। हालांकि खान साहब इन फिल्म के मुख्य नायक नहीं थे, लेकिन उन्होंने इतिहास रचा और भारतीय सिनेमा जगत के पहले गायक बन गए। खान साहब इस फिल्म में एक फकीर की भूमिका में थे। बदला दिलवाएगा या रब.. गाने से अभिनेत्री जुबैदा भारत की पहली फिल्मी गायिका बनीं। फिल्म में संगीत दिया था फिरोज शाह मिस्त्री और बी ईरानी ने। इस फिल्म में संगीत के लिए महज तीन वाद्ययंत्रों का ही प्रयोग किया गया था। अपनी संवाद अदायगी के लिए पहचाने जाने वाले पृथ्वी राज कपूर की आवाज को तब फिल्मी समीक्षकों ने नकार दिया था। यह फिल्म उस समय चर्चित एक पारसी नाटक पर आधारित थी। एक राजकुमार और बंजारन लड़की के बीच प्रेम संबंधों पर आधारित इस फिल्म के लेखक जोसेफ डेविड थे, जो 124 मिनट लंबी थी। आलम-आरा फिल्म से सबसे चर्चित हस्ती में पृथ्वी राज कपूर का नाम आता है, जिन्होंने नौ मूक फिल्मों में काम करने के बाद बोलती फिल्म में काम किया था। फिल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए 1971 में दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। फिल्म की नायिका जुबैदा ने बोलती फिल्मों में आने से पहले गैर बोलती फिल्मों में भी काम किया था। उन्होंने काला नाग (1924), पृथ्वी वल्लभ (1924), बलिदान (1927) और नादान भोजाई (1927) जैसी कई मूक फिल्मों में काम किया। शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर 1936 में बनी पहली हिंदी फिल्म में पारो की भूमिका उन्होंने ही निभाई थी। इस फिल्म से अभिनेता के रूप में करियर की शुरुआत करने वाले एलवी प्रसाद आगे चलकर हिंदी और तेलुगु फिल्मों के मशहूर निर्माता-निर्देशक बने। उनकी निर्देशित कुछ चर्चित हिंदी फिल्में शारदा (1957), छोटी बहन (1959) और जीने की राह (1969) है। बतौर निर्माता हमराही (1963), मिलन (1967), खिलौना (1970) और एक दूजे के लिए (1981) उनकी कुछ यादगार फिल्में हैं। प्रसाद को 1982 में भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। कई नायाब सितारे देने वाली यह फिल्म आज अपने अस्तित्व में नहीं है। दुर्भाग्य से आठ साल पहले 2003 में पुणे की राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में लगी आग से आलम-आरा फिल्म के नामोनिशान खाक हो गए। आलम-आरा ही नहीं, भारतीय सिनेमा की और भी कई अमूल्य धरोहर इसमें स्वाहा हो गई। इस अग्निकांड के बाद पूरे देश में इसके प्रिंट की खोज की गई, लेकिन सफलता नहीं मिली। फिल्म ही नहीं, इसके गाने भी उसी आग में नष्ट हो गए। उस समय फिल्मी गानों को ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार करवाने की शुरुआत नहीं हुई थी, इसलिए उसे अलग से संरक्षित भी नहीं किया जा सका। आज इस फिल्म को रिलीज हुए 80 साल बीत चुके हैं। हमारा भारतीय सिनेमा कहां से कहां तक पहुंच गया है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम फिल्मी इतिहास के शुरुआती पन्ने ही बचाकर नहीं रख सके। हालांकि इस फिल्म के कुछ फोटो जरूर बचे हुए हैं, जिसे देखकर हम संतोष कर सकते हैं(सुरेन्द्र कुमार वर्मा,दैनिक जागरण,14.3.11)।

Sunday, January 30, 2011

बॉलीवुडःपरम्परा उगते सूर्य को नमस्कार करने की

पाठकों की स्मृति को टटोलने जा रहा हूं। ललिता पवार के निधन के कितने दिन बाद लोगों को उनके बारे में पता चला था? पूरे तीन दिन बाद। अभिनेत्री परवीन बाबी के देहांत के कितने दिन बाद लोग इस सच्चाई को जान पाए थे? तीन दिन बाद। अब जब बीते दिनों की अभिनेत्री नलिनी जयवंत का निधन हुआ, तो उनके पड़ोसियों को कितने दिन बाद इस बारे में पता चला है? तीन दिन बाद। फिल्म इंडस्ट्री में शोकाहत करने वाली किसी सूचना को फैलने में कम से कम तीन दिन लगते हैं। विगत दिनों के किसी स्टार की मृत्यु के बारे में तो यह सोलह आने सच है। जब आप चमकते स्टार होते हैं, तो आपके हर कदम का नोटिस लिया जाता है, आपके द्वारा उच्चारित हर शब्द को ब्रेकिंग न्यूज बनाया जाता है। इस तरह आपके निजी जीवन में गोपनीयता की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। लेकिन एक बार लोकप्रियता की चोटी से गिरने के बाद विस्मृति के गटर में आपका समा जाना तय है। भारतीय फिल्मोद्योग चमकते हुए सूरज की ही पूजा करता है। हालांकि यह भी एक खर्चीला धंधा है और इन फिल्म कलाकारों को प्रशंसकों के बीच अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। अतीत के महान कलाकारों को भुला दिए जाने की सूची बहुत लंबी है। ऐसे कलाकार दशकों तक विस्मृत रहते हैं, जब तक कि उनके निधन की सूचना न आ जाए। फिर उनके मृत्यु की वजह का पता लगाया जाता है और उसके बाद उन पर एक दोस्ताना श्रद्धांजलि लिख दी जाती है, ललिता पवार, परवीन बाबी और नलिनी जयवंत के मामले ऐसे ही हैं। निरूपा राय या अजित के निधन पर ऐसी बेरुखी देखने को नहीं मिली थी। इसकी वजह यह है कि उनके बारे में बताने के लिए उनके बेटी-बेटे मौजूद थे। ऐसा ही दुर्भाग्य भारतभूषण का था। बीते दिनों का इतना चर्चित कलाकार एक साधारण आदमी की मौत मरा। इस पर प्रसिद्ध संगीतकार ओ पी नैयर इतने दुखी हुए कि उन्होंने अपने शुभचिंतकों को आगाह कर दिया था कि उनकी मौत के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए। वह नहीं चाहते थे कि उनके न रहने पर कोई उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े। लिहाजा उनकी मृत्यु के लगभग एक महीने बाद जब यह सूचना सार्वजनिक हुई, तो उनके संगीत के प्रशंसकों ने श्रद्धांजलि देते हुए हिंदी फिल्म संगीत में उनके योगदान को भावुकता के साथ याद किया। कलाकारों की दुनिया में यह सब काफी त्रासद है। इस दुनिया में सबसे योग्य ही टिक सकता है, सबसे महान नहीं। क्या आपने हाल के दिनों में कभी चंद्रमोहन, अशोक कुमार या नरगिस को याद किया? फिल्म इतिहास के बारे में हमारी स्मृति काफी कमजोर है। खुद फिल्म इंडस्ट्री के पास भी इसका इतिहास लिखने या यादगार दृश्यों को सहेजने की कोई योजना नहीं है। कई बार कलाकार खुद एकांतवासी होना पसंद करते हैं और जनता के सामने नहीं आना चाहते। बीते दिनों की गायिका-अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित को मैं आज इसी सूची में रखता हूं। ऐसी ही एक और एकांतवासी अभिनेत्री कोलकाता में सुचित्रा सेन हैं। खासकर पुराने दिनों की अभिनेत्रियां लोगों से बचना चाहती हैं। दरअसल अपार्टमेंट संस्कृति में सब लोग अपने में ही जीते हैं। ऐसे में यह कानून बनना चाहिए कि हर आदमी सप्ताह में कम से कम एक बार अपने पड़ोसियों से जरूर मिले, ताकि उनके बारे में नियमित तौर पर जानकारियां मिलती रहें। नलिनी जयवंत पर श्रद्धांजलियों का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बताता है कि उनका गौरवशाली फिल्म कैरियर वाकई इतना पीछे छूट गया था कि लोग जीते-जी उन्हें भूल चुके थे!(महेश भट्ट,दैनिक जागरण,भोपाल,30.1.11)

Monday, January 24, 2011

स्टारडम से कंगाली तक

' भारी भूल की मैंने कि अपने हालात की जानकारी दुनिया को पहले नहीं दी', कहते-कहते भावुक हो उठते हैं फिल्म अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल, जिनके अस्वस्थ होने की खबर मीडिया में आते ही फिल्मी और गैर फिल्मी हर इलाके से आर्थिक मदद उनके घर पहुंचने लगी। अमिताभ बच्चन ने 5 लाख का चेक भेजा, तो प्रियंका चोपड़ा और करन जौहर ने एक-एक लाख का। एसोसिएशन ऑफ मोशन पिक्चर ऐंड टीवी प्रोग्राम प्रड्यूसर्स के वेलफेयर ट्रस्ट ने भी एक लाख और अरबाज खान तथा मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने 50-50 हजार रु. का चेक भेजा।

दो-तीन दिन में ही देखते-देखते लाखों की रकम जमा हो गई है और अब अस्पताल या दवाइयों का बिल अदा करने की मुसीबत उनके पुत्र विजय हंगल को कतई नहीं सताएगी। जिस कलाकार ने इप्टा के नाटकों तथा 'गर्म हवा', 'गुड्डी', 'तीसरी कसम', 'बावर्ची', 'अभिमान', 'शौकीन' और 'शोले' जैसी लगभग 200 फिल्मों के जरिए कला की सेवा की हो और जिसे महाराष्ट्र सरकार की अनुशंसा पर 'पद्मभूषण' सम्मान से अलंकृत किया गया हो, वह 93 वर्ष की ढलती उम्र में अगर सेहत के कारण बेरोजगार हो और अपने अस्तित्व के लिए आर्थिक संकट से जूझ रहा हो, तो यह निश्चय ही समाज के लिए सोचने की बात है। हंगल साहब ने पिछली मुलाकात के दौरान इन पंक्तियों के लेखक से पूछा था, 'क्या करूं मैं यह पद्मभूषण लेकर, अगर सरकार हम जैसे बुजुर्ग कलाकारों की देखभाल नहीं कर सकती?' वह पहले भी कई बार यह सुझाव सरकार के सामने रख चुके हैं कि भारत में भी रूस तथा अन्य देशों की तर्ज पर बुजुर्ग और बीमार कलाकारों के लिए आवास बनाए जाएं, जहां तमाम सुख- सुविधाओं की व्यवस्था हो। क्या अब उनके सुझाव पर विचार होगा?


अगर ए.के.हंगल ने मीडिया के जरिए वक्त पर फिल्म इंडस्ट्री को एसओएस नहीं भेजा होता तो आर्थिक अभाव के कारण उनकी सेहत सांताक्रुझ के उनके अंधेरे-बंद कमरे में गिरती चली जाती और जब तक दुनिया को उनके सच का पता चलता, शायद देर हो चुकी होती। वैसी ही देर, जो भगवान दादा, भारत भूषण, ई. बिलिमोरिया, सुलोचना रूबी मायर्स और मोतीलाल जैसे अपने जमाने के बड़े स्टार्स को अपनी चुप्पी के कारण झेलनी पड़ी।

भगवान दादा ने 'अलबेला' सहित कई सुपर हिट फिल्में बनाईं और गीता बाली के साथ 'भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे' गाने पर जिस तरह ठुमके लगाए, उसने युवाओं का दिल जीत लिया। उनकी इसी डांसिंग स्टाइल को बाद में अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों में अपनाया। मगर किस्मत का खेल देखिए कि स्टारडम मिलने पर जिस भगवान दादा को भगवान ने चेंबूर में बंगला, स्टूडियो और कीमती कारें दीं, उनका सारा वैभव एक ही झटके में अचानक छीन भी लिया। आगजनी में तमाम फिल्मों के निगेटिव जल गए, फिल्में फ्लॉप हुईं और भगवान दादा को चेंबूर के बंगले से दादर की चॉल में आने की दुर्दशा देखनी पड़ी। घर चलाने के लिए फिल्मों में जूनियर आटिर्स्ट का काम करना पड़ा।

यही बदहाली ई.बिलिमोरिया और सुलोचना रूबी मायर्स को भी झेलनी पड़ी। ये दोनों अपने जमाने के सुपर स्टार थे। सुलोचना रूबी मायर्स को हीरो से पांच गुना अधिक पारिश्रमिक मिलता था। काम मिलना बंद हुआ तो जूनियर आर्टिस्ट बनने को मजबूर होना पड़ा। ई.बिलिमोरिया भी कमाठीपुरा की गुमनाम खोली में गुमनाम मौत के शिकार हुए। परशुराम नामक एक स्टार को जब कंगाली ने घेरा तो उनकी फिल्मों के एक फैन ने उन्हें बांदा के ट्रैफिक सिग्नल पर उन्हें भीख मांगते देखा और अपने पसंदीदा स्टार की ऐसी हालत उसकी आंखें भर आईं। 'राम राज्य' में राम की भूमिका निभाने वाले प्रेम अदीब के लाखों भक्त थे, लेकिन जीवन के अंतिम दिन उनके बहुत बुरे बीते। सुपर स्टार रहे मोतीलाल ने 'छोटी छोटी बातें' बनाकर आत्मघाती कदम उठाया। गोविंदा के स्टार पिता अरुण कुमार ने भी निर्माता बनकर ऐसी भूल की कि पूरा परिवार खार के भव्य बंगले से सीधे फुटपाथ पर आ गया और उन्हें सुदूर विरार की एक चॉल में गुजर-बसर करने को बाध्य होना पड़ा। भारत भूषण ने 'बैजू बावरा', 'बरसात की रात' जैसी सुपर हिट फिल्में दीं, पाली हिल पर आलीशान बंगला और तमाम ऐशोआराम देखे लेकिन जब फिल्में पिटने लगीं और काम कम होने लगा तो हालत पतली होती गई और फिल्म तथा टीवी में छोटी भूमिकाएं करते हुए मालाड के छोटे से घर में उन्हें गुमनाम मौत मिली।

' कलाकारों का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा होता है और भविष्य अनिश्चित होता है इसलिए जिसने भी आने वाले कल के लिए बचाकर रखा, उसे दुर्दिन नहीं झेलना पड़ा', फिल्म अभिनेता चंदशेखर का कहना है। साठ साल से ज्यादा की फिल्मी पारी खेल चुके चंद्रशेखर फिल्म इंडस्ट्री की वेलफेयर योजनाओं से जुड़े रहे हैं और बुरे दिन झेल रहे कलाकारों की मदद के लिए हमेशा आगे आते रहे हैं। उन्होंने बताया कि अशोक कुमार, राजेंद्र कुमार, जीतेंद्र जैसे सितारों ने कभी फिजूलखर्ची नहीं की और अपना पैसा सुरक्षित बिजनेस में लगाया(मिथिलेष सिन्हा,नवभारत टाइम्स,मुंबई,24.1.11)।

गुलजार की पुस्तकःपन्द्रह पाँच पचहत्तर

शायरी और किस्सागोई से लेकर फिल्म निर्माण, पटकथा-संवाद लेखन व निर्देशन तक गुलजार का एक बड़ा कारोबार फैला है लेकिन यह कारोबार अभी फिल्म दुनिया की बाजारवादी मांग और आपूर्ति का संसाधन नहीं बना है। वह पूरी तौर पर अदबी और रचनात्मक है। गुलजार का होना यह बताता है कि शायरी की शुचिता फिल्म दुनिया की कारोबारी समझ के बावजूद कायम है। उनके प्रशंसक बेशुमार हैं, उनके गीतों-नज्मों को जहां लाखों करोड़ों लोगों की मुहब्बत हासिल है, कविता प्रेमियों को भी उसने अपने भाव-संसार और अंदाजे-बयां से प्रभावित किया है। उन्होंने अपनी शख्सियत से यह जताया है कि एक सच्चा कवि रोजी-रोटी से समझौता करता हुआ भी अदब के लिए अपने दिल में एक खास जज्बा रखता है। गुलजार ने फिल्मी गीतों से लेकर शायरी और नज्मों के समानांतर सफर में अपने कवित्व की अनूठी सौगात से लोगों को नवाजा है।

गुलजार की हाल में प्रकाशित नज्मों की पुस्तक "पंद्रह पांच पचहत्तर" आधुनिक उर्दू कविता में मील का पत्थर है। अपने सीधे-सहज गीतों में वे जितना मुखर होकर मानवीय अनुभूतियों को करीब से छूते हैं, अपनी नज्मों में वे आधुनिक संवेदना की गहराइयों में उतरते हुए लफ्जों को नए मानी देते है। उन्हीं का कहना है- "मैंने काल को तोड़ के लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।" पंद्रह खंडों में पांच-पांच कविताओं का यह संग्रह कुल पचहत्तर कविताओं का एक ऐसा गुलदस्ता है जो पचहत्तर पार गुलजार के जीवन और अनुभवों के अनेक शेड्स उजागर करता है। गुलजार की चित्रकारिता के भी नायाब नमूने यहां पन्ने दर पन्ने पिरोए गए हैं जिन्हें निहार कर आंखों को एक रचनात्मक तृप्ति मिलती है। मुझे आईआईसी दिल्ली के एक जलसे की याद है जब पाकिस्तान के एक शायर ने अपनी गजल के एक मिसरे में उन्हें पिरोते हुए कहा था- देखकर उनके रुखसार-ओ-लब यकीं आया/कि फूल खिलते हैं गुलजार के अलावा भी।

"यार जुलाहे" (गुलजार) की भूमिका में यतींद्र मिश्र ने लिखा है - "इच्छाएं, सुख, यथार्थ, नींदें, सपने, जिज्ञासा, प्रेम, स्मृतियां और रिश्तों की गुनगुनाहट को उनकी नज्मों और गजलों में इतने करीने से बुना गया है कि हमेशा यह महसूस होता है कि वह किसी नेक जुलाहे के अंतर्मन के तागे से बुनी गई हैं। इसमें संदेह नहीं कि गुलजार की नज्मों-कविताओं में कविता और शायरी की सदियों पुरानी परंपरा सांस लेती है और वे हर बार अपनी अनुभूतियों को भाषा और संवेदना का नया जामा पहनाते हैं।"

इन नज्मों में पिरोए गए बिंबों से एक खाका बनाएं तो उनकी नज्में पहाड़ों और वादियों में आने का न्यौता देती हैं, काले-काले मेघों से अपने सूखे गांव का हाल बतलाती हैं, चहकती चिड़िया की मस्ती निहारती हैं, बेरंग गर्मियों का जायजा लेती हैं, पहाड़ों पर आधी आंखें खोलकर सोती हैं, बुजुर्ग लगते चेन्नई, जादुई लगती मुंबई, धूपिया लगती दिल्ली और सदाबहार लगते कोलकाता की यादें संजोती हैं, कागज के पैराहन पर लिखी तहरीरें बांचती हैं और टूटते हुए मिसरों की हिचकियां सुनती हैं, किसी अजीज के साथ पूरा दिन गुजारने की तमन्ना रखती हैं और उसके बगैर सोने के लिए नींद की गोलियां तलाशती हैं, पेड़ों की पोशाकों से बदलते मौसम का मिजाज पहचानती हैं और जानती हैं -कोई मौसम हमेशा के लिए नहीं रहता। लम्हे कागज पर उतरते हैं और नज्मों का रंग पोरो पर रह जाता है। कुछ शख्सियतों की यादें गुड़ की भेली की तरह जीवन में मिठास भरती हैं और गुलजार की नज्में भी यही करती हैं। क्लासिकी और संयम के साथ रची इन नज्मों को गुलजार के लफ्जों में ही कहना हो तो यही कहना होगा- "कल का हर वाकया तुम्हारा था/ आज की दास्तां हमारी है(ओम निश्चल,नई दुनिया,दिल्ली,23.1.11)।"

Sunday, January 23, 2011

फिल्म का सौंदर्य-शास्त्र और भारतीय सिनेमा

सिनेमा का माध्यम क्या है, इसे समझाने के लिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह विचार काफी प्रासंगिक है। उन्होंने सिनेमा का दूरगामी भविष्य रेखांकित करते हुए कहा था - "देश की चेतना, देश के आदर्श, और आचरण की कसौटी वही होगी जो सिनेमा की होगी।" तो क्या माना जाए कि सिनेमा भी विचार का रूप ले सकता है। शायद कभी नहीं। कथा-कहानियों में जितना विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है, उतनी भी जगह फिल्मों में नहीं बनती। बावजूद इसके अपने छोटे से इतिहास में वैचारिक आलोक में कई कालातीत फिल्में बनी हैं और उसने मानव समुदाय को बड़े पैमाने पर प्रभावित भी किया है।

सिनेमा मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला सबसे सशक्त माध्यम है। इस माध्यम की पहुंच और प्रभाव आज किसी न किसी रूप में समाज के अंतिम व्यक्ति तक है। कमला प्रसाद ने सिनेमा, उसकी सैद्धांतिकी, तकनीक और सौंदर्यशास्त्र पर विश्व के चुनिंदा फिल्म आलोचकों की राय एक साथ संकलित और संपादित कर हिंदी पाठकों के सामने "फिल्मों के सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा" नामक संकलन में रखा है। इस संकलन में विश्व की श्रेष्ठतम फिल्मों, फिल्मकारों और कई लेखकों के सिनेमा के बारे में विचार हैं। इन विचारों में सिनेमा के लगभग सभी आयामों की गहरी मीमांसा शामिल है।

पुस्तक मूल रूप से चार खंड में विभाजित है। पहले खंड फिल्म संरचना और सौंदर्य में विदेशी लेखकों के आलेख हैं। इस खंड में आइंजेनस्टाइन, पुदोविकन, तारकोवस्की, कुरोसावा, चार्ल्स ग्रिफिथ, गोदार, बर्गमैन, सिटिजन कैन, मैकलेरेन, कार्ल डेयर, बिसल राइट, आर्सून वेल्स, बर्ट हंस्ट्रा जैसे सिनमाई दिग्गजों की अमर फिल्मों के माध्यम से पनपे नए सामाजिक मूल्यों की चर्चा शामिल है।

दूसरे खंड में फिल्म को रंगमंच का ही विस्तार बताया गया है। इस खंड के एक आलेख में प्रदीप तिवारी अपने आलेख में नाटकों से सिनेमा की ओर बढ़ते कदम पर रोशनी डालते हैं। यह भारतीय सिनेमा के शुरुआती दिनों के बारे में बताने वाला अध्याय है क्योंकि पचास के दशक के बाद सिनेमा में सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित पटकथाओं का चलन बढ़ गया।

हिंदी सिनेमा की विश्व सिनेमा से तुलानात्मक अध्ययन पर केंद्रित है तीसरा खंड हिंदी सिनेमा। खंड की शुरुआत समाजशास्त्री आशीष नंदी के आलेख से हुई है जो मध्यवर्ग और सिनेमा की बीच के आपसी संबंध और अंतर्द्वंद्वों की पड़ताल बारीकी से करते हैं। वे सिनेमा को बहुलोकप्रिय संस्कृति तो बताते ही हैं साथ में उसकी कमियों की तरफ भी इशारा करते हैं। इसी खंड में फिरोज रंगूनवाला का आलेख बताता है कि बेहतर समाज की रचना के लिए बेहतर सिनेमा भी गढ़ना होगा। मनोरंजन के नाम पर जिस तरह की वाहियात, बेबुनियादी, अनर्थक, असंगत, कमअक्ली बातों का बेहूदा प्रदर्शन होने लगा है, उसे फिरोज बड़ा भटकाव मानते हैं। भारतीय सिनेमा पर एकाग्र सिनेमा में यहां "अछूत कन्या", "राजा हरिश्चंद्र", "दो बीघा जमीन" से लेकर "पाथेर पांचाली" और बीसवीं शताब्दी की कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों की चर्चा शामिल है। "मेरी फिल्में और जीवन" शीर्षक तहत सत्यजित राय अपनी तमाम चर्चित फिल्मों के निर्माण प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। आलेख खासा रोचक और दिलचस्प है। कुल मिलाकर यह सिनेमाई वृत्ति को समझाने के लिहाज से एक उपयोगी पुस्तक है। यह कृति हिंदी में सिनेमा के उस अवकाश को बखूबी भरती है जिसके कारण इस माध्यम को सराहने की स्थितियां अनुपस्थित रही हैं(प्रदीप कुमार,नई दुनिया,दिल्ली,23.1.11)।

Friday, January 7, 2011

बॉलीवुड में झारखंडी और बिहारी प्रतिभाओं का हल्ला बोल

यह शुक्रवार बिहार और झारखंड के लिए बेहद खास है. वजह, आज रिलीज हो रही बॉलीवुड की दो फिल्मों में झारखंड और बिहार की दो प्रतिभाओं का हुनर देखने को मिलेगा. एक परदे के पीछे और एक परदे के सामने. साथ ही काफ़ी समय बाद एक साथ परदे पर दो महिला प्रधान फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं. झारखंड के लिए गौरव की बात यह है कि आज रिलीज हो रही फिल्म ’नो वन किल्ड जेसिका’के निर्देशक राजकुमार गुप्ता हजारीबाग के रहनेवाले हैं.

विद्या बालन व रानी मुखर्जी अभिनीत यह फिल्म जेसिका लाल हत्याकांड पर आधारित है. इससे पहले राजकुमार ने ओमर का निर्देशन किया था. फिल्म यूटीवी जैसे प्रतिष्ठित बैनर तले ही बनी थी. राजकुमार की योग्यता को देखते हुए नो वन किल्ड जेसिका को निर्देशित करने का मौका भी निर्माता यूटीवी ने उन्हें दिया.बॉलीवुड में ..राजकुमार कहते हैं, यह उनके लिए गौरव की बात है कि उनकी फिल्म नो वन किल्ड जेसिका रिलीज होने से पहले बेहद चर्चे में है. दर्शकों ने 10 साल पहले हुए उस केस में आज भी दिलचस्पी दिखायी है.

भविष्य में भी ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करता रहूंगा.पा जैसी फिल्मों से पुरस्कार प्राप्त कर चुकीं अभिनेत्री विद्या बालन मानती हैं कि राजकुमार एक भावनात्मक निर्देशक हैं और यही वजह है कि उन्होंने अच्छे तरीके से कहानी कही है. उन्हें पूरी उम्मीद है कि दर्शकों को यह फिल्म पसंद आयेगी.उधर, आज ही रिलीज होनेवाली फिल्म विकल्प एक अनाथ लड़की की कहानी है, जिसमें मुख्य किरदार में बिहार के पटना शहर के रहनेवाले क्रांति प्रकाश झा नजर आयेंगे.

मुंबई में थियेटर से भी गहरा लगाव रखनेवाले क्रांति बताते हैं कि इस फिल्म में वह अनाथ लड़की के दोस्त का किरदार निभा रहे हैं. फिल्म के निर्देशक सचिन हैं.वाकई जिस रफ्तार से झारखंड और बिहार की प्रतिभाएं हिंदी सिनेमा जगत के हर क्षेत्र में लगातार अपना हुनर दिखा रही हैं, यह दोनों राज्यों के लिए आशा की नयी किरण है.

न सिर्फ प्रतिभाएं, बल्कि बॉलीवुड को यहां अब शूटिंग लोकेशन के विकल्प भी नजर आने लगे हैं. जमशेदपुर में शूट हुई फिल्म उड़ान को इस बार स्टार स्क्रीन अवार्डस में 14 नॉमिनेशन मिले हैं. फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने बताते हैं कि इस फिल्म में परदे के पीछे उनका सहयोग करीम सिटी कॉलेज के बच्चों ने दिया था(प्रभात ख़बर,रांची संस्करण में मुंबई से रिपोर्ट).

Friday, December 24, 2010

सिनेमा में आशा और करुणाःहर्ष मंदर

सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं।

कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है कि सिनेमा की कौन-सी बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। इस माह जब मैं गोआ के फिल्म समारोह में गया, तो यही सवाल मैंने खुद से पूछा। हर साल मैं सभी काम छोड़कर गोआ चला जाता हूं, ताकि वहां होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दुनिया की बेहतरीन फिल्में देख सकूं। इस साल काम के दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मैं शुरुआत से इस समारोह में शामिल नहीं हो सका। फिर भी मैंने तीन दिन का समय निकाल ही लिया।

समारोह में फिल्में देखते समय मुझे महसूस हुआ कि सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं। गोआ में इस बार अनेक फिल्में इस विषय पर केंद्रित थीं कि मनुष्य की जिंदगी पर संघर्षो का क्या प्रभाव पड़ता है। दुख, संताप और विघटन से त्रस्त वर्तमान समय में यह आश्चर्यजनक भी नहीं है। समारोह में जिस एक फिल्म ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी चीनी निर्देशक वांग कुआनान की अपार्ट टुगेदर । एक रिटायर्ड सैनिक ५क् साल बाद अपनी पत्नी से मिलने ताइवान से चीन लौटता है। यहां वह पहली बार अपने बेटे को देखता है। उसकी भेंट अपनी पत्नी के दूसरे पति से भी होती है, जो एक नेक व्यक्ति है। आधी सदी बाद पति-पत्नी की मुलाकात होती है। वे चाहते हैं कि जीवन के अंतिम दिन वे साथ ही गुजारें, क्योंकि उनके देश के विभाजन ने उनके प्यार के बीच भी लकीर खींच दी थी। लेकिन वे यह भी महसूस करते हैं कि समय की धारा को पीछे नहीं लौटाया जा सकता। यह बड़ी आसानी से भारत और पाकिस्तान या पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की भी कहानी हो सकती है।

श्रीलंकाई फिल्मकार बेनेट रथनायके की फिल्म अंडर द सन एंड द मून हजारों जानें लेने वाले नस्लीय संघर्ष की दास्तान बयां करती है। फिल्म का व्याकरण बहुतेरी दक्षिण एशियाई फिल्मों की शैली के अनुरूप रंगमंचीय और अतिनाटकीय हो गया है, लेकिन फिल्म का कथानक हमें बांधे रखता है। यह श्रीलंकाई सेना के एक आदर्शवादी अधिकारी की कहानी है, जो अपनी मां की इच्छा के विपरीत एक तमिल विद्रोही नेता की बहन से विवाह करता है, जबकि उस विद्रोही नेता के साथियों ने अधिकारी की मां के घर पर धावा बोलते हुए उनके माता-पिता की हत्या कर दी थी। युद्ध में अधिकारी की मृत्यु हो जाती है। सेना का एक जवान यह महसूस करता है कि उसने अधिकारी की जान बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए और अपराधबोध से ग्रस्त होकर अधिकारी की विधवा और उसकी बेटी की तलाश करता है। वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर भिजवाने के लिए अपनी जान तक को जोखिम में डाल देता है। फिल्म यह बताती है कि गृह युद्ध आम लोगों के मन में नफरत के बीच बो देता है, लेकिन प्रेम और सौहार्द की भावनाएं फिर भी नहीं मरतीं।

समारोह में फिल्में देखते समय मैंने यह भी अनुभव किया कि कई फिल्मों ने शहरी जीवन के अकेलेपन को अपनी विषयवस्तु बनाया है। मुझे विशेष रूप से हंगारियन फिल्म एड्रेइन पाल ने प्रभावित किया। इस फिल्म की निर्देशक एग्नेस कोसिस हैं। फिल्म एक स्थूलकाय नर्स की बेहलचल जिंदगी पर केंद्रित है, जो मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों के वार्ड में 18 वर्षो से काम कर रही है। उसका काम केवल इतना ही है कि इन मरीजों को साफ-स्वच्छ और जीवित रखने की कोशिश करे और उनकी मृत्यु हो जाने पर उनके परिजनों को सूचित करे। नर्स को यह अनुभव होता है कि मरीजों के साथ ही उसके भीतर की भावनाएं भी धीरे-धीरे मरती जा रही हैं। वह हाई कैलोरी स्नैक्स खाते हुए एक यांत्रिक जीवन बिता रही है। फिल्म यह दर्शाती है कि किस तरह यह महिला जीवन के नए आयामों की तलाश करती है। मैक्सिकन फिल्मकार अर्नेस्तो कोंत्रेरास की फिल्म पार्पादोज एजूले दो युवाओं की आमफहम जिंदगी की कहानी है। एक लड़की एक क्लॉथ स्टोर में काम करती है और संयोग से एक पुरस्कार जीत जाती है। उसे एक समुद्र तटीय रिसोर्ट पर छुट्टियां बिताने का अवसर मिलता है। वह अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को भी ले जा सकती है। उसकी भेंट एक अपरिचित व्यक्ति से होती है और वह उसे अपने साथ छुट्टियां बिताने के लिए निमंत्रित करती है। यह एक मजेदार फिल्म है, जो हमें यह बताती है कि साधारण लोगों की साधारण जिंदगी में भी प्रेम के अवसर और संभावनाएं हमेशा जीवित रहती हैं। तुर्की के फिल्मकार सलीम दमीरदलन की फिल्म द क्रॉसिंग में भी अकेलापन एक सिंफनी की तरह है। एक व्यक्ति रोज दफ्तर से घर फोन लगाकर बेटी से बात करता है और उससे पूछता है कि आज स्कूल में क्या-क्या हुआ, लेकिन वास्तव में उसकी कोई बेटी नहीं है और उसने अकेलेपन से निजात पाने के लिए अपने इर्द-गिर्द फंतासियों की दुनिया रच ली है। एक महिला अपने शराबी पति से अलगाव के बाद अकेलेपन का जीवन बिता रही है तो एक अन्य व्यक्ति अपनी बीमार बहन को तिल-तिलकर मरते देख रहा है। फिल्म का स्क्रीनप्ले इन तीनों की तनहाइयों को आपस में जोड़ देता है।

समारोह में मेरा परिचय एक बेहतरीन भारतीय फिल्म से भी हुआ। यह फिल्म कौशिक गांगुली की जस्ट अनादर लव स्टोरी है। फिल्म से सुविख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष ने अपने अभिनय कॅरियर का आगाज किया है। फिल्म रचनात्मक रूप से कई स्तरों पर काम करती है। हर फिल्म समारोह की तरह गोआ फिल्म समारोह में भी युवावस्था के सवालों पर केंद्रित एक फिल्म थी। चेन कुन-होऊ की ताइवानी फिल्म का शीर्षक ही ग्रोइंग अप है। फिल्म में एक उदारहृदय बुजुर्ग एक बार गर्ल से विवाह करता है और उसके बेटे को स्वीकार कर लेता है। लड़का जिद्दी और विद्रोही प्रवृत्ति का है। जब वह नौजवान हो जाता है, तो नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करता है।

लेकिन समारोह की सबसे अच्छी फिल्म थी बॉय । यह न्यूजीलैंड की फिल्म है, जिसे टाइका वैटिटी ने निर्देशित किया है। यह ऑस्ट्रेलियाई मूल के एक ऐसे आदिवासी बच्चे की कहानी है, जिसके पिता जेल में बंदी हैं जबकि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी है। वह यह कल्पना करने लगता है कि वह बच्चा नहीं, वयस्क अभिभावक है और अपने बच्चों से बहुत प्रेम करता है। लेकिन जब उसके पिता जेल से रिहा होकर आते हैं तो वह पाता है कि यह सच्चाई नहीं है और वह महज कल्पनाओं से खेल रहा था। मैं दिल्ली में बहुत सारे ऐसे बच्चों के साथ काम करता हूं, जिनकी कहानी भी इस फिल्म के बच्चे की कहानी से मिलती-जुलती है, लेकिन वे जिंदगी की तकलीफों का सामना करने को तैयार हैं। इस फिल्म ने मेरे दिल को छू लिया(दैनिक भास्कर,24.12.2010)।

Tuesday, December 21, 2010

पश्चिम के आसमान में बॉलीवुड सितारे

अमेरिका और पश्चिमी देशों में सिने दर्शकों की जो मुख्यधारा है, उसमें मुंबइया फिल्मों या बॉलीवुड के सितारों की कोई खास पहचान नहीं है। यह स्थिति लंबे समय से है, लेकिन नए हालात में जल्दी ही बदल सकती है। अमेरिका में दूसरे देशों से आकर बसे आप्रवासी लोगों के जो समुदाय हैं, उनमें दक्षिण एशियाई लोगों के समुदाय का आकार तेजी से बढ़ रहा है।

इन्हीं आप्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाई गई बॉलीवुड फिल्में बड़े पैमाने पर अमेरिकी सिनेमागृहों में दिखाई जाने लगी हैं। अमेरिकी परदे पर ऐसी फिल्मों का एक विस्फोट-सा देखा जा सकता है। यही कारण है कि अब भारतीय फिल्मी सितारे दुनिया के इस हिस्से में अपनी अजनबीयत से उबर रहे हैं और जल्दी ही यहां गुमनाम या अनजाने नहीं रहेंगे।

मेरी बहन एक किस्सा सुनाती हैं। वह चैनल 9 के साथ एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थीं। इसमें फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा पर भी फोकस था। जब प्रीति से हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना करने को कहा गया तब उन्होंने यह घटना टेलीविजन टीम को बताई। प्रीति उस विमान में लंदन से न्यूयॉर्क जा रही थीं। उन्होंने देखा कि फस्र्ट क्लास कैबिन में सुंदर और उभरे हुए होंठों वाली एक अमेरिकी महिला मुड़ी-तुड़ी जींस पहने और गहरा काला चश्मा लगाए बैठी हैं। तभी ऑटोग्राफ लेने वाले यात्रियों की एक भीड़ विमान की इकॉनोमी क्लास से फर्स्ट क्लास की ओर दौड़ी।

यह देखकर अमेरिकी महिला के होठों से निकला, ‘ओह, गॉड!’ लेकिन तभी उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उस भीड़ ने उनकी बगल से गुजरकर आगे बैठी प्रीति को घेर लिया। भारतीय अभिनेत्री क्षमा मांगने की मुद्रा में उनकी तरफ देखकर मुस्कराईं और अपने दक्षिण एशियाई प्रशंसकों की ऑटोग्राफ बुक पर दस्तखत करने में व्यस्त हो गईं। उभरे हुए होंठों वाली वह खूबसूरत अमेरिकी महिला कोई और नहीं हॉलीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री एंजेलिना जोली थीं। हॉलीवुड पर हुकूमत करने वाली उस साम्राज्ञी ने मन ही मन जरूर पूछा होगा कि ‘यह हिंदुस्तानी महारानी आखिर है कौन?’ जाहिर है, पश्चिम में भी बॉलीवुड के सितारों का सूर्योदय हो रहा है।

लेकिन मुंबई की फिल्मी दुनिया में ऐसे सितारे भी हैं जिन्हें अपनी प्रसिद्धि और अपने यश की सीमाओं को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है। न ही उन्हें इस बारे में कोई अफसोस है। इनमें संभवत: अमिताभ बच्चन सबसे आगे हैं। न्यूयॉर्क के लिंकन सेंटर में उनकी फिल्मों का एक रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित किया गया था, जिसमें भाग लेने वह आए थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वह हॉलीवुड की फिल्में करना पसंद करेंगे? सवाल सुनकर पहले तो वह हंसे, फिर बोले कि हॉलीवुड ने दरअसल उन्हें कभी आकर्षित नहीं किया। ‘हर अभिनेता सबसे पहले अपने घर या अपने स्वदेश के बारे में सोचता है। मैं जहां हूं वहीं बहुत खुश हूं।’ अमिताभ बच्चन वह शख्स हैं जिन्होंने अपने को ‘दुनिया का सबसे महान फिल्म सितारा’ मानने से इनकार कर दिया था। यह तमगा उन्हें 1999 में बीबीसी के ऑनलाइन सर्वे में दिया गया था, जब उन्हें लॉरेंस ओलिवर जैसे महान अभिनेताओं को पीछे छोड़ते हुए स्टार ऑफ द मिलेनियम चुना गया था। बच्चन यह सुनकर नाराज हो जाते हैं कि भारतीय सिनेमा को पश्चिमी दर्शकों की रुचियों के हिसाब से अपने को बदल लेना चाहिए। ‘अगर हमारी फिल्में किसी न किसी रूप में कम भारतीय होती हैं, तो यह बहुत दुखद होगा।’

लेकिन बदलाव तो आ रहे हैं, चाहे वे कितने ही बेतरतीब हों या कितने ही जबरदस्ती किए जा रहे हों। अगर आपको यह देखना हो कि ग्लोबलाइजेशन या भूमंडलीकरण किस तरह बॉलीवुड की फिल्मों को बदल रहा है, तो आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में बनी फिल्म काइट्स को देखिए। ऋतिक रोशन अभिनीत इस फिल्म का वितरण रिलायंस बिग पिक्चर्स ने किया था। इसके दो संस्करण बनाए गए थे। 130 मिनट लंबा एक हिंदी संस्करण था जिसमें तमाम नाच और गाने थे। इसका एक छोटा और कसा हुआ अंग्रेजी संस्करण भी था, जो सिर्फ 90 मिनट लंबा था। इसका नाम था काइट्स : द रीमिक्स और इसका संपादन किया था हॉलीवुड डायरेक्टर ब्रेट रैटनर ने। रैटनर ने पश्चिमी दर्शकों की रुचियों और संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए इसका संपादन किया था। इस छोटे अंग्रेजी संस्करण में उन्होंने मूल फिल्म के सारे नाच-गाने, उपकथाओं और बेकार के दृश्यों को निकाल दिया था।

काइट्स : द रीमिक्स परीक्षा में पास हुई। मई में इसे अमेरिकी सिनेमागृहों में प्रदर्शित किया गया और उस सप्ताह यह सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली टॉप टेन फिल्मों में शुमार हुई। ऐसा करने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। प्रमुख अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स फिल्म की इस कामयाबी से चकरा गया। उसने फिल्म के कसीदे काढ़ते हुए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो आम तौर पर वह नहीं करता है। मिसाल के लिए, उसने लिखा कि ऋतिक रोशन ‘स्मोकिंग बॉडी’ के स्वामी हैं। स्मोकिंग बॉडी का फिर चाहे जो अर्थ रहा हो(उत्तरा चौधरी,दैनिक भास्कर,19.12.2010)।

Tuesday, December 14, 2010

सिनेमा के परदे से घर के आंगन तक

नंदिता दास को फायर, हजार चौरासी की मां और अर्थ जैसी फिल्मों में उनके सशक्त और दमदार अभिनय के लिए जाना जाता है। कुछ समय पहले वे सीएफएसआई की अध्यक्ष चुनी गई थीं। उन्होंने प्रशंसित फिल्म फिराक का निर्देशन भी किया। इसके बाद उन्होंने व्यवसायी सुबोध मसकरा से विवाह कर लिया और हाल ही में वे मां बनी हैं। समय-समय पर मेरी नंदिता से मुलाकातें होती रहती हैं। हाल ही में उनसे हुई बातचीत में उन्होंने अपनी गैरपरंपरागत पृष्ठभूमि और फिल्मों के प्रति अपने लगाव के बारे में विस्तार से बताया।

नंदिता बताती हैं कि वे और उनका भाई पिता को कैनवास पर काम करते देख बड़े हुए हैं। उसी दरमियान उन्हें भी अपने रचनात्मक रूझानों का अहसास हुआ। उनके परिवार ने भी उन्हें अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता दी। उनके भाई ने ऋषि वैली में पढ़ने का फैसला लिया था और नंदिता भी मां सहित वहां उनके साथ गईं। ऋषि वैली के सुरम्य परिवेश का उनके मन पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिर यहां आएंगी। आखिरकार उनका यह सपना साकार हुआ।

नंदिता ने ऋषि वैली में छह माह बिताए और वे मानती हैं कि यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय था। हालांकि वे वहां शिक्षिका के रूप में गई थीं, लेकिन उन्होंने स्वयं श्लोक, भजन इत्यादि सीखने में भी काफी रुचि दिखाई। यहीं पर उन्होंने पेड़ों से बात करना, मौन होकर डूबते सूरज को निहारना भी सीखा। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने पाया कि अब औपचारिक शिक्षा में उनकी कोई रुचि नहीं थी। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद नंदिता एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ गईं, जो झुग्गीवासी महिलाओं के साथ काम करता था। यहीं उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि जीवन के विरोधाभास आदर्शो पर हावी हो जाते हैं। तकलीफों की तीखी सच्चई ये है कि हम चाहें कितना ही बुरा क्यों न महसूस करें, जीवन की गति कभी नहीं रुकती है। जीवन आगे बढ़ता रहता है।

सड़क पर होने वाले नुक्कड़ नाटकों में नंदिता की हमेशा से ही दिलचस्पी रही थी, इसलिए यह स्वाभाविक था कि वे रंगमंच की ओर आकृष्ट होतीं। नंदिता कहती हैं कि वे स्वयं को 50 एपिसोड वाले टीवी सीरियलों के लिए फिट नहीं पातीं, इसलिए उन्होंने कई ऑफर्स ठुकरा दिए। आखिर दीपा मेहता ने उन्हें फायर और गोविंद निहलानी ने हजार चौरासी की मां के लिए साइन कर लिया। नंदिता कहती हैं कि महाश्वेता देवी का उपन्यास हजार चौरासी की मां उन्हें बहुत प्रेरित करता था और इसीलिए वे इस फिल्म का हिस्सा होना चाहती थीं, अलबत्ता फिल्म में उनकी भूमिका एकआयामी थी।

नंदिता कहती हैं कि शबाना आजमी और जया बच्चन जैसी कद्दावर अभिनेत्रियों के साथ काम करना बहुत प्रेरणादायी अनुभव था। अर्थ में उन्होंने आमिर खान के साथ काम किया। वे कहती हैं आमिर के व्यक्तित्व में जो गंभीरता है, वही परदे पर उनके द्वारा निभाए जाने वाले पात्रों में झलकती है। आमिर बहुत प्रतिबद्ध अभिनेता हैं।

नंदिता स्वीकारती हैं कि जहां उन्होंने अच्छी फिल्मों में काम किया है, वहीं उन्होंने कुछ खराब कमर्शियल फिल्में भी की हैं। जब वे ऊब गईं तो उन्हें काम से ब्रेक लिया और फिर सीएफएसआई की अध्यक्ष बन गईं। फिर एक फिल्म का निर्देशन किया और पुरस्कार जीते। वे कहती हैं कि वे हमेशा जीवन के बहाव के साथ बहना पसंद करती हैं, फिर वह चाहे फिल्में हों, निर्देशन हो या विवाह। उन्हें मां बनकर संतोष का अनुभव हुआ है। नंदिता बताती हैं कि उन्होंने अपना जीवन अपनी ही शर्तो पर बिताया है और अब घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाकर भी वे काफी खुश हैं(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,12.12.2010)।

Sunday, December 12, 2010

साधारण लोगों के असाधारण नायकःओमपुरी

पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिंदी सिनेमा में कला फिल्मों का एक ऐसा दौर आया था जिसमें देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं को काफी गहराई में जाकर पर्दे पर दिखलाने की कोशिश की गई थी। कला फिल्मों ने आकर्षक चेहरे और आकर्षक शरीर वाले नायकों की जगह बिल्कुल आम आदमी की शक्ल-सूरत वाले अभिनेताओं को तरजीह देकर भी एक क्रांतिकारी काम किया था। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उसी दौर में उभर कर सामने आए थे और अपने वास्तविक अभिनय के बल पर कला फिल्मों की जान बन गए थे। व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेताओं जैसा भव्य रूप-सौंदर्य इन्हें भले ही न मिला हो, अभिनय के मामले में ये उन "सुदर्शन-पुरुषों" से बहुत आगे थे। और रूप-सौंदर्य में सबसे निचले पायदान पर खड़े ओमपुरी जैसे अभिनेता ने तो अभिनय के बल पर अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान तक बना ली थी।

अभाव और संघर्ष में बचपन और जवानी गुजारने वाले ओमपुरी के संघर्षों, सफलताओं, जीवन जीने के तरीकों आदि पर उनकी पत्नी नंदिता सी. पुरी ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद "असाधारण नायक : ओमपुरी" अब पाठकों के लिए उपलब्ध है। पत्नी होने के बावजूद नंदिता जी ने इस किताब में ओमपुरी की तारीफ में कसीदे नहीं पढ़े हैं बल्कि आश्चर्य की बात है कि नंदिता जी ने इतनी बेबाकी से यह किताब कैसे लिखी? इस किताब में कई ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें छुपाया जा सकता था मगर उन्होंने उन सबको उजागर करना ही जरूरी समझा। हालांकि वह ओम पुरी के उस आग्रह को मान लेती जिसके तहत उन्होंने अपने जीवन में आई स्त्रियों का नाम उजागर न करने की बात कही थी तो शायद बेहतर होता।

ओम पुरी ने बचपन से ही बहुत संघर्ष किया। पांच वर्ष की उम्र में ही वे रेल की पटरियों से कोयला बीनकर घर लाया करते थे। सात वर्ष की उम्र में वे चाय की दुकान पर गिलास धोने का काम करने लगे थे। सरकारी स्कूल से पढ़ाई कर कॉलेज पहुंचे। छोटी-मोटी नौकरियां तब भी करते रहे। कॉलेज में ही "यूथ फेस्टिवल" में नाटक में हिस्सा लेने के दौरान उनका परिचय पंजाबी थिएटर के पिता हरपाल तिवाना से हुआ और यहीं से उनको वह रास्ता मिला जो आगे चलकर उन्हें मंजिल तक पहुंचाने वाला था। पंजाब से निकलकर वे दिल्ली आए, एन.एस.डी. में भर्ती हुए। लेकिन अपनी कमजोर अंग्रेजी के कारण वहां से निकलने की सोचने लगे। तब इब्राहिम अल्काजी ने उनकी यह कुंठा दूर की और हिंदी में ही बात करने की सलाह दी। धीरे-धीरे अंग्रेजी भी सीखते रहे। हालांकि बकौल नंदिता पुरी अंग्रेजी फिल्मों में उनके काम करने के बावजूद अंग्रेजी बोलने का उनका पंजाबी ढंग अभी तक गया नहीं है। एन.एस.डी. के बाद "फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया" से एक्टिंग का कोर्स करने के बाद ओम मुंबई आए और धीरे-धीरे फिल्मों में स्थापित हुए। कला फिल्मों से टेलीविजन, व्यावसायिक फिल्मों और हॉलीवुड की फिल्मों तक का सफर तय करके उन्होंने सफलता का स्वाद भी चखा। उनकी इस सफलता के बारे में उनके मित्र अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने ठीक ही लिखा है- "ओमप्रकाश पुरी से ओम पुरी बनने तक की पूरी यात्रा जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं, एक दुबले-पतले चेहरे पर कई दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे के इरादों के साथ एक स्टोव, एक सॉसपैन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया।"

ओम पुरी की इस जीवनी का नामकरण करने में सुप्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल की भूमिका रही है। उन्होंने ओम को "असाधारण नायक" कहकर निश्चय ही कोई गलती नहीं की है। लेकिन इस असाधारण नायक की जीवनी पढ़कर लगता है कि वे अब भी साधारण व्यक्ति हैं- पत्नी पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले, बच्चे पर जान छिड़कने वाले, खर्च के बाद पैसे का जोड़-घटाव करने वाले, सोते समय भयानक खर्राटे लेने वाले...! नंदिता पुरी ने ओम के बारे में बताने को कुछ भी नहीं छोड़ा है। किशोरावस्था से लेकर विवाह तक उनके जीवन में आने वाली स्त्रियों के बारे में भी उन्होंने बड़े विस्तार में बताया है। बावजूद इन प्रसंगों के पाठकों के मन में ओमपुरी की कोई नकारात्मक छवि नहीं बनती। पुस्तक पाठकों को एक लय में पढ़ने को बाध्य कर सकती है(संजीव ठाकुर,नई दुनिया,दिल्ली,12.12.2010)।

Saturday, December 11, 2010

असफल फिल्मों के सफल फिल्मकार

आजकल प्रसिद्ध फिल्मकारों को उनकी असफल फिल्मों के लिए कोई दंड नहीं मिलता। असफलता पर उन्हें आर्थिक हानि भी नहीं उठानी पड़ती। एक लिहाज से इस समय उद्योग में असफलता रूपी अपराध के लिए दंड का विधान नहीं है। राज कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से इतना सीखा कि उसके बाद कोई असफल फिल्म नहीं बनाई, क्योंकि उन्होंने और उनके वितरकों ने अपना धन खोया था।

गुरुदत्त ने भी ‘कागज के फूल’ में अपना धन खोया था। बिमल राय वापस बंगाल जाना चाहते थे, तब ऋतविक घटक ने उनके लिए ‘मधुमती’ लिखी। देवानंद ने ‘नीचा नगर’ में अपना धन खोया। बोनी और अनिल कपूर ने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘प्रेम’ में अपना धन खोया। कारदार साहब को ‘दिल दिया दर्द लिया’ की असफलता के बाद अपना स्टूडियो बेचना पड़ा।

सोहराब मोदी को भी पत्नी मेहताब के साथ बनाई असफल फिल्म ‘झांसी की रानी’ के बाद अपना स्टूडियो और अनेक सिनेमाघर बेचने पड़े। विगत दशक में बड़े उद्योग घरानों के फिल्म निर्माण में आने के बाद घाटे की जवाबदारी उन्होंने ले ली और प्रसिद्ध फिल्मकारों को मुंहमांगा धन दिया। फिल्मकारों ने अनुमानित लाभ को अपना बजट बनाकर प्रस्तुत किया, अत: पहली बार कोई माल दो सौ प्रतिशत मुनाफे की लागत पर बनने के पहले बिका। ऐसे व्यावसायिक समीकरण में लाभ कैसे मिल सकता है?

संजय लीला भंसाली को ‘सावरिया’ और ‘गुजारिश’ में मोटा माल मिला है। उद्योग में चर्चा है कि ‘गुजारिश’ के लिए उन्हें पच्चीस करोड़ का मेहनताना प्राप्त हुआ है। इन्हीं सब नए तौर तरीकों के कारण कुणाल कोहली को ‘थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक’ या ‘ब्रेक के बाद’ के लिए मुनाफा मिला है। करण जौहर को ‘वी आर फैमिली’ और ‘कुरबान’ जैसी घोर असफलताओं के लिए भी धन प्राप्त हुआ है। राकेश रोशन को ‘काइट्स’ के लिए धन मिला है।

जिस तरह आज फिल्म उद्योग में कुछ लोगों को काम और दाम मिलता है, परंतु वे उत्तरदायित्व से मुक्त हैं, उसी तरह राजनीति और व्यवस्था में लोगों को असीमित लाभ और अधिकार बिना किसी दायित्व के मिले हैं। इसकी कीमत अवाम चुका रहा है। प्राइवेट सेक्टर में नतीजा नहीं देने पर नौकरी छिन जाती है।

भ्रष्ट मंत्री पर आम आदमी मुकदमा नहीं कायम कर पाता। नेता को कई बार अपराध करने के पांच साल बाद भी चुनाव द्वारा दंड नहीं मिल पाता। गधों को हलवा खाते देख भूखे अवाम में नैराश्य बढ़ रहा है। आम आदमी का भरोसा टूटा है। टोपी चाहे कोई भी हो, उसके नीचे हर माथे पर दाग है। जाएं तो जाएं कहां?

फिल्म की सफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता, परंतु कई गुना मुनाफा जोड़कर उसकी लागत बताना अनैतिक है। असली अपराध एक रुपए का माल दस रुपए में बनाना है। लागत, लाभ और मेहनताने में संतुलन होना चाहिए(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,10.12.2010)।

Sunday, November 28, 2010

15 बेस्ट कॉमेडी फिल्में

व्यंग्य हिंदी सिनेमा का मूल स्वर नहीं रहा है, इसीलिए हजारों फिल्मों लंबे इस सिनेमाई सफर में बेहतरीन कहे जा सकने लायक सटायर कम ही बने हैं। फिर भी,हिंदी सिनेमा ने समय-समय पर कई अच्छी कॉमिडी फिल्में दी हैं, जिन्हें आज भी देखा और पसंद किया जाता है। ऐसी ही टॉप 15 हिंदी कॉमिडी फिल्मों के बारे में बता रहे हैं मिहिर पंड्या :

कॉमिडी फिल्म की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। और जो फिल्म ऐसा कर पाती है, वह हमारा दिल जीत लेती है और क्लासिक का दर्जा पाती है। कोई भी चयन खुद में पूरा नहीं होता और ठीक इसी तरह यहां भी यह दावा नहीं है। जैसे आलोचक पवन झा मानते हैं कि किशोर और मधुबाला की 'हाफ टिकट' में दोनों की केमिस्ट्री और हास्य 'चलती का नाम गाड़ी' से भी आला दर्जे का है।

इसी तरह फिल्म क्रिटिक नम्रता जोशी का कहना है कि पंकज पाराशर की 'पीछा करो' एक बेहतरीन हास्य फिल्म थी, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए। पंकज आडवाणी की अब तक अनरिलीज्ड फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' को सिनेमा के कई चाहनेवाले कॉमिडी क्लासिक मानते हैं तो बहुतों का सोचना है कि कमल हासन की 'पुष्पक', 'मुम्बई एक्सप्रेस' और 'चाची 420' के जिक्र के बिना कॉमिडी फिल्मों का कोई भी चयन अधूरा है। फिर भी, तमाम संभावनाओं और सही प्रतिनिधित्व पर विचार के बाद टॉप 15 कॉमिडी फिल्में पेश हैं :

1. चलती का नाम गाड़ी (1958)
फेमस गाना : पांच रुपैया बारह आना...
' चलती का नाम गाड़ी' हिंदी सिनेमा की सबसे मशहूर तीन भाइयों की जोड़ी अशोक कुमार, किशोर कुमार और अनूप कुमार का धमाल है। गोल्डन फिफ्टी की यह फिल्म एक म्यूजिकल कॉमिडी है। फिल्म में संगीत दिया है एस. डी. बर्मन ने और बोल हैं मारूह सुल्तानपुरी के। शायद पहली बार गाने के बोलों में इस तरह के प्रयोग किए गए हैं, जिनसे बड़ा खूबसूरत हास्य पैदा होता है। दादा मुनि अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इस फिल्म के साथ बखूबी तोड़ा। मधुबाला और किशोर की बेजोड़ केमिस्ट्री और कॉमिक टाइमिंग से रची यह फिल्म हिंदी सिनेमा का सच्चा हीरा है।

2. पड़ोसन (1968)
फेमस गाना : ये क्या रे, घोड़ा चतुरा घोड़ा चतुरा...
दो हरफनमौला आमने-सामने। 'पड़ोसन' का असली मजा किशोर कुमार और महमूद की जुगलबंदी में है। धुरंधर गलेबाजों के रोल में किशोर और महमूद की खींचा-तानी 'एक चतुर नार...' और किशोर के गाए 'मेरे सामने वाली खिड़की में...' की मिठास भुलाना मुश्किल है। दरअसल गाने इस गोल्डन क्लासिक की यूएसपी हैं। इस मेलॉडी में पिरोए हास्य को आर. डी. बर्मन का शरारती संगीत आगे बढ़ाता है।

हिंदी सिनेमा के इतिहास में हुए सबसे ऊंचे कद के कॉमिडियन महमूद न सिर्फ इस फिल्म में अदाकारी कर रहे थे, बल्कि वे इस फिल्म के प्रड्यूसर भी थे। और गवैये किशोर की साइड किक बने तीन तिलंगों- बनारसी, लाहोरी और कलकतिये की भूमिका में रंग भरते मुकरी, राजकिशोर और केश्टो मुखजीर् की अदाकारी को आप कैसे भूल सकते हैं?

3. गोलमाल (1979)
फेमस डायलॉग : आपका भट्टी किदर है?
हिंदी सिनेमा में सबसे ज्यादा रिपीट वैल्यू ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की है और 'गोलमाल' उनमें सबसे ऊपर है। 'गोलमाल' भी ऋषि दा की फिल्मों की उसी कड़ी में है, जहां जहीन हास्य में पिरोकर कहानी जिंदगी से जुड़े किसी प्रगतिशील मूल्य को स्थापित करती है। व्यंग्य उस पुरानी पीढ़ी पर है, जो रूढि़यों और बासी परंपराओं का सांप निकल जाने के बाद भी लकीर पीट रही है।

कथा नायक अमोल पालेकर हैं, जिन्होंने इस भूमिका के लिए उस साल का 'बेस्ट ऐक्टर' फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था। यहां एक ऐसा डबल रोल है, जिसे पचाने के लिए आपको तर्क का सहारा नहीं छोड़ना पड़ता। फिल्म की जान हैं उत्पल दत्त, जो 'सेठ भवानी शंकर' बने हैं। उर्मिला ट्रेडर्स का यह मालिक मूंछों का जुनूनी शौकीन है।

बुआ जी के रोल में शुभा खोटे ने भी उत्पल दत्त का खूब साथ निभाया है। और सबसे खास है सिर्फ दो मिनट के एक स्पेशल अपीयरेंस में केश्टो मुखर्जी का आना और सेठ भवानी शंकर से पूछना, आपका भट्टी किदर है...? 'गोलमाल' हिंदी सिनेमा की वी. वी. एस. लक्ष्मण है, कभी धोखा नहीं देती।

4. चश्मे बद्दूर (1981)
मिस चमको...
सई परांजपे द्वारा निर्देशित फिल्म 'चश्मे बद्दूर' के एक दृश्य में नायक-नायिका तालकटोरा गार्डन में बने एक ओपन एयर रेस्तरां में बैठे हैं और वे वेटर से पूछते हैं, 'यहां अच्छा क्या है?' तो वेटर उन्हें जवाब में कहता है, 'जी यहां का माहौल बहुत अच्छा है!' 80 के दशक की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' की यही खासियत है, अपने समय और परिवेश में रचा-बसा हास्य। इसके कई संवादों में उस दौर की दिल्ली और उसकी कॉलेज लाइफ का कोई-न-कोई संदर्भ है।

कहानी है तीन बेरोजगार लड़कों की, जो दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए नौकरी और छोकरी दोनों की तलाश में हैं। फिल्म में राकेश बेदी और रवि वासवानी ने नायक के दोस्तों की भूमिका निभाई है और अपने दोस्त को 'कुएं' में ढकेलने में इनका बड़ा हाथ है। नायक-नायिका की भूमिका में फारूक शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है। इसके साथ ही सई परांजपे की 'कथा' भी देखी जानी चाहिए, जिसमें मुंबई की चॉल के जनजीवन का मजेदार स्केच मिलता है।

5. अंगूर (1982)
प्रीतम आन मिलो...
यह हिंदी सिनेमा में शेक्सपियर साहब का आगमन है और क्या खूब आगमन है! गुलजार ने शेक्सपियर के नाटक 'कॉमिडी ऑफ एरर्स' को उठाकर बखूबी हिंदुस्तानी लिबास पहना दिया है। जुड़वां भाइयों के दो जोड़ों की कहानी 'अंगूर' में नौकर और मालिक अशोक और बहादुर के दो जोड़े हैं, दोनों के दोनों संजीव कुमार और देवेन वर्मा।

एक दिन दोनों (अरे दोनों, नहीं चारों!) एक ही शहर में आ जाते हैं और उससे उस शहर की पूरी व्यवस्था उलट-पुलट हो जाती है। इस फिल्म का हास्य कादर खान मार्का कॉमिडी की तरह लाउड नहीं है। यहां सूक्ष्म हास्य है। संजीव कुमार और देवेन वर्मा जैसे मंझे हुए ऐक्टर अद्भुत तालमेल के साथ जैसे एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।

6. जाने भी दो यारो (1983)
शांत गदाधारी भीम, शांत...
हिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे बड़ी कल्ट क्लासिक। सुधीर मिश्रा और विधु विनोद चोपड़ा जैसे आज के फिल्म जगत के सम्मानित नाम इस फिल्म में सहायक थे और फिल्म में दोनों नायकों नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी के नाम 'सुधीर' और 'विनोद' इन्हीं पर रखे गए। एनएफडीसी की फिल्म थी और किस्सा मशहूर है कि पैसा इतना कम था कि कलाकारों ने अपनी निजी चीजों और कपड़ों तक को शूटिंग के दौरान इस्तेमाल किया।

फिल्म के नायक नसीर निर्माण के दौरान कहते थे कि कुंदन पागल हो गया है, न जाने क्या बना रहा है! शायद यह अपने दौर से बहुत आगे की फिल्म थी। इसका 'महाभारत' वाला क्लाइमैक्स तो 'न भूतो न भविष्यति' हास्य का पिटारा है। लेकिन 'जाने भी दो यारो' कोरी कॉमिडी नहीं थी, इसका हास्य स्याह रंग लिए था। आज भी यह फिल्म विकास की अंधी दौड़ में भागते 'लिबरल हिंदुस्तान' के लिए एक रियलिटी चेक सरीखी है। आज इसकी प्रासंगिकता सबसे ज्यादा है।

7. चमेली की शादी (1986)
हैं जी...
बासु चटर्जी को हम ऋषि दा की परंपरा में ही रख सकते हैं, जिन्होंने 70 और 80 के दशक में हिंदी सिनेमा को कई बेहतरीन और मौलिक हास्य फिल्में दीं। और पंकज कपूर... 'चमेली की शादी' में उन्होंने जैसे 'कल्लूमल कोयलेवाले' को साक्षात जीवित कर दिया है। बासु चटर्जी ने पहले भी 'छोटी-सी बात', 'हमारी बहू अलका' और 'खट्टा-मीठा' जैसी कई याद रखे जाने लायक फिल्में बनाई हैं।

कहानी है लंगोट के पक्के अखाड़ेबाज पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) और कल्लूमल की बेटी चमेली (अमृता सिंह) के बीच इश्कबाजी की। इनके इस धुआंधार इश्क के अकेले सिपहसालार हैं एडवोकेट भैया (अमजद खान) और उसका दुश्मन है सारा जमाना। लेकिन इस बीच चमेली और चरणदास हैं, जिनका प्यार रेडियो और उस पर बजते प्यार भरे हिंदी फिल्मी गीतों के साथ परवान चढ़ता है।

फिल्म के गाने और उनका फिल्मांकन भी बहुत ही हास्य से भरा है और फिल्म के सबसे यादगार प्रसंगों में दारूबाज मामा छद्दमी (अन्नू कपूर) की चमेली के हाथों झाड़ू से हुई ठुकाई याद रखी जा सकती है।

8. अंदाज अपना-अपना (1994)
तेजा मैं हूं, मार्क यहां है...
राजकुमार संतोषी की 'अंदाज अपना-अपना' एक क्रेजी राइड है। 'अमर' और 'प्रेम' की भूमिकाओं में आमिर और सलमान जेब से कड़के दो ऐसे नौजवान हैं, जिनका एक ही सपना है कि किसी करोड़पति लड़की से शादी कर वे भी करोड़पति बन जाएं। विदेश से आई रवीना और करिश्मा ऐसी ही दो लड़कियां हैं, जिनके पीछे ये दोनों हैं। लेकिन इस बीच डबल रोल में परेश रावल हैं- एक करोड़पति आसामी रामगोपाल बजाज और दूसरा खतरनाक उचक्का तेजा। और अमर किरदार 'क्राइम मास्टर गोगो' की भूमिका में शक्ति कपूर हैं, जो हर बनता काम बिगाड़ देते हैं।

फिल्म में महमूद, देवेन वर्मा और जगदीप जैसे लिजेंडरी हास्य कलाकारों ने भी मेहमान भूमिकाएं निभाई हैं।

9. हेराफेरी (2000)
मी बाबूराव गणपतराव आप्टे बोलतोए...
' हेराफेरी' प्रियदर्शन का ऐसा मास्टरस्ट्रोक थी, जिससे कमाई नाम और इज्जत वह आज तक भुना रहे हैं। इस एक मराठी किरदार 'बाबूराव आप्टे' की भूमिका से सिनेमा के क्षेत्र में परेश रावल का कद इतना ऊंचा उठा कि कॉमिडी में वह एक ब्रैंड बन गए और आगे चलकर फिल्में उनके नाम से बिकने लगीं। इसी फिल्म ने हमें नायक अक्षय कुमार की अद्भुत कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया।

एक रॉन्ग नंबर से शुरू हुई 'हेराफेरी' की कहानी में नौकरी के लिए घनश्याम (सुनील शेट्टी) से झगड़ती अनुराधा (तब्बू) और बहन की शादी करवाने गांव से आए खड़ग सिंह (ओम पुरी) के मजेदार ट्रैक भी थे। प्रियदर्शन की 'एक-दूसरे के पीछे भागते किरदारों' और बहुत सारे कंफ्यूजन से भरे क्लाइमैक्स से मिलकर बनती फिल्मों की शुरुआत यहीं से होती है। और एक क्लासिक 'हेराफेरी' के बाद यहां भी 'हंगामा', 'हलचल', 'गरम मसाला', 'भागमभाग', 'ढोल' और 'दे दना दन' जैसी औसत या खराब फिल्मों की लंबी कतार है।

10. खोसला का घोंसला (2006)
ओ खोसला साब, खुराना साब लव्स यू...
दिल्ली का मिडल क्लास नौकरीपेशा तबका मौजूद है यहां अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ। यह असल दिल्ली है - 'हाउ टू बी ए मिलेनियर' पढ़ता निठल्ला लड़का, खाने में बनते संजीव कपूर की रेसिपी वाले राजमा-चावल, खाने की मेज पर रखी ईनो और रूह-अफाजा की बोतल और सबसे ऊपर 'साउथ दिल्ली' वाला बनने की चाह।

निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मॉडर्न कल्ट क्लासिक कही जाती 'खोसला का घोंसला' जैसे हमारी ही जिंदगी से एक कतरन उधार लेकर बनाई गई है। चाहे वे ट्रैवल एजेंट कम ऑटो सर्विस वाले आसिफ इकबाल (विनय पाठक) हों और चाहे बात-बात पर गाली मुंह से निकालने वाले साहनी साहब (विनोद नागपाल) हों, ये सभी अपनी दिल्ली के खरे प्रतिनिधि किरदार हैं और 'बंटी' के किरदार में रणवीर शौरी की अदाकारी इस फिल्म की जान है।

उसके ऊपर जयदीप साहनी की पटकथा में ईमानदारी और नैतिकता को बचाए जाने की एक भोली मांग भी है, जो पूरी फिल्म में आपको असहज करती है। दिबाकर की यह फिल्म हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है।

फेमस फाइव किरदार
अब्दुल सत्तार: जॉनी वॉकर हमेशा गुरुदत्त की फिल्मों का एक जरूरी हिस्सा रहे। 'प्यासा' जैसी गंभीर फिल्म में भी उनका 'सर जो तेरा चकराए...' एक ठंडी हवा का झोंका है। इतनी मैलोडियस और मधुर चम्पी भला किसे न भाएगी!

सूरमा भोपाली: कहते हैं कि क्लासिक सिनेमा के साथ उसके किरदार भी अमर हो जाते हैं। 'शोले' के बड़बोले सूरमा भोपाली (जगदीप) और उनकी जय-वीरू से काल्पनिक भिड़ंत के किस्से अब हिंदी सिनेमा की लोककथाओं का हिस्सा हैं।

एडिटर मिस्टर गायतोंडे: 'मिस्टर इंडिया' के अन्नू कपूर और उनका फोन... कभी फोन पर कपड़े धुलवाने का ऑर्डर तो कभी भैंसों के अस्पताल से डॉक्टर भेजने की डिमांड। एडिटर साहब के फोन पर बाकी सारे फोन आते हैं, काम के फोन को छोड़कर!

सर्किट: कभी 'भाई', सर्किट को उसके असल नाम सर्केश्वर से बुलाएं तो सुनकर सच में 440 वॉल्ट का झटका लगता है, क्योंकि मुन्नाभाई सीरीज के अरशद वारसी को हम 'सर्किट' नाम से ही जानते और पसंद करते हैं। भाई के सच्चे वफादार। उनके कहने पर जान दे भी सकते हैं और ले भी सकते हैं!

चतुर रामालिंगम: एक बिल्कुल नया लड़का सही वक्त पर, सही जगह, सही रोल में कास्ट किया गया। ओमी वैद्य का निभाया 'साइलेंसर' का किरदार 'थ्री इडियट्स' के सबसे पसंद किए गए हिस्सों में से है। उनके 'चमत्कार-बलात्कार' वाले सीन को तो साल का सबसे ज्यादा याद रहनेवाला सीन कहा जा सकता है।

चाची 420 (1997)
मैं विंडो से भी शादी करने को तैयार हूं...
' चाची 420' के नायक-निर्देशक कमल हासन थे। कमल हासन हमारे दौर के सबसे प्रयोगधर्मी निर्देशक हैं और सबसे ऊंचे कद के ऐक्टर भी। उन्होंने रोल की मांग के अनुसार अपने शरीर के साथ क्या-क्या नहीं किया है? फिल्म भले ही अमेरिकी फिल्म 'मिसेस डाउटफायर' से प्रेरित हो, 'लक्ष्मी चाची' की भूमिका में कमल हासन एकदम ऑरिजिनल हैं। वह सिर्फ मेकअप कर महिला नहीं बने हैं, उन्होंने महिलाओं की पूरी बॉडी लैंग्वेज को जैसे अपना लिया है।

गुलजार की पुरानी फिल्म 'अंगूर' की तरह ही 'चाची 420' में भी सूक्ष्म हास्य मिलता है, जो फिल्म की रिपीट वैल्यू बहुत बढ़ा देता है। गुलजार 'चाची 420' के साथ भी जुड़े हैं। उनके लिखे डायलॉग गजब हैं और विशाल भारद्वाज के संगीत से सजे गीत ऐसे, जैसे बच्चों की भोली कविताएं- चाची के पास मुश्किलों की सारी चाबियां हैं, सोसायटी में जानती हैं, क्या खराबियां हैं। चाची के पास हल है, चाची तो बीरबल है... फिल्म में ओम पुरी भी हैं और परेश रावल भी।

हर बार की तरह आपकी हर मांग पर खरे उतरते और अपनी जिंदगी की शायद आखिरी फिल्मी भूमिका में लिजेंडरी कॉमिडियन जॉनी वॉकर हैं.. कहते हुए, मुझे ये जूता खाने दो, खाने दो ये जूता!

चुपके-चुपके (1975)
' घास-फूस' का डॉक्टर! अरे कम-से-कम 'फूल-पत्ती' तो बोलो...
साल था 1975, धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की 'जिगरी दोस्त' वाली भूमिका की दो फिल्में साथ-साथ रिलीज हुईं। मिजाज में दो बिल्कुल अलग फिल्में और दोनों ही कल्ट क्लासिक बनीं। एक थी 'शोले' और दूसरी थी 'चुपके-चुपके'। ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में धर्मेंद्र 'डॉ. परिमल त्रिपाठी' बने हैं, जो अपनी पत्नी सुलेखा (शर्मीला टैगोर) के जीजाजी बने 'राघव भैया' (ओमप्रकाश) को चकमा देने के लिए उनके घर 'ड्राइवर प्यारे मोहन' बनकर आ जाते हैं।

फिल्म में अपनी शुद्ध हिंदी के साथ प्यारे मोहन राघव भैया को खूब खिजाते हैं और दर्शकों को खूब हंसाते हैं। बड़े फलक पर देखें तो यह दरअसल उस शुचितावादी सोच पर व्यंग्य है, जो बहती नीर-सी भाषा को भी शुद्धता के तराजू पर तोलती है। फिल्म की शूटिंग के दौरान जया बच्चन मां बनने वाली थीं और कैमरे पर यह पता न चले, इसका फिल्मांकन के दौरान खास ख्याल रखा गया था। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी का गाया डुएट 'सा रे गा मा...' जिसे अमिताभ और धर्मेंद्र यानी 'जय-वीरू' पर फिल्माया गया बड़ा पक्का जोड़ीदारों वाला गाना है। 'चुपके-चुपके' ऋषिदा के सुनहरे दौर की पैदाइश है और आज भी अपनी आभा बिखेर रही है।

कुली नंबर वन (1995)
अरे नंबर वन, दिखा दे अपना जलवा...
गोविंदा 90 के बाद के 'एनआरआई छाप' हिंदी सिनेमा में देसी भांग की तरह हैं। यह कादर खान के लिखे द्विअर्थी संवादों से बनी फूहड़ लेकिन लोकप्रिय हास्य फिल्मों की परंपरा है, जिसने 90 के दशक में खूब लोकप्रियता पाई। यही धारा है, जो गोविंदा से होती हुई भोजपुरी सिनेमा तक आई है। निर्देशक डेविड धवन की 'कुली नं. वन' कादर खान मार्का कॉमिडी की प्रतिनिधि फिल्म है, जिसे मिलाकर ही हिंदी की कॉमिडी फिल्मों का फलक पूरा होता है।

नायक राजू जो पेशे से कुली है, खुद को करोड़पति बताकर गांव के एक अमीर चौधरी होशियारचंद की लड़की से शादी कर लेता है। आगे तमाम परिस्थितियां जितनी गड़बड़ हो सकती हैं, होती हैं और उसके ऊपर शक्ति कपूर हैं। यहीं से गोविंदा की 'नंबर वन' सीरीज की भी शुरुआत होती है, जिसमें आगे 'हीरो नंबर वन', 'आंटी नंबर वन', 'बेटी नंबर वन' और 'अनाड़ी नंबर वन' जैसी फिल्में आती हैं।

छोटी-सी बात (1975)
चिकन आलाफूज...
बासु चटर्जी की 'छोटी-सी बात' बड़ी मासूम-सी कॉमिडी फिल्म है। किसी रविवार की शाम घर में रहकर बेहतर सनडे मनाने का बेस्ट जरिया। कहानी है अरुण (अमोल पालेकर) की, जो प्यार तो प्रभा (विद्या सिन्हा) से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता। फिर उसकी जिंदगी में 'कर्नल जुलियस नगेंदनाथ विल्फ्रेड सिंह' (अशोक कुमार) आते हैं। कर्नल साहब प्रफेशनल आदमी हैं। वह उसे अपने प्यार को पाने के तमाम नुस्खे सिखाते हैं।

फिल्म में 'कबाब में हड्डी' के रोल में असरानी साहब हैं। फिल्म के संवाद हिंदी के जाने-माने व्यंग्यकार शरद जोशी की कलम से निकले हैं। कई वाकये जैसे मोटरसाइकल का किस्सा या जहांगीर आर्ट गैलरी के पास लंच वाला किस्सा लाजवाब हैं।

लगे रहो मुन्नाभाई (2006)
केमिकल लोचा...
मुन्नाभाई सीरीज की फिल्में हमारे दशक की सबसे कामयाब और खूबसूरत फिल्में हैं। 'लगे रहो मुन्नाभाई' कॉमिडी और इमोशन का ऐसा मेल है, जो हिंदुस्तानी पब्लिक को हमेशा से भाता है। राजू हिरानी को बिल्कुल एक डॉक्टर की तरह हमारी नब्ज की सही पकड़ है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' में एक इमोशनल भाई मुन्ना (संजय दत्त) है और उसके कई गुगेर् हैं, जो गुंडे कम और सरकारी स्कूल के चौकीदार यादा लगते हैं।

नायिका को पाने की चाह में वह गांधीजी की शरण में जाता है और फिर होता है 'केमिकल लोचा'! एक मौलिक कहानी और अच्छी पटकथा के साथ 'लगे रहो मुन्नाभाई' में कई प्रासंगिक संदेश भी हैं, जो आपको कदम-कदम पर काम आएंगे।

टॉप टेन डायलॉग
- तुम अपुन को दस-दस मारा। अपुन तुमको सिरिफ दो मारा, पन सॉलिड मारा कि नहीं! (अमर अकबर एंथोनी)

- एईसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलिंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो। (अमर अकबर एंथोनी)

- आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश, बिकॉज इंग्लिश इज वेरी फन्नी लैंग्वेज। (नमक हलाल)

- मौसी लड़का तो हीरा है हीरा, मगर... (शोले)

- ओ मेरे हमदर्द पिंटो, मुझे बचाओ। (जाने भी दो यारो)

- भैया, तुम तो एक बार संस्कृत में गड्ढा खा गए थे ना! (खूबसूरत)

- अंग्रेजी बहुत ही अवैज्ञानिक भाषा है साहेब। सी यू टी कट है तो पी यू टी पुट... डीओ डू, टीओ टू, लेकिन जी ओ गो हो जाता है। आप ही बताइए मेमसाहब कि जीओ गू क्यों नहीं होता? (चुपके-चुपके)

- मेरे दोस्त बीडि़यों पर उतर आए हैं! (चश्मेबद्दूर)

- दो चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू (ओम शांति ओम)

- मन तो करता है, उसके अंदर घुसकर फट जाऊं (तेरे बिन लादेन)
(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,28.11.2010)