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Saturday, July 31, 2010

फिजाओं में गूँज रही है पंडित रफी की आवाज

जिस तरह की जीवनशैली हम जी रहे हैं और उसमें जैसी बेसब्री, भागमभाग और कामयाबियों की लोलुपता नजर आ रही है उसे देखकर तो नहीं लगता कि कोई एक शख्स इस दुनिया से रुखसत होने के तीस बरस बाद भी जमाने की यादों में बसा रह सकता है। ऐसा यदि है तो मानना होगा कि कुछ तो करिश्मा है उस इंसान के नाम और काम का जिससे वह सिर्फ और सिर्फ आवाज के बूते पर हमारे बीच मौजूद है।

३१ जुलाई को यदि किसी पाक रूह की बात चल रही हो तो अमूमन लोग समझ जाते हैं कि इशारा मोहम्मद रफी की तरफ है। आज इस बात को दोहराना नहीं चाहता कि रफी साहब की पहली फिल्म कौन सी थी, उन्होंने कितने नगमों को स्वर दिया और कैसे वे सहगल का आशीर्वाद पाकर मुंबई पहुँचे और किस तरह का स्ट्रगल उन्होंने किया। ये सारी बातें तकरीबन हर रफी प्रेमी को मालूम है और उतनी ही मालूम है जितनी उनके परिजनों और मित्रों को मालूम होगी। ये रफी-प्रेमी भी ऐसे जिन्होंने रफी को देखा भी नहीं और सिर्फ उस आवाज के पारस-स्पर्श की अनुभूति दामन थाम कर उनके मुरीद बने रहे।

आज जरा यह तलाश लिया जाए या दोहरा लिया जाए कि तीस बरस बाद जुबान,पहनावा, लहजा और परिवेश बदल जाने के बाद भी रफी का जादू जस का तस क्यों बना हुआ है। दरअसल पहला कारण तो है लाजवाब संगीतकारों की धुनों के वे कारनामे जो अब दस्तावेज बन गए हैं। फेहरिस्त लंबी हो जाएगी इसलिए नहीं लिखना चाहता, लेकिन इशारा भर कर देता हूँ कि हुस्नलाल भगतराम, नौशाद, रोशन, एसडी बर्मन से लेकर मदनमोहन, आरडी बर्मन और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल तक रफी साहब ने हमेशा एक विनम्र विद्यार्थी की तरह अपने संगीतकारों को उस्ताद जैसा मान दिया। जैसा बताया गया वैसा गाया और निभाया। उनकी गायन यात्रा में ही कई साजिंदे अपनी मेहनत और रचनाशीलता के बूते पर संगीतकार बनकर स्थापित हुए, लेकिन रफी साहब ने हमेशा संगीतकार नाम की संस्था को भरपूर इज्जत बख्शी और उनकी कम्पोजिशन्स पर ईमानदार परिश्रम किया।

दूसरी बात; मोहम्मद रफी कम पढ़े-लिखे जरूर थे लेकिन उन्हें कविता-शायरी की अद्भुत समझ थी। उनकी कोई भी फिल्मी, गैर फिल्मी या भाषाई रचना सुन लीजिए। आप महसूस करेंगे कि शब्द कुछ ऐसी शफ्फाक सफाई से झर रहे हैं कि शायद इन शब्दों का अल्टीमेट तलफ्फुज बस यही हो सकता है। हम सब जानते हैं रफी साहब जिस विधा के गायक थे वह शब्द-प्रधान गायकी है। वैसे यह काम इतना आसान नहीं जितना रफी गीतों में सुनाई देता है। यह इसलिए कि गीत के शब्द को संगीतकार अपनी सोच की सुरभि देता है और गमक, हरकत और मुरकी से उसे सजाता है। शब्द का आलोक भी बना रहे और धुन भी जगमगाए यह सुगम संगीत की पहली जरूरत होती है। रफी साहब यहाँ भी विलक्षण हैं। शब्द के वजन को अपने कंठ की कमानी पर तानते हुए वे कब एक प्लेबैक सिंगर से स्वर-गंधर्व बन जाते हैं मालूम ही नहीं पड़ता। देवास के मरहूम उस्ताद रज्जबअली खाँ साहब शास्त्रीय संगीत के दुर्वासा, परशुराम या विश्वामित्र थे। उनकी तेज तबीयत का सभी को अंदाज था। वे कभी सिनेमाघर में फिल्म देखने नहीं गए लेकिन जिन दिनों हातिमताई फिल्म का गीत परवरदिगारे आलम तेरा ही है सहारा गली-गली गूँज रहा था तब वे सिर्फ इस गीत के लिए सिनेमाघर पहुँचे और पूरे गीत के दौरान जार-जार रोते रहे। यह एक वाकया रफी साहब की आवाज की कैफियत का पता देने और पाए को साबित करने के लिए काफी है।

आखिरी में सबसे अहम बात, अच्छा गायक होने के पहले रफी साहब एक आलादर्जा इंसान थे। उनकी जिंदगी में कभी कोई विवादास्पद वाकया सुनने में नहीं आया। हमेशा उनकी नेकी, विनम्रता और सरलता के चर्चे चले जो आज तक जारी हैं। गाने-बजाने वालों की दुनिया में लफड़ों की कमी नहीं लेकिन रफी साहब हमेशा फिल्मी चक्करों से परे रहे।

रफी साहब की बरसी पर छोटे मुँह बड़ी बात कहने की जुर्रत कर रहा हूँ; क्षमा करें, तमाम गाने-बजाने वालों की बिरादरी के नुमाइंदो से कहना चाहता हूँ कि रफी के गले जैसी उस्तादी ईश्वर प्रदत्त होती है लेकिन शराफत के आदाब हमें खुद सीखने होते हैं। रफी के गीतों को फॉलो करने के पहले हमें उनके व्यक्तित्व की शुचिता और पवित्रता का अनुसरण शुरू करना होगा। गुलूकारी के कायदे तो रियाज से भी आ जाएँगे।

वक्त बेरहमी और बेशर्मी से बेसुरापन परोस रहा है। आसरा है तो मो. रफी और उनके समकालीन दीगर गायकों के गाए गीतों का। स्वर का ये बेजोड़ कारीगर हमारे बीच सरगम की कशीदाकारी करने आया था, अपना काम किया और चल दिया। सूफी, दरवेश और फकीर तबीयत वाले मोहम्मद रफी ने जिस धुन को स्वर दिया वह अमर हो गई; जिस कविता/शायरी को अपने कंठ के भीतर उतारा वह कालजयी हो गई। यह रफी का ही तो करिश्मा है जो किसी मुसलमान को अपने भजन से पिघला सकता है और किसी हिन्दू को नातिया-कलाम से रुला सकता है। अल्लाह तेरा अहसान कि पंडित मोहम्मद रफी को हमारे बीच भेजकर हमारे कान को सुरीलेपन का आचमन करवाया वरना हम संसारी कैसे जानते कि स्वर की पाकीजगी किस बला का नाम है(संजय पटेल,नई दुनिया,इन्दौर,31.7.2010)।

...और खोद दी गईं रफी, नौशाद व मधुबाला की कब्रें

तेजी से बढ़ती आबादी और आवास की विकराल समस्या के मद्देनजर मुंबई के जुहू स्थित एक कब्रिस्तान की जगह पर इमारत बनाने का फैसला कि या गया और इसके लिए खोदी गई कब्रों में एक कब्र महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की भी थी। मुंबई के इंटीरियर डिजाइनर रूपेश ने बताया, ‘मुंबई में आवास की विकराल समस्या है। इसीलिए जूहू स्थित कब्रिस्तान की जगह पर एक इमारत बनाने का फैसला किया गया। इसके लिए वहां कब्रें खोदी गईं जिनमें रफी, नौशाद, मधुबाला आदि की कब्रें भी थीं।’ इस इमारत की अंदरूनी सज्जा के लिए आवेदन करने वालों में रू पेश भी थे लेकिन यह काम उन्हें नहीं मिला। लोग उनकी कब्र की जगह नहीं भूले हैं। रफी फैन क्लब चलाने वाले बीनू नायर कहते हैं, ‘अब हम रफी की कब्र के समीप खड़े नारियल के एक पेड़ के समीप एकत्र होकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।’ 31 जुलाई 1980 को दिल का दौरा पड़ने से इस दुनिया को विदा कहने वाले रफी ने हिन्दी फिल्मों के लगभग हर बड़े सितारे को अपनी आवाज दी थी। उन्हें 1965 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था(हिंदुस्तान,दिल्ली,31.7.2010)।

इसी विषय पर दैनिक जागरण की रिपोर्ट कहती है कि 24 दिसंबर 1924 को जन्मे रफी ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद वाहिद खान, पंडित जीवनलाल मट्टू और फिरोज निजामी से शास्त्रीय संगीत सीखा। मंच पर रफी ने पहली प्रस्तुति 13 साल की उम्र में दी। पंजाबी फिल्म गुल बलूच (1941) के लिए उन्होंने पहली बार पा‌र्श्वगायन किया। उसी साल आकाशवाणी लाहौर ने उन्हें अपने लिए गाने का न्योता दिया। लाहौर से 1944 में रफी मुंबई आए और नौशाद के साथ गायन और दोस्ती का अटूट रिश्ता शुरू हुआ। इस जोड़ी ने 149 गीत दिए। इनमें 81 सोलो गीत रफी के थे। 1950- 60 तक रफी ओपी नैयर, शंकर जयकिशन और एस.डी. बर्मन जैसे संगीतकारों के पसंदीदा गायक बने रहे। 1948 में रफी ने राजेंदर कृष्ण का लिखा गीत सुनो सुनो ए दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी गाया। यह गीत सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने रफी को आमंत्रित किया।

Friday, July 30, 2010

फिर बदला जॉन की फ़िल्म का नाम

आमिर खान के भांजे इमरान खान की पहली अभिनीत फिल्म ‘जाने तू या जाने ना’ से प्रसिद्ध हुए थे उसके निर्देशक अब्बास टायरवाला। इस बात को पूरे दो साल बीत गये लेकिन तब से अब्बास टायरवाला केवल एक ही फिल्म बनाने मे जुटे हुए है। जॉन अब्राहम को लीड रोल मे लेकर बन रही इस फिल्म का सबसे पहला नाम ‘1800 लव’ रखा गया था। बाद मे यह नाम बदल कर ‘कॉल मी दिल’ कर दिया गया। संभवत: दोनो ही अटपटे नाम किसी को जंचे नही इसलिए अब इस फिल्म का नाम शुद्ध हिंदी मे ‘झूठा ही सही’ रखा गया है। यह एक पारंपरिक नाम है। पांच साल पहले तक ऐसे ही नाम रखे जाते थे। अंग्रेजी नाम रखने का चलन पिछले पांच साल से ही उभरा है। फिल्म के इतने लंबे समय से बनने के कारण बीच मे बॉलीवुड मे यह अफवाह फैल गई थी कि अब्बास और जॉन के बीच जबर्दस्त अनबन हो गई है। इसलिए जॉन अब्बास को शूटिंग के लिए लटका रहे है। ये अफवाहे इतनी जबर्दस्त थी कि इनका खंडन करने के लिए अब्बास ने एक मौलिक विचार अपनाया। पिछले दिनो वह अपना बोरियाबि स्तर लेकर जॉन अब्राहम के बांद्रा बड स्टड स्थित नए घर मे रहने चले गए ताकि लोगो को यकीन आ जाए कि दोनो के बीच कोई तकरार नही है। इस संदर्भ मे जॉन अब्राहम ने भी मीडिया को बताया था, ‘अब्बास बेहद संवेदनशील निर्देशक है। वह हम दोनो के बीच हुई अनबन की खबरो से बहुत विचलित हुए है। इसलिए जब उन्होने यह प्रस्ताव रखा कि वह कुछ दिनो के लिए मेरे घर मे रहना चाहते है तो म बहुत खुश हुआ कि एक बेहद प्यारा दोस्त मेरे आस पास रहेगा’ अब अब्बास की यह फिल्म लगभग पूरी हो चुकी है और वह फिर से अपने घर लौट गए है। फिल्म मे जॉन के अपोजिट अब्बास की पत्‍नी पाखी काम कर रही है। इन दोनो के अलावा अब्बास ने इस फिल्म मे सोहेल खान, अरबाज खान और नसीरुद्दीन शाह से भी काम लिया है। बाद मे इस फिल्म से चर्चित एक्टर माधवन को भी जोड़ा गया। माधवन इस फिल्म मे पाखी के भूतपूर्व

ब्वायेड के किरदार मे है। माधवन द्वारा छले जाने से आहत पाखी आत्महत्या करना चाहती है लेकिन तभी उनके जीवन मे जॉन अब्राहम का प्रवेश होता है। कुछ समय पूर्व अपने हिस्से की शूटिंग माधवन लंदन मे निपटा चुके है। उम्मीद है कि जॉन की यह फिल्म नए साल के आरंभ मे रिलीज हो जाएगी। फिलहाल तो जॉन की नजरे अपनी लंबे समय से अटकी फिल्म ‘आशाएं’ पर लगी है। नागेश कुकनूर निर्देशित फिल्म ‘आशाएं’ मे जॉन के अपोजिट सोनल सहगल काम कर रही है। ‘आशाएं’ 27 अगस्त को रिलीज होगी(राष्ट्रीय सहारा,30.7.2010)।

Thursday, July 29, 2010

अलग अंदाज़ में टीवी पर दिखेंगी प्रियंका

'फैशन' और 'दोस्ताना' जैसी फिल्मों में अपनी छरहरी काया दिखाने के बाद अब बॉलीवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा कलर्स पर प्रसारित होने वाले रोमांचक रिएलिटी शो 'फीयर फैक्टर-खतरों के खिलाड़ी-3' में नए अंदाज़ में नज़र आएंगी।

इस 28 वर्षीया अभिनेत्री ने इस धारावाहिक के लिए जारी पहले प्रोमो में चौड़े बेल्ट वाली जींस के साथ-साथ घुटनों तक लंबाई वाले बूट, पीले रंग का टॉप, काले रंग का चमड़े का जैकेट और दस्ताने पहन रखे हैं।

प्रियंका को यह बदला हुआ अंदाज़ दिया है बॉलीवुड की फैशन डिज़ायनर अनीता श्रौफ अदाजानिया ने। इससे पहले वह 'धूम' और 'रेस' जैसी फिल्मों में कलाकारों को नए लुक दे चुकी हैं।

प्रियंका ने हाल में धारावाहिक के प्रोमो की शूटिंग के लिए बैंकॉक का दौरा किया था। दर्शकों को उनकी नई वेशभूषा की पहली छवि अगले सप्ताह टेलीविज़न पर देखने को मिलेगी।

इस प्रोमो में प्रियंका को पुरुष बाइकर्स के साथ रेस में हिस्सा लेते दिखाया गया है। धारावाहिक 'फीयर फैक्टर-खतरों के खिलाड़ी-3' के पहले दो संस्करणों को अभिनेता अक्षय कुमार ने पेश किया था(हिंदुस्तान,29.7.2010)।

राज ठाकरे पर बनी फिल्म पर चलेगी कैंची

वास्तविक और ज्वलंतशील मुद्दों पर फिल्म बनाने के लिए प्रसिद्ध महेश पांडे की नई फिल्म आने से पहले विवादों के साए में हैं। मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीय पांडे ने मराठी मानुष के मुद्दे पर फिल्म बनाई है जो एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे के इर्द-गिर्द घूमती है।

हालांकि रिलीज से पहले सेंसर बोर्ड ने उन्हें फिल्म में बड़ी कांट-छांट करने के लिए कहा है। पांडे की आने वाली फिल्म ‘332: मुंबई टु इंडिया’ के कुछ किरदार और दृश्य सेंसर बोर्ड को विवादित लग रहे हैं। बोर्ड का कहना है कि वह परदे पर मराठी और उत्तर भारतीय हिंसा के प्रदर्शन की अनुमति नहीं दे सकता।

वहीं फिल्म में सोनिया गांधी को विदेशी मूल की महिला कहे जाने पर भी बोर्ड ने आपत्ति ली है। इसमें सचिन तेंडुलकर को एक आदर्श के रूप में दिखाया गया है जो झारखंड के महेंद्रसिंह धोनी की कप्तानी में खेलते हैं, लेकिन बोर्ड के अनुसार कुछ लोग इसका गलत अर्थ निकाल सकते हैं। लिहाजा इसे भी फिल्म से हटवाया जाए, साथ ही 2008 में पटना के युवा राहुल राज की हत्या भी इस फिल्म का अहम भाग है।

राहुल एमएनएस नेता राज ठाकरे की हत्या करने के इरादे से मुंबई आया था। एक यात्री बस को हाईजैक करने के बाद पुलिस ने उसे मार गिराया था। पांडे का कहना है कि उन्होंने राहुल का जिक्र इसलिए किया है ताकि अलग-अलग लोगों के जीवन पर इस घटना के प्रभाव को पेश किया जा सके, लेकिन सेंसर बोर्ड इसके लिए तैयार नहीं है। माना जा रहा है कि पांडे बिहार चुनाव के दौरान इसे रिलीज करेंगे(दैनिक भास्कर,मुंबई,28.7.2010)।

वन्स अपॉन ... की मुंबई रिलीज को ग्रीन सिग्नल

बंबई हाई कोर्ट ने फिल्म 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' के प्रदर्शन को ग्रीन सिग्नल दे दिया है। बालाजी टेलिफिल्म्स ने इस बात पर सहमति जताई है कि वह एक वक्तव्य जारी करेगी, जिसमें इस बात का खंडन किया जाएगा कि फिल्म कथित तस्कर हाजी मस्तान के जीवन पर आधारित है।

अदालत का यह फैसला मस्तान के दत्तक पुत्र सुंदर शेखर उर्फ सुलेमान मिर्जा की याचिका पर आया जिसमें 30 जुलाई से इस फिल्म को प्रदर्शित करने पर रोक लगाने की मांग की गई थी।

मिर्जा ने प्रदर्शन से पहले फिल्म को देखने की मांग की थी, ताकि वह यह पता लगा सकें कि उसमें कहीं कुछ अपमानजनक तो नहीं है।

बालाजी टेलिफिल्म्स की ओर से गुरुवार को जारी होने वाले मीडिया वक्तव्य में इस बात का जिक्र रहेगा कि निर्माताओं ने कभी भी किसी के भी समक्ष यह जाहिर नहीं किया कि फिल्म हाजी मस्तान मिर्जा के जीवन पर आधारित है। यह विशुद्ध रूप से काल्पनिक है और इसमें नजर आने वाले किरदार भी काल्पनिक हैं।

सत्र अदालत ने पहले यह निर्देश दिए थे कि फिल्म में खंडन वक्तव्य शामिल किया जाए जिसमें यह कहा गया हो कि फिल्म मस्तान के जीवन पर आधारित नहीं है। मिलन लुथरिया के निर्देशन वाली 'वन्स अपॉन.. ' में अजय देवगन, इमरान हाशमी, कंगना राणावत और प्राची देसाई हैं।

Wednesday, July 28, 2010

बेज़ुबान हो रही हैं टॉकीज

बेजुबान हो रही हैं टॉकीज। पान की पीक, फटी कुर्सियां और जालों में टंगी यादें। सन्नाटे के शोर में डूबी टॉकीज पर प्रवीण कुमार डोगरा की रिपोर्ट..

1500 सीटिंग कपैसिटी, 70 एमएम की स्क्रीन, 17 लोगों का स्टाफ । शो चल रहा है और एसी भी। मगर यहां फिल्म देखने बैठे हैं सिर्फ तीन लोग। जी हां, सिर्फ तीन। यही है कहानी शहर में खामोश होती टॉकीज की। एक्शन,रोमैंस और मारधाड़ की डोज के बीच बेदम हो रहे हैं सिंगल स्क्रीन थिएटर।

मालिक घाटे से परेशान हो सोच रहे हैं टॉकीज को मल्टीप्लेक्स, बैंक्वेट हॉल, फूड जोन या फिर मॉल में बदलने की । सालों से कोशिश कर रहे हैं बदलाव की मगर नहीं हो रहे हैं नक्शे पास। कब तक चलाते रहेंगे तीन लोगों के लिए शो?

नाम है भोला वर्मा। यूपी के सुल्तानपुरी के रहने वाले हैं और सेक्टर-32 में निर्माण सिनेमा के सामने चाय की दुकान लगाते हैं। पूछने पर बताते हैं ‘करीब 4 हजार कमा लेता हूं। पहले इसी निर्माण सिनेमा की कैंटीन में काम करता था और इससे ज्यादा कमाता था। यह बात 1995 की है और तब मैं टिकट ब्लैक कर लेता था क्योंकि यहां इतनी भीड़ होती थी कि पूछिए मत, संभालना मुश्किल होता था।

‘6 अगस्त 1993 को जब फिल्म खलनायक यहां रिलीज हुई थी तो भीड़ के सारे रिकॉर्ड टूटे थे और आज देख लो क्या हाल हो गया है। मुश्किल से 10 लोग भी एक फिल्म के लिए नहीं आते हैं।’ भोला सिंह का यह एक्सपीरियंस बयां करता है इन टॉकीज के खामोश होने की कहानी। जो सिर्फ निर्माण सिनेमा की कहानी नहीं बल्कि बत्रा, पंचकूला के सूरज और कुछ हद तक मोहाली के बस्सी सिनेमा की भी है।

तीन लोगों के लिए शो

करोड़ों की लागत से तैयार एक सिनेमा हॉल, जहां एक टाइम पर टिकटों के लिए मारामारी रहती थी, जहां टिकट ब्लैक में बेचकर कईयों के घर चलते थे, जहां करीब 50 लोगों का स्टाफ होता था और वह भी कम पड़ जाता था। जहां फिल्मों के प्रीमियर शो चलते थे और फिल्म स्टार्स इनमें शिरकत करते थे। टॉकीज के चारों ओर लोगों का मेला लगता था। मगर वहीं आज एक शो के लिए कभी-कभी तीन लोग ही पहुंचते हैं, स्टाफ घट कर 17 रह गया है और मालिक यह कहता है कि इसे और कम करो।

ब्लैक टिकट करके अपना घर चलाने वाले अब दूसरे ऑप्शन तलाश चुके हैं। इस दौर से गुजर रहे हैं ट्राईसिटी के टॉकीज। पंचकूला के सूरज सिनेमा में मैनेजर रामपाल शर्मा कहते हैं,‘ हम तो कभी-कभी एक बंदे के लिए भी शो चला देते हैं, मालिक ने सख्त हिदायत दी है कि कभी भी थियेटर बंद नहीं होना चाहिए। वहीं निर्माण सिनेमा के मैनेजर एमएल वर्मा ने अपना रजिस्टर खोलकर दिखाते हुए बताया कि महीने में कई बार सिर्फ एक या दो लोगों के आने से शो बंद करना पड़ा।

आमदनी अठ्ठनी, खर्चा दस रुपैया

ट्राईसिटी में चल रहे इन टॉकीज की खामोशी का सबसे बड़ा कारण है इनकी कम आमदनी और बढ़ते खर्चे। जानकारों की मानें तो एक शो चलाने में करीब 700 रूपए की कॉस्ट आती है और इन टॉकीज में कभी-कभी तो दो लोगों के लिए भी शो चलता है। यानी दो लोगों को सर्विस दे रहे हैं 17 कर्मचारी और करोड़ों का यह सेटअप। मान लीजिए अगर दोनों लोगों ने बालकनी का टिकट भी लिया तो 150 रूपए ही बनते हैं।

निर्माण सिनेमा के मैनेजर एम.एल. वर्मा कहते हैं कि एक शो चलाने में दो पेयर तो कार्बन ही लग जाता है, जिसकी कीमत 50 रूपए पड़ती है, ऊपर से इलैक्ट्रिसिटी और पानी का खर्च। वर्मा कहते हैं कि इस थियेटर को चलाने के लिए हर महीने खर्च आता है करीब 1.70 लाख रूपए, जितना पूरा महीना यह थियेटर कमाकर नहीं देता है। हर महीने मालिक से बिजली, पानी और सैलरी के लिए पैसा लेना पड़ता है। मालिक भी कब तक उठाएंगे इस बोझ को। ऐसा ही चलता रहा तो बंद हो जाएगा यह भी, जैसे पिकाडली सिनेमा हो गया।

मल्टीप्लेक्स की मार

सिनेमा देखने वालों में कोई कमी नहीं आई है और न ही वे बढ़े हैं। बढ़े हैं तो सिर्फ मल्टीप्लेक्स। ये कहना है सेक्टर-37 के बत्रा सिनेमा के मैनेजर विनय गंभीर का। करीब 30 साल से मैनेजर गंभीर का कहना है कि जो इन दिनों मल्टीप्लेक्स खुले है उनकी सीटिंग कपैसिटी है 150-200 की, यानी इस लिहाज से बत्रा सिनेमा में करीब 10 मल्टीप्लेक्स की कपैसिटी है। अब ये चार से पांच परदे लगाकर अलग-अलग फिल्में चलाते हैं और इस तरह 150 की कपैसिटी वाला हर शो लगभग हाउसफुल दिखाते हैं।

थियेटर अगर आज इस कंडीशन से गुजर रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण है इनका बड़ा सेटअप जो आज के फिल्म दर्शकों के हिसाब से कई गुना बड़ा है। दूसरा फिल्में भी उस स्तर की नहीं आ रही हैं कि लोगों को इतने बड़े लेवल पर खींच सकें। यह पूछने पर कि इस सिनेमा में सबसे हिट फिल्म कौन सी रही थी, गंभीर कोने में रखी उस पुरानी ट्रॉफी की तरफ इशारा करते हैं। यह ट्रॉफी फिल्म कहो न प्यार है, के लिए सन २क्क्क् में मिली थी जो करीब 25 हफ्ते रेकॉर्ड तोड़ चली थी।

सी-ग्रेड ही है एक उपाय

सूरज सिनेमा के मालिक विपिन कुमार जैन से इन टॉकीज के रिवाइवल का सॉल्यूशन पूछने पर वे कहते हैं, ‘कोई सॉल्यूशन नहीं है। या तो आप सी-ग्रेड फिल्में चला कर और टिकट का दाम 20 या 30 रूपए करके काम चलाते रहिए या फिर ऐसा नहीं करना है तो अपनी जेब से टॉकीज के खर्चो का बोझ उठाते रहिए।’

इसी तरह से चल रहा है मोहाली का बस्सी सिनेमा भी जिसकी बिल्डिंग लोगों के लिए यूं तो रैनबसेरा बनी हुई है मगर त्रिनेत्र, दाग और सात सहेलियां जैसी फिल्मों के दम पर कुछ तो कमा ही लेता है। बस्सी सिनेमा के पास ही रहने वाले किशोर का कहना है कि अकसर यहां ऐसी ही फिल्में लगती हैं और दूसरे टॉकीज के मुकाबले भीड़ भी यहां जुटती है। अगर किसी फिल्म के पोस्टर में कोई सेक्सी सीन या कम कपड़ों में कोई लड़की दिखा दी तो स्कूल और कॉलेज से लड़के बंक मार कर देखते हैं। कॉलेज स्टोरी, डाकू रानी, अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, कुंवारी विधवा ऐसी ही कुछ फिल्मों के नाम हैं जो इन टॉकीज की आमदनी का जरिया बन रही हैं।

इसे एंटरटेनमेंट प्रोवाइड करने के मकसद से तैयार किया था, मगर समय बदल गया और इसे भी बदलने की जरूरत है। सरकार को इसे मल्टीप्लेक्स या फिर मॉल बनाने की प्रोसेस में पेचीदगियों को कम करना होगा।

नरेश बत्रा, मालिक, बत्रा सिनेमा

परसों तीन लोगों के लिए शो चलाया और ऊपर से उनकी एसी चलाने की डिमांड। क्या करते, चलाना पड़ा। वो दौर भी देखा है जब आख्रिरी रास्ता और शहनशाह जैसी फिल्मों की भीड़ थी और आज सैलरी देना मुश्किल हो रहा है।

एम एल वर्मा, मैनेजर, निर्माण सिनेमा(दैनिक भास्कर,चंडीगढ़,25.7.2010)

रवि वासवानी नहीं रहे

भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक बेहद चर्चित और महत्वपूर्ण फिल्म 'जाने भी दो यारो' के अभिनेता रवि वासवानी का मंगलवार को ह्वदयाघात से निधन हो गया। मुम्बई से प्राप्त जानकारी के अनुसार उनका निधन नैनीताल से दिल्ली ले जाते समय हुआ। वासवानी 64 वर्ष के थे1 उन्होंने अपना फिल्मी करियर 1981 में चश्मे बद्दूर फिल्म से शुरू किया था। जाने भी दो यारों फिल्म के लिए उन्हें 1984 में फिल्मफेयर का श्रेष्ठ हास्य अभिनेता का पुरस्कार मिला था।उन्होंने टेलीविजन पर भी काम किया। फिल्म ‘बंटी और बबली’ एवं ‘प्यार तून क्या किया’ में चरित्र भूमिकाएं भी कीं।

Monday, July 26, 2010

बॉलीवुड का संकट

मानव ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने भविष्य के बारे में सोचता है। हम फिल्म उद्योग से जुड़े हैं। बॉलीवुड जैसी फिल्मी दुनिया अन्यत्र कहीं नहीं है। जैसे ही फिल्म बनाने का विचार निर्माता के दिल में जन्म लेता है, उसे चिंता सताने लगती है कि रिलीज होने के बाद क्या दुनिया भर में दर्शक इसे स्वीकार करेंगे? हम ज्योतिषियों और गुरुओं की शरण में जाते हैं कि फिल्म रिलीज करने का सही मुहूर्त बता दें। इमरान हाशमी 8 नंबर को लेकर अंधविश्वासी हैं। उनका मानना है कि उनकी जो भी फिल्म 8 तारीख या अंकों के जोड़ 8 वाली किसी तारीख पर रिलीज होगी तो वह फ्लॉप हो जाएगी। उनसे इसका कारण पूछा जाता है तो वह भन्ना जाते हैं। हिमेश रेशमिया भी पागलपन की हद तक अंधविश्वासी हैं। अपनी फिल्म का शीर्षक भी वह अंकशास्त्र के आधार पर रखते हैं। फिल्म के मुहूर्त से लेकर उसकी रिलीज तक की सभी तारीख कंपनी के ज्योतिषी से पूछकर तय की जाती हैं। इन सब गतिविधियों को देखकर ही पता चल जाता है कि फिल्म उद्योग में कितनी अनिश्चितता है। फिल्मी दुनिया के कॉर्पोरेट मैनेजर ऐसे विशेषज्ञों की सेवाएं लेते हैं जो अत्याधुनिक तरीकों से मीडिया व मनोरंजन बाजार के रुझान का पता लगाते हैं और इनके आधार पर फिल्म उद्योग के लिए फायदेमंद पुर्वानुमान लगाते हैं। इन तमाम कवायदों से केवल यह सुनिश्चित होता है कि फिल्म उद्योग में कुछ भी निश्चित नहीं है। इन तमाम अंधविश्वासों और आशावाद के बावजूद सच्चाई सबके सामने है। मुंबई से चेन्नई, बेंगलूर से हैदराबाद तक किसी भी फिल्मी दुनिया से जुड़े किसी भी व्यक्ति से बात कीजिए वह यही बताएगा कि वर्तमान बहुत हताशाभरा है। हाल ही में रिलीज हुईं काइट्स और रावण के विनाश ने उन सबका विश्वास डिगा दिया है जो यह सोच रहे थे कि बॉलीवुड की पैठ पूरी दुनिया में बन सकती है। आजकल बड़े बैनरों की फिल्में भी घटी दरों पर बिक रही हैं। प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए जो बड़े औद्योगिक घराने फिल्म स्टारों को मुंहमांगी कीमत दे रहे थे, वे पहले किए गए करारों से पीछे हट रहे हैं। फिल्म उद्योग को आखिर हो क्या गया है? मैंने फिल्म उद्योग के तीन महारथियों से पूछा कि भविष्य के बारे में उनका क्या मानना है? एक दूजे के लिए जैसी ब्लॉक बस्टर फिल्म के निर्देशक के बालाचंद्रन का कहना है, कयामत का दिन करीब आ रहा है। नासमझ, किंतु धनी फिल्मकार मोटी रकम खर्च कर मेगा फिल्म बना डालते हैं जो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर जाती है। सप्ताह-दर-सप्ताह यही हो रहा है। कन्नड़ फिल्म उद्योग के लिए काम करने वाला एक बड़ा नाम भी दर्शकों को सिनेमा हाल में नहीं खींच पा रहा है। उसका कहना है कि अगर टीवी पर सीरियल का विकल्प नहीं होता तो कलाकार भूखों मर जाते। फिल्मी दुनिया के हालात पर सुभाष घई का कहना है कि तथाकथित रक्षक, जो फिल्म उद्योग को बचाने और हमें फिल्म निर्माण का पाठ पढ़ाने आए थे, फिल्म उद्योग की दुर्दशा के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। उन्होंने फिल्म का बजट इतना बढ़ा दिया है कि खर्च तक निकलना मुश्किल हो गया। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि जो चार बड़े औद्योगिक घराने बड़े जोरशोर से फिल्मी दुनिया में उतरे थे और जिन्होंने फिल्मों में खुले हाथों से पैसा खर्च किया, अब निर्माण रोकने जा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि करीब एक साल में जब फिल्मों के पतन का वर्तमान चक्र पूरा हो जाएगा तो एक बार फिर एक समझदार व संजीदा शुरुआत होगी। तब तक हवा में उड़ने वाले फिल्मकार जमीन पर आ चुके होंगे। इस सुनिश्चित अनिश्चितता वाले समय में हमारे सामने क्या चारा है? आंखें खोलकर वर्तमान की सच्चाई से रूबरू हों, न कि अतीत में खोए रहें। जैसा आप देखना चाहते हैं, वैसा न देखें, बल्कि जमीनी वास्तविकता को समझें। आप बिना कमाई हुई पूंजी के बल पर कंपनियां या देश खड़ा नहीं कर सकते। हम जैसे 70 के दशक वाले फिल्मकार भाग्यशाली हैं कि उन्हें समाजवादी सोवियत मॉडल में काम करने का मौका मिला जब तमाम मजबूरियों के साथ कम से कम पैसे में काम किया जाता था, काम पर ध्यान दिया जाता था और इसी के आधार पर सफलता व पहचान मिलती थी। शानशौकत के आदी वैश्विक युग के नई पीढ़ी के फिल्मकारों को अपने सीनियर्स से सबक सीखना चाहिए, तभी बॉलीवुड जिंदा रह सकता है..(महेश भट्ट,दैनिक जागरण,26.7.2010)।

Sunday, July 25, 2010

बॉलीवुड के सावन में सब कुछ हरा-हरा

परदे पर हीरोइन को सैक्सी दिखाने के लिए फिल्मकारों के पास बारिश का है सदाबहार बहाना। परदे पर टिप...टिप बरसते पानी में नायिका का तरबतर हो जाना और उसकी झीनी कॉस्ट्यूम में झांकते बदन पर कैमरा घुमाना, हमारे सिनेमा का ट्रेंड है पुराना। फिल्मी बारिश के इस नजारे पर भीगी-भीगी नजर डाली है राजस्थान पत्रिका में राजेन्द्र कांडपाल ने 17 जुलाई के अंक में-
राजकुमार हिरानी की ब्लॉकबस्टर '3 ईडियट्स' में आमिर खान और करीना कपूर पर फिल्माए गीत 'जुबी डूबी' गीत और फिल्म 'दे दना दन' में अक्षय कुमार और कैटरीना कैफ के गीत 'आ गले लग जा' में दो बातें कॉमन हैं। पहली तो यह कि दो अलग-अलग जोडियों पर फिल्माए गए बारिश गीत हैं, जिन्हें फिल्मी भाषा में रेन सॉन्ग कहा जाता है। रेन सॉन्ग में डांस करने का करीना का अनुभव पुराना है, लेकिन कैटरीना 'दे दना दन' में पहली बार फिल्मी बारिश में भीगी थीं। दूसरी समानता यह कि इन दोनों गीतों ने अपनी फिल्म के बिजनैस में कोई इजाफा नहीं किया। कैटरीना के उत्तेजक रेन सॉन्ग के बावजूद 'दे दना दन' सुपर हिट नहीं हो पाई, तो दूसरी तरफ '3 ईडियट्स' की जबरदस्त कामयाबी में 'जुबी डूबी' गीत का कोई योगदान नहीं रहा।
दरअसल बारिश के पानी के जरिए दर्शकों को नायिका की सैक्स अपील की सप्लाई करना और अपनी फिल्म को हिट बनाना बॉलीवुड का पुराना टे्रंड रहा है। यह अलग बात है कि कभी-कभी बारिश के उत्तेजक डांस नंबर के बावजूद फिल्में हिट नहीं हुई। 'यलगार' में संजय दत्त और नगमा के बीच बरसाती गाना 'आखिर तुम्हें आना है जरा देर लगेगी, बारिश का बहाना है जरा देर लगेगी' बारिश और नगमा की उत्तेजक सैक्स अपील से भीगा होने के बावजूद फिल्म को हिट नहीं करवा पाया। पंकज पाराशर की फिल्म 'चालबाज' में सनी देओल के साथ बारिश के पानी में भीगी श्रीदेवी 'किसी के हाथ न आएगी ये लडकी' गाती हुई सफेद टॉप में सैक्स अपील करती नजर आई। फिल्म 'मंजिल' में अमिताभ बच्चन और मौसमी चटर्जी पर फिल्माया गीत 'रिमझिम गिरे सावन' बेहद रोमांटिक होने के बावजूद दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच नहीं पाया था।
हिंदी फिल्मों के ज्यादातर बारिश गीत नायिकाओं पर केंद्रित रहे हैं। 'गुरू' का 'बरसो रे मेघा बरसो' ऎश्वर्या की बारिश में भीगी चंचलता को दिखाता है, तो 'मोहरा' का 'टिप टिप बरसा पानी' रवीना टंडन के बदन का भूगोल दर्शकों के सामने लाने की कोशिश करता है। 'मिस्टर इंडिया' का 'काटे नहीं कटते दिन ये रात' भी श्रीदेवी का मादक चेहरा हमारे सामने लाता है। इसी तरह 'नया जमाना'
का पॉपुलर गाना 'रामा रामा गजब हुई गवा रे' हेमामालिनी की सैक्स अपील को भुनाने के लिए ही रखा गया था। इसी सिलसिले में मनोज कुमार की फिल्म 'रोटी कपडा और मकान' की नायिका जीनत अमान का गीत 'हाय हाय ये मजबूरी ये मौसम ये दूरी' भी याद आता है। मनोज कुमार ने इससे पहले 'शोर' में 'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा' गीत जया भादुडी के चारों ओर थिरकती नर्तकियों की सैक्स अपील को उभारने के लिए ही रखा था। 'आराधना' का रोमांटिक गाना 'रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना' नायक और नायिका को कामुक बना देता है। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर बारिश में भीग जाते हैं। बारिश से बचने के लिए दोनों एक होटल मे ठहरते हैं। शर्मिला भीगे कपडे बदलकर तौलिया बांध लेती हैं, उनके इस रूप को देख राजेश खन्ना उत्तेजित हो जाते हैं। बैकग्राउंड में 'रूप तेरा मस्ताना' गीत बजता है और सुलगती आग के साथ दो प्रेमियों के सुलगते बदन एक हो जाते हैं। 'हम तुम' में सैफ अली खान और रानी मुखर्जी पर फिल्माया बारिश गीत 'सांसों को सांसों से' भी दोनों को कामातुर बना देता है।
हिंदी फिल्मों में बारिश सैक्स अपील और रोमांस के अलावा रहस्य और रोमांच भी पैदा करती है । राहुल रवैल की फिल्म 'अर्जुन' का एक एक्शन सीक्वेंस बरसते पानी के बीच फिल्माया गया था। इसी तरह फिल्म 'लगान' में बारिश, सूखे से पीडित गांव वालों के चेहरों पर खुशियों की बरसात ले आती है।
नई फिल्मों की तुलना में पुरानी फिल्मों में बारिश गीत ज्यादा रूमानी होते थे, प्यार के साथ जज्बात की फुहार से भिगोने वाले। खास तौर पर राज कपूर और नर्गिस के बीच खूबसूरत रोमांटिक गीत फिल्माए गए। 1949 में आई 'बरसात' का 'बरसात मे हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम' और 1955 में रिलीज हुई 'श्री 420' का 'प्यार हुआ इकरार हुआ' बेहद रूमानी गीतों में शुमार किए जाते हैं। 'काला बाजार' का बारिश गीत 'रिमझिम के तराने ले के आई बरसात' गीत बरसों पहले बिछडे देव आनंद और वहीदा रहमान के मिलन का जरिया बन जाता है। बरसाती गीत मधुबाला पर काफी फिट बैठते थे। मधुबाला की फिल्म 'बरसात की रात' हो या 'चलती का नाम गाडी', बरसात में भीगी उनकी देह दर्शकों को निहाल कर दिया करती थी।

24जुलाई के नई दुनिया के इंद्रधनुष परिशिष्ट में भी कुछ अन्य पहलुओं की चर्चा की गई हैः
मेघों द्वारा प्रेम के संदेश बरसाने से लेकर, टिप-टिप बारिश के शुरू होने और हाल ही में आई फिल्म "वेकअप सिड" में मुंबई की बारिश को खूबसूरती से दर्शाने तक फिल्मों और बारिश में एक गहरा लगाव स्पष्ट दिखाई देता है। आसमान से बरसती (या फिर तकनीकी साधनों द्वारा बरसाई जाती) इस नेमत में फिल्म निर्देशक रोमांस, एक्शन-फाइट सीन, दो भाइयों के बिछुड़ने के सीन और गानों तक कुछ भी क्रिएट कर सकता है। बारिश का ये बहाना कई चीजों को भुनाने का बहाना साबित हो जाता है।
यूं हिन्दी पंचांग में भले ही सावन एक अलग से महीने का नाम है, लेकिन फिल्म वालों के लिए तो हर बारिश सावन ही है। फिर वो चाहे जब भी हो या कराना पड़े। खासतौर पर अगर हीरोइन उस बारिश में भीगती या नाचती नजर आ जाए तो कहने ही क्या। इस एक अदद सीन के लिए निर्देशक कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। कई बार तो इसी कारण से बिना कहानी की मांग के भी बारिश के दृश्य फिल्मों में डाले जाते हैं। नब्बे के दशक की ब्लॉकबस्टर हिट फिल्म "दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे" का गाना "मेरे ख्वाबों में जो आए..." एक ऐसा ही गीत था। इस फिल्म में नायिका यानी काजोल के पिता को काफी सख्त और भारतीय संस्कृति का कट्टर पक्षधर बताया गया है। उनके सामने नायिका आरती भी करती है और सलवार सूट पहनती है, लेकिन बारिश के उक्त गीत में वो अपनी छुटकी-सी ड्रेस में मटकती नजर आती है। इस गीत के बहाने निर्देशक ने काजोल के ग्लैमरस पक्ष को अच्छे से भुना लिया। ठीक इसी तरह कुछ समय पहले आई "थ्री इडियट्स" में एक गाने में बारिश के बहाने हीरोइन को भिगोया गया और रंग-बिरंगे छातों से दृश्य में प्रभाव पैदा किया गया। फिल्म में हीरोइन के ग्लैमर को प्रदर्शित करने का एकमात्र स्कोप इसी गाने में था, वहीं फिल्म का एक सीन तेज बारिश के बीच मददगार बने आमिर खान और उनके मित्रों पर फिल्माया गया और सीन में खासा ड्रामा क्रिएट किया गया। ऐसे कई गाने हिन्दी फिल्मों में मिलेंगे, जिनमें बारिश का प्रयोग "बस यूंही" लेकिन इरादतन कर लिया गया है। ऐसे गानों को अधिकांशतः बिना कहानी की मांग केवल दर्शकों को रिझाने के लिहाज से फिल्म में फिट किया जाता है। वैसे अगर बात कहानी की मांग पर आकर रुके तो बॉलीवुड में कई निर्देशकों को बारिश या पानी के सीन या गाने शूट करने में माहिर माना जा सकता है। वे अपनी फिल्म में बारिश के जरिए चार चांद लगा डालते हैं। इनमें एक प्रमुख नाम है "मणिरत्नम" या मणि सर का। दक्षिण के अनछुए और बेहद खूबसूरत इलाकों को वे इतने कलापूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि दर्शक मंत्रमुग्ध से रह जाते हैं। चाहे फिर वो "रोजा" में झरने के नीचे नहाती मधु हों, "गुरु" में बारिश के बीच नाचती ऐश्वर्या या फिर हाल ही में आई "रावण" के शानदार दृश्य हों। उनकी फिल्में पानी को एक अलग ही अंदाज में बेहद सुंदरता के साथ दिखाती हैं। बारिश और प्रकृति को फिल्माने के लिए मणिरत्नम की गहरी सोच और किसी भी सीन को शूट करने की उनकी प्रतिभा का जिक्र सिनेमेटोग्राफर संतोष सीवान के बिना अधूरा है। "रोजा" और "रावण" में उन्होंने जिस पारखी नजर के साथ प्रकृति के अद्भुत नजारों को कैमरे में कैद किया है, वो इन फिल्मों का सशक्त हिस्सा बनकर उभरते हैं।
बारिश पर फिल्माए कुछ सदाबहार गीत
*रिमझिम के तराने लेके आई बरसात
* सावन आए या न आए जिया जब झूमे सावन है
* आहा रिमझिम के ये प्यारे-प्यारे गीत लिए
* रिमझिम गिरे सावन
* रिमझिम-रिमझिम, रुमझुम-रुमझुम
* बरसात में हमसे मिले तुम सजन
* रिमझिम के गीत सावन गाए
* आया सावन झूम के
* दिल ये बेचैन वे, रस्ते पे नैन वे
* बरसो रे मेघा-मेघा

Friday, July 23, 2010

भोजपुरी गीतों में अश्लीलता बढ़ी है : अकेला

भोजपुरी गीतों की परंपरा काफी समृद्ध रही है। इस भाषा को विदेशों में भी सम्मान की नजरों से देखा जाता है। मॉरिशस, सूरीनाम व हॉलड जैसे देशों में नब्बे प्रतिशत लोग भोजपुरी भाषा बोलते है। वहां के लोगों का भोजपुरी भाषा और भोजपुरी भाषा बोलने वाले लोगों से काफी लगाव है। भोजपुरी बोलने वाले लोगों में उन्हें अपने पूर्वजो की तस्वीर दिखाई देती है। यह भी सच है कि करीब एक दशक पूर्व से भोजपुरी गीतों की गरिमा पर ग्रहण लगा है। चंद कथित भोजपुरी गायक निजी स्वार्थ के लिए भोजपुरी गीतों के माध्यम से श्रोताओं के बीच अश्लीलता को परोस रहे है। लेकिन अब ऐसे अश्लील गीतों का दौर खत्म होने वाला है। आने वाले चार-पांच वषो में पुन: मधुर भोजपुरी गीतों का दौर शुरू हो जाएगा। प्रसिद्ध लोकगीत गायक अजीत कुमार अकेला से सुजीत कुमार की बातचीतः

आपने गीत-संगीत का सफर कब शुरू किया?
गीत संगीत का सफर हमने वर्ष 1974 से ही शुरू कर दिया था। गायिकी विरासत में नही मिली है। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए काफी संघर्ष भी करना पड़ा है। हमने शुरू से ही अश्लीलता से परहेज रखा है। आज जो कुछ भी हूं स्वच्छ और कर्णप्रिय गीतों की बदौलत ही हूं। मेरा पहला भोजपुरी एलबल ‘सुर सजनी’ है जो लोगों के दिलों में जगह बनाने में सफल रहा। इसकी सफलता के बाद फिर हमने मुड़कर नही देखा।

किस एलबम व गीत के बाद आप चर्चा में आए?
‘हमार बैल गाड़ी सबसे अगाड़ी..’ व ‘झामलाल बुढ़वा पीटे कपार हमरा करम में जोरू नही..’ गीत के बाद हम काफी चर्चा में आ गए। इस गाने को विभिन्न आयोजनों के मौके पर लगातार दस वषो तक दूरदर्शन पर दिखाया जाता रहा। मेरे भोजपुरी एलबम ‘मोरी सजनी रे’ का गीत ‘लागे नाही जिअरा हमार..’ और भक्ति एलबम ‘चल कावरिया शिव के धाम’ व ‘हे छठमईया’ भी लोगों द्वारा खूब पसंद किया गया।
भोजपुरी गीतों की गरिमा कम हुई है, आप क्या मानते है?
विगत एक दशक के भीतर भोजपुरी गीतों में अश्लीलता बढ़ी है। नये भोजपुरी गायक कम समय में पैसे और शोहरत कमाने के चक्कर में अपने रास्ते से भटक गए है। भोजपुरी गीतों में अश्लीलता का बढ़ता प्रचलन भोजपुरिया समाज के लिए अशुभ संकेत है। हम चाहते है कि भोजपुरी गीतों की अश्लीलता पर अंकुश लगे।

भोजपुरी फिल्मों में आइटम सॉग की क्या भूमिका है?
भोजपुरी फिल्मों में आइटम सॉग के नाम पर दर्शकों को गुमराह किया जा रहा है। आइटम सॉग के चलते भोजपुरी फिल्म को परिवार के साथ बैठकर नही देखा जा सकता है। बगैर आइटम सॉग के भी भोजपुरी फिल्म सुपर हिट हुई है। आज कल पहले जैसी सामाजिक और साफ-सुथरी फिल्में नही बन रही हैं। आइटम सॉग और अश्लील फिल्मों का बहिष्कार करना चाहिए।

अश्लील गीतों पर अंकुश कैसे लगाया जाए?
गायकों, गीतकारों व एलबम निर्माताओं को अश्लील गीत गाने व एलबम को बाजार में लाने से पहले उसे अपने परिवार वालों को दिखाना चाहिए। अगर उस पर परिवार वालों की सहमति हो तो उसे बाजार में लाया जा सकता है।

आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि?
इस बार बीटीबीसी की नवी कक्षा की वर्णिका पुस्तक में हमारा नाम और तस्वीर छापी गयी है। गाने के सिलसिले में कई बार विदेश जाने का भी मौका मिला है। अभी तक लगभग 165 भोजपुरी फिल्मों में गीत गा चुके है और लगभग सौ एलबम बाजार में आ चुके हैं।

भोजपुरी गीत गाने वालो में आपके आदर्श कौन है?
गुरु विद्यानंद प्रसाद, पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी व पद्मश्री शारदा सिन्हा व संतराज सिंह रागेश हमारे आदर्श रहे है।

बच्चों को भोजपुरी गीतों का प्रशिक्षण देने की योजना है?
स्कूल में ही बच्चों को भोजपुरी गीत का प्रशिक्षण देते है। कभी-कभी अपने गुरुजी के संगीत केंद्र में योगदान देते है। कितना रियाज करते है आप? रियाज की अब कोई समय सीमा नही रह गयी है।
(राष्ट्रीय सहारा,पटना,23.7.2010)

हाजी मस्तान की बीवी देखना चाहती हैं एकता की फिल्म

एकता कपूर ने ७० के दशक के मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई नाम से फिल्म बनाई है जो जल्द ही प्रदर्शित होने वाली हैं, लेकिन लगता है इसमें अब रो़ड़े आने वाले हैं। पूर्व अभिनेत्री और हाजी मस्तान की बीवी सना ने एकता को एक दिन का समय देते हुए कहा है कि वह उन्हें फिल्म दिखाएं, उनसे इजाजत ले तो ही वह फिल्म प्रदर्शित करने देगी।

नईदुनिया से विशेष रूप से बातचीत करते हुए सना ने बताया, पिछले दो-ढाई साल से मैं इस फिल्म के बारे में सुन रही हूं। कहा जा रहा है कि यह फिल्म हाजी साहब की जीवनी पर है, लेकिन इस दौरान एकता की ओर से मुझसे किसी ने भी संपर्क नहीं किया और न ही मुझे फिल्म की कहानी सुनाई गई। हम हमेशा परदे के पीछे रहे हैं। हाजी साहब और मैंने कोई रोमांस नहीं किया था, हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और हमने ८४ में शादी कर ली। मैंने सुना है कि फिल्म में हम दोनों के किरदारों को रोमांस करते हुए दिखाया है जो गलत है। मैं नहीं चाहती कि हमारे बारे में कुछ गलत जानकारियां लोगों तक पहुंचे। सना ने बताया अगर एकता मुझे फिल्म नहीं दिखाती हैं तो मेरे पास सिर्फ एक ही रास्ता है और वह है कानून का दरवाजा खटखटाने का। मैं अदालत जाकर फिल्म का प्रदर्शन रोकने की अपील करूंगी।

फिल्म बनने तक आप चुप क्यों बैठी रहीं पूछने पर सना ने कहा कि मैं चाहती थी कि फिल्म के निर्माता मेरे पास आए । उन्हें हमसे राय लेनी जरूरी थी। मैं उनके आने का इंतजार कर रही थी। वह नहीं आए इसलिए आज मैंने यह फैसला लिया है। मैं उनके पास क्यों जाती, मैंने तो नहीं कहा कि वह हमारी जीवनी पर फिल्म बनाएं। उन्हें मेरे पास आना चाहिए था(चंद्रकांत शिंदे,नई दुनिया,दिल्ली,23.7.1010)।

जरा देब दुनिया तोहरे प्यार में

अमेरिकन फिल्म तकनीक से बनी तथा कान फिल्मस फेस्टिबल में दिखाई गई भोजपुरी की पहली फिल्म जरा देब दुनिया तोहरा प्यार में का डंका आज हर तरफ बज रह है। पन फिल्म प्रा. लि. के बैनरतले बनी तथा पवन शर्मा द्वारा निर्मित यह फिल्म हर वर्ग के दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। तभी तो सिर्फ पटना में चार दिनों तक शो हाउसफूल रही। सप्ताह भर का कलेक्शन लगभग तीन लाख रुपए है। जो एक नया रिकार्ड है। इसके अलावा बिहार के अन्य जगहों पर भी कलेक्शन कुछ इसी प्रकार है। फिल्म की कहानी में रवि शंकर गांव का भोला भाला लड़का है जो स्टार बनने का सपना देखता है। और इसी चक्कर में कुछ ना कुछ गलतियां करते रहता है। जिससे उसका भाई कृपाशंकर हमेशा परेशान रहता है। लेकिन भाभी हमेशा उसे बचाते रहती है। रवि की एक शादी में एक संगीत के विद्वान और उनकी बेटी रजनी से मुलाकात होती है। और पहली ही नजर में रवि रजनी का दीवाना हो जाता है, वह किसी तरह चक्कर चलाकर संगीत सिखने के बहाने उनके घर पहुंच जाता है। और कुछ दिन में परिवार के सभी लोगों का दिल जीत लेता है। जब रवि को वहां से चले जाने को कहती है। रवि जाने लगता है तभी रजनी की बहन छुटकी बताती है कि रजनी की सगाई मितवा से बचपन में हो गई है। जो दबंग विधायक खैनी ठाकुर का बेटा है। रवि सबकुछ सुनने के बाद भी वहां से जाने लगता है कि पीछे से रजनी के पिता आते हैं और रवि से गुरु-दक्षिण में रजनी की जिंदगी मांगते हैं और रवि किशन वादा करता है कि वो रजनी की जिंदगी पे आंच नहीं आने देगा। इस बात की खबर मितवा को लगती है तो वो पागलों की तरह दोनों को ढूंढ़ता है। रवि रजनी को अपने घर ले आता है। जब उसके भाइयों को पता चलता है कि वह लड़की को वापस उसके घर छोड़ आने को कहता है। इधर मितवा को पता चलता है कि रवि ने रजनी को अपने घर में छुपा कर रखा है तो वो अपनी पूरी गैंग के साथ घर पर हमला बोलता है। आगे क्या होता है यह जानने के लिए फिल्म देखनी होगी(दैनिक जागरण,पटना,23.7.2010)।

Thursday, July 22, 2010

मेरा जलवा जिसने देखा...

पुराने दौर की डांसर-एक्ट्रेस में एक चर्चित नाम कुमकुम का भी है। साठ और सत्तर के दशक की लोकप्रिय अभिनेत्री कुमकुम ने अपना फिल्मी कॅरियर बतौर डांसर ही शुरू किया था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि भोजपुरी सिनेमा की वे पहली हीरोइन रही हैं। उसी जमाने की यादों के सहारे कुमकुम आज मुंबई में खार स्थित अपनी बहुमंजिला बिल्डिंग 'कुमकुम' में खुशहाल जिंदगी बिता रही हैं।
वर्ष 1954 में रिलीज 'आर पार' प्रोड्यूसर-डायरेक्टर गुरूदत्त और संगीतकार ओ. पी. नैयर के कॅरियर के लिए तो महžवपूर्ण साबित हुई ही, इस हिट फिल्म से नई डांसर कुमकुम को भी इंडस्ट्री में अलग पहचान मिली। दरअसल इस फिल्म का टाइटल सॉन्ग 'कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर' शुरूआत में जगदीप पर फिल्माया गया था, जिसे सेंसर बोर्ड ने इस आपत्ति के साथ फिल्म से हटा दिया था कि यह गीत किसी लडकी पर फिल्माया जाना चाहिए था। फिल्म रिलीज पर थी और उस जमाने की किसी भी जानी-मानी डांसर के पास डेट्स नहीं थीं, इसलिए गुरूदत्त को मजबूरन यह गीत कुमकुम पर पिक्चराइज करना पडा। बाद में फिल्म 'आर पार' और इसके गीत-संगीत ने जो इतिहास रचा, वो जगजाहिर है।
पटना के पास स्थित हुसैनाबाद के जागीरदार नवाब मंजूर हसन खान की बेटी कुमकुम (असली नाम-जेबुन्निसा) का बचपन पटना और कोलकाता में बीता। हाल ही एक मुलाकात में कुमकुम ने अपने बचपन के दौर को याद करते हुए बताया, 'एक जमाना था जब हमारे खानदान के पास बेशुमार जमीन-जायदाद थी। देश की आजादी के बाद नवाबी चली गई, आमदनी के तमाम जरिए खत्म हो गए। नवाबी शानो-शौकत बरकरार रखने की कोशिशों में माली हालात बिगडते चले गए। मजबूरन हमें पटना छोडकर कोलकाता जाना पडा। मेरी उम्र उस वक्त पांच बरस की थी। डांस का शौक मुझे बचपन से था, इसलिए कोलकाता में पढाई पूरी करने के बाद मैं लखनऊ आकर शंभू महाराज से कथक सीखने लगी।'
घूमने के मकसद से कुमकुम 1952 में मुंबई आई, जहां संगीतकार नौशाद पहले से उन्हें जानते थे। नौशाद के जरिए इंडस्ट्री में यह बात फैलते देर नहीं लगी कि एक नई लडकी आई है, जो बहुत अच्छा डांस करती है। नतीजन कुमकुम के सामने फिल्मों में डांस के ऑफर आने लगे। डायरेक्टर शाहिद लतीफ की 1952 में बनी फिल्म 'शीशा' कुमकुम की पहली फिल्म थी, जिसके एक गीत में उन्होंने डांस किया था। उसी दौरान उन्होंने अपने असली नाम को बदलकर स्क्रीन नेम कुमकुम रख लिया। सोहराब मोदी की फिल्म 'मिर्जा गालिब'(1954) में भी उन्हें डांस करने का मौका मिला। लेकिन कुमकुम की असली पहचान बनी फिल्म 'आर पार' के टाइटल सॉन्ग से। बाद में भी कुमकुम पर फिल्माए- कैसी लगे जाए जिया (एक ही रास्ता), तेरा जलवा जिसने देखा (उजाला), जा जा रे जा बालमवा (बसंत बहार), ऎ दिल है मुश्किल जीना यहां (सीआईडी), रेशमी सलवार कुर्ता जाली का (नया दौर), तेरा तीर ओ बे-पीर (शरारत), मधुबन में राधिका नाचे रे (कोहिनूर), इस रात की तन्हाई में (दिल भी तेरा हम भी तेरे), दीया ना बुझे री आज हमारा (सन ऑफ इंडिया), मेरा नाम है चमेली (राजा और रंक) और मेरी सुन ले अरज बनवारी (आंखें) जैसे कई गीत मशहूर हुए।
गुरूदत्त की ही 'मिस्टर और मिसेज 55' अभिनेत्री के तौर पर कुमकुम की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने पांच बच्चों की मां का रोल किया था। उसी दौरान कुमकुम ने 'करोडपति', 'प्यासा', 'फंटूश', 'मदर इंडिया', 'सुवर्ण सुंदरी', 'घर नं. 44', 'मिस्टर कार्टून एम.ए.', 'घर संसार' और 'चार दिल चार राहें' जैसी फिल्मों में छोटे-बडे रोल किए। कुमकुम कहती हैं, 'एक्ट्रेस के तौर पर भी पहचान बनने लगी, तो मैंने डांस के साथ-साथ अदाकारी को भी संजीदा ढंग से लेना शुरू कर दिया और कम अर्से में ही हिंदी फिल्मों की बिजी हीरोइन बन गई।' साठ और सत्तर के दशक में कुमकुम ने 'तेल मालिश बूट पॉलिश', 'कर भला, 'मां', 'संसार', 'सन ऑफ इंडिया', 'मिस्टर एक्स इन बॉम्बे', 'दिल भी तेरा हम भी तेरे', 'ब्लैक कैट', 'कव्वाली की रात', 'किंगकांग', 'गंगा की लहरें', 'तू नहीं और सही', 'मैं वोही हूं', 'एक सपेरा एक लुटेरा' और 'धमकी' जैसी कई फिल्मों के साथ 'गंगा मइया तोहरे पियरी चढइबो', 'भौजी' और 'गंगा' जैसी भोजपुरी फिल्में भी बतौर हीरोइन कीं। 'गंगा' का निर्माण भी उन्होंने किया था। कुमकुम बताती हैं, '1973 में बनी 'जलते बदन' मेरी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद लखनऊ के सज्जाद अकबर खान से मेरी शादी हुई और 1975 में उनके साथ मैं सऊदी अरब चली गई। हालांकि कई सालों में रूक-रूककर तैयार हुई 'बॉम्बे बाई नाइट' को मेरी आखिरी रिलीज फिल्म कहा जा सकता है, जो 1976 में रिलीज हुई थी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में मेरे हीरो संजीव कुमार थे।'(शिशिरकृष्ण शर्मा,राजस्थान पत्रिका,10 जुलाई,2010)

Wednesday, July 21, 2010

आए तुम याद मुझे

'जिंदगी कैसी है पहेली' (आनंद), 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे' (रजनीगंधा) 'आए तुम याद मुझे' (मिली) और 'रिमझिम गिरे सावन' (मंजिल) जैसे क्लासिक गीतों के रचयिता योगेश को पिछले दिनों फालके अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया। फिल्मी गीतों के जरिए हिंदी का परचम बुलंद करने वाले वरिष्ठ गीतकार योगेश इस अवार्ड के साथ यहां नए-पुराने गीतों के बारे में विशिष्ट बातें शेयर कर रहे हैं।
फालके अकादमी अवार्ड मिलने पर
जब मेरा नाम अवार्ड के लिए नॉमिनेट हुआ, मुझे बडी हैरानी हुई। दर्शक मुझे पहचानते हैं, लेकिन मैं लो प्रोफाइल में रहता हूं। इंडस्ट्री के कई लोगों ने अपनी सफलता के बाद मुझे तवज्जो नहीं दी, लेकिन मेरा अपना फ्रैंड्स सर्किल था। जब मुझे अवार्ड मिला, मैं वाकई हैरान रह गया। आश्चर्य हुआ जानकर कि आज की इंडस्ट्री में भी मेरे गीत सुने जाते हैं।
फिल्मों के लिए बहुत कम लिखने के सवाल पर
मैं जानता हूं, लोग मेरे गीतों को पसंद करते हैं, लेकिन इन दिनों और भी लेखक हैं, जो बहुत ही संजीदा और दार्शनिक गीत लिख रहे हैं। दूसरी बात यह है कि 'आनंद' के बाद मैंने आर. डी. बर्मन, एस. डी. बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी, उषा खन्ना जैसे संगीतकारों के साथ काम किया है, पर मैं किसी के पास काम मांगने नहीं गया। तीसरी वजह यह है कि मेरी अब उम्र हो चुकी है और मेरे जमाने के लोग या तो रिटायर हो चुके हैं या इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। और फिर आज तो सिफारिश का जमाना है। इस पर कौन ध्यान देता है कि कौन अच्छा लिख रहा है और कौन नहीं।
क्या इन दिनों फिल्मों के लिए गीत लिख रहे हैं?
हां, लेकिन बडी फिल्मों के लिए नहीं। छोटी-छोटी तीन-चार फिल्में कर रहा हूं। शंकर (महादेवन) ने भी मुझे दो गीत लिखने को कहा है।
आज के गीतों के बारे में आपका नजरिया?
जो गीत इन दिनों चल रहे हैं, उनमें कुछ गीतकारों के कुछ गीत अच्छे हैं। पुराने दौर में किसी फिल्म में यदि दस गाने होते थे, तो दसों अच्छे होते थे। मिसाल के लिए राज कपूर की कोई भी फिल्म ले लें। आज सिर्फ एक या दो ही अच्छे मिलेंगे।
आप मानते हैं कि आज के गीतों में गहराई कम है?
जब हमने गीतकार बनना तय किया, तब जमकर साहित्य पढते थे। गालिब, महादेवी वर्मा, बच्चनजी, नीरजजी की रचनाएं पढते थे। हर लेखक की या तो साहित्य में गति थी या फिर वे काफी मैच्योर होते थे। आज के गीतों में गहराई नहीं है, क्योंकि फिल्म की कहानियों में ही दम नहीं है। फिर भी इंडस्ट्री में जावेद साहब या गुलजार जैसे उम्दा गीतकार हैं। वे बहुत ही खूबसूरत गीत लिख रहे हैं। कुछ अर्सा पहले 'आनंद' जैसी ही एक फिल्म आई 'कल हो ना हो'। इसका टाइटल सॉन्ग जावेद साहब ने बहुत ही अच्छा लिखा है। हालांकि आज की फिल्में पहले जैसी नहीं बनतीं। बेसिर-पैर की, सिर्फ टाइमपास एंटरटेनमेंट है। और जो लोगों को खाने को मिलेगा, वे वही खाएंगे, क्या करेंगेक्
क्या आपको अपने हिसाब से गीत लिखने की पूरी आजादी थी?
बिलकुल। मैंने शुरूआत में संगीतकार सलिल चौधरी के लिए गीत लिखे। उस समय जब उर्दू लफ्जों के इस्तेमाल का चलन था, मैंने 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे' गीत में 'अनुरागी' और 'कई बार यूं ही देखा है' में 'सीमा रेखा' जैसे शब्दों का उपयोग किया। सलिल चौधरी ने कभी नहीं कहा कि 'कौन समझेगा 'सीमा रेखा'क्' पंचम'दा के साथ काम करते समय भी ऎसी ही छूट थी। कहीं भी किसी ने मुझे टोका नहीं।

आपने जाने-माने संगीतकार सलिल चौधरी के साथ लगातार काम किया है। आप उन्हें अब मिस करते होंगे?
बहुत ज्यादा मिस करता हूं। मैं गीतकार तो बना, पर मैच्योरिटी तभी आती है जब सलिल दादा जैसी शख्सियत का सान्निध्य मिलता है। वे मेरे गुरू और मार्गदर्शक दोनों थे। दादा खुद बहुत ही अच्छी बंगाली कविताएं लिखते थे। उनके सामने तो मैं कुछ भी नहीं हूं। जब मैंने शुरूआत की थी, तब मुझ पर दादा की अक्सर फटकार पडती थी। वे मुझे बार-बार याद दिलाते कि मैं गीत फिल्म के लिए लिख रहा हूं। उन्होंने समझाया भी कि फिल्म के लिए गीत लिखना एक बात है और कविता लिखना एक बात। दोनों में काफी अंतर है।

क्या गीतकारों को पूरा महत्व मिलता है?
लोगों को गीत याद रहते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि गीत किसने लिखा है। आज भी जब मेरा परिचय करवाया जाता है, तो लोगों को लगता है कि मेरा नाम कुछ सुना-सुना-सा है, पर वे पहचान नहीं पाते। और जब किसी को अचानक याद आ जाता है, तो बोल पडते हैं: 'ओह! योगेशजी...गीतकार!' और फिर वे मेरे पैर छूते हैं।

आज के गीतों में आपका कोई पसंदीदा गीत
इन दिनों तो ऎसा कोई गीत नहीं सुना। पर हां, मुझे 'कलयुग' का 'तुझे देख देख' और 'मैट्रो' का 'है तुझे भी इजाजत' बेशक अच्छे लगे।
(कृतिका बेहरावाला,राजस्थान पत्रिका,17 जुलाई,2010)

Tuesday, July 13, 2010

कला का काला यथार्थ

पिछले दिनों एक पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा, क्या आप जानते हैं कि 37 वर्षीया मॉडल विवेका बाबाजी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार विवेका ने फांसी लगाने से पहले शराब और नशीली दवाओं का सेवन किया था। इसके बाद उन्होंने बॉलीवुड पर चढ़ाई कर दी, आप जैसे जिम्मेदार लोगों को फैशन और फिल्मी दुनिया में शराबखोरी व नशाखोरी के महिमामंडन को कम करने का प्रयास करना चाहिए। नौजवानों को इस किस्म की तेज रफ्तार वाली जिंदगी के खतरों के प्रति आगाह किया जाना चाहिए। लोगों की सोच बदलनी चाहिए। इसे बदलने में पुलिसवालों के बजाय आप जैसे कलाकार अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। नशीली दवाओं और शराब के प्रति फिल्मी सितारों और ग्लैमर उद्योग की ललक साफ जाहिर है और इसे आसानी से समझा जा सकता है। फिल्म स्टार जिस तनाव से गुजरते हैं उससे उबरने के लिए वे इस प्रकार के व्यसनों के गुलाम हो जाते हैं। जब तक सफलता का उत्सव न मना लें, इसे मान्यता नहीं मिलती। नौजवान और अनुभवहीन को इस दलदल में उतार दें और देखें कि किस तरह वे बर्बादी के कगार पर पहुंच जाते हैं, खासतौर पर ललित कलाओं में इस प्रकार के व्यसनों को विरासत के तौर पर लिया जाता है। केएल सहगल, मीना कुमारी, ऋत्विक घटक, गुरुदत्त भी पीने वालों में शामिल थे। वे पीने के बाद अक्सर बखेड़ा खड़ा कर देते थे। कला की दुनिया के लोग कहते हैं कि विलक्षण प्रतिभा के धनी कलाकार विचारोत्तेजना और रचनात्मकता में वृद्धि के लिए नशीली दवाओं और शराब का सहारा लेते हैं, किंतु इन सितारों के करीबियों का कहना है कि ये लोग शराब का सेवन अपनी उच्च संवेदनशीलता की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए आत्म-ध्यान के रूप में करते हैं। सवाल यह है कि क्या शराब और नशीले पदार्थ रचनात्मकता बढ़ाते हैं? शराब और नशीली दवाएं, दोनों का सेवन करने और फिर इन्हें छोड़ देने पर आज मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि यह खतरनाक सोच है। तमाम कलाकारों को एक साथ चिल्लाकर पूरे राष्ट्र को बता देना चाहिए कि शराब वास्तव में रचनात्मकता को कुचलती है। मिर्जा गालिब के समय से ही बहुत से कलाकार और लेखक शराब के नशे में डूबे रहे हैं। विशेषज्ञ आपको बता सकते हैं कि उन्होंने अपनी अधिकांश महान रचनाएं तब दीं जब वे किसी नशीले पदार्थ के प्रभाव में नहीं थे। आठवें दशक में वापस लौटते हैं। तब मैं भी बहुत अधिक शराब पीता था। मुझे लगता था कि अल्कोहल मुझे उस स्थान पर ले जाता है जहां मैं खुद को दीन-दुनिया से बेखबर और सुरक्षित महसूस करता था। शायद यही कारण है कि शराब को रचनात्मकता में सहयोगी माना जाता है। नशीले पदार्थ कुछ समय के लिए उद्दात्त भावनाओं में बहा ले जाते हैं, किंतु जैसे ही इनका असर खत्म होता है, आप और भी अकेले और असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। जैसे ही आप जिंदगी की सच्चाइयों से रू-ब-रू होते हैं, आपको इनका खोखलापन नजर आने लगता है। जब आप नियंत्रण खोने लगते हैं, जैसाकि मैंने खोया था तो आप जमीनी धरातल पर आकर गिरते हैं और आपको धक्का लगता है। ऐसा हममें से बहुत से लोगों के साथ होता है। विख्यात साहित्यकार जावेद अख्तर भी एक समय शराब की गिरफ्त में आ गए थे, किंतु मेरी तरह उन्होंने भी अरसा पहले बोतल से किनारा कर लिया। शराब छोड़ने के बाद अब उनकी रचनात्मकता में और निखार आ गया है। संजय दत्त भी इस मिथक के शिकार थे कि नशीली दवाएं चित्त शांत रखने में मदद करती हैं। नशीली दवाओं के साथ उनके रोमांस ने उन्हें मरने के कगार पर पहुंचा दिया था। अगर वह आज जिंदा हैं तो इसका श्रेय उनके पिता सुनील दत्त को जाता है। फिल्मी दुनिया की चमक-दमक में खुद को साबित करना खासा मुश्किल काम है। कलाकार आम तौर पर अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसे में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वे अपनी भावनाओं के ज्वार को बांधने के लिए नशीले पदार्र्थो की गिरफ्त में आ जाएं। और जब ऐसा हो जाता है तो उनके प्रियजनों और परिजनों को उन्हें इस नरक से निकालने में खुद को होम करना पड़ता है। जावेद और मैं अंदर से इतने मजबूत थे कि इस लत के जाल को काट पाए। संजय भाग्यशाली थे कि उन्हें सुनील दत्त का प्यार मिला और वह इस पर विजय हासिल कर पाए, किंतु विवेका भाग्यशाली नहीं थीं। अगर कोई उन्हें प्यार करने वाला होता तो उन्होंने खुदकुशी नहीं की होती। जीवन में शराब और नशीली दवाएं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकतीं। पैसा भी काम नहीं आएगा। आपको अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने में अंत:चेतना ही काम आएगी। इसी की तलाश करें। यह आपके पास है। जीवन की अमूल्य भेंट को शराब और नशे में न गलाएं। अंतश्चेतना ही आपकी रचनात्मक ऊर्जा को प्र”वलित कर सकती है(महेश भट्ट,दैनिक जागरण,13.7.2010)।

Saturday, July 10, 2010

जागरण फिल्म फेस्टिवल आज दून विश्वविद्यालय में

दून के कला फिल्म प्रेमी आज से दून विश्वविद्यालय के सभागार में अर्थपूर्ण फिल्मों का लुत्फले सकेंगे। शनिवार से अपने शहर देहरादून में दैनिक जागरण की ओर से दो दिवसीय फिल्म समारोह आयोजित किया जा रहा है। पेयजल मंत्री प्रकाश पंत इसका उद्घाटन करेंगे। दर्शकों को सेलिब्रिटीज से विचार-विमर्श का भी मौका मिलेगा। देहरादून में होने वाले फिल्म समारोह में फिल्म निर्देशक सौरभ शुक्ला, तिग्मांशु धूलिया, राजा मेनन और अभिनेता विजय राज पैनलिस्ट के रूप में शामिल होंगे। जागरण फिल्म समारोह की खास बात यह है कि इसमें पांच वर्गो की खास 65 फिल्मों का चयन किया गया है। टोस्ट टू वुमन वर्ग में महिला मुद्दों पर आधारित फिल्में दिखाई जा रही हैं। वन फॉर द सिटी वर्ग में ऐसे फिल्म एक्टर, एक्ट्रेस या फिल्म निर्देशक की फिल्म का प्रदर्शन होगा जो शहर से जुड़ा है। व‌र्ल्ड क्लासिक श्रेणी में विश्व सिनेमा की उन सर्वकालिक श्रेष्ठ फिल्मों का प्रदर्शन होगा, जिनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान है। लाफिंग रॉयट श्रेणी में ऐसी हल्की फुल्की फिल्मों का प्रदर्शन होना है जो सार्थक हास्य व व्यंग्य से भरपूर हैं। डाइरेक्टर्स च्वाइस श्रेणी में उन फिल्म निर्देशकों की पसंद की फिल्म प्रदर्शित की जाएगी जो फिल्म फेस्टिवल में शामिल होंगे। समारोह में शनिवार व रविवार को तीन-तीन फिल्में दिखाई जाएंगी। देहरादून के बाद जागरण फिल्म समारोह जालंधर, लुधियाना, पटना, रांची, जमशेदपुर और दिल्ली में भी आयोजित किया जाएगा(दैनिक जागरण,देहरादून ,१०.७.२०१०) ।

सौ बरस का होने को है सार्थक सिनेमा

देश में सार्थक सिनेमा करीब सौ साल की उम्र पार कर चुका है। सार्थक सिनेमा यानि जिसे आज कला या समानांतर फिल्मों के नाम से भी जाना जाता है। इसकी शुरूआत 1920-30 के दशक से हुई थी। शुरुआती फिल्मों की बात करें तो वी शांताराम ने 1925 में साहूकारों के कर्ज में डूबे भारतीय किसान की नियति पर पहली मूक सार्थक फिल्म सावकारी पाश बनाई थी। इसके बाद उन्होंने 1937 में समाज में महिलाओं की दशा पर दुनिया ना माने फिल्म का निर्माण किया, लेकिन सही मायने में समानांतर सिनेमा आंदोलन ने 1940 से 60 के दशकों में आकार लेना शुरू किया। यह देश में उथल-पुथल का दौर था। लोगों का कांग्रेस के एकछत्र राज से मोहभंग होने लगा था। भारतीय सिनेमा का यह सुनहरा दौर था। सत्यजीत रॉय, ऋत्विक घटक, बिमल रॉय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम जैसे निर्देशकों ने इस दौरान सिनेमा को महज मनोरंजन के बजाय, समाज के अध्ययन का औजार और सामाजिक सरोकार के विषयों पर फिल्में बनानी शुरू कीं। चेतन आनंद की नीचा नगर वह पहली फिल्म थी, जिसने पहले कांस फिल्म समारोह (1946) में ग्रांड पुरस्कार जीता। 1950 व 60 के दशकों में फिल्मों के बुद्धिजीवी संगीतमय फिल्मों से उचाट हो गए और देश में पहली बार नव यथार्थवादी फिल्में बननी शुरू हुई। सत्यजीत राय के बाद श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, गिरीश कसारवल्ली और बिमल रॉय ने पाथेर पांचाली, अपराजितो, द व‌र्ल्ड ऑफ अपु, दो बीघा जमीन जैसी फिल्में बनाईं। इसी बीच हृषिकेश मुखर्जी ने एक नई धारा को जन्म दिया, जिसे मध्यमार्गी सिनेमा कहा जाता है। ये फिल्में न तो मुंबईया सिनेमा की तरह कल्पना की उड़ान थीं, न उनके विषय समानांतर सिनेमा की तरह ठोस यथार्थवादी थे। ये फिल्में मध्यमवर्ग की कहानी कहती थीं। एक तरह से कहा जाए तो ये कला व व्यावसायिक सिनेमा का फ्यूजन थीं। इसी दौर में गुरुदत्त की फिल्म प्यासा (1957) ने टाइम मैगजीन की ऑल टाइम सौ फिल्मों में जगह बनाई। 1960 के दशक में बंगाली फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक के बिना भारतीय कला फिल्मों का इतिहास अधूरा है। फिल्म एंड टीवी इंस्टीट्यूट के निदेशक रहे घटक ने सत्यजीत राय से पहले ही कला फिल्म नागरिक बनाई थी, लेकिन वह 1977 में उनकी मौत से पहले रिलीज ही नहीं हो पाई। 1970 से 80 के दशक में हिंदी समानांतर सिनेमा एक बार भी चर्चा में आ गया। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, सईद अख्तर मिर्जा, महेश भट्ट और गोविंद निहलानी ने सार्थक सिनेमा को नए मुकाम पर पहंुचाया। श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर इस दौर की एक मशहूर फिल्म है। इसी दौर ने शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, अमोल पालेकर, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर जैसे शानदार अभिनेताओं को जन्म दिया। रेखा, अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी ने इसी दौर में कला सिनेमा का रुख किया। देश में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही 1990 के दशक की शुरूआत में फिल्मों की बढ़ती लागत और सरकारी मदद में कमी से कला सिनेमा को गहरा धक्का लगा। निर्माताओं ने भी उनके विषयों से दूर होना शुरू कर दिया। मगर 90 का दशक खत्म होते-होते व्यावसायिक सिनेमा के आगे भी विषयों का संकट गहराने लगा। नए विषयों से दर्शकों को जोड़ने की चाह में निर्माताओं ने नए विषयों को लेने की हिम्मत दिखानी शुरू की और कला सिनेमा को एक नई जिंदगी मिली। मणिरत्नम की दिल से व युवा, तिग्मांशु धूलिया की हासिल इस दौर में बेहतरीन कला फिल्मों के कुछ उदाहरण हैं(अरविंद शेखर,दैनिक जागरण,देहरादून ,१०.७.२०१०) ।

सार्थक सिनेमा यानी आवाम की आवाज

सार्थक सिनेमा समाज का ऐसा सच है, जो परिस्थितियों को ज्यों का त्यों परोसने की क्षमता रखता है। असल में यह थियेटर का ही दूसरा रूप है, जो रंगमंच की जगह पर्दे पर साकार होता है। इसमें सच कहने, समाज को उद्वेलित करने और उसे दिशा देने की भी ताकत है। इसीलिए बाजार इसे समाज से दूर रखना चाहता है। दैनिक जागरण की यह पहल दून में एक नई सोच डेवलप करेगी। अतीक अहमद, वरिष्ठ रंगकर्मी आर्ट मूवी का इंपेक्ट बहुत अधिक है। सिनेमा का यह ऐसा संस्करण है, जो सीधे-सीधे आमजन की मनोदशा को प्रभावित करता है। ऐसी फिल्में आज भी बड़ी तादाद में बन रही हैं, लेकिन बाजारू ताकतें उन्हें जनमानस तक नहीं पहुंचने देना चाहतीं। उदाहरण के तौर पर इसे लव मैरिज व अरेंज्ड मैरेज के रूप में भी देखा जा सकता है। लव मैरिज में दिखावा नहीं है, फिर समाज के कथित हितचिंतक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। जबकि अरेंज्ड मैरेज में दिखावा है, चोंचलेबाजी है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की मनोवृत्ति है, फिर भी इसे आदर्श माना जाता है। बबीता अनंत, वरिष्ठ रंगकर्मी सार्थक सिनेमा क्षेत्र की भावनाओं को उभारने का भी महत्वपूर्ण माध्यम है। देश में जितने भी बड़े आंदोलन हुए, उन्हें कहीं न कहीं सार्थक सिनेमा ने ताकत दी। आजादी के दौर में वह सार्थक सिनेमा ही था, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। यूरोप और अमरीका में आज भी सार्थक सिनेमा खूब बनता है, जिसके कद्रदान पूरी दुनिया में हैं,लेकिन इन्हीं देशों की शह पर भारत में इसे दरकिनार रखने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे मौके पर जागरण का यह प्रयास नि:संदेह सराहनीय है। दिनेश गुसाई, फिल्म मेकर सार्थक सिनेमा ने समाज को नई ऊंचाइयां दी हैं। खासतौर पर रीजनल सिनेमा में इसकी काफी पैठ रही है। जिस भी क्षेत्र या प्रांत में सार्थक सिनेमा मजबूत रहा, वहां समाज में क्रिएटिविटी भी ज्यादा देखने को मिलती है। सीमित संसाधनों में समाज के मनोभावों को व्यक्त करने का इससे बेहतर जरिया और कोई हो ही नहीं सकता। बलराज नेगी, फिल्म अभिनेता सब जानते हैं कि व्यावसायिक सिनेमा मनुष्य को कहां ले जा रहा है। वह जीवन के करीब है न यथार्थ के। दरअसल हमने सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन समझ लिया है। यहां तक कि वंचित तबके के लोग भी उसमें दिखने वाली बड़ी गाडि़यों व खूबसूरत बालाओं की मृगमरीचिका के जरिए अपने जीवन का कटु यथार्थ भूलने की कोशिश करते हैं। दरअसल हमारे देश में सिनेमा को लेकर समाज को शिक्षित ही नहीं किया गया। हम सिनेमा का व्याकरण ही नहीं जानते। ऐसे में सार्थक सिनेमा ही उम्मीद जगाता है। सुभाष पंत, वरिष्ठ हिंदी कथाकार कला फिल्मों को सार्थक सिनेमा की संज्ञा तभी दी जा सकती है, जब वह समाज को सकारात्मक बदलाव की दिशा दे। दरअसल होता यह है कि कला फिल्मों के नाम पर समाज का संकट यथार्थवादी दृष्टि के साथ तो प्रस्तुत किया जाता है, मगर उसका विकल्प क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं समझी जाती। फिर समाज को भटकाव में छोड़ने वाले को सार्थक सिनेमा कैसे माना जा सकता है। विजय गौड़, वरिष्ठ रंगकर्मी, कवि-उपन्यासकार मैं कला की बजाय सार्थक सिनेमा की बात करूंगा। सार्थक सिनेमा वही है, जो जनता की मुश्किलें हल करने का कोई रास्ता सुझाए। हाल में बहुत सी ऐसी फिल्में आईं, जो अच्छी फिल्मों का भ्रम पैदा करती हैं, मसलन स्लम डॉग मिलिनियर। मगर, वह कहीं न कहीं अपनी अंतर्वस्तु में व्यवसाय को तवज्जो दे रही होती हैं। यहां तक कि आम जनता की सोच को एक खास दृष्टि से प्रभावित करने की कोशिश करती हैं। उनमें व्यक्तिवाद व भाग्यवाद को जगाती हैं। सार्थक सिनेमा तो वह है जो अपना मुहावरा खुद गढ़े। राजेश सकलानी, वरिष्ठ हिंदी कवि सार्थक सिनेमा की बात ऋत्विक घटक के जिक्र के बगैर शुरू ही नहीं की जा सकती। ऋत्विक घटक ने ही भारतीय सिनेमा को यथार्थपरक सोच व दिशा दी थी। उन्होंने ही भारतीय सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन बने रहने के कुचक्र से मुक्त किया। उनकी फिल्में समाज परिवर्तन की चाह पैदा करती है। मेरी नजर में सार्थक सिनेमा बदलाव का औजार है। यह समानांतर फिल्मों का ही असर है कि आज बॉलीवुड दर्शकों के लिए नए विषय तलाश रहा है। डॉ. अतुल शर्मा रंगकर्मी, दैनिक जागरण,देहरादून ,१०.७.२०१०)

बेचारी नहीं रहीं नायिकाएं

"ये एक मजलूम लड़की है, जो इत्तेफाकन मेरी पनाह में आ गई है।" फिल्म पाकीजा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का जरा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फिल्मों की नायिका दशकों से मजलूम होने का बोझ ढोती आ रही हैं और यह सिलसिला कुछ अर्थो में आज भी कायम है। हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नजरिए और अहं के साथ ही गढ़ा गया है। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फिल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गांधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज मानती है, लेकिन दुनिया न माने की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर तदबीर की नरगिस या तानसेन की खुर्शीद तक सभी नायिकाएं वैसी ही गढ़ी गई, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है। महबूब खान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई। केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस द्वारा अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रूप में एक और शेड मिलता है। बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है। आजादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फिल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की सीमा और बिमल रॉय की बंदिनी में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता तो ऋषिकेश मुखर्जी की अनुपमा और अनुराधा भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती हैं। लेकिन फिल्म जंगली के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने अंकुर और निशांत में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की और यह भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है, लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा। नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीता बाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं। फिर भी अंदाज दिलीप कुमार की ही फिल्म मानी जाती रही, बरसात राजकपूर की और महल अशोक कुमार की। हालांकि राज कपूर की सत्यम् शिवम् सुंदरम् में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में प्रेम रोग विधवा समस्या पर सार्थक फिल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय जरूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं। वे औरत को उसी रूप में पेश करते रहे, जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही है। अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। अभिमान या मिली जैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुई, पर इसी बीच परवीन बॉबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा। सत्तर के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही और नायक की राह में आंचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रहीं। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उनकी मजबूरी रही है। अस्सी का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथा और चश्मेबद्दूर या गोलमाल जैसी अलग महिला किरदारों वाली फिल्में तो आती हैं, पर यह परंपरा कायम नहीं रह पाती। महेश भट्ट की अर्थ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे, लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आजमी मिलीं। भट्ट की इस फिल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को दिखाया। सुबह और भूमिका भी इसी दशक में आई और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गई। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने जख्मी औरत, रूदाली और लेकिन से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए। सावन भादो से एक अनगढ़ लड़की के रूप में आई रेखा ने उमराव जान और खूबसूरत जैसी फिल्मों से अपना अलग मुकाम बनाया, लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग से ही आया। काजोल दुश्मन और बाजीगर में कुछ अलग किस्म की भूमिकाओं में दिखीं, लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के ब्लैक में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की सत्ता या गुलजार की हू तू तू बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कैटरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं। बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। हाल की इश्किया में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है- आपके पांव देखे, बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर न रखिएगा, मैले हो जाएंगे..।
(मंजीत ठाकुर,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,१०.७.२०१०)

Friday, July 9, 2010

कब लौटेगा खलनायकों का दौर

हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मजबूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फिल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षसगण। हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी का असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले अंधविश्वासग्रस्त लोग थे। अछूत कन्या में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसी तरह महबूब खान की नजमा में पारंपरिक मूल्य वाला मुस्लिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में दुनिया ना माने का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है। पचास और साठ के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र साहूकारी पाश का सूदखोर महाजन मंटो की लिखी किसान हत्या से होते हुए अपनी बुलंदियों पर महबूब खान की औरत में पहुंचा और कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर 1956 में मदर इंडिया में प्रस्तुत किया। भारत में डाकू की एक छवि रॉबिनहुडनुमा व्यक्ति की भी रही है और समाज में मौजूद अन्याय और शोषण की वजह से मजबूरी में डाकू बनने वाले किरदार लोकप्रिय रहे हैं। सुनील दत्त की सतही मुझे जीने दो के बाद यह पात्र दिलीप कुमार की गंगा-जमुना में क्लासिक डायमेंशन पाता है। सत्तर और अस्सी के दशक में तस्कर और व्यापारी विलेन बन गए और अब वे अधिक सुविधा-संपन्न और खतरनाक भी हो गए थे। चूंकि स्मगलिंग विदेशों में होती थी, इसलिए खलनायक के साथ एक अंग्रेज-सा दिखने वाला किरदार भी परदे पर आने लगा, जो दर्शकों की सहूलियत के लिए हिंदी बोलता था। यह उस युग की बात है, जब अर्थनीति सेंटर में थी और आज जब अर्थनीति की रचना में लेफ्ट शामिल है, गुरु जैसी फिल्म बनती है, जिसमें पूंजीपति खलनायक होते हुए भी नायक की तरह पेश है और आखिरी रील में वह स्वयं को महात्मा गांधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है। पांचवें और छठे दशक में ही देव आनंद के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमेरिका में पनपे नोए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायमपेशा अपराधी रहे हैं, जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्मे थे। फिर समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ। सलीम-जावेद ने मेर्लिन ब्रेंडो की वाटर फ्रंट के असर और हाजी मस्तान की छवि में दीवार के एंटी-नायक को गढ़ा, जिसमें उस दौर के ग़ुस्से को भी आवाज मिली। इसी वक्त नायक-खलनायक की छवियों का घालमेल भी शुरू हुआ। श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत में खलनायक तो जमींदार ही रहे, लेकिन अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। इसी क्रम में पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की अ‌र्द्धसत्य में आवाज मिली और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के असर को देव में पेश किया गया। इसी दौरान खलनायक अब पूरे देश पर अपना अधिकार चाहने लगे। सिनेमा ने अजीबोगरीब दिखने वाले, राक्षसों-सी हंसी हंसने वाले, सिंहासन पर बैठे, काल्पनिक दुनिया के से खलनायकों को जन्म दिया। शाकाल, डॉक्टर डैंग और मोगैंबो इन्हीं में से थे। इसी बीच 1975 में एक ऐसा खलनायक आया, जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी। वह बस बुरा था। वह गब्बर सिंह था, जिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे। हिंदी समझने वाला ऐसा भारतीय मुश्किल से ही मिलेगा, जिसने अब तेरा क्या होगा बे कालिया न सुना हो। अमजद खान के बाद वैसा खौफ सिर्फ दुश्मन और संघर्ष के आशुतोष राणा ने ही पैदा किया। इन दोनों फिल्मों का सीरियल किलर नब्बे के दशक के उत्तरा‌र्द्ध के उन खलनायकों का प्रतिनिधित्व करता है, जो मानसिक रूप से बीमार थे। मानसिक अपंगता के साथ शारीरिक अपंगता भी बॉलीवुड में खलनायकों के गुण की तरह इस्तेमाल की जाती रही है। अपनी क्षतिग्रस्त आंख के कारण ललिता पवार सालों तक दुष्ट सास के रोल करती रहीं। डर के हकलाते शाहरुख और ओमकारा का लंगड़ा त्यागी भी इसी कड़ी में हैं। इसी बीच हीरो हीरोइन के घर से भागकर शादी करने वाली फिल्मों ने उनके माता-पिता को ही खलनायक बनाना शुरू कर दिया। इसके उलट बागबां और अवतार की संतानें अपने माता-पिता की खलनायक ही बन गई। कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा तो रोजा ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के रूप में बॉलीवुड को एक नया दुश्मन दिया। इन्ही दिनों बॉलीवुड के चरित्र वास्तविक जीवन के चरित्रों की तरह आधे भले-आधे बुरे होने लगे। परिंदा, बाजीगर, डर, अंजाम और अग्निसाक्षी जैसी फिल्मों ने एक नई परिपाटी शुरू की, जिनके मुख्य चरित्र नकारात्मकता लिए हुए थे। लेकिन पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब कर दिया। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में पिता शुरू में विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगे, लेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं। इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता है, लेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है। संयोग ऐसा रहा कि तीनों की फिल्में सफल रहीं। लिहाजा, बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया है, जिसे देखकर घृणा होती है। फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है। बहरहाल, सिनेमा अपने एकआयामी चरित्रों और कथानकों के साथ जी रहा है, लेकिन तय है कि खलनायकों की वापसी होगी, क्योंकि खलनायकत्व उत्तेजक है(मंजीत टाकुर,दैनिक जागरण,9.7.2010)।

Thursday, July 8, 2010

मोतीलाल

हिंदुस्तानी सिनेमा में नेचुरल एक्टिंग की चर्चा चलने पर गिने-चुने चेहरे ही याद आते हैं। इनमें जिस कलाकार का नाम सबसे पहले चमका और टॉप पर पहुंचा, वे थे- मोतीलाल। इस अनूठे अदाकार के जन्मशती वर्ष पर 'बॉलीवुड' की भावभीनी श्रद्धांजलि।

हर बार अलग अंदाज
हिंदी सिनेमा के आसमान में अब तक सैकडों नायक जगमगाए हैं। उनमें सिर्फ दो हीरो ऎसे हुए हैं, जिन्होंने अपनीे नेचुरल एक्टिंग से दर्शकों को लुभाया और कामयाब हुए। इनमें पहला नाम है- मोतीलाल का, और दूसरा- संजीव कुमार का। मोतीलाल ने अपने मैजिक से नायक और चरित्र अभिनेता के रूप में दो दशक तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। उन्होंने हिंदी फिल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खडा किया। मोतीलाल की पहचान उनके सिर की फेल्ट-हैट थी, जिसे उन्होंने कभी मुडने नहीं दिया। शानदार चमचमाते शर्ट-पेंट, जूतों की चमक में झिलमिलाते अक्स। चाल-ढाल में नजाकत-नफासत। बातचीत में शाही अंदाज। मोतीलाल जिंदादिल एक्टर ही नहीं, जीते-जागते केलिडोस्कोप थे। जब देखो, जितनी बार देखो, हमेशा अलग अंदाज में नजर आते थे मोतीलाल।



स्मार्ट यंगमैन
शिमला में चार दिसंबर 1910 को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे, तभी पिता का साया सिर से उठ गया। चाचा ने परवरिश की, जो उत्तरप्रदेश में सिविल सर्जन थे। चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को बिंदास अंदाज में जीने और उदारवादी सोच का नजरिया दिया। शिमला के अंग्रेजी स्कूल में शुरूआती पढाई के बाद उत्तरप्रदेश और फिर दिल्ली में उच्च शिक्षा हासिल की। अपने कॉलेज के दिनों में वे ऑलराउंडर स्टूडेंट थे। नेवी ज्वॉइन करने के इरादे से मुंबई आए थे। अचानक बीमार हो गए, तो प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए। शानदार ड्रेस पहनकर सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने जा पहुंचे। वहां डायरेक्टर कालीप्रसाद घोष्ा एक सामाजिक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा, तो उनकी आंखें खुली रह गई। उन्हें अपनी फिल्म के लिए ऎसे ही हीरो की तलाश थी, जो बगैर बुलाए मेहमान की तरह सामने खडा था। उन्होंने अगली फिल्म 'शहर का जादू' (1934) में सविता देवी के साथ मोतीलाल को नायक बना दिया। तब तक पाश्र्वगायन प्रचलन में नहीं आया था। लिहाजा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत खुद गाए थे। इनमें 'हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता' गीत लोकप्रिय भी हुआ। सागर मूवीटोन उस जमाने में कलाकारों की नर्सरी थी। सुरेंद्र, बिब्बो, याकूब, माया बनर्जी, कुमार और रोज जैसे कलाकार वहां कार्यरत थे। डायरेक्टर्स में महबूब, सर्वोत्तम बदामी, चिमनलाल लोहार अपनी सेवाएं दे रहे थे। मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी के जरिए तमाम नायकों को पीछे छोडते हुए नया इतिहास रचा। परदे पर वे एक्टिंग करते कभी नजर नहीं आए। मानो उसी किरदार को साकार रहे हो।



'दीवाली' से 'होली' तक बहुरंगी
वष्ाü 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो ज्वॉइन कर लिया। इस बैनर की फिल्मों में उन्होंने 'दीवाली' से 'होली' के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की पॉपुलर गायिका-नायिका खुर्शीद के साथ उनकी फिल्म 'शादी' सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फिल्में आई- 'परदेसी', 'अरमान', 'ससुराल' और 'मूर्ति'। बॉम्बे टॉकीज ने गांधीजी से प्रेरित होकर फिल्म 'अछूत कन्या' बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर 'अछूत' फिल्म बनाई। फिल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फिल्म को गांधीजी और सरदार पटेल का आशीर्वाद मिला था। 1939 में इन इंडियन फिल्म्स नाम से ऑल इंडिया रेडियो ने फिल्म कलाकारों से इंटरव्यूज की एक श्रृंखला प्रसारित की थी। इसमें 'अछूत' का विशेष्ा उल्लेख इसलिए किया गया था कि फिल्म में गांधीजी के अछूत उद्घार के संदेश को सही तरीके से उठाया गया था।



'दिल जलता है, तो जलने दे'
मजहर खान निर्देशित फिल्म 'पहली नजर' में मोतीलाल को उनके चचेरे भाई मुकेश ने प्ले-बैक दिया था। मुकेश का गाया यह पाश्र्वगीत था- 'दिल जलता है, तो जलने दे'। मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फिल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे।



'जिंदगी ख्वाब है'
वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। विमल राय की फिल्म 'देवदास' (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। सुघि दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड रही खूंटी की छाया में अपनी छडी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। 'देवदास' का यह क्लासिक सीन है। राज कपूर निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फिल्म 'जागते रहो' (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'जिंदगी ख्वाब है'। 'देवदास' और 'परख' फिल्मों की चरित्र भूमिकाओं के लिए मोतीलाल को फिल्मफेअर अवार्ड मिले थे। उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में राजवंश प्रोडक्शन कायम करके फिल्म 'छोटी-छोटी बातें' बनाई थी। फिल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट जरूर मिला, पर मोतीलाल दिवालिया हो गए। फिल्म 'तीसरी कसम' शैलेंद्र के जीवन के लिए भारी साबित हुई थी। मोतीलाल का यही हाल 'छोटी छोटी बातें' कर गई।
(श्रीराम ताम्रकर,राजस्थान पत्रिका,3 जुलाई,2010)

बदलता दौर,बदलते नायकःमंजीत ठाकुर

भारत में सिनेमा जब शुरु हुआ, तो फिल्में मूल रुप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी मूल रुप से हरिश्चंद्र, राम या बिष्णु के किरदारों में आते थे। पहली बोलती फिल्म आलम आरा (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं, लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण युग था। वह सहगल, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, जयराज, प्रेम अदीब, किशोर साहू, मोतीलाल, अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का जमाना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार, देव आनंद, किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे। पारसी और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं, उधर बरुआ ने बांग्ला देवदास में नायक की परिभाषा को बदल दिया। अचानक सहगल और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच की दो अहम कडि़यां हैं। इन दोनों में मोतीलाल सहज-स्वाभाविक अभिनय करने में बाज़ी मार ले जाते हैं, लेकिन कलकत्ता में लगातार तीन साल चलने वाली किस्मत में अशोक कुमार एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे। आजादी के आसपास ही परदे पर देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। दिलीप कुमारनुमा रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमार, रोमांस हो या भक्ति, मूल रुप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे, और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए। दिलीप कुमार ने अभिनय की हदें बदल डालीं। आजादी के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा, देवानंद ने। देवानंद कालेज के लड़कों में, एडोलसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। देव आनंद हॉलीवुड के बड़े नायक ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो हुए, लेकिन पेक की कुछ अदाओं को छोड़कर उन्होंने उनसे अच्छा अभिनय कभी नहीं सीखा जो पेक की रोमन हॉलिडे, टु किल ए मॉकिंग बर्ड या दि गांस ऑफ नावारोने में दिखाई देता है। एक मजेदार प्लेब्वॉय बनकर ही रह गए देवानंद की लोकप्रियता कई बार दिलीप कुमार और राजकपूर से ज्यादा साबित हुई। इस तिकड़ी में देव ही ऐसे थे जिनकी नकल करोड़ों दर्शकों ने की, लेकिन उनके किसी समकालीन ने उसकी नकल करने की ज़ुर्रत नहीं की। राजकपूर, एक अच्छे अभिनेता तो थे ही, लेकिन उससे भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। आरके लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होंने रुपहले परदे पर साकार करने की कोशिश की। राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, ये तीनों एक स्टाइल आइकन थे, लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा, जब एक किस्म का रियलिटी चेक जिदंगी में आया। इस तिकड़ी के शबाब के दिनों में ही बलराज साहनी ने दो बीघा जमीन के जरिए मा‌र्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। दो बीघा जमीन उस जमाने की पहली फिल्म थी, जिसमें इटैलियन नवयथार्थवाद की झलक तो थी ही, इसका कारोबार भी उम्दा रहा था। फिल्म में बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। बेहद हैंडसम रहे साहनी हिंदी सिनेमा के पहले असली किसान-मजदूर के रूप में पहचाने गए। दरअसल, अभिनय के मामले में अपने समकालीनों से बीस ही रहे साहनी, ओमपुरी, नसीर और इरफान के पूर्वज ठहरते हैं। गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे, लेकिन उनका दायरा बेहद सार्वजनिक हुआ करता था। गुरुदत्त ने परदे पर एक अलग तरीके के नायक की रचना की। कागज के फूल के नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख टिप्पणी छोड़ी। इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह और आदर्शवाद साथ दिखा। भारत माता के रूप में उकेरी गई नरगिस ने अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी, लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरु हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी। उधर अभिनय-शैली के मामले शुरू में एल्विस प्रेस्ली से प्रभावित शम्मी कपूर ने बाद में खुद की जंगली शैली विकसित की । इसका गहरा असर जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती वगैरह से होता हुआ गोविंदा तक आता है। 1969 में शक्ति सामंत की ब्लॉक बस्टर फिल्म आराधना ने रोमांस के एक नए नायक को जन्म दिया, जो पूछ रहा था, मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू। इसके साथ ही हिंदी सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। राजेश खन्ना दिलीप कुमार की परंपरा में थे और रोमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। किशोर कुमार की आवाज गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज बन गई, और इसने राजेश खन्ना को एक मैटिनी आइडल बना दिया। परदे पर रोमांस की तमाम कोशिशों के बाद फिल्म जंजीर में एक बागी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना। गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज ने फिल्म जगत को एक नई देह-भाषा दी। एक ऐसे समय जब पूरा देश जमाखोरी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, अमिताभ बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के जरिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया। विजय नाम का यह नौजवान इंसाफ के लिए लड़ रहा था और उसे न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता था, लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया। जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है। देव में इस नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में अमिताभ बच्चन का गुस्सैल नौजवान अप्रासंगिक होता दिखा। नब्बे के दशक में भारत बदला, नई नीतियां आ गईं और तरक्की की ओर जाने के रास्ते बदल गए, तो बागी तेवरों के लिए दर्शकों के लिए जो अपील थी, वह खत्म होने लगी। उदारीकरण होने लगा तो नए हिंदुस्तान को दिखाने के लिए सिनेमा में नए चेहरों की जरुरत पड़ी। इस मौके को वैश्रि्वक भारतीय बने राज मल्होत्रा यानी शाहरुख ने थाम लिया। इनका किरदार नौकरी के लिए कतार में नहीं लगता, उसे भूख की चिंता नहीं है, वह एनआरआई है और अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक आ जाता है। आमिर में शाहरुख जैसी अपील तो नही है, लेकिन वह अदाकारी में शाहरुख से कई कदम आगे हैं। शाहरुख तड़क-भड़क में आगे हैं, लेकिन अपनी फिल्मों में मैथड एक्टिंग के जरिए आमिर, शाहरुख के जादू पर काबू पा लेते हैं। एक तरह से आमिर मिडिल सिनेमा में मील के पत्थर हंै तो शाहरुख सुपर सितारे की परंपरा के वाहक(दैनिक जागरण,8.7.2010)।

Wednesday, July 7, 2010

राजू श्रीवास्तव


(स्पेक्ट्रम,नई दुनिया,जून 2010)

बदलता गया सिनेमा,नहीं बदली चाहतःमंजीत ठाकुर

सिनेमा, जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे, आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। 7 जुलाई 1896 को जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था, तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बगैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा। सिनेमा ने समाज के सच को एक दस्तावेज की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930 में आरएसडी चौधरी की बनाई व्रत हो, जिसमें मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था, चाहे 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने। बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। जिस दौर में पाकिस्तान अलग करने की मांग और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़ें जमा चुका था, 1941 में फिल्म बनी पड़ोसी, जो सांप्रदायिक सौहार्द्र पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जाति हालांकि आज भी लगान और राजनीति तक में दिखी है, लेकिन इससे बहुत पहले 1936 में ही देविका रानी और अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज की अछूत कन्या में जाति प्रथा का मुद्दा उठा चुके थे। दलित मुद्दे पर फिल्मों में बाद में बनी फिल्म सुजाता को कोई कैसे बिसरा सकता है। देश आजाद हुआ तो एक नए किस्म का आदर्शवाद छाया था। फिल्में भी इस लहर से अछूती नहीं थीं। देश के नवनिर्माण में उसने कदमताल करते हुए युवा वर्ग को नई दिशा, नई सोच और नए सपने बुनने के अवसर प्रदान किए। 50 का दशक संयुक्त परिवार और सामाजिक समरसता की फिल्मों का दशक था। संसार, घूंघट, घराना, और गृहस्थी जैसी फिल्मों ने समाज की पारिवारिक इकाई में भरोसे को रूपहले परदे पर आवाज दी। इन्हीं मूल्यों और सुखांत कहानियों के बीच कुछ ऐसी फिल्में भी इस दौर में आई, जिन्होंने समाज में वैचारिक स्तर पर आ रहे बदलाव को रेखांकित भी किया। एक ओर तो राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की तिकड़ी अपने रोमांस के सुनहरे रोमांस से दुनिया जीत रही थी, लेकिन राज कपूर की फिल्मों में एक वैचारिक रुझान साफ दिख रहा था, और वह असर था मा‌र्क्सवराद का। गौरी से कैरियर शुरू करने वाले राज कपूर अभिनेता के तौर पर चार्ली-चैप्लिन का भारतीय संस्करण पेश करने की कोशिश में थे। हालांकि श्री 420 में वह नायिका के साथ एक ही छतरी के नीचे बारिश में भींगकर गाते भी हैं, और इस तरह राज कपूर ने दब-छिपकर रहने वाले भारतीय रोमांस को एक नया अहसास दिया। हालांकि, भारतीय सिनेमा के संदर्भ में किसी विचारधारा की बात थोड़ी असंगत लग सकती है, लेकिन पचास के दशक के शुरुआती दौर में विचारधारा का असर फिल्मों पर दिखा। बिमल रॉय की दो बीघा जमीन भारत में नव-यथार्थवाद का मील का पत्थर है। लेकिन ज्यादातर भारतीय फिल्मों में जिस वामपंथी विचारधारा के दर्शन होते हैं, वह कोई क्रांतिकारी विचारधारा न होकर सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाला है। इसमें समाज सुधार, भूमि सुधार, गांधीवादी दर्शन और सामाजिक न्याय सभी कुछ शामिल है, लेकिन हर आदर्शवाद की तरह फिल्मों का यह गांधी प्रेरित आदर्शवाद ज्यादा दिन टिका नहीं। ऐसे में आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ। राजेश खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था। इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं। सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी। दर्शक बेचैन था। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज की जरूरत थी। ऐसे में एक लंबे लड़के की बुलंद आवाज परदे पर गूंजने लग गई। इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और खुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता। कुछ लोग तो इतना तक कहते हैं कि अमिताभ नाम के इसी गुस्सैल नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी। बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया। जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया। तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मृत्युदाता और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया। वजह, उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था। अब लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसा था तो वे रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करें। ऐसे में एक और नए लड़के ने दस्तक दी। यह लड़का कूल है। इतना कि अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक चला आए। परदेसी भारतीयों की कहानियों पर और परदेसी भारतीयों के लिए बनाई गई फिल्मों में शाहरुख खान का किरदार राज मल्होत्रा एक सिंबल के तौर पर उभरा। हालांकि परदेसी भारतीयों के लिए बनाए जा रहे सिनेमा में तड़क-भड़क ज्यादा हो गया और भारत के आम आदमी का सिनेमा के कथानक से रिश्ता कमजोर हो गया। ऐसे में मिडिल सिनेमा ताजा हवा का झोंका बनकर आया है। व्यावसायिक रूप से सफल इन फिल्मों का क्राफ्ट और कंटेंट दोनों मुख्यधारा की फिल्मों से बेहतर है। आमिर खान की लगान, तारे जमीं पर जैसी कई फिल्मों, शाहरुख की स्वदेश और चक दे इंडिया, और श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर और वेलडन अब्बा ने सामयिक विषयों को फिल्मों में जगह दी है। और तब अलग से यह कहने की जरूरत रह नहीं जाती कि सिनेमा समाज का अक्स है। (जारी..)

Monday, July 5, 2010

परिवर्तन नाम से फिल्म बना रहीं शताब्दी

विभिन्न चुनावों में वाममोर्चा की लगातार हुई हार और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी की जीत के बाद से बंगाल के जनमानस में परिवर्तन शब्द गूंज रहा है। अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में अभी दस माह की देरी है लेकिन उसके पहले तृणमूल सांसद एवं अभिनेत्री शताब्दी राय परिवर्तन नाम से फिल्म बनाने में जुट गयी हैं। इसमें तृणमूल के एक अन्य सांसद एवं जाने माने अभिनेता तापस पाल अभिनय करेंगे। अन्य कलाकारों में करण, मधुमिता व हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध खलनायक आशिष विद्यार्थी शामिल हैं। शताब्दी राय का कहना है कि परिवर्तन को लेकर लोगों में उत्साह है और उसे कायम रखने के लिए परिवर्तन नाम से फिल्म बनाने का निर्णय किया। बंगाल की राजनीति में अभी सिर्फ परिवर्तन की चर्चा चल रही है। उससे अन्यत्र कोई चर्चा बेमानी है। यही वजह है कि मैंने परिवर्तन नाम से फिल्म बनाने के लिए कहानी लिखी और कलाकारों के साथ उस पर सहमति बनायी(दैनिक जागरण,कोलकाता,5.7.2010)।

भोपाल में फिल्म समारोह 9 जुलाई से

लगभग 15 सालों बाद फिल्म समारोह भोपाल में होने जा रहा है। ‘भारतीय पैनोरमा फिल्म समारोह-2010’ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त 14 फिल्में दिखाई जाएंगी। फिल्म समारोह का शुभारंभ 9 जुलाई को शाम 6:30 बजे रवीन्द्र भवन में होगा। शुभारंभ निर्देशक गीतू मोहन दास की मलयालम फिल्म ‘केलन्ननुन्डो’ और निर्देशक नीरज पांडे की फिल्म ‘ए वेडनेसडे’ से होगा।

समारोह में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, फिल्म अभिनेता अनुपम खेर, निर्देशक गीतू मोहन दास, नीरज पांडे, डॉ. जब्बार पटेल, माही गिल के उपस्थित रहने की संभावना है।

नि:शुल्क प्रवेश होगा

फिल्म समारोह में दर्शक उत्कृष्ट फिल्मों का लुत्फ ले सकेंगे। समारोह में प्रवेश नि:शुल्क रहेगा। बैठने का स्थान पहले आओ पहले पाओं के आधार पर मिलेगा। भाषायी फिल्में अंग्रेजी उपशीर्षकों के साथ दिखाई जाएंगी। प्रदर्शन के उपरांत फिल्म के कलाकार और फिल्मकार से संवाद का मौका भी मिलेगा।


9 जुलाई, शाम: 6.30 बजे केलन्ननुन्डो

निर्देशक-गीतू मोहन दास मलयालम (22 मिनट)

ए वेडनेसडे (राष्ट्रीय पुरस्कार, निर्देशक की पहली श्रेष्ठ फिल्म-2008)

निर्देशक-नीरज पांडे भाषा- हिन्दी (102 मिनट)

10 जुलाई, सुबह 11 बजे

रागा ऑफ रिवर नर्मदा

(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफी और श्रेष्ठ संगीत निर्देशन-2006)

निर्देशक- राजेन्द्र जांगले

भाषा- अंग्रेजी (12 मिनट)

लिटिल जीजू

(राष्ट्रीय पुरस्कार-पारिवारिक मूल्यों की श्रेष्ठ फिल्म-2008)

निर्देशक-सूनी तारापोरवाला

भाष- अंग्रेजी, (105 मिनट)

दोपहर 2 बजे

फिल्म- लमसेना

निर्देशक-रवि विलियम्स और रोशन भाटी

भाष-हिन्दी (26 मिनट)

व्हाइट एलीफेंट

निर्देशक-एजाज खान

भाषा- हिन्दी (115 मिनट)

शाम 5:00 बजे

अन्तध्र्वनि

(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ आत्मकथात्मक फिल्म-2007)

निर्देशक- डॉ. जब्बार पटेल
भाषा- हिन्दी (60 मिनट)

हरिश्चन्द्राची फैक्ट्री
(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ मराठी फिल्म-2008)

निर्देशक-परेश मोकाशी
भाषा- मराठी (96 मिनट)
11 जुलाई, सुबह 11 बजे

बिलाल
निर्देशक-सौरव सारंगी
भाषा- हिन्दी (88 मिनट)
रिमेम्बरिंग बिमल रॉय
निर्देशक-जॉय बिमल रॉय

भाषा- हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी (55 मिनट)
दोपहर 2:00 बजे

थ्री ऑफ अस

(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ निर्देशन और श्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफी-2008)
निर्देशक-उमेश कुलकर्णी
भाष- मूक (15 मिनट)

शोन चरित्रों काल्पोनिक

(राष्ट्रीय पुरस्कार-श्रेष्ठ बंगला फिल्म-2008)
निर्देशक-रितुपर्णो घोष
भाषा- बांग्ला (120 मिनट)
शाम-5:00 बजे

रांदेवू विद टाइम
(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ फीचर फिल्म और श्रेष्ठ कलाकार-2007)
निर्देशक-राजेन्द्र जांगले
भाषा- अंग्रेजी (13 मिनट)

कांचीवरम

(राष्ट्रीय पुरस्कार, श्रेष्ठ फीचर फिल्म और श्रेष्ठ कलाकार प्रकाश राज-2007)

कांचीवरम के बुनकरों की व्यथा पर बनी फिल्म समारोह में मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहेगी।

निर्देशक-प्रियदर्शन

भाषा- तमिल (117 मिनट)
(राजेश गाबा,दैनिक भास्कर,भोपाल,5.7.2010)

Friday, July 2, 2010

भोजपुरी समेत अन्य क्षेत्रीय फिल्म उद्योग पर ममता मेहरबान

भोजपुरी, गुजराती, बंगाली, मराठी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के फिल्म उद्योग पर रेल मंत्री ममता बनर्जी मेहरबान हैं। भोजपुरी के महानायक मनोज तिवारी मृदुल की पहल पर ममता बनर्जी ने भोजपुरी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के तकनीशियनों को 75प्रतिशत की छूट रेल यात्रा में दी है। यह आदेश एक जुलाई से जारी हो गया है तथा इसकी विस्तृत सूचना वेव साईट इंडियनरेलवेज डाट गोव डाट इन पर उपलब्ध है। मनोज ने जागरण को फोन पर बताया कि पिछले दिनों कोलकता के कारपोरेशन चुनाव में उन्होंने ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में प्रचार किया था। उसी दौरान उन्होंने भोजपुरी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के तकनीशियनों की यात्रा के किराये भाड़े में छूट देने का आग्रह ममता बनर्जी से किया था जिससे कि क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को प्रोत्साहन मिल सके। मनोज ने बताया कि स्लीपर क्लास में 75 प्रतिशत तथा एसी फ‌र्स्ट क्लास, एसी टू टायर, एसी थ्री टायर व एसी चेयरकार में 50 प्रतिशत की छूट मिलेगी। उन्होंने बताया कि दूरंतो, गरीब रथ, सीजनल टिकट, उपनगरीय सवारी गाडि़यों में यह सुविधा नहीं मिलेगी। मनोज ने इसके लिए रेल मंत्री ममता बनर्जी के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि ममता दीदी के इस फैसले से क्षेत्रीय फिल्म उद्योग को काफी राहत मिलेगी। उन्होंने कहा कि विशेष रूप से भोजपुरी फिल्म उद्योग को विशेष लाभ मिलेगा और भोजपुरी फिल्म की शूटिंग के लिए मुम्बई से उत्तर-प्रदेश और बिहार समेत अन्य स्थानों पर तकनीशियनों के जाने-आने में आर्थिक रूप से काफी राहत मिलेगी(दैनिक जागरण,गोरखपुर संस्करण,2.7.2010)।