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Sunday, April 22, 2012

ज़ीरो फिगरवालियों का स्टंट

किसी पुरानी फिल्म का क्लाइमेक्स याद कीजिए — खूबसूरत और फूलसी कोमल नायिका को खलनायक ने रस्सी से बांध रखा है। वो सुपर हीरो का इंतजार कर रही है, जो उसे छुड़ाकर ले जाएगा। हीरो आता है और खलनायक की पिटाई करता है। इसके बाद नायक-नायिका की शादी होती और फिल्म का होता — हैप्पी द एंड। गुजरे जमाने में ऐसी फिल्मों से बाजार गर्म रहता था, लेकिन ऐसा कब तक होता? 20वीं सदी में फिल्मों में नए-नए बदलाव हुए। महिलाओं की छवि सशक्त तरीके से प्रस्तुत करने के प्रयोग किए गए। नायिका को खूबसूरत अंदाज में पेश करने के साथ शक्तिशाली और मानसिक तौर पर असाधारण शक्ति से सराबोर भी दिखाया जाने लगा। हैल वॉय फिल्म में शैरमेन और स्टार वार्स में प्रिंसेस लिया जैसा मजबूत किरदार पेश किया गया। चार्ली एंजेल की तीन तितलियां (नायिकाएं) जासूसी कंपनी चलाते हुए बड़े से बड़ा स्टंट करने से भी नहीं डरतीं। शुरुआती सफलताओं के बाद अभिनेत्रियों में स्टंट करने की इच्छा जोर पकड़ने लगी। करीब-करीब सभी फिल्मों में नायिकाओं पर कम से कम एक स्टंट दृश्य फिल्माया जाने लगा। जेम्स बॉन्ड की फिल्म — डाई ऐनदर डे में हैलीबेरी और मिशेल येहो, द वर्ल्ड इज नॉट एनफ में डेनिस रिचर्डस, लिव एंड लेट डाई में जेन सिमोर को साहसी दिखाया गया। शुरुआती कोशिशों के बाद स्टंट दृश्य ट्रेंड ही बन गए। एक इंटरव्यू से खुलासा हुआ कि बहुत सी फिल्मों में एक्शन दृश्य करने वाली एंजेलिना जोली को नए-नए स्टंट करने की प्रेरणा अपने बच्चों से मिलती है, क्योंकि उनको स्टंट दृश्य देखना अच्छा लगता है। बात हॉलीवुड की या फिल्मों की ही नहीं, अभिनेत्रियों के स्टंट का जादू छोटे परदे पर भी चलने लगा है। टेलीविजन पर साहस की थीम के इर्द-गिर्द कई धारावाहिक बनाए गए हैं, जिनमें हिस्सा लेने वाली युवतियों का उत्साह युवकों से किसी मायने में कमतर नहीं है। आधुनिकीकरण के इस प्रभाव से भारतीय सिनेमा भी अछूता नहीं रहा। 1935 में वाडिया बंधु की हंटरवाली की नायिका का सुनहरे परदे पर खूबसूरती का दम साहस देखकर लोगों ने दांतों तले अंगुलियां दबा लीं। ऊंची-ऊंची इमारतों पर एक से दूसरी जगह कूदती, घोड़े को बिजली की गति दौड़ाती, जोखिम भरे स्टंट करने वाली अभिनेत्री नाडिया के एक-एक दृश्य पर लोग तालियां बजाए बगैर रह नहीं पाते। यह वह दौर था, जब घरेलू महिलाएं परदे की ओट में रहती थीं। 

ऐसे समय में सुनहरी जुल्फों वाली विदेशी महिला नाडिया के साहस को लोगों ने खूब सराहा। दस-दस गुंडों पर घूंसे और चाबुक बरसाती नाडिया उस दौर में नारी शक्ति का प्रतीक बन गई। इन्हीं बेखौफ अदाओं के चलते उसका नाम ही पड़ गया फीयरलेस नाडिया। इस फिल्म से वह सिल्वर स्क्रीन की स्टंट क्वीन बन गई। भारतीय सिनेमा में हम महिलाओं की अनेक छवियां देखते हैं। ये छवियां समय-समय पर बदली हैं। समाज में स्त्री की स्थिति में जिस गति से बदलाव आ रहा है, उसी तेजी से सिनेमा के परदे पर भी उसकी भूमिकाएं बदल रही हैं। हिंदी सिनेमा में महिलाओं की भूमिका को मजबूत बनाने का श्रेय देविका रानी को भी जाता है। जिस समय में फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था, उस दौर में देविका रानी ने महिलाओं को फिल्मों में प्रमुख स्थान दिलाया। जिस तरह नाडिया ने अपने स्टंट से लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था, ठीक उसी तरह हेमामालिनी ने सीता और गीता में खलनायक को मारकर दर्शकों की तालियां बटोरीं। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। खून भरी मांग की ज्योति तो कभी फूल बने अंगारे की नम्रता बनकर एक्ट्रेस रेखा तलवार की नोक पर खलनायक को परास्त कर वाह-वाही लूटती रहीं। फिल्म चालबाज में चुलबुली श्रीदेवी ने भी इस तरह के कारनामों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज कराया। दक्षिण भारतीय अभिनेत्री विजया शांति तेजस्विनी में मजबूत इरादों वाली पुलिस अफसर की भूमिका निभाकर चर्चित हुईं। फिल्म दस में शिल्पा शेट्टी ने पुलिस अफसर की भूमिका निभाई। 

पुरानी फिल्म डॉन में जीनत अमान के स्टंट से प्रेरित होकर प्रियंका चोपड़ा ने नई फिल्म डॉन में भी स्टंट के नए प्रयोग किए। इन प्रयोगों के जरिए प्रियंका के मन में स्टंट के प्रति रुझान पैदा हुआ और उन्होंने खतरों के खिलाड़ी रिएलिटी शो में खतरनाक स्टंट करने से गुरेज नहीं किया। करीना कपूर ने भी फिल्म गोलमाल 3 में अनूठा स्टंट किया। कार के बोनट पर खड़े होकर उन्होंने संतुलन बनाए रखा। धूम में ईशा देओल, धूम २ में ऐश्वर्या राय और चांदनी चौक टू चाइना में दीपिका पादुकोण ने ऐसी ही भूमिका निभाई है। चर्चा है कि शांत और घरेलू छवि से बाहर आने के लिए आतुर दीया मिर्जा ने आने वाली फिल्म एसिड फैक्टरी में खतरों से खेलने का जोखिम उठाया है। स्टंट करने वाली अभिनेत्रियों की फेहरिस्त में एक और नाम जुड़ता है पूर्व मिस यूनिवर्स लारा दत्ता का। उन्होंने फिल्म ब्लू में समुद्र के अंदर बहुत से स्टंट खुद ही किए हैं। सच तो ये है कि सुंदर नायिकाएं ‘साहस’ को मसाले की तरह इस्तेमाल करती हैं और सफलता के लिए सीढ़ी बनाने से भी बाज नहीं आतीं। ग्लैमर और साहस का घालमेल ऐसा ही है! सुंदर नायिकाएं ‘साहस’ को मसाले की तरह इस्तेमाल करती हैं और सफलता के लिए सीढ़ी बनाने से भी बाज नहीं आतीं। ग्लैमर और साहस का घालमेल ऐसा ही है! (कोषा गुरुंग,अहा! ज़िंदगी,2.2.12)

Thursday, April 19, 2012

सिनेमा को नए रंग दे रही स्त्रियां

‘सिनेमा महिलाओं के बस की बात नहीं है..’ साल 1913 में भारत में मोशन पिक्चर्स की शुरुआत के साथ इस धारणा ने भी पैठ बना ली थी। भारतीय सिनेमा पर यह पूर्वाग्रह लंबे समय तक हावी रहा। आलम यह था कि महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष निभाते। हालांकि भारतीय सिनेमा के शैशवकाल में ही फिल्म मोहिनी भस्मासुर में एक महिला कमलाबाई गोखले ने अभिनय कर नई शुरुआत की, लेकिन सिनेमा अब भी महिलाओं के लिए दूर की कौड़ी थी। कमलाबाई, चरित्र अभिनेता विक्रम गोखले की परदादी थीं, जिन्होंने बाद में कई फिल्मों में पुरुष किरदार भी निभाए। बाद में फिल्मों में महिलाओं के काम करने का सिलसिला बढ़ता गया और अब यह कोई नहीं कहता कि सिनेमा महिलाओं के बस की बात नहीं। 

लाइट, कैमरा, एक्शन.. 
फ्लैशबैक की बात छोड़ वर्तमान में आते हैं; अभिनय छोड़कर कैमरे के पीछे चलते हैं। शुरुआत फिल्म निर्देशन से करें तो इस फेहरिस्त का पहला नाम जो जहन में कौंधता है वो सई परांजपे का है। सई ऐसी फिल्मकार हैं, जिनमें विविधता है, जिन्होंने अपने निर्देशन से हमेशा हैरान किया है। जादू का शंख, स्पर्श, चश्मेबद्दूर, कथा या दिशा सरीखी फिल्में इसकी बानगी हैं। सई की फिल्में आम जीवन को गहरे छूती हैं। इन फिल्मों में कहीं नहीं लगता कि हम वास्तविक जीवन से इतर कुछ देख सुन रहे हैं। सिनेमा में योगदान के लिए सई परांजप को 1996 में पद्मभूषण से नवाजा जा चुका है। अगला नाम अपर्णा सेन का है। अपर्णा बंगाली सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री रही हैं। एक अभिनेत्री केवल अभिनय के लायक होती है.., इस मिथक की धज्जियां अपर्णा ने निर्देशन की कमान संभालकर उड़ाईं। उन्होंने अपनी पहली फिल्म 36 चौरंगी लेन से यह भी साबित कर दिया कि निर्देशन के मामले में महिलाएं कहीं कमतर नहीं। अपर्णा की परोमा, मिस्टर एंड मिसेज अय्यर, 15 पार्क एवेन्यू, द जैपनीज वाइफ और इति मृणालिनी जैसी नायाब फिल्में सिनेमा प्रेमियों के सर चढ़कर बोली हैं। अपर्णा की हर आने वाली फिल्म का शिद्दत से इंतजार रहता है उनके प्रशंसकों को। 

अब उस महिला की बात, जो न सिर्फ फिल्में बनाती है, बल्कि फिल्मी कलाकारों को अपने इशारों पर भी नचाती है। वे सरोज खान के बाद इंडस्ट्री की लोकप्रिय कोरियोग्राफर हैं। यहां बात फराह खान की हो रही है, जो एक अच्छी फिल्म निर्देशक भी हैं। फराह अपने खास अंदाज और बेबाक शैली के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने मैं हूं ना और ओम शांति ओम जैसी फिल्मों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। उनकी फिल्में व्यावसायिक स्तर पर भी अच्छी साबित हुई हैं। 

जोया अख्तर असीम संभावनाओं से भरी हैं। रचनात्मकता भले उन्हें विरासत में मिली हो, लेकिन केवल दो फिल्मों से वे खुद को काबिल फिल्मकार के रूप में स्थापित कर चुकी हैं। लक बाय चांस और ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ऐसी फिल्में हैं, जो शायद जोया जैसी युवा महिला निर्देशक ही सोच बुन सकती हैं। जोया ने फिल्मों को एक नए विस्तार के साथ सामने रखा है, खासकर रिश्तों के यथार्थ को। इस मामले में जोया का कोई सानी नहीं। हाल में हुए फिल्मफेयर अवॉर्डस में उनकी फिल्म ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ने सर्वश्रेठ निर्देशन समेत सात पुरस्कार हासिल किए हैं। मुंबई के सोफिया कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट रीमा कागती ने पहली फिल्म हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड से लोगों का दिल जीत लिया था। शुरुआत में वो इतने सारे फिल्मी सितारों के साथ काम करने, उन्हें निर्देशित करने की कल्पना मात्र से आशंकित हो गई थीं। पहले दिन बोमन ईरानी और शबाना के साथ शूटिंग थी। वे घबराई हुई थीं, लेकिन जल्द ही सबकुछ ठीक हो गया। बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म तलाश है। इसमें आमिर खान, करीना कपूर और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिकाओं में हैं(माधवी शर्मा गुलेरी,अहा ज़िंदगी,5.4.12)।