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Friday, August 17, 2012

फ़िल्म और गीतों की ज़बान एक है गैंग्स ऑफ वासेपुर में

वरूण ग्रोवर द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो(2004-06) और SAB टीवी के धारावाहिक सबका भेजा फ्राई(2007) के लेखक रहे हैं । बतौर गीतकार अनुराग कश्यप ने ही 2010 में रिलीज द गर्ल इन यलो बूट्स में उन्हें पहला ब्रेक दिया था। दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न ओसियान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई हिंदी फिल्म प्राग में भी उन्होंने ही गीत लिखे हैं । यह फिल्म जल्द ही कमर्शियली रिलीज की जानी है। उनके लिखे फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीत इन दिनों हर किसी की जबान पर हैं। वरुण ग्रोवर ने बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से सिविल इंजिनियरिंग की है। पढ़ाई के दौरान ही वे नाटकों के लिए गीत लेखन करने लगे थे। यही उनके फिल्मी करिअर के लिए होम वर्क भी साबित हुआ। उनसे अनुराग वत्स की यह बातचीत 28 जुलाई,2012 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित है:


फिल्मी गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? कविता लिखने से यह कितना अलग है? 


यह सिलसिला बहुत शानदार रहा। फिल्मी गीतों और फिल्मों से मेरा जुड़ाव ही रेडियो के कारण हुआ। बचपन में लखनऊ में मैं और मेरा स्कूल का बहुत अच्छा दोस्त संदीप सिंह रोज सुबह विविध भारती का चित्रलोक कार्यक्रम सुनकर आते थे। बाकी बच्चे स्कूल की प्रार्थना कर रहे होते थे जबकि मैं और संदीप आज कौन सा नया गाना सुना, इस पर बतिया रहे होते थे। अब अपने ही लिखे गीत रेडियो पर बजते हैं तो लगता है जैसे यह कोई और ही जनम है। विविध भारती के कारण ही गीत-कविता लिखने का शौक हुआ। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के आईआईटी से मैंने सिविल इंजिनियरिंग की। वहां नाटक खूब होते थे। वहीं नाटकों में गीत लिखना शुरू किया। वही मेरे लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम था गीत लेखन का। वह सब मुंबई में अब बहुत काम आ रहा है। गीत और कविता में मेरे हिसाब से बहुत फर्क नहीं है। आत्मा तो एक ही है। बस गीत में जरा मीटर का ध्यान रखना पड़ता है। वह भी, जब स्नेहा खानवलकर जैसी संगीतकार मिल जाए तो आसान हो जाता है। स्नेहा शब्दों को बहुत अहमियत देती हैं और धुन को शब्दों के हिसाब से थोड़ा-बहुत मोड़ने में ना-नुकुर नहीं करतीं। 

आपने जो गीत लिखे हैं वह बॉलिवुड के मौजूदा ट्रेंड से बहुत अलग हैं। क्या यह फर्क अनुराग कश्यप सरीखे फिल्म मेकर की वजह से है जो ख़ुद टिपिकल बॉलिवुड फिल्म मेकिंग में कम यकीन रखते हैं।


फर्क अनुराग और स्नेहा दोनों की वजह से ही है। अनुराग ने खुला मैदान दिया और स्नेहा ने उसमें पतंग उड़ाई। इतनी क्रिएटिव फ्रीडम मिली अनुराग की तरफ से कि लगा ही नहीं किसी हिंदी फिल्म के लिए गीत बना रहे हैं। उन्होंने बस स्क्रिप्ट पकड़ा दी और कहा कि खुद पढ़ो और सोचो, कहां कहां गाने आ सकते हैं। हमने फिर खुद ही बहुत से गीत बना लिए। बहुत बाद तक पता भी नहीं था कि ये फिल्म में कहां फिट होंगे। बहुत अनोखा क्रिएटिव प्रोसेस रहा। 


गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीतों में एक तरफ फोक का टच और दूसरी तरफ नए जमाने की धड़कन है। यह आप कैसे मुमकिन कर सके? 


आधार लोक गीतों को ही रखा गया। रिसर्च उन्हीं पर हुई। स्नेहा दो महीना बिहार भ्रमण कर के आईं। सन 2010 की भरी गर्मियों में, सुबह-शाम सत्तू पी-पी कर बिहार और झारखंड के अनेक जिलों से गायक, लोक गीत, लोक गीतों पर किताबें और कुछ मजेदार शब्द बटोर कर लाईं। ये चीजें बाद में मेरे बहुत काम आईं। 'जियs हो बिहार के लाला' और 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' का मुखड़ा हमें इसी रिसर्च से मिला। और 'हमनी के छोरी के नगरिया बाबा' तो पूरा का पूरा ही लोक गीत है। एक और सच यह है कि स्नेहा मूड से बहुत समकालीन है। दुनिया भर का इलेक्ट्रॉनिक संगीत सुनती है और खुद भी बनाती है। उसने सोच रखा था कि लोक संगीत को एक नई खिड़की से दिखाना है। तो लोक और इलेक्ट्रॉनिक संगीत के इस मिश्रण को मुझे भी अपने शब्दों से मिलाना पड़ा। 



इसके पीछे क्या यह मंशा थी कि इस तरह के प्रयोगों से बड़ी ऑडिएंस का ध्यान खींचना है? 


ऑडिएंस को समझने की, लुभाने की, बहलाने-फुसलाने या उन पर जल चढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की। अपनी समझ और फिल्म व संगीत के दम पर जो सबसे अच्छा लगा वो लिख दिया। फिल्म की भाषा में ही लिखना है, बस यही तय किया था। 



वुमनिया सरीखे गीतों के पीछे की प्रेरणा क्या है? इसमें गाली भी है, हंसी-ठिठोली भी। 


फिल्म में तीन पीढ़ियों की कहानी है। ढेर सारे किरदार हैं और थोड़ी-थोड़ी देर पर एक शादी होती है। तो यह तय था कि शादी का गीत होगा। फिर बिहार में प्रथा है कि शादी के गीत थोड़े शरारती, कभी-कभी गाली भरे भी होते हैं। मेरी पत्नी झारखंड की है। मुंहझौंसा शब्द उसकी बहुत अच्छी दोस्त की सबसे पसंदीदा गाली है। मेरी शादी में भी कुछ ऐसे ही गीत बजे थे। 'रामलाल बुढ़वा के फूटे कपार, तुमरे करम में जोरू नहीं' एक गीत अब तक याद है। इसलिए मुझे अंदाजा था कि कितनी सीमाएं लांघी जा सकती हैं। इस पर काफी दिमाग लगाया जा रहा था कि वासेपुर के लिए शादी का क्या गीत बनाएं। तब स्नेहा के दिमाग में बस यह शब्द वुमनिया आया। उस पर लिखना शुरू किया और यही सोचा कि थोड़ा बेशर्म होकर लिखते हैं। और जैसे ही 'बदले रुपय्या के देना चवनिया' लाइन मिली, गीत का पूरा टोन सेट हो गया। बेशर्मी है, लेकिन लिहाज भी है। 

चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी। 

Monday, September 19, 2011

फ़िल्में पैसे से नहीं,जुनून से बनती हैं

१९७६ में मैंने एक फिल्म निर्माता-निर्देशक का इंटरव्यू लिया था जो उन दिनों करीब ४३-४४ बरस के थे । सौभाग्य की बात है कि इन्हीं दिनों मुझे एक बार फिर उसी व्यक्ति से बातचीत का अवसर मिला । उन दिनों इस शख्स ने पहली फिल्म बनाई थी - "घरौंदा", जिसमें प्रमुख भूमिका निभाई थी - जरीना वहाब, अमोल पालेकर तथा डॉ. श्रीराम लागू ने । इस फिल्म ने रातो-रात इस निर्माता-निर्देशक को श्रेष्ठ फिल्म निर्माताओं की पंक्ति में ला खड़ा किया था । फिल्म निर्माता का नाम था - भीमसैन । "घरौंदा" ऐसी फिल्म थी जिसे आम दर्शक ने ही नहीं, बुद्धिजीवियों ने भी सराहा था । मुझे याद है, एक विशेष प्रदर्शन में धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती भी पधारे थे और उन्होंने "ऐसी जीवंत" फिल्म बनाने के लिए मेरे सामने ही भीमसैन की पीठ थपथपाई थी । इस फिल्म की सफलता के दो-तीन कारण मुख्य थे - एक गुलजार के लिखे - "तुम्हें हो न हो, मुझको तो इतना यकीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है" या "दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में" या "मैं हस्दयां यार गंवाया, हौक्यां विच लब्दी फिरां," जैसे गाने, दूसरे, भीमसैन का यौवनोचित उत्साह, तीसरे, मुंबई में उन दिनों सिर पर छत के लिए तरसते लोगों और बिल्डरों की नादिरशाही के प्रति जनसाधारण का रोष जो कि इस फिल्म का मुख्य विषय था । भीमसैन ने यूं दो और फिल्में बनाई थीं - "दूरियां", जिसमें उत्तम कुमार और शर्मीला टैगोर जैसे कलाकार थे और तीसरी फिल्म "तुम लौट आओ"। 

"दूरियां" डॉक्टर शंकर शेष के नाटक पर और "तुम लौट आओ" मृदुला गर्ग की कहानी "मेरा" पर आधारित थीं । "दूरियां" कुछ खास सफल नहीं रही और "तुम लौट आओ" में नए कलाकारों - कविता चौधरी और निशांत को लेने के कारण वह लगभग फेल ही हो गई थी । "तुम लौट आओ" की शूटिंग दिल्ली में हुई थी और मैं रात-दिन इस यूनिट के साथ रहा था । कविता चौधरी हमारे गरीबखाने पर ही रहती थी, हालांकि फिल्म निर्माण का मेरा ज्ञान न के बराबर था लेकिन जिस दुलमुल तरीके से निशांत काम करता था, मुझे लगने लगा था कि यह शख्स फिल्म को ले डूबेगा । फिल्म तो डूबी ही, निशांत स्वयं डूब गया - सुना कि किसी मोटर वर्कशॉप में काम करने लंदन चला गया। कविता चौधरी अच्छी अदाकारा थी । 

उसकी एक्टिंग देखकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के तत्कालीन निदेशक बज्जू भाई इतने प्रभावित हुए थे कि कविता के मुख को दोनों हाथों में लेकर उन्होंने कहा था - "हमारी मीना कुमारी !" बहरहाल, "घरौंदा" १९७६ में, "दूरियां" १९७९ में और "तुम लौट आओ" १९८४ में बनी थी । आज इतने बरस बीत गए हैं, भीमसैन ने कोई फिल्म नहीं बनाई । यों कहें कि इस शख्स ने पूरी तरह से फिल्म निर्माण से हाथ खींच लिया । सो, मुझे उत्सुकता थी कि मैं उससे पूछूं कि किस कारण उन्होंने पलायन किया इसलिए पिछले दिनों मैंने उनसे टेलीफोन पर बात की । मैंने छूटते ही पूछा, "भीमसैन जी, यह क्या? इतनी अच्छी फिल्में देकर हाथ खींचकर बैठे हैं। ऐसी क्या बात हो गई ? भीमसैन ने हंसते हुए कहा, (वैसे, आजकल वह बहुत कम हंसते हैं) "ऐसी कोई बात नहीं । असल में, आजकल फिल्म बनाना बहुत ज्यादा मुश्किल हो गया है । "घरौंदा" बनाने के लिए मैं चार लाख लेकर बैठा था । कुल खर्च आया था आठ लाख यानी दुगुना। कोई तकलीफ नहीं हुई । बाकी पैसा मार्केट से मिल गया था । "दूरियां" करीब दस लाख में बनाई थी - अपने पैसे से और मन माफिक । किसी की दखलंदाजी नहीं । मैं दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता । (मुझे याद है, "दूरियां" के सेट पर मैंने एक सुझाव दिया था । भीमसैन ने मुझे झिड़ककर बैठा दिया था ।) आजकल आप चार करोड़ या १० करोड़ में भी फिल्म नहीं बना सकते ? 

असल में, उन दिनों फिल्में न्यारी होती थीं, लोग भी न्यारे थे। मैं एक नजर सारे वातावरण पर डालता हूं तो लगने लगता है, कैसे-कैसे लोग चले गए, कैसे-कैसे लोग आ गए हैं! कहां गए वे लोग जिन्होंने "मदर इंडिया" जैसी फिल्म बनाई थी ! उन्हें तो छोड़िए, गुलजार ने जैसी "हूतूतू" बनाई थी, क्या आज के थैलीशाह वैसी फिल्म बनाने की जोखिम ले सकते हैं? मुझे लगता है, गुलजार साहब ने भी फिल्म-निर्माण से संन्यास ले लिया है ।" मैंने कहा, "फिल्मों में लोग पैसा बनाने आते हैं, बहाने नहीं ।" "आप ठीक कहते हैं । पैसा कमाना बुरी बात है यह कौन कहता है लेकिन लालच बढ़ गया है । एक्टर-एक्ट्रेसेज करोड़ों की फरमाइश करते हैं ।" "तभी मांगते हैं, जब जानते हैं कि फिल्म उनके नाम से चलती है ।

" वह बोले, "आज की फिल्मों में आइटम नंबर डालना बहुत जरूरी समझा जाता है । दर्शक लटकों-झटकों वाली भौंडी आइटम खूब पसंद करते हैं । यह देखिए कि ढाई-तीन करोड़ में फकत एक आइटम बनती है । फिर फिल्म को कामयाब बनाने के लिए मसाले डालने पड़ते हैं । मेरे पास इतना पैसा होता तो मैं फिल्म बनाता लेकिन उसमें इस प्रकार के किसी मसाले की छौंक न लगाता ।" "आजकल कोई ऐसी फिल्म नहीं आ रही, जिसे देखने के लिए हम जैसे लोगों में उत्सुकता हो ? क्या कारण है ?" मैंने पूछा । "यहां मैं एक बात कहूं । टीवी ने फिल्म इंडस्ट्री की शक्ल ही बदलकर रख दी है । पहले जो लोग उससे परहेज करते थे, वही लोग उधर भाग रहे हैं । जैसा ग्लैमर टीवी सीरियल्स में है, वैसा पहले नहीं था। अब दर्शक अधिक संख्या में टीवी से ही संतुष्ट हैं । टिकट के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती । आज आप नई-पुरानी फिल्में घर बैठे देख सकते हैं ।" "फिल्म इंडस्ट्री में डूब जाने वालों की संख्या कम नहीं है । फिर भी धड़ाधड़ फिल्में बन रही हैं !" "सही । उनका पैसा वापस नहीं आता, फिर भी बन रही हैं ।" "यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास हुआ !" "लोगों का के्रज है, जुनून है इसलिए फिल्में बनती हैं । फिल्में पैसे से नहीं बनतीं, जुनून से बनती हैं ।" 

 "अब एक-दो निजी सवाल । आप फिल्म नहीं बनाते । आप एनीमेशन कला में ढेरों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। मझे याद है"एक चिड़िया,अनेक चिड़ियां" के बोल बच्चे वैसे ही गुनगुनाते हैं जैसे गुलजार के "चड्ढी पहन के फूल खिला है।" आपने इस क्षेत्र से भी हाथ खींच लिया है। आखिर,खाली तो बैठे नहीं रहते होंगे!"(द्रोणवीर कोहली का यह आलेख संडे नई दुनिया,18 सितम्बर,2011 में प्रकाशित हुआ है)।

Thursday, June 30, 2011

एक बातचीत आमिर से

(संडे नई दुनिया,26 जून से 2 जुलाई,2011)

Thursday, October 28, 2010

होना है औरों से अलग: प्रमोद कुमार

तमाम भोजपुरी एलबम में अपने चुटीले गीतों की वजह से सुर्खियों में आए गीतकार डॉ. प्रमोद कुमार पेशे से प्राध्यापक हैं। गीतकार के रूप में सफलता अर्जित करने के बाद अब वे हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक भी बन गए हैं। अभी वे हिंदी फिल्म देवी मेरा नाम की पटकथा लिखने में व्यस्त हैं। पिछले दिनों प्रमोद कुमार से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश..
प्राध्यापक, गीतकार और अब पटकथा लेखन। कैसा लगता है?
हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। कॉलेज में शिक्षक हूं और कॉलेज के बाहर गीतकार और कहानीकार। कम लोग जानते होंगे कि मैं गीतकार के साथ-साथ कहानीकार भी हूं। लघुकथाओं का एक संग्रह बात आधी सी प्रकाशित हो चुका है। मैं अपने हर काम से खुश हूं और आशा है कि खुशियां मेरा साथ हमेशा देंगी।

फूहड़पन और अश्लीलता फिल्मों में खूब है?
आज बाजारवाद देश और दुनिया पर हावी है। आज हर चीज का बिकना ही एक मात्र मूल्य है। अब यदि अश्लीलता और फूहड़पन बिक रहा है, तो इसे रोकना मुश्किल है। समाज की रुचि जब बदलेगी, तभी यह रुकेगा, वर्ना नहीं।

देवी मेरा नाम को लेकर आपकी चर्चा है?
मैं इसकी पटकथा और संवाद लिख रहा हूं। यह एक अलग तरह की हिंदी फिल्म साबित होगी। आज हर भाषा में अच्छी और बुरी तमाम फिल्में बन रही हैं। जब हमने फिल्मों में प्रवेश किया है, तो हमारी एक अलग पहचान तो होनी ही चाहिए यहां। आज की फिल्मों से मैं संतुष्ट नहीं हूं। देवी मेरा नाम की जो स्क्रिप्ट है, उस पर मैं मन से काम कर रहा हूं। मुझे उम्मीद है कि यह अलग फिल्म साबित होगी।

स्क्रिप्ट फिट है, तो फिल्म के हिट होने की उम्मीद की जाए?
स्क्रिप्ट के साथ-साथ यदि अभिनेता और निर्देशक भी कमाल के हों, तो फिर सोने पर सुहागा वाली बात चरितार्थ हो सकती है।

फिल्मों का दौर, यानी तब और अब के बारे में कुछ कहेंगे?
पहले राजकपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजकुमार, गुरुदत्त, बी आर चोपड़ा, मनोज कुमार, कमाल अमरोही, मीना कुमारी जैसे दिग्गजों की फिल्म जगत में तूती बोलती थी। एक से बढ़कर एक संगीतकार-गीतकार और गायक अपनी कला से लोगों को मुग्ध करते थे। वैसा युग तो अब शायद ही आए। कला की बारीकियां उनकी आत्मा में बसती थीं। आज की विडंबना यह है कि साधारण प्रतिभा के लोग ही ऊपर आ गए हैं। यही वजह है कि आज हिट
फिल्मों की लाइफ चंद दिनों की हो गई है।

कोई ख्वाब है?
खुद को औरों से अलग साबित करना चाहता हूं। यही मेरा ख्वाब है(दैनिक जागरण)।

Sunday, October 10, 2010

शहरयार

आपने जब सुना कि ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको मिलने जा रहा है तो, आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

काफी खुशी हुई। इतनी खुशी कि मैं लफ्जों में बयान नहीं कर सकता हूं। दरअसल हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब से हैं, वहां ज्यादा गम और खुशी के लिए शब्द बने ही नहीं हैं, लेकिन निजी तौर पर यह मेरे लिए एक अहम उपलब्धि थी। इससे भी अहम कि बुढ़ाती उम्र के बावजूद मैं लगातार काम कर रहा हूं, जिसे सम्मान मिल रहा है।

आप शिक्षा क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उर्दू, शेरो-शायरी की दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। कई पुरस्कार आपको मिल चुके हैं। फिल्मों के लिए भी आपने गीत लिखे। इतने सारे काम, कैसा लग रहा है आपको?
लाजिमी तौर पर अच्छा ही लगेगा। करीब दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1957 से लगातार लिख रहा हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिराक सम्मान और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी सम्मान मिल चुके हैं। आज भी लोगों की जुबान पर मेरे लिखे गीत हैं। हां, कभी-कभी बुरा तब लगता है जब फिल्मों के जरिये ही लोग मुझे जानने लगते हैं, लेकिन अपने आप में यह भी गर्व की बात है। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे? देश ने, समाज ने काफी कुछ मुझे दिया है और मैं अपने आप से काफी संतुष्ट हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपका वास्तविक नाम कुंवर अखलाक मोहम्मद खान है। हां। मैं अपने उपनाम शहरयार से ही लोगों के बीच जाना जाता हूं। एकाध गजल मैंने उस नाम से भी लिखे हैं। कुंवर का तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। कोई 1956-57 के आसपास मैं इसी तखल्लुस का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के जान-पहचान वालों ने कहा कि मजा नहीं आ रहा है। किसी ने कहा-यार नाम है कि इतिहास तो किसी ने कहा-गैर-शायराना नाम है। तब खलीलुर्रहमान आजमी जी, जिनका मैं काफी कद्र करता रहा, उन्होंने कहा कि कुंवर ही रहना है तो शहरयार रख लो। इसका भी मतलब राजकुमार ही होता है। बस मैंने तबसे शहरयार के नाम से लिखना शुरू कर दिया।

बचपन में गुजारे अपने वक्त के बारे में कुछ बताइए?

अब तो मोटा-मोटी बहुत कुछ याद भी नहीं रहा। वैसे भी याद तब ज्यादा आती है जब आपने बचपन में दुख-दर्द सहे हों। अल्लाह की दुआ से ऐसा कुछ भी नहीं था। ऐशो-आराम से बचपन गुजरा। पैसे की तल्खी कतई नहीं थी। फिर भी बचपन तो बचपन सा ही होता है। हम नंगे पांव घूमते थे। बागों में जाकर जमकर आम-ककड़ी खाया करते थे। मैं हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। आज जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं काफी अच्छा एथलीट भी रहा। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खूब नाम कमाए, लेकिन ये सब शौक के तौर पर ही रहा।

और आपने तालीम देने को आपना पेशा चुना, ऐसा करने की क्या वजह रही? कहां-कहां आपने नौकरी की?

जैसा कि मैंने बताया कि शौक के तौर पर मैं खेलता था। शौकिया तौर पर ही लिखना शुरू किया। इस ओर कैरियर बनाने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा। शायद यह उस वक्त का असर था। हमने देश की आजादी के बाद अपनी जिंदगी में रंग भरने शुरू ही किए थे। इसलिए कैरियर के सभी कोण हमारे सामने नहीं थे। समाज में भी उस वक्त एक कहावत थी- खेलोगे, कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। इसका भी असर था। बहरहाल अंजुमन-तहरीके उर्दू में साहित्यक सहयोगी के तौर पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय में लेक्चरर का पद खाली था। वहां मेरा चयन हो गया। इसके बाद 1996 तक मैंने नौकरी की। बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ और अब फिलहाल अलीगढ़ में ही गुजर-बसर हो रहा है।

शेरो-शायरी से जुड़े अपने परफॉर्मेस के बारे में भी कुछ बताइए

देखिए, इस मामले में मैं थोड़ा संकोची किस्म का रहा हूं। शुरुआती दिनों में पढ़ने की ख्वाहिश नहीं थी। सबसे पहला मुशायरा गुजरात के अहमदाबाद में किया। मेरे विचार से वह कोई 1961 का साल था। मेरी जमात में दो लोग और थे-एक बशीर बद्र भाई और दूसरे विमल कृष्ण अश्क। 1962-63 में लाल किले में भी एक बड़े मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। इधर काफी अरसे से मैं मुशायरों में शिरकत करने लगा हूं और अब यह सब बहुत अच्छा भी लगता है।

फिल्म उमराव जान के लिए आपने गाने लिखे। कैसे मुमकिन हुआ?

मुजफ्फर अली उम्दा निर्देशक हैं। उन्हें ऐसे गीतों की जरूरत थी जो पटकथा को आगे बढ़ाए। यही नहीं वह अक्सर इस बात पर ज्यादा जोर देते कि संगीत पक्ष की मजबूती के अलावा गीत के बोल ऐसे लिखे होने चाहिए जिसके मायने हों। मेरी शेरो-शायरी की वह बहुत कद्र भी किया करते थे। बस हम-दोनों मिले और गाने बन गए। आज यह विश्र्वास नहीं होता कि ऐसे गाने बने जो 30 साल से गुनगुनाए जा रहे हैं। वरना मुंबइया फिल्मों के ज्यादातर गाने तो आज आए और कल गए वाले होते हैं।

आपके बारे में यह धारणा है कि आप फिल्मों के लिए लिखना नहीं पसंद करते हैं?

दरअसल, मैं किसी ऐसे फिल्म में गाने नहीं लिख सकता जिसमें गाना कहानी का हिस्सा न हो। एक बात और कि मैं बेहतर शब्दों के इस्तेमाल पर भी ध्यान देना पसंद करता हूं। इसके साथ समझौता नहीं कर सकता। अगर निकट भविष्य में उमराव जान की तरह की फिल्में बनेंगी तो मैं उसमें गाने जरूर लिखूंगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं मुंबई में रहना पसंद नहीं करता हूं। मेरे लिए अलीगढ़ के खास मायने हैं। जो फिल्मकार मेरे पास आते हैं, यदि उनकी स्कि्रप्ट में दम होता है और गाना उसका हिस्सा होता है तो मैं उनके लिए लिखता हूं। आपको बता दूं कि उमराव जान के बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए गाना लिखा। मुजफ्फर अली के अंजुमन के लिए लिखा। हब्बा खातुन ज़ुनी के गाने भी मैंने ही लिखे, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।

आप शेरो-शायरी को काफी गंभीरता से लेते रहे हैं। इतनी गंभीरता कि आपने बॉलीवुड की चमक-दमक से भी समझौता नहीं किया, लेकिन साहित्य में इसे विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। लोग इसे गम में डूबे हुए किसी शख्स की मर्शिया के तौर पर मानते हैं?

आपकी इस बात पर मुझे सख्त ऐतराज है। आज के दौर में भी शेरो-शायरी को गंभीरता से लिया जाता है। कद्रदानों की कमी नहीं है, बस देखने का फर्क बदल गया है। मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार अपनी उर्दू गजलों की वजह से मिला है। इससे पहले भी तीन उर्दू गजलकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। वरना साहित्य के क्षेत्र में गलत चयन पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। अब तक यह पुरस्कार मिलने को लेकर कोई टिप्पणी मीडिया में नहीं आई है। साफ है कि सबने मुझे इसका हकदार समझा। हां, अगर आप बेहतर शायरी लिखें ही नहीं और कहें कि मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तो क्या किया जा सकता है?

एक मसला यह भी है कि साहित्य के कई विधा हैं और हर विधा के अपने खास मायने हैं। अगर किसी विधा का जानकार यह मान बैठे कि दूसरे की विधा कमजोर या मजाक है तो इससे वह अपने साथ-साथ अपने विद्या की तौहीन भी करता है। इसका मतलब यह है कि आपके मुताबिक आज के दौर में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और पहले के दौर में अच्छा लिखा जाता था?

मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन आज भी अच्छे शायर हैं। हालांकि, अब वह दौर और हालात नहीं है। उस तरह के शब्द नहीं हैं। अगर हैं भी तो इसे समझने वालों की कमी है। जमाना ही भाग-दौड़ का है। दुख है कि बड़ी शायरी नहीं हो रही है। गद्य का बोलबाला है और फिक्शन हावी है, लेकिन अभी भी काफी संभावना है और बेहतर किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि अगर अच्छा कुछ लिखा जा रहा है तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती है। दरअसल नकारात्मक खबरें आज के समय में ज्यादा हावी दिखती है। इस वजह से हम लोग सिर्फ बुराईयां ही देख पा रहे हैं। जहां तक हमारे दौर की बात थी तो उस वक्त तो खराब लिखा ही नहीं जा सकता था। लोग उर्दू जुबान से ज्यादा वाकिफ होते थे। इससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि अब बेहतर हिंदी भी खत्म होती जा रही है। कई शब्द ही प्रचलन से गायब होते जा रहे हैं। दूसरे हिंदी-उर्दू के सिमटते दायरे का असर भी आज के गजल पर पड़ा है। हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि अंग्रेजी संस्कृति हमारी शब्दों की विरासत को खत्म न कर दे।

भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?

एक लेखक, कवि क्या कर सकता है? लिखना जारी रहेगा। अभी मुजफ्फर अली नूरजहां-जहांगीर पर फिल्म बना रहे हैं। उनके लिए मैं गाना लिख रहा हूं। एक बार फिर रुपहले पर्दे के जरिये मेरे गीत लोगों तक पहुंचेगा यानी मेरे अंजुमन में आपको आना है बार-बार। मैं लगातार आप सबके लिए बेहतर से बेहतर रचना लेकर आता रहूंगा(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,10.10.2010 में प्रवीण प्रभाकर से बातचीत पर आधारित)।

Sunday, August 15, 2010

आजाद भारत को और नत्था नहीं चाहिए

पीपली लाइव की चर्चा हर जुबां पर है, खासकर महंगाई डायन गाने ने तो हलचल पैदा कर दी है। फिल्म को सामाजिक चेतना जगाने वाली फिल्मों की श्रेणी में रखा जा रहा है। यह फिल्म बतौर निर्माता आमिर खान की चौथी फिल्म है। इससे पहले उनकी फिल्में लगान और तारे जमीं पर भी चर्चा में रही हैं। आमिर परफेक्शनिस्ट हैं तो उनकी फिल्म भी ज्वलंत समस्याओं पर आधारित होती है। देश के किसानों की दुर्दशा पीपली लाइव में देखी जा सकती है। स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले दर्शकों के सामने पीपली लाइव को परोसने वाले आमिर खान के दिमाग को खंगालने के लिए उनसे मुंबई में रू-ब-रू हुए हमारे विशेष संवाददाता नवीन कु मारः

पीपली लाइव के रिस्पांस से आप खुश हैं?
मुझे खुशी है कि दर्शक पीपली लाइव देख रहे हैं । पीपली लाइव एक सेटायर है जो मध्य भारत के गांवों के चारों ओर घूमता है । इन गांवों की दशा को नत्था के जरिए दिखाने की कोशिश की गई है । पीपली लाइव नॉन स्टार के साथ बनाई है ।

आपको खतरा महसूस नहीं हुआ?
मेरे फिल्म बनाने का तरीका अलग है। मैं बनिए की तरह जोड़-घटाव करके फिल्म नहीं बनाता हूं। दर्शकों का ख्याल रखता हूं । अगर कोई दर्शक टिकट खरीदकर फि ल्म देखने आया है तो उसका मनोरंजन होना चाहिए। एक निर्माता के तौर पर मैं इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं । फिल्म से सिर्फ पैसे नहीं कमाए जाते हैं । निर्माता के तौर पर मेरा फर्ज है कि दर्शकों को एक बेहतरीन फिल्म दी जाए।

आपकी फिल्मों से कुछ न कुछ संदेश मिलता है। इसके पीछे सोच क्या है?

सबसे पहली बात मैं कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हूं। मैं फिल्म मनोरंजन के लिए बनाता हूं । हां, अगर मनोरंजन के साथ कोई संदेश भी लोगों को मिले तो यह अच्छी बात है ।

आप मानते हैं कि पीपली लाइव एक समानांतर सिनेमा है?

यह मेनस्ट्रीम सिनेमा नहीं है । इसे व्यावसायिक फिल्म भी नहीं कह सकते। लेकिन यह भारतीय सिनेमा के मापदंड पर पूरी तरह से खरी उतरती है ।

अनुषा रिजवी की कहानी को परदे पर देखकर कितना खुश हैं ?

पेपर पर जो था, उसे अनुषा ने स्क्रीन पर उतारा है । इस तरह की एक अच्छी फिल्म से जुड़ने का मुझे मौका मिला। इसलिए मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं ।

फिल्म के क लाकारों के बारे में क्या क हेंगे?

सचमुच इन कलाकारों ने प्रभावित किया है । मैंने पिछले 20 साल में जितना काम किया है, वह इन कलाकारों के सामने कुछ नहीं है । इनके अभिनय को देखकर मुझे सीखने का मौका मिला है ।

आप भी मानते हैं कि पीपली लाइव में आज के देश का चित्र सा झलकता है?

नजरिया अपना-अपना है। यह अपने नजरिए की बात है कि लोग फिल्म में क्या देखना चाहते हैं ।

आजादी के बाद हमारे देश का यही चेहरा है?

फिल्म देखकर खुद जान लीजिए।

पर अब कि सानों की दुर्दशा पर क्या कहेंगे?

किसानों की हालत बेहतर होनी चाहिए। हमें और नत्था नहीं चाहिए।

इस भूमिका में ओमकार दासा माणिकपुरी आपको कैसे लगे?

ओमकार बेहतर क लाकार हैं और भोलेभाले भी हैं । उन्होंने दीपिका पादुकोन से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। दीपिका के अलावा प्रियंका चोपड़ा, सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन से भी मिलकर वह काफी खुश हैं।

आप एक गंभीर निर्माता के रू प में उभर रहे हैं?
यह सच है कि मैं कु छ अच्छी फि ल्में बनाना चाहता हूं और इसके लिए प्रयास कर रहा हूं । मेरे लिए फिल्म ही सब कुछ है । इसलिए मैं फिल्म के जरिए भी कु छ करने की कोशिश करता रहता हूं। पीपली लाइव के लिए अनुषा जब मेरे पास आई थीं तब मैं मंगल पांडे की शूटिंग कर रहा था। शूटिंग के दौरान मैं कहानी नहीं सुनता हूं । अनुषा ने अच्छी पटकथा लिखी थी और वह मेरे लायक पटकथा लगी थी। इसलिए मैंने पीपली लाइव फिल्म बनाई है(हिंदुस्तान,15.8.2010)।

Friday, July 23, 2010

भोजपुरी गीतों में अश्लीलता बढ़ी है : अकेला

भोजपुरी गीतों की परंपरा काफी समृद्ध रही है। इस भाषा को विदेशों में भी सम्मान की नजरों से देखा जाता है। मॉरिशस, सूरीनाम व हॉलड जैसे देशों में नब्बे प्रतिशत लोग भोजपुरी भाषा बोलते है। वहां के लोगों का भोजपुरी भाषा और भोजपुरी भाषा बोलने वाले लोगों से काफी लगाव है। भोजपुरी बोलने वाले लोगों में उन्हें अपने पूर्वजो की तस्वीर दिखाई देती है। यह भी सच है कि करीब एक दशक पूर्व से भोजपुरी गीतों की गरिमा पर ग्रहण लगा है। चंद कथित भोजपुरी गायक निजी स्वार्थ के लिए भोजपुरी गीतों के माध्यम से श्रोताओं के बीच अश्लीलता को परोस रहे है। लेकिन अब ऐसे अश्लील गीतों का दौर खत्म होने वाला है। आने वाले चार-पांच वषो में पुन: मधुर भोजपुरी गीतों का दौर शुरू हो जाएगा। प्रसिद्ध लोकगीत गायक अजीत कुमार अकेला से सुजीत कुमार की बातचीतः

आपने गीत-संगीत का सफर कब शुरू किया?
गीत संगीत का सफर हमने वर्ष 1974 से ही शुरू कर दिया था। गायिकी विरासत में नही मिली है। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए काफी संघर्ष भी करना पड़ा है। हमने शुरू से ही अश्लीलता से परहेज रखा है। आज जो कुछ भी हूं स्वच्छ और कर्णप्रिय गीतों की बदौलत ही हूं। मेरा पहला भोजपुरी एलबल ‘सुर सजनी’ है जो लोगों के दिलों में जगह बनाने में सफल रहा। इसकी सफलता के बाद फिर हमने मुड़कर नही देखा।

किस एलबम व गीत के बाद आप चर्चा में आए?
‘हमार बैल गाड़ी सबसे अगाड़ी..’ व ‘झामलाल बुढ़वा पीटे कपार हमरा करम में जोरू नही..’ गीत के बाद हम काफी चर्चा में आ गए। इस गाने को विभिन्न आयोजनों के मौके पर लगातार दस वषो तक दूरदर्शन पर दिखाया जाता रहा। मेरे भोजपुरी एलबम ‘मोरी सजनी रे’ का गीत ‘लागे नाही जिअरा हमार..’ और भक्ति एलबम ‘चल कावरिया शिव के धाम’ व ‘हे छठमईया’ भी लोगों द्वारा खूब पसंद किया गया।
भोजपुरी गीतों की गरिमा कम हुई है, आप क्या मानते है?
विगत एक दशक के भीतर भोजपुरी गीतों में अश्लीलता बढ़ी है। नये भोजपुरी गायक कम समय में पैसे और शोहरत कमाने के चक्कर में अपने रास्ते से भटक गए है। भोजपुरी गीतों में अश्लीलता का बढ़ता प्रचलन भोजपुरिया समाज के लिए अशुभ संकेत है। हम चाहते है कि भोजपुरी गीतों की अश्लीलता पर अंकुश लगे।

भोजपुरी फिल्मों में आइटम सॉग की क्या भूमिका है?
भोजपुरी फिल्मों में आइटम सॉग के नाम पर दर्शकों को गुमराह किया जा रहा है। आइटम सॉग के चलते भोजपुरी फिल्म को परिवार के साथ बैठकर नही देखा जा सकता है। बगैर आइटम सॉग के भी भोजपुरी फिल्म सुपर हिट हुई है। आज कल पहले जैसी सामाजिक और साफ-सुथरी फिल्में नही बन रही हैं। आइटम सॉग और अश्लील फिल्मों का बहिष्कार करना चाहिए।

अश्लील गीतों पर अंकुश कैसे लगाया जाए?
गायकों, गीतकारों व एलबम निर्माताओं को अश्लील गीत गाने व एलबम को बाजार में लाने से पहले उसे अपने परिवार वालों को दिखाना चाहिए। अगर उस पर परिवार वालों की सहमति हो तो उसे बाजार में लाया जा सकता है।

आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि?
इस बार बीटीबीसी की नवी कक्षा की वर्णिका पुस्तक में हमारा नाम और तस्वीर छापी गयी है। गाने के सिलसिले में कई बार विदेश जाने का भी मौका मिला है। अभी तक लगभग 165 भोजपुरी फिल्मों में गीत गा चुके है और लगभग सौ एलबम बाजार में आ चुके हैं।

भोजपुरी गीत गाने वालो में आपके आदर्श कौन है?
गुरु विद्यानंद प्रसाद, पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी व पद्मश्री शारदा सिन्हा व संतराज सिंह रागेश हमारे आदर्श रहे है।

बच्चों को भोजपुरी गीतों का प्रशिक्षण देने की योजना है?
स्कूल में ही बच्चों को भोजपुरी गीत का प्रशिक्षण देते है। कभी-कभी अपने गुरुजी के संगीत केंद्र में योगदान देते है। कितना रियाज करते है आप? रियाज की अब कोई समय सीमा नही रह गयी है।
(राष्ट्रीय सहारा,पटना,23.7.2010)