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Monday, May 31, 2010

लोकप्रियताः अमिताभ बनाम शाहरुख-सलमान

बालीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन का दशकों तक लाखों लोगों के दिलो-दिमाग पर छाया रहनेवाला सिनेमाई जादू अब खत्म होता नजर आ रहा है । उनकी जगह शाहरुख, सलमान, ऋतिक और रणबीर कपूर जैसे नई पीढ़ी के सितारों की मांग और क्रेज ज्यादा नजर आ रही है । यही वजह है कि श्रीलंका में होने वाले आईफा पुरस्कार समारोह में अब अमिताभ की जगह सलमान और शाहरुख ने ले ली है । कहा जा रहा है कि अमिताभ की लोकप्रियता का गिरता ग्राफ भी इस फैसले की वजह बना है और वह आईफा से दूर रखे गए हैं । अभिषेक और ऐश्वर्या बच्चन भी इस वर्ष आईफा में नहीं दिखेंगे।

विदेशों में भारतीय सिनेमा का जादू बिखेरने के लिए शुरू किए गए आईफा अवार्ड समारोह में इस साल बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा । इस अवार्ड के शुरू से ब्रैंड एंबेसडर रहे सदी के महानायक अमिताभ बच्चन इस बार समारोह में नहीं दिखेंगे । उनकी जगह समारोह में शाहरुख-सलमान का जलवा दिखेगा । क्या यह नए दौर की शुरुआत है?

अजीबोगरीब लगता है कि अमिताभ बच्चन जून के पहले सप्ताह में श्रीलंका में होने जा रहे उस आईफा पुरस्कार समारोह में पहली बार शिरकत नहीं करेंगे जिसके वह ब्रैंड एंबेसडर हैं और आईफा से बिलकुल शुरू से ही जुड़े हुए हैं । खास बात यह भी है कि इस बार आईफा पुरस्कार समारोह में सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि अभिषेक और ऐश्वर्या बच्चन भी हिस्सा नहीं ले रहे हैं ।

आईफा के आयोजकों ने इस बार बच्चन परिवार की जगह सलमान खान को श्रीलंका में आगे करने का फैसला किया है । सलमान ने भी आईफा से मिले न्यौते को स्वीकार कर लिया है । समारोह में सलमान खान के साथ बॉलीवुड के बादशाह कहे जानेवाले शाहरुख खान भी नजर आने वाले हैं । गौरतलब है कि शाहरुख पांच वर्ष बाद आईफा समारोह में नजर आएंगे । सलमान खान और शाहरुख खान कैटरीना के जन्मदिन की पार्टी में हुए झगड़े को भूलकर पहली बार एक साथ आ रहे हैं । समारोह के दौरान शाहरुख खान एक चैरिटी क्रिकेट मैच में भारतीय टीम की कमान संभालने वाले हैं तो सलमान खान इस मैच में खेलने के साथ-साथ दूसरे परफॉर्मेंस में भी नजर आने वाले हैं ।

आईफा से जुड़े सूत्रों के हवाले से कहा जा सकता है कि अमिताभ बच्चन को आईफा ने जानबूझ कर समारोह से दूर रखा है । भले ही अमिताभ बच्चन आईफा के ब्रैंड एंबेसडर रहे हों लेकिन पिछले कुछ वर्षों से आईफा की लोकप्रियता में लगातार गिरावट नजर आ रही थी । चैनलवाले भी आईफा पुरस्कार समारोह के प्रसारण में कुछ खास रुचि दिखाते नजर नहीं आ रहे थे क्योंकि आईफा में सलमान और शाहरुख जैसे युवा पीढ़ी के चहेते सितारे नजर नहीं आते थे ।

अमिताभ बच्चन न सिर्फ खुद बड़े ब्रैंड हैं बल्कि उनके परिवार में भी अभिषेक और ऐश्वर्या के रूप में दो मशहूर सितारे मौजूद हैं। इसके बावजूद माना जा रहा है कि सलमान-शाहरुख की लोकप्रियता बच्चन परिवार की समवेत लोकप्रियता पर भारी पड़ रही है । विज्ञापनदाता भी इन दिनों इन्हीं दोनों को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं । जाहिर है इन्हीं कारणों से आईफा के आयोजकों ने अमिताभ को समारोह से दूर रखना ही उचित समझा ।

अब देखना यह है कि आईफा को फिर से लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाने के लिए सामने आए सलमान खान और शाहरुख खान इस मिशन में कामयाब हो पाते हैं या नहीं। यूं तो शाहरुख पहले आईफा पुरस्कारों में हिस्सा लेते थे लेकिन पांच वर्ष पहले शाहरुख ने आईफा पुरस्कारों से दूरी बनाने का मन बनाया । आईफा पुरस्कार के दौरान ही शाहरुख विदेशों में स्टेज शो आयोजित करते रहे। आईफा के दौरान ही उन्होंने वर्ल्ड टूर का आयोजन किया । इसकी वजह से समारोह की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा और आईफा बुरी तरह प्रभावित हुआ ।

इधर अमिताभ के नजदीकी सूत्रों का कहना है कि अमिताभ की तबियत ठीक नहीं रहती और श्रीलंका में आईफा अवार्ड समारोह में शिरकत करने के फैसले के खिलाफ मुंबई में अमिताभ के आवास के सामने तमिल लोगों के विरोध-प्रदर्शन की वजह से अमिताभ श्रीलंका नहीं जा रहे हैं । सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा ही विरोध तो सलमान खान के खिलाफ भी तमिल लोगों ने गेटवे ऑफ इंडिया पर धरना देकर किया तो फिर वे अपने बॉलीवुड के दोस्तों के साथ आईफा अवार्ड में हिस्सा कैसे ले रहे हैं? उल्लेखनीय है कि २३ मार्च को मुंबई में अमिताभ बच्चन ने ही आईफा वोटिंग की शुरुआत की थी । उस समय तक इस समारोह में सलमान और शाहरुख के हिस्सा लेने की कोई चर्चा नहीं थी । अमिताभ बच्चन से उस समय पूछा भी था कि क्या इस बार सलमान और शाहरुख वगैरह आईफा पुरस्कार समारोह में हिस्सा लेने वाले हैं तो अमिताभ ने कहा था कि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं है और आयोजक ही इस बारे में कुछ बता सकते हैं। फिर एक महीने के भीतर ही आयोजकों ने सलमान खान के साथ समारोह में शिरकत करने संबंधी अनुरोध किया और एक भव्य प्रेस कांफ्रेंस में सलमान खान के नाम की घोषणा की। साथ ही,आयोजकों ने शाहरुख खान को भी समारोह में परफार्म करने के लिए राज़ी कर लिया। ज़ाहिर है,इन दोनों की लोकप्रियता की वजह से ही आईफा इन्हें अपने साथ जोड़ने को मज़बूर हुई है। अमिताभ इस सच्चाई से दूर भागना चाहते हैं इसलिए दूर भाग रहे हैं।

शाहरुख खान आज देश-विदेश में खासे लोकप्रिय हैं । शाहरुख ने तय योजना के मुताबिक अपनी इमेज बनाई है जिसका उन्हें अब फायदा हो रहा है। बाजीगर और डर जैसी फिल्मों में नकारात्मक किरदार निभा कर बड़े निर्माताओं के साथ अच्छे संबंध बनाए। आदित्य चोपड़ा और करन जौहर के साथ जुड़कर शाहरुख ने खुद को एक प्रेमी के रूप में साबित किया। उनकी फिल्मों ने विदेशों में भी पैसा कमाने की शुरूआत की और शाहरुख विदेशों में लोकप्रिय स्टार बन गए। विदेश में उनकी लगभग हर फिल्म कमाई का रिकार्ड बनाने लगी। शाहरुख ने एक योजना के तहत खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। आज शाहरुख खान की विदेशों में खासी मांग है और उनकी फिल्में विदेश में अच्छा व्यवसाय करती हैं। शाहरुख ने अभिनय के साथ ही अपनी कीमत को देखते हुए करन जौहर के साथ फिल्म निर्माण में भी कदम रखा।

अमिताभ ने भी ऐसा करने की कोशिश की। एबीकॉर्प की स्थापना की लेकिन वह सफल नहीं हो पाए। अब तो उन्होंने मराठी फिल्मों के निर्माण में भी कदम रखा है। अमिताभ फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। शाहरुख भी फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं मगर वह इसे भव्यता के साथ करते हैं। खुद को बेचना उन्हें बहुत ही अच्छी तरह आता है इसलिए वे अपनी फिल्म ऊंची कीमत पर बेचने में सफल हो जाते हैं। माई नेम इज खान को उन्होंने ऐसा प्रचारित किया कि हॉलीवुड की कंपनी उसे खरीदने के लिए आगे आई और डूब गई मगर शाहरुख पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सिर्फ फिल्में ही नहीं विज्ञापन जगत में भी उनकी तूती बोलती है लेकिन शाहरुख,सलमान की तरह समाज सेवा में आगे नज़र नहीं आते। अमिताभ बच्चन भी कभी खुद के पैसों से समाज सेवा करते नज़र नहीं आए।

एक बार विदेश यात्रा के दौरान अमेरिकी फौजियों को उन्होंने खाने के लिए पैसे दिए तो तुरंत इसका जिक्र ब्लॉग पर कर डाला । शाहरुख की लोकप्रियता बच्चन परिवार से भी ज्यादा है इसलिए शाहरुख को आईफा से जोड़ा गया और शाहरुख भी पिछली बातें भूलते हुए आईफा से जुड़ गए ।

शाहरुख जहां विदेशों में लोकप्रिय हैं वहीं सलमान खान भी देश-विदेश में बेहद लोकप्रिय हैं । उनके प्रशंसकों की संख्या करोड़ों में हैं । भले ही उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बड़ा कारनामा दिखाने में अकसर असफल हो जाती हों । "वीर" के लिए उन्होंने जी-तोड़ कोशिश की थी लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह लुढ़क गई थी । हालांकि सलमान को अपने पिता सलीम की तरह ही लिखने का बेहद शौक और जज्बा भी है लेकिन उनके विचारों को बखूबी परदे पर उतारने वाला निर्देशक उन्हें नहीं मिल पा रहा । यूं तो सलमान खान हर तरह के किरदार बखूबी निभाते हैं पर बोनी कपूर की "वांटेड" में उन्होंने अपना वह जलवा दिखाया था जो दर्शक उनसे देखना चाहते हैं । सलमान खान एक संपूर्ण कलाकार हैं । वह चित्रकारी भी करते हैं, एनजीओ भी चलाते हैं, गरीब बच्चों की मदद करते हैं और जरूरतमंदों की मदद के लिए हमेशा आगे नजर आते हैं । आईफा में उन्होंने एक लाख डॉलर की राशि भेंट में दे दी जिससे बेघरों के लिए घर बनाए जाएंगे । बीइंग ह्‌यूमन नाम से सलमान ने एक एनजीओ की स्थापना की है । इसके तहत ही वह मदद करते हैं । आईफा पुरस्कार समारोह में इसी एनजीओ की ओर से उन्होंने एक क्रिकेट मैच का आयोजन किया है । सलमान ने आईफा की ओर से आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि उन्हें पुरस्कारों से कोई लेना-देना नहीं है । वह आईफा के चैरिटी के ब्रैंड एंबेसडर हैं और चैरिटी के लिए वह आईफा में हिस्सा ले रहे हैं । ऐश्वर्य राय एपिसोड के बाद बच्चन परिवार के साथ उनके रिश्ते में खटास आई थी लेकिन उन्होंने उसे भुला दिया । अमिताभ को आईफा से दूर रखने का मतलब सीधा है कि उनका जादू खत्म होता जा रहा है और उनकी लोकप्रियता में कमी आ रही है ।

हालांकि बॉलीवुड के ट्रेड विश्लेषक कोमल नाहटा इससे भिन्न विचार रखते हैं । जब उनसे पूछा गया कि कहीं अमिताभ का जादू खत्म तो नहीं हो गया तो उन्होंने कहा कि अमिताभ का जादू कभी खत्म नहीं हो सकता । वह लीजेंड हैं और लीजेंड का जादू कभी खत्म नहीं होता । उन्होंने कहा, "उनकी जगह कोई नहीं ले सकता है । वह सिर्फ आज ही प्रभावी नहीं हैं बल्कि उन्होंने देश की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है और आज भी कर रहे हैं।" नाहटा कहते हैं, "हर कलाकार का एक वक्त होता है । कोई आज चर्चा में है तो कल नहीं होगा । लेकिन अमिताभ वक्त से परे हैं । वह पहले भी चर्चा में थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे । उम्र और बीमारी की वजह से उनके काम पर लगाम अवश्य लगी होगी लेकिन आप एक बात देखिए आज वह इस उम्र में भी सुबह से लेकर देर रात तक कार्यरत रहते हैं । मुझे नहीं लगता कि आज का कोई कलाकार इतने लंबे समय तक दर्शकों की नजरों में टिका रह सकता है ।"

शायद नाहटा का कहना सही है क्योंकि आज अमिताभ के साथ कई युवा निर्देशक जहां काम करने के लिए तैयार हैं, वहीं कई कंपनियां भी उन्हें अपना ब्रैंड एंबेसडर बनाना चाहती हैं क्योंकि अमिताभ की दर्शकों के दिलों में एक चरित्रवान व्यक्ति के रूप में इमेज है और कंपनियां उसी इमेज को कैश करना चाहती हैं । कुछ वर्ष पहले जब खाड़ी देशों की सबसे चर्चित ज्वैलरी कंपनी दमास ने भारत में अपना कदम रखने की योजना बनाई तब उन्होंने अमिताभ बच्चन को ही अपना ब्रैंड एंबेसडर बनाया था । उस समय दमास के कार्यकारी संचालक त्वाहिद अब्दुल्ला ने अमिताभ के चयन के बारे में बताया था, "हमारी कंपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली कंपनी है और लाखों ग्राहकों का हम पर भरोसा है । हिंदुस्तान के ग्राहक हम पर भरोसा करें इसलिए हमें ऐसे चेहरे की तलाश थी जिस पर पूरा हिंदुस्तान भरोसा करता हो । जब हमने ऐसे नामों पर सोचना शुरू किया तो सबसे पहला नाम अमिताभ बच्चन का ही सामने आया । पहले तो हम अमित जी से पूछने से ही डर रहे थे क्योंकि पता नहीं वे हां कहेंगे या नहीं मगर हमारी कम्पनी को जांचा-परखा और तब ब्रैंड एंबेसडर बनने के लिए हां कर दी। हिंदुस्तान में हमारा प्रवेश हिंदुस्तान के चहेते और भरोसेमंद अभिनेता नहीं, बल्कि भरोसेमंद व्यक्ति के माध्यम से हो रहा है। यह अमिताभ का ढलती उम्र में बरकरार जादू ही था कि कुछ वर्ष पहले जब कैडबरी चॉकलेट में कीड़े निकले और लोगों के बीच इस कंपनी की लोकप्रियता का ग्राफ तेज़ी से गिरा तब कैडबरी को फिर से अपनी जगह बनाने में अमिताभ के व्यक्तित्व की ज़रूरत पड़ी और उन्होंने अमिताभ को अपना ब्रांड एंबेसडर बनाया।

अमिताभ न सिर्फ एक महान अभिनेता होने के बावजूद अपने घर,हर परिवार को अपने भाई,बेटे से लगते हैं बल्कि आज की पीढी के कई युवा भी उनमें अपना चरित्र ढूंढने की कोशिश करते हैं। सार्वजनिक तौर पर काम करने वाली और सेवाएं देने वाली कंपनियां अमिताभ को ही अपना ब्रांड एंबेसडर बनाती हैं। आईसीआईसीआई बैंक ने जब बीमा सेवा की शुरुआत की,तो सबसे पहले उन्होंने अमिताभ को ही ब्रैंड एंबेसडर बनाया। उसके बाद उन्होंने बैंकिंग कारोबार के लिए भी अमिताभ को ही अपना ब्रांड एंबेसडर बना लिया,हालांकि जब विदेशों में बैंक की साख बनाने की बात आई,तो उन्होंने शाहरुख को अपना ब्रैंड एंबेसडर बनाया क्योंकि वह विदेशों में ज्यादा लोकप्रिय माने जाते हैं। रीड एंड टेलर और पार्कर जैसी कंपनियों ने भी हिंदुस्तान में अपने पांव पसारने के लिए अमिताभ की मदद ली। अमिताभ ने अब तक कई विज्ञापनों में काम किया और आज भी कर रहे हैं। विज्ञापनों में काम करने के बारे में अमिताभ ने कहा था,"मैं फिल्मों में काम करने वाला कलाकार हूं। तीस सेकेंड की विज्ञापन फिल्मों में आपको दर्शकों को आकर्षित करना होता है जो बेहद कठिन काम है लेकिन मैं सीख गया हूं।' अमिताभ का इस उम्र में भी सीखने का जज़्बा युवा कलाकारों को प्रेरित करता है। अमिताभ में विनम्रता भी कूट-कूट कर भरी हुई है और प्रायः वह सच बोलते नज़र आते हैं। गौरांग दोशी की फिल्म "दीवार" के सेट पर अमिताभ से बातचीत के दौरान बहुत सारे विज्ञापनों में काम करने की बाबत पूछा गया,तो उन्होंने इसे पैसा कमाने की इच्छा से जोड़ दिया। उन्होंने कहा,"अत्यधिक विज्ञापनों में काम करने का राज़ है-पैसा कमाना । यह तो सब को पता है कि मेरी कम्पनी कर्ज़ में डूबी हुई थी । कर्ज़ चुकाकर मैं फिर से अपनी कंपनी खड़ा करना चाहता हूं। मैं अभिनेता हूं और सिर्फ अभिनय कर सकता हूं इसलिए ज्यादा से ज्यादा काम करने की कोशिश करता हूं। यह लोगों का बड़प्पन है जो मुझे इस उम्र में भी काम दे रहे हैं। जब तक मेरा शरीर साथ दे रहा है,काम करता रहूंगा।'

आज अमिताभ तेल और सीमेंट आदि उत्पादों का प्रचार करते नज़र आ रहे हैं। हक़ीकत यह है कि आज उनके पास कोई बड़ा ब्रांड नहीं है। बड़े ब्रैंड आमिर,शाहरुख,सलमान,हृतिक और रणबीर जैसे सितारों के पास जा रहे हैं। अमिताभ की तरह ही आमिर की दर्शकों में अच्छी इमेज है इसलिए आमिर जिस उत्पाद से जुड़ते हैं,उसकी खपत बढ़ जाती है। शाहरुख भी अमिताभ के ही नक्शे कदम पर चल रहे हैं। कहा जाता है कि मन्नत बंगला खरीदने के लिए शाहरुख ने एक बड़े हीरा व्यापारी से कर्ज़ लिया था और उस कर्ज़ को चुकता करने के लिए उसकी फिल्मों में काम किया,कड़ी मेहनत की और कर्ज़ चुका कर मन्नत पूरी कर ली।

शाहरुख भी अमिताभ की तरह नई तकनी के के मुरीद हैं। अमिताभ बच्चन ने जब फेसबुक, ऑर्कुट और ब्लॉग का प्रचलन बढ़ गया तब कलाकारों ने अपने अकाउंट बना कर अपने प्रशंसकों से संपर्क में रहने की कोशिश शुरू की । इनमें शाहरुख से लेकर शिल्पा शेट्टी तक और रणबीर से लेकर नई नायिकाओं तक सभी ने अकाउंट शुरू किया था । इसके बाद जब से ट्विटर का प्लेटफॉर्म सामने आया तब से तो लगभग हर कलाकार ट्विट करने लगा है । दुनिया में कुछ भी हो कलाकार ट्विट कर देते हैं और फिर उसे खबरों में स्थान मिलने लगता है । अमिताभ अपने ब्लॉग से प्रशंसकों के साथ संपर्क में रहते थे लेकिन अब वह भी ट्विटर के माध्यम से अपनी बात प्रशंसकों तक पहुंचाने लगे हैं । उन्हें प्रचार पाने का और एक नया जरिया मिला है । अमिताभ आए दिन किसी न किसी वजह से सुर्खियों में रहना चाहते हैं और उनके लिए फेसबुक, ऑर्कुट, ब्लॉग और अब ट्विटर का सहारा मिल रहा है । विदेश यात्रा के दौरान अमेरिकी फौजियों को उन्होंने खाने के लिए पैसे दिए तो तुरंत इसका जिक्र ब्लॉग पर कर डाला(चंद्रकांत शिंदे,संडे नई दुनिया,30.5.2010)।

Saturday, May 29, 2010

परदे पर ममता के रंग उकेरती नायिकाएँ- भावना सोमाया

हिंदी फिल्मों से मांओं, भाभियों या बेटियों को अलग नहीं किया जा सकता। कभी करुणा, कभी दुलार तो कभी बेबसी का प्रतीक बनीं ये औरतें हमारे सिनेमा का सबसे कोमल हिस्सा रही हैं। हमारी फिल्मों में मां पर केंद्रित तो ढेरों प्रसंग हैं, लेकिन मुझे पहले-पहल वे प्रसंग याद आ रहे हैं, जिन्होंने मेरे जेहन पर अमिट छाप छोड़ी।


मांओं की इस सूची में सबसे पहले हैं एसडी बर्मन का यादगार नग्मा नन्ही कली सोने चली गुनगुनाती हुईं सुलोचना। लोरी गाकर बच्ची को सुलाने की कोशिश करती मां का यह कोमल दृश्य बिमल रॉय की फिल्म सुजाता का है। हालात के चलते यह नन्ही अछूत कन्या एक ब्राह्मण परिवार में पहुंच गई है। बच्ची का बदन बुखार में तप रहा है। पति द्वारा बच्ची के बुखार के बारे में बताए जाने पर सुलोचना तेजी से उठती हैं और बच्ची के माथे पर हाथ रख देती हैं, जिसे छूना भी पाप था।


इसी फिल्म का एक और मार्मिक दृश्य है, जब युवा सुजाता को उसके गांव भेजा जा रहा होता है और सुलोचना उसकी आखिरी झलक के लिए खिड़की खोलकर देखती है। ऐन इसी मौके पर सुजाता रुकती है और रोते हुए फिर से घर लौट आती है। वो समझ जाती है कि उससे झूठ बोला गया था और उसका परिवार उससे छुटकारा पाने के लिए उसे दूसरे गांव भेज रहा था।


अब मैं भाभियों की बात करना चाहूंगी, जो हिंदी फिल्मों में मां की भूमिका निभाती रही हैं। मैं सालों तक फिल्म भाभी की चूड़ियां की मीना कुमारी की छवि को नहीं भुला सकी थी। युवावस्था में मुझे श्वेत श्याम हिंदी फिल्मों की ये नायिकाएं देवियों सरीखी लगा करती थीं। अलसुबह घर के कामकाज निपटाते ज्योति कलश छलके गुनगुनाने वाली मीना कुमारी को भूलना क्या इतना आसान है? इसी तरह फिल्म छोटा भाई की नूतन का किरदार भी मेरी स्मृतियों में कभी नहीं धुंधलाता। फिल्म में नूतन गुस्से में भरकर अपने छोटे से देवर को छत पर एक पैर पर खड़े होने की सजा देकर भूल जाती है। शाम को खाना परोसते समय उसे अचानक अपनी सजा याद आती है तो वह दौड़ती हुई छत पर जाती है और बच्चे को आंचल में समेट लेती है। यह दृश्य आज भी मेरी आंखें नम कर देता है।


यहां मुझे हिंदी सिनेमा की तीन बेटियों का जिक्र करना भी जरूरी लगता है। इनमें से पहली हैं फिल्म खंडहर की शबाना आजमी। मृणाल सेन की इस फिल्म में शबाना ने जामिनी का किरदार निभाया था, जो निराशा और अवसाद के बावजूद अपनी गरिमा बचाए रखती है। मुजफ्फर अली की उमराव जान में तवायफ रेखा को एक नवाब द्वारा उसके गृहनगर फरीदाबाद में मुजरे के लिए बुलाया जाता है और वहां उसकी मुलाकात अपनी मां से हो जाती है। ये क्या जगह है दोस्तो गाने के दौरान मां और बेटी परदे की ओट से एक-दूसरे की एक झलक देखते हैं, लेकिन दोनों ही जानते हैं कि उनकी तकदीर के धागे अब उनके हाथ से छूट चुके हैं।


फिल्म आप बीती में जब हेमा मालिनी को यह महसूस होता है कि उसके माता-पिता उसके भाई और भाभी के साथ सम्मान का जीवन नहीं बिता पाएंगे, तो वह एयरहोस्टेस की नौकरी कर लेती है। लेकिन ट्रेनिंग के लिए जाने से पहले वह भाई से वचन लेती है कि वह उसकी गैर मौजूदगी में माता-पिता को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएगा। ऐसा नहीं हो पाता। लौटने पर हेमा पाती है कि उसके माता-पिता लापता हैं। सिनेमा के कुछ दृश्य नाटकीयता या भावनात्मक अतिरेकों से मुक्त होने के बावजूद हमें याद रह जाते हैं। मुझे मीना कुमारी और शबाना आजमी के दो और दृश्य याद आ रहे हैं।


एक दृश्य में बच्चों के झुंड से घिरीं मीना कुमारी पहेलियां बुझाते हुए गा रही हैं एक थाल मोतियों से भरा और बच्चे उसकी मौजूदगी में चहचहा रहे हैं। फिल्म अपने पराए में शबाना आजमी भी दो बच्चों के लिए हल्के-हल्के आई चलके बोले निंदिया रानी गाना गा रही हैं। शबाना और दोनों बच्चों के बीच इतनी आत्मीयता है कि इसका अहसास ही नहीं होता कि वे शबाना के अपने नहीं, पराए बच्चे हैं(दैनिक भास्कर,22 मई,2010)।

बॉलीवुड में एंट्री का यही है राइट टाइम!

यदि आप बॉलीवुड फिल्मों में मौके की तलाश में हैं, तो यही सबसे सही वक्त है। इन दिनों जिस प्रकार की ऑफ बीट फिल्में बने रही हैं, उनके लिए निर्देशक कहानी के अनुसार चेहरे ढूंढ रहे हैं। एक वक्त था, जब बॉलीवुड में निर्देशकों की नए चेहरों की खोज बड़े सितारों के बेटों और बेटियों तक जाकर ठहर जाती थी। लेकिन अब वक्त बदल गया है। इंडस्ट्री के कुछ नामी निर्देशकों ने हाल में बिल्कुल नए और गैर-फिल्मी चेहरों को अपनी फिल्म का नायक बनाया है। यदि ऐसा नहीं है, तो वे ऐसे चेहरे चाह रहे हैं, जो उनकी कहानी के अनुरूप हों। न कि किसी सितारे की संतान। आशुतोष गोवारिकर, मधुर भंडारकर, महेश भट्ट और कुणाल कोहली ऐसे ही निर्देशक हैं। गोवारिकर इन दिनों अपनी अगली फिल्म बुद्ध के लिए नया चेहरा इंटरनेट पर ढूंढ रहे हैं। फिल्म के लिए उनके पास 3700 चेहरे आ चुके हैं। इसी प्रकार महेश भट्ट भी अपनी नई फिल्म के लिए दो नायक और एक नायिका ट्विटर पर ढूंढने में लगे हुए हैं। इसके पहले भट्ट ने हाल में अपनी एक फिल्म के लिए गैर-फिल्मी पृष्ठभूमि वाले, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र इमरान जैदी को हीरो चुना। जैदी को लेकर वह जेएनयू के छात्र नेता चंद्रशेखर की हत्या पर फिल्म बना रहे हैं। अक्टूबर में फिल्म की शूटिंग शुरू होगी। कुछ महीनों पहले सलमान खान के अपोजिट फिल्म वीर से करियर शुरू करने वाली जरीन खान का भी कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं है। इसी प्रकार हाल में आई बदमाश कंपनी के वीर दास का भी बॉलीवुड में कोई गॉड फादर नहीं था। पिछले दिनों फिल्म लाहौर से अनहद शर्मा ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई। वह कहते हैं, नए लोगों के लिए बॉलीवुड में आने का यह बिल्कुल सही समय है। यहां हर तरह की फिल्में बन रही हैं और कहानी की मांग के अनुरूप नए चेहरों की जरूरत है। अनहद दिल्ली में ही पले-पढ़े हैं और बॉलीवुड में अपने सपने पूरे करने के लिए मुंबई चले गए। निर्देशक कुणाल कोहली ने हाल में ट्विटर पर कहा है कि वह अपनी सैफ अली खान के साथ बन रही फिल्म के लिए नया चेहरा ढूंढ रहे हैं। हाल में यशराज फिल्म्स ने दिल्ली के रणवीर सिंह को अनुष्का शर्मा के अपोजिट लिया है। रणवीर का कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं है(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,29.5.2010 से)।

Friday, May 28, 2010

प्रकाश झा की 'राजनीति' पर कांग्रेस का सेंसर

मशहूर डायरेक्टर प्रकाश झा ने जिस दिन से फिल्म राजनीति बनाने की घोषणा की, उस दिन से फिल्म के साथ कोई न कोई विवाद जुड़ा हुआ है। फिल्म में जैसे ही कटरीना कैफ को लेने की घोषणा की गई, तो यह चर्चा होने लगी कि फिल्म सोनिया गांधी के ऊपर बनाई जा रही है। इसकी खास वजह यह थी कि विदेश में जन्मीं कटरीना कैफ का ठीक से हिंदी न बोल पाना और उनका विदेशी ऐक्सेंट। लेकिन प्रकाश झा ने इसका खंडन किया था।

फिल्म रिलीज़ के लिए तैयार है और सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास कर यूए सर्टिफिकेट दिया है। लेकिन फिल्म के सेंसर बोर्ड के पास जाने से पहले कांग्रेस के तीन प्रतिनिधियों- टॉम वडक्कन, पंकज शर्मा और संजीव भार्गव ने फिल्म को देखा था और फिल्म के लिए 'ए' सर्टिफिकेट की मांग की थी।

झा ने बताया कांग्रेस प्रतिनिधियों ने फिल्म के कुछ खास सीन्स पर आपत्ति जताई और उन्हें हटाने के लिए कहा। कई सीन्स जिनमें गालियां थीं, को बीप करने के लिए कहा गया। फिल्म का एक सीन जहां एक पार्टी कार्यकर्ता अर्जुन रामपाल से टिकट के बदले मोलभाव करता है और दूसरा अर्जुन रामपाल और कटरीना कैफ के बीच लव मेकिंग सीन को फिल्म से पूरी तरह हटाने की मांग की।

इसके अलावा सेंसर बोर्ड ने भी फिल्म से कुछ सीन्स हटाए थे जैसे- एक सीन में डॉयलॉग था कि 'ले जाएगी विधवा सपोर्ट समेट के'। प्रकाश झा ने बताया कि उन्हें 'विधवा' शब्द को हटाकर 'बेटी' करना पड़ा। लेकिन इतनी कांट-छांट करने के बावजूद कांग्रेस पैनल ने फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिए जाने का दबाव बनाया। यही कारण था कि फिल्म प्रड्यूसर को ट्रिब्यूनल के पास जाना पड़ा और उसने पैनल के ए सर्टिफिकेट की मांग को खारिज कर दिया और फिल्म को यूए सर्टिफिकेट मिल गया।

कांग्रेसी पैनल के केवल एक व्यक्ति अनिल थॉमस, जो केरल कांग्रेस कमिटी के मेंबर भी हैं, पैनल से सहमत नहीं थे। इससे पहले राजनीति की टीम को दिल्ली के कॉलेज में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की परमिशन नहीं दी गई। इसके अलावा इंडिया गेट और लालकिला पर भी प्रेस कॉन्फ्रेंस की इजाजत नहीं मिली, तब राजनीति की टीम को गुड़गांव के होटेल में मीडिया इंवेंट का आयोजन करना पड़ा।

प्रकाश झा ने यह भी बताया कि एक दिन मुझे मेरे मित्र मोहन आगाशे ने फोन किया और कहा कि आईबी मंत्रालय के एक अधिकारी मुझसे बात करना चाहते हैं। जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने कहा- 'मैंने आपकी फिल्म के बारे में काफी सुना है क्या मैं फिल्म देख सकता हूं? मैंने उनसे कहा कि, 'सर फिल्म तो देखने के लिए ही बनाई है।' पहले मुझे फिल्म को सेंसर बोर्ड में समिट करने दीजिए उसके बाद फिल्म का शो आप लोगों के लिए आयोजित करूंगा।'
(टाइम्स न्यूज नेटवर्क,28 मई,2010)

Wednesday, May 26, 2010

गुलाम,सेजिया भईल अंजोर अउर नन्दो तोरो नन्दो

आमिर खान वाली फिलिम गुलाम भोजपुरियो में बनी। एह फिलिम में देश के दुश्मन बनल नक्सली अउर माओवादी लोगन समेत जमींदारी व्यवस्था के देखावल जाइ। एह के बना रहल हवन शंभु पांडे। हाले मे एह के मुहुरत भईल ह। फिलिम में, विनय आनंद अउर शंभु पांडे के सांवरिया आई लव यू वाली टीम के मुख्य भूमिका होई। रानी चटर्जी,मोनालिसा,कल्पना शाह,संजय पांडे,अवधेश मिश्रा,नीरज भारद्वाज अउर अली खान के अदाकारी वाली एह फिलिम मे संगीत होखी अमन श्लोक के। पटकथा लिख रहल बाड़ें अरविंद।
ओने बनारसी फिल्म्स एंड न्यूज ज्वाइंट वेंचर बना रहल बा सेजिया भईल अंजोर। हाली मे एकर मुहुरत भईल। निर्माता ब्रज किशोर अउर निर्देशक आशदेव सिंह के एह फिलिम के शुटिंग नेपाल आ बिहार में करे के योजना बा। फिलिम में संगीत बा श्याम पात्रा के जवन के धुन पर रउआ के मोहम्मद अजीज,उदित नारायण,साधना
सरगम,सोहन,जावेद अली,पामेला जैन अउर तरुणम के गावल गीत सुने के मिली। पटकथा रही सत्येंद्र स्वामी के।
एगो अउरी फिलिम नन्दो तोरो नन्दो के भी मुहुर्त हाले मे पटना में भईल ह। यथार्थ एंटरटेनमेंट के ई संगीतमय पारिवारिक फिलिम होई जवन के निर्माण आ निर्देशन अवनीश कुमार कर रहल बाड़ें। मुख्य रोल ह पूजा शाह,रूपा सिंह,कल्पना,जूली,कुणाल राज आ सुनील सिंह चौहान के। फिलिम के शूटिंग 30 मई से शुरू होई आ पूरा शूटिंग बिहारे मे करे के योजना बा। फिल्म मे आठ गीतन के योजना बनावल गईल ह जवन के गुंजन सिंह,अवनीश कुमार अउर इंदू सोनाली गवले बाड़ें।
(चित्र विवरणः पहिलका चित्र-सेजिया भईल अंजोर अउर दुसरका गुलाम के मुहूरत से)

थाई फिल्म को कान का शीर्ष फिल्म पुरस्कार

फ्रांस में हुऐ 63वें कान्स फिल्म महोत्सव में थाइलैंड के निदेशक एपिचाटपोंग वरीरासेथाकुल की फिल्म ‘अंकल बोनमी हू कैन रिकाल हिज पास्ट लाइव्स’ ने सर्वोच्च पुरस्कार ‘पाम डी ओर’ जीत लिया है।
ज्यूरी द्वारा की गई इस घोषणा से समीक्षकों को तगड़ा झटका लगा है। उन्होंने जेवियर बेअवोइस की फिल्म ‘आफ गाड्स एंड मैन’ को खिताब का प्रबल दावेदार बताया था। इस फिल्म को महोत्सव का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार ग्रैंड प्राइज दिया गया। चाड के निर्देशक महामत सालेह हारून की फिल्म ‘ए स्क्रीमिंग मैन’ को विशेष ज्यूरी पुरस्कार दिया गया।
पुरस्कार जीतने के बाद वरीरासेथाकुल ने कहा, "मैं थाईलैंड के सभी पूर्वजों को धन्यवाद देना चाहूंगा। उन्होंने इसे यहां मेरे लिए संभव बनाया।”
मेक्सिको के अलेजेंड्रो की ‘ब्यूटीफुल’ में अभिनय के लिए स्पेन के कलाकार ज़ेवियर बारडेम को, इटली के इलिओ जरमेनो के साथ सर्वेश्रेष्ठ अभिनेता के खिताब से नवाजा गया है।
ईरान के अब्बास किआरोस्तामी की ‘सर्टिफाइड कॅापी’ में दुर्लभ चीजों की कारोबार करने वाली एक नाखुश व्यापारी की भूमिका निभाने वाली फ्रांस की जूलिएट बिनोचे को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री चुना गया है।
समीक्षक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बार्डेम का समर्थन कर रहे थे जबकि जर्मेनो के लिए सहानुभूति पैदा हो गई। जर्मेनो की पत्नी के निधन के बाद उन्हें अपने तीन बच्चों की देख रेख करनी पड़ रही है।
टिम बर्टेन के नेतृत्व में भारतीय मूल के निर्देशक शेखर कपूर समेत ज्यूरी के सदस्यों ने विजेता लोगों का चयन किया। पूर्व ‘बांड’ विलेन मैथ्यू अमालरिक को उनकी फिल्म ‘आन टूअर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। इस फिल्म में एक ऐसे संयोजक की कहानी है जो कुछ फूहड़ हंसी मजाक करने वाले नर्तकों के साथ फ्रांस की यात्रा करता है।

Tuesday, May 25, 2010

कटी पतंग

राकेश रोशन ताल ठोंक के कह रहे हैं कि उन्हें काइट्स की नेगेटिव समीक्षा की परवाह नहीं है। तर्क दे रहे हैं कि भारत में न सही,विदेशों में अच्छी समीक्षा मिली है। यह भी कि उनकी फिल्म कुछ न कुछ ज़रूर कहती है अन्यथा पहले ही दिन 21 करोड़ रूपए का व्यवसाय कैसे कर पाती! हालांकि यह सब कहने के बाद भी उन्होंने आलोचकों को यह कहते हुए धन्यवाद दिया है कि वे हर किसी के दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं।

वास्तव में,इस फिल्म के प्रचार के लिए जितने हथकंडे अपनाए गए,समीक्षाओं ने एक स्वर से उनकी मिट्टी पलीद कर दी। कहा गया कि जोधा अकबर के दो साल बाद यह फिल्म रिलीज हो रही है और 150 करोड़ की रकम देकर रिलायंस ने इसके वर्ल्डवाइड डिस्ट्रीब्यूशन अधिकार खरीदे हैं,तो कुछ सोच-समझकर ही किया होगा। करण जौहर से लेकर ज्योतिषी ब्लॉगरों ने भी रिकार्डतोड़ कामयाबी की भविष्यवाणी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी मगर किसी भी वर्ग को फिल्म पसंद आती नहीं दिखती।

मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती मानते हैं कि तकनीकी रूप से यह फिल्म है ही नहीं। उन्होंने कहा है कि यह हृतिक को बॉलीवुड में इंट्रोड्यूस करने के लिए तैयार किया गया सेक्सी पैकेज है और पैकेज को किसी कहानी की ज़रूरत तो होती नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने इसे ऐसी पटकथा पर बनी फिल्म बताया है जिसमें यही तय नहीं है कि पुरानी शैली की प्रेम-कहानी बनानी है या नए स्टाइल का रोमांस। नतीजा यह कि फिल्म दोनों में से कुछ भी नहीं बन पाई। टेलीग्राफ में प्रतीम डी.गुप्ता को इस फिल्म की कहानी शिल्पा शेट्टी की कमर से भी पतली लगी है। उनका दावा है कि फिल्म की मूल कथा सीधे-सीधे मैच प्वाइंट से उड़ाई गई है।

बता दें कि यह कहानी है मेक्सिको के घने जंगलों में जबर्दस्त गर्मी के बीच मरनेके लिए छोड़ दिए गए जे ( रितिक रोशन ) की। इन जंगलों में जे को पुलिस के साथ-साथ,जान लेने पर आमादा खूंखार गिरोहों से भीअपनी जान बचानी है। जे लॉस वेगस में केसिनो का बिजनेस कर रहे गैंगस्टर बॉब ( कबीर बेदी ) की बेटी जीना ( कंगना राणावत ) से उसकी दौलत की खातिर प्यार का नाटक करता है। उसके पिता और भाई टोनी (निक ब्राउन ) को इस पर ऐतराज नहीं। मगर जब जे का सामना टोनी की प्रेमिका नताशा (बारबरा मोरी ) से होता है तो वह उसे चाहने लगता है । बाद में नताशा को भी महसूस होता है कि जे ही उसका सच्चा प्यार करता है। मगर जे और नताशा की नजदीकियां उन दोनों की जिंदगी में कई अकल्पनीय परेशानियों को जन्म देती हैं।

शुभ्रा गुप्ता को हृतिक का अभिनय साधारण लगा है,यहां तक कि नाचने-गाने वाले दृश्यों में भी। मगर नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा को हृतिक का डांस पसंद आया है मगर उन्हें बारबरा हृतिक के सामने फीकी लगी है-खासकर क्लोज शॉट में। उनके अनुसार,बारबरा रोमांटिक दृश्यों में नहीं जमी है। राजस्थान पत्रिका में रामकुमार सिंह ने माना है कि हृतिक और बारबरा मोरी ने अपने अभिनय से फिल्म की कथा को और दुरूस्त किया है। प्रतीम डी. गुप्ता ने बारबरा के रोल की तारीफ की है और इंटरवल के बाद उसे फिल्म का एकमात्र आकर्षण बताया है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज को भी हृतिक के डांस और एक्शन पसंद आए हैं। गौरतलब है कि रोशन की पिछली कुछेक फिल्मों की तरह,इसमें हीरो के लिए हीरोईन के रोल को छोटा नहीं किया गया है। शुभ्रा ने इसे लीड पेयर के कारण ही,बस एक बार देखे जाने योग्य फिल्म माना है। हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर और स्टेट्समैन में एम.पॉल ने हृतिक को इस रोल के लिए एकदम परफेक्ट बताया है। मगर विनायक चक्रवर्ती ने हीरो-हीरोईन की केमिस्ट्री को जीरो बताया है। वे लिखते हैं कि बारबरा सचमुच उल्लू की पट्ठी है जिसने यह फिल्म साइन की! फिल्म में कँगना रानाउत के महज साढे चार दृश्य हैं मगर मेल टुडे और नभाटा ने उनके अभिनय की खुलकर तारीफ की है।

सबने स्वीकार किया है कि इसबैनर की फिल्में अच्छे संगीत के लिए जानी जाती रही हैं मगर इस बार वह बात नहीं है। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर,संजय ताम्रकार और चंद्रमोहन शर्मा को जिंदगी दो पल की और दिल क्यूं ये मेरा गीत कर्णप्रिय लगा है। प्रतीम डी.गुप्ता जी कहते हैं कि गाने सीडी में तो अच्छे लगते हैं मगर फिल्म की गति के अनुरूप नहीं हैं। सलीम सुलेमान के बैकग्राउंड स्कोर को सबने फिल्म के म्यूजिक से बेहतर बताया है।

यह अनुराग बसु का ही कमाल था कि मर्डर में इमरान हाशमी भी अच्छे लगे। मगर,गैंगस्टर और लाइफ इन अ मेट्रो का यह निर्देशक इस बार निराश करता है। एम.पॉल लिखते हैं कि राकेश रोशन ने अनुराग बसु को लेते समय दर्शकों की उम्मीदों का ध्यान नहीं रखा। चंद्रमोहन शर्मा को स्पीरो का स्टंट डायरेक्शन पसंद आया है। विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि लॉस वेगास,लॉस एंजिल्स और मेक्सिको के जिन दृश्यों को बढा-चढाकर बताया जा रहा है,हॉलीवुड के दर्शक उनसे पहले ही रू-ब-रू हो चुके हैं। वे मानते हैं कि बारबरा इस फिल्म में केवल इसलिए है कि उसे लेना ज्यादा खर्चीला नहीं था। लेकिन संजय ताम्रकार मानते हैं कि निर्देशक अनुराग बसु ने कहानी को इतने उम्दा तरीके से फिल्माया है कि अन्य कई बातों को इग्नोर किया जा सकता है। उनके मुताबिक,बसु ने कहानी को सीधे तरीके से कहने के बजाय उन्होंने इसे जटिलता के साथ कहा है, जिससे फिल्म में रोचकता पैदा हुई है। रामकुमार सिंह को भी अनुराग बसु का निर्देशन काबिले तारीफ लगा है।

रामकुमार सिंह ने इसे टाइमपास लव-स्टोरी माना है जो कोई कल्ट नहीं है। विशाल ठाकुर लिखते हैं कि काइट्स की डोर उलझी हुई है और आप यह फिल्म तभी देखें जब हृतिक के जबर्दस्त फैन हों और बारबरा का ग्लैमरस अँदाज देखने की तमन्ना हो। प्रतीम डी.गुप्ता ने लिखा है कि अनुराग बसु और राकेश रोशन दोनों ने एक दूसरे के प्रति धोखाधड़ी की है। वे पूछते हैं कि जब हीरो-हीरोईन के संबंध का आधार ही शारीरिक आकर्षण है,तो फिर न तो एकमात्र किसिंग सीन को इतना बढ़ा-चढाकर बताने की ज़रूरत थी और न ही यह समझ में आता है कि क्यों फिल्म को यू-ए सर्टिफिकेट दिया गया? दो टूक पूछते हैं," मेक्सिको की अवैध आप्रवासी और 11 बार फर्जी शादी कर चुका व्यक्ति सेक्स के प्रति इतने उदासीन क्यों?" शुभ्रा गुप्ता ने राकेश रोशन और अनुराग बसु-दोनों के लिए निराशाजनक बताते हुए इसे दो स्टार दिये हैं। एम.पॉल को यह फिल्म रोमियो जूलियट की बेदिमाग प्रस्तुति लगी है जिसमें दो घंटे तक नाचने और गाने के बाद हीरो-हीरोईन जो करते हैं वह लगभग आत्महत्या जैसा ही है। उन्होंने इसे ठंडे पानी की दार्जीलिंग चाय बताते हुए सिर्फ दो स्टार दिये हैं। चंद्रमोहन शर्मा ने स्टोरी के धीमी रफ्तार से खिसकने और डायलॉग दूसरी भाषाओं में होने को नेगेटिव प्वाइंट मानते हुए इसे ढाई स्टार के लायक माना है। मयंक शेखर ने अंग्रेजी और स्पेनिश डायलॉग को फिल्म का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू तो माना है मगर फिर भी तीन स्टार दिए हैं। अजय ब्रह्मात्मज ने इसे हिंदी सिनेमा की भावपूर्ण तथा नई उड़ान बताते हुए तीन स्टार के लायक माना है। वेबदुनिया में संजय ताम्रकार ने इसे असाधारण प्रस्तुति वाली फिल्म बताया है जो तकनीकी रूप से हॉलीवुड के स्तर की है। सो उनकी ओर से फिल्म को मिले सबसे ज्यादा साढे तीन स्टार।

वास्तव में,यह एक भाषाई फिल्म है। हीरो अँग्रेजी बोलता है। हीरोईन स्पैनिश। बीच-बीच में हिंदी भी है। फिल्म के लगभग आधे डायलॉग अंग्रेजी और स्पैनिश में हैं। अजय ब्रह्मात्मज ने मिश्रित भाषा के प्रयोग को अनूठा बताया है मगर मयंक शेखर ने ध्यान दिलाया है कि फिल्म में स्पैनिश डायलॉग्स के जो सब-टाइटल अंग्रेजी में दिए गए हैं उन्हें अधिकतर भारतीय दर्शक ठीक से पढ़ भी नहीं सकते। प्रतीम डी.गुप्ता लिखते हैं कि फिल्म के डायलॉग बेहद साधारण हैं। दूसरी बात यह कि फिल्म का हॉलीवुड संस्करण लगभग आधा घंटा छोटा है। यह समझना मुश्किल है कि जब कोई फिल्म 90 मिनट में उतनी ही बात कह सकती है तो फिर उसे 120 मिनट का बनाने की ज़रूरत क्या है! 

नौ सीक्वल हैं निर्माणाधीन




















(हिंदुस्तान,पटना,22 मई,2010)

Monday, May 24, 2010

वह पचास हज़ारी वन लाइनर

मोहन माखीजानी अर्थात् मैकमोहन की पहली फिल्म हकीकत 1964 में रिलीज हुई थी और शोले आई थी 1975 में। इन ग्यारह वर्षों में उन्होंने कुल 25 फिल्मों में काम किया। आवाज़,कद-काठी,स्टाइल-किसी भी एंगल से उनका करिअर आश्वस्त नहीं करता था। खलनायक के तौर पर तो कतई नहीं। मगर बाद के पैंतीस वर्षों में उन्हें 175 फिल्में मिलीं और इनमें से अधिकतर में वे खलनायक थे ।यह संभव हुआ था शोले से। गब्बर पूछता है, "अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखा है सरकार हम पर"? और सांभा बने मैकमोहन जवाब देते हैं, "पूरे पचास हजार।" पूरी फिल्म में बस एक डायलॉग। शोले से पहले उनके खाते में आया सावन झूम के,अभिनेत्री,हंसते ज़ख्म,हीरा-पन्ना,जंजीर और मज़बूर जैसी हिट फिल्में शामिल थीं। मगर, मैकमोहन के करियर को मानो इस वन लाइनर का ही इंतज़ार था । ऐसा कोई उदाहरण बिरले ही मिले जब किसी एक डायलॉग के बूते ही किसी कलाकार का करियर इतना लंबा खिंचा हो। संवाद लेखन की विधा को सलीम-जावेद ने जिस ऊंचाई पर पहुंचाया था,वह हिंदी फिल्मों के इतिहास में एक मिसाल है। उनके हिस्से में और भी नगीने हैं मगर मैकमोहन का पूरा करियर इस पचास हजारी डायलॉग का पर्याय बन गया। 22 मई के राजस्थान पत्रिका में,प्रदीप सरदाना जी ने उन्हें याद किया हैः
"ऑल टाइम हिट और एवरग्रीन फिल्म 'शोले' का लगभग हर किरदार लोगों को आज भी याद है। इन्हीं में एक किरदार है सांभा का, जिसे परदे पर मैक मोहन ने प्ले किया था। 10 मई को मैक इस दुनिया से कूच कर गए, हमेशा के लिए हमारी यादों का हिस्सा बन गए।
मैक मोहन के निधन के साथ बॉलीवुड से एक ऎसे शख्स की विदाई हो गई, जो फिल्मों में ज्यादातर 'बैड मैन' के रोल करता था, पर असल जिंदगी में एक जेंटलमैन था। एक ऎसा इंसान, जिसके दोस्त दूर-दूर तक थे, पर दुश्मन ढूंढे से भी नहीं मिलता था। उन्होंने अपनी जिंदगी पूरे स्टाइल से जी, पर स्टाइलिश लाइफ में भी उनकी सादगी और शराफत देखते ही बनती थी। मैक ने 200 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम किया, जिनमें बडे रोल भी थे और छोटे भी। पर मैक को जिस रोल से सबसे ज्यादा लोकप्रियता और पहचान मिली वह 'शोले' में सांभा का रोल था। लाहौर में 24 अप्रेल 1938 को जन्मे मोहन मखीजानी (मैक का असली नाम) देश विभाजन के बाद लखनऊ आ गए। पढाई के साथ क्रिकेट का भी उन्हें बहुत शौक था। बीए ऑनर्स की पढाई के बाद क्रिकेटर बनने का सपना लेकर वे साठ के दशक में मुंबई आ गए। पर क्रिकेटर बनने की बजाय वे थिएटर पहंुच गए, जहां एक्टर बनने की तमन्ना जाग उठी। शुरू में वे इप्टा से जुडे, फिर फिल्मालय एक्टिंग स्कूल से एक्टिंग भी सीखी। बाद में वे चेतन आनंद के सहायक बन गए। 1964 में चेतन आनंद ने ही अपनी फिल्म 'हकीकत' में मैक को एक रोल दिया। हिंदी के अलावा मैक ने पंजाबी, हरियाणवी, बांग्ला और दक्षिण की फिल्मों में भी काम किया। दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों में उनकी शुरूआत बृजमोहन नाम से हुई। पर उनके दोस्त उन्हें मोहन मखीजानी की जगह मैक या मैकी कहकर बुलाते थे। इसीलिए इंडस्ट्री में वे मैक के रूप में मशहूर हो गए। कुछ फिल्में उन्होंने मैक नाम से की और 1973 में आई 'शरीफ बदमाश' से उनका फिल्मी नाम मैक मोहन हो गया। बाद में उन्होंने 'हंसते जख्म', 'हीरा पन्ना', 'प्रेम कहानी', 'अनहोनी', 'हिमालय से ऊंचा', 'मनोरंजन', 'रफू चक्कर', 'विश्वनाथ', 'छैला बाबू', 'जॉनी दुश्मन', 'लहू के दो रंग', 'कर्ज', 'कुर्बानी', 'धरमकांटा', 'हादसा' और 'नाखुदा' जैसी कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए। यह एक संयोग ही है कि उनकी सबसे ज्यादा फिल्में अमिताभ बच्चन के साथ रहीं। अमिताभ की पहली हिट फिल्म 'जंजीर' से दोनों का साथ ऎसा बना, जो 'मजबूर', 'कसौटी', 'महान', 'सत्ते पे सत्ता', 'काला पत्थर', 'हेरा फेरी', 'खून पसीना', 'ईमान-धर्म', 'डॉन', 'दोस्ताना', 'शान', 'अजूबा' और 'लाल बादशाह' जैसी कई फिल्मों तक चलता रहा।
एक वक्त था, जब मैक मोहन इतने बिजी थे कि दो-दो शिफ्ट में काम करते थे। पर बाद में काम काफी कम हो गया। इस बीच में उन्होंने कुछ सीरियल भी किए, जिनमें 'झरोखा', 'ग्राहक दोस्त', 'कृष्णा अर्जुन' और 'कोई है' शामिल हैं। हाल के और में वे 'उलझन', 'सोच', 'स्टम्प्ड', 'इंसान' और 'जर्नी बॉम्बे टू गोवा' जैसी फिल्मों में नजर आए थे। उनकी आखिरी फिल्म जोया अख्तर की 'लक बाई चांस' थी। उन्हें हालिया रिलीज फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' के लिए साइन किया गया था, पर उन्हीं दिनों उनकी तबीयत खराब हो गई। उन्हें कोकिला बेन अस्पताल ले जाया गया, जहां उनके फेफडे में कैंसर का पता लगा। पिछले एक साल से वे अस्पताल के चक्कर लगाते रहे। 10 मई को थककर उन्होंने अस्पताल में दम तोड दिया।"
(ऊपर के चित्र में-मैकमोहन की बेटी अंतिम संस्कार के समय। बीबीसी डॉट कॉम से साभार)

हरियाणवी सिनेमा को मिला नया जीवन

अस्सी के दशक में निष्क्रिय हो चुके हरियाणवी फिल्म उद्योग को बॉलीवुड के अदाकारों और तकनीक के समर्थन की मदद से कई करोड़ रुपए की परियोजनाएं मिलने के बाद एक नया जीवन मिला है।

वर्ष 1984 में आई हिट फिल्म चंद्रवाल की ही तर्ज पर हरियाणवी फिल्म जगत के लोगों को एक मनोरंजनकर्ता की तलाश है। इस फिल्म जगत के लोग अब मुठभेड़, प्लांड एनकाउंटर जैसी आगामी फिल्म परियोजनाओं के प्रति आशान्वित हैं।

संजय शर्मा की ओर से निर्मित और सूरज भारद्वाज निर्देशित इस फिल्म की शूटिंग हरियाणा के अंदरूनी क्षेत्रों में हुई है। शर्मा ने कहा कि यह फिल्म हरियाणवी सिनेमा के लिये मील का पत्थर साबित होगी। इसमें लड़ाई के दृश्य जाने माने फाइट निर्देशक वीरू देवगन के सहायक टीटू सिंह ने फिल्माये हैं। वह राजनीति और रावण में भी योगदान दे चुके हैं। यह फिल्म इस वर्ष सितंबर तक प्रदर्शित होने की संभावना है। इसमें बॉलीवुड के अदाकार भी नजर आयेंगे। इसमें अजय देवगन अभिनीत कई फिल्मों में काम कर चुके मुकेश तिवारी मुख्य किरदार को अदा करेंगे। वहीं, नाना पाटेकर अभिनीत आंच में काम कर चुकी पूनम भी इस फिल्म में नजर आएगी।

(हिंदुस्तान,चंडीगढ़,23.5.2010)

3डी,4डी और 6डी

पिछले कुछ समय से देश में ३डी का बोलबाला कुछ ज्यादा ही हो रहा है । अब पहले से ज्यादा ३डी फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं । कुछ कंपनियों ने तो ३डी टीवी भी बाजार में उतारे हैं। ३डी लैपटॉप भी बाजार में आ गए हैं और अब तो ३डी विज्ञापन भी बनने शुरू हो गए हैं । विश्व का पहला ३डी विज्ञापन बनाने का कारनामा व्हर्लपूल ने अपने नए ३ डोर फ्रिज के लिए किया है जो जल्द ही बाजार में आने वाला है।

आप अपने घर पर ३डी टीवी पर कोई फिल्म देख रहे हैं । अचानक फिल्म बीच में रुक जाती है और स्क्रीन पर फ्रिज आता है । फ्रिज का दरवाजा खुलता है और बोतल अपने आप खुलकर कोल्ड ड्रिंक आप पर आ गिरता है या फिर सेब आपके पास आने लगता है जिसे पकड़ने की आप कोशिश करते हैं। यह कारनामा है ३डी विज्ञापन का । ३डी का बढ़ता प्रचलन देखते हुए अब ३डी में विज्ञापन बनने भी शुरू हो गए हैं और संभवतः विश्व का पहला ३डी विज्ञापन व्हर्लपूल ने बनाया है जो देश के लगभग १५० ऐसे सिनेमाघरों में दिखाया जाएगा जहां ३डी फिल्मों का प्रसारण होता है ।

पिछले दिनों देश में आईपीएल की बहार थी । आईपीएल के आखिरी मैच यानी सेमीफाइनल और फाइनल के मैच भी ३डी में दिखाए गए । क्रिकेट का मजा ३डी में लेना एक अलग अनुभव था । आप मैच देख रहे हैं और बल्लेबाज का मारा बॉल सीधे आपकी तरफ आ रहा है और आप उसे लपकने की कोशिश करने लगते हैं । मल्टीप्लेक्स में २०० रुपए टिकट देने के लिए सौ बार सोचने वाले मध्य वर्ग के दर्शक ३डी मैच के लिए ३०० रुपए का टिकट खरीदते नजर आ रहे थे। यह सिर्फ ३डी का ही कमाल था । ३डी के प्रति दर्शकों का प्यार पिछले कुछ समय से ज्यादा ही बढ़ गया है ।

जेम्स कैमरून की ३डी फिल्म "अवतार" भारत में प्रदर्शित हुई और इस फिल्म ने अभूतपूर्व व्यवसाय किया । इस फिल्म ने देश में एक बार फिर ३डी फिल्मों का दौर शुरू किया । इसके बाद तो एक के बाद एक ३डी फिल्मों का दौर ही आ गया । "अवतार" के बाद अब तक लगभग दस से बारह ३डी फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं । "अवतार" जैसी मसाला हॉलीवुड फिल्म को जैम्स कैमरून ने जिस आक्रामक मार्केटिंग के साथ बाजार में उतारा उससे हर किसी की नजर ३डी फिल्म पर गई । इस फिल्म के लिए देश के लगभग १०० के आस-पास सिनेमाघरों ने ३डी तकनीकी प्रोजेक्टर लगवाए । इसकी एक वजह यह भी थी कि "अवतार" के बाद कई ३डी फिल्में प्रदर्शित होने के कगार पर थीं । पिछले दिनों प्रदर्शित फिल्म "बाल हनुमान-२" देश की पहली डिजिटल एनिमेशन ३डी फिल्म है । हनुमान की बच्चों में लोकप्रियता और ३डी की मांग को देखते हुए "बाल हनुमान-२" को ३डी में बनाने का फैसला किया गया । यह फिल्म इस समय दर्शकों को अच्छी-खासी आकर्षित कर रही है ।आईपीएल मैचों को सिनेमाघरों में दिखाने की शुरुआत करने वाले वैल्युएबल समूह ने ३डी की लोकप्रियता देखते हुए आईपीएल के आखिरी मैच कुछ सिनेमाघरों में ३डी में दिखाए । ३डी मैचों को दर्शकों का जबर्दस्त समर्थन मिला और अब तो ३डी विज्ञापनों ने भी दस्तक दे दी है । इस बारे में दक्षिण भारतीय फिल्मों के कैमरामैन वी. प्रसाद ने बताया, "पहले की अपेक्षा आज यह तकनीक सस्ती हो गई है । ३डी फॉरमेट में फिल्मांकन करने के लिए विशिष्ट कैमरों की जरूरत होती है । पहले ये कैमरे बहुत महंगे थे लेकिन अब सस्ते हो गए हैं और अब कंप्यूटर की मदद से भी कई तरह के काम किए जा सकते हैं । पहले की अपेक्षा अब ३डी फिल्में दिखाने वाले सिनेमाघरों की संख्या भी बढ़ गई है इसलिए ३डी फिल्मों का प्रचलन जोरों पर है । अपने देश में ३डी फिल्मों की शुरुआत दक्षिण भारत में ही सबसे पहले की गई थी । दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग हमेशा नए प्रयोग करता रहा है । आज ३डी का क्रेज कुछ ज्यादा ही है ।


पहला ३डी विज्ञापन चेन्नई की निर्माता कंपनी टेलीवाइज कंपनी ने बनाया है । कंपनी का कहना है कि आनेवाला समय ३डी विज्ञापन का ही है । ३डी तकनीक से उत्पाद सीधे ग्राहक की आंखों में समा जाता है जिसका असर ग्राहक पर गहरा हो सकता है । हालांकि अभी शुरुआत हुई है लेकिन इस विज्ञापन की जानकारी मिलने के बाद कई कंपनियों ने ३डी में विज्ञापन बनाने के बारे में सोचना शुरू किया है । विज्ञापन बनाने में लगभग ३०-४० लाख रुपए का खर्च आता है लेकिन इस विज्ञापन को बनाने में सिर्फ १८ लाख रुपए खर्च आया क्योंकि तकनीशियनों ने इसे एक ट्रायल के रूप में देखा और अपना मेहनताना नहीं लिया । २०१२ में ज्यादा से ज्यादा ३डी विज्ञापन फिल्में नजर आईं।

३डी में चीजें सिर्फ नजदीक आती हैं लेकिन ४डी और ६डी में तो आपको ऐसा लगेगा जैसे आप खुद उस फिल्म में मौजूद हैं । ४डी में आप सांप द्वारा छोड़ी गई फुफकार को महसूस कर सकते हैं, पानी के फव्वारे का पानी आप पर गिर सकता है और पर्दे पर किसी कलाकार द्वारा लगाए गए सेंट की खुशबू भी महसूस कर सकते हैं । ६डी इससे भी दो कदम आगे है । रोलर कोस्टर वाली फिल्म में तो ६डी में आपको उसमें बैठने और रोलर कोस्टर का मजा लेने का आनंद आएगा । मुंबई में ओरामा नाम से ४डी की शुरुआत की गई थी लेकिन चल नहीं पाई ।


देश में आज से लगभग २५ वर्ष पहले "छोटा चेतन" ने देश में ३डी फिल्मों का दौर शुरु किया था । उस वक्त ३डी अपने आप में एक नया अनोखा कारनामा था जिसके लिए दर्शकों ने इस फिल्म को सिर आंखों पर उठा लिया था। उसके बाद बॉलीवुड फिल्म "शिवा का इंसाफ" ३डी में बनाई गई जो कुछ खास करामात नहीं कर पाई थी । इसके बाद बीच-बीच में ३डी फिल्में आईं लेकिन उन्हें भी ज्यादा लोकप्रियता नहीं मिली ।

अवतार और अन्य 3-डी फिल्मों की सफलता के बाद,महेश भट्ट् ने भी कहा था कि वह जिस्म जैसी फिल्मों को थ्री-डी में बनाना चाहेंगे। बहुत कम लोगों को पता है कि हॉलीवुड में थ्री-डी पोर्न फिल्में भी प्रदर्शित की जाती हैं और उन्हें ज़बर्दस्त सफलता भी मिली है,हालांकि उनकी चर्चा नही होती और अपने देश में ऐसी फिल्में तो प्रदर्शित होना ही नामुमकिन है। रिलायंस बिग पिक्चर्स ने थ्री-डी स्टूडियो की शुरूआत कर थ्री-डी फिल्मों के निर्माण की योजना बनाई है। रजनीकांत और ऐश्वर्या अभिनीत रोबोट भी थ्री-डी में प्रदर्शित करने की योजना बनाए जाने की खबरें आ रही हैं लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है।

वैसे, 4-डी और 6-डी फिल्में भी हैं। थ्री-डी में चीजें सिर्फ नज़दीक नज़र आती हैं मगर 4-डी और 6-डी में तो आपको ऐसा लगेगा जैसे आप खुद उस फिल्म में मौजूद हैं। 4-डी में आप सांप की फुंफकार को महसूस कर सकते हैं,पानी का फव्वारा भी आपको अपने ऊपर गिरता महसूस होगा। पर्दे पर कलाकार द्वारा लगाए गए सेंट की खुशबू भी आप ले पाएंगे। दक्षिण कोरिया में अवतार को 4-डी में कन्वर्ट कर दिखाया जा चुका है। 6-डी इससे भी दो कदम आगे है। रोलर कोस्टर वाली फिल्म में तो आपको उसमें बैठने और रोलर कोस्टर का मज़ा लेने का आनंद आएगा। मुंबई में ओरामा नाम से 4-डी की शुरुआत की गई थी हालांकि चल नहीं पाई(चंद्रकांत शिंदे,संडे नई दुनिया,23 मई,2010)

Thursday, May 20, 2010

बचपन के सीखे से जीवन भर मिलती है मददःकोंकणा

दोस्तो, जिस तरह से आप अपनी स्कूल की छुट्टियों में खूब मजे कर रहे होंगे उसी तरह मुझे भी बचपन में अपनी छुट्टियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। इन दिनों में ही तो तरह-तरह के नए काम करने के आइडिया दिमाग में आते हैं और हमारे अंदर क्रिएटिविटी भी इन्हीं दिनों में आती है। आप सभी इन छुट्टियों में तरह-तरह की चीजें पढ़ना। मुझे कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था और मैं गर्मी की छुट्टियों में नॉवेल और मजेदार कहानियाँ पढ़ती थी।

दोस्तो, मेरा जन्म दिल्ली में हुआ, पर मैं पली-बढ़ी कोलकाता में। हम भाई-बहनों की एक बड़ी गैंग हुआ करती थी जिनमें से कुछ तो बहुत शैतानी करते थे। मेरा नाम शैतानी करने वालों की लिस्ट में ही रहता था। दोपहर में हम अपने परिसर और अपार्टमेंट में खूब खेलते थे और जब भी मौका मिलता था तो चौराहे पर जाकर पुचका और भेलपुरी खाते थे। हमें चौराहे की चीजें खाने से मना किया जाता था, पर चटपटी चीजें खाने का हमारा खूब मन करता था तो हम चोरी-चुपके खाते थे।

मेरी स्कूल की पढ़ाई मॉडर्न हाईस्कूल कोलकाता से हुई। मेरी बहन जो मुझसे १० साल बड़ी थी उसकी पढ़ाई भी इसी स्कूल से हुई थी। यहाँ मैंने आठवीं तक की पढ़ाई की और इसके बाद कीदोस्तो, मेरा जन्म दिल्ली में हुआ, पर मैं पली-बढ़ी कोलकाता में। हम भाई-बहनों की एक बड़ी गैंग हुआ करती थी जिनमें से कुछ तो बहुत शैतानी करते थे। मेरा नाम शैतानी करने वालों की लिस्ट में ही रहता था। दोपहर में हम अपने परिसर और अपार्टमेंट में खूब खेलते थे और जब भी मौका मिलता था तो चौराहे पर जाकर पुचका और भेलपुरी खाते थे। हमें चौराहे की चीजें खाने से मना किया जाता था, पर चटपटी चीजें खाने का हमारा खूब मन करता था तो हम चोरी-चुपके खाते थे।

मेरी स्कूल की पढ़ाई मॉडर्न हाईस्कूल कोलकाता से हुई। मेरी बहन जो मुझसे १० साल बड़ी थी उसकी पढ़ाई भी इसी स्कूल से हुई थी। यहाँ मैंने आठवीं तक की पढ़ाई की और इसके बाद की पढ़ाई कलकत्ता इंटरनेशनल स्कूल से पूरी की। स्कूल में मेरे खूब दोस्त हुआ करते थे। इन दोस्तों के साथ स्कूल में पढ़ाई, खेलकूद और मस्ती की बहुत सारी घटनाएँ आज भी याद आती हैं। मुझे छुट्टियाँ खत्म होने के बाद फिर से स्कूल जाना बहुत अखरता था। मैं हमेशा यह सोचती थी कि ये छुट्टियाँ जल्दी क्यों खत्म हो जाती हैं। आपकी छुट्टियाँ भी खत्म हो रही होंगी तो जल्दी-जल्दी आराम या कोई नया काम कर लो। वरना एक बार छुट्टियाँ खत्म तो समझो कि पढ़ाई और स्कूल शुरू।

वैसे दोस्तो, मेरे दूसरे स्कूल कलकत्ता इंटरनेशनल में पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियाँ बहुत होती थीं। वहीं मैंने ब्रिटिश काउंसिल ड्रामा कॉम्पीटिशन में भाग लिया था। यहाँ एक्ंिटग की वर्कशॉप भी होती थी जिनमें मैं भाग लेती थी। एक खास बात जो मैं आपसे कहना चाहती हूँ वह यह कि मुझे बहुत-सी चीजें सिखाने में मम्मी बहुत रुचि लेती थीं। मम्मी ने मुझे नाटक और कविता के बारे में बताया। उनसे बातें करके मुझे बहुत-सी नई जानकारियाँ मिलती थीं। वे मुझे कथक और रवीन्द्र संगीत सीखने के लिए अलग से क्लासेस में भी भेजती थी। मैं मम्मी को स्टेज पर अभिनय करते हुए देखती थी और उनसे सीखती भी थी। एक बार मैं उनके साथ मॉस्को फिल्म फेस्टिवल भी गई थी। इस समय मेरी उम्र सिर्फ १० साल की थी।

दोस्तो, मुझे बाबा से भी बहुत प्यार है। मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो देखती थी कि बाबा को जानवरों से बहुत लगाव हैं। उन्हें जानवर पालने का बहुत शौक था। उन्होंने एक कछुआ भी पाला था जिसका नाम हमने कालिदास रखा था। जब भी कभी घर में लाइट चली जाती थी तो कालिदास के ऊपर हम एक मोमबत्ती लगा देते थे। जब वह चलता तो मोमबत्ती भी इधर से उधर चलती थी। यह देखकर हमें खूब मज़ा आता था। वैसे,हम इस बात का पूरा ध्यान भी रखते थे कि हमारी वजह से किसी भी जानवर को कोई नुकसान न उठाना पड़े। बाबा ने हमें यह बात सिखाई थी कि जानवरों का ख्याल रखोगे तो वे भी तुम्हें प्यार करेंगे।

प्यारे दोस्तो,मुझे पता नहीं था कि पढाई के अलावा सीखी गई दूसरी चीजें आगे चलकर कितना काम आएंगी। अभिनेत्री बनने के बाद मैं पाती हूं कि बचपन के दिनों में हम जो कुछ भी सीखते हैं,उससे हमें पूरे जीवन में बहुत मदद मिलती है। इसलिए इन दिनों आपकी रूचि जिस किसी भी विषय में है,उस पर ज़रूर मेहनत करना। मेरी शुभकामना आपके साथ है( स्पेक्ट्रम,नई दुनिया,मई प्रथम अंक से)

देश में उपेक्षित रवि का सम्मान हुआ परदेस में

हिंदी फिल्म संगीत का सुनहरा दौर एक अर्से पहले बीत चुका है, पर उसका जादू आज भी बरकरार है। पचास और साठ के दशक के गीत-संगीत ने जिस तरह लोगों के दिलों पर राज किया और दुनियाभर में इसकी धूम मची, उसकी मिसाल आज भी देखने-सुनने को मिल जाती है। ऎसी ही एक मिसाल पिछले दिनों पडोसी देश में देखने को मिली। हिंदी सिनेमा के गुणी और वरिष्ठ संगीतकार रवि को उनके 84वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में श्रीलंका की सरकार और आम जनता ने जो इज्जत और सम्मान दिया है, वह बिरले ही लोगों को नसीब होता है। रवि श्रीलंका में सम्मानित होने वाली पहली भारतीय हस्ती हैं। हिंदी सिनेमा में उनके विशिष्ट योगदान के लिए इस राजकीय सम्मान का आयोजन राजधानी कोलंबो में श्रीलंका के संस्कृति मंत्रालय और ओल्ड हिंदी फिल्म सॉन्ग्स लवर्स सोसाइटी ने मिलकर किया था। श्रीलंका के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों के साथ वहां के आम लोगों ने बडी तादाद में रवि के सम्मान में शिरकत की। वहां के जन समुदाय में रवि और उनका गीत-संगीत किस कदर लोकप्रिय है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके ज्यादातर गीतों को उन्हीं धुनों पर सिंहली भाषा में डब कर दिया गया है।
श्रीलंका में दस दिनों के प्रवास के दौरान रवि के मान-सम्मान में वहां की सरकार और जनता ने पलकें बिछा दी और किसी चेहेते राजा-महाराजा की तरह आदर-सत्कार दिया। सात मार्च को आयोजित किए गए विशेष सम्मान समारोह और अलग-अलग दिन आयोजित किए गए तमाम दूसरे कार्यक्रमों में श्रीलंका के कलाकारों ने रवि के संगीत से सजे गीतों को हिंदी भाषा और लगभग हर गीत में अपनी सिंहली भाषा में जिस तरह एक अंतरा जोडकर पेश किया, वह अद्भुत प्रयोग था। 'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं....', 'चौदहवीं का चांद हो....', 'बाबुल की दुआएं लेती जा...', 'ऎ मेरी जोहराजबीं...', 'वफा जिनसे की बेवफा हो गए...', 'नीले गगन के तले....' जैसे ढेर सारे यादगार गीतों को जिस खूबसूरती से पेश किया गया, वह लाजवाब था। हिंदी फिल्म संगीत को हिंदुस्तान ही नहीं, दुनियाभर में पॉपुलर बनाने में रेडियो सीलोन का सबसे ज्यादा योगदान रहा है। इस रेडियो चैनल के मौजूदा उद्घोष्ाक और स्टाफ ने भी रवि का स्वागत किया और उन्हें अपना स्टूडियो और विशिष्ट संगीत लाइब्रेरी का अवलोकन करवाया।
लता मंगेशकर, मुहम्मद रफी, मुकेश, मन्ना डे, महेंद्र कपूर और आशा भोसले के गाए वे तमाम गीत आज भी जिस तरह से लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए हुए है, वह दरअसल उन गीतों की सुरीली धुनों का ही परिणाम है, जिन्हें रवि और उन जैसे महान संगीतकारों ने सजाया और संवारा है। वक्त चाहे कितनी भी करवटें ले ले, संगीत के कितने ही दौर आते-जाते रहे, पीढियां बदलती जाएं, पर हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम काल का गीत-संगीत हमेशा कालजयी रहेगा। रवि जैसे प्रतिभाशाली और गुणी संगीतकार का सिने संगीत में जो यादगार योगदान रहा है, हमारी सरकार को उसी के मुताबिक पद्मभूषण, पद्मविभूषण या फालके अवार्ड से उन्हें सम्मानित करने में देरी नहीं करनी चाहिए। दूसरे देशों में जब हमारे संगीत के सितारे इस कदर पूजे जाते हों, तब अपने ही देश में उन्हें यथोचित राष्ट्रीय अलंकरण से अलग रखना ठीक नहीं है(राजीव श्रीवास्तव,राजस्थान पत्रिका,17 अप्रैल,2010)

प्रतिभा और प्रचार-तंत्र

गीतकार जावेद अख्तर इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद द्वारा मुस्लिम महिलाओं के पुरुषों के साथ काम करने के खिलाफ दिये गये फतवे की आलोचना करने के बाद से कट्टरपंथियों की धमकियों का सामना कर रहे हैं। शिवसेना ने मुखपत्र 'सामना' में जावेद अख्तर और कभी पटकथा लेखन में उनके भागीदार रहे सलीम की जमकर तारीफ की है। संपादकीय में कहा गया है, 'सलीम और जावेद, दोनों ने मुसलमानों में कट्टरपन के खिलाफ हमेशा आवाज उठाई है...जावेद को फतवे के खिलाफ टिप्पणी करने और इसे जारी करने वालों को मूर्ख तथा 'उन्मादी' कहने के लिये धमकियां मिली हैं। लेकिन वह ऐसे नहीं हैं जो इन धमकियों से डर जाएं।' जावेद और सलीम, दोनों ने 1970 और 80 के दशक में कई सफल फिल्में एक साथ लिखी थीं। इन दोनों के सफर पर 19 मई के दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे ने भी विचार किया हैः
"जावेद अख्तर का कहना है कि हिंदू और मुसलमान अतिवादी संगठन उन्हें धमकी दे रहे हैं। सलीम खान को भी इस तरह की धमकियां मिलती रही हैं। उन्होंने दैनिक भास्कर में लिखे अपने दर्जनों लेखों में से आधे में आतंकवादियों की कटु आलोचना की है। अतिवादी संगठनों से सहानुभूति रखने वाले कुछ लोगों ने उनके खिलाफ मोर्चा निकाला है और उनके पुतले जलाए हैं। खरगौन के एक पुराने पहचान वाले ने उनसे आर्थिक मदद प्राप्त करने के बाद धन लौटाने की बात की, क्योंकि गणपति उत्सव मनाने वाले मुसलमान की मदद उन्हें स्वीकार नहीं थी। यह अलग बात है कि धन कभी लौटाया नहीं गया।

सलीम और जावेद में एक समानता यह है कि दोनों ही सच्चे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति हैं और उन्होंने फिरकापरस्तों की जमकर आलोचना की है। दोनों ही जहीन और पढ़े-लिखे आधुनिक व्यक्ति हैं। उनके विचारों में कुछ और समानताएं भी होंगी, जिस कारण इतने वर्ष तक लेखकीय साझेदारी जारी रही। उनमें विवाद भी हुए होंगे, क्यांेकि कोई दो व्यक्ति सभी मुद्दों पर एकमत नहीं हो सकते। अपने अलगाव के कारणों पर दोनों ने हमेशा गरिमामय खामोशी बनाए रखी है। सलीम साहब ने जावेद के बेटे फरहान अख्तर को ‘रॉक ऑन’ फिल्म में शानदार अभिनय के लिए अपनी जीती हुई फिल्मफेयर ट्रॉफी भी दे दी।

बहरहाल जावेद अख्तर सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय हैं और अनेक क्षेत्रों में भागीदारी करते हैं। मीडिया के साथ उनके मधुर संबंध हमेशा रहे हैं और वे सुर्खियों में बने रहने की कला में माहिर हैं। उनके इरादे नेक हैं और प्रभाव क्षेत्र व्यापक है। उन्होंने कॉपीराइट एक्ट के संशोधन में सशक्त भूमिका निभाई है। यह बात अलग है कि इसके लागू होते ही उद्योग को भारी हानि होगी।

बहरहाल जावेद अख्तर जितने मुखर और उजागर हैं, सलीम खान उतने ही मितभाषी और खामोश हैं। विगत दो दशकों में वे दर्जन भर जीवनपर्यन्त सेवा के कई फिल्म पुरस्कार निमंत्रण अस्वीकृत कर चुके हैं। जावेद अख्तर बाजार युग की नब्ज को जानते हंै और प्रचार तंत्र की भीतरी कार्यशैली से भी वाकिफ हैं। शायद उनका यकीन है कि स्वाभाविक प्रतिभा का भरपूर बाजार दोहन करने के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा के लघुतम अंश को भी जाया नहीं किया है। निदा फाजली के पास गजब की प्रतिभा है, परंतु वे किसी से मिलते-जुलते नहीं हैं और उन्हें प्रतिभा के दोहन में रुचि नहीं है।

जावेद अख्तर से भिन्न सलीम खान सरेआम उजागर होने में यकीन नहीं करते। अतिवादी संगठनों से दोनों को धमकियां मिलती रही हैं, परंतु दोनों ने अपने-अपने ढंग से उसे लिया है। चिंतनीय बात यह है कि फिरकापरस्ती के खिलाफ बोलना भारत में निरापद नहीं है। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार इत्यादि मामलों पर भी विचार अभिव्यक्त करते ही डर की ताकतें सजग हो जाती हैं।

आज नेता भी तथाकथित वोट बैंक के कारण सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देने वाले संगठनों के साथ मिले हुए हैं। आज के युग में सफलता एक मंत्र है जिसे सब लोग नहीं साध पाते, परंतु अफसोस तो यह है कि प्रतिभा भी मंत्र की गुलाम है। आज ब्रांड वैल्यू विकसित करने के लिए बहुत से काम करने पड़ते हैं, जिनमें ऊर्जा का अपव्यय होता है। बहरहाल शायर होते हुए भी जावेद अख्तर बहुत दुनियादार हैं और सलीम खान शायर नहीं हैं, परंतु जीवन को शायरी की तरह अच्छे से साधते हैं।"

Tuesday, May 18, 2010

छत्तीसगढ़ी फिल्मों में गीतों का स्वरूप



(चौपाल,हरिभूमि,6 मई,2010)

गोल्डन गेट में महाकाल

उज्जैन के महाकाल पर बने वृत्तचित्र लिविंग गॉड को अमरीका के गोल्डन गेट फिक्शन एंड डाक्यूमेंट्री फिल्मोत्सव के लिए चुना गया है। फिल्म का चयन ऑफिशियल सेक्शन के लिए हुआ है। भोपाल की नवोदित निर्माता आरती द्विवेदी की इस फिल्म का मूल कथ्य यह है कि महाकालेश्वर ही समय और मृत्यु के मालिक हैं। फिल्म बताती है कि महाकालेश्वर ही सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक के शाश्वत राजा हैं। वस्तुतः,देश भर में तो महाकालेश्वर के प्रति आस्था है ही,माना जाता है कि खासकर उज्जैन और इसके आसपास के लोग महाकाल की इच्छा के अनुसार ही जीवन जीते हैं। सुश्री आरती द्विवेदी आध्यात्मिक और साहित्यिक रुझान रखने वाली महिला हैं और उन्हें भारतीय परम्पराओं की गहरी समझ है। उन्होंने अपनी विज्ञप्ति में कहा है कि फिल्म का निर्माण व्यापक शोध और कठिन परिश्रम से ही संभव हुआ है।

काइट्स और रावण-दोनों होंगी हिट

करण जौहर ने काइटस को "शानदार" कहा है। जिसने भी इस फिल्म का प्रीमियर देखा है,तारीफ की है। दर्शकों को भी इस फिल्म से बड़ी उम्मीदें हैं। सबसे ज्यादा विश्वास है स्वयं राकेश रोशन को जो इसे दो हजार से ज्यादा प्रिंट के साथ दुनिया भर में रिलीज कर रहे हैं। आज के नई दुनिया में चंद्रकांत शिंदे बता रहे हैं कि यह एक रिकार्ड हैः
"राकेश रोशन द्वारा निर्मित और उनके बेटे रितिक रोशन और विदेशी अभिनेत्री बारबरा मोरी द्वारा अभिनीत फिल्म काइट्स शुक्रवार २१ मई को पूरे विश्व में लगभग २३०० सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने वाली है। देश के १८०० और विदेश के ५०० सिनेमाघरों में यह फिल्म रिलीज होगी। इतने भव्य स्तर पर प्रदर्शित होने वाली यह पहली हिंदी फिल्म है। असफलता में डूबे फिल्म उद्योग को इस फिल्म से काफी उम्मीदें हैं। इस साल अभी तक एक भी फिल्म सुपरहिट साबित नहीं हुई है।
रिलायंस बिग पिक्चर्स के सीईओ संजीव लांबा ने बताया कि पहले चरण में यह फिल्म भारत, अमरिका, लंदन, खा़ड़ी देश, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका के साथ ३० देशों में प्रदर्शित होगी । दूसरे चरण में काइट्स अन्य ३० देशों में प्रदर्शित की जाएगी। फिल्म के प्रमोशन के लिए इसके निर्माता राकेश रोशन, निर्देशक अनुराग बसु और नायक-नायिका रितिक रोशन और बारबरा लंदन और न्यूयार्क जाएंगे। बारबरा और अंग्रेजी में काइट्स के निर्देशक ब्रैड रटनर मियामी और लॉस एंजिलिस में फिल्म का प्रमोशन करेंगे। उन्होंने बताया कि फिल्म की कहानी अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को भी आकर्षित करने वाली है । इसलिए हमने इस फिल्म को विदेश में भी भव्य तरीके से प्रदर्शित करने की योजना बनाई है। फिल्म के प्रति हमें पूरा भरोसा है और यह भारतीय फिल्म इतिहास में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म साबित होगी। बॉलीवुड के सूत्रों के मुताबिक फिल्म की लागत पहले तीन दिन में ही वसूल हो जाएगी क्योंकि एक साथ इतने सिनेमाघरों में पहले तीन दिन में ही यह फिल्म करो़ड़ों का व्यवसाय कर सकती है। लगभग हर मल्टीप्लेक्स में काइट्स के १० से १५ शो दिखाए जाने वाले हैं। इस फिल्म के लिए टिकटों के दाम भी ब़ढ़ाए गए हैं। हालांकि मल्टीप्लेक्स में बुधवार से एडवांस बुकिंग शुरू हो जाती है लेकिन काइट्स के लिए सोमवार से ही एडवांस बुकिंग शुरू हो गई। पहले ही दिन फिल्म के तीनों दिनों के शो हाऊसफुल हो गए हैं।
काइट्स से पहले माई नेम इज खान, गजनी और सिंह इज किंग आदि फिल्में एक हजार से १५०० प्रिंट के साथ प्रदर्शित की गई थीं । पहली बार किसी हिंदी फिल्म ने दो हजार प्रिंट का आंक़ड़ा पार किया है। बॉलीवुड का मानना है कि काइट्स अब तक के हिंदी फिल्मों की कमाई का रिकार्ड तो़ड़ देगी।"
इस फिल्म के कारोबार को लेकर ज्योतिषियों में भी खासा उत्साह है। काइट्स के साथ ही रिलीज हो रही मणिरत्नम की रावण के कारोबार को लेकर ज्योतिषी कयास लगा रहे हैं। 16 मई के हिंदुस्तान में समीर उपाध्याय ग्रह-गोचरों की तुलना कर बता रहे हैं कि दोनों में से कौन सी फिल्म बेहतर बिजनेस करेगी और क्यों-

Monday, May 17, 2010

दिल्ली में चीनी फिल्मोत्सव

आज ने नई दिल्ली में चीनी फिल्मों का पाँच दिन का समारोह शुरू हो रहा है। समारोह का उद्घाटन कल ही हुआ मगर फिल्मों का प्रदर्शन आज से होना है। चीनी दूतावास के सौजन्य से आयोजित इस समारोह में आज से 22 मई तक कुल आठ फिल्में दिखाई जाएंगी। इस क्रम में आज पहले दिन, शाम सात बजे लुकिंग फॉर जैकी दिखाई जा रही है। अन्य फिल्मों के प्रदर्शन समय के लिए कृपया विज्ञापन पर क्लिक करें। और हां, समारोह के लिए प्रवेश गेट नम्बर चार से तथा निःशुल्क है।

Wednesday, May 12, 2010

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का दायरा बढ़ेगा

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का दायरा ब़ढ़ाने की तैयारी चल रही है। दरअसल, केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को मंगलवार को सौंपी गई पुरस्कारों पर गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि अब पुरस्कारों के चयन की ज्यूरी दोस्तरीय होनी चाहिए। यानी एक केंद्रीय और दूसरी क्षेत्रीय। वहीं पुरस्कारों की संख्या में इजाफा करते हुए कुछ नए पुरस्कारों को भी शामिल करने की सिफारिश की गई है। कई पुरस्कारों की राशि भी ब़ढ़ाने के लिए कहा गया है। सूचना और प्रसारण मंत्री ने इन सिफारिशों को प्रक्रिया में लाने की बात कही है।

फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में गठित समिति ने अंबिका सोनी को रिपोर्ट सौंपी। इस मौके पर अंबिका ने कमेटी के काम की तारीफ करते हुए कहा कि उसने कम समय में ही उन्हें यह रिपोर्ट सौंप दी। कमेटी ने दो स्तरीय ज्यूरी होने की सिफारिश में कहा है कि एक केंद्रीय और पांच क्षेत्रीय ज्यूरी होनी चाहिए, जो कि क्षेत्रीय भाषाओं का काम देखे। कमेटी ने फीचर फिल्म श्रेणी में पुरस्कारों की संख्या ३१ से ३४ करने की सिफारिश की है। यह संख्या पुरस्कारों ऑडियोग्राफी, संगीत, श्रेष्ठ स्क्रीन प्ले और संवाद श्रेणियों में ब़ढ़ाने की सिफारिश है। वहीं फीचर फिल्मों के विशेष ज्यूरी पुरस्कारों की राशि १,२५,००० रुपए से ब़ढ़ाकर दो लाख करने की सिफारिश की गई है। वहीं गैर फीचर फिल्मों की श्रेणी को दो भागों में बांटते हुए श्रेष्ठ शैक्षिक फिल्म और पर्यावरण पर श्रेष्ठ फिल्म की श्रेणियों में बांटने की बात है। श्रेष्ठ गैर फीचर फिल्मों की पुरस्कार राशि भी एक लाख से ब़ढ़ाकर दो लाख करने की सिफारिश की गई है। कमेटी में बेनेगल के अलावा साई प्रांजपे, अशोक विश्वनाथन, राजीव मेहरोत्रा, शर्मिला टैगोर, विशाल भारद्वाज, नागेश कुकनुर, मोहन अगासे, वहीदा रहमान, जाहनू बरुआ और शाहजी करुण जैसे नामचीन कलाकार शामिल थे।
(नई दुनिया,दिल्ली,12 मई,2010)

नाकामी से बड़ा गुरू नहीं-महेश भट्ट

कुमार गौरव और राहुल राय के साथ क्या हुआ। दोनों की ही पहली फिल्में सुपरहिट रहीं। इसके बाद अचानक वे कहां गुम हो गए, किसी ने नहीं सुना। कई बार असफलता सफलता के मुखौटे में आपके दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है। अगर ऐसा नहीं होगा तो कौन असफलता के लिए अपना दरवाजा खोलेगा। सफलताओं की जमीन पर रचे-बसे समाज में असफलता को घृणा के नजरिये से देखा जाता है। हालांकि, ऐसे समाज में असफलता की चुनौती कुछ ज्यादा ही सामने आती है। सफलता अपने साथ किसी की असफलता पर मजाक उड़ाने की प्रवृति भी लेकर आती है। एक बार बिल गेट्स ने कहा था कि सफलता बहुत ही खराब गुरु है। यह ज्यादातर बुद्धिमान लोगों में इस भावना को बढ़ावा देती है कि वे कभी असफल नहीं हो सकते। अगर आप इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहते तो सफलता के शिखर पर झंडे गाड़ने वाले आईपीएल के पूर्व आयुक्त ललित मोदी के बारे में ध्यान से सोचें। मोदी ने आईपीएल से देश ही नहीं विश्वभर में अपना परचम लहराया। खेल के क्षेत्र में वह सूर्य की तरह चमक रहे थे। अंत में मोदी को भी नुकसान उठाना ही पड़ा। 19वीं सदी के आखिर में भारतीय जनता पार्टी शक्ति और सत्ता के किले पर पहुंच गई थी। पार्टी और उसके समर्थकों को भरोसा हो चला था कि अब उसे कोई भी इस किले से बेदखल नहीं कर सकता। आज यही राजनीतिक पार्टी ऐसे धरातल की तलाश में संघर्ष कर रही है जहां से वह सफलता के दूसरे दौर के लिए उड़ान भर सके। कई पार्टियों का मिलाजुला संस्करण यूपीए शायद एनडीए के हालात से सबक नहीं ले रहा है। अगर यूपीए एनडीए की स्थिति से कुछ नहीं सीख पाया तो निश्चित तौर पर उसका भविष्य भी अच्छा नहीं होगा। सेना की एक पुरानी कहावत है कि सबसे कमजोर पहलू सफलता का पीछा करता रहता है। युद्ध के दौरान हारने की भावना पर काबू पाना खासा मुश्किल होता है। ऐसे में गहरी सांस लें और खुद को संयमित कर अगली पहाड़ी के युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाएं। फिल्मी दुनिया के मेरे अनुभव के मुताबिक यह असफलता ही है जो बड़ी सफलता के लिए नींव का पत्थर साबित होती है। यश चोपड़ा ने कहा था कि मेरी सल्तनत असफलताओं से मिली हुई सीखों के ऊपर खड़ी है। मैंने अपनी हर नाकामी से कुछ सीखा और आगे बढ़ा। जब मैं दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे बना रहा था तो फाइनेंसर मुझसे दूर भाग रहे थे। जब मैं सफल था तो उन्होंने मुझे जोशीले जैसी फ्लाप फिल्म बनाने के लिए भी पैसे दे दिए थे। फिल्म व्यवसाय के बारे में मेरी समझ कहती है कि हिट से कहीं ज्यादा उम्मीद असफलता की रहती है। आमिर खान के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। आज की तारीख में निश्चित तौर पर वह बहुत बड़ा स्टार है। आमिर खान की पहली फिल्म कयामत से कयामत तक बड़ी हिट रही थी। इसके बाद उसकी लगातार नौ फिल्में फ्लाप हुई। इन फ्लाप फिल्मों ने उसे सिखाया कि किसी फिल्म को हिट बनाने में बड़े नामों के बजाए अच्छी स्कि्रप्ट का हाथ होता है। यही पाठ उसने आज तक नहीं छोड़ा है और सबसे सफल अभिनेताओं में शुमार है। तो क्या हमें सफलता से बेहतर कुछ नहीं है जैसी कहावतों को बदलकर असफलता से बेहतर कुछ नहीं है कर देना चाहिए। इस पर मेरा सीधा और सपाट जवाब है- नहीं। मैं कहूंगा कामयाबी और नाकामी को एक ही भाव से स्वीकार करना चाहिए। अच्छे नेता असफलता के मकड़जाल में उलझकर नहीं रह जाते और न ही कामयाबी पर अति उत्साहित होते हैं। वे अपनी टीम को हर तरफ से और हर समय घेरने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए हमेशा तैयार करते रहते हैं। मेरा मानना है कि सफलता चौकन्ना और जागरूक रहने से मिलती है। साथ ही जरूरी है कि दूसरों के साथ सामंजस्य बनाते हुए दुनिया की कठोर सच्चाइयों को भी स्वीकार किया जाए। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चित ही हम सफल होंगे। पूरी दुनिया में सच से बेहतर शिक्षक कोई नहीं है। नाकामी की सच्चाई को गले लगाएं। इसी में जीवन का सबसे बड़ा खजाना छुपा है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, मेरे पास अपनी नाकामयाबी लेकर आओ। सफलता के बजाए असफलता को अपना गुरु बनाओ। नाकामी से बड़ा कोई गुरु नहीं है। (दैनिक जागरण,दिल्ली,12.5.2010 से साभार))

Monday, May 10, 2010

फ़िल्म पहेली-2

पेश है फिल्म वर्ग पहेली श्रृंखला की दूसरी कड़ी। इसे खेलें। आसान है और प्रायः नई फिल्मी खबरों पर ही आधारित है। सही उत्तर भेजने वालों के नाम व अन्य संगत ब्यौरे प्रकाशित किए जाएंगे।

ऊपर से नीचे


1. सरकार ने जिन फिल्मों के प्रिंट को नया जीवन देने का निश्चय किया है,उनमें एक यह है।
3. इस फिल्म में ऐश्वर्या के साथ जाएद खान भी थे।
5. यशराज बैनर की इस फिल्म में प्रीतम का म्यूजिक है।
6. यह अभिनेत्री अब कैंसर से मुक्त हो गई है।
7. संजय दत्त और कँगना रानाउत की अगली फिल्म।
9. इस अभिनेत्री को हमने पिछली बार गोलमाल रिटर्न्स और कमब्ख्त इश्क में देखा।
10. शम्मी कपूर के बेटे की पहली फिल्म।
14. बदमाश कंपनी में कितने गाने हैं?


बायें से दायें

2. पिछले दिनों,सुप्रीम कोर्ट ने इस अभिनेत्री को विवादास्पद बयान संबंधी 22 मामलों में बरी कर दिया।
4. सिटी ऑफ गोल्ड के संगीतकार।
6. अमिताभ ने हाल में अपने ब्लॉग परएकिस अंग में हुए रोग का खुलासा किया है?
8. सिटी ऑफ गोल्ड का एक अभिनेता।
11. किस भोजपुरी फिल्म में सिंक साउंड का इस्तेमाल किया जा रहा है।
12. हाउसफुल में कितनी मशहूर अभिनेत्रियां हैं ?
13. अपार्टमेंट में कितने गाने हैं ?