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Tuesday, December 28, 2010

अदनान की लिफ्ट ग्राउंड पर,आठ फ्लैट जब्त

बालीवुड फिल्मों में अपनी गायकी का लोहा मनवाने वाले पाकिस्तानी गायक अदनान सामी पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की गाज गिर गई है। ईडी ने सामी के आठ फ्लैट और कार पार्किंग के लिए नियत पांच स्थानों को अपने कब्जे में ले लिया है। इसके अलावा निदेशालय ने एक बहुमंजिला इमारत में भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति लिए बिना इन फ्लैटों की खरीद के लिए सामी पर 20 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। निदेशालय के सूत्रों ने बताया कि उपनगरीय अंधेरी के आलीशान लोखंडवाला परिसर में ओबेराय स्काई गार्डन हाऊसिंग सोसाइटी में इन आठ फ्लैटों को अदनान ने 2003 में 2.53 करोड़ रुपये में खरीदा था। यह विदेशी विनिमय प्रबंध (भारत में अचल संपत्ति की खरीद और हस्तांतरण) अधिनियम यानी फेमा का सीधा-सीधा उल्लंघन है क्योंकि वह पाकिस्तानी नागरिक हैं। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, चीन, ईरान, नेपाल या भूटान का नागरिक है। वह रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना भारत में अचल संपत्ति की न तो खरीद कर सकता है और न ही उसका किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरण कर सकता है। ईडी ने फेमा न्यायिक प्राधिकरण के एक आदेश के बाद इन संपत्तियों को अपने कब्जे में ले लिया। अदनान ने 2008 में इनमें से पांच फ्लैट और तीन पार्किंग स्थलों को अपनी पत्नी सबा गलादरी को उपहार में दे दिया था। सबा संयुक्त अरब अमीरात की नागरिक है। गायक की ये सारी हरकतें फेमा के प्रावधानों का सीधा उल्लंघन था। लिहाजा ईडी ने यह कार्रवाई की। सबसे पहले नोटिस जारी कर पूछा कि क्यों न फ्लैट और पार्किंग स्थलों को जब्त कर लिया जाएगा। इस वर्ष के शुरू में उन्हें पूछताछ के लिए भी प्रवर्तन निदेशालय मुख्यालय बुलाया गया था। ईडी का कहना है कि अदनान ने संपत्तियों को खरीदने के लिए रिजर्व बैंक से अनुमति नहीं ली थी। अचल संपत्तियों पर कब्जा लेने के बाद जब अदनान सामी ने अनुमति मांगी तो रिजर्व बैंक ने उनकी अर्जी को ठुकरा दिया। रिजर्व की ओर से कहा गया कि अचल संपत्तियों को खरीदने के लिए लोन हासिल करते वक्त अदनान ने कर्ज देने वाले बैंक से यह कह कर गुमराह किया कि वह भारत का नागरिक है। इसके बाद मामला फेमा न्यायिक प्राधिकरण पहुंचा। प्राधिकरण में सामी ने कहा कि उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन किया है। दस वर्षो से आयकर भी चुका रहे हैं। उनकी मां जम्मू से थीं और भारत में उनकी जड़े हैं। जब्ती कार्रवाई पर उनके वकील विभव कृष्ण ने कहा कि इसके खिलाफ दो दिन में अपील दायर करेंगे(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,28.12.2010)।

Monday, December 27, 2010

कॉपीराइट कानून में संशोधनों के खिलाफ एकजुट हुए निर्माता

दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश के सारे फिल्म निर्माता ६ जनवरी को देशव्यापी हड़ताल करने जा रहे हैं। ये हड़ताल केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा कॉपी राइट कानून में प्रस्तावित संशोधनों के विरोध में की जा रही है। फिल्म निर्माताओं का कहना है केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल अपने कुछ दोस्तों के बहकावे में आ चुके हैं और फिल्म जगत की वस्तुस्थिति जानने के लिए उनका मंत्रालय कोई कोशिश नहीं कर रहा।

कॉपीराइट कानून में प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक अब लेखकों और गीतकारों को फिल्म की रॉयल्टी में हिस्सा मिलेगा और किसी भी तरह के अनुबंध के द्वारा इस हक़ को खत्म नहीं किया जा सकेगा। फिल्म उद्योग में अभी तक ऐसी शर्त गायिका लता मंगेशकर और संगीतकार ए आर रहमान जैसे लोग ही अपवाद स्वरूप फिल्म साइन करते समय रखते रहे हैं, लेकिन कानून में संशोधन के बाद यह हक हर लेखक और गीतकार को मिल जाएगा। फिल्म निर्माता इसे फिल्म उद्योग के खिलाफ एक बड़ी साजिश बता रहे हैं और उनका कहना है कि लेखक या गीतकार सिर्फ लेखन का काम करता है, उसके बाद तमाम सारे तकनीशियन मिलकर उसे जीवंत करने की कोशिश करते हैं, ऐसे में रायल्टी पर आने वाले दिनों में कपड़े बनाने वालों से लेकर सेट बनाने वाले और सिनेमैटोग्राफर तक सभी रॉयल्टी मांगना शुरू कर देंगे क्योंकि कोई कहानी या गीत लिख देने भर से ही न तो फिल्म बन जाती है और न ही वो गाना परदे पर जीवंत हो सकता है।

इस बीच फिल्म निर्देशकों की संस्था ने भी लेखकों और गीतकारों की देखादेखी रॉयल्टी में हिस्सा मांगने की मुहिम शुरू कर रखी है। दो दिन पहले हिंदी फिल्में और धारावाहिक बनाने वाले निर्देशकों की इस बारे में मुंबई में बैठक भी हुई।

मामला संगीन होते देख फिल्म निर्माताओं की मातृ संस्था फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ने अब ये मामला अपने हाथ में ले लिया है। उधर, कॉपी राइट कानून में संशोधनों के लिए सबसे ज्यादा कोशिश करते रहे सांसद और गीतकार जावेद अख्तर का उनकी इन कथित फिल्मी उद्योग विरोधी कोशिशों के जलते फिल्म फेडरेशन ने अनिश्चितकालीन बहिष्कार कर दिया है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,27.12.2010)।

Friday, December 24, 2010

सिनेमा में आशा और करुणाःहर्ष मंदर

सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं।

कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है कि सिनेमा की कौन-सी बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। इस माह जब मैं गोआ के फिल्म समारोह में गया, तो यही सवाल मैंने खुद से पूछा। हर साल मैं सभी काम छोड़कर गोआ चला जाता हूं, ताकि वहां होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दुनिया की बेहतरीन फिल्में देख सकूं। इस साल काम के दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मैं शुरुआत से इस समारोह में शामिल नहीं हो सका। फिर भी मैंने तीन दिन का समय निकाल ही लिया।

समारोह में फिल्में देखते समय मुझे महसूस हुआ कि सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं। गोआ में इस बार अनेक फिल्में इस विषय पर केंद्रित थीं कि मनुष्य की जिंदगी पर संघर्षो का क्या प्रभाव पड़ता है। दुख, संताप और विघटन से त्रस्त वर्तमान समय में यह आश्चर्यजनक भी नहीं है। समारोह में जिस एक फिल्म ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी चीनी निर्देशक वांग कुआनान की अपार्ट टुगेदर । एक रिटायर्ड सैनिक ५क् साल बाद अपनी पत्नी से मिलने ताइवान से चीन लौटता है। यहां वह पहली बार अपने बेटे को देखता है। उसकी भेंट अपनी पत्नी के दूसरे पति से भी होती है, जो एक नेक व्यक्ति है। आधी सदी बाद पति-पत्नी की मुलाकात होती है। वे चाहते हैं कि जीवन के अंतिम दिन वे साथ ही गुजारें, क्योंकि उनके देश के विभाजन ने उनके प्यार के बीच भी लकीर खींच दी थी। लेकिन वे यह भी महसूस करते हैं कि समय की धारा को पीछे नहीं लौटाया जा सकता। यह बड़ी आसानी से भारत और पाकिस्तान या पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की भी कहानी हो सकती है।

श्रीलंकाई फिल्मकार बेनेट रथनायके की फिल्म अंडर द सन एंड द मून हजारों जानें लेने वाले नस्लीय संघर्ष की दास्तान बयां करती है। फिल्म का व्याकरण बहुतेरी दक्षिण एशियाई फिल्मों की शैली के अनुरूप रंगमंचीय और अतिनाटकीय हो गया है, लेकिन फिल्म का कथानक हमें बांधे रखता है। यह श्रीलंकाई सेना के एक आदर्शवादी अधिकारी की कहानी है, जो अपनी मां की इच्छा के विपरीत एक तमिल विद्रोही नेता की बहन से विवाह करता है, जबकि उस विद्रोही नेता के साथियों ने अधिकारी की मां के घर पर धावा बोलते हुए उनके माता-पिता की हत्या कर दी थी। युद्ध में अधिकारी की मृत्यु हो जाती है। सेना का एक जवान यह महसूस करता है कि उसने अधिकारी की जान बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए और अपराधबोध से ग्रस्त होकर अधिकारी की विधवा और उसकी बेटी की तलाश करता है। वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर भिजवाने के लिए अपनी जान तक को जोखिम में डाल देता है। फिल्म यह बताती है कि गृह युद्ध आम लोगों के मन में नफरत के बीच बो देता है, लेकिन प्रेम और सौहार्द की भावनाएं फिर भी नहीं मरतीं।

समारोह में फिल्में देखते समय मैंने यह भी अनुभव किया कि कई फिल्मों ने शहरी जीवन के अकेलेपन को अपनी विषयवस्तु बनाया है। मुझे विशेष रूप से हंगारियन फिल्म एड्रेइन पाल ने प्रभावित किया। इस फिल्म की निर्देशक एग्नेस कोसिस हैं। फिल्म एक स्थूलकाय नर्स की बेहलचल जिंदगी पर केंद्रित है, जो मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों के वार्ड में 18 वर्षो से काम कर रही है। उसका काम केवल इतना ही है कि इन मरीजों को साफ-स्वच्छ और जीवित रखने की कोशिश करे और उनकी मृत्यु हो जाने पर उनके परिजनों को सूचित करे। नर्स को यह अनुभव होता है कि मरीजों के साथ ही उसके भीतर की भावनाएं भी धीरे-धीरे मरती जा रही हैं। वह हाई कैलोरी स्नैक्स खाते हुए एक यांत्रिक जीवन बिता रही है। फिल्म यह दर्शाती है कि किस तरह यह महिला जीवन के नए आयामों की तलाश करती है। मैक्सिकन फिल्मकार अर्नेस्तो कोंत्रेरास की फिल्म पार्पादोज एजूले दो युवाओं की आमफहम जिंदगी की कहानी है। एक लड़की एक क्लॉथ स्टोर में काम करती है और संयोग से एक पुरस्कार जीत जाती है। उसे एक समुद्र तटीय रिसोर्ट पर छुट्टियां बिताने का अवसर मिलता है। वह अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को भी ले जा सकती है। उसकी भेंट एक अपरिचित व्यक्ति से होती है और वह उसे अपने साथ छुट्टियां बिताने के लिए निमंत्रित करती है। यह एक मजेदार फिल्म है, जो हमें यह बताती है कि साधारण लोगों की साधारण जिंदगी में भी प्रेम के अवसर और संभावनाएं हमेशा जीवित रहती हैं। तुर्की के फिल्मकार सलीम दमीरदलन की फिल्म द क्रॉसिंग में भी अकेलापन एक सिंफनी की तरह है। एक व्यक्ति रोज दफ्तर से घर फोन लगाकर बेटी से बात करता है और उससे पूछता है कि आज स्कूल में क्या-क्या हुआ, लेकिन वास्तव में उसकी कोई बेटी नहीं है और उसने अकेलेपन से निजात पाने के लिए अपने इर्द-गिर्द फंतासियों की दुनिया रच ली है। एक महिला अपने शराबी पति से अलगाव के बाद अकेलेपन का जीवन बिता रही है तो एक अन्य व्यक्ति अपनी बीमार बहन को तिल-तिलकर मरते देख रहा है। फिल्म का स्क्रीनप्ले इन तीनों की तनहाइयों को आपस में जोड़ देता है।

समारोह में मेरा परिचय एक बेहतरीन भारतीय फिल्म से भी हुआ। यह फिल्म कौशिक गांगुली की जस्ट अनादर लव स्टोरी है। फिल्म से सुविख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष ने अपने अभिनय कॅरियर का आगाज किया है। फिल्म रचनात्मक रूप से कई स्तरों पर काम करती है। हर फिल्म समारोह की तरह गोआ फिल्म समारोह में भी युवावस्था के सवालों पर केंद्रित एक फिल्म थी। चेन कुन-होऊ की ताइवानी फिल्म का शीर्षक ही ग्रोइंग अप है। फिल्म में एक उदारहृदय बुजुर्ग एक बार गर्ल से विवाह करता है और उसके बेटे को स्वीकार कर लेता है। लड़का जिद्दी और विद्रोही प्रवृत्ति का है। जब वह नौजवान हो जाता है, तो नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करता है।

लेकिन समारोह की सबसे अच्छी फिल्म थी बॉय । यह न्यूजीलैंड की फिल्म है, जिसे टाइका वैटिटी ने निर्देशित किया है। यह ऑस्ट्रेलियाई मूल के एक ऐसे आदिवासी बच्चे की कहानी है, जिसके पिता जेल में बंदी हैं जबकि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी है। वह यह कल्पना करने लगता है कि वह बच्चा नहीं, वयस्क अभिभावक है और अपने बच्चों से बहुत प्रेम करता है। लेकिन जब उसके पिता जेल से रिहा होकर आते हैं तो वह पाता है कि यह सच्चाई नहीं है और वह महज कल्पनाओं से खेल रहा था। मैं दिल्ली में बहुत सारे ऐसे बच्चों के साथ काम करता हूं, जिनकी कहानी भी इस फिल्म के बच्चे की कहानी से मिलती-जुलती है, लेकिन वे जिंदगी की तकलीफों का सामना करने को तैयार हैं। इस फिल्म ने मेरे दिल को छू लिया(दैनिक भास्कर,24.12.2010)।

Tuesday, December 21, 2010

पश्चिम के आसमान में बॉलीवुड सितारे

अमेरिका और पश्चिमी देशों में सिने दर्शकों की जो मुख्यधारा है, उसमें मुंबइया फिल्मों या बॉलीवुड के सितारों की कोई खास पहचान नहीं है। यह स्थिति लंबे समय से है, लेकिन नए हालात में जल्दी ही बदल सकती है। अमेरिका में दूसरे देशों से आकर बसे आप्रवासी लोगों के जो समुदाय हैं, उनमें दक्षिण एशियाई लोगों के समुदाय का आकार तेजी से बढ़ रहा है।

इन्हीं आप्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाई गई बॉलीवुड फिल्में बड़े पैमाने पर अमेरिकी सिनेमागृहों में दिखाई जाने लगी हैं। अमेरिकी परदे पर ऐसी फिल्मों का एक विस्फोट-सा देखा जा सकता है। यही कारण है कि अब भारतीय फिल्मी सितारे दुनिया के इस हिस्से में अपनी अजनबीयत से उबर रहे हैं और जल्दी ही यहां गुमनाम या अनजाने नहीं रहेंगे।

मेरी बहन एक किस्सा सुनाती हैं। वह चैनल 9 के साथ एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थीं। इसमें फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा पर भी फोकस था। जब प्रीति से हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना करने को कहा गया तब उन्होंने यह घटना टेलीविजन टीम को बताई। प्रीति उस विमान में लंदन से न्यूयॉर्क जा रही थीं। उन्होंने देखा कि फस्र्ट क्लास कैबिन में सुंदर और उभरे हुए होंठों वाली एक अमेरिकी महिला मुड़ी-तुड़ी जींस पहने और गहरा काला चश्मा लगाए बैठी हैं। तभी ऑटोग्राफ लेने वाले यात्रियों की एक भीड़ विमान की इकॉनोमी क्लास से फर्स्ट क्लास की ओर दौड़ी।

यह देखकर अमेरिकी महिला के होठों से निकला, ‘ओह, गॉड!’ लेकिन तभी उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उस भीड़ ने उनकी बगल से गुजरकर आगे बैठी प्रीति को घेर लिया। भारतीय अभिनेत्री क्षमा मांगने की मुद्रा में उनकी तरफ देखकर मुस्कराईं और अपने दक्षिण एशियाई प्रशंसकों की ऑटोग्राफ बुक पर दस्तखत करने में व्यस्त हो गईं। उभरे हुए होंठों वाली वह खूबसूरत अमेरिकी महिला कोई और नहीं हॉलीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री एंजेलिना जोली थीं। हॉलीवुड पर हुकूमत करने वाली उस साम्राज्ञी ने मन ही मन जरूर पूछा होगा कि ‘यह हिंदुस्तानी महारानी आखिर है कौन?’ जाहिर है, पश्चिम में भी बॉलीवुड के सितारों का सूर्योदय हो रहा है।

लेकिन मुंबई की फिल्मी दुनिया में ऐसे सितारे भी हैं जिन्हें अपनी प्रसिद्धि और अपने यश की सीमाओं को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है। न ही उन्हें इस बारे में कोई अफसोस है। इनमें संभवत: अमिताभ बच्चन सबसे आगे हैं। न्यूयॉर्क के लिंकन सेंटर में उनकी फिल्मों का एक रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित किया गया था, जिसमें भाग लेने वह आए थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वह हॉलीवुड की फिल्में करना पसंद करेंगे? सवाल सुनकर पहले तो वह हंसे, फिर बोले कि हॉलीवुड ने दरअसल उन्हें कभी आकर्षित नहीं किया। ‘हर अभिनेता सबसे पहले अपने घर या अपने स्वदेश के बारे में सोचता है। मैं जहां हूं वहीं बहुत खुश हूं।’ अमिताभ बच्चन वह शख्स हैं जिन्होंने अपने को ‘दुनिया का सबसे महान फिल्म सितारा’ मानने से इनकार कर दिया था। यह तमगा उन्हें 1999 में बीबीसी के ऑनलाइन सर्वे में दिया गया था, जब उन्हें लॉरेंस ओलिवर जैसे महान अभिनेताओं को पीछे छोड़ते हुए स्टार ऑफ द मिलेनियम चुना गया था। बच्चन यह सुनकर नाराज हो जाते हैं कि भारतीय सिनेमा को पश्चिमी दर्शकों की रुचियों के हिसाब से अपने को बदल लेना चाहिए। ‘अगर हमारी फिल्में किसी न किसी रूप में कम भारतीय होती हैं, तो यह बहुत दुखद होगा।’

लेकिन बदलाव तो आ रहे हैं, चाहे वे कितने ही बेतरतीब हों या कितने ही जबरदस्ती किए जा रहे हों। अगर आपको यह देखना हो कि ग्लोबलाइजेशन या भूमंडलीकरण किस तरह बॉलीवुड की फिल्मों को बदल रहा है, तो आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में बनी फिल्म काइट्स को देखिए। ऋतिक रोशन अभिनीत इस फिल्म का वितरण रिलायंस बिग पिक्चर्स ने किया था। इसके दो संस्करण बनाए गए थे। 130 मिनट लंबा एक हिंदी संस्करण था जिसमें तमाम नाच और गाने थे। इसका एक छोटा और कसा हुआ अंग्रेजी संस्करण भी था, जो सिर्फ 90 मिनट लंबा था। इसका नाम था काइट्स : द रीमिक्स और इसका संपादन किया था हॉलीवुड डायरेक्टर ब्रेट रैटनर ने। रैटनर ने पश्चिमी दर्शकों की रुचियों और संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए इसका संपादन किया था। इस छोटे अंग्रेजी संस्करण में उन्होंने मूल फिल्म के सारे नाच-गाने, उपकथाओं और बेकार के दृश्यों को निकाल दिया था।

काइट्स : द रीमिक्स परीक्षा में पास हुई। मई में इसे अमेरिकी सिनेमागृहों में प्रदर्शित किया गया और उस सप्ताह यह सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली टॉप टेन फिल्मों में शुमार हुई। ऐसा करने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। प्रमुख अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स फिल्म की इस कामयाबी से चकरा गया। उसने फिल्म के कसीदे काढ़ते हुए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो आम तौर पर वह नहीं करता है। मिसाल के लिए, उसने लिखा कि ऋतिक रोशन ‘स्मोकिंग बॉडी’ के स्वामी हैं। स्मोकिंग बॉडी का फिर चाहे जो अर्थ रहा हो(उत्तरा चौधरी,दैनिक भास्कर,19.12.2010)।

Tuesday, December 14, 2010

सिनेमा के परदे से घर के आंगन तक

नंदिता दास को फायर, हजार चौरासी की मां और अर्थ जैसी फिल्मों में उनके सशक्त और दमदार अभिनय के लिए जाना जाता है। कुछ समय पहले वे सीएफएसआई की अध्यक्ष चुनी गई थीं। उन्होंने प्रशंसित फिल्म फिराक का निर्देशन भी किया। इसके बाद उन्होंने व्यवसायी सुबोध मसकरा से विवाह कर लिया और हाल ही में वे मां बनी हैं। समय-समय पर मेरी नंदिता से मुलाकातें होती रहती हैं। हाल ही में उनसे हुई बातचीत में उन्होंने अपनी गैरपरंपरागत पृष्ठभूमि और फिल्मों के प्रति अपने लगाव के बारे में विस्तार से बताया।

नंदिता बताती हैं कि वे और उनका भाई पिता को कैनवास पर काम करते देख बड़े हुए हैं। उसी दरमियान उन्हें भी अपने रचनात्मक रूझानों का अहसास हुआ। उनके परिवार ने भी उन्हें अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता दी। उनके भाई ने ऋषि वैली में पढ़ने का फैसला लिया था और नंदिता भी मां सहित वहां उनके साथ गईं। ऋषि वैली के सुरम्य परिवेश का उनके मन पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिर यहां आएंगी। आखिरकार उनका यह सपना साकार हुआ।

नंदिता ने ऋषि वैली में छह माह बिताए और वे मानती हैं कि यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय था। हालांकि वे वहां शिक्षिका के रूप में गई थीं, लेकिन उन्होंने स्वयं श्लोक, भजन इत्यादि सीखने में भी काफी रुचि दिखाई। यहीं पर उन्होंने पेड़ों से बात करना, मौन होकर डूबते सूरज को निहारना भी सीखा। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने पाया कि अब औपचारिक शिक्षा में उनकी कोई रुचि नहीं थी। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद नंदिता एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ गईं, जो झुग्गीवासी महिलाओं के साथ काम करता था। यहीं उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि जीवन के विरोधाभास आदर्शो पर हावी हो जाते हैं। तकलीफों की तीखी सच्चई ये है कि हम चाहें कितना ही बुरा क्यों न महसूस करें, जीवन की गति कभी नहीं रुकती है। जीवन आगे बढ़ता रहता है।

सड़क पर होने वाले नुक्कड़ नाटकों में नंदिता की हमेशा से ही दिलचस्पी रही थी, इसलिए यह स्वाभाविक था कि वे रंगमंच की ओर आकृष्ट होतीं। नंदिता कहती हैं कि वे स्वयं को 50 एपिसोड वाले टीवी सीरियलों के लिए फिट नहीं पातीं, इसलिए उन्होंने कई ऑफर्स ठुकरा दिए। आखिर दीपा मेहता ने उन्हें फायर और गोविंद निहलानी ने हजार चौरासी की मां के लिए साइन कर लिया। नंदिता कहती हैं कि महाश्वेता देवी का उपन्यास हजार चौरासी की मां उन्हें बहुत प्रेरित करता था और इसीलिए वे इस फिल्म का हिस्सा होना चाहती थीं, अलबत्ता फिल्म में उनकी भूमिका एकआयामी थी।

नंदिता कहती हैं कि शबाना आजमी और जया बच्चन जैसी कद्दावर अभिनेत्रियों के साथ काम करना बहुत प्रेरणादायी अनुभव था। अर्थ में उन्होंने आमिर खान के साथ काम किया। वे कहती हैं आमिर के व्यक्तित्व में जो गंभीरता है, वही परदे पर उनके द्वारा निभाए जाने वाले पात्रों में झलकती है। आमिर बहुत प्रतिबद्ध अभिनेता हैं।

नंदिता स्वीकारती हैं कि जहां उन्होंने अच्छी फिल्मों में काम किया है, वहीं उन्होंने कुछ खराब कमर्शियल फिल्में भी की हैं। जब वे ऊब गईं तो उन्हें काम से ब्रेक लिया और फिर सीएफएसआई की अध्यक्ष बन गईं। फिर एक फिल्म का निर्देशन किया और पुरस्कार जीते। वे कहती हैं कि वे हमेशा जीवन के बहाव के साथ बहना पसंद करती हैं, फिर वह चाहे फिल्में हों, निर्देशन हो या विवाह। उन्हें मां बनकर संतोष का अनुभव हुआ है। नंदिता बताती हैं कि उन्होंने अपना जीवन अपनी ही शर्तो पर बिताया है और अब घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाकर भी वे काफी खुश हैं(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,12.12.2010)।

Sunday, December 12, 2010

साधारण लोगों के असाधारण नायकःओमपुरी

पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिंदी सिनेमा में कला फिल्मों का एक ऐसा दौर आया था जिसमें देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं को काफी गहराई में जाकर पर्दे पर दिखलाने की कोशिश की गई थी। कला फिल्मों ने आकर्षक चेहरे और आकर्षक शरीर वाले नायकों की जगह बिल्कुल आम आदमी की शक्ल-सूरत वाले अभिनेताओं को तरजीह देकर भी एक क्रांतिकारी काम किया था। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उसी दौर में उभर कर सामने आए थे और अपने वास्तविक अभिनय के बल पर कला फिल्मों की जान बन गए थे। व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेताओं जैसा भव्य रूप-सौंदर्य इन्हें भले ही न मिला हो, अभिनय के मामले में ये उन "सुदर्शन-पुरुषों" से बहुत आगे थे। और रूप-सौंदर्य में सबसे निचले पायदान पर खड़े ओमपुरी जैसे अभिनेता ने तो अभिनय के बल पर अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान तक बना ली थी।

अभाव और संघर्ष में बचपन और जवानी गुजारने वाले ओमपुरी के संघर्षों, सफलताओं, जीवन जीने के तरीकों आदि पर उनकी पत्नी नंदिता सी. पुरी ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद "असाधारण नायक : ओमपुरी" अब पाठकों के लिए उपलब्ध है। पत्नी होने के बावजूद नंदिता जी ने इस किताब में ओमपुरी की तारीफ में कसीदे नहीं पढ़े हैं बल्कि आश्चर्य की बात है कि नंदिता जी ने इतनी बेबाकी से यह किताब कैसे लिखी? इस किताब में कई ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें छुपाया जा सकता था मगर उन्होंने उन सबको उजागर करना ही जरूरी समझा। हालांकि वह ओम पुरी के उस आग्रह को मान लेती जिसके तहत उन्होंने अपने जीवन में आई स्त्रियों का नाम उजागर न करने की बात कही थी तो शायद बेहतर होता।

ओम पुरी ने बचपन से ही बहुत संघर्ष किया। पांच वर्ष की उम्र में ही वे रेल की पटरियों से कोयला बीनकर घर लाया करते थे। सात वर्ष की उम्र में वे चाय की दुकान पर गिलास धोने का काम करने लगे थे। सरकारी स्कूल से पढ़ाई कर कॉलेज पहुंचे। छोटी-मोटी नौकरियां तब भी करते रहे। कॉलेज में ही "यूथ फेस्टिवल" में नाटक में हिस्सा लेने के दौरान उनका परिचय पंजाबी थिएटर के पिता हरपाल तिवाना से हुआ और यहीं से उनको वह रास्ता मिला जो आगे चलकर उन्हें मंजिल तक पहुंचाने वाला था। पंजाब से निकलकर वे दिल्ली आए, एन.एस.डी. में भर्ती हुए। लेकिन अपनी कमजोर अंग्रेजी के कारण वहां से निकलने की सोचने लगे। तब इब्राहिम अल्काजी ने उनकी यह कुंठा दूर की और हिंदी में ही बात करने की सलाह दी। धीरे-धीरे अंग्रेजी भी सीखते रहे। हालांकि बकौल नंदिता पुरी अंग्रेजी फिल्मों में उनके काम करने के बावजूद अंग्रेजी बोलने का उनका पंजाबी ढंग अभी तक गया नहीं है। एन.एस.डी. के बाद "फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया" से एक्टिंग का कोर्स करने के बाद ओम मुंबई आए और धीरे-धीरे फिल्मों में स्थापित हुए। कला फिल्मों से टेलीविजन, व्यावसायिक फिल्मों और हॉलीवुड की फिल्मों तक का सफर तय करके उन्होंने सफलता का स्वाद भी चखा। उनकी इस सफलता के बारे में उनके मित्र अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने ठीक ही लिखा है- "ओमप्रकाश पुरी से ओम पुरी बनने तक की पूरी यात्रा जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं, एक दुबले-पतले चेहरे पर कई दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे के इरादों के साथ एक स्टोव, एक सॉसपैन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया।"

ओम पुरी की इस जीवनी का नामकरण करने में सुप्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल की भूमिका रही है। उन्होंने ओम को "असाधारण नायक" कहकर निश्चय ही कोई गलती नहीं की है। लेकिन इस असाधारण नायक की जीवनी पढ़कर लगता है कि वे अब भी साधारण व्यक्ति हैं- पत्नी पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले, बच्चे पर जान छिड़कने वाले, खर्च के बाद पैसे का जोड़-घटाव करने वाले, सोते समय भयानक खर्राटे लेने वाले...! नंदिता पुरी ने ओम के बारे में बताने को कुछ भी नहीं छोड़ा है। किशोरावस्था से लेकर विवाह तक उनके जीवन में आने वाली स्त्रियों के बारे में भी उन्होंने बड़े विस्तार में बताया है। बावजूद इन प्रसंगों के पाठकों के मन में ओमपुरी की कोई नकारात्मक छवि नहीं बनती। पुस्तक पाठकों को एक लय में पढ़ने को बाध्य कर सकती है(संजीव ठाकुर,नई दुनिया,दिल्ली,12.12.2010)।

आमिर का भाव उछाल पर, शाहरुख की चमक फीकी

सियासत के बॉक्स ऑफिस पर रणछो़ड़दास श्यामलाल चांच़ड़ की बल्ले-बल्ले है। सिल्वर स्क्रीन के रैंचो के जलवे के आगे किंग खान की चमक फीकी प़ड़ गई है। सियासत के सेंसेक्स पर रैंचो का भाव उछाल मार रहा है और वह राजनीतिक गलियारे के मोस्ट वांटेड बन गए हैं। रैंचो को पहचाना नहीं? जी हां, हम थ्री इडियट्स के रैंचो की ही बात कर रहे हैं यानी फिल्म अभिनेता आमिर खान की।

राजनीतिक गलियारों में इन दिनों फिल्म अभिनेता आमिर खान की अदाकारी और उनके सामाजिक सरोकारों की खूब चर्चा है। तो शाहरुख खान लगभग राजनीतिक परिदृश्य से नदारद दिखाई दे रहे हैं। कुछ समय पहले तक राजनीतिक गलियारों में शाहरुख की खूब पूछ हुआ करती थी। पर अपने सामाजिक सरोकारों और उससे जु़ड़ी फिल्मों जैसे रंग दे बंसती, तारे जमीं पर, थ्री इडियट्स और पीपली लाइव जैसी फिल्में बनाकर आमिर ने अब उनकी जगह ले ली है। कांग्रेस हो या भाजपा, शाहरुख ने भविष्य की संभावनाओं को तलाशते हुए दोनों दलों के साथ बेहतर तालमेल बनाए रखने की कोशिश की थी। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के साथ उनके नजदीकी रिश्ते रहे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं पर बनाए गए वीडियो में भी कुछ कविताएं गाईं। राजनीति के जानकारों के मुताबिक कुछ इसी तर्ज पर आमिर खान भी कांग्रेस और भाजपा में समान तौर पर पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रमुख नेता का कहना है कि जिस तरह आमिर कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच तालमेल बैठा कर चल रहे हैं इससे वह न केवल अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पेश कर रहे हैं बल्कि कुछ समय बाद उनके राजनीति में आने की संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता। आमिर एक तरफ फिल्म इंड्रस्ट्री में ऐसे सिनेमा के पैरोकार दिखाई देते हैं जिससे समाज को एक संदेश मिल सके और दूसरी तरफ सरकार को अपने स्टारडम की कुछ सेवाएं दे रहे हैं।

आमिर पर्यटन मंत्रालय के अतुल्य भारत विज्ञापन में पर्यटकों के साथ अच्छे सलूक का संदेश देते दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने एक गैर सरकारी संस्था के जरिए साफ-सुथरे उम्मीदवारों को चुनने के अभियान में अपनी खूब सक्रियता दिखाई। कांग्रेस और सरकार के लिए भी आमिर ऐसे अभिनेता बन गए हैं जिन्हें सिर आंखों पर बिठाया जा रहा है। वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के चहेते बने हुए हैं। यही वजह रही कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे के समय प्रधानमंत्री ने जिन गण्यमान्य लोगों को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया था उनमें आमिर को खास तौर पर बुलाया गया था। प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक,यदि शाहरूख को भी इसमें बुलाया जाता,तो आमिर नहीं आते। इसलिए,आमिर को बुलाना मुनासिब समझा गया। हाल में,आमिर बच्चों में कुपोषण की रोकथाम के लिए एक अभियान में शामिल हुए हैं जिसमें लगभग सभी दलों के युवा सांसद शामिल हैं। इसी सिलसिले में,संसद पहुंचे आमिर को प्रधानमंत्री से मिलने के लिए पांच मिनट का वक्त मिला था पर मुलाकात हुई तो बातों का सिलसिला आधे घंटे तक चल पड़ा। सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री की ओर से आमिर खान को खूब समर्थन मिल रहा है। वहीं,मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और शहरी विकास मंत्रालय ने स्कूलों में स्वच्छता कार्यक्रम के लिए आमिर को ब्रांड एंबेसडर बनाया है। आमिर अच्छे फिल्म निर्माता और अभिनेता के अलावा,अच्छे रणनीतिकार माने जाते हैं। यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा रहा है कि पीपली लाईव के प्रदर्शन के बाद आमिर ने प्रधानमंत्री के आवास पर उन्हें विशेष तौर पर यह फिल्म दिखाई थी। इसके तुरंत बाद,उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत भाजपा के कई बड़े नेताओं और सांसदों के लिए भी इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग की। पिछले सप्ताह संसद पहुंचने पर आमिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से तो मिले ही,साथ में लालकृष्ण आडवाणी और लोकसभा में विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज औऱ लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार से भी मुलाकात की(प्रतिभा ज्योति,नई दुनिया,दिल्ली,12.12.2010)।

Saturday, December 11, 2010

असफल फिल्मों के सफल फिल्मकार

आजकल प्रसिद्ध फिल्मकारों को उनकी असफल फिल्मों के लिए कोई दंड नहीं मिलता। असफलता पर उन्हें आर्थिक हानि भी नहीं उठानी पड़ती। एक लिहाज से इस समय उद्योग में असफलता रूपी अपराध के लिए दंड का विधान नहीं है। राज कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से इतना सीखा कि उसके बाद कोई असफल फिल्म नहीं बनाई, क्योंकि उन्होंने और उनके वितरकों ने अपना धन खोया था।

गुरुदत्त ने भी ‘कागज के फूल’ में अपना धन खोया था। बिमल राय वापस बंगाल जाना चाहते थे, तब ऋतविक घटक ने उनके लिए ‘मधुमती’ लिखी। देवानंद ने ‘नीचा नगर’ में अपना धन खोया। बोनी और अनिल कपूर ने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘प्रेम’ में अपना धन खोया। कारदार साहब को ‘दिल दिया दर्द लिया’ की असफलता के बाद अपना स्टूडियो बेचना पड़ा।

सोहराब मोदी को भी पत्नी मेहताब के साथ बनाई असफल फिल्म ‘झांसी की रानी’ के बाद अपना स्टूडियो और अनेक सिनेमाघर बेचने पड़े। विगत दशक में बड़े उद्योग घरानों के फिल्म निर्माण में आने के बाद घाटे की जवाबदारी उन्होंने ले ली और प्रसिद्ध फिल्मकारों को मुंहमांगा धन दिया। फिल्मकारों ने अनुमानित लाभ को अपना बजट बनाकर प्रस्तुत किया, अत: पहली बार कोई माल दो सौ प्रतिशत मुनाफे की लागत पर बनने के पहले बिका। ऐसे व्यावसायिक समीकरण में लाभ कैसे मिल सकता है?

संजय लीला भंसाली को ‘सावरिया’ और ‘गुजारिश’ में मोटा माल मिला है। उद्योग में चर्चा है कि ‘गुजारिश’ के लिए उन्हें पच्चीस करोड़ का मेहनताना प्राप्त हुआ है। इन्हीं सब नए तौर तरीकों के कारण कुणाल कोहली को ‘थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक’ या ‘ब्रेक के बाद’ के लिए मुनाफा मिला है। करण जौहर को ‘वी आर फैमिली’ और ‘कुरबान’ जैसी घोर असफलताओं के लिए भी धन प्राप्त हुआ है। राकेश रोशन को ‘काइट्स’ के लिए धन मिला है।

जिस तरह आज फिल्म उद्योग में कुछ लोगों को काम और दाम मिलता है, परंतु वे उत्तरदायित्व से मुक्त हैं, उसी तरह राजनीति और व्यवस्था में लोगों को असीमित लाभ और अधिकार बिना किसी दायित्व के मिले हैं। इसकी कीमत अवाम चुका रहा है। प्राइवेट सेक्टर में नतीजा नहीं देने पर नौकरी छिन जाती है।

भ्रष्ट मंत्री पर आम आदमी मुकदमा नहीं कायम कर पाता। नेता को कई बार अपराध करने के पांच साल बाद भी चुनाव द्वारा दंड नहीं मिल पाता। गधों को हलवा खाते देख भूखे अवाम में नैराश्य बढ़ रहा है। आम आदमी का भरोसा टूटा है। टोपी चाहे कोई भी हो, उसके नीचे हर माथे पर दाग है। जाएं तो जाएं कहां?

फिल्म की सफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता, परंतु कई गुना मुनाफा जोड़कर उसकी लागत बताना अनैतिक है। असली अपराध एक रुपए का माल दस रुपए में बनाना है। लागत, लाभ और मेहनताने में संतुलन होना चाहिए(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,10.12.2010)।

Monday, December 6, 2010

रविकिशन छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी

छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग में अब भोजपुरी फिल्मों के सितारे भी रुचि लेने लगे हैं। भोजपुरी फिल्म उद्योग के स्टार रवि किशन छत्तीसगढ़ी फिल्म में काम करेंगे। उन्होंने इसके लिए अपनी सहमति देने के साथ ही एक फिल्म साइन भी कर दी है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माता अलक राय पहली बार इस तरह का प्रयोग कर रहे हैं।

उन्होंने कहा कि फिल्म की शूटिंग फरवरी से शूटिंग शुरू होगी। इसकी स्टोरी पर काम शुरू कर दिया गया है। एक साथ दो फिल्मों की शूटिंग प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर की जाएगी। छत्तीसगढ़ी मे बनने वाली फिल्म के निर्देशक जहां प्रेम चंद्राकर होंगे, वहीं भोजपुरी फिल्म का निर्देशन मुंबई के अजीत श्रीवास्तव करेंगे। छालीवुड से जुड़े लोगों का कहना है कि भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी बोली में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। रवि किशन बिना किसी डबिंग के छत्तीसगढ़ी फिल्म में काम करेंगे।

लगभग एक जैसी होगी कहानी :
दोनों ही बोलियों की फिल्मों की कहानियां समान रूप से डेवलप की जा रही हैं। दो तरह के दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर और फ्लेवर को समझते हुए किसी समान स्टोरी पर काम किया जा रहा है। जानकारों की मानें तो छालीवुड को एक नए स्टार से मुखातिब होने का अवसर मिलेगा। श्री राय का कहना है कि इससे उद्योग के विस्तार होने के साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान में मदद मिलेगी।

भोजपुरी फिल्मों में जहां 10-11 गाने होते हैं, वही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अधिकतम 6-7 ही गानों का संयोजन होता है। हो सकता है कि नए ट्रेंड के मुताबिक अब ज्यादा मनोरंजक बनाने के लिए छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी कहानी के अनुसार गानों की संख्या बढ़ाई जाए(अमनेश दुबे,दैनिक भास्कर,रायपुर,6.12.2010)।

Saturday, December 4, 2010

बड़े परदे पर लखनऊ की कहानी-"कुछ लोग"

बड़े परदे अगले वर्ष लखनऊ की एक ऐसी कहानी सामने आएगी जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय की अन्तरात्मा की तलाश होगी। ‘कुछ लोग’ नामक यह फिल्म अल्पसंख्यक समुदाय के कु छ ऐसे बहादुर लोगों की कहानी होगी जो अपना परिचय समकालीन भारतीय समाज के विकल्प के तौर पर कराना चाहते हैं। फिल्म के निर्माता, निर्देशक और कलाकारों ने शुक्रवार को एक संयुक्त पत्रकार वार्ता में यह जानकारी दी। निर्माता हूरी अली खान, निर्देशक शुजा अली और फिल्म के कलाकारों आर्य बब्बर, गणेश वेंकटरमन, आरती ठाकुर एवं रज्जाक खान और संगीतकार समीर टण्डन ने बताया कि इस फिल्म की कहानी लखनऊ की पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसका फिल्मांक न लखनऊ में अगले वर्ष फरवरी से आरम्भ होगा। फिल्म के जुलाई माह में प्रदर्शित होने की संभावना है। मूलत: लखनऊ के रहने वाले फिल्म निर्देशक शुजा अली ने बताया कि फिल्म 26/11 की सच्चाई के सिक्के के दूसरे पहलू को पेश करती है। यह कुछ उन कहानियों पर है जो देश के दूसरे भागों में घटित हो रहा था। एक ओर जहाँ आतंकवादी मुम्बई में लोगों की जान ले रहे थे वहीं कुछ अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जीवन बचाने में लगे थे। उन्होंने कहा कि इसमें 26/11 की घटनाएँ जरूर हैं लेकिन यह आतंकवादी हमले या आतंकवाद पर आधारित फिल्म नहीं है। फिल्म में अनुपम खेर, गुलशन ग्रोवर, रति अग्निहोत्री, टॉम आल्टर, नीलिमा अजीम है। आर्य ने कहा कि कुछ फिल्में व्यावसायिक फायदे के लिए बनाई जाती हैं जबकि यह फिल्म दिल के करीब है। दक्षिण की कई फिल्म कर चुके गणेश ने बताया कि मेरी पहली फिल्म कन्धार अगले वर्ष जनवरी में प्रदर्शित होगी(हिंदुस्तान,लखनऊ,4.12.2010)।
आतंकवाद के चलते देश के मुस्लिमों को शक की नजर से देखा जा रहा है। कहीं पर भी कुछ भी आतंकवादी घटना होती है तो तुरंत ही इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवार को भय के साथ जीने पर मजबूर होना पड़ता है। हालांकि उनकी कोई गलती नहीं होती, कुछ लोगों की वजह से उन्हें इस तरह डर कर जीना पड़ता है। इसी मुद्दे को लेकर पहली बार मुस्लिम निर्माता द्वारा भारतीय मुस्लिम और भारत के प्रति उनके विचारों को लेकर कुछ लोग फिल्म का निर्माण शुरू किया गया है।

हाल ही में मुंबई में इस फिल्म का भव्य मुहुर्त किया गया। मुहुर्त के मौके पर निर्माता-निर्देशक-लेखक महेश भट्ट विशेष रूप से उपस्थित थे। उन्होंने बताया जब मुझे यह कहानी सुनाई गई तो मुझे वह बहुत ही अच्छी लगी। वाकई अपने देश में कुछ लोगों की वजह से ही पूरा समाज बदनाम हो रहा है। फिर वह समाज हिंदुओं का हो या मुस्लिमों का। मुसलमानों के भारत के प्रति प्यार को कई फिल्मों में दिखाया है लेकिन उसमें उतनी गहराई नहीं थी जितनी इस फिल्म की कहानी में हैं। मेरा मानना है कि इस तरह की और फिल्में बननी चाहिए ताकि और कसाब तैयार होने से रोका जा सके।

कुछ लोग का निर्माण लखनऊ के सईद असीफ जाह और हूरी अली खान कर रहे हैं तो इसके प्रस्तुतकर्ता है मोहसीन अली खान और मिसाम अली खान। फिल्म में गुलशन ग्रोवर और अनुपम खेर मुख्य किरदारों में नजर आने वाले हैं। अन्य कलाकार हैं रती अग्निहोत्री, आर्य बब्बर, आरती ठाकुर, नीलिमा अजीम, टॉम अल्टर, रवी झंकाल, समीर धर्माधिकारी और रज्जाक खान। शूजा अली फिल्म के निर्देशक हैं। फिल्म की पूरी शूटिंग लखनऊ में की जाने वाली है(नई दुनिया,दिल्ली,4.12.2010)।

Friday, December 3, 2010

"मर जावां गुड़ खा के" रिलीज

बॉलीवुड की नामवर शख्सियतों शक्ति कपूर, संजय मिश्रा, अमन वर्मा, उपासना सिंह, बॉबी डार्लिग के अभिनय के अलावा कोरियोग्राफर सरोज खान के नृत्य से सजी पंजाबी फीचर फिल्म मर जावां गुड़ खा के शुक्रवार को सिलवर स्क्रीन की शोभा बनने जा रही है। फिल्म प्रमोशन के लिए फिल्म के अभिनेता जिम्मी शर्मा और अभिनेत्री गुंजन वालिया वीरवार को यहां पहुंचे। मॉडल गुरु कोरियोग्राफर शुभम चंद्रचूड़ की अगुआई में यहां आयोजित प्रेसवार्ता में फिल्म अभिनेता जिम्मी शर्मा ने बताया कि रोमांस और कॉमेडी से भरपूर यह फिल्म अन्य सभी पंजाबी फिल्मों से हट कर है। दर्शकों के लिए यह यादगार बनकर सामने आएगी। अभिनेत्री गुंजन वालिया ने कहा कि फिल्म वही होती है जो देखने वाले को इस तनाव भरे जीवन में कुछ सुकून प्रदान करे। इस फिल्म का फिल्मांकन पंजाब, मसूरी और मंुबई में किया गया है। एक अर्से के बाद पंजाबी कॉमेडियन मेहर मित्तल फिल्म में दिखाई देंगे। इसके अलावा गुरप्रीत घुग्गी भी खास भूमिका में हैं। संतोख सिंह के संगीत में सजी फिल्म में कुमार ने गीत लिखे हैं, जबकि मीका सिंह, मास्टर सलीम, नीरज श्रीधर, जसपिंदर नरुला, संतोख सिंह, जावेद अली, समांथा और सोनू कक्कड़ की आवाजों में गीत गाए गए हैं। आदित्य सूद के निर्देशन में बनी फिल्म को सुभाष घई के बैनर मुक्ता आ‌र्ट्स तले रिलीज किया जा रहा है।

पहली पंजाबी फिल्म से रुपहले पर्दे पर आ रहे जिम्मी शर्मा और गुंजन वालिया को मर जांवां गुड़ खा के से काफी उम्मीद है। फिल्म की प्रमोशन के लिए पटियाला आए इन नवोदित कलाकार ने अपने कुछ पल दैनिक जागरण के साथ साझा किए। भोली से मुस्कान बिखेरते हुए जिम्मी ने कहा कि कैमरे का सामना उनके लिए नया नहीं है। हां, इतना जरूर है कि यह उनकी पहली फिल्म है। 350 से अधिक पंजाबी वीडियो में अभिनय करने के बाद उन्हें यह फिल्म मिली है। मेरा यह सौभाग्य है कि छोटे पर्दे से निकल कर अब मेरी पहचान सिल्वर स्क्रीन पर भी होगी। उन्होंने बताया कि इस फिल्म में भी मेरे किरदार का नाम जिम्मी ही है। इसके अलावा बॉलीवुड के नामवर कलाकार शक्ति कपूर, अमन वर्मा और संजय मिश्रा भी इस फिल्म में अभिनय कर रहे हैं। उनके साथ काम कर मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। करियर के शुरुआत में ही ऐसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करना सौभाग्य की बात है। इतना ही नहीं कोरियोग्राफर सरोज खान की डायरेक्शन में भी मैंने नृत्य की कई बारीकियां जानी। अभी एक और फिल्म के संदर्भ में बात चल रही है। आशा है आने वाले कुछ माह में यह फिल्म सेट पर चली जाएगी। वहीं गुंजन ने कहा कि बॉलीवुड हो या पॉलीवुड पंजाबियों की दोनों जगह पर बल्ले-बल्ले है। एयर होस्टेस की जॉब करते-करते सीरियल में अभिनय का आफर मिल गया। बस फिर क्या था एयर होस्टेस की जॉब को अलविदा कह कर अभिनय की राह पकड़ ली। सीरियल करते-करते पंजाबी फिल्म में अभिनेत्री बनने का मौका मिला। ये मेरे जीवन के यादगार पल हैं(दैनिक जागरण,पटियाला,3.12.2010)।