फ़िल्म जगत
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Friday, February 17, 2017
Monday, December 14, 2015
Monday, November 2, 2015
भोजपुरी फिल्म जान हमार में प्रतिभा सिंह व शाहबाज खान
निर्माणाधीन भोजपुरी फिल्म 'जान हमार' की शूटिंग के दौरान शाहबाज खान,
प्रतिभा सिंह एवं कल्पना शाह। कोयल फिल्म्स के बैनर तले बन रही
निर्माता-निर्देशक काशीनाथ जायसवाल की भोजपुरी फिल्म ‘जान हमार’ के लेखक
मृत्युंजय श्रीवास्तव और कैमरामैन शाहबाज खान ‘पप्पू’ हैं। फिल्म में प्रेम
सिंह, अली खान, आनंद मोहन और सीमा सिंह भी मुख्य भूमिकाओं में होंगे।
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Saturday, November 23, 2013
Monday, September 23, 2013
एडल्ट फिल्में:मॉर्निंग शो से मल्टीप्लेक्स तक का सफर
एक राजमहल जैसा भव्य कॉलेज। सामने तीन सीनियर लड़के नए लड़कों को ए बी सी की जो नई परिभाषा समझा रहे होते हैं उसे यहां तो क्या सभ्य समाज में कहीं भी शेयर नहीं किया जा सकता। यही है 'ग्रैंड मस्ती'। आम तौर पर हिंदी सिनेमा अपने द्विअर्थी संवादों के लिए बदनाम होता था। यहां कुछ भी द्विअर्थी नहीं। जो भी दिख रहा होता है, कहा जा रहा होता है, उसका वही अर्थ होता है जो वयस्क दर्शक आसानी से समझ लेते हैं। प्रिंसिपल एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पकड़ कर पूरे कॉलेज के सामने पेड़ पर टांग कर उसके कपड़े उतार देता है, और अंतिम कपड़ा उतारते हुए कहता है- नाम बड़े और दर्शन छोटे। जाहिर है, ग्रैंड मस्ती को लेकर आज न्यायालय से लेकर महिला आयोग तक में बेचैनी दिख रही है। समाज का एक बड़ा हिस्सा इस तरह के कुत्सित सौंदर्यबोध को प्रसारित करने वाली फिल्म के प्रदर्शन से दुखी दिख रहा है। लेकिन हिंदी में सी ग्रेड फिल्मों का प्रचलन कोई नया नहीं है।
मुख्यधारा में घुसपैठ
करोड़ों की लागत और कमाई ने जब सिनेमा के कला रूप पर व्यवसाय को हावी कर दिया तो उसके लिए बाजार की शर्तों का अनुपालन कला की शर्तें मानने से ज्यादा जरूरी होता गया। बाजार की शर्त मतलब मुनाफा, किसी भी तरह। जाहिर है सिनेमा की दुनिया में वैसे व्यवसायियों की भी घुसपैठ शुरू हुई, जिन्हें सिनेमा से कोई मतलब नहीं था। 90 के दशक में ऐसे ही व्यवसायियों ने हिंदी में एक अलग तरह की सी ग्रेड फिल्मों की शुरुआत की। हिंदी क्षेत्र के सिनेमाघरों के मॉर्निंग शो पर मलयालम और अंग्रेजी की डब फिल्मों के कलेक्शन ने उन्हें हिम्मत दी और इसी में उन्होंने अपनी सफलता की राह खोजी। सी ग्रेड फिल्मों का सीधा सा अर्थ माना जा सकता है, जिसकी तकनीक और सौंदर्यबोध का स्तर सामान्य से काफी नीचे हो। लेकिन हिंदी मे इसके साथ एक अर्थ विशेष जुड़ गया। फिल्मकारों को अपनी सी ग्रेड फिल्मों से कमाई तो चाहिए, लेकिन सी ग्रेड फिल्में देखने कौन जाय? तो दर्शकों के एक खास समूह को लक्षित करते हुए उसमें सेक्स का ओवरडोज दिया जाने लगा। शुरुआत फिल्म के टाइटल से हुई- यौवन','बलात्कारी डायन','ग्लैमर गर्ल', 'बॉडी', 'कोठेवाली' तो कहे-सुने जाने लायक टाइटल हैं, इसके अलावा सैकड़ों ऐसे भी टाइटल से फिल्में आईं जिनका नाम लेना भी आसान नहीं था। फिल्म के निर्माता-निर्देशक दोनों को पता था कि कमसिन हसीना में दर्शक क्या देखने आएंगे। इसीलिए कथा-पटकथा, गीत-संगीत, संपादन, सिनेमैटोग्राफी जैसे विषय के बारे में वे सोचते ही नहीं। आमतौर पर एक कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती। कम बजट, कम समय में ऐसी फिल्में तैयार हो जाती और बाजार से पैसे बटोर कर वापस आ जातीं।
यह वह दौर था जब आर्थिक खुलापन आजादी और नैतिकता की नई परिभाषाएं तय कर रहा था। आश्चर्य नहीं कि मॉर्निंग शो में की इस दबी-ढकी शुरुआत ने हिंदीभाषी क्षेत्रों में अपने लिए सिनेमा घर सुरक्षित करवा लिए। इन फिल्मों के प्रति दर्शकों की हिचक घटी तो फिल्मकारों की कतार भी बढ़ी और उनका उत्साह भी। एक ओर ऐसी फिल्में अश्लील से अश्लीलतम होती गईं तो दूसरी ओर इनके व्यवसाय ने प्रतिष्ठित कलाकारों को भी इनकी तरफ आकर्षित किया।
ऐसी फिल्मों के बादशाह माने जाने वाले कांतिशाह यश चोपड़ा की तरह पोस्टरों पर अपना नाम मोटे-मोटे अक्षरों में विज्ञापित करने लगे। धर्मेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, शक्ति कपूर, मोहन जोशी, रजा मुराद जैसे कलाकारों ने घंटे की दर से काम कर ऐसी फिल्मों को इज्जत बख्शी। कह सकते हैं सी ग्रेड फिल्मों को मिले इसी सम्मान ने बाद के दिनों में 'जिस्म' और 'मर्डर' जैसी फिल्मों की नींव डाली और 'तुम', 'हवस','जूली' जैसी फिल्मों की श्रंखला शुरु हो गई।
आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि सारांश और जख्म बनाने वाला फिल्मकार पॉर्न फिल्मों की नायिका में संभावनाओं की तलाश करने लगे? लेकिन हुआ, इसलिए कि उस फिल्मकार ने भारतीय दर्शकों के बीच सेक्स की स्वीकार्यता का अहसास कर लिया था। रुचि से कुरुचि तक कांति शाह की 'साली आधी घर वाली' जैसी फिल्मों और 'ग्रैंड मस्ती' में फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इस तरह की फिल्में कस्बों के सिंगल थियेटरों के मॉर्निंग शो तक सीमित रहा करती थी, अब बाकायदा प्रमोशन कर मल्टीप्लेक्स में रिलीज हो रही हैं।
'ग्रैंड मस्ती' पर बात करते हुए हमें यह भी सोचना पड़ेगा कि आखिर कौन सा कारण रहा होगा कि 'बेटा','दिल' और 'मन' जैसी संवेदनशील फिल्म बनाने वाले इंद्र कुमार 'मस्ती' के सिक्वल में रुचि क्यों लेने लगते हैं। वास्तव में सी ग्रेड सिनेमा वही है, सिर्फ उसकी प्रतिष्ठा में परिवर्तन हुआ है। और यह परिवर्तन लाने में जितनी भूमिका फिल्मकारों की है, उससे कहीं ज्यादा हमारी है। यह याद करना जरुरी है कि 'मस्ती' अपने समय की सुपरहिट फिल्म थी। जाहिर है, हमने 'मस्ती' पसंद की, तभी हमें 'ग्रैंड मस्ती' मिल रही है(विनोद अनुपम,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,23 सितम्बर,2013)।
Wednesday, December 26, 2012
2012: टूटे फॉर्मूले,दिखीं नई कहानियां
'जब तक है जान' में नायक लंदन में छोटे मोटे काम कर गुजारा कर रहा है। एक कमरे के फ्लैट में उसका रूम पार्टनर पाकिस्तानी है। दोनों एक साथ रहते ही नहीं, एक दूसरे की चीजें भी शेयर करते हैं। उसके खर्चे भी आमतौर पर नायक ही उठाता है। इतना ही नहीं, नायक जब हिंदुस्तान वापसी का कार्यक्रम तय करता है तो अपनी सारी जमा-पूंजी उसे देकर चला आता है कि इससे अपना व्यवसाय शुरू कर लेना। इस वर्ष 'जब तक है जान' दूसरी फिल्म थी जिसमें पाकिस्तान के संदर्भ आए थे। इसके पहले 'एक था टाइगर' में भी पाकिस्तान का उल्लेख खुल कर था, जिसके चलते पाकिस्तान में इसे बैन झेलना पड़ा। इस फिल्म की कहानी हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि में थी, जिसमें रॉ और आईएसआई की गतिविधियों का उल्लेख था, लेकिन फिल्म सौहार्द्र के संदेश के साथ खत्म होती थी। हिंदी सिनेमा के लिए यह एक नई बात मानी जा सकती है।
एडल्ट नहीं, मैच्योर
एडल्ट नहीं, मैच्योर
हिंदी सिनेमा में पाकिस्तान का उल्लेख आना कोई नई बात नहीं। पहले की फिल्मों को भूल भी जाएं तो, 'दीवार' और 'गदर' जैसी फिल्मों को भूलना संभव नहीं, जहां पाकिस्तान का मतलब ही दुश्मनी था। अब जैसे-जैसे आतंकी गतिविधियां कम होती जा रही हैं, आपसी संबंधों पर जमी बर्फ का पिघलाव राजनयिक ही नहीं, आम नागरिक के स्तर पर भी शुरू हो गया है। आश्चर्य नहीं कि परदे पर आपसी सौहार्द्र के संकेत हमें अच्छे लगने लगे हैं। लेकिन 2012 का हिंदी सिनेमा सिर्फ इस बदलाव के लिए नहीं याद किया जाएगा। तकनीकी और विषयगत बदलाव की जो कोशिशें हिंदी सिनेमा में बीते दशक से चली आ रही थी, वे इस वर्ष कई महत्वपूर्ण फिल्मों के रूप में परदे पर साकार होते दिखीं। परदे पर नग्नता दिखाने का हुनर यहां पहले ही सीख लिया गया था। इस वर्ष जब 'विकी डोनर' आई तो लगा कि हिंदी सिनेमा वाकई वयस्क समझ के साथ वयस्क विषय पर हस्तक्षेप कर सकता है।
दर्शक का बदलता मिजाज
स्पर्म डोनेशन जैसे गंभीर विषय पर खास दर्शकों के लिए खास फिल्म की बात तो समझी जा सकती है, लेकिन इस विषय को आम दर्शकों के बीच स्वीकार्य बनाना चुनौती का काम था, जिसे हिंदी सिनेमा ने इस वर्ष संपन्न किया। 2012 में हिंदी सिनेमा ने नायक-नायिका की अनिवार्यता से भी मुक्ति पाने का प्रयास किया। इस वर्ष 'कहानी' और 'हीरोइन' जैसी बगैर नायकों वाली फिल्में आईं तो 'फरारी की सवारी' और 'ओह माई गॉड' जैसी बगैर नायिकाओं वाली फिल्में भी आईं। श्रीदेवी जैसी लंबे समय तक ऑफ स्क्रीन रही प्रौढ़ नायिका की सफल वापसी हिंदी सिनेमा में आ रहे बदलाव का सूचक बनी। 'इंग्लिश-विंग्लिश' में उन्होंने एक भारतीय घरेलू महिला का किरदार निभाया, जिसे अपने परिवार के साथ इंग्लैंड जाना होता है। वहां अपने आपको साबित करने के लिए यह महिला अंग्रेजी सीखती है। बगैर किसी स्टार कास्ट के बनी इस सीधी पारिवारिक सी फिल्म की सफलता और 'जोकर' जैसी बिग बजट फिल्म की घनघोर असफलता ने हिंदी सिनेमा दर्शकों के बदलते स्वभाव को रेखांकित किया कि अब उनके लिए कहानी और प्रस्तुति महत्वपूर्ण है, मात्र अचंभित कर उसकी जेब से पैसे नहीं निकलवाए जा सकते।
शायद दर्शकों की बदलती सोच ने ही निर्माता-निर्देशकों को हिम्मत दी कि कहानी की तलाश में वे वास्तविक घटनाओं के फिल्मांकन के लिए बेचैन दिखे। 'पान सिंह तोमर' से लेकर 'तलाश' तक कई फिल्में सच घटनाओं के फिल्मांकन के दावे के साथ आईं। 'शंघाई' और 'चक्रव्यूह' सच को कहानी के चमकदार आवरण में ढक कर लाईं, तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' ने सच को अपने रूखे रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की। टीआरपी के दबाव में टीवी समाचार जैसे-जैसे मनोरंजन के करीब होते गए, सिनेमा वैसे-वैसे समाचारों के नजदीक होता चला गया। 'शंघाई' ने सेज जैसे मुद्दे की पड़ताल की तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' में माफियाओं के संघर्ष के बहाने कोयला खदान इलाकों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति का जायजा लिया गया। सिनेमा पर समाचारों का दबाव इस कदर दिखा कि 'चक्रव्यूह' जैसी कहानी कहती फिल्म में भी स्थान और पात्रों के नाम को वास्तविक पुट देने की कोशिश की गई।
सच को सच की तरह कहने की हिम्मत ही थी कि 2012 में साल भर के अंदर दूसरी बार आजादी के आंदोलन के ऐतिहासिक पृष्ठ 'चित्तगांव' को परदे पर साकार किया गया। चित्तगांव की चिंगारी पहली बार जहां 'खेलेंगे हम जी जान से' में अभिषेक बच्चन और दीपिका पादुकोण के ग्लैमर के नीचे दबी-दबी सी थी, वहीं दूसरी बार यह मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन के साथ पूरी ऐतिहासिकता के साथ आई। मल्टीप्लेक्स कल्चर ने फिल्मकारों के बीच यह समझ विकसित की कि यदि लक्ष्य 100 करोड़ न हो तो हरेक जोनर की फिल्म को एक दर्शक वर्ग मिल सकता है और उसके खर्च की भरपाई हो सकती है, बशर्ते फिल्म ईमानदारी से बनाई गई हो।
बरफी और पान सिंह तोमर
शायद दर्शकों की बदलती सोच ने ही निर्माता-निर्देशकों को हिम्मत दी कि कहानी की तलाश में वे वास्तविक घटनाओं के फिल्मांकन के लिए बेचैन दिखे। 'पान सिंह तोमर' से लेकर 'तलाश' तक कई फिल्में सच घटनाओं के फिल्मांकन के दावे के साथ आईं। 'शंघाई' और 'चक्रव्यूह' सच को कहानी के चमकदार आवरण में ढक कर लाईं, तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' ने सच को अपने रूखे रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की। टीआरपी के दबाव में टीवी समाचार जैसे-जैसे मनोरंजन के करीब होते गए, सिनेमा वैसे-वैसे समाचारों के नजदीक होता चला गया। 'शंघाई' ने सेज जैसे मुद्दे की पड़ताल की तो 'गैंग्स आफ वासेपुर' में माफियाओं के संघर्ष के बहाने कोयला खदान इलाकों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति का जायजा लिया गया। सिनेमा पर समाचारों का दबाव इस कदर दिखा कि 'चक्रव्यूह' जैसी कहानी कहती फिल्म में भी स्थान और पात्रों के नाम को वास्तविक पुट देने की कोशिश की गई।
सच को सच की तरह कहने की हिम्मत ही थी कि 2012 में साल भर के अंदर दूसरी बार आजादी के आंदोलन के ऐतिहासिक पृष्ठ 'चित्तगांव' को परदे पर साकार किया गया। चित्तगांव की चिंगारी पहली बार जहां 'खेलेंगे हम जी जान से' में अभिषेक बच्चन और दीपिका पादुकोण के ग्लैमर के नीचे दबी-दबी सी थी, वहीं दूसरी बार यह मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन के साथ पूरी ऐतिहासिकता के साथ आई। मल्टीप्लेक्स कल्चर ने फिल्मकारों के बीच यह समझ विकसित की कि यदि लक्ष्य 100 करोड़ न हो तो हरेक जोनर की फिल्म को एक दर्शक वर्ग मिल सकता है और उसके खर्च की भरपाई हो सकती है, बशर्ते फिल्म ईमानदारी से बनाई गई हो।
बरफी और पान सिंह तोमर
आश्चर्य नहीं कि जितनी विविधता हिंदी सिनेमा में इस वर्ष दिखी, उतनी शायद पहले कभी नहीं दिखाई दी थी। हालांकि महेश भट्ट और एकता कपूर जैसे फिल्मकारों को इससे यह हौसला भी मिला कि वे 10 करोड़ में नग्नता परोस कर 60 करोड़ कमा सकें और यह दावा कर सकें कि हिंदी दर्शकों को सेक्स ही पसंद है। वास्तव में इस वर्ष दर्शकों ने फिल्मकारों को अपने पसंद की फिल्म बनाने की हिम्मत दी। उपभोक्तावाद के लिए बदनाम इस समय में कोई फिल्मकार गूंगे-बहरे लड़के और मानसिक रूप से कमजोर लड़की की प्रेम कहानी बनाने की हिम्मत आखिर कैसे जुटा सकता है? लेकिन 2012 में हिंदी सिनेमा में आए बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक यह है कि 'बरफी' बनती ही नहीं, दर्शकों द्वारा जमकर पसंद भी की जाती है। संभव है, हिंदी सिनेमा में सन 2012 को कुछ सौ करोड़िया फिल्मों के लिए याद न भी किया जाए, लेकिन बरफी जैसी कल्पनाशीलता और पान सिंह तोमर जैसी वास्तविकता के लिए इसे जरूर याद रखा जाएगा(विनोद अनुपम,नभाटा,25.12.12)।
Wednesday, December 12, 2012
नीला आसमां सो गया....
" है रूप में वो खटक, वो रस, वो झंकार
कलियों
के चटकते वक्त जैसे गुलजार
या
नूर की उंगलियों से देवी कोई
जैसे शबे-माह में बजाती हो सितार "
- फ़िराक़
Friday, October 26, 2012
व्यंग्य का पॉवर-कट
अपनी बेलाग बातों, अटपटी भाषा, व्यंग्यात्मक शैली और खुले विचारों से आम आदमी को गुदगुदाने वाले हंसी के बादशाह जसपाल भट्टी बृहस्पतिवार को रुला गए। तड़के जालंधर के निकट शाहकोट में सड़क दुर्घटना में 57 वर्षीय हास्य कलाकार तथा फिल्म निर्माता का निधन हो गया। इस हादसे में उनका बेटा जसराज तथा उनकी फिल्म की नायिका सुरीली गौतम गंभीर रूप से घायल हो गए। ‘उल्टा पुल्टा’ और ‘फ्लाप शो’ जैसे व्यंग्यात्मक प्रस्तुतियों के जरिये आम आदमी की समस्याओं को उठाया था। उनके ये दोनों शो 1980 के दशक के आखिर और 1990 के दशक के शुरू में दूरदर्शन के सुनहरे दौर में दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहे थे। बहुत छोटे बजट की श्रृंखला ‘फ्लॉप शो’ तो मध्यम वर्ग के लोगों की समस्याओं को विशिष्टता के साथ उठाने के लिए आज भी याद की जाती है। दुर्घटना के वक्त जसपाल भट्टी फिल्म पावर कट का प्रोमोशन कर लौट रहे थे जो पंजाब में लगातार की जाने वाली बिजली कटौती पर आधारित है।। यह फिल्म इसी शुक्रवार को रिलीज हो रही है। आज नभाटा ने उन पर संपादकीय लिखा हैः
"टीवी में हंसी अभी जिस तरह एक प्रॉडक्ट की तरह बेची जा रही है, उसे जेहन में रख कर जसपाल भट्टी के बारे में कोई राय नहीं बनाई जा सकती। जब देश का ज्यादातर टीवी परिवेश ब्लैक ऐंड वाइट था और आम लोगों के लिए इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था, तब जसपाल भट्टी ने अपने छिटपुट कार्यक्रमों के जरिये हमें हंसी की ताकत समझाई थी। 'उल्टा-पुल्टा' नाम से आने वाले उनके छोटे-छोटे कैपसूलों के लिए लोग जम्हाइयां लेते हुए दूरदर्शन के लंबे-लंबे समाचार विश्लेषण देख जाया करते थे। फिर दस एपिसोड चले फ्लॉप शो ने तो कमाल ही कर दिया। इसमें भट्टी और उनके पात्र अलग से कुछ कहने की कोशिश नहीं करते थे। जो कुछ लोगों के इर्द-गिर्द चल रहा होता था, उसी को चुस्त फिकरों और सधी हुई स्क्रिप्ट में बांधकर पेश कर दिया जाता था। इतने कम खर्चे में कि अभी चल रहे किसी भी सीरियल के एक एपिसोड में फ्लॉप शो के दसों एपिसोड बन जाएं और कुछ पैसे उसके बाद भी बचे रहें।
सरकारी इंजिनियरों और बिल्डरों की सांठ-गांठ पर केंद्रित इसके एक एपिसोड में एक पुरानी फिल्मी कव्वाली 'इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो' को इस तरह पेश किया गया कि काफी समय तक लोगों को असली गाना ही भूल गया। ध्यान रहे, उल्टा-पुल्टा और फ्लॉप शो का समय वही था, जब पंजाब खालिस्तानी हिंसा का शिकार था और पूरे देश में यह शक पैदा हो गया था कि अपनी जिंदादिली के लिए पूरी दुनिया में मशहूर इस राज्य का जनजीवन कभी पटरी पर आ पाएगा या नहीं। उस कठिन दौर में सोशल-पॉलिटिकल कॉमिडी के सरताज जसपाल भट्टी और गजलों के बादशाह जगजीत सिंह ने अपने-अपने हुनर के जरिये बिना किसी शोरशराबे के देश को कुछ खतरनाक स्टीरियोटाइप्स का शिकार होने से बचा लिया।
उसी माहौल में किसी ने भट्टी से पूछा था कि आपने हर चीज पर अपनी धार आजमाई, लेकिन पंजाब समस्या पर कुछ क्यों नहीं कहा? जवाब था कि जिसे भी मौका मिलता है, वह इस पर कुछ न कुछ कह ही डालता है, ऐसे में पंजाब समस्या पर मेरी चुप्पी को ही क्यों न इसके समाधान में मेरा योगदान मान लिया जाए। महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक हर बड़े मुद्दे पर अपने इसी धारदार विट के साथ जसपाल भट्टी अंत तक सक्रिय रहे और अपने पीछे एक रेखा खींचकर गए कि हास्य-व्यंग्य में किसी को कुछ खास करना है तो उसको यहां तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए।"
राष्ट्रीय सहारा ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैः
मौजूदा दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का दौर है। यह साझा हम निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में हर कहीं देख सकते हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य और व्यंग्य की चुटिलता भोंडेपन में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो था ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे। आज ही उनकी एक फिल्म ‘पावर कट’ रिलीज हो रही है, जिसका अब लोगों को पहले से भी ज्यादा बेसब्री से इंतजार है। भट्टी ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से थी, जो बाद में और प्रखर होती गई। उनका हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से भरा था और उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल उछाले। नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक काटरूनिस्ट के तौर पर हुआ था। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी ‘ट्रिब्यून’ अखबार के लिए काटरून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और काटरून व व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपने ‘मैसेज’ को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे। सही मायने में कहें तो जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों और टेलीविजन सीरियलों में उठाते रहे थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक इस्तेमाल जरूर किया पर खुद भट्टी कभी अपनी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही, उन लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि उनका व्यक्तित्व पंजाबियत में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए। जसपाल भट्टी की स्मृतियों को नमन।
राष्ट्रीय सहारा ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैः
मौजूदा दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का दौर है। यह साझा हम निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन में हर कहीं देख सकते हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य और व्यंग्य की चुटिलता भोंडेपन में तब्दील होती जा रही है। ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो था ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे। आज ही उनकी एक फिल्म ‘पावर कट’ रिलीज हो रही है, जिसका अब लोगों को पहले से भी ज्यादा बेसब्री से इंतजार है। भट्टी ने इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से थी, जो बाद में और प्रखर होती गई। उनका हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से भरा था और उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा आम आदमी रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल उछाले। नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक काटरूनिस्ट के तौर पर हुआ था। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी ‘ट्रिब्यून’ अखबार के लिए काटरून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और काटरून व व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपने ‘मैसेज’ को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे। सही मायने में कहें तो जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों और टेलीविजन सीरियलों में उठाते रहे थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक इस्तेमाल जरूर किया पर खुद भट्टी कभी अपनी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही, उन लोगों के लिए एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि उनका व्यक्तित्व पंजाबियत में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए। जसपाल भट्टी की स्मृतियों को नमन।
Friday, August 17, 2012
फ़िल्म और गीतों की ज़बान एक है गैंग्स ऑफ वासेपुर में
वरूण ग्रोवर द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो(2004-06) और SAB टीवी के धारावाहिक सबका भेजा फ्राई(2007) के लेखक रहे हैं । बतौर गीतकार अनुराग कश्यप ने ही 2010 में रिलीज द गर्ल इन यलो बूट्स में उन्हें पहला ब्रेक दिया था। दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न ओसियान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई हिंदी फिल्म प्राग में भी उन्होंने ही गीत लिखे हैं । यह फिल्म जल्द ही कमर्शियली रिलीज की जानी है। उनके लिखे फिल्म ' गैंग्स ऑफ वासेपुर ' के गीत इन दिनों हर किसी की जबान पर हैं। वरुण ग्रोवर ने बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से सिविल इंजिनियरिंग की है। पढ़ाई के दौरान ही वे नाटकों के लिए गीत लेखन करने लगे थे। यही उनके फिल्मी करिअर के लिए होम वर्क भी साबित हुआ। उनसे अनुराग वत्स की यह बातचीत 28 जुलाई,2012 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित है:
फिल्मी गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? कविता लिखने से यह कितना अलग है?
यह सिलसिला बहुत शानदार रहा। फिल्मी गीतों और फिल्मों से मेरा जुड़ाव ही रेडियो के कारण हुआ। बचपन में लखनऊ में मैं और मेरा स्कूल का बहुत अच्छा दोस्त संदीप सिंह रोज सुबह विविध भारती का चित्रलोक कार्यक्रम सुनकर आते थे। बाकी बच्चे स्कूल की प्रार्थना कर रहे होते थे जबकि मैं और संदीप आज कौन सा नया गाना सुना, इस पर बतिया रहे होते थे। अब अपने ही लिखे गीत रेडियो पर बजते हैं तो लगता है जैसे यह कोई और ही जनम है। विविध भारती के कारण ही गीत-कविता लिखने का शौक हुआ। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के आईआईटी से मैंने सिविल इंजिनियरिंग की। वहां नाटक खूब होते थे। वहीं नाटकों में गीत लिखना शुरू किया। वही मेरे लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम था गीत लेखन का। वह सब मुंबई में अब बहुत काम आ रहा है। गीत और कविता में मेरे हिसाब से बहुत फर्क नहीं है। आत्मा तो एक ही है। बस गीत में जरा मीटर का ध्यान रखना पड़ता है। वह भी, जब स्नेहा खानवलकर जैसी संगीतकार मिल जाए तो आसान हो जाता है। स्नेहा शब्दों को बहुत अहमियत देती हैं और धुन को शब्दों के हिसाब से थोड़ा-बहुत मोड़ने में ना-नुकुर नहीं करतीं।
आपने जो गीत लिखे हैं वह बॉलिवुड के मौजूदा ट्रेंड से बहुत अलग हैं। क्या यह फर्क अनुराग कश्यप सरीखे फिल्म मेकर की वजह से है जो ख़ुद टिपिकल बॉलिवुड फिल्म मेकिंग में कम यकीन रखते हैं।
फर्क अनुराग और स्नेहा दोनों की वजह से ही है। अनुराग ने खुला मैदान दिया और स्नेहा ने उसमें पतंग उड़ाई। इतनी क्रिएटिव फ्रीडम मिली अनुराग की तरफ से कि लगा ही नहीं किसी हिंदी फिल्म के लिए गीत बना रहे हैं। उन्होंने बस स्क्रिप्ट पकड़ा दी और कहा कि खुद पढ़ो और सोचो, कहां कहां गाने आ सकते हैं। हमने फिर खुद ही बहुत से गीत बना लिए। बहुत बाद तक पता भी नहीं था कि ये फिल्म में कहां फिट होंगे। बहुत अनोखा क्रिएटिव प्रोसेस रहा।
गैंग्स ऑफ वासेपुर के गीतों में एक तरफ फोक का टच और दूसरी तरफ नए जमाने की धड़कन है। यह आप कैसे मुमकिन कर सके?
आधार लोक गीतों को ही रखा गया। रिसर्च उन्हीं पर हुई। स्नेहा दो महीना बिहार भ्रमण कर के आईं। सन 2010 की भरी गर्मियों में, सुबह-शाम सत्तू पी-पी कर बिहार और झारखंड के अनेक जिलों से गायक, लोक गीत, लोक गीतों पर किताबें और कुछ मजेदार शब्द बटोर कर लाईं। ये चीजें बाद में मेरे बहुत काम आईं। 'जियs हो बिहार के लाला' और 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' का मुखड़ा हमें इसी रिसर्च से मिला। और 'हमनी के छोरी के नगरिया बाबा' तो पूरा का पूरा ही लोक गीत है। एक और सच यह है कि स्नेहा मूड से बहुत समकालीन है। दुनिया भर का इलेक्ट्रॉनिक संगीत सुनती है और खुद भी बनाती है। उसने सोच रखा था कि लोक संगीत को एक नई खिड़की से दिखाना है। तो लोक और इलेक्ट्रॉनिक संगीत के इस मिश्रण को मुझे भी अपने शब्दों से मिलाना पड़ा।
इसके पीछे क्या यह मंशा थी कि इस तरह के प्रयोगों से बड़ी ऑडिएंस का ध्यान खींचना है?
ऑडिएंस को समझने की, लुभाने की, बहलाने-फुसलाने या उन पर जल चढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की। अपनी समझ और फिल्म व संगीत के दम पर जो सबसे अच्छा लगा वो लिख दिया। फिल्म की भाषा में ही लिखना है, बस यही तय किया था।
वुमनिया सरीखे गीतों के पीछे की प्रेरणा क्या है? इसमें गाली भी है, हंसी-ठिठोली भी।
फिल्म में तीन पीढ़ियों की कहानी है। ढेर सारे किरदार हैं और थोड़ी-थोड़ी देर पर एक शादी होती है। तो यह तय था कि शादी का गीत होगा। फिर बिहार में प्रथा है कि शादी के गीत थोड़े शरारती, कभी-कभी गाली भरे भी होते हैं। मेरी पत्नी झारखंड की है। मुंहझौंसा शब्द उसकी बहुत अच्छी दोस्त की सबसे पसंदीदा गाली है। मेरी शादी में भी कुछ ऐसे ही गीत बजे थे। 'रामलाल बुढ़वा के फूटे कपार, तुमरे करम में जोरू नहीं' एक गीत अब तक याद है। इसलिए मुझे अंदाजा था कि कितनी सीमाएं लांघी जा सकती हैं। इस पर काफी दिमाग लगाया जा रहा था कि वासेपुर के लिए शादी का क्या गीत बनाएं। तब स्नेहा के दिमाग में बस यह शब्द वुमनिया आया। उस पर लिखना शुरू किया और यही सोचा कि थोड़ा बेशर्म होकर लिखते हैं। और जैसे ही 'बदले रुपय्या के देना चवनिया' लाइन मिली, गीत का पूरा टोन सेट हो गया। बेशर्मी है, लेकिन लिहाज भी है।
चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी।
चित्रःदिल्ली में ओसियान फिल्म समारोह,2012 के दौरान ली गई इस तस्वीर में वरूण ग्रोवर की दांयी ओर हैं फिल्म समीक्षक श्री पांडेय राकेश श्रीवास्तवजी।
Sunday, July 29, 2012
पिया के नगरिया
राजा देवघर चल
भोजपुरी कांवर भजन, राजा देवघर चल, वीसीडी अलबम, गायकः आनंद तिवारी, प्रतिभा सिंह, संगीतःनगेन्द्र-नृपांश, गीतकार- जख्मी जितेन्दर, कंपनीःएमएमवी
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Thursday, July 26, 2012
ऐसे बनती हैं फ़िल्में
क्या आप लोगों को कहानियां सुनाते हैं? दोस्तों के बीच बैठकर किस्से सुनाना आपको पसंद है? आपको मजा आता है किसी पुरानी घटना को मिर्च-मसाला लगाकर चटखारों में तब्दील करने में? अगर हां, तो आप फिल्म-मेकर बन सकते हैं। बस आपको अपने अंदर एक इच्छा पैदा करनी है कि मुझे फिल्म बनानी है। बाकी सब यहां है।
क्यों बनानी है फिल्म?
तो पहले इस क्यों का जवाब दीजिए। क्यों बनाना चाहते हैं आप फिल्म? एक - आपको किस्से-कहानियां सुनाने का शौक है और आप उन किस्सों को फिल्म के रूप में ढालना चाहते हैं। दूसरे - आप फिल्मों को लेकर गंभीर हैं और पूरी गंभीरता से ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं, जिसे दुनिया देखे। ये दोनों ही काम मजेदार हैं। दोनों के ही नतीजे बेहद दिलचस्प हो सकते हैं। और दोनों ही बहुत मेहनत मांगते हैं।
तो फर्क क्या है?
शौक के लिए: फिल्म बनाना एक खर्चीला काम है। अगर आप सिर्फ शौक के लिए फिल्म बनाना चाहते हैं तो आप कम खर्च में ऐसा कर सकते हैं। शौकिया फिल्म आप किसी अच्छे कैमरे वाले स्मार्ट फोन या हैंडिकैम से भी बना सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इन फिल्मों की अहमियत कम होगी। मोबाइल से बनी फिल्में भी अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिखाई जा रही हैं। इसलिए यह मत समझिए कि आप मोबाइल या किसी छोटे कैमरे से फिल्म बना रहे हैं तो कोई कमतर काम कर रहे हैं या उसके लिए कम गंभीरता की जरूरत होगी। बस आपका काम कम पैसों और कम संसाधनों से हो जाएगा। मोबाइल या छोटे कैमरे से बनाई जा रही फिल्म के लिए आप चाहें तो अपने दोस्तों से ही ऐक्टिंग करा सकते हैं। उनमें से ही कोई आपके लिए कोई म्यूजिक बना सकता है। और फिल्म को रिलीज करने या उसकी स्क्रीनिंग करने का भी 'झंझट' नहीं है।
प्रफेशनल फिल्म-मेकिंग:
यह थोड़ा बड़ा काम है। इसमें मेहनत ज्यादा है। सिर खपाई ज्यादा है। बजट ज्यादा है। पर इतना सारा काम क्या हम आप जैसा इंसान कर सकता है? बिना किसी प्रफेशनल फिल्म मेकिंग ट्रेनिंग के? बिना किसी पढ़ाई-लिखाई के? यह सवाल बहुत जरूरी है। और फिल्म बनाने की सोचते वक्त ही आपके जहन में यह बात आएगी कि मुझे तो फिल्म बनानी नहीं आती, मेरे पास कोई ट्रेनिंग भी नहीं है। फिर मैं कैसे फिल्म बना सकता हूं। जेम्स कैमरन, टाइटैनिक वाले, कभी किसी फिल्म स्कूल में नहीं गए। क्रिस्टोफर नोलन, बैटमैन वाले, का कॉलेज में छोटी-छोटी फिल्में बनाने से करियर शुरू हुआ था। मधुर भंडारकर, चांदनी बार वाले, विडियो लाइब्रेरी चलाते थे। फिल्म बनाना एक आर्ट है। उसकी ट्रेनिंग अगर आपके पास है तो आपका तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत हो सकता है। लेकिन कहानी सुनाना, मजेदार ढंग से सुनाना, यह आपको कोई नहीं सिखा सकता।
अगर आप प्रफेशनल तरीके से फिल्म बनाना चाहते हैं, तब आपको बजट कुछ ज्यादा चाहिए होगा। जब बजट शब्द का इस्तेमाल हो तो समझिए फिलहाल हम 10-15 मिनट की एक छोटी-सी फिल्म की ही बात कर रहे हैं। इस फिल्म के लिए भी आपको कैमरा (अक्सर एक कैमरा कम होता है), ऐक्टर (अगर डॉक्युमेंट्री नहीं है तो), एडिटर और एडिटिंग सॉफ्टवेयर की जरूरत होगी। इसके लिए आपको पूरी एक टीम जुटानी होगी। फिल्म के लिए आपको कहानी, स्क्रिप्ट, शूटिंग, डायरेक्शन, ऐक्टिंग, एडिटिंग और म्यूजिक की जरूरत होगी। अब आप देखिए कि इनमें से कितने काम आप खुद कर सकते हैं। बाकी सबके लिए आपको साथियों की जरूरत होगी।
क्या बनाना चाहते हैं?
अब आप फिल्म बनाने का मन बना चुके हैं। तो यहां खुद से पूछिए कि आप क्या बनाना चाहते हैं। सिनेमा को कैटिगरी में डालना आसान तो नहीं है। फिर भी प्रॉडक्शन के लिहाज से मोटा-मोटा सोचें, तो आप दो तरह की फिल्में बना सकते हैं। डॉक्युमेंट्री व फीचर फिल्म।
दोनों ही कहानी कहने के तरीके हैं। डॉक्युमेंट्री फिल्म में आप दस्तावेजों के आधार पर सच्ची कहानी कहते हैं और फीचर फिल्म में अपने मन की कहानी कहते हैं। डॉक्युमेंट्री में एक विषय चाहिए, उसके लिए रिसर्च चाहिए, विषय के हिसाब से इंटरव्यू करने के लिए लोग चाहिए। यह इस पर निर्भर करेगा कि आप क्या कहानी कहना चाहते हैं? मसलन, अगर आप अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्म में कॉलेज के उन बच्चों की कहानी सुनाना चाहते हैं, जो दिल्ली से बाहर से आते हैं पढ़ाई करने के लिए। तो सबसे पहले आपको जानना-समझना होगा कि उनकी जिंदगी कैसी होती है। फिर आप कुछ ऐसे लोग चुनेंगे, जिन्हें आप अपनी फिल्म के लिए इंटरव्यू करेंगे। आप उन जगहों को चुनेंगे, जहां-जहां आप शूट करेंगे। फीचर फिल्म में आपको कहानी, स्क्रिप्ट और ऐक्टर चाहिए। उसके बाद का काम दोनों के लिए एक जैसा है।
कैसे बनेगी फिल्म?
फैसले लेने का काम हो चुका है। अब फिल्म बनाने का काम शुरू किया जाए। फिल्म बनाने का काम तीन चरणों में बंटा है। आप छोटी फिल्म बनाएं या बड़ी, इन्हीं तीन चरणों से आपको गुजरना होगा। प्री-प्रॉडक्शन, शूट और पोस्ट प्रॉडक्शन।
प्री-प्रॉडक्शन
यह है तैयारी का दौर। बड़े-बड़े फिल्मकार एक ही बात कहते हैं, फिल्म कागज पर बनती है। आपको सारा काम कागज पर कर लेना होगा। प्लानिंग से लेकर कहानी तक, सब कुछ आपके पास लिखित में होना चाहिए। फिल्म बनाने के लिए जिन-जिन चीजों की आपको जरूरत है, वे सब आपको कागज पर उतारनी होंगी।
कहानी:
फिल्म कहानी कहने का जरिया ही तो है। इसलिए आपके पास कहने को कोई कहानी होगी, तभी आपने फिल्म बनाने के बारे में सोचा। लेकिन उस कहानी को लिख लेना बहुत जरूरी है। जब आप उसे कागज पर सिलसिलेवार उतार रहे होंगे, तब आपको उसकी खूबियां और खामियां नजर आएंगी। तब आप उसे बेहतर बना पाएंगे। और हम छोटी फिल्म के लिए कहानी तैयार कर रहे हैं, तो कुछ बातें हैं जिनका आपको ध्यान रखना होगा।
1. छोटी और चुस्त कहानी तैयार करें। हम 10-15 मिनट की फिल्म बना रहे हैं। इसके लिए आप कहानी में ज्यादा मोड़ और घुमाव रखने से बचें। कहानी जितनी छोटी होगी, उतनी चुस्त होगी। कहानी जितनी चुस्त होगी, फिल्म उतनी दिलचस्प होगी। और याद रखिए, आप जैसी मर्जी फिल्म बनाएं, बोरिंग फिल्म कभी न बनाएं। महान फिल्मकार फ्रैंक कापरा कहते हैं कि फिल्म मेकिंग में कोई नियम नहीं हैं, बस पाप हैं और सबसे बड़ा पाप है बोरिंग फिल्म बनाना।
2. अपनी कहानी में कम-से-कम किरदार रखें। छोटी फिल्म यानी कम वक्त में आपको पूरी कहानी कहनी है। फिल्म में आपको हर किरदार को बखूबी परिचित कराना होता है। अगर एक भी किरदार दर्शक को समझ नहीं आया, तो दर्शक बाकी किरदारों को छोड़कर उसके बारे में सोचता रहेगा और आपका मकसद यानी कहानी कहना, पूरा नहीं हो पाएगा। इसलिए आपको चाहिए कि कहानी लिखते वक्त ही कम-से-कम किरदार रखें। बहुत सारी शॉर्ट फिल्में, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवॉर्ड मिले, दो-तीन किरदारों से ही बनी थीं। इसका एक फायदा यह भी है कि आपको कम-से-कम ऐक्टर लेने होंगे।
3. कहानी ऐसी हो कि उसके ज्यादा-से-ज्यादा हिस्सों को एक ही जगह शूट किया जा सके। फिल्म ऐसा खूबसूरत मीडियम है कि आप पूरी दुनिया की कहानी को एक कमरे में दिखा सकते हैं। और सिर्फ एक कमरे में घटी घटना को दिखाने के लिए पूरी दुनिया भी छोटी पड़ जाएगी। इसलिए जब आप कहानी लिख रहे हैं तो सोचें, आपका बजट, आउटडोर शूटिंग की मुश्किलें, विषय का भटकाव। यह आपकी पहली फिल्म है। आपका पूरा ध्यान अच्छी फिल्म बनाने पर होना चाहिए। इसलिए शूटिंग के काम को फैलने से बचाएं। कम-से-कम जगह पर ज्यादा-से-ज्यादा शूट करने से आपके कई झंझट बचेंगे। ऐसी कई शॉर्ट फिल्में हैं, जो एक ही कमरे में शूट कर ली गईं और बेहतरीन बनीं।
स्क्रिप्ट: कहानी तैयार हो जाने के बाद आपको स्क्रिप्ट लिखनी होगी। नहीं, कहानी स्क्रिप्ट नहीं होती। स्क्रिप्ट का मतलब है कहानी को सीन-दर-सीन लिख लेना। यानी जब आपकी फिल्म स्क्रीन पर आएगी तो कैसे दिखेगी। पहले कौन-सा सीन होगा, उसके बाद कौन-सा। स्क्रीन पर कैसे-कैसे, क्या-क्या घटेगा। यह सब स्क्रिप्ट में होता है।
ऐसे समझिए: कहानी है - वह घर पहुंचा। पता चला कि चाबी उसके पास नहीं है। उसे याद आया कि घर की चाबी दफ्तर में ही भूल आया है। और उसका फुटबॉल मैच छूट गया।
रफ स्क्रिप्ट:
सीन 1- वह सीढ़ियां चढ़ रहा है। उसके एक हाथ में बैग और एक अखबार है। दूसरे से वह अपनी जेब में चाबी तलाश रहा है।
सीन 2- वह दरवाजे के सामने खड़ा है। उसने बैग जमीन पर रख दिया है। वह बहुत बेचैनी से दोनों हाथों से अपनी जेबें तलाश रहा है।
सीन 3- वह ताले को हाथ में पकड़े उसकी ओर देख रहा है।
सीन 4- वह दरवाजे के बाहर हताश होकर बैठ गया है। बैग उसके पास रखा है। पास ही में अखबार खुला पड़ा है। कैमरा उसके चेहरे से अखबार की हेडलाइन तक जाता है, जहां लिखा है - वर्ल्ड कप फुटबॉल का फाइनल आज शाम।
यह स्क्रिप्ट का बेहद रफ नमूना है। अच्छी स्क्रिप्ट में आप कहानी की सारी बारीकियां लिखते हैं। किरदारों के कपड़ों से लेकर कैमरे के मूवमेंट तक, सब कुछ। याद रखिए, स्क्रिप्ट कागज पर जितनी महीन होगी, फिल्म कैमरे से उतनी ही ज्यादा अच्छी शूट होगी।
टीम
आपकी फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है। अब आपको पता है कि आपको कितने ऐक्टर चाहिए। चलिए अब फिल्म बनाने के लिए टीम बनाते हैं। चूंकि यह आपकी फिल्म है तो डायरेक्ट आप ही करना चाहेंगे। तो सोचिए इसके अलावा आपको क्या-क्या काम करने हैं : ऐक्टिंग, मेकअप, कॉस्ट्यूम, सेट डिजाइन, लाइटिंग कैमरा, एडिटिंग, म्यूजिक। इनके अलावा भी फिल्म बनाने में दर्जनों काम होते हैं। लेकिन ये बेसिक यानी ऐसे काम हैं, जिनके बिना फिल्म पूरी नहीं होगी। अब आप देखिए कि इनमें से कौन-कौन से काम आप खुद कर सकते हैं और किस-किस काम के लिए आपको साथियों की जरूरत होगी। उसी हिसाब से आप अपनी टीम चुनेंगे।
इक्विपमेंट्स
स्क्रिप्ट तैयार है। टीम तैयार है। अब आप शूटिंग के लिए उपकरण जमा कीजिए। इनमें सबसे जरूरी है कैमरा। आप अपनी कहानी और बजट के हिसाब से तय करें कि आपको कैसा कैमरा चाहिए। मोबाइल फोन से लेकर बड़े-बड़े कैमरे तक, सबसे फिल्म बनाई जा सकती है। आजकल मोबाइल फिल्म फेस्टिवल होते हैं, जहां मोबाइल फोन से शूट की गईं 3-4 मिनट की फिल्में दिखाई जाती हैं। फिर आजकल बाजार में ऐसे अच्छे हैंडिकैम उपलब्ध हैं, जिनसे आप ठीक-ठाक शूट कर सकते हैं। उनसे शूट की क्वॉलिटी अच्छी होती है और उनकी फिल्में बड़े पर्दे पर भी दिखाई जा सकती हैं। हैंडिकैम से बनाई गईं फिल्में दुनिया कई बड़े फिल्म फेस्टिवलों में जगह पा चुकी हैं। भारत में इस वक्त हैंडिकैम से खूब फिल्में बनाई जा रही हैं। ज्यादातर गैर-पेशेवर फिल्ममेकर ऐसे ही फिल्में बना रहे हैं। इसी हिसाब से तय होगा कि आपको किसी फॉर्मैट में शूट करना है। अगर आप प्रफेशनल कैमरे का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो आपको टेप लेनी होंगी। लेकिन आजकल डिजिटल फॉर्मैट ने फिल्म मेकिंग को इतना आसान कर दिया है कि कार्ड पर शूट करना काफी आसान रहता है। कैमरे के अलावा आपको माइक, लाइट, मेकअप, कॉस्ट्यूम्स वगैरह की जरूरत होगी, जो आप अपनी फिल्म के हिसाब से चुनेंगे। बस इतना ध्यान रखिए कि इन सबकी जरूरत फिल्म को और महीन, और बेहतर बनाने में पड़ती है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इनके बिना फिल्म बनाई नहीं जा सकती। यानी आपके किरदार अगर खास कॉस्ट्यूम न पहनकर रोजमर्रा के कपड़े ही पहन लें, तो भी क्या फर्क पड़ता है, बस ऐक्टिंग अच्छी करें।
शूटिंग से पहले
अब सब तैयार है। शूटिंग शुरू कर सकते हैं। लेकिन रुकिए। शूटिंग की जल्दी मत कीजिए। एक काम बाकी है। यह ज्यादा बड़ा लगता नहीं, लेकिन इसकी अहमियत बाकी किसी भी काम से कम नहीं है। मीटिंग। शूटिंग शुरू करने से पहले अपनी पूरी टीम के साथ बैठें। एक-एक पहलू पर विस्तार से चर्चा करें। लोगों की राय लें। सबके नजरिये समझें। अपना नजरिया उन्हें समझाएं। उन्हें बताएं कि आप किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि जब शूटिंग शुरू हो, तब सबके जेहन में यह बात स्पष्ट हो कि बनने के बाद यह फिल्म कैसी दिखेगी क्योंकि तभी काम में एकरूपता आ पाएगी और फिल्म वैसी बन पाएगी, जैसी आप चाहते हैं।
अब शूटिंग
किसी फिल्म की शूटिंग देखी है आपने? यह बहुत बोरिंग काम होता है। डायरेक्टर और कैमरामैन के अलावा, बाकी सभी लोगों का हिस्सा थोड़ा-थोड़ा होता है। आपको उन सबको काम से जोड़े रखना होगा। शॉर्ट फिल्मों में यह आसान होता है। ज्यादातर लोग एक से ज्यादा काम कर रहे होते हैं। छोटी टीम होती है। सब लोगों को इन्वॉल्व करके काम किया जा सकता है। शूटिंग में कैमरे का काम बहुत अहम होता है। यही तय करता है कि आपकी कहानी पर्दे पर कैसी नजर आएगी। इसलिए बेहतर होगा कि आप शूटिंग पर जाने से पहले ही कैमरे के बारे में पढ़ें। जानें कि वह क्या-क्या कर सकता है। और उस जानकारी का शूटिंग में इस्तेमाल करें। शूटिंग में कुछ बातों का ख्याल रखें :
1. हर सीन को एक से ज्यादा बार शूट कर लेना अच्छा होता है।
2. वह भी शूट करें, जो आपको लगता है कि काम नहीं आएगा। जब आप एडिट करने बैठेंगे, तब आपको ऐसे बहुत-से शॉट्स की जरूरत होगी, जिनके बारे में आपने शूट करते वक्त सोचा भी नहीं था।
3. हर सीन को एक से ज्यादा एंगल्स से शूट करें। एडिट करते वक्त आपको पता चलेगा कि हर एंगल की अलग अहमियत हो जाती है, जब वे एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं। इसलिए शूट करते वक्त कंजूसी न बरतें। जितना हो सके, शूट करें। स्क्रिप्ट में आपने बहुत कुछ लिखा होगा। उसके अलावा भी कुछ सूझे तो उसे कैमरे में कैद कर लें। जैसे अगर आप डॉक्युमेंट्री शूट कर रहे हैं, तो इंटरव्यू करते वक्त उस पूरी जगह को शूट करें। जितनी ज्यादा फुटेज होगी, आपकी एडिटिंग में उतना ही तीखापन होगा। आप यूं समझिए कि 5 मिनट की फिल्म के लिए 3-4 घंटे के फुटेज की जरूरत होगी।
पोस्ट-प्रॉडक्शन
बधाई हो। शूटिंग पूरी हुई। बड़ा काम निपटा लिया आपने। लेकिन... अभी ज्यादा बड़ा काम बाकी है। जिसमें ज्यादा वक्त भी लगता है, ज्यादा मेहनत भी और ज्यादा झंझट भी।
एडिटिंग:
अगर आप खुद एडिटिंग कर सकते हैं, तो बहुत अच्छा। अगर आपको किसी से एडिट कराना है, तब आप सबसे पहला काम तो यह कीजिए कि इंटरनेट पर जाइए और एडिटिंग के बेसिक पढ़िए। बड़े फिल्मकार कहते हैं कि फिल्म एडिटिंग टेबल पर ही बनती है। इसलिए एडिटिंग को समझना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि आप अपनी फिल्म को जानते हैं, पहचानते हैं। आप समझते हैं कि आपकी फिल्म स्क्रीन पर कैसी दिखेगी। अब अपनी यह सोच आपको एडिटर के दिमाग में डालनी है। और ऐसा आप तभी कर पाएंगे, जब आप खुद एडिटिंग को समझते हों। डिजिटल दुनिया ने एडिटिंग बहुत आसान कर दी है। अब विंडोज में भी एडिटिंग का सॉफ्टवेयर मूवी-मेकर उपलब्ध है। यह बेहद आसान है और आप यू-ट्यूब पर जाकर सीख सकते हैं कि यह काम कैसे करता है। उसके बाद आप खुद अपनी फिल्म एडिट कर सकते हैं।
या फिर आप किसी एडिटर से एडिट करवाइए। एडिटर अक्सर प्रति घंटा चार्ज करते हैं। तो आप किसी स्टूडियो में जाकर अपनी फिल्म को एडिट करा सकते हैं। एडिटिंग ऐसा काम है, जिसमें बहुत ज्यादा वक्त लगता है। सही जगह सही शॉर्ट खोजना, उसे सही टाइमिंग के साथ लगाना, उसमें सही रंगों का समावेश करना। यह सब बहुत मुश्किल और ध्यान से किया जाने वाला काम है। इसके लिए वक्त के साथ-साथ धीरज की भी जरूरत होती है। लेकिन यकीन कीजिए, जैसे-जैसे एडिटिंग आगे बढ़ती है, आपकी फिल्म साकार होने लगती है। और अपनी फिल्म को साकार होते देखने से ज्यादा सुकून कहीं नहीं है।
म्यूजिक
म्यूजिक फिल्म का बहुत अहम हिस्सा है। फिल्म अगर शरीर है तो म्यूजिक उसमें बसने वाली भावनाएं हैं। आपका दर्शक आपके किसी खास सीन को देखकर क्या महसूस करेगा, यह म्यूजिक पर ही निर्भर करेगा। वह कब हंसेगा, कब रोएगा, उसे म्यूजिक से पता चलेगा। इसलिए इस पर ध्यान देना जरूरी है। एक बात समझिए। फिल्म में म्यूजिक का मतलब सिर्फ गाने या बैकग्राउंड स्कोर नहीं है। यह फिल्म का पूरा साउंड डिजाइन है। इसलिए इस पर मेहनत करें। म्यूजिक बहुत महंगा काम है। दो तरीके हैं। या तो कोई म्यूजिशन खोजिए और उससे फिल्म का म्यूजिक बनवाइए। ऐसे बहुत से नए संगीतकार हैं, जो मौकों की तलाश में रहते हैं। जैसे आप नए फिल्मकार हैं और संगीत खोज रहे हैं, वे नए संगीतकार होंगे, जो फिल्म खोज रहे होंगे। बस आपको सही व्यक्ति तक पहुंचना होगा। सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रचार इसमें बहुत काम आ सकता है। दूसरा तरीका यह है कि इंटरनेट की मदद लीजिए। इंटरनेट पर ऐसी कई वेबसाइट हैं, जहां मुफ्त म्यूजिक उपलब्ध है। वहां नए संगीतकार अपना म्यूजिक डाल देते हैं। आप उस म्यूजिक को बिना कोई पैसा दिए इस्तेमाल कर सकते हैं। बस आपको संगीतकार का नाम देना होता है। वहां काफी म्यूजिक होगा, जिसमें से आप अपनी फिल्म के मूड के मुताबिक म्यूजिक चुन सकते हैं।
सब टाइटल्स
शॉर्ट फिल्म में सब-टाइटल्स होने ही चाहिए क्योंकि इनका दर्शक वर्ग बड़ा होता है। ये फिल्में इंटरनेट के जरिए दुनिया भर में फैलती हैं। और तब सब-टाइटल्स जरूरी हो जाते हैं, इसलिए उन्हें पहले से ही तैयार रखें। एडिटिंग के दौरान या म्यूजिक लगाते वक्त साथ ही सब-टाइटल्स भी लगा दें। पढ़ने में यह सब काम चुटकियों में होता नजर आ रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। इसमें काफी वक्त और ऊर्जा खर्च होगी। और आखिर में आप लगाएंगे टाइटल्स। यानी आपका और आपकी टीम का नाम। जब आप अपना नाम स्क्रीन पर देखेंगे न, सच... बहुत अच्छा लगेगा।
अब क्या करें?
लीजिए साहब... बहुत-बहुत बधाई। आपकी पहली फिल्म तैयार है। एडिटिंग के बाद इसकी एक मास्टर टेप बनवा लेनी है। कुछ डीवीडी भी। अब किया क्या जाए? देखिए, आप भारत में हैं। यहां छोटी फिल्मों का वर्तमान कुछ नहीं है। हां, भविष्य बहुत उज्ज्वल है। तो आपके पास ज्यादा ऑप्शंस नहीं हैं। आप अपनी फिल्म के साथ दो काम कर सकते हैं।
इंटरनेट
अपनी फिल्म को यूट्यूब पर अपलोड कर दीजिए। वहां शॉर्ट फिल्म्स के बहुत सारे दर्शक हैं। यूट्यूब जैसी ही कई और वेबसाइट हैं, जहां शॉर्ट फिल्म्स के लिए काफी स्पेस है। इसके जरिए आपकी फिल्म पूरी दुनिया में देखी जाएगी। तारीफ भी होगी और आलोचना भी। इससे आपको खुशी भी मिलेगी और सीखने का मौका भी।
फेस्टिवल
दुनिया भर में शॉर्ट फिल्मों के फेस्टिवल होते हैं। वहां अपनी फिल्म को भेजिए। इंटरनेट पर सर्च कीजिए कि कहां-कहां आपकी फिल्म भेजी जा सकती है। उस हिसाब से उसे हर जगह भेजिए। कई फेस्टिवल में एंट्री फ्री होती है। अगर आपकी फिल्म फेस्टिवल में चुनी जाती है तो यह बहुत बड़ी बात होगी। और अवॉर्ड तक पहुंच गई, तो समझिए आप अखबारों की सुर्खियों में होंगे।
खास वेबसाइट्स
यह नए फिल्मकारों के लिए बड़े काम की वेबसाइट है। यहां अकाउंट बना सकते हैं, जिसके जरिए आप तमाम फिल्म फेस्टिवल्स से जुड़ जाते हैं। इसका कई फिल्म फेस्टिवल्स के साथ करार है व इसी के जरिए फिल्म सबमिट की जाती है।
http://vimeo.com यहां आप अपना विडियो अपलोड करके करोड़ों लोगों तक उसे पहुंचा सकते हैं। कई फिल्म फेस्टिवल भी यहां से फिल्म लेते हैं। सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपकी फिल्म को उस सर्कल के लोग देखते हैं, जिनकी सिनेमा में दिलचस्पी है।
Vikalp@Prithvi इंटरनेट पर कई ऐसे ग्रुप्स हैं, जहां नए-पुराने फिल्मकार अपनी बातें साझी करते रहते हैं। विकल्प फेसबुक पर ऐसा ही एक ग्रुप है। विकल्प नई फिल्मों को प्रदर्शित करने का भी काम करता है।
http://www.indieproducer.net यह भी फिल्म मेकर्स का ही एक जमावड़ा है। इस वेबसाइट पर अक्सर प्रतियोगिताएं होती हैं, जिनमें आप शामिल हो सकते हैं।
Sunday, May 27, 2012
कोलकाता में बिहार शताब्दी समारोह
कोलकाता के नेताजी इंडोर स्टेडियम में बिहार शताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में 27 मई 2012 को आयोजित कार्यक्रम में भोजपुरी अभिनेता व गायक मनोज तिवारी तथा अभिनेत्री व गायिका प्रतिभा सिंह।
Tuesday, May 22, 2012
'कलकतिया भउजी' में गायिका की भूमिका में प्रतिभा सिंह
भोजपुरी गायिका प्रतिभा सिंह फिल्म कलकतिया भउजी में गायिका की भूमिका अदा कर रही हैं। फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी है। फिलहाल उन्होंने छपरा के समीप तरइयां रामबाग गांव में अपनी दो दिन की शूटिंग आज रविवार 27 मई 2012 को पूरी की। शेष शूटिंग जल्द ही कोलकाता में होगी। इस फिल्म के निर्देशक हैं अशोक जायसवाल, जिन्होंने प्रतिभा सिंह के म्यूज़िक एलबम 'मेहरारू ना पइब' का निर्देशन किया है। प्रतिभा सिंह ने इसके पहले भी कई फिल्मों में अभिनय किया है जिनमें प्रमुख हैं भाई हो त भरत नियन, बहिना तोहरे खातिर। इस फिल्म में अनुराग नायक एवं मीरा नायिका की भूमिका में हैं। इंद्राणी सिंह एवं डाली आदि ने भी इसमें अभिनय किया है।
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