एक राजमहल जैसा भव्य कॉलेज। सामने तीन सीनियर लड़के नए लड़कों को ए बी सी की जो नई परिभाषा समझा रहे होते हैं उसे यहां तो क्या सभ्य समाज में कहीं भी शेयर नहीं किया जा सकता। यही है 'ग्रैंड मस्ती'। आम तौर पर हिंदी सिनेमा अपने द्विअर्थी संवादों के लिए बदनाम होता था। यहां कुछ भी द्विअर्थी नहीं। जो भी दिख रहा होता है, कहा जा रहा होता है, उसका वही अर्थ होता है जो वयस्क दर्शक आसानी से समझ लेते हैं। प्रिंसिपल एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पकड़ कर पूरे कॉलेज के सामने पेड़ पर टांग कर उसके कपड़े उतार देता है, और अंतिम कपड़ा उतारते हुए कहता है- नाम बड़े और दर्शन छोटे। जाहिर है, ग्रैंड मस्ती को लेकर आज न्यायालय से लेकर महिला आयोग तक में बेचैनी दिख रही है। समाज का एक बड़ा हिस्सा इस तरह के कुत्सित सौंदर्यबोध को प्रसारित करने वाली फिल्म के प्रदर्शन से दुखी दिख रहा है। लेकिन हिंदी में सी ग्रेड फिल्मों का प्रचलन कोई नया नहीं है।
मुख्यधारा में घुसपैठ
करोड़ों की लागत और कमाई ने जब सिनेमा के कला रूप पर व्यवसाय को हावी कर दिया तो उसके लिए बाजार की शर्तों का अनुपालन कला की शर्तें मानने से ज्यादा जरूरी होता गया। बाजार की शर्त मतलब मुनाफा, किसी भी तरह। जाहिर है सिनेमा की दुनिया में वैसे व्यवसायियों की भी घुसपैठ शुरू हुई, जिन्हें सिनेमा से कोई मतलब नहीं था। 90 के दशक में ऐसे ही व्यवसायियों ने हिंदी में एक अलग तरह की सी ग्रेड फिल्मों की शुरुआत की। हिंदी क्षेत्र के सिनेमाघरों के मॉर्निंग शो पर मलयालम और अंग्रेजी की डब फिल्मों के कलेक्शन ने उन्हें हिम्मत दी और इसी में उन्होंने अपनी सफलता की राह खोजी। सी ग्रेड फिल्मों का सीधा सा अर्थ माना जा सकता है, जिसकी तकनीक और सौंदर्यबोध का स्तर सामान्य से काफी नीचे हो। लेकिन हिंदी मे इसके साथ एक अर्थ विशेष जुड़ गया। फिल्मकारों को अपनी सी ग्रेड फिल्मों से कमाई तो चाहिए, लेकिन सी ग्रेड फिल्में देखने कौन जाय? तो दर्शकों के एक खास समूह को लक्षित करते हुए उसमें सेक्स का ओवरडोज दिया जाने लगा। शुरुआत फिल्म के टाइटल से हुई- यौवन','बलात्कारी डायन','ग्लैमर गर्ल', 'बॉडी', 'कोठेवाली' तो कहे-सुने जाने लायक टाइटल हैं, इसके अलावा सैकड़ों ऐसे भी टाइटल से फिल्में आईं जिनका नाम लेना भी आसान नहीं था। फिल्म के निर्माता-निर्देशक दोनों को पता था कि कमसिन हसीना में दर्शक क्या देखने आएंगे। इसीलिए कथा-पटकथा, गीत-संगीत, संपादन, सिनेमैटोग्राफी जैसे विषय के बारे में वे सोचते ही नहीं। आमतौर पर एक कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती। कम बजट, कम समय में ऐसी फिल्में तैयार हो जाती और बाजार से पैसे बटोर कर वापस आ जातीं।
यह वह दौर था जब आर्थिक खुलापन आजादी और नैतिकता की नई परिभाषाएं तय कर रहा था। आश्चर्य नहीं कि मॉर्निंग शो में की इस दबी-ढकी शुरुआत ने हिंदीभाषी क्षेत्रों में अपने लिए सिनेमा घर सुरक्षित करवा लिए। इन फिल्मों के प्रति दर्शकों की हिचक घटी तो फिल्मकारों की कतार भी बढ़ी और उनका उत्साह भी। एक ओर ऐसी फिल्में अश्लील से अश्लीलतम होती गईं तो दूसरी ओर इनके व्यवसाय ने प्रतिष्ठित कलाकारों को भी इनकी तरफ आकर्षित किया।
ऐसी फिल्मों के बादशाह माने जाने वाले कांतिशाह यश चोपड़ा की तरह पोस्टरों पर अपना नाम मोटे-मोटे अक्षरों में विज्ञापित करने लगे। धर्मेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, शक्ति कपूर, मोहन जोशी, रजा मुराद जैसे कलाकारों ने घंटे की दर से काम कर ऐसी फिल्मों को इज्जत बख्शी। कह सकते हैं सी ग्रेड फिल्मों को मिले इसी सम्मान ने बाद के दिनों में 'जिस्म' और 'मर्डर' जैसी फिल्मों की नींव डाली और 'तुम', 'हवस','जूली' जैसी फिल्मों की श्रंखला शुरु हो गई।
आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि सारांश और जख्म बनाने वाला फिल्मकार पॉर्न फिल्मों की नायिका में संभावनाओं की तलाश करने लगे? लेकिन हुआ, इसलिए कि उस फिल्मकार ने भारतीय दर्शकों के बीच सेक्स की स्वीकार्यता का अहसास कर लिया था। रुचि से कुरुचि तक कांति शाह की 'साली आधी घर वाली' जैसी फिल्मों और 'ग्रैंड मस्ती' में फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इस तरह की फिल्में कस्बों के सिंगल थियेटरों के मॉर्निंग शो तक सीमित रहा करती थी, अब बाकायदा प्रमोशन कर मल्टीप्लेक्स में रिलीज हो रही हैं।
'ग्रैंड मस्ती' पर बात करते हुए हमें यह भी सोचना पड़ेगा कि आखिर कौन सा कारण रहा होगा कि 'बेटा','दिल' और 'मन' जैसी संवेदनशील फिल्म बनाने वाले इंद्र कुमार 'मस्ती' के सिक्वल में रुचि क्यों लेने लगते हैं। वास्तव में सी ग्रेड सिनेमा वही है, सिर्फ उसकी प्रतिष्ठा में परिवर्तन हुआ है। और यह परिवर्तन लाने में जितनी भूमिका फिल्मकारों की है, उससे कहीं ज्यादा हमारी है। यह याद करना जरुरी है कि 'मस्ती' अपने समय की सुपरहिट फिल्म थी। जाहिर है, हमने 'मस्ती' पसंद की, तभी हमें 'ग्रैंड मस्ती' मिल रही है(विनोद अनुपम,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,23 सितम्बर,2013)।
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