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Saturday, September 18, 2010

..जिसे दुनिया म़ुग़ले-आजम के नाम से याद करती है

मुगल-ए-आजम की शुरुआत एक आवाज से होती है। एक ऐसी आवाज, जो आज तक सिनेमा के आशिकों के कानों में गूंजती है।

‘मैं हिंदोस्तान हूं। हिमालय मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। तारीख़ की इब्तदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी हूं। और मेरी ख़ाक पर संगे-मरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतें दुनिया से कह रही हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा। नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दीं और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका। मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान का नाम जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मजहब और रस्मो-रिवाज की दीवार से बलंद होकर, इंसान को इंसान से मोहब्बत करना सिखाया। और हमेशा के लिए मुझे सीने से लगा लिया।’

और हां, फिल्म को आगाज देती हुई यही आवाज उसे अंजाम तक भी पहुंचाती है।

‘..और इस तरह, मेरे चाहने वाले शहंशाह जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर ने अनारकली की जिंदगी बख्श दी। और दुनिया की नजरों में जुल्म और बेरहमी का दाग़ अपने दामन पर ले लिया।

मैं उस शहंशाह के इंसाफ की यादगार हूं, जिसे दुनिया मुग़ल-ए-आजम के नाम से याद करती है।’

जमाने पर जादू की तरह छा जाने वाली यह बलंद आवाज है अमानुल्ला ख़ान की। जिसने जमाने की सहूलियत के लिए अपने नाम को छोटा बनाकर कर लिया था- अमान। और इस तीन लफ्ज के छोटे से नाम के साथ ही इतना बड़ा काम कर दिखाया कि दुनिया में चाहे तमाम चीजं हर रोज बदलती रहें, लेकिन इस एक हक़ीक़त के साथ उनका नाम कायम रहेगा कि फिल्म ‘मुग़ल-ए-आजम’ का स्क्रीन-प्ले के. आसिफ के साथ अकेले उन्होंने ही लिखा था। फिल्म के अमर डायलॉग लिखने में भी वजाहत मिर, अहसन रिजवी और कमाल अमरोही के साथ बहुत बड़ा योगदान था। इसी वजह से फिल्म के टाइटल्स में भी सबसे पहला नाम भी उन्ही का आता है। रही बात उनकी आवाज की, तो उसके बारे में मुझे क्या कहना है। आप सब ख़ुद ही जानते हैं। हां, अलबत्ता यह बात जरूर एक बार और दोहरा देता हूं कि जीनत अमान उन्ही की बेटी हैं।


मैं आज अमान साहब की बात इसलिए कर रहा हूं कि यूं तो ‘मुग़ल-ए-आजम’ की हर शै लासानी है, लेकिन इस फिल्म के डायलॉग और गीत ही ऐसी चीज हैं, जो हम लोग फिल्म से लौटते हुए अपने साथ ले आते हैं। जिन्हें हम जिंदगी में कभी-कभी, कहीं-कहीं दोहरा भी लेते हैं। सो इन्हें रचने वालों को याद करना जरूरी है। सो बात तो हम चारों कलमवीरों की करेंगे, लेकिन आज शुरुआत में बात करेंगे अमान साहब और शकील बदायूंनी की मिलकर लिखी गई एक तहरीर से। इस तहरीर का इस्तेमाल ‘मुग़ल-ए-आजम’ को लेकर बनी एक काफी पुरानी डॉक्युमेंट्री फिल्म में इस्तेमाल किया गया था। आवाज एक बार फिर वही अमान की।

इसे सुन लीजिए, इसमें फिल्म के बनने को लेकर बहुत ही ख़ूबसूरत बयान है। अगले हफ्ते हम लोग चारों डायलॉग राइटर्स की कंप्लीट बात कर लेंगे। ठीक ? ..तो सुनिए-

‘406 बरस पहले जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर नाम का एक बादशाह इस देश में गुजरा है, जिसे दुनिया मुग़ल-ए-आजम के नाम से जानती है। अकबर का जमाना गुजरे सैकड़ों साल बीते, मगर इंसाफ और प्यार के साथ आज भी अकबर का नाम जिंदा है।

और फिर 406 बरस बाद इसी देश में एक और इंसान ने जन्म लिया। उसका नाम के. आसिफ है। उसके दिल में अकबर की मोहब्बत जागी। वतन की तारीख़ और सभ्यता का प्यार उमड़ा। और वो मुग़लों के शानदार दौर की एक झलक दिखाने को तड़पने लगा।

ये तड़प, ये आरजू, आसिफ की जिंदगी की धड़कन बन गई और वो मुग़ल-ए-आजम का ख्वाब देखने लगा। उसने सबसे अलग हटकर सोचा। उसके दिमाग में मुग़लों की शानो-शौकत का असली नक्शा खिंचने लगा। ख़ाके बनते चले गए। झलकियां आती चली गईं। इन बिखरे हुए ख्यालों को एक तारीख़ी कहानी में ढालने के लिए आसिफ ने इंडस्ट्री के बेहतरीन दिमाग़ों की खि़दमात हासिल कीं। वजाहत , अहसन रिजवी, कमाल अमरोही और ख़ास तौर पर अमान ने अपने-अपने कलम के जौहर दिखाए। और फिर कल्पना और आर्ट के और माहिर अजीम शायर शकील बदायूंनी, मौसीकी के बादशाह नौशाद। लाजवाब फोटोग्राफर आर.डी.माथुर।

बेहतरीन साउंड रिकॉर्डिस्ट अकरम शेख। नामी एडीटर धरमवीर। एसोसिएट डायरेक्टर एस.टी.जैदी। आर्ट डायरेक्टर एम.के.सईद, मुग़ल-ए-आजम में शरीक हो गए।

दिमाग़ों ने ख़ाका खींचा। हाथों ने गुल-बूटे खिलाए। और मुग़ल-ए-आजम के सेट्स की धूम हिंदुस्तान भर में मच गई। उन्हें देखने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आने लगे।

आहिस्ता-आहिस्ता सेट्स की शोहरत हिंदुस्तान के बाहर दूसरे मुल्कों में भी फैल गई। अफग़ानिस्तान और सऊदी अरब के शाही मेहमान। नेपाल के वजीरे-आजम। इटली के मशहूर डायरेक्टर रोजोलिनी। इंगलैंड के मशहूर हिदायतकार डेविड लीन और चीन का एक कल्चरल डेलीगेशन मुगल-ए-आजम के सेट्स देखने के लिए आए और हिंदुस्तान के लाजवाब कारीगरों की तारीफ किए बग़ैर न रह सके।

इन सच्चे कलाकारों ने मुग़ल-ए-आजम को तारीख़ का सच्चा नमूना बनाने के लिए कोई कसर उठाकर नहीं रखी। एक-एक लिबास पूरी जांच-पड़ताल के बाद तैयार किया गया। अपनी ख़ूबसूरती और बनावट में मु़ख्तलिफ आराइशी सामान, हजारों जंगी लिबास, ढालें, तलवारें और मुजसिमे, अकबरी जमाने के सामान से किसी तरह कम लागत और मेहनत से तैयार नहीं हुए। हर चीज आर्ट और दिलकशी का एक ख़ूबसूरत संदेश बनकर आंखों के सामने आए।

लाखों इंसानों ने मुग़ल-ए-आजम के सामान की उस नुमाइश को देखा, जो बंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में सजाई गई थी। और इस तरह डेढ़ करोड़ रुपए की लागत और दस बरस की मेहनत से हिंदुस्तान की सबसे बड़ी तस्वीर ‘मुग़ल-ए-आजम’ तैयार हो गई।

आसिफ का चेहरा ख़ुशी से खिल उठा।

आज हिंदुस्तान के लाखों इंसान, इनकी मेहनत की दाद देने के लिए बेताब हो गए। मुग़ल-ए-आज़म के टिकटों के लिए समंदर की मौजों की तरह लोग सिनेमा घरों पर टूट पड़े। जिधर आंख जाती, लाखों इंसान नजर आते थे।

मर्द, औरत, बच्चे, बूढ़े, मुग़ल-ए-आजम देखने की आरजू में दो-दो मील लंबी कतारों में खड़े हो गए। कई मनचलों ने तो अपनी कतारों में बिस्तर भी बिछा दिए। फिल्म इंडस्ट्री की तारीख़ में किसी तस्वीर के लिए ऐसा हुजूम न पहले कभी आंखों ने देखा है और न शायद आइंदा देख सके। आज का दिन (5 अगस्त 1960) फिल्म इंडस्ट्री के लिए बड़े फक्र का दिन था। हिंदुस्तान के हर छोटे-बड़े शहर में एक धूम मची हुई थी।

और फिर मुग़ल-ए-आजम का किरदार अदा करने वाले पृथ्वीराज और मुग़ल-ए-आजम बनाने वाले के. आसिफ ख़ुशी में एक-दूसरे से लिपट गए।’ इसके आगे का बयान कहानी को व़क्त से बहुत आगे ले जाना होगा, क्योंकि आगे फिल्म के प्रीमियर का मंजर है। अब यह मंजर इतना ख़ूबसूरत है कि मैं न ख़ुद को रोक पा रहा हूं और न आपको इंतजार करवाना चाहता हूं। सो बात एक बार फिर अमान साहब के हवाले करता हूं।

हां, एक बात जरूर पहले ही बता दूं कि इस प्रीमियर शो पर न तो दिलीप कुमार आए थे और न मधुबाला। मधुबाला तो शायद बीमार थीं, लेकिन दिलीप कुमार तो एक नाराजगी के तहत नहीं आए। फिल्म के ख़त्म होते-होते आसिफ और दिलीप कुमार के रिश्तों में जबरदस्त कड़वाहट आ गई थी, क्योंकि आसिफ ने दिलीप कुमार की बहन अख्तर से शादी कर ली थी। इस पर विस्तार से आगे बात करेंगे।

ख़ैर। अब आगे की बात अमान साहब की जुबानी- ‘बंबई के सबसे ख़ूबसूरत सिनेमा ‘मराठा मंदिर’ को दुल्हन की तरह सजा दिया गया और प्रीमियर की रात को आसिफ ख़ुद मेहमानों के स्वागत के लिए खड़े हो गए।
मुअजिज मेहमान आने लगे।

सर कावसजी जहांगीर, ये पहली बार हिंदुस्तानी फिल्म देखने आए हैं। शकील, अमान, कारदार, नौशाद और शफी, आज कितने ख़ुश हैं। राजकुमार। सबकी तरह आज फिल्म स्टार्स भी मुग़ल-ए-आजम देखने को बेताब हैं। हंसमुख ओमप्रकाश। अ-ह-हा, मुकरी साहब जरा एक इधर तो देखिए। .. शुक्रिया।

राज कपूर अपनी धर्मपत्नी के साथ। ये आज ही मुग़ल-ए-आग़म के प्रीमियर में शामिल होने बर्लिन से आए हैं.. शम्मी कपूर और गीता बाली। जी आप पिक्चर देखने को बहुत बेचैन मालूम होते हैं.. ओ हो, इनके पीछे तो नादिरा हैं।

अ हा! रफी साहब। नौशाद साहब और शकील साहब इन्हें ख़ुश-आमदीद कह रहे हैं। ये हैं नसीम अपनी बेटी सायरा (बानो) के साथ। ख़ूबसूरत हीरो राजेंद्र कुमार अपनी धर्मपत्नी के साथ.. इन्हें पहचानने में ग़लती न कीजिएगा। ये सुरैया हैं। अपनी मम्मी के साथ।
अरे ये दुर्जन सिंह सूट पहनकर कहां से आ गया? ये अजीत हैं।

इन्होंने पिक्चर में दुर्जन सिंह का रोल अदा किया है। अहा! ये आर्टिस्टों का ख़ानदान है। नूतन, तनूजा और उनकी माता शोभना समर्थ। जरा मुस्कराइए तो सही। शुक्रिया। औए ये वहीदा रहमान हैं। जरा मुस्कराइए.. ये मुस्कराएंगी नहीं। इन्हें फिल्म देखने की जल्दी है। इनके पीछे हैं प्रोड्यूसर-डायरेक्टर गुरुदत्त.. मक़बूल हीरो देव आनंद और उनकी पत्नी कल्पना कार्तिक। बिमल राय और उनकी धर्मपत्नी.. म्यूजिक डायरेक्टर जयकिशन। ये हैं श्यामा। जरा मुस्कराइए तो साहब। वाह-वाह-वाह। क्या बात है।

ये हैं नग़मों की रानी लता मंगेशकर। ये जयश्री हैं। ये हैं माला सिन्हा। इनके साथ ये कौन हैं? ओ हो, इनके पिताजी। मगन भाई ओवरसीज के डिस्ट्रीब्यूटर के. टी. के साथ.. मीना कुमारी और उनके शौहर कमाल अमरोही.. जॉय मुखर्जी बहुत जल्दी में हैं। ये निगार सुल्ताना हैं.. इनको भी जरा देखिए। ये हैं आगा, अपने पूरे परिवार के साथ.. कुमारी नंदा।
हजारों सितारों का झुरमुट है। कोई कहीं है कोई कहीं।

वो जयराज हैं। वो निम्मी। भीड़-भाड़ से बहुत घबराती हैं। उनके पीछे हैं प्राण। इनके अलावा वो लोग भी आए, जिनके कांधों पर आज के हिंदुस्तान का बोझ है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री चौहान (यशवंतराव चौहान), श्री राधाकृष्णन और श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित ने अपना कीमती व़क्त निकालकर मुग़ल-ए-आज़म देखा और पसंद किया।

कला और आर्ट की चाहत ने ख़जानों का मुंह खोल दिया और आसिफ का देखा हुआ ख्वाब हिंदुस्तान के हर सिनेमा घर के पर्दे पर नजर आया। और इस तरह फर्ज और मोहब्बत की ग़ैर-फानी दास्तान मुग़ल-ए-आजम बनाकर के. आसिफ और उनके साथियों ने दुनिया में हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री का नाम रोशन कर दिया(राजकुमार केसवानी,दैनिक भास्कर,13.9.2010)।

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