राकेश रोशन ताल ठोंक के कह रहे हैं कि उन्हें काइट्स की नेगेटिव समीक्षा की परवाह नहीं है। तर्क दे रहे हैं कि भारत में न सही,विदेशों में अच्छी समीक्षा मिली है। यह भी कि उनकी फिल्म कुछ न कुछ ज़रूर कहती है अन्यथा पहले ही दिन 21 करोड़ रूपए का व्यवसाय कैसे कर पाती! हालांकि यह सब कहने के बाद भी उन्होंने आलोचकों को यह कहते हुए धन्यवाद दिया है कि वे हर किसी के दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं।
वास्तव में,इस फिल्म के प्रचार के लिए जितने हथकंडे अपनाए गए,समीक्षाओं ने एक स्वर से उनकी मिट्टी पलीद कर दी। कहा गया कि जोधा अकबर के दो साल बाद यह फिल्म रिलीज हो रही है और 150 करोड़ की रकम देकर रिलायंस ने इसके वर्ल्डवाइड डिस्ट्रीब्यूशन अधिकार खरीदे हैं,तो कुछ सोच-समझकर ही किया होगा। करण जौहर से लेकर ज्योतिषी ब्लॉगरों ने भी रिकार्डतोड़ कामयाबी की भविष्यवाणी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी मगर किसी भी वर्ग को फिल्म पसंद आती नहीं दिखती।
मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती मानते हैं कि तकनीकी रूप से यह फिल्म है ही नहीं। उन्होंने कहा है कि यह हृतिक को बॉलीवुड में इंट्रोड्यूस करने के लिए तैयार किया गया सेक्सी पैकेज है और पैकेज को किसी कहानी की ज़रूरत तो होती नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने इसे ऐसी पटकथा पर बनी फिल्म बताया है जिसमें यही तय नहीं है कि पुरानी शैली की प्रेम-कहानी बनानी है या नए स्टाइल का रोमांस। नतीजा यह कि फिल्म दोनों में से कुछ भी नहीं बन पाई। टेलीग्राफ में प्रतीम डी.गुप्ता को इस फिल्म की कहानी शिल्पा शेट्टी की कमर से भी पतली लगी है। उनका दावा है कि फिल्म की मूल कथा सीधे-सीधे मैच प्वाइंट से उड़ाई गई है।
बता दें कि यह कहानी है मेक्सिको के घने जंगलों में जबर्दस्त गर्मी के बीच मरनेके लिए छोड़ दिए गए जे ( रितिक रोशन ) की। इन जंगलों में जे को पुलिस के साथ-साथ,जान लेने पर आमादा खूंखार गिरोहों से भीअपनी जान बचानी है। जे लॉस वेगस में केसिनो का बिजनेस कर रहे गैंगस्टर बॉब ( कबीर बेदी ) की बेटी जीना ( कंगना राणावत ) से उसकी दौलत की खातिर प्यार का नाटक करता है। उसके पिता और भाई टोनी (निक ब्राउन ) को इस पर ऐतराज नहीं। मगर जब जे का सामना टोनी की प्रेमिका नताशा (बारबरा मोरी ) से होता है तो वह उसे चाहने लगता है । बाद में नताशा को भी महसूस होता है कि जे ही उसका सच्चा प्यार करता है। मगर जे और नताशा की नजदीकियां उन दोनों की जिंदगी में कई अकल्पनीय परेशानियों को जन्म देती हैं।
शुभ्रा गुप्ता को हृतिक का अभिनय साधारण लगा है,यहां तक कि नाचने-गाने वाले दृश्यों में भी। मगर नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा को हृतिक का डांस पसंद आया है मगर उन्हें बारबरा हृतिक के सामने फीकी लगी है-खासकर क्लोज शॉट में। उनके अनुसार,बारबरा रोमांटिक दृश्यों में नहीं जमी है। राजस्थान पत्रिका में रामकुमार सिंह ने माना है कि हृतिक और बारबरा मोरी ने अपने अभिनय से फिल्म की कथा को और दुरूस्त किया है। प्रतीम डी. गुप्ता ने बारबरा के रोल की तारीफ की है और इंटरवल के बाद उसे फिल्म का एकमात्र आकर्षण बताया है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज को भी हृतिक के डांस और एक्शन पसंद आए हैं। गौरतलब है कि रोशन की पिछली कुछेक फिल्मों की तरह,इसमें हीरो के लिए हीरोईन के रोल को छोटा नहीं किया गया है। शुभ्रा ने इसे लीड पेयर के कारण ही,बस एक बार देखे जाने योग्य फिल्म माना है। हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर और स्टेट्समैन में एम.पॉल ने हृतिक को इस रोल के लिए एकदम परफेक्ट बताया है। मगर विनायक चक्रवर्ती ने हीरो-हीरोईन की केमिस्ट्री को जीरो बताया है। वे लिखते हैं कि बारबरा सचमुच उल्लू की पट्ठी है जिसने यह फिल्म साइन की! फिल्म में कँगना रानाउत के महज साढे चार दृश्य हैं मगर मेल टुडे और नभाटा ने उनके अभिनय की खुलकर तारीफ की है।
सबने स्वीकार किया है कि इसबैनर की फिल्में अच्छे संगीत के लिए जानी जाती रही हैं मगर इस बार वह बात नहीं है। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर,संजय ताम्रकार और चंद्रमोहन शर्मा को जिंदगी दो पल की और दिल क्यूं ये मेरा गीत कर्णप्रिय लगा है। प्रतीम डी.गुप्ता जी कहते हैं कि गाने सीडी में तो अच्छे लगते हैं मगर फिल्म की गति के अनुरूप नहीं हैं। सलीम सुलेमान के बैकग्राउंड स्कोर को सबने फिल्म के म्यूजिक से बेहतर बताया है।
यह अनुराग बसु का ही कमाल था कि मर्डर में इमरान हाशमी भी अच्छे लगे। मगर,गैंगस्टर और लाइफ इन अ मेट्रो का यह निर्देशक इस बार निराश करता है। एम.पॉल लिखते हैं कि राकेश रोशन ने अनुराग बसु को लेते समय दर्शकों की उम्मीदों का ध्यान नहीं रखा। चंद्रमोहन शर्मा को स्पीरो का स्टंट डायरेक्शन पसंद आया है। विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि लॉस वेगास,लॉस एंजिल्स और मेक्सिको के जिन दृश्यों को बढा-चढाकर बताया जा रहा है,हॉलीवुड के दर्शक उनसे पहले ही रू-ब-रू हो चुके हैं। वे मानते हैं कि बारबरा इस फिल्म में केवल इसलिए है कि उसे लेना ज्यादा खर्चीला नहीं था। लेकिन संजय ताम्रकार मानते हैं कि निर्देशक अनुराग बसु ने कहानी को इतने उम्दा तरीके से फिल्माया है कि अन्य कई बातों को इग्नोर किया जा सकता है। उनके मुताबिक,बसु ने कहानी को सीधे तरीके से कहने के बजाय उन्होंने इसे जटिलता के साथ कहा है, जिससे फिल्म में रोचकता पैदा हुई है। रामकुमार सिंह को भी अनुराग बसु का निर्देशन काबिले तारीफ लगा है।
रामकुमार सिंह ने इसे टाइमपास लव-स्टोरी माना है जो कोई कल्ट नहीं है। विशाल ठाकुर लिखते हैं कि काइट्स की डोर उलझी हुई है और आप यह फिल्म तभी देखें जब हृतिक के जबर्दस्त फैन हों और बारबरा का ग्लैमरस अँदाज देखने की तमन्ना हो। प्रतीम डी.गुप्ता ने लिखा है कि अनुराग बसु और राकेश रोशन दोनों ने एक दूसरे के प्रति धोखाधड़ी की है। वे पूछते हैं कि जब हीरो-हीरोईन के संबंध का आधार ही शारीरिक आकर्षण है,तो फिर न तो एकमात्र किसिंग सीन को इतना बढ़ा-चढाकर बताने की ज़रूरत थी और न ही यह समझ में आता है कि क्यों फिल्म को यू-ए सर्टिफिकेट दिया गया? दो टूक पूछते हैं," मेक्सिको की अवैध आप्रवासी और 11 बार फर्जी शादी कर चुका व्यक्ति सेक्स के प्रति इतने उदासीन क्यों?" शुभ्रा गुप्ता ने राकेश रोशन और अनुराग बसु-दोनों के लिए निराशाजनक बताते हुए इसे दो स्टार दिये हैं। एम.पॉल को यह फिल्म रोमियो जूलियट की बेदिमाग प्रस्तुति लगी है जिसमें दो घंटे तक नाचने और गाने के बाद हीरो-हीरोईन जो करते हैं वह लगभग आत्महत्या जैसा ही है। उन्होंने इसे ठंडे पानी की दार्जीलिंग चाय बताते हुए सिर्फ दो स्टार दिये हैं। चंद्रमोहन शर्मा ने स्टोरी के धीमी रफ्तार से खिसकने और डायलॉग दूसरी भाषाओं में होने को नेगेटिव प्वाइंट मानते हुए इसे ढाई स्टार के लायक माना है। मयंक शेखर ने अंग्रेजी और स्पेनिश डायलॉग को फिल्म का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू तो माना है मगर फिर भी तीन स्टार दिए हैं। अजय ब्रह्मात्मज ने इसे हिंदी सिनेमा की भावपूर्ण तथा नई उड़ान बताते हुए तीन स्टार के लायक माना है। वेबदुनिया में संजय ताम्रकार ने इसे असाधारण प्रस्तुति वाली फिल्म बताया है जो तकनीकी रूप से हॉलीवुड के स्तर की है। सो उनकी ओर से फिल्म को मिले सबसे ज्यादा साढे तीन स्टार।
वास्तव में,यह एक भाषाई फिल्म है। हीरो अँग्रेजी बोलता है। हीरोईन स्पैनिश। बीच-बीच में हिंदी भी है। फिल्म के लगभग आधे डायलॉग अंग्रेजी और स्पैनिश में हैं। अजय ब्रह्मात्मज ने मिश्रित भाषा के प्रयोग को अनूठा बताया है मगर मयंक शेखर ने ध्यान दिलाया है कि फिल्म में स्पैनिश डायलॉग्स के जो सब-टाइटल अंग्रेजी में दिए गए हैं उन्हें अधिकतर भारतीय दर्शक ठीक से पढ़ भी नहीं सकते। प्रतीम डी.गुप्ता लिखते हैं कि फिल्म के डायलॉग बेहद साधारण हैं। दूसरी बात यह कि फिल्म का हॉलीवुड संस्करण लगभग आधा घंटा छोटा है। यह समझना मुश्किल है कि जब कोई फिल्म 90 मिनट में उतनी ही बात कह सकती है तो फिर उसे 120 मिनट का बनाने की ज़रूरत क्या है!
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