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Saturday, May 29, 2010

परदे पर ममता के रंग उकेरती नायिकाएँ- भावना सोमाया

हिंदी फिल्मों से मांओं, भाभियों या बेटियों को अलग नहीं किया जा सकता। कभी करुणा, कभी दुलार तो कभी बेबसी का प्रतीक बनीं ये औरतें हमारे सिनेमा का सबसे कोमल हिस्सा रही हैं। हमारी फिल्मों में मां पर केंद्रित तो ढेरों प्रसंग हैं, लेकिन मुझे पहले-पहल वे प्रसंग याद आ रहे हैं, जिन्होंने मेरे जेहन पर अमिट छाप छोड़ी।


मांओं की इस सूची में सबसे पहले हैं एसडी बर्मन का यादगार नग्मा नन्ही कली सोने चली गुनगुनाती हुईं सुलोचना। लोरी गाकर बच्ची को सुलाने की कोशिश करती मां का यह कोमल दृश्य बिमल रॉय की फिल्म सुजाता का है। हालात के चलते यह नन्ही अछूत कन्या एक ब्राह्मण परिवार में पहुंच गई है। बच्ची का बदन बुखार में तप रहा है। पति द्वारा बच्ची के बुखार के बारे में बताए जाने पर सुलोचना तेजी से उठती हैं और बच्ची के माथे पर हाथ रख देती हैं, जिसे छूना भी पाप था।


इसी फिल्म का एक और मार्मिक दृश्य है, जब युवा सुजाता को उसके गांव भेजा जा रहा होता है और सुलोचना उसकी आखिरी झलक के लिए खिड़की खोलकर देखती है। ऐन इसी मौके पर सुजाता रुकती है और रोते हुए फिर से घर लौट आती है। वो समझ जाती है कि उससे झूठ बोला गया था और उसका परिवार उससे छुटकारा पाने के लिए उसे दूसरे गांव भेज रहा था।


अब मैं भाभियों की बात करना चाहूंगी, जो हिंदी फिल्मों में मां की भूमिका निभाती रही हैं। मैं सालों तक फिल्म भाभी की चूड़ियां की मीना कुमारी की छवि को नहीं भुला सकी थी। युवावस्था में मुझे श्वेत श्याम हिंदी फिल्मों की ये नायिकाएं देवियों सरीखी लगा करती थीं। अलसुबह घर के कामकाज निपटाते ज्योति कलश छलके गुनगुनाने वाली मीना कुमारी को भूलना क्या इतना आसान है? इसी तरह फिल्म छोटा भाई की नूतन का किरदार भी मेरी स्मृतियों में कभी नहीं धुंधलाता। फिल्म में नूतन गुस्से में भरकर अपने छोटे से देवर को छत पर एक पैर पर खड़े होने की सजा देकर भूल जाती है। शाम को खाना परोसते समय उसे अचानक अपनी सजा याद आती है तो वह दौड़ती हुई छत पर जाती है और बच्चे को आंचल में समेट लेती है। यह दृश्य आज भी मेरी आंखें नम कर देता है।


यहां मुझे हिंदी सिनेमा की तीन बेटियों का जिक्र करना भी जरूरी लगता है। इनमें से पहली हैं फिल्म खंडहर की शबाना आजमी। मृणाल सेन की इस फिल्म में शबाना ने जामिनी का किरदार निभाया था, जो निराशा और अवसाद के बावजूद अपनी गरिमा बचाए रखती है। मुजफ्फर अली की उमराव जान में तवायफ रेखा को एक नवाब द्वारा उसके गृहनगर फरीदाबाद में मुजरे के लिए बुलाया जाता है और वहां उसकी मुलाकात अपनी मां से हो जाती है। ये क्या जगह है दोस्तो गाने के दौरान मां और बेटी परदे की ओट से एक-दूसरे की एक झलक देखते हैं, लेकिन दोनों ही जानते हैं कि उनकी तकदीर के धागे अब उनके हाथ से छूट चुके हैं।


फिल्म आप बीती में जब हेमा मालिनी को यह महसूस होता है कि उसके माता-पिता उसके भाई और भाभी के साथ सम्मान का जीवन नहीं बिता पाएंगे, तो वह एयरहोस्टेस की नौकरी कर लेती है। लेकिन ट्रेनिंग के लिए जाने से पहले वह भाई से वचन लेती है कि वह उसकी गैर मौजूदगी में माता-पिता को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएगा। ऐसा नहीं हो पाता। लौटने पर हेमा पाती है कि उसके माता-पिता लापता हैं। सिनेमा के कुछ दृश्य नाटकीयता या भावनात्मक अतिरेकों से मुक्त होने के बावजूद हमें याद रह जाते हैं। मुझे मीना कुमारी और शबाना आजमी के दो और दृश्य याद आ रहे हैं।


एक दृश्य में बच्चों के झुंड से घिरीं मीना कुमारी पहेलियां बुझाते हुए गा रही हैं एक थाल मोतियों से भरा और बच्चे उसकी मौजूदगी में चहचहा रहे हैं। फिल्म अपने पराए में शबाना आजमी भी दो बच्चों के लिए हल्के-हल्के आई चलके बोले निंदिया रानी गाना गा रही हैं। शबाना और दोनों बच्चों के बीच इतनी आत्मीयता है कि इसका अहसास ही नहीं होता कि वे शबाना के अपने नहीं, पराए बच्चे हैं(दैनिक भास्कर,22 मई,2010)।

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