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Tuesday, March 30, 2010

सत्यजीत रे को आज ही मिला था ऑस्कर

यों तो सत्यजीत रे ने कुल 29 फिल्में और 10 डाक्यूमेंट्री बनाई थीं,कहते हैं कि वे अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली के बाद कुछ और न बनाते तो भी विश्व सिनेमा मे अमर हो जाते। उन्होंने एक विज्ञापन एजेंसी के लिए क्रिएटिव विजुअलाइजर,ग्राफिक डिजाइनर आदि के रूप मे 12 वर्षों से भी अधिक समय तक काम किया था। संभवतः,वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने फिल्म निर्माण की हर विधा में योगदान किया है। इटली की फिल्म द बाइसाइकिल थीफ से बेहद प्रभावित थे और कहते थे कि फिल्मों में उनके होने की वजह यही फिल्म है। वे एकमात्र भारतीय हैं जिन्हें ऑस्कर अकादमी ने लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया है। बाद मे भारत सरकार ने भी उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। उनके नाम पर कोलकाता मे सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीवीजन संस्थान (एस.आर.एफ़.टी.आई) है। खैर,आज पढिए अमरीकी पत्रिका सिनेएस्ते द्वारा 1982 में लिया गया इंटरव्यू जिसके चुनिंदा अंश को आज दैनिक भास्कर ने प्रकाशित किया है । सत्यजीत रे इस साक्षात्कार में कह रहे हैं कि उन्होंने पश्चिमी दर्शकों के लिए फिल्में नहीं बनाईं-

" फिल्म पाथेर पांचाली बनाते समय ही मैंने अपने देश के देहाती समाज से परिचय पाया। मैं शहरों में जन्मा और पला-बढ़ा था। फिल्मांकन के लिए देहाती इलाकों में घूमते और लोगों से बातें करते हुए मैंने इसे समझना शुरू किया। यह सोचना गलत है कि केवल देहातों में जन्मे लोग ही उनके बारे में फिल्में बना सकते हैं। एक बाहरी नजरिया भी काम करता है।

मुझ पर विभूतिभूषण बंदोपाध्याय का गहरा प्रभाव पड़ा। मैंने उनकी अपुत्रयी पर फिल्में बनाई हैं। उनकी पाथेर पांचाली पढ़ते हुए ही मुझे देहाती जीवन के बारे में पता चला। मैंने उनसे और उनके दृष्टिकोण से एक खास किस्म का जुड़ाव महसूस किया। यही वजह थी कि मैं सबसे पहले पाथेर पांचाली ही बनाना चाहता था। इस किताब ने मुझे छू लिया था।

मुझे टैगोर भी काफी पसंद हैं। लेकिन उनका काम देहाती नहीं। हमारा सांस्कृतिक ढांचा पूर्व और पश्चिम के मेलजोल से तैयार होता है। शहर में शिक्षित और अंग्रेजी साहित्य के क्लासिकों से परिचित हर भारतीय पर यह बात लागू होगी। सच्चाई तो यह है कि पश्चिम का हमारा बोध उन लोगों के हमारी संस्कृति के बोध से गहरा है।

एक तकनीकी कला माध्यम के रूप में सिनेमा का विकास पश्चिम में हुआ। दरअसल किसी भी तरह की समय सीमा वाली कला की अवधारणा ही पश्चिमी है। इसलिए यदि हम पश्चिम और उसके कलारूपों से परिचित हैं तो सिनेमा को एक माध्यम के रूप में अच्छी तरह समझ सकते हैं। कोई बंगाली लोक कलाकार शायद इसे न समझ पाए। इसके बावजूद फिल्में बनाते समय मैं पश्चिमी दर्शकों नहीं, अपने बंगाली दर्शकों के बारे में ही सोचता हूं।"

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