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Friday, December 24, 2010

सिनेमा में आशा और करुणाःहर्ष मंदर

सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं।

कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है कि सिनेमा की कौन-सी बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। इस माह जब मैं गोआ के फिल्म समारोह में गया, तो यही सवाल मैंने खुद से पूछा। हर साल मैं सभी काम छोड़कर गोआ चला जाता हूं, ताकि वहां होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दुनिया की बेहतरीन फिल्में देख सकूं। इस साल काम के दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मैं शुरुआत से इस समारोह में शामिल नहीं हो सका। फिर भी मैंने तीन दिन का समय निकाल ही लिया।

समारोह में फिल्में देखते समय मुझे महसूस हुआ कि सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं। गोआ में इस बार अनेक फिल्में इस विषय पर केंद्रित थीं कि मनुष्य की जिंदगी पर संघर्षो का क्या प्रभाव पड़ता है। दुख, संताप और विघटन से त्रस्त वर्तमान समय में यह आश्चर्यजनक भी नहीं है। समारोह में जिस एक फिल्म ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी चीनी निर्देशक वांग कुआनान की अपार्ट टुगेदर । एक रिटायर्ड सैनिक ५क् साल बाद अपनी पत्नी से मिलने ताइवान से चीन लौटता है। यहां वह पहली बार अपने बेटे को देखता है। उसकी भेंट अपनी पत्नी के दूसरे पति से भी होती है, जो एक नेक व्यक्ति है। आधी सदी बाद पति-पत्नी की मुलाकात होती है। वे चाहते हैं कि जीवन के अंतिम दिन वे साथ ही गुजारें, क्योंकि उनके देश के विभाजन ने उनके प्यार के बीच भी लकीर खींच दी थी। लेकिन वे यह भी महसूस करते हैं कि समय की धारा को पीछे नहीं लौटाया जा सकता। यह बड़ी आसानी से भारत और पाकिस्तान या पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की भी कहानी हो सकती है।

श्रीलंकाई फिल्मकार बेनेट रथनायके की फिल्म अंडर द सन एंड द मून हजारों जानें लेने वाले नस्लीय संघर्ष की दास्तान बयां करती है। फिल्म का व्याकरण बहुतेरी दक्षिण एशियाई फिल्मों की शैली के अनुरूप रंगमंचीय और अतिनाटकीय हो गया है, लेकिन फिल्म का कथानक हमें बांधे रखता है। यह श्रीलंकाई सेना के एक आदर्शवादी अधिकारी की कहानी है, जो अपनी मां की इच्छा के विपरीत एक तमिल विद्रोही नेता की बहन से विवाह करता है, जबकि उस विद्रोही नेता के साथियों ने अधिकारी की मां के घर पर धावा बोलते हुए उनके माता-पिता की हत्या कर दी थी। युद्ध में अधिकारी की मृत्यु हो जाती है। सेना का एक जवान यह महसूस करता है कि उसने अधिकारी की जान बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए और अपराधबोध से ग्रस्त होकर अधिकारी की विधवा और उसकी बेटी की तलाश करता है। वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर भिजवाने के लिए अपनी जान तक को जोखिम में डाल देता है। फिल्म यह बताती है कि गृह युद्ध आम लोगों के मन में नफरत के बीच बो देता है, लेकिन प्रेम और सौहार्द की भावनाएं फिर भी नहीं मरतीं।

समारोह में फिल्में देखते समय मैंने यह भी अनुभव किया कि कई फिल्मों ने शहरी जीवन के अकेलेपन को अपनी विषयवस्तु बनाया है। मुझे विशेष रूप से हंगारियन फिल्म एड्रेइन पाल ने प्रभावित किया। इस फिल्म की निर्देशक एग्नेस कोसिस हैं। फिल्म एक स्थूलकाय नर्स की बेहलचल जिंदगी पर केंद्रित है, जो मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों के वार्ड में 18 वर्षो से काम कर रही है। उसका काम केवल इतना ही है कि इन मरीजों को साफ-स्वच्छ और जीवित रखने की कोशिश करे और उनकी मृत्यु हो जाने पर उनके परिजनों को सूचित करे। नर्स को यह अनुभव होता है कि मरीजों के साथ ही उसके भीतर की भावनाएं भी धीरे-धीरे मरती जा रही हैं। वह हाई कैलोरी स्नैक्स खाते हुए एक यांत्रिक जीवन बिता रही है। फिल्म यह दर्शाती है कि किस तरह यह महिला जीवन के नए आयामों की तलाश करती है। मैक्सिकन फिल्मकार अर्नेस्तो कोंत्रेरास की फिल्म पार्पादोज एजूले दो युवाओं की आमफहम जिंदगी की कहानी है। एक लड़की एक क्लॉथ स्टोर में काम करती है और संयोग से एक पुरस्कार जीत जाती है। उसे एक समुद्र तटीय रिसोर्ट पर छुट्टियां बिताने का अवसर मिलता है। वह अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को भी ले जा सकती है। उसकी भेंट एक अपरिचित व्यक्ति से होती है और वह उसे अपने साथ छुट्टियां बिताने के लिए निमंत्रित करती है। यह एक मजेदार फिल्म है, जो हमें यह बताती है कि साधारण लोगों की साधारण जिंदगी में भी प्रेम के अवसर और संभावनाएं हमेशा जीवित रहती हैं। तुर्की के फिल्मकार सलीम दमीरदलन की फिल्म द क्रॉसिंग में भी अकेलापन एक सिंफनी की तरह है। एक व्यक्ति रोज दफ्तर से घर फोन लगाकर बेटी से बात करता है और उससे पूछता है कि आज स्कूल में क्या-क्या हुआ, लेकिन वास्तव में उसकी कोई बेटी नहीं है और उसने अकेलेपन से निजात पाने के लिए अपने इर्द-गिर्द फंतासियों की दुनिया रच ली है। एक महिला अपने शराबी पति से अलगाव के बाद अकेलेपन का जीवन बिता रही है तो एक अन्य व्यक्ति अपनी बीमार बहन को तिल-तिलकर मरते देख रहा है। फिल्म का स्क्रीनप्ले इन तीनों की तनहाइयों को आपस में जोड़ देता है।

समारोह में मेरा परिचय एक बेहतरीन भारतीय फिल्म से भी हुआ। यह फिल्म कौशिक गांगुली की जस्ट अनादर लव स्टोरी है। फिल्म से सुविख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष ने अपने अभिनय कॅरियर का आगाज किया है। फिल्म रचनात्मक रूप से कई स्तरों पर काम करती है। हर फिल्म समारोह की तरह गोआ फिल्म समारोह में भी युवावस्था के सवालों पर केंद्रित एक फिल्म थी। चेन कुन-होऊ की ताइवानी फिल्म का शीर्षक ही ग्रोइंग अप है। फिल्म में एक उदारहृदय बुजुर्ग एक बार गर्ल से विवाह करता है और उसके बेटे को स्वीकार कर लेता है। लड़का जिद्दी और विद्रोही प्रवृत्ति का है। जब वह नौजवान हो जाता है, तो नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करता है।

लेकिन समारोह की सबसे अच्छी फिल्म थी बॉय । यह न्यूजीलैंड की फिल्म है, जिसे टाइका वैटिटी ने निर्देशित किया है। यह ऑस्ट्रेलियाई मूल के एक ऐसे आदिवासी बच्चे की कहानी है, जिसके पिता जेल में बंदी हैं जबकि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी है। वह यह कल्पना करने लगता है कि वह बच्चा नहीं, वयस्क अभिभावक है और अपने बच्चों से बहुत प्रेम करता है। लेकिन जब उसके पिता जेल से रिहा होकर आते हैं तो वह पाता है कि यह सच्चाई नहीं है और वह महज कल्पनाओं से खेल रहा था। मैं दिल्ली में बहुत सारे ऐसे बच्चों के साथ काम करता हूं, जिनकी कहानी भी इस फिल्म के बच्चे की कहानी से मिलती-जुलती है, लेकिन वे जिंदगी की तकलीफों का सामना करने को तैयार हैं। इस फिल्म ने मेरे दिल को छू लिया(दैनिक भास्कर,24.12.2010)।

2 comments:

  1. बहुत खूब राधारमण जी। हर्षमंदर जी का मोबाइल नंबर भेजें। इनसे पिछले समारोह में तो मुलाकात हुई थी, इस बात मिलना न हो सका।

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