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Sunday, February 28, 2010

55वां फिल्मफेअर अवार्ड

पिछले दिनों,फिल्मफेअर से जुड़े प्रकाशन समूह के समाचारपत्र मे खबर छपी कि ऐश्वर्या के पेट में टीबी है और इसी कारण वह गर्भवती नहीं हो पा रही हैं। इससे ख़फा अमिताभ ने इस बार के फिल्मफेयर समारोह का सपरिवार बहिष्कार किया। बहरहाल,एक नज़र इस बार के विजेताओं परः
सर्वश्रेष्ठ अमिनेता-अमिताभ(पा)
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री-विद्याबालन(पा)
सर्वश्रेष्ठ फिल्म-3 इडियट्स
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक-राजकुमार हिरानी(3 इडियट्स)
सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता-बोमन ईरानी(3 इडियट्स)
सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री-कल्कि कोचलिन(देव डी)
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता केर क्रिटिक्स अवार्ड-रणवीर कपूर
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री केर क्रिटिक्स अवार्ड-माही गिल(देव डी)
सर्वश्रेष्ठ फिल्म का क्रिटिक्स अवार्ड-फिराकं
सर्वश्रेष्ठ नवोदित निर्देशक –अयान मुखर्जी(वेक अप सिड)
सर्वश्रेष्ठ नवोदित निर्देशिका- जोया अख्तर(लक बाई चांस)
सर्वश्रेष्ठ संगीतकार-ए.आर.रहमान(दिल्ली-6)
सर्वश्रेष्ठ गायक-मोहित चौहान(दिल्ली-6 के मसकली के लिए)
सर्वश्रेष्ठ गायिका-रेखा भारद्वाज(ससुराल गेंदा फूल-दिल्ली-6)
Kavita Seth – Iktara – Wake Up Sid
सर्वश्रेष्ठ गीतकार-इरशाद कामिल( लव आजकल के आज दिन चढया के लिए)
सर्वश्रेष्ठ कहानी-अभिजीत जोशी,राजकुमार हिरानी(3 इडियट्स)
सर्वश्रेष्ठ पटकथा-राजकुमार हिरानी,विधुविनोद चोपड़ा,अभिजीत जोशी(3 इडियट्स)
सर्वश्रेष्ठ डायलॉग-राजकुमार हिरानी,विधु विनोद चोपड़ा(3 इडियट्स)
सर्वश्रेष्ठ संपादन-श्रीकर प्रसाद(फिराक)
सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशक-बोस्को-सीजर(लव आजकल के चोर बाजारी के लिए)
सर्वश्रेष्ठ वर्चुअल इफेक्ट अवार्ड-कमीने
सर्वश्रेष्ठ साउंड डिजाइन-मानस चौधरी(फिराक)
सर्वश्रेष्ठ निर्माण डिजाइन-हेलेन व सुकान्त(देव डी)
सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी-राजीव राय(देव डी)
सर्वश्रेष्ठ एक्शन-विजयन मास्टर(वांटेड)
सर्वश्रेष्ठ वस्त्र-सज्जा- वैशाली मेनन(फिराक)
सर्वश्रेष्ठ बैकग्राउंड स्कोर-अमित त्रिवेदी(देव डी)
विशेष पुरस्कार-नंदिता दास(फिराक)
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड-शशिकपूर और खय्याम
आर.डी.बर्मन म्यूजिक अवार्ड-अमित त्रिवेदी(देव डी)

होली और फिल्में

(नई दुनिया,27.2.10)
सदियों से होली बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाई जाती रही है, जबकि उसके अगले दिन खेली जाने वाली धुलेंडी गुस्से की ज्वाला को शांत करने की कवायद होती है! होली की खुशी व उत्साह के गीतों और नृत्यों पर हिंदी सिनेमा फला-फूला। इतने सालों में होली का फिल्मांकन खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन उसमें बदलाव जरूर आया है। इसलिए यदि यश चोपड़ा ने होली के अवसर का इस्तेमाल प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में किया (सिलसिला) तो सुभाष घई ने भय को दिखाने के लिए (डर)। रमेश सिप्पी के लिए यह उल्लास के प्रदर्शन का मौका थी (शोले)। खुशी के पलों के साथ त्रासदी को भी इसमें जोड़ा गया था। एक मौके पर जया भादुड़ी संजीव कुमार के साफ-सुथरे कुर्ते को रंगने के लिए उनके तांगे का पीछा करती है। होली के ऐसे ही दूसरे दृश्य में विधवा के रूप में जया भादुड़ी पहाड़ी पर स्थित मंदिर से होली की धमाचौकड़ी देखती है। यह बेहद हृदय विदारक दृश्य था। फिल्मों में होली को लेकर मेरी शुरुआती यादें मेहबूब खान की मदर इंडिया से जुड़ी हैं। नायक राजकुमार अपनी पत्नी के कंगन साहूकार के पास गिरवी रख देता है। अगली सुबह साहूकार की बेटी के हाथों में उन्हें देखकर वह आपे से बाहर हो जाता है। वहीं, दूसरी ओर वी शांताराम ने इस त्योहार के साथ जुड़े उत्साह व शरारतों पर ही जोर दिया। नवरंग में गोपी कृष्णा और संध्या पर फिल्माया गया ‘जा रे अरी नटखट, मत छेड़ मेरा घूंघट..’ इतने सालों बाद भी भुलाया नहीं जा सका है। 60 और 70 के दशक में होली गीत के बगैर किसी हिंदी फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन इसे देखकर दर्शक इतने उब गए थे कि जिसने भी इससे हटकर कुछ करने का साहस किया, वह अविस्मरणीय बन गया। इस सूची में शीर्ष पर है वहीदा रहमान और धमेंद्र स्टारर फागुन । होली के मौके पर वहीदा के जमींदार पिता परंपरानुसार बेटी को नई साड़ी देते हैं। रोमांटिक पलों में वहीदा का पति उस साड़ी पर रंग छिड़ककर उसे खराब कर देता है। वहीदा पिता के गुस्से को शांत करने के लिए सबके सामने अपने पति को अपमानित कर देती है। इससे नाराज पति अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर चला जाता है और फिर 20 साल बाद लौटता है। होली के त्योहार में एक विधवा के भाग लेने को कलंक मानने की धारणा को सबसे पहले चुनौती शक्ति सामंत की कटी पतंग में मिलती है। एक युवा विधवा के माथे पर राजेश खन्ना द्वारा शगुन का टीका लगाना हमारी सामाजिक प्रथा पर एक टिप्पणी थी। केतन मेहता की फिल्म होली कॉलेज परिसरों में होने वाली रैगिंग के बहाने गिरती शिक्षा प्रणाली पर बयान है। यह फिल्म तनाव की वजह से बर्बाद होने वाले युवक की कहानी है।
९0 के दशक में ऐसा भी समय आया था, जब होली का त्योहार पर्दे से लगभग पूरी तरह से गायब हो गया था। फिर बागबान में अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी ‘होली खेले रघुवीरा अवध में..’ गीत में अपने बच्चों व पोतों के साथ डांस करते नजर आते हैं। इसके कुछ साल बाद अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा ‘डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली’ में दिखाई देते हैं, लेकिन वह जादू नदारद है, जो कभी पहले की फिल्मों में रहा है।
(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,दिल्ली,21.2.2010)

Saturday, February 27, 2010

कार्तिक कॉलिंग कार्तिकःफ़िल्म-समीक्षा

कलाकार : फरहान अख्तर , दीपिका पादुकोण , राम कपूर
निर्माता : फरहान अख्तर , रितेश सिद्धवानी
निर्देशन : विवेक लालवानी
गीत : जावेद अख्तर
संगीत : शंकर , एहसान , लॉय
सेंसर सर्टिफिकेट : यू /
अवधि : 129 मिनट।
हमारी रेटिंग /photo.cms?msid=5617824
फरहान अख्तर की इस फिल्म में आपको सस्पेंस के साथ - साथ रोमांच भी मिलेगा। लेकिन फिल्म जब खत्म होगी , तो आपको महसूस होगा कि यह तो आप पहले से जानते थे। इंटरवल से पहले तक हॉल में बैठा दर्शक यह जानने को बेताब था कि आखिर कार्तिक को फोन करने वाला कौन है। वहीं , इंटरवल के बाद कहानी कुछ ऐसा कुछ मोड़ लेती है कि यह सस्पेंस लगभग खत्म सा हो जाता है। यंग डायरेक्टर विजय लालवानी ने भले ही अपने काम को बखूबी अंजाम देने की कोशिश की , लेकिन वहीं अपने खास दोस्त फरहान को स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा फुटेज देने के चक्कर में वह खुद ही भटक गए।

कहानी : पूरी फिल्म शुरू से एंड तक कार्तिक के आसपास टिकी है। मन के अंदर समाया एक वहम इंसान को किस कदर बेबस और डरा हुआ बना देता है , यही इस फिल्म का निचोड़ है। हर एग्जाम में अव्वल रहने वाला कार्तिक नारायण ( फरहान अख्तर ) अचानक रीयल लाइफ में पूरी तरह फिसड्डी बन जाता है। काबिल और काम में वफादार रहने के अलावा घंटों तक एक्स्ट्रा काम करने के बाद भी उसे प्रमोशन तो दूर , हर बार बॉस ( राम कपूर ) की बातें सुननी पड़ती हैं। ऑफिस में अपनी सीनियर शौनाली ( दीपिका पादुकोण ) को तीन साल से प्यार करने वाले कार्तिक में इतनी भी हिम्मत नहीं है कि वह ईमेल से भी अपने प्यार का इजहार कर सके। जिंदगी के हर मोड़ पर मिल रही नाकामी से परेशान कार्तिक जिंदगी खत्म करने का फैसला करता है। एक दिन सुबह करीब पांच बजे कार्तिक जब नींद की गोलियां खाने के लिए पानी का गिलास हाथ में लेता है , तभी उसके घर में लगे फोन की घंटी उसकी जिंदगी पूरी तरह से बदल देती है। इस कॉल के बाद कार्तिक को वह सब कुछ मिल जाता है , जिसे हासिल करने के लिए वह तरस रहा था। लेकिन यही फोन की घंटी उसकी जिंदगी को एक बार फिर अर्श से फर्श पर ले आती है।

एक्टिंग : यकीनन फरहान ने इस बार फिर साबित किया कि उनके अंदर भूमिका को जीवंत करने का जज्बा है। कार्तिक के करैक्टर को फरहान ने दो बिल्कुल अलग लुक में पेश किया है। फिल्म की शुरुआत में चश्मा पहने हुए , बॉस की डांट खाने वाले और बाद में बॉस के केबिन में जाकर बॉस से मनचाही टर्म्स मनवाने वाले कार्तिक के रूप में फरहान खूब जमे हैं। पिछली फिल्मों के मुकाबले दीपिका इस फिल्म में बिल्कुल अलग और फ्रेश लुक में नजर आईं। शैफाली शाह मनोचिकित्सक के रोल में टाइप्ड लगीं , तो राम कपूर ने सिवाय चिल्लाने के कुछ और नहीं किया।

डायरेक्शन : विजय लालवानी ने अपनी पहली ही फिल्म में साबित कर दिया कि इस फील्ड में उनका सफर लंबा है। स्क्रिप्ट और डायलॉग के अलावा उन्होंने फिल्म के कलाकारों से बेहतर काम लेने की कोशिश की है। उनकी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाई , जिसे दूसरे डायरेक्टर लगभग अछूत समझते हैं और कहानी को कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया। हां , इंटरवल के बाद कई बार कहानी पटरी से भटकी , लेकिन एंड तक आते - आते विजय ने संभाल लिया।

संगीत : शंकर , एहसान , लॉय और जावेद ने एक बार फिर कहानी पर पूरी तरह से फिट संगीत दिया है। कैसे मैं बताऊं , उफ तेरी अदा , कैसी है ये उदासी और फिल्म का टाइटिल सॉन्ग पहले से ही टीनएजर्स की जुबां पर है। हां , अपनी पिछली फिल्मों की तरह इस बार फरहान ने अपनी आवाज में कोई गाना नहीं गाया।

क्यों देखें : फरहान और दीपिका की बेहतरीन केमिस्ट्री , कोचीन की आउटडोर लोकेशन की गजब फोटोग्राफी। अगर आप फैमिली के साथ एंटरटेनमेंट के मकसद से जा रहे हैं , तो शायद निराशा हाथ लगे।
(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,26.2.10)
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नवोदित निर्देशक विजय ललवानी फिल्म 'कार्तिक कालिंग कार्तिक' से बॉलीवुड में ठीक ठाक शुरुआत करते दिख रहे हैं। रॉक ऑन, लक बॉय चांस के बाद फरहान अख्तर एक बार फिर संजीदा रोल में हैं। इंसान के अवचेतन में बैठा एक भय कभी-कभी जिंदगी को कितना बदल सकता है,यही बात इस फिल्म की थीम है। एक मेधावी युवा की जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ाव को दिखाया गया है। फिल्म में भय, रोमांस और कॉरपोरेट जगत का मिलाजुला ताना -बाना है, जो एक युवा की जिंदगी के आसपास घूमता है। फिल्म का संपादन बेहतर है, लेकिन बैकग्राउंड म्यूजिक कमजोर है।

फिल्म की कहानी कार्तिक (फरहान अख्तर) नाम के एक ऐसे युवा के आसपास घूमती है जो अपने अवचेतन में छुपे डर के कारण अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाता है। वह आईआईएम से पासआउट है लेकिन लोग उसको नोटिस नहीं करते हैं, यहां तक की ऑफिस की जिस लड़की सोनाली मुखर्जी (दीपिका पादुकोण) से वह प्यार करता है उससे भी वह अपनी बात नहीं कह पाता है। लेकिन एक अनजान फोन कॉल उसकी जिंदगी में परिवर्तन ला देता है। कार्तिक नाम से हर रात आने वाले इस फोन कॉल्स पर वह बातें करता है और उसके कहे अनुसार वह अपनी जिंदगी जीने लगता है। वह लोगों को ना कहने की आदत सीख लेता है और अपने अधिकारों की पहचान भी उसे हो जाती है, साथ ही उसे सोनाली का प्रेम भी मिल जाता है। इंटरवल के बाद फिल्म में ट्विस्ट है, जब पता चलता है कि अनजान फोन कॉल्स कार्तिक का अपने खुद का रिकार्ड किया हुआ, उसके अवचेतन में दबा डर होता है जिसे वह रिकार्ड कर फोन में सेव करता है लेकिन उसे खुद इस बात का ध्यान नहीं रहता है। बाद में डॉक्टर कपाड़िया और सोनाली कार्तिक की मदद कर उसे उसके अवचेतन में छिपे डर के बारे में बताते हैं, उसे यह भी पता चल जाता है कि उसका कोई भाई नहीं था और उसकी मौत के लिए वह जिम्मेदार नहीं है।

फिल्म का पहला भाग कॉरपोरेट कल्चर और रोमांस की धुरी पर घूमता है, तो दूसरे भाग में थ्रिलर का तड़का है। संवाद बेहतर हैं लेकिन एक दो गीतों के अलावा गीत-संगीत कुछ कमजोर सा है।फिल्म का संपादन बेहतर है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी रफ्तार है। विशेषकर इंटरवल के बाद, कहानी खिसकती हुई आगे बढ़ती है। इस मायने में यह बहुत बेहतर फिल्म तो नहीं कही जा सकती, लेकिन निर्देशक के प्रयास को आप नकार नहीं सकते, ऐसा बहुत कुछ है जो देखने योग्य है। विशेषकर फरहान अख्तर का अभिनय फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता है और एक सधे हुए अभिनेता के रूप में प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहे हैं। थ्रिल और रोमांस पसंद करने वाले युवा दर्शकों को फिल्म पसंद आएगी।
(राजेश यादव,दैनिक भास्कर,दिल्ली संस्करण,26.2.10)

तीन पत्तीःफिल्म-समीक्षा


(नई दुनिया,दिल्ली,27.2.10)
कलाकार : अमिताभ बच्चन , सर बेन किंग्सले , आर माधवन , शरद कपूर बेन किंग्सले सिद्धार्थ, श्रद्धा कपूर, वैभव कपूर, पंकज झा
निर्माता : अंबिका हिंदूजा
डायरेक्टर : लीना यादव
गीत : इरफान सिद्दिक, आसिफ अली बेग
संगीत : सलीम सुलेमान
सेंसर सर्टिफिकेट : यू /
अवधि : 209 मिनट
रेटिंगः**1/2
इस फिल्म की डायरेक्टर लीना यादव का नाम करीब पांच साल पहले आई फिल्म ' शब्द ' के साथ जुड़ा है। संजय दत्त और ऐश्वर्या रॉय जैसे नामी स्टार्स को लेकर लीना ने करीब पांच साल पहले भी एक नया प्रयोग किया था , लेकिन उस वक्त दर्शकों ने इसे स्वीकारा नहीं। हां , इस बार मामला कुछ बदला हुआ है , बेशक लीना ने फिर बिकाऊ स्टार कास्ट का सहारा लिया है लेकिन कहानी में कुछ नयापन भी पेश करने की कोशिश की है। दरअसल , बॉलिवुड में जुए को बेस बनाकर ढाई घंटे की फीचर फिल्म बनाने का ट्रेंड अभी पनप नहीं पाया है। हॉलिवुड में यही ट्रेंड बरसों से चल रहा है और पसंद किया जाता है वहीं हमारे यहां बी , सी सेंटरों के अलावा छोटे शहरों के सिनेमाघरों में ऐसी फिल्म चलने के चांस कम होते है।

कहानी : इस फिल्म की कहानी का प्लॉट दो साल पहले आई हॉलिवुड फिल्म 21 के काफी करीब है। जाने - माने मैथमेटिशन वेकंट सुब्रह्माण्यम ( अमिताभ बच्चन ) को शिकवा है कि उनकी इस आर्ट की कोई कद नहीं है। वेकंट ने जब भी अपनी गणित से जुड़ी कोई रिसर्च आला अधिकारियों को भेजी , हर बार उसे निराशा हाथ लगी। लेकिन वेकंट तीन पत्ती के खेल में खुद को परफेक्ट पाता है , हर बाजी को जीतने की आर्ट उसमें है। वेकंट के साथ कॉलेज का प्रोफेसर शांतनु बिश्वास ( आर माधवन ) और कॉलेज के कुछ ऐसे स्टूडेंट शामिल हैं जिन्हें रातोंरात पैसा बनाना है। भले ही वे सब पहली गेम में करोड़पति बन जाते हैं , लेकिन इसके बाद इनकी जिंदगी में भूचाल जाता है।

स्क्रिप्ट : फिल्म की स्क्रिप्ट में कोई नयापन नहीं है। अच्छा होता कि लीना मुंबई और छोटे शहरों के बीच तेजी से पनपते जुए के अड्डों पर कोई ऐसी फिल्म बनाती जिसमें समाज के लिए कोई संदेश होता। वैसे , कहानी के आखिर में जुए को बुरा और इंसान को बर्बाद करने वाला गेम साबित करने की कोशिश की गई है , लेकिन डायरेक्टर का यह मेसेज आम दर्शक की समझ में इसलिए नहीं सकता कि क्योंकि सर बेन किंग्सले और बिग बी के बीच के सभी संवाद अंग्रेजी में हैं।

एक्टिंग : इस फिल्म में बॉलिवुड और हॉलिवुड की दो ग्रेट हस्तियां है , लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि डायरेक्टर ने इनसे बेहतर काम लिया। बिग बी इससे पहले भी कई बार ऐसे लुक और रोल में नजर आए तो बाकी किसी कलाकार के हिस्से में ऐसा बड़ा रोल नहीं था जो कुछ कर पाता। हां , आर माधवन ने स्टार्स की लंबी चौड़ी भीड़ के बीच अपनी मौजूदगी का एहसास कराया है। शक्ति कपूर की बेटी श्रृद्धा कपूर ने इस फिल्म के साथ करियर की शुरुआत की लेकिन फिल्म में उसके करने के लिए कुछ था ही नहीं जो वह अपनी प्रतिभा दिखा पाती।

संगीत : सलीम सुलेमान के संगीत में नयापन या मैलोडी नहीं है जो सुनने में अच्छी लगे। थोड़ा थोड़ा शबाब है , तेरी नीयत खराब है का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है।

डायरेक्शन : शब्द के करीब पांच साल बाद निर्देशन में लौटी लीना ने एकबार फिर निराश किया। सेक्सी दृश्यों और बेवजह के एक्शन सीन कहानी में फिट करने के चलते स्क्रिप्ट से भटक गईं।

क्यों देखें : अगर तीन पत्ती के शौकीन हैं और किसी हारी हुई बाजी को जीतने की जुगाड़ में लगे हैं तो यह फिल्म आपके लिए हो सकती है।
(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,दिल्ली,26.2.10)
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बॉलीवुड में बदलाव की बयार सी बह रही है और कुछ हटकर अलग मानदंडो पर फिल्में आ रहीं है, नई फिल्म तीन पत्ती भी बहुत कुछ ऐसे ही बदलाव का सकेंत है। तीन पत्ती की पटकथा चालू बॉलीवुड की फिल्मों से थोड़ी सी अलग सी है और फिल्म की निर्देशक लीना यादव ने एक प्रयोगशील सिनेमा की फिल्म बनाने का प्रयास किया है। घटनाओं को फ्लैश बैक और वर्तमान के साथ जिस तरह से फिल्माया गया है वह बेहद उम्दा है और सिनेमैटोग्राफी का बेहतरीन प्रयोग फिल्म की रोचकता को बढ़ाने वाला है।

अमिताभ बच्चन ने व्यंकट के किरदार के रुप में शानदार अभिनय किया है लेकिन कुछ संवादों में जीवंतता का अभाव झलकता है। दूसरी ओर बेन किंग्सले जैसे अभिनेता के लिए फिल्म में रोल और खास बनाया जा सकता था।। किंग्सले का जो किरदार है वह कुछ कमजोर सा है और इसके लिए फिल्म की निर्देशक लीना यादव को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। शब्द जैसी फिल्म से शुरुआत करने वाली लीना यादव ने इस फिल्म में युवा कलाकारों को भरपूर अवसर दिया है और सफलता के टोटके के लिए बेहद हॉट सांग भी फिल्माया गया है।

जीवन का गणित जादू से कम नहीं होता,दरअसल जिंदगी का गुणा भाग जादू नहीं एक गणित है और फिल्म निर्देशक लीना यादव की नई फिल्म तीन पत्ती का पहला पत्ता यहीं कहता है। पैसा बहुत मेहनत से इंसान के हाथ आता है, और जिसके पास पैसा आता है उसके पास पॉवर भी खुद ब खुद आ जाता है। लेकिन जिंदगी के इस खेल में इसके साथ ही संबंधों में भी एक टिवस्ट आता है, एक ऐसा ट्विस्ट जो आपके अपने कारण नहीं बल्कि उस पैसे की ताकत के कारण आता है जिसके पीछे शायद यह धरती भी हाय पैसा पैसा कहते घुम रहीं है। अमिताभ बच्चन और बेन किंग्स ले के अभिनय से सजी तीन पत्ती का दूसरा पत्ता तो यहीं कहता है।

और इस खेल में हर कोई एक ब्लैकमेलर की तरह है। बॉलीवुड की नई फिल्म तीन पत्ती का तीसरा पत्ता तो यहीं कहता है। फिल्म की निर्माता अंबिका हिंदुजा है। अंबिका इससे पहले बींइग सायरस जैसी फिल्म की निर्माता रह चुकी है और इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते थे और अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में बेहद पसंद की गई थी।

तीन पत्ती दरअसल ताश के तीन पत्तो और पोकर गेम की बात करती हुई कुछ अलग अंदाज की थ्रिलर फिल्म है जिसमें भावनाओं का ज्वार भाटा भी है, पैसे के लालच और संबधो का छलकपट भी देखने को मिलेगा। फिल्म में एक गणितज्ञ का ब्यूटीफुल मांइड की कल्पना की परवाज भी है। तीन पत्ती के एक छोर पर भारत का एक महान गणितज्ञ वेंकट अमिताभ बच्चन है जो प्रायिकता के सिंद्धात पर कार्य करते हुए अपने ज्ञान के माध्यम से पोकर गेम के समीकरण को क्रेक करने का खेल खेलता है। लंदन के हाई रोलिंग कैसिनो में वेंकट की मुलाकात संसार के सबसे बड़े गणितज्ञ पर्सी ट्रेचेंटबर्ग बेन किंग्सले से होती है। वेंकट यहीं पर्सी को एक ऐसे समीकरण के बारे में बताता है जिसके कारण गणित के साथ उसके संवाद में बदलाव तो आता ही है और इसके साथ जिंदगी से जुड़े कुछ खास चेंज भी और ग्लानि के कुछ दर्द भरें छड़ भी।

व्यंकट सुब्रमण्यम ताश की दुनियां में पैसा तो नहीं कमाना चाहता लेकिन अपने सोच के जादू के सहारे पोकर गेम के समीकरण को ब्रेक करने की तमन्ना रखता है और इसके लिए वह एक अन्य प्रोफेसर शांतनु माधवन और कुछ शिष्यों की मदद भी लेता है। प्रयोग और पोकर की इस खेल में ऐसा बहुत कुछ होता है जो वेंकट और शांतनु के नियंत्रण से आगे की चीज बन जाता है।

तीन पत्ती एक आधुनिक फिल्म है जिसमें बेन किंग्सले और अमिताभ बच्चन गणित के महान प्रोफेसर के रुप में आपने सामने नजर आएगें। बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन और ऑस्कर अवार्ड विजेता बेन किं ग्सले के अलावा इसमें दक्षिण भारत की फिल्मो के सुपर स्टॉर माधवन के अभिनय से सजी तीन पत्ती का संगीत सलीम सुलेमानी ने तैयार किया है।

तीन पत्ती में साइरा मोहन और राइमा सेन के अलावा बॉलीवुड में नई इंट्री के रुप में धुर्व , श्रद्धा कपूर, वैभव , सिद्धार्थ खेर और वैभव तलवार ने किरदार के साथ न्या करने का प्रयास किया है। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को सफल बनाने के लिए निर्देशिका ने बड़ी स्टॉर कास्ट के साथ बेहद हॉट सांग रखनें में भी संकोच नहीं किंया है, नियत एक ऐसा ही सांग है। कुछ नया देखनें की इच्छा रखने वालें दर्शकों को यह फिल्म पसंद आएगी और हॉलीवुड और बॉलीवुड के दो महान कलाकारों का एक साथ आना दर्शकों को खींच सकता है। दरअसल तीन पत्ती एक कोशिश का नाम है और इस खास और अलग प्रयास के लिए निर्देशिका लीना यादव को आप साधुवाद दे सकतें है।
(राजेश यादव,दैनिक भास्कर,दिल्ली,27.2.10)

Friday, February 26, 2010

हिंदी यूपी स्टाइल

पिछले दिनों खबर आई कि प्रियदर्शन की एक फिल्म के लिए बिपाशा बसु बिहारी शैली सीख रही हैं। आज नई दुनिया ने दिल्ली संस्करण में खबर छापी है कि "विद लव टू ओबामा" फिल्म में गैंगस्टर मुन्नी मैडम की भूमिका निभाने के लिए, नेहा धूपिया ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से यूपी स्टाइल हिंदी सीखी है। सुभाष कपूर निर्देशित इस फिल्म की शूटिंग आजकल मुंबई से २८५ किमी दूर स्थित हिल स्टेशन महाबलेश्वर में चल रही है । नेहा इस फिल्म मेंमेरठ की गैंगस्टरमुन्नी मैडम की भूमिका निभा रही हैं जो यूपी स्टाइल हिंदी में बात करती है । नेहा को यूपी की हिंदी नहीं आती थी सो इस किरदार के चैलेंज को स्वीकारते हुए उन्होंने उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के कई वीडियो देखे । उनका हिंदी बोलने का अपना खास अंदाज है । उनकी खास बॉडी लैंग्वेज है। गौरतलब है कि "विद लव टू ओबामा" में नेहा धूपिया के साथ रजत कपूर, अमोल गुप्ते और संजय मिश्रा प्रमुख भूमिकाओं में हैं।

Wednesday, February 24, 2010

अपने-अपने कुनबे की हिफाजत में उलझता कॉपीराइट मामला

(चित्र अभिव्यक्ति डॉट कॉम से साभार)
कॉपीराइट को लेकर केंद्रीय स्तर पर कुछ चल रहा है,इसकी ओर पहली बार गंभीर ध्यानाकर्षण आमिर के इस्तीफे के कारण हुआ था। उसके बाद से,गीतकारों और अभिनेताओं की लॉबी गाने की लोकप्रियता के कारण को अपने-अपने नजरिए से देखे जाने की वकालत करती रही है। इसी सिलसिले में,मध्यमार्ग सुझाता कंप्यूटर तकनीक विशेषज्ञ और स्वतंत्र टिप्पणीकार बालेंदु दाधीच जी का यह आलेख देखिए जो आज के दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण में विवादों का गीत शीर्षक से प्रकाशित हुआ हैः
हितों का टकराव पिछले दिनों आमिर खान और जावेद अख्तर में कापीराइट समिति की बैठक में हुई तकरार से गीत की सफलता में सर्वाधिक योगदान पर अप्रिय और बेवजह का विवाद खड़ा हो गया है। भले ही आमिर खान ने कापीराइट पैनल से इस्तीफा वापस ले लिया है, मगर बहस अपनी जगह कायम है। इस विवाद ने जावेद अख्तर के पक्ष में सहानुभूति की लहर पैदा की है और जिसे देखिए वही गीतकारों के साथ नाइंसाफी पर अफसोस में गमजदा दिखाई देता है। अलबत्ता, ऐसे विवादों पर भावुकता के बजाए व्यवहारिकता और औचित्य के आधार पर विचार करना चाहिए। जावेद अख्तर का यह कहना कि पापा कहते हैं. गाना अभिनेता के रूप में आमिर खान के योगदान की वजह से हिट नहीं हुआ, एकदम तर्कसंगत है। वह आमिर की पहली फिल्म थी और प्रशंसकों के बीच तब तक उनकी ऐसी हैसियत नहीं थी कि वह किसी फिल्म या किसी गाने को अपने दम पर हिट करवा लें। दूसरी ओर जब हम दिल का हाल सुने दिलवाला. या याहू! चाहे कोई मुझे जंगली कहे. जैसे गाने सुनते हैं तो अपने मस्तिष्क पर उभरती राजकपूर और शम्मी कपूर की सदाबहार तस्वीरों को मन से मिटा नहीं पाते। ऐसे गानों की सफलता में किसका हाथ माना जाए? निर्माता-निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्रियों का या गीतकार का? जावेद साहब कृपया क्षमा करें, हमारे फिल्मोद्योग में एक तरफ जहां तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, संगीत, ग्राफिक्स आदि क्षेत्रों में जबरदस्त तरक्की हुई है, वहीं लेखन के क्षेत्र में गिरावट आई है। गुलजार, जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे उत्कृष्ट गीतकारों की संख्या कितनी है? दूसरी ओर ऐसे गीतकारों और लेखकों की भरमार है जो पलक झपकते ही जिस सिचुएशन के लिए चाहें गीत लिखकर देने को तैयार हैं। अभी गुलजार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि गाने किसी भी फिल्म की ऐसी कमोडिटी बन गए हैं जो त्वरित उपभोग के लिए तैयार की जाती है। उसकी गुणवत्ता की फिक्त्र किसे है? क्या यह बात किसी से छिपी है कि कई दशकों से बालीवुड की अधिकांश फिल्मों में संगीत पहले तैयार होता है, उसमें फिट करते हुए गीतों के बोल बाद में लिखे जाते हैं। यदि ऐसे गाने सफल होते हैं तो क्या उनके पीछे संगीतकार का योगदान ज्यादा बड़ा नहीं? फिर गीत तो ऐसे भी हिट हो रहे हैं जिनके बोल सुनकर सिर पीटने को जी चाहता है। पैसा-पैसा करती है क्यों पैसे पर तू मरती है. आजकल संगीत के चार्ट्स में टाप पर चल रहा है। मगर जरा इसके बोल तो देखिए! एक दो तीन चार पांच छह सात आठ नौ दस ग्यारह, बारह तेरह. के बोल क्या बहुत उत्कृष्ट हैं? लेकिन यह गाना सफल हुआ तो शायद अपने संगीत और माधुरी दीक्षित के दिलकश अंदाज के कारण। मैं चाहे ये कहूं मैं चाहे वो करूं मेरी मरजी. की सफलता के लिए क्या गीतकार को श्रेय देंगे? शायद उससे बड़ा श्रेय अभिनेता गोविंदा और संगीतकार को जाता है। पश्चिम में शकीरा से लेकर बेयोंसी तक अपने गीतों के बोल खुद लिखती हैं और कमाल देखिए कि एक गैर-पेशेवर गीतकार होने के बावजूद उनके गीत संगीत के साथ मिलकर हिट हो जाते हैं। एआर रहमान जिस फिल्म का संगीत देते हैं, उसके गाने सफल होते ही हैं, भले ही गीतकार कोई भी हो। यह अलग बात है कि अगर गीत अच्छे हैं और उन्हें रुचिकर ढंग से फिल्माया गया है तो गानों का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। अगर जावेद अख्तर और आमिर खान यह मान लें कि गाने की सफलता में किसी एक का कम या ज्यादा नहीं, बल्कि सभी का सम्मिलित योगदान है, तो यह बहस यहीं समाप्त हो जाए। ऐसा करने पर सारे विवाद हल हो जाएंगे, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि 53 साल पुराने कापीराइट अधिनियम की जिस दरकती इमारत को दुरुस्त करने का जिम्मा उन्हें दिया गया है, उसमें अपने-अपने वर्ग के हितों की सुरक्षा करना उनकी पहली प्राथमिकता है। दूसरी तरफ आप और हम बौद्धिक संपदा अधिकारों और कापीराइट जैसे मुद्दों पर फालतू की बहस में उलझे हैं।