बूढ़े पिता कुछ महान फिल्मों के केंद्र में रहे हैं। उनका अतीत, उनकी क्रूरताएं, उनके संताप, उनकी तानाशाहियां, उनकी विकलताएं, उनकी विफलताएं, उनका बेगानापन, उनकी चीख-पुकार, उनकी चुप्पी, उनकी कुंठाएं और उनका अकेलापन। लगभग हर बड़ा फिल्मकार अपने पिता को समझने को कोशिश करता रहा है। इतालवी फिल्मकार बतरेलुच्चि ऐसे ही फिल्मकार रहे हैं।
शायद यह खुद को समझने की कोशिश भी होती है। पिता के साथ संतति के संबंध अमूमन जटिल होते हैं और शायद यही वजह है कि फिल्मकारों ने पिता को बार-बार आविष्कृत करने की कोशिश की। इस मामले में मुझे एक डच फिल्म की याद आती है, जहां पिता की तानाशाही के पीछे संरक्षक की चिंताएं और दुविधाएं थीं। पिता पालक है, वह मुखिया है, तो वह सामंत भी है। वह निर्माता है तो वह निर्देशक भी है। यह करो, यह न करो का कोहराम। वह अधिनायक है। वह रहस्यवाद है।
वह छायावाद का कुहासा भी है, लेकिन प्रयोगवाद वह नहीं है। वह नई कविता भी नहीं है। वह परंपरा और सुरक्षा है। वह लीक से हटना नहीं है। वह भारी-भरकम अनुभवों का डायनासोर है, जो अपने आकार से डराता है, लेकिन जो डरा हुआ है। तमाम फिल्मों में पिता को तरह-तरह से देखा गया है। एक दिन अचानक (1989) फिल्म में पिता की जांच उस समय शुरू होती है, जब वह जाते हैं तो लौटते नहीं। खोने के अवसाद के बीच यह सामने आने लगता है कि पिता बहुत औसत थे।
पिता के बारे में यह मिथक का टूटना है। मृणाल सेन की फिल्म में पितृत्व का गहरा विखंडन है। हिंदी कहानी में एक समय में पितृहंता दौर का जोर था। ज्ञानरंजन की मशहूर कहानी पिता में पिता और बेटे के बीच इकट्ठा होती बर्फ का पहाड़ पिघलता नहीं दिखता। मृणाल पिता को लेकर एक और तरह से प्रश्नाकुल हैं। पिता का डिकंस्ट्रक्शन खुद फिल्मकार का अपना विखंडन भी तो हो सकता है। एक दिन अचानक में बेटी अपने पिता को पहचानने की कोशिश कर रही है। फादरहुड का देवत्व रोज ढह रहा है।
जॉन पॉवर की फिल्म पिता (1990) में बेटी की दुनिया तब बिखरती है, जब उसे पता लगता है कि उसके बूढ़े पिता नाजी थे। एक दिन अचानक में पिता नृशंस नहीं हैं, वह कायर हैं। लगभग हर बेटे की तरह उनका बेटा भी पिता पर अपनी अनदेखी का अभियोग लगाया करता है। एक दिन अचानक फिल्म में पिता की भूमिका बखूबी निभाने वाले श्रीराम लागू के बारे में उनकी बेटी का रोल निभाने वाली शबाना आजमी का यह संदेह भी है कि पढ़ाने वाले और लिखने-पढ़ने का काम करने वाले पिता कहीं प्लेजिअरिस्ट तो नहीं थे, दूसरों के काम को अपना बनाकर पेश करने वाले। कहना चाहिए कि पिता की पड़ताल में फिल्म निर्मम होती जाती है।
संरचना की नजर से देखें तो बारिश की एक शाम बूढ़े पिता का गायब होना एक बढ़िया सिनेमाई तकनीक है। इस आलेख को मैं यह बताए बिना नहीं खत्म करना चाहता कि मेरे दोस्त निशीथ के पिता के पिता एक दिन गायब हो गए थे। वे भी जाने के बाद नहीं लौटे। वहां शायद इच्छाओं से मुक्ति का विजन था।
(कवि और फिल्मकार देवी प्रसाद मिश्र का आलेख,दैनिक भास्कर,दिल्ली,6.2.10)
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