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Sunday, February 21, 2010

गीत कॉपीराइट विवादःभारत की परिस्थितियां अलग हैं....

संभवत: अमेरिकी दबाव में केंद्र सरकार भारतीय कॉपीराइट एक्ट में संशोधन की जल्दबाजी में है। विगत कुछ माह से इसका मसविदा बनाते समय जावेद अख्तर अपने कुछ गीतकार और संगीतकार साथियों के साथ दिल्ली जाकर अपना पक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं,परंतु सरकार ने निर्माताओं की राय जानने की कोशिश नहीं की। नतीजा यह है कि संशोधन एकपक्षीय है। इसमें लेखकों के अधिकार इस तरह व्यापक हुए हैं कि एक निर्माता कंपनी से लगातार माहवारी रकम लेने वाले की किसी भी रचना के कुछ हिस्से के इस्तेमाल के लिए उसे फिर से धन मिलेगा। इस संशोधन के कानून बनने के बाद सारे वित्तीय जोखिम उठाने वाले निर्माता के अनेक हिस्सेदार होंगे, परंतु असफलता का सारा दायित्व उसके सिर पर रहेगा तथा घाटा भी वह अकेला ही सहेगा। फिल्मी गीतकार और फिल्मी लेखकों का शोषण हुआ है,परंतु उनमें से सफल आदमी को सितारा माना गया है और भरपूर मुआवजा मिला है। फिल्म ‘प्यासा’ के बाद साहिर लुधियानवी संगीतकार को दी जाने वाली राशि पाते थे। ‘प्यासा’एकमात्र भारतीय फिल्म है,जिसकी सफलता का पूरा श्रेय साहिर साहब और फिल्मकार गुरुदत्त को मिला। इस उद्योग में सफल आदमी का कोई शोषण नहीं करता,वरन वह शोषण करने की स्थिति में होता है। फिल्म की रचना में फिल्मकार के साथ अनेक लोग काम करते हैं और सबके सहयोग से ही फिल्म बनती है, परंतु पूरी टीम फिल्मकार की मूल कल्पना को ही साकार करती है, अत: वह ही रचना का मूल लेखक और कर्ता है। प्रस्तावित संशोधन केवल गीतकार,संगीतकार और लेखक के अधिकारों के प्रति सजग है और इनमें सफल लोगों को तो भरपूर मुआवजा हमेशा मिलता रहा है। सुना है कि रहमान साहब पचास प्रतिशत की रॉयल्टी पर काम करते हैं। यह संशोधन सफल और अमीर रचनाकारों को और अधिक अमीर बनाएगा,परंतु यह अधिकतम के कल्याण का शंखनाद नहीं है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि सुपरहिट गीत सितारों को जन्म देते हैं और गीत के सुपरहिट होने में सितारे या फिल्मकार का कोई योगदान नहीं है। उदाहरण दिया जा रहा है कल्याणजी-आनंदजी के संगीत का,जो फिल्म ‘सरस्वतीचंद्र’के लिए रचा गया था और जिसने इसके नायक को सितारा बना दिया। हकीकत यह है कि उस नायक को इसके बाद काम ही नहीं मिला। अनेक फिल्में संगीत की सहायता से चली हैं,परंतु संगीत एकमात्र कारण नहीं है। मधुर संगीत के बावजूद फिल्में असफल रही हैं। आरके बैनर के इतिहास में ‘आह’का संगीत मधुर था, परंतु फिल्म नहीं चली। यह सच है कि कॉपीराइट एक्ट 1957 में संशोधन की आवश्यकता है,परंतु यह एकपक्षीय नहीं होना चाहिए। भारत में फिल्म संगीत उद्योग विदेशों के संगीत उद्योग से अलग है, अत: नियम भी अलग होने चाहिए। सरकार कम से कम इतना तो कर सकती है कि पूरे उद्योग का पक्ष सुने। इस प्रकरण में सरकार की जल्दबाजी समझना कठिन है। शायद पश्चिम का दबाव है। यह भी अजीब है कि संसद में महिला सांसदों के आरक्षण का प्रस्ताव वर्षो से विचारार्थ है और गीतकारों को संरक्षण देना जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। किसी पुरानी फिल्म में लगभग अनजान से रहे शायर सर्शार शैलानी का गीत है-चमन में इम्तिजाजे रंगों बू से बात बनती है। तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो, हमीं हम हैं तो क्या हम हैं।
(दैनिक भास्कर,दिल्ली,20.2.2010 में जयप्रकाश चौकसे जी का यह आलेख परदे के पीछेःचमन में गेंदा-गुलाब की तकरार शीर्षक से छपा था)

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