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Saturday, February 20, 2010

क्लिकःफ़िल्म-समीक्षा

कलाकार : श्रेयस तलपडे, चंकी पांडे, स्नेहा उल्लाल, सदा
निर्माता : प्रीतिश नंदी कम्यूनिकेशन
निर्देशक : संगीत सिवान
संगीत : शमीर टंडन
सेंसर सर्टिफिकेट : ए ( केवल वयस्कों के लिए )
अवधि : 131 मिनट।
हमारी रेटिंग : **1/2
कभी भूत - प्रेत और भटकती आत्माओं या जादू टोने पर बनने वाली फिल्मों को सी क्लास सेंटरों की फिल्मों की कैटिगरी में रखा जाता था। दरअसल, 70-80 के दशक में रामसे ब्रदर्स बैनर की फिल्मों के बीच जानी दुश्मन जैसी ऐसी फिल्में आई जिनकी कहानी इन्हीं तक सिमटी रही। राम गोपाल वर्मा ने जब हॉरर फिल्में बनाई तो डरावने और वीभत्स चेहरे स्क्रीन पर नहीं थे बल्कि उनकी जगह साउंड और लेटेस्ट तकनीक ने ली और इन फिल्मों के दर्शक हर छोटे बड़े शहर में मिलने शुरू हुए। इस फिल्म की कहानी भी भटकती आत्मा और उसके इंतकाम से जुड़ी है, लेकिन कैमरे और लेटेस्ट तकनीक के बेहतर इस्तेमाल ने इस कहानी को सी क्लास हॉरर फिल्मों से अलग श्रेणी में लाकर रख दिया है।

कहानी : फिल्म शुरू होती है फैशन फोटो शूट से। मॉडल सोनिया ( सदा ) अपने प्रेमी बॉयफेंड अवि ( श्रेयस तलपडे ) के घर में एक मैगजीन के लिए फोटो शूट में बिजी हैं। स्कूल ऑफ आर्ट से डिप्लोमा लेने के बाद अवि ने फैशन फोटोग्राफर का करियर चुना और अब जानामाना कैमरामैन है। एक अंधेरी रात में शूट के बाद सदा और अवि कार से किसी सुनसान जगह से गुजरते हैं। सोनिया कार ड्राइव कर रही है , अचानक कार से एक महिला टकराती है और कार एक बोर्ड से टकराकर रुक जाती है। सोनिया पीछे देखती है सड़क पर महिला बेहोश हालत में पड़ी है ,सोनिया उसे अस्पताल ले जाना चाहती है लेकिन अवि पुलिस के पचड़े से बचना चाहता है और सोनिया को वापस चलने को कहता है। सड़क पर घायल महिला को छोड़ दोनों वहां से चले जाते है। यहीं से इनकी खुशहाल जिंदगी बदहाल हो जाती है। हर रात कोई छुपा साया सोनिया का पीछा करता है तो अवि द्वारा खींची गई हर फोटो में भी एक अनजान साया दिखाई देता है। इस बीच अवि के तीन खास दोस्तों की हत्या हो जाती है। खौफ और हर पल मौत के साये में जिंदगी गुजर रही सोनिया इस साये की सचाई तक जाने का फैसला करती है इसके बाद ऐसा सच सामने आता है जो सोनिया को अवि का एक और चेहरा दिखाता है।

ऐक्टिंग : श्रेयस तलपड़े कैमरामैन के रोल में फिट है , श्रेयस ने अपने रोल को असरदार करने के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। श्रेयस के सिवा फिल्म में बाकी सबने तो बस अपना रोल निभा भर दिया है। स्नेहा उल्लाल को अच्छा रोल तो मिला,लेकिन रोल में जान डालने में कामयाब नहीं रही। वहीं सदा भी जब स्क्रीन पर आई बस डरा डरा मुरझाया चेहरा ही दिखाती नजर आई।

संगीत : ऐसी फिल्मों में गाने रुकावट बनकर रह जाते है। कुछ यही हाल इस फिल्म में भी है गाने अच्छे और कर्णप्रिय है , लेकिन स्क्रिप्ट में उनके लिए गुंजाइश नहीं थी,सो चम चम चांद सा चेहरा , यादें याद आती है , मेरी जान जाती है जैसे अच्छे गाने भी असर नहीं छोड़ पाते।

निर्देशन : कैमरामैन से डायरेक्टर बने संगीत की कैमरे पर गजब पकड़ है, इसके बावजूद फोटोग्राफी साधारण है और आधी से ज्यादा फिल्म को ना जाने क्यों ब्लू या डॉर्क में शूट किया गया है। इंटरवल से पहले दर्शकों को डराने के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया लेकिन दर्शक डरने की बजाय हंसते नजर आए।

क्यों देखे : अगर आप भूत-प्रेत और इंतकाम के लिए भटकती आत्माओं में यकीन रखते है। तो अपने यकीन को पदेर् पर देखने की चाह में एकबार जा सकते है।
(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,दिल्ली,19.2.10)


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19 फरवरी के हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर ने इस फिल्म को केवल एक स्टार देते हुए लिखा हैः-
Rating: *

The math of this movie is pretty sound. The film, by its genre (horror) alone, is likely to be certified for adult viewing. This gives them bandwidth to slip in the odd sleaze. For long, this has been the primary purpose of Ramsay sort of horror movies anyway – the heroine bathes under a shower in a white petticoat up till her neck; she lies around in bed in a negligee, waiting for the vampire to undress her from the back… You know what I mean: the great Indian erotically repressed on-screen delicacy!

The filmmakers bring in here instead a bunch of under-dressed models to pose for a fashion photographer, the hero. Items strike the pose. Songs play in the background. You don’t want to figure movements in the theatre’s front-seats.

Budget for such flicks remain low. The losses (like the investments) aren’t much. No one walks into such a film expecting a super-star, super-script, or any sort of worldview. Shreyas Talpade is the leading man. An unknown face is his leading lady. Sundries from Mumbai’s Lokhandwala make for rest of the bumbling cast.

The leading duo in this film imagines phantom images of a girl they knocked down in a car crash. They fled after the accident. The victim follows them around. She appears in pictures they click. You get the drift: she’ll appear, and then disappear. The audience will wait in anticipation. Hopefully.

And then you watch how something this simple can so well be screwed up. Characters (psychic shrink, poet for a photo-shop owner, kooky parents, collegian rapists…) materialise from nowhere, and disappear accordingly. One commits suicide piercing a knife through his neck; the other, lies in bed with a charred face. There’s a back-story to every back-story. The rubbish never stops.

The raw-stock, I suspect, came for free. The soundness of math is lost in the cacophony of the background score. You can’t even sleep in pieces. How you wish such bull remained in the balance sheet alone.

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