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Saturday, February 13, 2010

माइ नेम इज खानःबहस जारी है......

8 फरवरी के नभाटा में शाहरुख का अपमान करने वालों आजादी के दीवानों का अपमान किया शीर्षक से एक आलेख छपा है। त्रिलोचन सिंह से विवेक कुमार की बातचीत पर आधारित रिपोर्ट को आप भी देखिएः-
कुछ दिनों पहले जब टीवी पर शिव सैनिकों को शाहरुख खान की फिल्म के पोस्टर्स फाड़ते और 'शाहरुख गद्दार है' के नारे लगाते देख रहा था, तो एक फिल्म मेरे जेहन में भी चल रही थी। इस फिल्म में भी एक 'खान' था। झंडा लिए वह आगे-आगे चल रहा था और उसके पीछे सैकड़ों की तादाद में हम कच्ची उम्र के लड़के चल रहे थे। हम सभी लड़कों में भी वैसा ही जोश और जुनून था, जैसा इन शिव सैनिकों में था। टीवी पर चलती विडियो फुटेज और मेरे जेहन में चलती 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' की उस ब्लैक ऐंड वाइट सी फिल्म में बहुत कुछ एक जैसा था,लेकिन एक बड़ा फर्क था। ये शिव सैनिक इस खान के पीछे पड़े हुए थे और उसे देशद्रोही साबित कर देने पर आमादा थे, जबकि हम अपने उस 'खान' की देशभक्ति की कसमें खाते हुए उसके एक इशारे पर मर मिटने को तैयार थे। क्या यह महज संयोग है कि उस आजादी की जंग के हीरो गुलाम मोहम्मद गामा, आज की इस शिवसेना के 'विलेन' शाहरुख खान के ताऊ थे?

बहुत कम लोग जानते हैं कि शाहरुख खान जिस परिवार से आते हैं,उसने इस मुल्क की आजादी के लिए कितनी कुर्बानियां दी हैं। जो लोग आज शाहरुख को देशद्रोही कहते हैं, वे शायद ही जानते होंगे कि उनके पिता ताज मोहम्मद मीर ने अंग्रेजों के खिलाफ कितने आंदोलनों में हिस्सा लिया,लाठियां खाईं और जेल गए। सितंबर-अक्टूबर 1942 में जब पूरे देश में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा गूंज रहा था, तब पेशावर की गलियों में उस नारे को जन-जन तक पहुंचाने का काम गुलाम मोहम्मद गामा ही कर रहे थे। उनकी तकरीरों का जादू ऐसा था कि हम लोग अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर उनके पीछे चल देते थे। उनके शब्द ऐसा जोश फूंकते थे कि अंग्रेज तक कांपने लगे और उन्होंने गामा को उठाकर जेल में बंद कर दिया। लेकिन पेशावर की गलियों में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' की आवाज जरा भी धीमी नहीं पड़ी। गामा के बाद उस आवाज को संभालने वाली सबसे बुलंद आवाजों में से एक आवाज शाहरुख के पिता ताज मोहम्मद मीर की थी।

ताज के शब्दों में यह देशभक्ति का उफान पाकिस्तान के लिए या कोई इस्लामिक मुल्क बनवाने के लिए नहीं, भारत की आजादी के लिए था। वह और उनके बड़े भाई गामा जेलों में रहे, तो पाकिस्तान के लिए नहीं,बल्कि भारत के लिए। पेशावर की गलियों के जुलूस जलसों से लेकर जेल तक का सफर मैंने अपने हमउम्र साथी ताज मोहम्मद के साथ तय किया। जंग-ए-आजादी में उसने मुझ पर पड़ने वाली कितनी ही लाठियां अपनी पीठ पर झेलीं और उसके बदन पर पड़ने वाली ठोकरें मैंने सहीं, लेकिन कभी लगा ही नहीं कि वह मुसलमान है या मैं हिंदू।

गामा तो पाकिस्तान और मुस्लिम लीग के इतने कट्टर विरोधी थे कि पाकिस्तान बनने के बाद भी मुस्लिम लीग उनसे डरती रही और उन्हें आजादी के बाद भी आठ सालों तक जेल में रखा। आज जो लोग शाहरुख को कोस रहे हैं, वे शायद ही इस बात को समझ पाएं कि शाहरुख की रगों में वह खून दौड़ रहा है, जो आजादी के बाद भी मुस्लिम लीग की फिरकापरस्ती के खिलाफ लड़ता रहा। गामा के लिए तो आजादी पाकिस्तान और भारत बनने के आठ वर्ष बाद आई थी। जब वह ढाका जेल से रिहा हुए और पेशावर जाते हुए दिल्ली में मुझसे मिले,तब उनकी आंखों में मुल्क के बंटवारे का दर्द मैं साफ देख सकता था।

जब कुछ लोगों ने शाहरुख खान को देशद्रोही कहा,तो ख्याल आया कि ताज मोहम्मद मीर ने आजादी के बाद इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आने और दिल्ली में बसने का फैसला लेते वक्त क्या सोचा होगा?कितने ऐसे मुसलमान थे जो पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आए थे?शाहरुख को देशद्रोही कहने वाले उनकी बेइज्जती नहीं कर सकते। वह तो लाखों दिलों के बादशाह हैं। लेकिन उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाकर इन लोगों ने दरअसल देश के लिए मर-मिटने वालों का अपमान किया। उनका अपमान करने वाले क्या दिल पर हाथ रखकर खुद को भारतीय कह सकते हैं?

उधर,इसी विषय पर नई दुनिया,दिल्ली संस्करण,13 फरवरी की संपादकीय टिप्पणी भी काबिलेगौर हैः
शिवसेना की धमकियों के बीच शुक्रवार को मुंबई में आंशिक रूप से और अन्यत्र कहीं-कहीं छिटपुट विरोध के बीच "माई नेम इज खान" फिल्म रिलीज हुई। यह शायद पहली फिल्म है जो कैसी है, कैसी नहीं है, अब यह अप्रासंगिक हो चुका है। शाहरुख खान-काजोल की इस फिल्म का खासकर जो मुंबईकर देख रहे हैं, वे इस फिल्म को देखने से ज्यादा शिवसेना की राजनीति से अपना विरोध भी प्रकट कर रहे हैं और जो डरकर नहीं आ रहे हैं, वे भी ऐसा नहीं है कि शिवसेना के साथ हैं, जिनमें बड़ी संख्या में खुद मराठीभाषी भी हैं। मुंबई जैसा महानगर- जो देश के तमाम प्रांतों से आए लोगों की वजह से अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है-जिस तरह शिवसेना तथा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुंडों के हवाले हो चुका है,वह दुर्भाग्यपूर्ण है। शिवसेना तथा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसे संगठन कैसे इतने ताकतवर होते गए, इसके इतिहास में जाने का यह वक्त नहीं है मगर केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार जैसे नेताओं की जितनी हो सके, भर्त्सना की जानी चाहिए, जो उस समय शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से मिलने गए जब एक तरह से शिवसेना तथा शेष धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच जंग छिड़ी हुई थी। शरद पवार में सत्ता की भूख शायद इस कदर बढ़ चुकी है कि पैसे और ताकत के हर खेल में किसी भी कीमत पर वह शामिल हैं। एक तरफ देश की जनता उनके कारण महंगाई से त्रस्त है, दूसरी तरफ बहानेबाजी करके उन्होंने शिवसेना को भी पुनर्जीवन दे दिया है। बहरहाल, शाहरुख खान की प्रशंसा करनी होगी,जिन्होंने फिल्म की रिलीज के समय शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से माफी मांगने के सघनतम दबावों के बीच साफ कह दिया कि वे माफी नहीं मांगेंगे। वे इसके लिए क्षमा नहीं मांगेंगे कि वे अपनी टीम में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को रखना चाहते थे। ऐसा साहस पहली बार किसी अभिनेता ने दिखाया है,भले ही कुछ लोग इसे फिल्म की पब्लिसिटी का स्टंट मानें। अगर यह स्टंट भी है तो ऐसा स्टंट करने की भी हिम्मत चाहिए और जो हिम्मत हमारे नेताओं तक में नहीं है कि वे शिवसेना से सीधे टकराएं, वह हिम्मत एक फिल्म कलाकार ने दिखाई- कम-से-कम आज तक- यह अपने आपको महानायक कहने और मानने वालों के लिए भी एक सबक है। कल तक जो शाहरुख भले-भले से, सबको खुश रखने वाले "स्टार" के रूप में पहचाने जाते थे, उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष, दृढ़ रुख अपनाया, जिसकी कल्पना तक अभी तक किसी भी फिल्म वाले ने नहीं की थी,यह प्रशंसनीय है। यह वक्त शाहरुख के साथ खड़े होने का,क्षेत्रीयतावादी-कट्टरतावादी ताकतों के विरुद्ध खड़े होने का है। बहुत समर्पण हो चुका इन ताकतों के साथ, जिसके कारण देश लगातार जलता जा रहा है। इस दृढ़ता की मुंबई में ही नहीं, पूरे देश में- यहां तक कि सुदूर उत्तर-पूर्व में भी- जरूरत है। इस मामले में जो भी दल आज केंद्रीय भूमिका निभाएगा,आने वाला कल उसके साथ होगा और निश्चित रूप से वह शरद पवारों के साथ नहीं होगा, जिन्होंने बड़े आदर्शों को छोड़कर क्षुद्र राजनीति का रास्ता जीवन के संध्याकाल में बड़ी मजबूती से पकड़ रखा है। आत्महंता ऐसे ही होते हैं।

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