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Saturday, February 13, 2010

फार्मूले को ठेंगा दिखाने का फार्मूला

मल्टीप्लेक्स क्रांति ने सिने जगत का अर्थशास्त्र ही नहीं बदला,उसके सृजन कौशल का बांध भी मानो खोल दिया। अब नई पीढ़ी के नए निर्देशक नए विषय और प्रस्तुतिकरण की नई शैली से प्रयोग करने लगे हैं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री बरसों से फॉर्मूलेबाजी के लिए बदनाम रही है। मुख्यधारा की फिल्मों के अनेक फॉर्मूले तो मानो हमारी लोक-संस्कृति के हिस्से बन गए हैं। कुंभ के मेले में भाइयों का बिछड़ना और फिर बीस-चौबीस साल बाद गले में महफूज किसी लॉकेट,बांह पर बने किसी टैटू या फिर बचपन से याद रखी गई अपनी "फैमिली सिग्नेचर ट्यून" की बदौलत दोनों या तीनों का अचानक मिल जाना! इसी तरह माता-पिता की हत्या का बदला,प्रेम त्रिकोण,अमीर लड़की-गरीब लड़के की मोहब्बत आदि बॉलीवुडिया लेखकों, निर्माता-निर्देशकों के चिरप्रिय विषय रहे हैं।

अब बीते एकाध दशक से हिंदी सिनेमा ने नई करवट ली है। मल्टीप्लेक्स क्रांति ने सिने जगत का अर्थशास्त्र ही नहीं बदला, उसके सृजन कौशल का बांध भी मानो खोल दिया। नई पीढ़ी के नए निर्देशक नए विषय और प्रस्तुतिकरण की नई शैली से प्रयोग करने लगे। नए ही नहीं,स्थापित निर्माता भी इनकी फिल्मों में पैसा लगाने लगे। एक-एक कर कई बड़े सितारे अपनी स्थापित इमेज से बाहर आने के लिए इन फिल्मों में काम करने लगे। अहम्‌ बात यह कि इनमें से अनेक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल होकर धन भी बरसा चुकी हैं।

बीते साल के ठेठ आखिर में आई "थ्री इडियट्स" को ही लें। हिंदी सिनेमा में कमाई के अब तक के सारे रिकॉर्ड छिन्ना-भिन्ना कर देने वाली इस फिल्म की विषयवस्तु,कहानी और प्रस्तुतिकरण सभी कुछ फॉर्मूलों से हटकर था। इसके बावजूद इसमें विधु विनोद चोपड़ा ने धन लगाया और आमिर खान जैसे सुपर सितारे ने अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल दी। एक प्रकार से इस फिल्म की ऐतिहासिक सफलता ने यह उद्घोष कर डाला कि गैर-फॉर्मूला फिल्मों का दौर अब लंबे समय के लिए बॉलीवुड में डेरा डाल चुका है। स्वयं आमिर को ही देखें तो उन्होंने धारा से हटकर फिल्में करना मानो अपनी आदत में शुमार कर लिया है। निर्माता के रूप में अपनी पहली ही फिल्म "लगान" में उन्होंने उन्नीसवीं सदी के ग्रामीणों को क्रिकेट खेलते हुए दिखाया और पुरस्कारों के साथ-साथ टिकट खिड़की पर कामयाबी भी बटोरी। फिर निर्देशक के रूप में अपनी प्रथम फिल्म "तारे जमीं पर" में डिस्लेक्सिया जैसे अनजान शब्द को केंद्र में रखकर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाया। इस फिल्म को भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की "रंग दे बसंती"ने दिशाहीन युवाओं को राह दिखाने की कथा बयां करने के लिए बिल्कुल अलग नरेशन का इस्तेमाल किया। फिल्म के भीतर फिल्म के प्रयोग को पहले के निर्देशक यह सोचकर आजमाने से डरते कि यह दर्शकों की समझ में नहीं आएगा लेकिन राकेश को अपनी काबिलियत और दर्शकों की समझ दोनों पर भरोसा था। "रंग दे बसंती" न सिर्फ हिट हुई, बल्कि इसने न्याय के पक्ष में आगे आने के लिए देश के कई स्थानों पर युवाओं को प्रेरित किया।

उधर हमेशा एक जैसी भूमिकाएं करने के आरोप के टारगेट रहने वाले शाहरुख खान ने भी "चक दे इंडिया" करके अपने आलोचकों के मुंह बंद कर दिए थे। हमारे यहां खेल पर आधारित फिल्मों का सदा अकाल-सा रहा है। ऐसे में हॉकी और वह भी महिला हॉकी पर फिल्म बनाना आत्मविश्वास की पराकाष्ठा ही थी। फिल्म में हॉकी खेलने वाली अनग्लैमरस लड़कियों का जमघट था और उनके कोच की भूमिका में बिलकुल अनग्लैमरस शाहरुख थे। यह कल्पना करना भी असंभव था कि यशराज की किसी फिल्म में शाहरुख यूरोप जाकर हीरोइन से रोमांस नहीं करेंगे लेकिन इस असंभव को संभव किया निर्देशक शिमित अमीन ने। सारे पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हुई। नागेश कुकनूर ने भी खेल का विषय चुना लेकिन उनकी "इकबाल" में शाहरुख जैसा कोई सितारा नहीं था। यहां फिल्म का हीरो था एक मूक-बधिर ग्रामीण लड़का,जो भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल होना चाहता है। इम्तियाज अली की "जब वी मैट"ने अपने अटपटे टाइटल के कारण लोगों का ध्यान आकर्षित किया लेकिन फिल्म के कथानक और प्रस्तुतिकरण ने इसे आम चॉकलेटी रोमांस से अलग लाकर खड़ा किया। हाल ही में आई "लव आजकल"में इम्तियाज ने एक बार फिर अपना लोहा मनवाया। दो पीढ़ियों के लिए प्रेम के मायने में अंतर को उन्होंने एक अलग ही अंदाज में प्रस्तुत किया।

अनुराग बसु की "लाइफ इन ए मेट्रो" की बॉक्स ऑफिस पर सफलता ने भी कइयों को हैरत में डाला। यहां अलग-अलग लोगों की कहानियां प्यार,विवाह और विवाहेतर संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। निशिकांत कामथ की "मुंबई मेरी जान"११ जुलाई २००६ को मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों के बाद की स्थितियों पर केंद्रित थी। अभिषेक कपूर की "रॉक ऑन" एक रॉक बैंड के सदस्यों की कहानी थी। उधर ग्लैमर और संगीत प्रधान "हम दिल दे चुके सनम"बनाने के बाद संजय लीला भंसाली ने "ब्लैक" बनाकर सबको चौंका दिया। यहां न ग्लैमर था और न ही संगीत।

हाल में आई "गुलाल" और "फैशन" जैसी जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों का यथार्थ बताती फिल्मों की व्यावसायिक सफलता भी उल्लेखनीय रही। इधर अयान मुखर्जी की "वेक अप सिड"में एक बिगड़े रईसजादे की कहानी थी जिसे अपने से उम्र में बड़ी महिला का सान्निध्य पाकर अपने जीवन की निरर्थकता का अहसास होता है।
(नई दुनिया,दिल्ली,13.2.10 के इंद्रधनुष परिशिष्ट में सिद्धांत सूरी का आलेख)

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