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Friday, February 12, 2010

माई नेम इज खानःफिल्म समीक्षा

(हिंदुस्तान,पटना,13.2.10)

TOI,Delhi,12.2.10
कलाकार:शाहरुख खान, काजोल,जिम्मी शेरगिल , जरीना वहाब,विनय पाठक,आरिफ जकारिया,नवनीत निशान निर्माता : धर्मा प्रॉडक्शन और रेड चिली एंटरटेनमेंट
डायरेक्टर : करण जौहर , गीत : निरंजन अय्यगंर
संगीत : शंकर एहसान लॉय , सेंसर सर्टिफिकेट : यू / ए
अवधि : 161 मिनट
रेटिंगः****
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 को हुए आतंकी हमले के बाद दुनियाभर में एक समुदाय के प्रति बदली सोच को लेकर अब तक आधा दर्जन के करीब फिल्में बन चुकी हैं। इस फिल्म के निर्माता करण जौहर की पिछली फिल्म ' कुर्बान ' भी इस मुद्दे पर बनी थी , लेकिन जब इस फिल्म के साथ बतौर डायरेक्टर करण जौहर और लीड जोड़ी में ग्लैमर जगत के दो ऐसे सितारे , शाहरुख खान और काजोल का नाम जुड़ा हो जिनकी फिल्म का सभी को बेकरारी से इंतजार रहता है तो ऐसी फिल्म से हर किसी की उम्मीदें कुछ ज्यादा बढ़ जाती हैं। इस कसौटी पर करण काफी हद तक खरे भी उतरे हैं। करण ने बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ माने जाने वाले चालू मसालों से कहीं कोई समझौता नहीं किया तो वहीं अपनी कहानी के हीरो को आम मुंबइया हिंदी फिल्मों से बहुत दूर रखा है। फिल्म का हीरो वह फ्रंट क्लास की कसौटी पर इसलिए खरा नहीं उतरता कि न तो वह अकेला दर्जनों बदमाशों से लड़ सकता है और न ही उसमें हथियारों से लैस पुलिस को चकमा देने की आर्ट है।

दरअसल, 9/11 हमले के बाद दुनिया के कई देशों में मुस्लिम समुदाय के प्रति यकायक बदली सोच पर करण ने एक ऐसी प्रेम कहानी का सहारा लिया है जो आम बॉलिवुड फिल्मों से कोसों दूर है। करण की इस फिल्म में एक ऐसे युवक का अपना खोया हुआ प्यार फिर से हासिल करने का सफर दिखाया गया है जो आम इंसानों से हटकर है। फिल्म में रिजवान द्वारा बार - बार बोला गया डायलॉग 'मेरा नाम खान है और मैं आतंकवादी नहीं हूं' हॉल में बैठे दर्शक के दिल को छूता है। दरअसल, करण अपनी इस फिल्म के माध्यम से दुनिया को शायद यही मेसेज देना चाहते हैं कि 'हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है। '

अगर बतौर डायरेक्टर करण जौहर की बात की जाए तो 'कुछ कुछ होता है' से 'कभी अलविदा ना कहना ' तक उन्होंने जब भी कुछ कहने की कोशिश की तो हटकर बात कहने के अंदाज ने हर क्लास को प्रभावित किया , लेकिन ' माई नेम इज खान ' में यह बात नहीं है। ऐसा लगता है जैसे करण ने फिल्म बनाने से पहले ही तय कर लिया था कि वह एक खास क्लास और ओवरसीज मार्केट के लिए ही फिल्म बनाएंगे। यही वजह है फिल्म के बड़े कैनवस में उन्होंने जमकर अंग्रेजी डायलॉग को बिना हिंदी सब टाइटिल के परोसा तो फिल्म में अमेरिका की चमकती और अमीर देश वाली छवि को जॉर्जिया की गरीबी और बदहाली के साथ जोड़ने का साहस भी बटोरा।

कहानी : एस्परजर सिंड्रोम से पीड़ित रिजवान खान ( शाहरुख खान ) अम्मी ( जरीना वहाब ) की मौत के बाद भाई जाकिर खान ( जिम्मी शेरगिल ) के साथ सैन फ्रैंसिस्को चला जाता है। यहां आने के बाद भाई के बिजनेस में लगा रिजवान मंदिरा ( काजोल ) से प्यार करने लगता है और भाई के विरोध के बावजूद तलाकशुदा मंदिरा से निकाह करता है जो एक बच्चे की मां है। शादी के बाद दोनों अपने छोटे से बिजनेस के सहारे नई जिंदगी शुरू करते हैं , लेकिन 9/11 हादसे के बाद जब मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण बदलता है तो उसमें इनकी सारी खुशियां चकनाचूर हो जाती है।

एक्टिंग : रिजवान के रोल में शाहरुख बेजोड़ हैं। आमतौर से कामयाबी के शिखर पर पहुंचा कोई बड़ा स्टार ऐसी जोखिम भरी भूमिका करने से पहले कई बार सोचेगा। काजोल मंदिरा के रूप में लाजवाब रही हैं। शाहरुख और काजोल की ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री गजब की है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं जरीना वहाब छोटी सी भूमिका के बावजूद जमी हैं। अन्य कलाकारों में जिमी शेरगिल , अर्जुन माथुर , और आरिफ जकारिया ठीकठाक रहे।

संगीत : फिल्म का म्यूजिक कहानी का सशक्त पक्ष है। तेरे नैना ... और सजदा ... गानों को फिल्मांकन गजब है। इन गानों में ताजगी और संगीत में मेलडी के चलते दोनों गाने कहानी का अहम हिस्सा बने हैं।

निर्देशन : करण जौहर ने साबित किया कि लीक से हटकर किसी ऐसे मुद्दे पर फिल्म बनाई जा सकती है जो दर्शकों की एक खास क्लास को हॉल तक खींचने का दम रखती है। इंटरवल के बाद अश्वेत बहुल जॉर्जिया की दुर्दशा को करण ने बड़े सहज ढंग से कहानी का अहम हिस्सा बनाया है। वहीं कुछ नया करने और ओवरसीज मार्केट के चक्कर में करण फैमिली क्लास और छोटे सेंटरों की पसंद को भुला बैठे हैं।

क्यों देखें : अगर आप शाहरुख और काजोल के फैन हैं और 9/11 हादसे को एक ऐसे नजरिए के साथ देखना चाहते हैं जो अब तक अनदेखा रहा तो फिल्म आपके लिए है। वहीं सिर्फ एंटरटेनमेंट के मकसद से हॉल गए दर्शकों की कसौटी पर फिल्म शायद खरी न उतर पाए।
(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,12.2.10)
भारतीय मध्य वर्ग जिस "स्टैच्यू ऑफ लिवर्टी" के आकर्षण में अमेरिका जाता है उसकी हकीकत भी तीसरी दुनिया के देशों से अलग नहीं है। वहां भी गोरे-काले का भेद है और दूसरी सभ्यताओं और समाजों के प्रति नफरत। कहने को अमेरिका में ९/११ के बाद मुस्लिम समाज के प्रति कट्टरपन बढ़ा लेकिन हटिंगटन की "सभ्यताओं के संघर्ष" की थ्योरी तो उससे वर्षों पहले वहां आ चुकी थी। "माइ नेम इज खान" इसी विषय को मानवीय एंगल से देखती है और इसके शिकार एक परिवार की कहानी कहती है।

फिल्म में नायक को एस्पर्जर सिंड्रोम का शिकार बताकर निर्देशक ने ट्विस्ट और दर्शकों की सहानुभूति जुटाने की कोशिश की है। दर्शक जितने जुड़ते हैं फिल्म उतनी ही सफल होती है। "माइ नेम इज खान" इस मामले में सफल है कि इस हिंदू बहुसंख्यक देश में भी वह एक मुस्लिम नायक के संघर्ष से दर्शकों को जोड़ पाती है। कारण यह भी हो सकता है कि मुस्लिमों के साथ जो अमेरिका में हो रहा है वही आस्ट्रेलिया में हिंदुओं के साथ। अपने देश में भी कट्टर हिंदूवादी महाराष्ट्र में बिहार, उत्तर प्रदेश के हिंदुओं का यही हाल कर रहे हैं और गुजरात में मुसलमानों का। अमेरिकी पृष्ठभूमि के बावजूद फिल्म यह सीख देती है कि यह ठीक नहीं है।

शाहरुख अच्छे परफार्मर हैं और इस फिल्म में भी वह दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरते हैं। लंबे समय बाद वापसी कर रहीं काजोल ने बढ़िया काम किया है और फिल्म के कुछ दृश्यों में तो वह बेहतरीन हैं। इन्हें ज्यादा काम करना चाहिए था। "टिपिकल बॉलीवुड सागा" के लिए जाने जाने वाले करन जौहर ने भी इस फिल्म में कहानी की मांग के अनुरूप अलग ट्रीटमेंट दिया है और वह अपने को एक कुशल निर्देशक के तौर पर स्थापित करते हैं। फिल्म का संगीत, संपादन व कैमरा पक्ष भी बेहतर है। "माइ नेम इज खान" अच्छी फिल्म है लेकिन इसी विषय पर बनी शोएब मंसूर की फिल्म "खुदा के लिए" से नहीं।
(मृत्युंजय प्रभाकर,नई दुनिया,दिल्ली,12.2.10)

आमतौर पर करन जौहर लव स्टोरीज बनाते हैं लेकिन इस बार फिल्म मॉय नेम इज खान के जरिए उन्होंने कुछ हटकर करने की कोशिश की है। संवेदनाओं में रची-बसी फिल्म आम आदमी की जीत दिखाती है। रिजवान (शाहरुख खान) के किरदार को खास बनाने के लिए करन ने काफी मेहनत की है। ऑनस्क्रीन शाहरूख और काजोल ने हमेशा की तरह अपना बेहतरीन दिया हैं, हालांकि शाहरुख के हिस्से में ज्यादा बेहतर सीन आए हैं। काजोल का किरदार थोड़ा फीका नजर आता है।

फिल्म की कहानी रिजवान खान नाम के एक ऐसे लड़के की है जो ऑटिज्म से पीड़ित है, उसकी कुछ बातें उसे सामान्य इंसान से अलग करती है, लेकिन कई सारी खूबियां उसे खास भी बनाती हैं। रिजवान मंदिरा से प्यार करता है, जबकि मंदिरा का पहले से एक बेटा है। फिल्म में फ्लैशबैक का अहम स्थान है। बचपन में ही घिनौने आतंक से दो चार हो चुका रिजवान अपने भाई जिमी शेरगिल और प्रेमिका मंदिरा के अलावा मां ( जरीन वहाब ) के साथ एक खास बांडिंग रखता है। रिजवान बचपन में बंबई दंगों और फिर बड़े होकर अमेरिका में 26 / 11 हमले से प्रभावित हुआ है और वह अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलकर उन्हें ये बताना चाहता है कि हां उसका सरनेम खान है लेकिन वह आतंकी नहीं है।

फिल्म की कहानी शाहरूख खान की असल जिंदगी से काफी मेल खाती है, शाहरूख की पत्नी हिंदू हैं पूजा पाठ करती हैं, जबकि खुद शाहरूख नमाज पढ़ते हैं, रिजवान हिंदू मंदिरा से प्यार करते हैं। हालांकि बहुत कुछ ऐसा है जो कहीं न कहीं असल जिंदगी से काफी दूर लगता है।

फिल्म में मैच्योर रोमांस है, चूंकि रिजवान ऑटिज्म पीड़ित है इस कारण इस पात्र का ट्रीटमेंट ढ़ेढ़ी खीर था, लेकिन ये करन के निर्देशन का जादू है कि वह इसे संजीदगी के साथ प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। मॉय नेम इज खान एक गंभीर विषय पर बनी फिल्म है जिसपर ब्यूटीफुल गानों की आइसिंग इसे कम्प्लीट बनाती है।

हालांकि कहीं-कहीं एडिटिंग थोड़ी कमजोर लगी है, लेकिन शुरूआत में जो फिल्म थोड़ी ढीली लगती है वहीं इंटरवल के बाद गति पकड़ लेती है और ट्रैक पर सरपट दौड़ने लगती है। हालांकि फिल्म में एक-दो जगह झोल हैं, निर्देशक रिजवान की प्रेसिडेंट से मिलने वाली बात के पीछे ठोस तर्क नहीं खड़े कर पाए हैं।

क्यों देखें - अगर आप एक गंभीर विषय पर बनीं ब्यूटीफुल लेकिन हटकर लव स्टोरी देखना चाहते हैं, अगर आप शाहरूख काजोल के फैन हैं।

क्यों न देखें-अगर आप किसी खास विचारधारा का समर्थन करते हैं तो शायद ये फिल्म आपके लिए नहीं है

मॉय नेम इज खान- 3.5 स्टार
(दैनिक भास्कर)

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