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Sunday, November 28, 2010

15 बेस्ट कॉमेडी फिल्में

व्यंग्य हिंदी सिनेमा का मूल स्वर नहीं रहा है, इसीलिए हजारों फिल्मों लंबे इस सिनेमाई सफर में बेहतरीन कहे जा सकने लायक सटायर कम ही बने हैं। फिर भी,हिंदी सिनेमा ने समय-समय पर कई अच्छी कॉमिडी फिल्में दी हैं, जिन्हें आज भी देखा और पसंद किया जाता है। ऐसी ही टॉप 15 हिंदी कॉमिडी फिल्मों के बारे में बता रहे हैं मिहिर पंड्या :

कॉमिडी फिल्म की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। और जो फिल्म ऐसा कर पाती है, वह हमारा दिल जीत लेती है और क्लासिक का दर्जा पाती है। कोई भी चयन खुद में पूरा नहीं होता और ठीक इसी तरह यहां भी यह दावा नहीं है। जैसे आलोचक पवन झा मानते हैं कि किशोर और मधुबाला की 'हाफ टिकट' में दोनों की केमिस्ट्री और हास्य 'चलती का नाम गाड़ी' से भी आला दर्जे का है।

इसी तरह फिल्म क्रिटिक नम्रता जोशी का कहना है कि पंकज पाराशर की 'पीछा करो' एक बेहतरीन हास्य फिल्म थी, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए। पंकज आडवाणी की अब तक अनरिलीज्ड फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' को सिनेमा के कई चाहनेवाले कॉमिडी क्लासिक मानते हैं तो बहुतों का सोचना है कि कमल हासन की 'पुष्पक', 'मुम्बई एक्सप्रेस' और 'चाची 420' के जिक्र के बिना कॉमिडी फिल्मों का कोई भी चयन अधूरा है। फिर भी, तमाम संभावनाओं और सही प्रतिनिधित्व पर विचार के बाद टॉप 15 कॉमिडी फिल्में पेश हैं :

1. चलती का नाम गाड़ी (1958)
फेमस गाना : पांच रुपैया बारह आना...
' चलती का नाम गाड़ी' हिंदी सिनेमा की सबसे मशहूर तीन भाइयों की जोड़ी अशोक कुमार, किशोर कुमार और अनूप कुमार का धमाल है। गोल्डन फिफ्टी की यह फिल्म एक म्यूजिकल कॉमिडी है। फिल्म में संगीत दिया है एस. डी. बर्मन ने और बोल हैं मारूह सुल्तानपुरी के। शायद पहली बार गाने के बोलों में इस तरह के प्रयोग किए गए हैं, जिनसे बड़ा खूबसूरत हास्य पैदा होता है। दादा मुनि अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इस फिल्म के साथ बखूबी तोड़ा। मधुबाला और किशोर की बेजोड़ केमिस्ट्री और कॉमिक टाइमिंग से रची यह फिल्म हिंदी सिनेमा का सच्चा हीरा है।

2. पड़ोसन (1968)
फेमस गाना : ये क्या रे, घोड़ा चतुरा घोड़ा चतुरा...
दो हरफनमौला आमने-सामने। 'पड़ोसन' का असली मजा किशोर कुमार और महमूद की जुगलबंदी में है। धुरंधर गलेबाजों के रोल में किशोर और महमूद की खींचा-तानी 'एक चतुर नार...' और किशोर के गाए 'मेरे सामने वाली खिड़की में...' की मिठास भुलाना मुश्किल है। दरअसल गाने इस गोल्डन क्लासिक की यूएसपी हैं। इस मेलॉडी में पिरोए हास्य को आर. डी. बर्मन का शरारती संगीत आगे बढ़ाता है।

हिंदी सिनेमा के इतिहास में हुए सबसे ऊंचे कद के कॉमिडियन महमूद न सिर्फ इस फिल्म में अदाकारी कर रहे थे, बल्कि वे इस फिल्म के प्रड्यूसर भी थे। और गवैये किशोर की साइड किक बने तीन तिलंगों- बनारसी, लाहोरी और कलकतिये की भूमिका में रंग भरते मुकरी, राजकिशोर और केश्टो मुखजीर् की अदाकारी को आप कैसे भूल सकते हैं?

3. गोलमाल (1979)
फेमस डायलॉग : आपका भट्टी किदर है?
हिंदी सिनेमा में सबसे ज्यादा रिपीट वैल्यू ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की है और 'गोलमाल' उनमें सबसे ऊपर है। 'गोलमाल' भी ऋषि दा की फिल्मों की उसी कड़ी में है, जहां जहीन हास्य में पिरोकर कहानी जिंदगी से जुड़े किसी प्रगतिशील मूल्य को स्थापित करती है। व्यंग्य उस पुरानी पीढ़ी पर है, जो रूढि़यों और बासी परंपराओं का सांप निकल जाने के बाद भी लकीर पीट रही है।

कथा नायक अमोल पालेकर हैं, जिन्होंने इस भूमिका के लिए उस साल का 'बेस्ट ऐक्टर' फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था। यहां एक ऐसा डबल रोल है, जिसे पचाने के लिए आपको तर्क का सहारा नहीं छोड़ना पड़ता। फिल्म की जान हैं उत्पल दत्त, जो 'सेठ भवानी शंकर' बने हैं। उर्मिला ट्रेडर्स का यह मालिक मूंछों का जुनूनी शौकीन है।

बुआ जी के रोल में शुभा खोटे ने भी उत्पल दत्त का खूब साथ निभाया है। और सबसे खास है सिर्फ दो मिनट के एक स्पेशल अपीयरेंस में केश्टो मुखर्जी का आना और सेठ भवानी शंकर से पूछना, आपका भट्टी किदर है...? 'गोलमाल' हिंदी सिनेमा की वी. वी. एस. लक्ष्मण है, कभी धोखा नहीं देती।

4. चश्मे बद्दूर (1981)
मिस चमको...
सई परांजपे द्वारा निर्देशित फिल्म 'चश्मे बद्दूर' के एक दृश्य में नायक-नायिका तालकटोरा गार्डन में बने एक ओपन एयर रेस्तरां में बैठे हैं और वे वेटर से पूछते हैं, 'यहां अच्छा क्या है?' तो वेटर उन्हें जवाब में कहता है, 'जी यहां का माहौल बहुत अच्छा है!' 80 के दशक की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' की यही खासियत है, अपने समय और परिवेश में रचा-बसा हास्य। इसके कई संवादों में उस दौर की दिल्ली और उसकी कॉलेज लाइफ का कोई-न-कोई संदर्भ है।

कहानी है तीन बेरोजगार लड़कों की, जो दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए नौकरी और छोकरी दोनों की तलाश में हैं। फिल्म में राकेश बेदी और रवि वासवानी ने नायक के दोस्तों की भूमिका निभाई है और अपने दोस्त को 'कुएं' में ढकेलने में इनका बड़ा हाथ है। नायक-नायिका की भूमिका में फारूक शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है। इसके साथ ही सई परांजपे की 'कथा' भी देखी जानी चाहिए, जिसमें मुंबई की चॉल के जनजीवन का मजेदार स्केच मिलता है।

5. अंगूर (1982)
प्रीतम आन मिलो...
यह हिंदी सिनेमा में शेक्सपियर साहब का आगमन है और क्या खूब आगमन है! गुलजार ने शेक्सपियर के नाटक 'कॉमिडी ऑफ एरर्स' को उठाकर बखूबी हिंदुस्तानी लिबास पहना दिया है। जुड़वां भाइयों के दो जोड़ों की कहानी 'अंगूर' में नौकर और मालिक अशोक और बहादुर के दो जोड़े हैं, दोनों के दोनों संजीव कुमार और देवेन वर्मा।

एक दिन दोनों (अरे दोनों, नहीं चारों!) एक ही शहर में आ जाते हैं और उससे उस शहर की पूरी व्यवस्था उलट-पुलट हो जाती है। इस फिल्म का हास्य कादर खान मार्का कॉमिडी की तरह लाउड नहीं है। यहां सूक्ष्म हास्य है। संजीव कुमार और देवेन वर्मा जैसे मंझे हुए ऐक्टर अद्भुत तालमेल के साथ जैसे एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।

6. जाने भी दो यारो (1983)
शांत गदाधारी भीम, शांत...
हिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे बड़ी कल्ट क्लासिक। सुधीर मिश्रा और विधु विनोद चोपड़ा जैसे आज के फिल्म जगत के सम्मानित नाम इस फिल्म में सहायक थे और फिल्म में दोनों नायकों नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी के नाम 'सुधीर' और 'विनोद' इन्हीं पर रखे गए। एनएफडीसी की फिल्म थी और किस्सा मशहूर है कि पैसा इतना कम था कि कलाकारों ने अपनी निजी चीजों और कपड़ों तक को शूटिंग के दौरान इस्तेमाल किया।

फिल्म के नायक नसीर निर्माण के दौरान कहते थे कि कुंदन पागल हो गया है, न जाने क्या बना रहा है! शायद यह अपने दौर से बहुत आगे की फिल्म थी। इसका 'महाभारत' वाला क्लाइमैक्स तो 'न भूतो न भविष्यति' हास्य का पिटारा है। लेकिन 'जाने भी दो यारो' कोरी कॉमिडी नहीं थी, इसका हास्य स्याह रंग लिए था। आज भी यह फिल्म विकास की अंधी दौड़ में भागते 'लिबरल हिंदुस्तान' के लिए एक रियलिटी चेक सरीखी है। आज इसकी प्रासंगिकता सबसे ज्यादा है।

7. चमेली की शादी (1986)
हैं जी...
बासु चटर्जी को हम ऋषि दा की परंपरा में ही रख सकते हैं, जिन्होंने 70 और 80 के दशक में हिंदी सिनेमा को कई बेहतरीन और मौलिक हास्य फिल्में दीं। और पंकज कपूर... 'चमेली की शादी' में उन्होंने जैसे 'कल्लूमल कोयलेवाले' को साक्षात जीवित कर दिया है। बासु चटर्जी ने पहले भी 'छोटी-सी बात', 'हमारी बहू अलका' और 'खट्टा-मीठा' जैसी कई याद रखे जाने लायक फिल्में बनाई हैं।

कहानी है लंगोट के पक्के अखाड़ेबाज पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) और कल्लूमल की बेटी चमेली (अमृता सिंह) के बीच इश्कबाजी की। इनके इस धुआंधार इश्क के अकेले सिपहसालार हैं एडवोकेट भैया (अमजद खान) और उसका दुश्मन है सारा जमाना। लेकिन इस बीच चमेली और चरणदास हैं, जिनका प्यार रेडियो और उस पर बजते प्यार भरे हिंदी फिल्मी गीतों के साथ परवान चढ़ता है।

फिल्म के गाने और उनका फिल्मांकन भी बहुत ही हास्य से भरा है और फिल्म के सबसे यादगार प्रसंगों में दारूबाज मामा छद्दमी (अन्नू कपूर) की चमेली के हाथों झाड़ू से हुई ठुकाई याद रखी जा सकती है।

8. अंदाज अपना-अपना (1994)
तेजा मैं हूं, मार्क यहां है...
राजकुमार संतोषी की 'अंदाज अपना-अपना' एक क्रेजी राइड है। 'अमर' और 'प्रेम' की भूमिकाओं में आमिर और सलमान जेब से कड़के दो ऐसे नौजवान हैं, जिनका एक ही सपना है कि किसी करोड़पति लड़की से शादी कर वे भी करोड़पति बन जाएं। विदेश से आई रवीना और करिश्मा ऐसी ही दो लड़कियां हैं, जिनके पीछे ये दोनों हैं। लेकिन इस बीच डबल रोल में परेश रावल हैं- एक करोड़पति आसामी रामगोपाल बजाज और दूसरा खतरनाक उचक्का तेजा। और अमर किरदार 'क्राइम मास्टर गोगो' की भूमिका में शक्ति कपूर हैं, जो हर बनता काम बिगाड़ देते हैं।

फिल्म में महमूद, देवेन वर्मा और जगदीप जैसे लिजेंडरी हास्य कलाकारों ने भी मेहमान भूमिकाएं निभाई हैं।

9. हेराफेरी (2000)
मी बाबूराव गणपतराव आप्टे बोलतोए...
' हेराफेरी' प्रियदर्शन का ऐसा मास्टरस्ट्रोक थी, जिससे कमाई नाम और इज्जत वह आज तक भुना रहे हैं। इस एक मराठी किरदार 'बाबूराव आप्टे' की भूमिका से सिनेमा के क्षेत्र में परेश रावल का कद इतना ऊंचा उठा कि कॉमिडी में वह एक ब्रैंड बन गए और आगे चलकर फिल्में उनके नाम से बिकने लगीं। इसी फिल्म ने हमें नायक अक्षय कुमार की अद्भुत कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया।

एक रॉन्ग नंबर से शुरू हुई 'हेराफेरी' की कहानी में नौकरी के लिए घनश्याम (सुनील शेट्टी) से झगड़ती अनुराधा (तब्बू) और बहन की शादी करवाने गांव से आए खड़ग सिंह (ओम पुरी) के मजेदार ट्रैक भी थे। प्रियदर्शन की 'एक-दूसरे के पीछे भागते किरदारों' और बहुत सारे कंफ्यूजन से भरे क्लाइमैक्स से मिलकर बनती फिल्मों की शुरुआत यहीं से होती है। और एक क्लासिक 'हेराफेरी' के बाद यहां भी 'हंगामा', 'हलचल', 'गरम मसाला', 'भागमभाग', 'ढोल' और 'दे दना दन' जैसी औसत या खराब फिल्मों की लंबी कतार है।

10. खोसला का घोंसला (2006)
ओ खोसला साब, खुराना साब लव्स यू...
दिल्ली का मिडल क्लास नौकरीपेशा तबका मौजूद है यहां अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ। यह असल दिल्ली है - 'हाउ टू बी ए मिलेनियर' पढ़ता निठल्ला लड़का, खाने में बनते संजीव कपूर की रेसिपी वाले राजमा-चावल, खाने की मेज पर रखी ईनो और रूह-अफाजा की बोतल और सबसे ऊपर 'साउथ दिल्ली' वाला बनने की चाह।

निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मॉडर्न कल्ट क्लासिक कही जाती 'खोसला का घोंसला' जैसे हमारी ही जिंदगी से एक कतरन उधार लेकर बनाई गई है। चाहे वे ट्रैवल एजेंट कम ऑटो सर्विस वाले आसिफ इकबाल (विनय पाठक) हों और चाहे बात-बात पर गाली मुंह से निकालने वाले साहनी साहब (विनोद नागपाल) हों, ये सभी अपनी दिल्ली के खरे प्रतिनिधि किरदार हैं और 'बंटी' के किरदार में रणवीर शौरी की अदाकारी इस फिल्म की जान है।

उसके ऊपर जयदीप साहनी की पटकथा में ईमानदारी और नैतिकता को बचाए जाने की एक भोली मांग भी है, जो पूरी फिल्म में आपको असहज करती है। दिबाकर की यह फिल्म हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है।

फेमस फाइव किरदार
अब्दुल सत्तार: जॉनी वॉकर हमेशा गुरुदत्त की फिल्मों का एक जरूरी हिस्सा रहे। 'प्यासा' जैसी गंभीर फिल्म में भी उनका 'सर जो तेरा चकराए...' एक ठंडी हवा का झोंका है। इतनी मैलोडियस और मधुर चम्पी भला किसे न भाएगी!

सूरमा भोपाली: कहते हैं कि क्लासिक सिनेमा के साथ उसके किरदार भी अमर हो जाते हैं। 'शोले' के बड़बोले सूरमा भोपाली (जगदीप) और उनकी जय-वीरू से काल्पनिक भिड़ंत के किस्से अब हिंदी सिनेमा की लोककथाओं का हिस्सा हैं।

एडिटर मिस्टर गायतोंडे: 'मिस्टर इंडिया' के अन्नू कपूर और उनका फोन... कभी फोन पर कपड़े धुलवाने का ऑर्डर तो कभी भैंसों के अस्पताल से डॉक्टर भेजने की डिमांड। एडिटर साहब के फोन पर बाकी सारे फोन आते हैं, काम के फोन को छोड़कर!

सर्किट: कभी 'भाई', सर्किट को उसके असल नाम सर्केश्वर से बुलाएं तो सुनकर सच में 440 वॉल्ट का झटका लगता है, क्योंकि मुन्नाभाई सीरीज के अरशद वारसी को हम 'सर्किट' नाम से ही जानते और पसंद करते हैं। भाई के सच्चे वफादार। उनके कहने पर जान दे भी सकते हैं और ले भी सकते हैं!

चतुर रामालिंगम: एक बिल्कुल नया लड़का सही वक्त पर, सही जगह, सही रोल में कास्ट किया गया। ओमी वैद्य का निभाया 'साइलेंसर' का किरदार 'थ्री इडियट्स' के सबसे पसंद किए गए हिस्सों में से है। उनके 'चमत्कार-बलात्कार' वाले सीन को तो साल का सबसे ज्यादा याद रहनेवाला सीन कहा जा सकता है।

चाची 420 (1997)
मैं विंडो से भी शादी करने को तैयार हूं...
' चाची 420' के नायक-निर्देशक कमल हासन थे। कमल हासन हमारे दौर के सबसे प्रयोगधर्मी निर्देशक हैं और सबसे ऊंचे कद के ऐक्टर भी। उन्होंने रोल की मांग के अनुसार अपने शरीर के साथ क्या-क्या नहीं किया है? फिल्म भले ही अमेरिकी फिल्म 'मिसेस डाउटफायर' से प्रेरित हो, 'लक्ष्मी चाची' की भूमिका में कमल हासन एकदम ऑरिजिनल हैं। वह सिर्फ मेकअप कर महिला नहीं बने हैं, उन्होंने महिलाओं की पूरी बॉडी लैंग्वेज को जैसे अपना लिया है।

गुलजार की पुरानी फिल्म 'अंगूर' की तरह ही 'चाची 420' में भी सूक्ष्म हास्य मिलता है, जो फिल्म की रिपीट वैल्यू बहुत बढ़ा देता है। गुलजार 'चाची 420' के साथ भी जुड़े हैं। उनके लिखे डायलॉग गजब हैं और विशाल भारद्वाज के संगीत से सजे गीत ऐसे, जैसे बच्चों की भोली कविताएं- चाची के पास मुश्किलों की सारी चाबियां हैं, सोसायटी में जानती हैं, क्या खराबियां हैं। चाची के पास हल है, चाची तो बीरबल है... फिल्म में ओम पुरी भी हैं और परेश रावल भी।

हर बार की तरह आपकी हर मांग पर खरे उतरते और अपनी जिंदगी की शायद आखिरी फिल्मी भूमिका में लिजेंडरी कॉमिडियन जॉनी वॉकर हैं.. कहते हुए, मुझे ये जूता खाने दो, खाने दो ये जूता!

चुपके-चुपके (1975)
' घास-फूस' का डॉक्टर! अरे कम-से-कम 'फूल-पत्ती' तो बोलो...
साल था 1975, धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की 'जिगरी दोस्त' वाली भूमिका की दो फिल्में साथ-साथ रिलीज हुईं। मिजाज में दो बिल्कुल अलग फिल्में और दोनों ही कल्ट क्लासिक बनीं। एक थी 'शोले' और दूसरी थी 'चुपके-चुपके'। ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में धर्मेंद्र 'डॉ. परिमल त्रिपाठी' बने हैं, जो अपनी पत्नी सुलेखा (शर्मीला टैगोर) के जीजाजी बने 'राघव भैया' (ओमप्रकाश) को चकमा देने के लिए उनके घर 'ड्राइवर प्यारे मोहन' बनकर आ जाते हैं।

फिल्म में अपनी शुद्ध हिंदी के साथ प्यारे मोहन राघव भैया को खूब खिजाते हैं और दर्शकों को खूब हंसाते हैं। बड़े फलक पर देखें तो यह दरअसल उस शुचितावादी सोच पर व्यंग्य है, जो बहती नीर-सी भाषा को भी शुद्धता के तराजू पर तोलती है। फिल्म की शूटिंग के दौरान जया बच्चन मां बनने वाली थीं और कैमरे पर यह पता न चले, इसका फिल्मांकन के दौरान खास ख्याल रखा गया था। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी का गाया डुएट 'सा रे गा मा...' जिसे अमिताभ और धर्मेंद्र यानी 'जय-वीरू' पर फिल्माया गया बड़ा पक्का जोड़ीदारों वाला गाना है। 'चुपके-चुपके' ऋषिदा के सुनहरे दौर की पैदाइश है और आज भी अपनी आभा बिखेर रही है।

कुली नंबर वन (1995)
अरे नंबर वन, दिखा दे अपना जलवा...
गोविंदा 90 के बाद के 'एनआरआई छाप' हिंदी सिनेमा में देसी भांग की तरह हैं। यह कादर खान के लिखे द्विअर्थी संवादों से बनी फूहड़ लेकिन लोकप्रिय हास्य फिल्मों की परंपरा है, जिसने 90 के दशक में खूब लोकप्रियता पाई। यही धारा है, जो गोविंदा से होती हुई भोजपुरी सिनेमा तक आई है। निर्देशक डेविड धवन की 'कुली नं. वन' कादर खान मार्का कॉमिडी की प्रतिनिधि फिल्म है, जिसे मिलाकर ही हिंदी की कॉमिडी फिल्मों का फलक पूरा होता है।

नायक राजू जो पेशे से कुली है, खुद को करोड़पति बताकर गांव के एक अमीर चौधरी होशियारचंद की लड़की से शादी कर लेता है। आगे तमाम परिस्थितियां जितनी गड़बड़ हो सकती हैं, होती हैं और उसके ऊपर शक्ति कपूर हैं। यहीं से गोविंदा की 'नंबर वन' सीरीज की भी शुरुआत होती है, जिसमें आगे 'हीरो नंबर वन', 'आंटी नंबर वन', 'बेटी नंबर वन' और 'अनाड़ी नंबर वन' जैसी फिल्में आती हैं।

छोटी-सी बात (1975)
चिकन आलाफूज...
बासु चटर्जी की 'छोटी-सी बात' बड़ी मासूम-सी कॉमिडी फिल्म है। किसी रविवार की शाम घर में रहकर बेहतर सनडे मनाने का बेस्ट जरिया। कहानी है अरुण (अमोल पालेकर) की, जो प्यार तो प्रभा (विद्या सिन्हा) से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता। फिर उसकी जिंदगी में 'कर्नल जुलियस नगेंदनाथ विल्फ्रेड सिंह' (अशोक कुमार) आते हैं। कर्नल साहब प्रफेशनल आदमी हैं। वह उसे अपने प्यार को पाने के तमाम नुस्खे सिखाते हैं।

फिल्म में 'कबाब में हड्डी' के रोल में असरानी साहब हैं। फिल्म के संवाद हिंदी के जाने-माने व्यंग्यकार शरद जोशी की कलम से निकले हैं। कई वाकये जैसे मोटरसाइकल का किस्सा या जहांगीर आर्ट गैलरी के पास लंच वाला किस्सा लाजवाब हैं।

लगे रहो मुन्नाभाई (2006)
केमिकल लोचा...
मुन्नाभाई सीरीज की फिल्में हमारे दशक की सबसे कामयाब और खूबसूरत फिल्में हैं। 'लगे रहो मुन्नाभाई' कॉमिडी और इमोशन का ऐसा मेल है, जो हिंदुस्तानी पब्लिक को हमेशा से भाता है। राजू हिरानी को बिल्कुल एक डॉक्टर की तरह हमारी नब्ज की सही पकड़ है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' में एक इमोशनल भाई मुन्ना (संजय दत्त) है और उसके कई गुगेर् हैं, जो गुंडे कम और सरकारी स्कूल के चौकीदार यादा लगते हैं।

नायिका को पाने की चाह में वह गांधीजी की शरण में जाता है और फिर होता है 'केमिकल लोचा'! एक मौलिक कहानी और अच्छी पटकथा के साथ 'लगे रहो मुन्नाभाई' में कई प्रासंगिक संदेश भी हैं, जो आपको कदम-कदम पर काम आएंगे।

टॉप टेन डायलॉग
- तुम अपुन को दस-दस मारा। अपुन तुमको सिरिफ दो मारा, पन सॉलिड मारा कि नहीं! (अमर अकबर एंथोनी)

- एईसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलिंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो। (अमर अकबर एंथोनी)

- आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश, बिकॉज इंग्लिश इज वेरी फन्नी लैंग्वेज। (नमक हलाल)

- मौसी लड़का तो हीरा है हीरा, मगर... (शोले)

- ओ मेरे हमदर्द पिंटो, मुझे बचाओ। (जाने भी दो यारो)

- भैया, तुम तो एक बार संस्कृत में गड्ढा खा गए थे ना! (खूबसूरत)

- अंग्रेजी बहुत ही अवैज्ञानिक भाषा है साहेब। सी यू टी कट है तो पी यू टी पुट... डीओ डू, टीओ टू, लेकिन जी ओ गो हो जाता है। आप ही बताइए मेमसाहब कि जीओ गू क्यों नहीं होता? (चुपके-चुपके)

- मेरे दोस्त बीडि़यों पर उतर आए हैं! (चश्मेबद्दूर)

- दो चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू (ओम शांति ओम)

- मन तो करता है, उसके अंदर घुसकर फट जाऊं (तेरे बिन लादेन)
(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,28.11.2010)

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