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Tuesday, November 16, 2010

कॉमन मैन है क्यों बेचैन?

टिकट खिड़की पर न सही, लेकिन फिल्म समीक्षकों और अच्छी फिल्मों को पसंद करने वाले एक बड़े दर्शक वर्ग में पिछले दिनों एक फिल्म की खूब चर्चा हुई। एक शिक्षक की जिंदगी के हंसी-खुशी के पलों के बीच गुजरे जमाने की रोमांटिक जोड़ी ऋषि कपूर और नीतू सिंह की फिल्म ‘दो दूनी चार’ कई मायनों में सराही गयी।

इस फिल्म के पोस्टर में ऋषि कपूर अपनी पत्नी और दो बच्चों संग स्कूटर पर शान से बैठे दिखते हैं। जोड़-तोड़ कर घर चलाने वाली उनकी पत्नी नीतू सिंह के चेहरे पर भी संतोष झलकता है और बच्चे, दिख तो खुश ही रहे हैं, पर अंदर ही अंदर उन्हें अपने डैडीजी (बेशक बाद में अच्छे लगने लगते हैं) फूटी आंख नहीं सुहाते। ऐसे में डैडीजी अगर कम तन्ख्वाह में पूरे मुहल्ले के सामने एक नई कार लेने का ऐलान कर दें तो परिवार के बाकी लोगों पर क्या गुजरेगी। तंग जेब में जुगाड़बाजी शुरु हो जाएगी और इस जुगाड़बाजी से तमाम परेशानियां भी बिना बुलाए आएंगी ही। तंग जेब के बीच दैनंदिन मुसीबतों से जूझते एक कॉमन मैन के जीवन पर केन्द्रित इस फिल्म में बहुत कुछ कहा गया है।

मोटे तौर पर कहा जाए तो आम आदमी के जीवन और उससे जुड़े तमाम पहलुओं को भुनाने पर फिल्म इंडस्ट्री फिर से फोकस कर रही है। इस साल तमाम ऐसी छोटी-बड़ी फिल्में आईं, जिनके केन्द्र में आम आदमी था। साठ के दशक में हिन्दी फिल्मों का कथानक आम आदमी पर ही केन्द्रित हुआ करता था। हाल ही में अभी अक्षय कुमार 'खट्टा-मीठा' फिल्म में आम आदमी की भूमिका में थे। स्टार पावर युक्त अक्षय के बावजूद यह फिल्म नहीं चली। साधारण से चेहरे मोहरे और व्यक्तित्व वाले अमोल पालेकर ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए आम आदमी को खास लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंचाया था।

उनकी फिल्में 'रजनीगंधा', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल' आदि फिल्मों ने आम आदमी के इमोशंस को छुआ और जरूरतों का चित्रण किया। मिथुन चक्रवर्ती और गोविन्दा ने भी आम आदमी की इमेज को हिन्दी फिल्मों में अपनाया। गोविन्दा के साथ लंबे समय तक विरार का छोरा जोड़ा जाता रहा। ध्यान रहे की विरार आम लोगों के रहने वालों का इलाका है। मिथुन चक्रवर्ती के काले रंग और उनके फुटपाथ पर भूखे रह कर संघर्ष करने को खूब उछाला गया। इससे इन अभिनेताओं में आम आदमी ने खुद को देखा। इन दोनों अभिनेताओं के डांस स्टेप तक आम आदमी को रास आते थे। यह जब आम आदमी की बातें करते थे तो दर्शक तालियां बजाते थे।

कॉमन मैन के सहारे तमाम अभिनेता सुपर स्टार तक की कुर्सी पर भी पहुंचे। अमिताभ बच्चन ने कॉमन मैन को बखूबी जिया। शाहरुख खान ने अपने करियर की शुरुआत में 'राजू बन गया जैंटलमैन', 'कभी हां कभी ना', 'रामजाने' आदि फिल्मों में खुद की कॉमन मैन की इमेज बनाई। अनिल कपूर ने 'वो सात दिन' में आम आदमी बन कर सुपर हिट शुरुआत की थी। वह राज कपूर के बाद आम आदमी के पर्याय बन गए थे।

लेकिन हर अभिनेता को कॉमन मैन की इमेज रास नहीं आती। इसीलिए आम तौर पर ज्यादातर अभिनेता आम आदमी का जामा पहनने से कतराते रहे हैं। 2003 में सूरज बड़जात्या द्वारा बनाए गए चितचोर के रीमेक 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' में अभिनेता रितिक रौशन ने अमोल पालेकर का चोला पहनने की कोशिश की थी, लेकिन वह बुरी तरह से असफल रहे। ऐसा नहीं कि अब हिन्दी फिल्मों का नायक आम आदमी नहीं रह गया। कई हिन्दी फिल्में आम आदमी की बात करती हैं।

अलबत्ता, हिन्दुस्तान का आम आदमी रूपहले पर्दे पर दो हिस्सों में बंट गया लगता है। मसलन, एक तरफ वह आम आदमी बन कर सेल्युलाइड पर उभरता है तो दूसरी तरफ कॉमन मैन बन कर ग्लैमर पाता है। इस साल की एक अन्य हिट फिल्म एंधिरन उर्फ रोबोट इसी कॉमन मैन की बात करती दिखती है। निर्माता आमिर खान की अनुषा रिजवी निर्देशित फिल्म पीपली लाइव किसानों की समस्या को उभारने वाली फिल्म थी, मगर यह फिल्म रास्ता भटक कर मीडिया और नेताओं के विद्रूप को दर्शाने वाली कॉमन मैन की फिल्म बन गई। कुछ साल पहले दिबाकर बनर्जी ने खोसला का घोसला में आम आदमी की मकान की जरूरत का चित्रण किया था।

हालिया रिलीज फिल्म 'दस तोला' एक सुनार की जिंदगी की जद्दोजहद की कहानी बयां करती है। मनोज की ही एक अन्य फिल्म जुगाड़ में दिल्ली की सीलिंग की वजह से आम आदमी को हुई परेशानी का चित्रण था। वेल डन अब्बा में भी एक निम्न मध्यम वर्ग के व्यक्ति की अपनी बेटी की शादी की चिंता जुड़ी थी। मुम्बई मेरी जान, आमिर और ए वेनस्डे आम आदमी और आतंकवाद को जोड़ते हुए आम आदमी की चिंता का प्रदर्शन करती थीं। इन तीनों ही फिल्मों में कॉमन मैन अपील कूट-कूट कर भरी थी, लेकिन व्यावसायिक रूप से ये फिल्में खास कमाई न सकीं।

'दो दूनी चार' में ऋषि कपूर एक ऐसे परिवार के मुखिया थे, जिसके सदस्यों के बीच एक कार खरीदने के लिए बहस छिड़ी हुई है। बड़े बजट की कॉमन मैन वाली और कम बजट की आम आदमी की फिल्मों में कुछ चलीं, कुछ नहीं चलीं, मगर इन्हें चर्चा जरूरी मिली। आज के परिदृश्य में आम आदमी क्या सोचता है, इसका चित्रण करने वाली तमाम फिल्मों की समीक्षकों ने गम्भीरता से समीक्षा की। उन्हें सराहा और अच्छी रेटिंग दी। लेकिन आम आदमी का चित्रण करने वाली वही फिल्में बॉक्स आफिस पर चलीं, जिनसे बड़े सितारों का नाम जुड़ा।

बतौर अभिनेता अपनी पहली फिल्म 'राजधानी एक्सप्रेस' में टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस एक आम आदमी बने हैं। आने वाली फिल्म 'शाहरुख बोला खूबसूरत है तू' शाहरुख खान की फैन एक फूल बेचने वाली लड़की की कहानी है, जो यह सोचती है कि वह एक दिन शाहरुख खान की हीरोइन बनेगी। अभी तक मसाला फिल्मों में काम करते आए अभिनेता शरमन जोशी आने वाली फिल्म 'अल्लाह के बंदे' में माफिया से जुड़े आम आदमी का किरदार निभा रहे हैं। अनुष्का शर्मा की 'बैंड बाजा बारात' मध्यम वर्ग की लड़की की कहानी है, जो वैडिंग प्लानिंग कंपनी चलाती है। यानी बड़े सितारों वाली ग्लैमरस और भव्य फिल्में बनाने वाले यशराज बैनर का फोकस भी अब आम आदमी पर केन्द्रित होता दिख रहा है(राजेन्द्र काण्डपाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,12.11.2010)।

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