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Tuesday, November 9, 2010

खेलें हम जी-जान सेःगुमनाम लड़ाकों की जोशीली दास्तां

आशुतोष गोवारिकर को अपनी पहली फिल्म बनाने से लेकर पहली हिट फिल्म "लगान" तक के सफर में आठ साल लगे । लगता संघर्ष के इस दौर ने आशुतोष को सिनेमा में कहानी की अहमियत का पाठ कुछ ढंग से पढ़ा दिया है । यही वजह है कि अपनी नई फिल्म "खेलें हम जी जान से" के संगीत प्रर्दशन समारोह में फिल्म के लेखक को विशेष अहमियत देकर उन्होंने अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी । चर्चित पत्रकार मानिनी चटर्जी को मंच पर खास अहमितय देकर आशुतोष ने यह अनोखा काम किया और हिंदी सिनेमा को यह संदेश दिया कि फिल्में वही चलेंगी जिनकी कहानी में दम होगा । सितारों के बूते तिजोरियां भरते रहे निर्माताओं के लिए यह एक ऐसे निर्देशक का संदेश है जिसकी फिल्में ऑस्कर की दहलीज तक पहुंचती रही हैं । कहा जा सकता है कि "लगान", "स्वदेस" और "जोधा अकबर" को जिस तरह पूरी दुनिया में हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने चाहा और सराहा उसी ने आशुतोष को भी यह हौसला जुटाने की हिम्मत दी ।

आशुतोष की तीन दिसंबर को रिलीज होने जा रही इस फिल्म से इतिहास के पन्नों को नए सिरे से खंगालने की उनकी कोशिशों की अगली कड़ी है । मानिनी चटर्जी के उपन्यास डू एंड डाइ - द चिटगॉङ्ग अपराइजिंग १९३० पर बनी इस फिल्म में चटगांव के एक अध्यापक के उस जीवट की कहानी है जिसने ब्रितानी सरकार को पूर्वी भारत में हिला कर रख दिया था । मानिनी कहती हैं, "हमने बचपन से लेकर अब तक ज्यादातर वही इतिहास पढ़ा है जिसे एक खास नजरिए से लिखा गया । हम गांधी और नेहरू के बारे में तो बहुत सारी बातें जानते हैं लेकिन उन लोगों के नाम तक नहीं जानते जिन्होंने बिना किसी परवाह के अपने-अपने इलाकों से अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिए । चटगांव विद्रोह की कहानी भी इतिहास की सरकारी किताबों में बस एक या दो लाइनों में सिमट कर रह जाती है । यहां के सूर्य सेन नामक अध्यापक ने कुछ स्कूली बच्चों और कुछ युवाओं के साथ मिलकर १८ अप्रैल, १९३० की रात जो कुछ किया, उसे समझने के लिए इन किशोरों और युवाओं की मानसिक मजबूती और जज्बे को समझना होगा । पहली बार जब मैंने इन सबके बारे में विस्तार से जाना तो हतप्रभ रह गई । आशुतोष गोवारिकर भी इतिहास के इस अनकहे हिस्से के बारे में जानकर कई रातों तक सो नहीं पाए । आशुतोष बताते हैं, "मानिनी चटर्जी की किताब जब मैंने पहली बार पढ़ी तो मुझे लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतने बड़े बलिदान का जिक्र इतिहास की मौजूदा किताबों में कहीं न हो ! किताब पढ़ने के बाद जब मैं मानिनी जी से मिला तब मुझे एक और आश्चर्यजनक हकीकत पता चली कि चटगांव बगावत की एक अहम किरदार कल्पना दत्त के परिवार से ही मानिनी खुद भी जुड़ी हैं और यह बात उन्हें इस विषय पर शोध के दौरान ही पता चली । "खेलें हम जी जान से" फिल्म आशुतोष के लिए कई मायनों में "लगान" और "जोधा अकबर" से भी ज्यादा कठिन रही । वह कहते हैं, "लगान तो खैर पूरी तरह काल्पनिक कथा थी और "जोधा अकबर" के बारे में भी लोग उतना ही जानते रहे हैं, जितना के आसिफ की फिल्म में बताया या दिखाया जा चुका है लेकिन, "खेलें हम जी जान से" एक ऐसी कहानी है जो वाकई घटी है लेकिन जिसके बारे में ज्यादा लोगों को पता नही है । फिल्म मानिनी के उपन्यास पर ही बनी है पर कहीं-कहीं हमने "सिनेमाई छूट" ली है ।" आशुतोष की इस सिनेमाई छूट की बात पर मानिनी मुस्कुरा भर देती हैं ।

मशहूर कथा-पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने एक बार फिर आशुतोष की फिल्म के लिए गीत लिखे हैं । आशुतोष बताते हैं, "जावेद जी ने इस फिल्म के लिए वंदे मारतम्‌ को फिर से लिखा है । मेरा मतलब उन्होंने इस राष्ट्रगीत के संस्कृत के शब्दों को हिंदी की सुरमाला में पिरोया है ।" खुद जावेद जी को अपने इस गीत पर नाज है, यह उनकी आंखों की चमक से साफ पता चलता है । अपने प्रगतिशील विचारों को लेकर प्रायः कट्टरपंथियों के निशाने पर रहने वाले जावेद हो सकता है वंदे मातरम्‌ के हिंदी संस्करण के लिए भी फतवों के फंदे में फंस जाएं लेकिन वह इससे बेपरवाह दिखते हैं । जावेद कहते हैं, "हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर में दो तरह के निर्देशक कम ही हैं । एक तो वह जिनमें कहानी कहने की संवेदनशीलता है और दूसरे वह जो स्वस्थ मनोरंजन वाली फिल्में बनाते हैं । आशुतोष में ये दोनों खूबियां मुझे नजर आती हैं । मेरा और आशुतोष का साथ बरसों पुराना है और मुझे खुशी है कि बतौर निर्देशक वह लगातार परिपक्व होते जा रहे हैं ।"

"खेलें हम जी जान से" का संगीत रग-रग में जोश भरता है । आशुतोष की ही फिल्म ह्वाट्स योर राशि से हिंदी सिनेमा में बतौर संगीतकार बोहनी करने वाले सोहैल सेन को आशुतोष ने इस फ़िल्म में बड़ा मौक़ा दिया है। सोहैल के मुताबिक,"आशुतोष जैसे निर्देशक की टीम में शामिल होने के बाद आपकी आधी परेशानी तो यूं ही ख़त्म हो जाती है। वह ऐसे कप्तान हैं जिसके नज़रिए को एक बार समझने के बाद,टीम का हर सदस्य पूरी बेफिक्री के साथ अपने काम को अंजाम दे सकता है।" फिल्म में सूर्य सेन का किरदार अभिषेक बच्चन कर रहे हैं और कल्पना दत्त बनी हैं दीपिका पादुकोण। दीपिका अपने आप को खुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें अपने करियर के शुरुआती दौर में ही इतना चुनौती भरा किरदार करने का मौका मिला। वे कहती हैं,"कल्पना हिंदुस्तानी औरत का वह रूप है जिसके बारे में इतिहास में भी चर्चा कम ही होती है। ऐसा नहीं कि आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी किसी तौर पर कम रही है लेकिन इतिहास लिखने वालों ने शायद इस ओर गौर करना मुनासिब ही नहीं समझा।"
बता दें कि अखंड भारत का हिस्सा रहे चटगांव में स्कूली अध्यापक सूर्य सेन के नेतृत्व में १९३० में हुई बगावत को सिनेमा के परदे पर उतारने की एक और कोशिश निर्देशक देवव्रत भी कर रहे हैं । इस फिल्म में सूर्य सेन का किरदार मनोज बाजपेयी ने निभाया है । अभिषेक जहां सूर्य सेन के किरदार का सबसे मुश्किल हिस्सा इस बारे में कहीं कोई संदर्भ न मिलने को मानते हैं, वहीं मनोज सूर्य सेन के किरदार से बेहद प्रभावित हैं । वैसे भी मनोज के गृह प्रदेश बिहार और बंगाल की दूरी ज्यादा नहीं है, लिहाजा सूर्य सेन का किरदार निभाते हुए मनोज ज्यादा सहज रहे(पंकज शुक्ल,संडे नई दुनिया,7-13 नवम्बर,2010) ।

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