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Thursday, November 11, 2010

कोई तो जाग रहा है !

पत्रकार और लेखिका मानिनी चटर्जी की किताब ‘डू एंड डाई- द चिटगांव अपराइजिंग 1930-34’ पर आधारित फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ आशुतोष गोवारीकर ने बनाई है। यह फिल्म आशुतोष की ‘लगान’, ‘स्वदेश’ और ‘जोधा अकबर’ की राष्ट्रप्रेम वाली धारा की अगली कड़ी है। क्या आज के बाजार युग में राष्ट्रप्रेम दकियानूसी मान लिया गया है? क्या सद्भाव जगाने वाली फिल्मों का जमाना लद गया है?

क्या भीतर से टूटने की प्रक्रिया में हम अपने इतिहास को भुला देना चाहते हैं? ये सारे सवाल मन में उस समय उठे जब आशुतोष गोवारीकर द्वारा अपनी फिल्म का संगीत जारी करने वाले गरिमामय समारोह में चटर्जी के भाषण पर कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार ऊब गए थे और अभद्र ढंग से तालियां बजा रहे थे। वे बता रही थीं कि किस तरह उन्होंने चिटगांव क्रांति पर शोध किया और उन्हें सबसे अधिक सामग्री अंग्रेजों की लिखी डायरियों से प्राप्त हुई।

उस दौर में चिटगांव में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों ने अपने ही विरुद्ध किए गए विद्रोह का सूक्ष्म ब्योरा लिखा था और वे दस्तावेज आज भी सलामत हैं। अंग्रेजों के पास अद्भुत इतिहास बोध रहा है। मुगलों ने भी अपने दरबार में घटनाओं को दर्ज करने के लिए वेतनभोगी इतिहासकार नियुक्त किए थे। राजाओं और बादशाहों के वेतनभोगी लोग तटस्थ कैसे हो सकते थे? अंग्रेजों ने स्वयं के खिलाफ गई बातों को भी दर्ज किया है। जबलपुर के राजेंद्र चंद्रकांत राय ने भी फिलिप मेडोस टेलर की किताब ‘कंफेशंस ऑफ ए ठग’ का अनुवाद हिंदी में किया है। उन्होंने अपनी किताब ‘फिरंगी ठग’ के लिए सामग्री विलियम स्लीमेन से प्राप्त की।

बहरहाल आशुतोष गोवारीकर की फिल्म का नाम ‘खेलें हम जी जान से’ शायद इसलिए रखा गया है कि चिटगांव क्रांति में 56 किशोरों ने अपने फुटबॉल के मैदान को बचाने के लिए जान की बाजी खेली और अंग्रेजी साम्राज्य को इस घटना ने जड़ से हिला दिया। फुटबॉल मैदान के अंग्रेजों द्वारा किए गए अवैध कब्जे से व्यथित इन किशोरों की शहादत देश के नाम ही मानी जाएगी।

आज प्राय: सुनते हैं कि धर्म के नाम पर आतंकवादी किशोरों के हाथों में हथियार दे रहे हैं और उनके दिलों में अंधी नफरत भर रहे हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि संगठित अपराध भी बच्चों और किशोरों को गुमराह कर रहा है। इसी विषय पर बनी है फिल्म ‘अल्लाह के बंदे’। तीसरी ओर हम देखते हैं कि किशोरों को वीडियो गेम्स का नशा परोसा जा रहा है।

इंटरनेट पर प्रवाहित गटर से भी अश्लीलता उन्हें उपलब्ध है। जब बच्चों और किशोरों के अवचेतन के साथ इतने भयंकर खेल खेले जा रहे हैं, तब एक साहसी फिल्मकार किशोरों द्वारा की गई क्रांति का विवरण प्रस्तुत कर रहा है। 18 अप्रैल 1930 को चिटगांव में घटित सत्यघटना पर आधारित यह फिल्म एक साहसी प्रयास है। आज परिवारों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि टेक्नोलॉजी के घटाटोप में बच्चों और किशोर वर्ग के लिए आदर्श कैसे तय करें।

आज मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसी जा रही है। सत्य को उबाऊ घोषित किया जा रहा है। सत्यमेव जयते संसद से लेकर तमाम छोटे-बड़े दफ्तरों की दीवारों पर जड़ा है और जीवन के रंगों तथा रोशनियों में आकंठ डूबे हुए लोग उसे दीवार के रंग का खलल और बेजान दाग-धब्बा मान रहे हैं। इस माहौल में एक फिल्मकार अब भी जाग रहा है और हम तमाशबीन हैं ठीक उस प्रहरी की तरह जो नींद में ‘जागते रहो’ कहकर सो जाता है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,11.11.2010)।

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