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Monday, August 16, 2010

...तो सिनेमा में ही जिन्दा रहेंगे लोकगीत

‘पीपली (लाइव)’ में जब ‘महँगाई डायन..’ गाया जाता है तो हॉल की प्रतिक्रिया देखने लायक होती है। चारों ओर से तालियों और सीटियों की संगत गूँजती है। ‘ससुराल गेंदा फूल’ के बाद एक बार फिर हिन्दी सिनेमा के बहाने लोक गीतों की धूम है। ‘महँगाई डायन..’ तो संसद में भी गूँज चुका है लेकिन विडम्बना देखिए कि लोकगीत अब वहाँ नहीं दिखते जहाँ इन्हें होना चाहिए था। लोक गीत हमार समाज से गुम हो रहे हैं और पीढ़ियों से चली आ रही विरासत, जिसे एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को मौखिक परम्परा के रूप में सुपुर्द करती रही है, कहीं खो रही है। संभव है आप शहरों से दूर किसी गाँव की ओर निकल पड़ें तो सड़क किनारे सावन-भादों में कुछ झूले दिख जाएँ या फिर गाँवों-कस्बों में नाते-रिश्तेदार के घर होने वाले मांगलिक आयोजनों में आज भी कुछ औरतें ढोलक लेकर जुट जाएँ लेकिन अब ये दृश्य कमतर हो रहे हैं। आर्थिक संरचना बदलने से लोक गीत अब वहाँ नहीं दिखते जहाँ इन्हें होना चाहिए था। लोक गीतों पर शोधपूर्ण कार्य करने वाली और ‘अवधी के लोक गीत-समीक्षात्मक अध्ययन’ एवं ‘लोक मानस’ सहित कई पुस्तकों की लेखिका विद्याबिन्दु सिंह कहती हैं कि आज छोटे-छोटे गाँवों तक में शादी एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर फिल्मी गीत बजते हैं। ऐसे में लोकगीतों के लिए अवसर ही नहीं बचता। लेकिन कुशीनगर के अपने जोगिया गाँव में लोक गीतों के संरक्षण को लेक र कई आयोजन कर चुके कथाकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा एक दूसरे कारण की ओर इशारा क रते हैं। वह कहते हैं कि लोक गीत गाँवों की आर्थिक संरचना पर आधारित थे। पीसने-कूटने, रोपनी-सोहनी के गीत थे। अब वह आर्थिक संरचना ही बदल चुकी है। तो क्या इन गीतों को हम इसी प्रकार खत्म होते देखते रहेंगे? लोकप्रिय गायिका मालिनी अवस्थी, जो इन दिनों ‘महुआ’ चैनल पर भोजपुरी गीतों के रियलिटी शो ‘सुर संग्राम’ का संचालन कर रही हैं, कहती हैं कि लोकगीत किताबों म सहेजकर नहीं रखे जा सकते। ये श्रुतिपरम्परा से आगे बढ़ते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के बहाने हमें इन्हें सुनने-सुनने के अवसर बढ़ाने होंगे। वरिष्ठ लोक गायिका कमला श्रीवास्तव कहती हैं कि लोक गीतों और उनकी धुनों को बचाए रखने के लिए मैंने विभिन्न संस्थाओं के साथ मिलकर पिछले कई वर्षों से कार्यशालाओं के आयोजन किए हैं जिससे इनसे नई पीढ़ी जुड़ सके ।

लोकगायिका मालिनी अवस्थी कहती हैं कि बड़ी संख्या में ऐसे लोकगीत हैं जो ऐ भौजी,ऐ ननदी या दूसरे रिश्तेदारों के सम्बोधन से शुरू होते हैं लेकिन आज संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है। देवरा,ससुरा के बारे में बताने वाले लोकगीत अब गाए भी कैसे जाएं जब जीवन में इन रिश्तों की महक गायब हो गई है। सामाजिक जीवन बदल गया है। झूले,पेड़ों,बाग़-बगीचों से निकलकर हमारे लॉन और ड्राइंग रूम में आ गए हैं(अनिल पराड़कर,हिंदुस्तान,लखनऊ,15.8.2010)।

1 comment:

  1. बहुत अच्छा आलेख धन्यवाद-----अशोक बजाज "ग्राम चौपाल"

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